You'll Also Like

Tuesday, May 10, 2011

बदल रहा है भूगोल: दो साक्षात्कार

हर वर्ष दो सेमी तक ऊपर उठ रहे हैं हम: प्रो. वल्दिया 
एशिया को 54 मिमी प्रति वर्ष उत्तर की ओर धकेल रहा है भारत
नवीन जोशी, नैनीताल। शीर्षक पड़ कर हैरत में न पड़ें । बात हिमालय क्षेत्र के पहाड़ों की हो रही है। शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार प्राप्त प्रख्यात भू वैज्ञानिक पद्मश्री प्रो. केएस वाल्दिया का कहना है कि भारतीय प्रायद्वीप एशिया को 54 मिमी की दर से हर वर्ष उत्तर की आेर धकेल रहा है। इसके प्रभाव में हिमालय के पहाड़ प्रति वर्ष 18 मिमी तक ऊंचे होते जा रहे हैं।  
प्रो. वाल्दिया ने कहना है कि भारतीय प्रायद्वीपीय प्लेट 54 मिमी से चार मिमी कम या अधिक की दर से उत्तर दिशा की ओर सरक रही है, इसका दो तिहाई प्रभाव तो बाकी देश पर पड़ता है, लेकिन सवाधिक एक तिहाई प्रभाव यानी 18 मिमी से दो मिमी कम या अधिक हिमालयी क्षेत्र में पड़ता है। मुन्स्यारी से आगे तिब्बतन—हिमालयन थ्रस्ट पर भारतीय व तिब्बती प्लेटों का टकराव होता है। कहा कि यह बात जीपीएस सिस्टम से भी सिद्ध हो गई है। उत्तराखंड के बाबत उन्होंने कहा कि यहां यह दर 18 से 2 मिमी प्रति वर्ष की है। कहा कि न केवल हिमालय वरन शिवालिक पर्वत श्रृंखला की ऊंचाई भी बढ़ रही है। उन्होंने नेपाल के पहाड़ों के तीन से पांच मिमी तक ऊंचा उठने की बात कही। 
उत्तराखंड के बाबत उन्होंने बताया कि यहां मैदानों व शिवालिक के बीच हिमालयन फ्रंटल थ्रस्ट,  शिवालिक व मध्य हिमालय के बीच मेन बाउंड्री थ्रस्ट (एमबीटी), तथा मध्य हिमालय व उच्च हिमालय के बीच मेन सेंट्रल थ्रस्ट (एमसीटी) जैसे बड़े भ्रंस मौजूल हैं। इनके अलावा भी नैनीताल से अल्मोड़ा की ओर बढ़ते हुए रातीघाट के पास रामगढ़ थ्रस्ट, काकड़ीघाट के पास अल्मोड़ा थ्रस्ट सहित मुन्स्यारी के पास सैकड़ों की संख्या में सुप्त एवं जागृत भ्रंस मौजूद हैं। हिमालय की ओर आगे बढ़ते हुए यह भ्रंस संकरे होते चले जाते हैं।
लेकिन भू गर्भ में ऊर्जा आशंकाओं से कम
नैनीताल। प्रो. वाल्दिया का यह खुलासा पहाड़ वासियों के लिये बेहद सुकून पहुंचाने वाला हो सकता है। अब तक के अन्य वैज्ञानिकों के दावों से इतर प्रो. वाल्दिया का मानना है कि छोटे भूकंपों से भी पहाड़ में भूकंप की संभावना कम हो रही है। जबकि अन्य वैज्ञानिकों का दावा है कि 19३0 से हिमालय के पहाड़ों में कोई भूकंप न आने से भूगर्भ में इतनी अधिक मात्रा में ऊ र्जा का तनाव मौजूद है जो आठ से अधिक मैग्नीट्यूड के भूकंप से ही मुक्त हो सकता है। इसके विपरीत प्रो.वाल्दिया का कहना है कि हिमालय में सर्वाधिक भूकंप आते रहते हैं। इनकी तीव्रता भले कम हो, लेकिन इस कारण भूगर्भ से ऊर्जा निकलती जा रही है। इसलिये भूगर्भ में उतना तनाव नहीं है, जितना कहा जा रहा है। साथ ही उन्होंने कहा कि प्रकृति मां की तरह है, वह कभी किसी का नुकसान नहीं करती। भूकंप व भूस्खलन अनादि काल से आ रहे हैं। इधर जो नुकसान हो रहा है वह इसलिये नहीं कि प्राकृतिक आपदाएं आबादी क्षेत्र में आ रही हैं, वरन मनुष्य ने आपदाओं के स्थान पर आबादी बसा ली हैं। कहा कि वैज्ञानिक व परंपरागत सोच के साथ ही निर्माण करें तो आपदाओं से बच सकते हैं। सड़कों के निर्माण में भू वैज्ञानिकों की रिपोर्ट न लिये जाने पर उन्होंने नाराजगी दिखाई।
अपरदन बढऩे का है खतरा 
नैनीताल। पहाड़ों के ऊंचे उठने के लाभ—हानि के बाबत पूछे जाने पर कुमाऊं विवि के भू विज्ञान विभागाध्यक्ष प्रो. चारु चंद्र पंत का कहना है कि इस कारण पहाड़ों पर अपरदन बढ़ेगा। यानी भू क्षरण व भूस्खलनों में बढ़ोत्तरी हो सकती है। पहाड़ों के ऊंचे उठते जाने से उनके भीतर हरकत होती रहेगी। वह बताते हैं कि इस कारण ही विश्व की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट की ऊंचाई 8,8४८ मीटर से दो मीटर बढ़कर 8,8५0 मीटर हो गई है। यह जलवायु परिवर्तन का भी कारक हो सकता है 

