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Saturday, January 29, 2011

उत्तराखंड विचार: कुछ खट्टा-कुछ मीठा

पहाड़ के बच्चे नहीं मना पाते गणतन्त्र दिवस 
शीतकालीन विद्यालय रहते हैं बन्द, अधिकांश बच्चों को नहीं पता कैसे मनाते हैं गणतन्त्र दिवस
नवीन जोशी, नैनीताल। देश की युवा पीढी यानी बच्चों के बिना गणतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती, पर उत्तराखंड में ऐसा हो रहा है. प्रदेश के पहाडी  अंचलों में अधिकांश बच्चों को गणतन्त्र दिवस मनाने के बारे में जानकारी नहीं है। कारण,  उनके विद्यालय गणतन्त्र दिवस के दौरान शीतकालीन अवकाश के  लिए बन्द होते हैं, इसलिए न स्कूलों में गणतन्त्र दिवस का आयोजन होता है, और न ही बच्चों को देश के गणतन्त्र के इस मान राष्ट्रीय पर्व के आयोजन की जानकारी हो पाती है। 
उल्लेखनीय है कि गणतन्त्र दिवस देश की आजादी का वास्तविक पर्व है। इसी दिन से राष्ट्र में अपने संविधान के साथ अपना राज कायम हुआ था। देश भर में यह आयोजन खासकर विद्यालयों में बेहद हर्षोल्लास से मनाया जाता है। लेकिन नैनीताल जनपद से ही बात शुरू करें तो यहाँ कुल 96 प्राथमिक विद्यालयों में से 2 तथा जूनियर हाईस्कूल से इंटरमीडिएट तक के 9 सरकारी, मुख्यालय का एक स्थानीय निकाय संचालित नगर पालिका नर्सरी स्कूल एवं तीन अर्धशासकीय विद्यालयों भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय, सीआरएसटी इंटर कालेज व मोहन लाल साह बालिका विद्या मन्दिर के साथ ही सभी निजी पब्लिक स्कूलों में इन दिनों शीतकालीन अवकाश होने के कारण गणतन्त्र दिवस का आयोजन नहीं होता है। मुख्यालय में जहाँ अन्य राष्ट्रीय पर्वों पर सुबह प्रभात फेरी से लेकर अपराह्न तक कार्यक्रम बच्चों से ही गुलजार रहते हैं, वहीँ गणतन्त्र दिवस में बच्चे नहीं होते तो अन्य लोग भी कमोबेश इस राष्ट्रीय पर्व को औपचारिक ही मनाते हैं। शिक्षक अन्य संस्थानों में उपस्थिति दर्ज कराकर औपचारिकता निभा लेते हैं। वर्षों से ऐसा परिपाटी के रूप में हो रहा है। इसका एक नुकसान यह भी है कि बच्चों को गणतन्त्र दिवस के  इस महत्वपूर्ण आयोजन की जानकारी भी नहीं हो पाती है, या तब हो पाती है, जब वह ग्रीष्मकालीन अवकाश वाले विद्यालयों में जाते हैं। इसका निदान क्या हो यह एक विचारणीय प्रश्न हो सकता है।

पाकिस्तान का स्वंत्रता दिवस मनाया जाता है यहाँ !
यह आम बात है कि ख़ास कर निजी महंगे पब्लिक स्कूलों में त्योहारों के दिन अवकाश होने के कारण इन्हें पहले दिन ही मन लिया जाता है। गणतंत्र दिवस 25 जनवरी को तथा गांधी जयन्ती एक अक्टूबर को मनाकर औपचारिकता निभा ली जाती है। इन तिथियों के अखबार उठा कर देख लें पुष्टि हो जायेगी । यहाँ तक तो गलती कुछ हद तक माफी योग्य शायद हो भी, लेकिन यदि देश के भविष्य को तैयार महंगी फीस लेकर तैयार करने वाले यह स्कूल स्वतंत्रता दिवस को भी एक दिन पहले यानी 14 अगस्त को मना लें तो इसे क्या कहेंगे ? जान लें 14 अगस्त हमारा नहीं हमारे पड़ोसी दुश्मन राष्ट्र पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस है। आसपास नजर डालिए, कहीं आपके बच्चे के स्कूल में भी तो ऐसा नहीं हो रहा ? नैनीताल के तो अधिकाँश पब्लिक स्कूलों में ऐसा वर्षों से हो रहा है ।


....क्योंकि हमने अपनी `ताकतों´ को अपनी `कमजोरी´ बना लिया है ! 



हते हैं `पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं´, लेकिन `पालने´ की उम्र से बहुत पहले बाहर निकलकर 10 वर्ष के 'किशोर' होने जा रहे उत्तराखण्ड के `पांव´ कहां जा रहे हैं, यह कहना अभी भी मुश्किल ही बना हुआ है। इस उम्र तक आने में इसके `पालनहारों´ ने इसे कई दिशाओं में चलाने के दावे-वादे किऐ हैं, लेकिन यह कहीं पहुंचना तो दूर शायद अभी ठीक से चलना भी प्रारंभ नहीं कर पाया है। इसकी इस `गत´ का कारण एक से अधिक नावों का सवार होना भी माना जा सकता है, लेकिन असल कारण यह है कि इस अत्यधिक संभावनाओं वाले राज्य ने अपनी ताकतों को अपनी कमजोरी बना लिया है। हमने अपने संसाधनों का सदुपयोग करना दूर, उन पर पाबन्दियां लगा कर उन्हें निरुपयोगी बना दिया है। दरवाजे बन्द कर दिऐ हैं। हम ढांचागत सुविधाऐं बढ़ाने जैसे कार्य नहीं कर रहे हैं, कर रहे हैं तो बिना सोचे-समझे, और बेहद जल्दबाजी में, बिना गहन अध्ययन के दूसरों के ज्ञान को बिना पड़ताल किऐ आत्मसात करने के। ऐसे में एक कदम आगे बढ़ाते हैं तो दो कदम पीछे लौटने को मजबूर होते हैं।