कभी तिब्बत में होंगे हम: प्रो. पन्त 
5५ मिमी प्रति वर्ष की दर से तिब्बती प्लेट में धंस रही है भारतीय प्लेट
नवीन जोशी, नैनीताल। जी हां ! चौंकिए नहीं, ऐसा संभव है कि हम आज से कुछ हजार वर्ष बाद तिब्बत में हों। हालांकि इससे भी अधिक संभावना यह है कि तब तक कमजोर भारतीय प्लेट,मजबूत तिब्बती प्लेट के भीतर समा जाए और जहां आज उत्तराखंड व उत्तर भारत के बड़े-बड़े नगर बसे हुए हैं, तिब्बत इनके ऊपर चढ़ कर बैठ जाए। जीयोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय प्लेट 54 मिमी प्रति वर्ष की दर से तिब्बती प्लेट में समा रही है।
यहां तक तो यह बात रोमांचित करने वाली अथवा हवाई कल्पना सरीखी लग सकती है, लेकिन यह सामान्य प्रक्रिया है। प्रो. पन्त के अनुसार कुछ बिलियन वर्षों में उत्तराखंड सहित उत्तर भारत तिब्बत में समां जाएगा। यह आश्चर्यजनक लगे तो जान लें की जहाँ आज हिमालय है, वहां कभी टेथिस सागर था आज भी उत्तराखंड के पहाड़ों में समुद्री जीवाश्म इस बात की पुष्टि करते हैं। 
भारतीय प्लेट के तिब्बत में घुसाने की प्रक्रिया में उत्तराखंड व देश की राजधानी दिल्ली सहित समूचे उत्तर भारत मई कई बार भूगर्भीय हलचलों का सामना करना पड़ सकता है। ऐसे में सतर्क रहने की आवश्यकता है। कुमाऊं विवि के भू विज्ञान विभाग के अध्यक्ष प्रो.चारु चंद्र पंत ने खुलासा किया कि जीएसआई की ताजा रिपोर्टों के आधार पर भारतीय प्लेट कश्मीर से लेकर अरुणांचल प्रदेश तक औसतन 54 मिमी प्रति वर्ष की दर से तिब्बती प्लेट में समा रही है। उन्होंने आशंका जताई 'संभव है कुछ मिलियन वर्षों में ग्वालियर तिब्बत पहुंच जाए। बताया कि पर्वत भूगर्भीय दृष्टिकोण से अपेक्षाकृत हल्के पदार्थों के बने होते हैं। हिमालय युवा पहाड़ कहलाते हैं, यहां अधिकतम 380 मिलियन वर्ष पुरानी चट्टानें पाई गई हैं। इधर मध्य हिमालय का क्षेत्र 56 मिलियन वर्ष पुराना है, जबकि एक अनोखी बात यहां दिखती है कि अपेक्षाकृत पुराने मध्य हिमालय अपने से नये केवल 15 मिलियन वर्ष पुराने शिवालिक पहाड़ों के ऊपर स्थित हैं। ऐसे में कठोर व कमजोर पहाड़ों