बात कहीं से भी शुरू कर लीजिऐ। उत्तराखण्ड को पर्यटन प्रदेश कहा गया। लेकिन सैलानियों की जरूरतों का खयाल नहीं रखा गया। पर्यटक स्थलों में ढांचागत सुविधाओं को बढ़ाना व सुधारना तो दूर 10 वर्ष बाद भी पर्यटन विभाग का ढांचा ही नहीं बनाया गया। हालत यह है कि राज्य की पर्यटन राजधानी नैनीताल में विभाग के नाम पर केवल तीन कर्मचारी हैं। राज्य में बाहर से आवागमन की सुविधाऐं नहीं बढ़ाई गईं। जो सैलानी पहुंचते भी हैं, उन्हें अपेक्षित मौज मस्ती के अवसर देने से हमारी संस्कृति पर दाग लग जाते हैं। लिहाजा हमने उनसे प्रकृति के अलावा अपनी संस्कृति सहित सब कुछ छुपाकर रखा है। हम उन्हें अच्छी शराब तक नहीं दे सकते। शराब कहने सुनने में शायद बुरा लग रहा हो, (इस पर यह साफ़ करते हुए कि में स्वयं व मेरे परिवार में कोई शराब नहीं पीता, और मैं शराब समर्थक भी नहीं हूँ) याद रखना होगा कि हमें अपने यहां पर्यटन विस्तार के लिए गोवा, मारीशश व सिंगापुर आदि सस्ते और `सर्वसुविधा´ वाले पर्यटक स्थलों से मुकाबला करना है, तभी हम पर्यटन प्रदेश बन सकते हैं। लेकिन जाहिर है, हम ऐसा नहीं कर सकते। कोई भी व्यक्ति जब जीवन के बेहद तनाव भरे क्षणों से बमुश्किल छुटि्टयां निकालकर घर से बाहर निकलता है तो स्वच्छन्दता चाहता है, और उसे हम अपने यहां स्वच्छन्दता तो हरगिज नहीं दे सकते। हां, आते ही उनका स्वागत हमारे `मित्र पुलिस´ के परेशानहाल जवान `यहां पार्किंग ही नहीं है तो इतनी बड़ी गाड़ियां लेकर आते ही क्यों हो´ सरीखी फब्तियां कस कर करते हैं। हम पर्वतारोहण कराकर ही देश-दुनिया के सैलानियों को आकर्षित कर सकते थे, लेकिन हमने 40 हजार रुपऐ से अधिक शुल्क नियत कर इस ओर भी रास्ते जैसे बन्द कर दिऐ हैं। 
बात वापस शराब पर मोड़ते हैं। `सूर्य अस्त...´ के रूप में अभिशप्त हमारे पहाड़ के जहां हजारों घर शराब की भेंट चढ़ रहे हैं, वहीं यह भी सार्वभौमिक सत्य है कि करों के बाद शराब ही हमारे राज्य की तिजोरी की सर्वाधिक `सेहत´ सुधार रही है। बावजूद हमारे `तारणहार´ मुंह में 'शराब पर राज्य की तिजारी की निर्भरता खत्म करेंगे´ का `राम´ बोलते हुऐ बगल में `हर वर्ष शराब विक्रेताओं के लक्ष्य 10 से 25 फीसद तक बढ़ाकर´ छुरियां भांज रहे होते हैं। बावजूद शराब के शौकीनों के अनुसार उत्तराखण्ड की शराब देश में सर्वाधिक महंगी और गुणवत्ता में घटिया है। राज्य की सेहत सुधार रही शराब सैलानियों को पिलाकर हम अपनी आर्थिकी भी सुधार सकते थे, किन्तु हमने शराब का काम करने वाले लोगों को `शराब माफिया´ शब्द दे दिया है, इसलिए हम खुद यह काम नहीं कर सकते, भले इस शब्द का लोकलाज भय दिखाकर बाहर के लोग हमें शराब पिलाकर मार डालें, और खुद `फिल्म निर्माता´ और इस लायक तक हो जाऐं कि सरकारों को बदल डालें।
हमने अपनी वन संपदा, चिड़ियां, जैव संपदा बचाई है, जिसे दिखाकर भी हम सैलानियों से लाखों कमा सकते हैं। राज्य की आर्थिकी की प्रमुख धुरी जल, जंगल, जमीन और जवानी भी हो सकते हैं। बात राज्य के 65 फीसद से अधिक भूभाग पर फैले वनों की करें तो इन से रोजगार की भी प्रचुर संभावनाऐं हो सकती थीं। लेकिन हमारे यहां जो भी वन संपदा संबंधी कार्य करेगा, उनके लिए हमने `वन माफिया´ शब्द मानो `पेटेंट´ कर रखा है। चीड़, यूकेलिप्टस, पापुलर जैसे पेड़ जो हमारी आर्थिकी का मजबूत आधार हो सकते हैं, उन्हें हमने `विदेशी´, `पर्यावरण  शत्रु´ और बांज के जंगलों के `घुसपैठिऐ´ आदि  शब्द दे डाले हैं। लीसा खोप कर हमारे यहां हजारों लोगों के घरों में चूल्हा जलता था, हमारी पिछली पीढ़ी लीसे के छिलकों से पढ़कर ही आगे बढ़ी, लेकिन लीसे का कारोबार जो करे वह `लीसाचोर´, लिहाजा इस क्षेत्र में कारोबार करने के रास्ते भी हमारे लिऐ बन्द। भले बाहर के लोग सारे जंगल तबाह कर डालें। इसी प्रकार हमारे यहां की खड़िया, रेता, बजरी आदि का कारोबार करने वाले `खनन माफिया´, सो हम अपने खेतों से पत्थर भी नहीं उठा सकते। भले अपनी उपजाऊ जमीनों पर हम खाईयां खुदवाकर अथवा खनन सामग्री के ढेर लगाकर उन्हें हमेशा के लिए बंजर बना दें। भले हमारी जीवनदायिनी नदियां, जमीनें कौड़ियों के भाव बाहर वालों को सालों, दशकों के लिए लीज पर दे दी जाऐं। हम पूरे एशिया को अकेले `प्राणवायु-आक्सीजन´ देने की क्षमता वाले अपने वनों को अपने `विकास की बलि देकर´ बचाने वाले गांवों को बदले में `कार्बन क्रेडिट´ लेकर सड़क की बजाय सीधे सस्ती या मुफ्त `रोप वे´ अथवा `हवाई सेवा´ दे सकते थे, पर ऐसी सोच सोचने में ही शायद अभी हमें वर्षों लगें।
`जल´ की बात करें तो हमें अपने पानी के उपयोग पर सख्त आपत्ति है। बड़े बांधों का हम विरोध करेंगे, छोटे हम बनाऐंगे नहीं। कोई हम जल विद्युत परियोजनाओं का विरोध करने वालों से पूछे तो सही कि हममें से कुछ को छोड़कर अन्य ने खुद कितना पानी बचाया। हम पर्यावरणप्रेमियों ने अखबारों में अपने प्रचार के लिए छपने में खर्च किऐ कागज से अधिक कितना पर्यावरण बचाया है। क्या हम दावे से कह सकते हैं कि जिन सड़कों का हमने विरोध किया, वैसी सड़कें हमने अपने घर तक भी नहीं बनने दीं। पर्यावरण बचाने के लिए क्या हमने अपनी लंबी गाड़ियां लेने से परहेज किया। हम कब तक `छद्मविद्´ बने रहेंगे। हमने अपने पनघट बन्द कर हमने गांव गांव तक डीजल चालित आटा चक्कियां बना लीं। जल संरक्षण के परंपरागत प्रबंध `बज्या´ दिऐ। गांवों के पुश्तैनी कार्य करने में हमें शर्म आती है। सड़कें हमारे गांव में आईं तो समृद्धि को करीब लाने के बजाय हमारे लिए `पलायन´ का रास्ता खोलने वाली साबित हुईं। हमारी सिंचाई विभाग की अरबों की परिसंपत्तियों पर यूपी आज भी कब्जा जमाऐ बैठा है। कुल मिलाकर हम अपनी करोड़ों रुपऐ की आय दे सकने वाली जल संपदा से कोई लाभ लेने का तैयार नहीं।
बात `जवानी´ की करें तो हमारे पढ़े-लिखे युवा जो अपनी दुरूह भौगोलिक व कठिनतम् प्राकृतिक परिस्थितियों से कम मेहनत के भी अच्छे एथलीट, कवि, लेखक, कलाकारखिलाड़ी, वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ, बुद्धिजीवी व प्रशासनिक अधिकारी के रूप में प्रदेश ही नहीं देश के लिए विश्वसनीय मानवशक्ति हो सकते हैं आज भी राज्य बनने से पूर्व की ही तरह `पलायन´ करने को मजबूर हैं। जो यहां बचते हैं, उन्हें भी राज्य `पेट पालने लायक´ रोजगार नहीं दिला पा रहा। लिहाजा वह नशे की अंधेरी खाई में बढ़ रहे हैं। वरन उनमें राष्ट्रविरोधी विचारधारा से प्रभावित होने का खतरा भी बेहद बढ़ गया है। कोई स्वरोजगार करने की सोचे भी तो सरकारी योजनाऐं उसे बेरोजगार से `कर्जदार´ बनाने पर तुली हुई हैं।


उपजाऊ जमीनें हमारे यहां शुरू से कम थीं, लेकिन ताकत के तौर पर जो तराई-भावर की उपजाऊ कृषि भूमि थी, उस पर हमने फसलों के बजाय उद्योग उगा लिऐ। जो कब `कट´ जाऐं, कुछ भरोसा नहीं। तब तक इन्हें बेचकर `उजड़े´ किसान भी खेती भूल, कीमत खर्च कर, चाकरी करने शहर जा चुके होंगे।
लोक संस्कृति के रूप में हम समृद्ध थे, किन्तु हमने अपनी पहचान नाड़ा बाहर लटके धारीदार `घोड़िया´ पैजामा, फटा कुर्ता और टेढ़ी बदबूदार टोपी पहने 'जोकर नुमा' व्यक्ति के रूप में बना ली। अपनी `दुदबोली´ को बोलने में `शरम´ की, और मानो किस्मत फोड़ ली। उसे लिखने, पढ़ने की बात तो बहुत दूर की ठैरी। स्वयं की पहचान, स्वयं में अपनी पहाड़ी होने की `शिनाख्त´ के निशानों को छुपाने में हमारा कोई सानी नहीं। `धौनी´ से लेकर हमारा आम पहाड़ी अपनी पहचान बताने में आख़िरी दम तक संकोच नहीं छोड़ता। अपने धुर पहाड़ी गांव में `डीजे´ पर `बोलो तारा रा रा´ पर `भांगड़ा´ करने में हम `माडर्न लुक´ देने वाले ठैरे। कैसेट में हमारी बहनें रंग्वाली पिछौड़ा पहनकर घास काटने और अपने परदेश गऐ `हीरो´ के लिए हिन्दी फिल्मी गीतों की पहाड़ी `पैरोडी´ गाने वाली ठैरीं।
इसी तरह हम जड़ी बूटी, आयुर्वेद, ऊर्जा, शिक्षा आदि प्रदेश बनने के दावे भी कर रहे हैं, पर उनकी तैयारी भी हमारी कितनी और कैसी है, जरा सोचें तो खुद समझ में आ जाता है। ऐसे में `जब जागें, तभी सवेरा´ मानकर हम स्वयं और अपनी क्षमताओं को पहचान व निखारकर समिन्वत रूप में सर्वोत्तम योगदान देने की कोशिश करें, और दूसरों की तिजोरियां भरने के बजाय अपने `घर´ को सजाऐं।
                                                                  (नैनीताल, 11 अगस्त, 2010)

....फिर क्या हो ? (दिवंगत गिर्दा को श्रद्धांजलि के साथ)



girda3.JPG........ऐसे में यह सोचना जरूरी हो जाता है कि जब हम अपने संसाधनों (मूलतः पानी, जवानी और जंगलों) का उपयोग नहीं होने देना चाहते, (इसलिए कि सरकारें उनका सदुपयोग या उपयोग करने की बजाय शोषण करने पर तुली हुई हैं) ऐसे में यह भी सच्चाई है कि हमारा भविष्य बेरोजगारी, मुफलिसी से भरा होने वाला है, ऐसा न हो, इससे बचने के लिए क्या करें ? 
हम 'भोले-भाले' पहाड़ियों को हमेशा ही सबने छला है। पहले दूसरे छलते थे, और अब अपने छल रहे हैं हमने देश-दुनिया के अनूठे 'चिपको आन्दोलन' वाला वनान्दोलन लड़ा, इसमें हमें कहने को जीत मिली, लेकिन सच्चाई गिर्दा बताते थे गिर्दा को वनान्दोलन के परिणामस्वरूप पूरे देश के लिए बने वन अधिनियम से हमारे हकूक और अधिक पाबंदियां आयद कर दिए जाने की गहरी टीस थी इसी तरह हमने राज्य आन्दोलन से अपना नयां राज्य तो हासिल कर लिया पर राज्य बनने से बकौल गिर्दा ही,"कुछ नहीं बदला कैसे कहूँ,  दो बार नाम बदला-अदला, चार-चार मुख्यमंत्री बदले", पर नहीं बदला तो हमारा मुकद्दर, और उसे बदलने की कोशिश तो हुई ही नहीं बकौल गिर्दा, हमने गैरसैण राजधानी इसलिए माँगी थी ताकि अपनी 'औकात' के हिसाब से राजधानी बनाएं, छोटी सी 'डिबिया सी' राजधानी, हाई स्कूल के कमरे जितनी 'काले पाथर' के छत वाली विधान सभा, जिसमें हेड मास्टर की जगह विधान सभा अध्यक्ष और बच्चों की जगह आगे मंत्री और पीछे विधायक बैठते, इंटर कोलेज जैसी विधान परिषद्, प्रिंसिपल साहब के आवास जैसे राजभवन तथा मुख्यमंत्रियों व मंत्रियों के आवास पहाड़ पर राजधानी बनाने के का एक लाभ यह भी कि बाहर के असामाजिक तत्व, चोर, भ्रष्टाचारी वहां गाड़ियों में उल्टी होने की डर से ही न आ पायें, और आ जाएँ तो भ्रष्टाचार कर वहाँ की सीमित सड़कों से भागने से पहले ही पकडे जा सकें गिर्दा कहते थे कि अगर गैरसैण राजधानी ले जाकर वहां भी देहरादून जैसी ही 'रौकात' करनी है तो अच्छा है कि उत्तराखंड की राजधानी लखनऊ से भी कहीं दूर ले जाओ यह कहते हुए वह खास तौर पर 'औकात' और 'रौकात' पर ख़ास जोर देते थे खैर...., बात शुरू हुई थी, फिर करें क्या से, पर गिर्दा मन-मस्तिष्क में ऐसे बैठे हैं कि... 