का एक-दूसरे के अंदर समाना एक सतत प्रक्रिया है। समाने की यह प्रक्रिया धरती के भीतर लीथोस्फेेरिक व एेस्थेनोस्फियर परतों के बीच होती है। इससे भू गर्भ में अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा एकत्र होती है, जो ज्वालामुखी तथा भूकंपों के रूप में बाहर निकलती है। चूंकि भारतीय व तिब्बती प्लेटें उत्तराखंड के करीब से एक-दूसरे में समा रही हैं, इसलिये यहां भूकंपों का खतरा अधिक बढ़ जाता है। इधर यह खतरा इसलिये भी बढ़ता जा रहा है कि बीते 20 वर्षों में वर्ष 19५ के कांगड़ा व 19३४ के 'ग्रेट आसाम अर्थक्वेक' के बाद के 1१५ वर्षों में यहां आठ मैग्नीट्यूड से अधिक के भूकंप नहीं आये हैं, लिहाजा धरती के भीतर बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा बाहर निकलने को प्रयासरत है।
देश में अब पांच नहीं चार ही साइस्मिक जोन
भू वैज्ञानिक प्रो. चारु चंद्र पंत ने बताया कि पूर्व में दक्षिण भारत को भूकंपों के दृष्टिकोण से बेहद सुरक्षित माना जाता था, और इसे जोन एक में रखा गया था। लेकिन बीते वर्षों में कोयना सहित वहां भी भूकंपों के आने के बाद अब जोन एक को जोन दो में समाहित कर लिया गया है। इस प्रकार देश में अब जोन एक में कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार अब देश में केवल दो, तीन, चार व पांच यानी केवल चार भी भूकंपीय जोन हैं। उत्तराखंड जोन चार व पांच में आता है।
प्राकृतिक आपदाओं से 8 फीसद गरीब मरते हैं
प्रो. पंत के अनुसार प्राकृतिक आपदाओं से 8 फीसद गरीब और केवल 2 फीसद ही मध्य व उच्च वर्गीय लोग मारे जाते हैं। वह बताते हैं कि वास्तव में प्राकृतिक आपदायें हमेशा से आती रही हैं, और अब भी इनकी गति नहीं बढ़ रही है, लेकिन मनुष्य के आपदा प्रभावित क्षेत्रों में बस जाने के कारण मानवीय नुकसान अधिक हो रहा है। ऐसे में इनसे बचने के लिये दीर्घकालीन योजनायें  बनाने, भूकंपरोधी घर बनाने, जिलों से भी नीचे की इकाइयों के डाटा बैंक व वहां स्वयं सेवकों की टास्क फोर्स बनाने की जरूरत है, जो आपदा के दौरान बचाव कार्यों में अपना योगदान दे सकें।