गिर्दा भी बड़े बांधों के विरोधी थे, उनका मानना था के हमें पारंपरिक घट-आफर जैसे अपने पुश्तैनी धंधों की ओर लौटना होगा यह वन अधिनियम के बाद और आज के बदले हालातों में शायद पहले की तरह संभव न हो, ऐसे में सरकारों व राजनीतिक दलों को सत्ता की हिस्सेदारी से ऊपर उठाकर राज्य की अवधारण पर कार्य करना होगा। हमारे यहाँ सड़कें इसलिए न बनें कि वह बेरोजगारों के लिए पलायन के द्वार खोलें, वरन घर पर रोजगार के अवसर ले कर आयें हमारा पानी बिजली बनकर महानगरों को ही न चमकाए व ए.सी. ही न चलाये, वरन हमारे पनघटों, चरागाहों को भी 'हरा' रखे हमारी जवानी परदेश में खटने की बजाये अपनी ऊर्जा से अपना 'घर' सजाये हमारे जंगल पूरे एशिया को 'प्राणवायु' देने के साथ ही हमें कुछ नहीं तो जलौनी लकड़ी, मकान बनाने के लिए 'बांसे', हल, दनेला, जुआ बनाने के काम तो आयें हमारे पत्थर टूट-बिखर कर रेत बन अमीरों की कोठियों में पुतने से पहले हमारे घरों में पाथर, घटों के पाट, चाख, जातर या पटांगड़ में बिछाने के काम तो आयें हम अपने साथ ही देश-दुनियां के पर्यावरण के लिए बेहद नुक्सानदेह पनबिजली परियोजनाओ से अधिक तो दुनियां को अपने धामों, अनछुए प्राकृतिक सुन्दरता से भरपूर स्थलों को पर्यटन केंद्र बना कर ही और अपनी 'संजीवनी बूटी' सरीखी जड़ी-बूटियों से ही कमा लेंगे हम अपने मानस को खोल अपनी जड़ों को भी पकड़ लेंगे, तो लताओं की तरह भी बहुत ऊंचे चले जायेंगे.......
                                                                        (नैनीताल, 24 अगस्त, 2010)

वनान्दोलन से ठगे जाने की टीस थी दिवंगत 'गिर्दा' को



पहाड़ के छोटे से भूभाग का आन्दोलन बना था देश भर के लिए वन अधिनियम 1980 का प्रणेता, लेकिन इससे पहाड़ वासियों को मिला कुछ नहीं उल्टे हक हुकूक छिन गऐ 
1972 से शुरू हुऐ पहाड़ के एक छोटे से भूभाग का वन आन्दोलन, चिपको जैसे विश्व प्रसिद्ध आन्दोलन के साथ ही पूरे देश के लिए वन अधिनियम 1980 का प्रणेता भी रहा। लेकिन यह सफलता भी आन्दोलनकारियों की विफलता बन गई। दरअसल शासन सत्ता ने आन्दोलनकारियों के कंधे का इस्तेमाल कर अपने हक हुकूक के लिए आन्दोलन में साथ दे रहे पहाड़वासियों से उल्टे उनके हक हुकूक और बुरी तरह छीन लिऐ थे। आन्दोलनकारियों को अपने ही लोगों के बीच गुनाहगार की तरह खड़ा कर दिया था। आन्दोलनकारियों में यह टीस आज भी है।वनान्दोलन से गहरे जुड़े जनकवि गिरीश तिवारी `गिर्दा´ से जब वनान्दोलन की बात चलते हुऐ वन अधिनियम 1980 की सफलता तक पहुंचती है, उनके भीतर की टीस बाहर निकल आती है। वह खोलते हैं, 1972 में वनान्दोलन शुरू होने के पीछे लोगों की मंशा अपने हक हुकूकों को बेहतरी से प्राप्त करने की थी। यह वनों से जीवन यापन के लिए अधिकार की लड़ाई थी। सरकार स्टार पेपर मिल सहारनपुर को कौड़ियों के भाव यहां की वन संपदा लुटा रही थी। इसके खिलाफ ऐतिहासिक वन आन्दोलन हुआ, लेकिन जो वन अधिनियम मिला, उसने स्थितियों को और अधिक बदतर कर दिया है। इससे जनभावनाऐं साकार नहीं हुईं। जनता की स्थिति यथावत बनी हुई है। तत्कालीन पतरौलशाही के खिलाफ जो आक्रोश था, वह आज भी है। औपनिवेशिक व्यवस्था ने जन के जंगल के साथ जल भी हड़प लिया। वन अधिनियम से वनों का कटना नहीं रुका, उल्टे वन विभाग का उपक्रम वन निगम ही और विल्डर वनों को बेदर्दी से काटने लगे। साथ ही ग्रामीण भी परिस्थितियों के वशीभूत ऐसा करने को मजबूर हो गऐ। अधिनियम का पालन करते वह अपनी भूमि के व्यक्तिगत पेड़ों तक को नहीं काट सकते थे। उन्हें हक हुकूक के नाम पर गिनी चुनी लकड़ी भी मीलों दूर मिलती। इससे उनका अपने वनों से आत्मीयता का रिश्ता खत्म हो गया। वन जैसे उनके दुश्मन हो गऐ, जिनसे उन्हें अपनी व्यक्तिगत जरूरतों की चीजें तो मिलती नहीं, उल्टे वन्यजीव उनकी फसलों और उन्हें नुकसान पहुंचा जाते हैं। इसलिऐ अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए ग्रामीण महिलाऐं वनाधिकारियों की नज़रों से बचने के फेर में बड़े पेड़ों की टहनियों को काटने की बजाय छोटे पेड़ों को जल्द काट गट्ठर बना उनके निसान तक छुपा देती हैं। इससे वनों की नई पौध पैदा ही नहीं हो रही। पेड़ पौधों का चक्र समाप्त हो गया है। अब आप गांव में अपना नया घर बनाना दूर उनकी मरम्मत तक नहीं कर सकते। आपका न अपने निकट के पत्थरों, न लकड़ी की `दुन्दार´, न `बांस´ और न छत के लिऐ चौडे़ `पाथरों´ पर ही हक रह गया है। पास के श्रोत का पानी भी आप गांव में अपनी मर्जी से नहीं ला सकते। अधिनियम ने गांवों के सामूहिक गौचरों, पनघटों आदि से भी ग्रामीणों का हक समाप्त करने का शडयन्त्र कर दिया। उनके चीड़ के बगेटों से जलने वाले आफर, हल, जुऐ, नहड़, दनेले बनाने की ग्रामीण काष्ठशालाऐं, पहाड़ के तांबे के जैसे परंपरागत कारोबार बन्द हो गऐ। लोग वनों से झाड़ू, रस्सी को `बाबीला´ घास तक अनुमति बिना नहीं ला सकते। यहां तक कि पहाड़ की चिकित्सा व्यवस्था का मजबूत आधार रहे वैद्यों के औशधालय भी जड़ी बूटियों के दोहन पर लगी रोक के कारण बन्द हो गऐ। दूसरी ओर वन, पानी, खनिज के रूप में धरती का सोना बाहर के लोग ले जा रहे हैं, और गांव के असली मालिक देखते ही रह जा रहे हैं। इसके साथ ही गिर्दा वन अधिनियम के नाम पर पहाड़ के विकास को बाधित करने से भी चिन्तित हैं। उनका मानना है कि विकास की राह में अधिनियम के नाम पर जो अवरोध खड़े किऐ जाते हैं उनमें वास्तविक अड़चन की बजाय छल व प्रपंच अधिक होता है। जिस सड़क के निर्माण से राजनीतिक हित न सध रहे हों, वहां अधिनियम का अड़ंगा लगा दिया जाता है।
                                      (गिर्दा से 20 अप्रैल, 2010 को हुए साक्षात्कार के आधार पर)