Friday, April 8, 2011

कौन हैं अन्ना हजारे ? क्या है जन लोकपाल विधेयक ?

देश में आजादी के बाद से ही लगातार सुरसा के मुंह की तरह बढ़ते जा रहे भ्रष्टाचार के हद से अधिक गुजर जाने के बाद युगपरिवर्तन की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है ऐसे में बाबा रामदेव के बाद किसी धूमकेतु की तरह अचानक किशन बाबूराव हज़ारे  (अन्ना हजारे) परिदृश्य में अवतरित हुए हैदिल्ली में पहले चार अप्रेल से जंतर-मंतर पर पांच दिन और अब १६ अगस्त से रामलीला मैदान में "जन लोकपाल विधेयक" की मांग पर अनशन पर बैठे अन्ना की पहल पर ही पूर्व में देश में आज के दौर का सर्वाधिक चर्चित "सूचना का अधिकार-2005" आया था . आइये अन्ना और उनके द्वारा प्रस्तावित जन लोकपाल विधेयक के बारे में कुछ और जानते हैं। 
अन्ना का जन्म 15 जून 1938 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के रालेगाँव सिद्धी नाम के गाँव में एक कृषक परिवार में हुआ था। परिवार की कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण अन्ना पढ़ नहीं पाए। 1963 में भारत-चीन युद्ध के दौरान वह भारतीय सेना में एक ड्राइवर के रूप में शामिल हुए। कहते हैं की 1965 में खेमकरण सेक्टर में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में भारतीय सैनिकों के शहीद होते देख वे बड़े व्यथित हुए, इसी दौरान उन्होंने स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी व आचार्य विनोबा भावे के बारे में अध्ययन किया और बेहद प्रभावित हुए।  1975 में वह सेना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर अपने गाँव लौट आये और वहां ग्रामीणों को नहर और बाँध बनाकर पानी का संग्रह करने की प्रेरणा दी उन्होंने साक्षरता कार्यक्रम भी चलाये, जिनसे वह देश भर में मशहूर हुए। उन्होंने पहला आन्दोलन महाराष्ट्र के वन विभाग के खिलाफ किया व सफल रहे। पूर्व में वह 10 बार आमरण अनशन कर चुके हैं। आगे 1991 में उन्होंने "भ्रष्टाचार विरोधी जन आन्दोलन" का गठन किया, 97 में सूचना का अधिकार माँगते हुए आन्दोलन चलाया, जिस पर पहले महाराष्ट्र और फिर 2005 में केंद्र सरकार को "सूचना का अधिकार" लाना पढ़ा। 

- इस कानून के तहत केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त का गठन होगा।
- यह संस्था चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायलय की तरह सरकार से स्वतंत्र होगी।
- किसी भी मुकदमे की जांच एक साल के भीतर पूरी होगी। ट्रायल अगले एक साल में पूरा होगा।
- भ्रष्ट नेता, अधिकारी या न्यायाधीश को 2 साल के भीतर जेल भेजा जाएगा।
- भ्रष्टाचार की वजह से सरकार को जो नुकसान हुआ है अपराध साबित होने पर उसे दोषी से वसूला जाएगा।
- अगर किसी नागरिक का काम तय समय में नहीं होता तो लोकपाल दोषी अफसर पर जुर्माना लगाएगा जो शिकायतकर्ता को मुआवजे के तौर पर मिलेगा।
- लोकपाल के सदस्यों का चयन न्यायाधीश, नागरिक और संवैधानिक संस्थाएं मिलकर करेंगी। नेताओं का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा।
- लोकपाल/ लोक आयुक्तों का काम पूरी तरह पारदर्शी होगा। लोकपाल के किसी भी कर्मचारी के खिलाफ शिकायत आने पर उसकी जांच 2 महीने में पूरी कर उसे बर्खास्त कर दिया जाएगा।
- सीवीसी, विजिलेंस विभाग और सीबीआई के ऐंटी- करप्शन विभाग का लोकपाल में विलय हो जाएगा।
- लोकपाल को किसी न्यायाधीश, नेता या अफसर के खिलाफ जांच करने और मुकदमा चलाने के लिए पूरी शक्ति और व्यवस्था होगी।
-यह बिल जस्टिस संतोष हेगड़े, प्रशांत भूषण, सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल ने जनता के साथ विचार विमर्श के बाद तैयार किया है।
लोकपाल का विस्तृत ड्राफ्ट देखने को यहाँ क्लिक करें.
यहाँ  क्लिक करके भी देख सकते हैं. 