Saturday, October 23, 2010

जनकवि 'गिर्दा' की दो एक्सक्लूसिव कवितायें

उत्तराखंड के दिवंगत जनकवि गिरीश तिवाड़ी 'गिर्दा' (जन्म: 09 सितंबर 1945, निधन: 22 अगस्त 2010) की दो एक्सक्लूसिव कवितायें: 
1. 'ये जूता किसका जूता है'
 यह कविता गिर्दा ने मई 2009 में, केन्द्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम पर दैनिक जागरण के पत्रकार जरनैल सिंह द्वारा जूता मारने से प्रेरित होकर लिखी थी, और 3 मई 2009 को मेरे द्वारा आयोजित 'राष्ट्रीय सहारा' के कार्यक्रम "सही नेता चुने जनता" में पहली बार प्रस्तुत की थी इस कविता में कुमाउनी शब्द "भन्काया" पर गिर्दा का विशेष जोर देकर कहना था कि 'जूता मारा नहीं वरन गुस्से की पराकाष्ठा के साथ मारा है, जरूरी नहीं कि वह सामने वाले को छुवे ही, पर उसका असर होना अवश्यंभावी है ' 

ये जूता किसका जूता है, ये जूता किस पर जूता है ?
ये जूता खाली जूता है, या जूते के ऊपर जूता है ?
जिस पर यह जूता फैंका क्या, उस पर ही क्या यह जूता फेंका है ?
जिसने यह जूता फेंका आखिर, उसने क्यों कर फेंका है ?
क्या नालायक नेताओं की यह साजिश सोची समझी है ?
या नेताओं पर लोगों के गुस्से की यह अभिव्यक्ती है।
जूते की यात्रा लंबी है, जूते का मतलब गहरा है,
आखिर क्यों लोगों का गुस्सा, जूता `भनका´ कर निकला है ?
इन मुद्दों पर सोचो यारो, वर्ना हालत नाजुक होगी,
आगे यह स्थिति लोकतन्त्र के लिए बहुत घातक होगी।

2. `फिर चुनाव की रितु आने वाली है बल'
'संभवतया' जैसा अर्थ देने वाले व कुमाउनी में तकिया कलाम की तरह बोले जाने वाले शब्द 'बल' का ख़ास तरीके से हिंदी में प्रयोग करते हुए यह कविता गिर्दा ने वर्ष 2009 की होलियों में राज्य में हो रहे त्रि-स्तरीय पंचायत चुनावों के दौरान लिखी थी इसे वह ठीक-ठाक कर ही रहे थे कि मैंने इसे मांग लिया, और उन्होंने सहर्ष दे भी दी थी

फिर चुनाव की रितु आने वाली है बल, 
घर घर में तूफान मचाने वाली है बल,
हर दल में `मैं´`मैं´ का दलदल गहराया, 
यह `मैं´ जाने क्या कर जाने वाली है बल, 
सौ बीमारो को एक अनार दिखला, 
हो सके जहां तक मतकाने वाली है बल, 
संसद में नोटों का करतब दिखा चुके, 
अब `रैली´ में `थैली´ आने वाली है बल, 
फिर भी लगता अपने बल चलने वाली, 
कोई सरकार नहीं आने वाली है बल,
मिली जुली सरकारों का फिर स्वांग रचा, 
जाने कब तक ठग खाने वाली है बल, 
पर सब को ही नाच नचाने वाली है बल, 
जाने क्या क्या स्वांग दिखाने वाली है बल, 
फिर चुनाव की रितु आने वाली है बल´