संसद में कई बार पेश हो चुका है लोकपाल बिल

पूर्व में लोकपाल बिल कई बार संसद में पेश किया जा चका है, लेकिन कभी पास नहीं हो सका। 2004 में भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वादा किया था कि जल्द ही लोकपाल बिल संसद में पेश किया जाएगा, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात रहा और आखिरकार अन्ना हजारे को आमरण अनशन पर बैठना पड़ा।
भारत सरकार ने भ्रष्टाचार से निपटने और इस पर कड़ी निगरानी रखने के लिए 1969 में लोकपाल विधेयक नाम से एक बिल पारित किया। यह बिल लोकसभा में तो पारित हो गया लेकिन राज्यसभा में पास नहीं हो पाया। लोकपाल बिल 1971, 1977, 1985 1989, 1996,1998, 2001 और 2005 में राज्य सभा में रखा गया लेकिन पास नहीं हो सका। पूर्व प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल के कार्यकाल में एक बार 1996 और अटल बिहारी वाजपेयी के समय दो बार 1998 और 2001 में इसे लोकसभा में लाया गया। लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।
क्या सभी समस्याओं का हल साबित होगा लोकपाल बिल ? 
अन्ना हजारे की नजर में भ्रष्टाचार एक कानूनी समस्या है। वे इसके लिए मनमाफिक जन लोकपाल बिल चाहते हैं। अब जबकि सरकार ने अन्ना की जन लोकपाल विधेयक की मांग मान ली है, इसके बावजूद सवाल उठता है की क्या संसद इसी रूप में इस विधेयक को पारित कर देगी, जबकी उसी के सदस्यों और इसका ड्राफ्ट बनाने वाले नौकरशाहों पर ही इसकी चोट पड़ने वाली है ?  यदि विधेयक बन ही गया, तो क्या इससे भ्रष्टाचार समाप्त अथवा कम हो पाएगा ? क्या लोकपाल को कानूनी शक्तियाँ दे दी जाएंगी तो भ्रष्टाचार रूक जाएगा ? क्या भ्रष्टाचार को रोकने के लिए जन लोकपाल बिल काफी है ? हमारे यहाँ तो कितना भी अच्छा पटाखा आये, जल्द फुस्स हो जाता है. बड़े-बड़े चमकीले तारे भी जल्द ही टिमटिमा कर बुझ जाते हैं.  किसी भी कानून के आने के साथ ही उसमे छेद बना लिए जाते हैं, ऐसे में हजारे और जन लोकपाल विधेयक के सामने इन सबसे अलग होने की सबसे बड़ी चुनौती होगी। याद रखना होगा की अन्ना के आन्दोलन को मिला जनता का अभूतपूर्व समर्थन "जन लोकपाल बिल " से अधिक केंद्र सरकार के भ्रष्टाचार की अटूट श्रंखला, और हर स्तर पर उसे (जनता को) झेलने पढ़ रहे इसके दंश की प्रतिक्रिया था। बिल से भ्रष्टाचार ख़तम होगा या नहीं, यह तो तय नहीं, पर इतना भरोसे से कहा जा सकता है के अन्ना के आन्दोलन को समर्थन देने वाले लोग ही यदि स्वयं को भ्रष्टाचार से अलग कर लें तो देश का काफी भला जरूर हो जाएगा


"भ्रष्‍टाचार का महारोग देश की सेहत को नुकसान पहुंचा रहा है। राजधानी से गांव तक और संसद से पंचायत तक सभी क्षेत्रों में भ्रष्‍टाचार ने अपनी जड़ें मजबूत कर ली है। आम आदमी परेशान है। हमारे समक्ष नैतिक बल से संपन्‍न ऐसे आदर्श की कमी है जो भ्रष्‍टाचार के विरुद्ध जन-जागरण कर सकें, ऐसे में 72 साल के वयोवृद्ध समाजसेवी अन्‍ना हजारे ने इस मुद्दे पर सरकार को ललकारा है। लोकपाल बिल 2010 अभी संसद के पास विचाराधीन है। इस बिल में प्रधानमंत्री और दूसरे मंत्रियों के खिलाफ शिकायत करने का प्रावधान है। श्री हजारे के अनुसार बिल का वर्तमान ड्राफ्ट प्रभावहीन है और उन्होंने एक वैकल्पिक ड्राफ्ट सुझाया है। आइए, हम भी आर्थिक शुचिता के पक्षधर बनें, इस मसले पर जनजागरण करें और भ्रष्‍टाचारमुक्‍त समाज व शासन सुनिश्चित करने का संकल्‍प लें।"
यदि आप भी अन्ना की मुहिम में जुड़ना चाहते हैं तो यहाँ क्लिक करें. 