Thursday, October 14, 2010

CWG: रिकार्ड पर रिकार्ड, क्वींस बेटन से ही हो गयी थी इतिहास रचने की शुरुआत

नवीन जोशी, नैनीताल। 1930 से हो रहे राष्ट्रमण्डल खेलों के 70 वर्षों के इतिहास में भारत को 19वें संस्करण में आयोजन का जो पहला मौका मिला है, उसे भारत ने बखूबी अपने पक्ष में किया है। चार वर्ष पूर्व मेलबर्न में आयोजित हुऐ 18वें राष्ट्रमण्डल खेलों में भारत के समरेश जंग ने प्रतियोगिता का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी बनकर घर में होने जा रहे खेलों में देश के खिलाड़ियों द्वारा इतिहास रचने का जो इशारा कर दिया था, उसमें भले वह अपना योगदान न दे पाए हों, पर भारतीय खिलाड़ियों ने सर्वाधिक 38 सवर्णों के साथ पदकों का शतक ( 27 रजत व 36 कांश्य के साथ (पिछले खेलों के 49 पदकों के दोगुने से भी अधिक) कुल 101 पदकों को "शगुन") बना कर इन खेलों के इतिहास में पहली बार दूसरे स्थान पर चढ़ने का इतिहास रच दिया है। यह भारत का किसी भी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन भी है। इससे पूर्व वर्ष 2002 के मैनचेस्टर खेलों में भारत ने सर्वाधिक 30 स्वर्ण, 22 रजत व 17 कांश्य के साथ कुल 69 व 2006 के मेलबर्न खेलों में सोने के 22 , चांदी के 17 व कांशे के 10 सहित केवल 49 पदक ही जीते थे। इसके अलावा भी भारत ने इन खेलों के उदघाटन व समापन समारोहों के एतिहासिक आयोजनों से दुनिया को अपनी सांस्कृतिक मजबूती के साथ ही विकास के पथ पर दुनियां हिला देने वाले हौंसले के दर्शन करा कर भी हिला कर रख दिया वैसे भारत ने खेलों के शुरू होने से पूर्व ही इन खेलों में परंपरागत रूप से प्रयोग होने वाली ऐतिहासिक क्वींस बेटन को रच कर ही कई मायनों में इतिहास रच कर रिकार्डों की लंबी श्रृंखला बनाने का इशारा कर दिया था।

  • इतिहास में पहली बार पाया है इतिहास और भविष्य का समिन्वत व हाई-टेक अन्दाज 
  • देश के विभिन्न प्रान्तों की मिट्टी से लेकर सोना तक लगा है बेटन में 
ओलम्पिक खेलों में मशाल की तरह राष्ट्रमण्डल खेलों में 1958 से क्वींस बेटन प्रयुक्त की जाती है। ओलम्पिक व एशियाई खेलों के बाद 71 देशों की सहभागिता वाले राष्ट्रमण्डल प्रतियोगिय दुनिया के तीसरे सबसे बड़ी प्रतियोगिता मानी जाती है परंपरा है कि जिस देश में इन खेलों का आयोजन होता है, बेटन के निर्माण का अधिकार भी उसी को मिलता है। इस प्रकार इस बार के राष्ट्रमण्डल खेलों के लिए 29 अक्टूबर 2009 को इंग्लेण्ड के बकिंघम पैलेस से महारानी के हाथों से राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल  के हाथों होकर निकली 900  ग्राम  वजनी व 66 सेमी लम्बाई की 'क्वींस बेटन´ ने कई मायनों में इतिहास रचते हुऐ भारत की उछ तकनीकी दक्षता का झंडा भी विश्व के समक्ष बुलंद कर दिया था। सही मायनों में बेटन देश ही नहीं दुनिया की आधुनिकतम तकनीकों के साथ ही भारतीय परम्पराओं व शिल्प का अद्भुत संगम के साथ बनाई गयी 
यह पहला मौका था जब बेटन पर लिखा महारानी के राष्ट्रमण्डल खेलों के शुभारम्भ के मौके पर परंपरागत तौर पर पढ़े जाने वाले सन्देश को पहले भी देखा जा सकता था। पहले यह सन्देश बेटन में छुपाकर रखा जाता था, किन्तु इस बार देश के इंजीनियरों ने इस हेतु ख़ास लेजर तकनीक का प्रयोग किया, जिससे सन्देश पहले दिख तो सकटा था, परन्तु शुभारम्भ से पहले पढ़ा नहीं जा सकटा था यह  सन्देश बेटन के सबसे ऊपरी शिरे पर स्थित शीशे के नीचे एक सोने की पत्ती आकार के संरचना पर लिखा गया था। इसके पीछे सोच यह है की प्राचीन काल में भारत में सन्देश पत्तियों पर ही लिख कर भेजे जाते थे । 
इसके अलावा बेटन की सतह पर जो कई रंगों की धारियां दिख रही थीं, वह वास्तव में देश के सभी राज्यों की 'लेमिनेट' की गयी रंग-बिरंगी रेत थीं, जो देश के सभी राज्यों के बेटन में प्रतिनिधित्व के साथ ही देश की 'विविधता में एकता' की शक्ति का भी सन्देश देती थीं। बेटन का निर्माण बंगलौर की कंपनी फोले डिजाइनर द्वारा भारत इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड व टाईटन की मदद से किया गया 
बेटन में एक और ख़ास विशेषता इसके स्वरुप में छुपी थी, वह थे इसमें हवा के प्रवाह के अनुकूल दौड़ते समय संतुलन बनाने के लिए `एयरो डायनेमिक बैण्ड´। साथ ही बेटन में अत्याधुनिक उपकरणों के रूप में कैमरा, वाइस रिकार्डर के साथ ही जीपीएस सिस्टम भी लगा हुआ था, जो बेटन की यात्रा के दौरान उसकी भौगोलिक स्थिति पर नज़र रखने के साथ ही रिकार्ड भी करता रहता था।बेटन साफ्टवेयर के सहारे साथ चल रहे लेपटॉप से भी जुड़ी हुई थी, जिस कारण इसके रिले के दौरान की गतिविधियों को राष्ट्रमण्डल खेलों की वेबसाइट पर देखा जा सकता था। 
यही नहीं बेटन को `बेटन स्पेस मैसेज स्पेस नाम स्पेस व शहर का नाम´ लिखकर 53030 पर एसएमएस सन्देश भी भेजे जा सकते थे। इनमें से चुनिन्दा सन्देश वेबसाइट पर देखे जा सकते हैं। 
एक और खास बात, बेटन पर बनीं पारदर्शी धारियां एलईडी तकनीक पर रात्रि में उस देश के झंडे के रंगों में चमक कर अपनत्व का भाव दिखाती थीं, इससे बेटन जिस देश में मौजूद  होती थी, वहाँ का झंडा दिखाती थी, ऐसा इसके जीपीएस व कम्प्यूटर से जुड़े होने के कारण `ऑटोमेटिक´ होता है। 
क्वीन्स बेटन रिले समिति के निदेशक कर्नल केएस बनस्तू ने बताया कि बाघा बार्डर के रास्ते पाकिस्तान से भारत में आते ही इस पर स्वतः झण्डा बदल गया। अपनी अब तक की यात्रा के दौरान बेटन ने एक और रिकार्ड अपने नाम किया, वह यह कि इस बार इसने सर्वाधिक 1.9 लाख किमी की यात्रा की, जबकि पिछले मेलबर्न राष्ट्रमण्डल खेलों में बेटन ने इस वर्ष के मुकाबले करीब आधी दूरी ही तय की थी।
इसके अलावा भी दिल्ली में हुए राष्ट्रमण्डल खेलों में पहली बार सर्वाधिक 73 देशों के 7 ,000 खिलाड़ियों के 828 पदकों की होड़ में भाग लेने का रिकार्ड भी बना, जबकि इससे  पूर्व 2006 में सर्वाधिक 4049 खिलाड़ियों ने भाग लिया था। इसके साथ ही इस वर्ष 2002 के बराबर सर्वाधिक 17 खेलों की प्रतियोगिताएं हुईं। इसके साथ ही भारत ने उदघाटन व समापन अवसरों पर जैसी आतिशबाजी के साथ भव्य कार्यक्रम किये, उससे देश-विदेश की आँखें चुधियाये बिना नहीं रह पायीं हैं। आगे अब देश की निगाह अपने पदक विजेता खिलाड़ियों पर 12 से 27 नवम्बर के बीच चीन के ग्वांगझू में होने वाले 16वें एशियाड खेलों के लिए रहेगी, जहाँ "भारत के धर्म" कहे जाने वाले क्रिकेट व "भारत के ग्रामीण खेल" कबड्डी सहित 42 खेलों की 476 प्रतियोंगिताओं में 476 स्वर्ण पदकों के लिए 45 देशों के बीच मुकाबला होगा. 