यह भी पढ़ें:

Saturday, March 12, 2011

और उलझ गयी उत्तराखंड की सबसे बड़ी "मर्डर मिस्ट्री"



तिवारी ने नहीं तो फिर किसने मारा बलवन्त को ?
तिवारी व बलवन्त के बीच पुलिस ही थी मौजूद, तार-तार हुईं पुलिस की झोल युक्त कहानी
नवीन जोशी, नैनीताल। 22 अगस्त 2009 की रात्रि प्रदेश के इतिहास में काले शनवार की  रात्रि के रूप में दर्ज है, जब प्रदेश में पहली बार पुलिस थाने के भीतर सत्तारूढ़ दल के ब्लाक प्रमुख के साथ ही ब्लाक प्रमुख संगठन के प्रदे अध्यक्ष पद पर मौजूद बलवन्त कन्याल की हत्या हो गई। घटना के दौरान आरोपी व मक्तूल के अलावा कोई मौके पर था तो केवल पुलिस ही मौके पर थी। पुलिस ने इस अति महत्वपूर्ण मामले में हत्याकाण्ड के चश्मदीद गवाह व वादी के धारा 164 के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान कराने जैसी सामान्य सावधानी भी नहीं बरती, जिसके परिणामस्वरूप गवाहों के मुकरने व पुलिस की कहानी के झोल से हत्याकाण्ड का मुख्य आरोपी तब न्यायालय से दोषमुक्त करार दे दिया गया, जबकि इसी और ऊपरी अदालत ने उसे जमानत देने लायक भी नहीं समझा था। ऐसे में सवाल फीर उठ खड़ा हुआ है, तिवारी ने नहीं तो फिर किसने ब्लाक प्रमुख की हत्या की। क्या हत्यारों को कभी सजा मिल पाऐगी ? ऐसे जघन्य हत्याकाण्ड के बाद भी हमारी व्यवस्था में कालाढुंगी थाने की सुरक्षा दीवार काण्टेदार तार से घेरने के अलावा कोई बदलाव नहीं दिखता। घटनाकाण्ड के समय मौजूद अधिकारी पुन: व्यवस्था में लौट आऐ हैं। उनका बाल-बांका भी नहीं हुआ
बलवन्त कन्याल की हत्या से प्रदेश की कानून व्यवस्था की कई तरह से कलई खुलती चली गई है। शुरू से आरोपों को याद करें, तो पता चलता है कि घटना के तुरंत बाद कालाढूंगी के स्थानीय लोगों के सामने पुलिस कर्मी थाणे के बरामदे को धो रहे थे, जबकि कन्याल की लाश वहीँ पडी थी, यानी पुलिस पर साक्ष्य छुपाने का मुकदमा दर्ज होना चाहिए था, पर हुआ नहीं प्रदे की एसटीएफ द्वारा 22 अगस्त की रात्रि ही देहरादून जेल में बन्द एक अपराधी द्वारा इस घटना की प्रतिक्रिया में कालाढुंगी थाने को फूंकने के निर्देश स्थानीय नेताओं को दिये गऐ, बावजूद पुलिस थाना फूंकने की घटना को नहीं रोक पाई। अब कन्याल हत्याकाण्ड की तफ्तीश व विवेचना में पुलिस कर्मियों की 'कहानी बनाने की कला" न्यायालय में तार-तार हो गई है। मामले की विवेचना में कालाढुंगी थाने के तत्कालीन थाना प्रभारी राम कुमार सकलानी का कहना है कि 22 अगस्त की रात्रि करीब साढ़े दस-पौने ग्यारह बजे जब थाने के बरामदे में नीरज ने बलवन्त को अपने लाइसेंसी रिवाल्वर से गोली मारी, उसने (सकलानी ने) नीरज को दबोच लिया व उसका रिवाल्वर जब्त कर माल खाने में जमा करा दिया। वहीं