Sunday, October 10, 2010

अमेरिका, विश्व बैंक, प्रधानमंत्री जी और ग्रेडिंग प्रणाली


हाल में आयी एक खबर में कहा गया है 'विश्व बैंक ने भारत को अधिक से अधिक बच्चों को शिक्षा सुविधाएं मुहैया कराने के लिए एक अरब पांच करोड़ डॉलर यानी 5,250 करोड़ रुपये से अधिक के ऋण की मंजूरी दे दी है। यह ऋण सरकार द्वारा चलाए जा रहे सर्व शिक्षा अभियान की सहायता के लिए दिया जाएगा।' यह शिक्षा के क्षेत्र में विश्व बैंक का अब तक का सबसे बड़ा निवेश तो है ही, साथ ही यह कार्यक्रम विश्व में अपनी तरह का सबसे बड़ा कार्यक्रम है। 


इसके इतर दूसरी ओर  इससे भी बड़ी परन्तु दब गयी खबर यह है कि भारत सरकार देश भर के स्कूलों में परंपरागत आंकिक परीक्षा प्रणाली को ख़त्म करना चाहती है, वरन देश के कई राज्यों की मनाही के बावजूद सी.बी.एस.ई. में इस की जगह 'ग्रेडिंग प्रणाली' लागू कर दी गयी है 

तीसरे कोण पर जाएँ तो अमेरिका भारतीय पेशेवरों से परेशान है. कुछ दशक पहले नौकरी करने अमेरिका गए भारतीय अब वहां नौकरियां देने लगे हैं अमेरिका की जनसँख्या के महज एक फीसद से कुछ अधिक भारतीयों ने अमेरिका की 'सिलिकोन सिटी' के 15 फीसद से अधिक हिस्सेदारी अपने नाम कर ली हैउसे भारतीय युवाओं की दुनिया की सर्वश्रेष्ठ ऊर्जा तो चाहिए, पर नौकरों के रूप में, नौकरी देने वाले बुद्धिमानों के रूप में नहीं

आश्चर्य नहीं इस स्थिति के उपचार को अमेरिका ने अपने यहाँ आने भारतीयों के लिए H 1 B व L1 बीजा के शुल्क में इतनी बढ़ोत्तरी कर ली है अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की गत दिनों हुई भारत यात्रा में भी यह मुख्य मुद्दा रहा 

अब एक और कोण, 1991 में भारत के रिजर्व बैंक में विदेशी मुद्रा भण्डार इस हद तक कम हो जाने दिया गया कि सरकार दो सप्ताह के आयात के बिल चुकाने में भी सक्षम नहीं थी। यही मौका था जब अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान संकट मोचक का छद्म वेश धारण करके सामने आये । देश आर्थिक संकट से तो जूझ रहा था पर विश्व बैंक और अन्तराष्ट्रीय मुद्राकोष को पता था कि भारत कंगाल नहीं हुआ है, और वह इस स्थिति का फायदा उठा सकते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के सुझाव पर भारतीय रिजर्व बैंक ने अपने भण्डार में रखा हुआ 48 टन सोना गिरवी रखकर विदेशी मुद्रा एकत्र की।  उदारवाद के मोहपाश में बंधे तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी सरकार और अन्तराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे थे। यही वह समय था जब सरकार हर सलाह के लिये विश्व बैंक - आईएमएफ की ओर ताक रही थी। हर नीति और भविष्य के विकास की रूपरेखा वाशिंगटन में तैयार होने लगी थी। याद कर लें, वाशिंगटन केवल अमेरिका की राजधानी नहीं है बल्कि यह विश्व बैंक का मुख्यालय भी है।  

अब वापस इस तथ्य को साथ लेकर लौटते हैं कि आज "1991 के तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह" भारत के प्रधानमंत्री हैं उन्होंने देश भर में ग्रेडिंग प्रणाली लागू करने का खाका खींच लिया है, वरन सी.बी.एस.ई. में (निदेशक विनीत जोशी की काफी हद तक अनिच्छा के बावजूद) इसे लागू भी कर दिया है इसके पीछे कारण प्रचारित किया जा रहा है कि आंकिक परीक्षा प्रणाली में बच्चों पर काफी मानसिक दबाव व तनाव रहता है, जिस कारण हर वर्ष कई बच्चे आत्महत्या तक कर बैठते हैं (यह नजर अंदाज करते हुए कि "survival of the fittest" का अंग्रेज़ी सिद्धांत भी कहता है कि पीढ़ियों को बेहतर बनाने के लिए कमजोर अंगों का टूटकर गिर जाना ही बेहतर होता है जो खुद को युवा कहने वाले जीवन की प्रारम्भिक छोटी-मोटी परीक्षाओं से घबराकर श्रृष्टि के सबसे बड़े उपहार "जीवन की डोर" को तोड़ने से गुरेज नहीं करते, उन्हें बचाने के लिए क्या आने वाली मजबूत पीढ़ियों की कुर्बानी दी जानी चाहिए

यह भी कहा जाता है कि फ़्रांस के एक अखबार ने चुनाव से पहले ही वर्ष २००० में सिंह के देश का अगला वित्त मंत्री बनाने की भविष्यवाणी कर दी थी....(यानी जिस दल की भी सरकार बनती, 'मनमोहन' नाम के मोहरे को अमेरिका और विश्व बैंक भारत का वित्त मंत्री बना देते)

कोई आश्चर्य नहीं, यहाँ "दो और लो (Give and Take)" के बहुत सामान्य से नियम का ही पालन किया जा रहा है  अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान कर्ज एवं अनुदान दे रहे हैं, इसलिये स्वाभाविक है कि शर्ते भी उन्हीं की चलेंगी। लिहाजा हमारे प्रधानमंत्री जी पर अमेरिका का भारी दबाव है, "तुम्हारी (दुनियां की सबसे बड़ी बौद्धिक शक्ति वाली) युवा ब्रिगेड ने हमारे लोगों के लिए बेरोजगारी की  समस्या खड़ी कर दी है, विश्व बेंक के 1.05 अरब डॉलर पकड़ो, और इन्हें यहाँ आने से रोको, भेजो भी तो हमारे इशारों पर काम करने वाले कामगार....हमारी छाती पर मूंग दलने वाले होशियार नहीं...समझे....", और प्रधानमंत्री जी ठीक सोनिया जी के सामने शिर झुकाने की अभ्यस्त मुद्रा में 'यस सर' कहते है, और विश्व बैंक के दबाव में ग्रेडिंग प्रणाली लागू कर रहे हैं

उनके इस कदम से देश के युवाओं में बचपन से एक दूसरे से आगे बढ़ने की प्रतिद्वंद्विता की भावना और "self motivation" की प्रेरणा दम तोड़ने जा रही है देश की आने वाली पीढियां पंगु होने जा रही हैं अब उन्हें कक्षा में प्रथम आने, अधिक प्रतिशतता के अंक लाने और यहाँ तक कि पास होने की भी कोई चिंता नहीं रही शिक्षकों के हाथ से छड़ी पहले ही छीन चुकी सरकार ने अब अभिभावकों के लिए भी गुंजाइस नहीं छोडी कि वह बच्चों को न पढ़ने, पास न होने या अच्छी परसेंटेज न आने पर डपटें भी

Saturday, October 9, 2010

यहां रहीम बनाते हैं रावण और सईब सजाते हैं रामलीला

8ntl1.jpg picture by NavinJoshi

(रामलीला में पात्र के `मेकअप´ में तल्लीन सईब अहमद)
नवीन जोशी, नैनीताल। `दीवाली में अली और रमजान में राम´ का सन्देश शब्दों से इतर यदि कहीं देखना हो तो सर्वधर्म की नगरी नैनीताल सबसे उम्दा पड़ाव हो सकता है। एक छोटे से पर्वतीय शहर में हिन्दू, मुस्लिम, सिख व इसाइयों के साथ ही बौद्ध एवं आर्य समाजियों के धार्मिक स्थलों से देश की सर्वधर्म संभाव की आत्मा प्रदर्शित करने वाले इस नगर की एक और बड़ी खासियत दशहरे पर नुमाया होती है। यहां रहीम भाई रावण परिवार के पुतले बनाने में जुटे जुऐ हैं तो सईब भाई पर रामलीला में राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न सहित रामलीला के समस्त पात्रों को सजाने संवारने का दायित्व है। 

दशहरे में हिन्दू मुस्लिम एकता का अनूठा सन्देश देता है नैनीताल
ज्योतिश में भी पारंगत सईब के अनुसार `वेद पुराना और ज्योतिष  नया´ होना चाहिऐ
रहीम भाई हरियाणा से हैं। इस वर्ष उन्हें मल्लीताल की रामलीला के लिए 50 फिट से अधिक ऊंचे रावण परिवार के सदस्यों के पुतले बनाने का दायित्व मिला हुआ है। और इस कार्य में वह अपने परिवारों के साथ जुटे हुऐ हैं। बीते वर्षों में भी कभी बरेली की रजिया बेगम तो कभी रामपुर का वहाब भाई यह जिम्मेदारी निभाते आऐ हैं। इधर तल्लीताल में सईब भाई बीते 25 वर्षों से रामलीला के पात्रों को सजाने संवारने में जुटे हुऐ हैं। भूगोल विषय से परास्नातक सईब अहमद साहब का मानना है कि मनुष्य जिस `भूगोल´ में रहता है, उसे वहीं की संस्कृति में रच बस जाना चाहिऐ। वह पहाड़ में रहते हैं तो यहीं की तरह भट का जौला या चुड़काणी व गहत के डुबके उनके घर में भी बनते हैं। वह कहते हैं पहाड़ में हैं तो हमारी संस्कृति पहाड़ी है। ठीक इसी तरह वह `सांस्कृतिक पर्व´ रामलीला से 1985 से जुड़े हैं। सईब बताते हैं तब तल्लीताल की रामलीला आयोजक संस्था नव ज्योति क्लब को आयोजन में कुछ समस्या आई थी तो उन्हें पात्रों के `मेकअप´ का दायित्व सोंपा गया, जिसे वह आज तक निभाते आ रहे हैं। सईब भाई `क्रेप वर्क´ यानी पात्रों के दाढ़ी, मूंछ बनाने में महारत रखते हैं। मूंछें, दाढ़ी वह खुद ही तैयार करते हैं। वह पात्रों के मंच पर मूड के हिसाब से `मेकअप´ बदलने और मिनटों में पात्रों का हुलिया बदलने में भी माहिर हैं। जैसे अभी कोई पात्रा मेघनाद बना था और अब तुरन्त ही उसे अंगद भी बनना है तो उसकी समस्या का इलाज सईब भाई के पास है। रामलीला के दिनों के अलावा भी सईब भाई की दिनचर्या दिलचश्प रहती है। एक मुसलमान होते हुऐ भी उनका मूल पेशा ज्योतिशी का है। वह हिन्दू पराशर विधि के अनुसार कुण्डली बनाने, मिलाने व देखने में ऐसे विद्वान हैं कि लोग शादी विवाह के लिए भी हिन्दू पण्डितों के बजाय उनके पास कुण्डली मिलाने के लिए पहुंचते हैं। सईब बताते हैं `वेद हमेशा पुराना और ज्योतिश नया होना चाहिऐ´, लिहाजा वह निरन्तर ज्योतिश के साथ वेदों का भी अध्ययन करते रहते हैं। बताते हैं कि 1978 के दौर में नगर में आने वाले बंगाली बाबा से उन्हें ज्योतिष की प्रेरणा मिली। कहते हैं कि हिन्दुओं के साथ मुस्लिमों के समस्त त्योहार ज्योतिश और चन्द्र कलेण्डर पर भी आधारित होते हैं। वह नगों के भी अच्छे जानकार हैं। इस्लामी `अमाल ए कुरानी´ तरकीब से रुहानी इलाज की भी वह जानकारी रखते हैं।