थाने के दरोगा अनिल शाह के अनुसार उसने मुखबीर की सूचना पर नीरज को 24 अगस्त को नैनीताल में जीजीआईसी से कलक्ट्रेट के मार्ग से लाइसेंसी रिवाल्वर के साथ गीरफ्तार किया। यदि यह मान भी लें कि नीरज थाने से पुलिस गिरफ्त से भाग गया था तो भी पुलिस के पास इस विरोधाभास का कोई जवाब नहीं है कि जब एक रिवाल्वर माल खाने में जब्त करा लिया गया था तो फिर वही रिवाल्वर कैसे नीरज के पास से नैनीताल में बरामद किया गया। 
उल्लेखनीय है, मामले में 16 लोगों की गवाही हुई। इस दौरान हत्या की प्राथमिकी दर्ज कराने वाले दिवंगत बलवन्त कन्याल के जीजा वादी शेर सिंह कनवाल सहित पांच गवाह पुलिस की केस डायरी में दर्ज बयानों से पूरी तरह मुकर गऐ। कनवाल ने कमोबे घटना से ही इंकार कर दिया। इस प्रकार गवाहों के 'होस्टाइल (पक्षद्रोही)" यानी बयानों से मुकरने व आरोपी की गिरफ्तारी पर विरोधाभास के मद्देनज़र न्यायालय ने तिवारी को उस पर बलवन्त कन्याल की हत्या के आरोप में आईपीसी की धारा 147, 148, 504 व 302 के तहत लगाऐ गऐ आरोपों से मुक्त कर दिया। (हांलांकि यह भी गौरतलब है कि शेष 11 गवाह अपने बयानों से नहीं मुकरे थे, पर न्यायलय ने उनके बयानों पर संज्ञान ......... लिया) मामले की विवेचना पुलिस निरीक्षक गंगा सिंह  व महेन्द्र सिंह नेगी द्वारा की गई थी। 
उल्लेखनीय है मामले में थाना प्रभारी सकलानी भी गिरफ्तार किऐ गऐ थे, जमानत मिलने के दौरान उसने तत्कालीन सीओ हरीश चन्द्र सती को वास्तविक दोषी ठहराया था, लेकिन सकलानी और सती दोनों वर्तमान में पूर्व की तरह पुलिस की ड्यूटी कर रहे हैं। अन्य अधिकारियों पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा।जबकि  घटना की प्रतिक्रिया में उत्तेजित भीड़ ने एक पुलिस कर्मी सहित थाने को फूंक डाला। यानी जब थाने में सत्तारूढ़ दल के बड़े नेता की हत्या हो रही थी, पुलिस कर्मी मर रहा था व थाना फूंक रहा था, अफसर स्वयं को बचाने की जुगत में लगे हुऐ थे, और उनका बाल-बांका हुआ भी नहीं। कन्याल की हत्या में ही सहआरोपी बताया गया नीरज तिवारी का दोस्त नीरज हर्बिलअभी जमानत पर है, आरोप मुक्त नहीं हुआ है। 
यह भी गौरतलब है कि बलवन्त की हत्या की प्राथमिकी दर्ज कराने वाला व नीरज के दोषमुक्त होने में 'होस्टाइल" होकर प्रमुख भूमिका निभाने वाला उसका जीजा शेर सिंह कनवाल घटना के अगले दिन हुई थाना फूंकने की घटना में स्वयं भी आरोपित था। वह नीरज के साथ ही नैनीताल जेल में रहा, और कमोबेश बलवे के अन्य पांच दर्जन आरोपितों, जिनमें एक दर्जन से अधिक बच्चे भी शामिल थे, से पहले जमानत पर रिहा हुआ। जबकि कई अब भी जेल में हैं, और आरोपों से मुक्ति किसी को नहीं मिल पाई है। चर्चाएँ आम हैं कि जेल में कनवाल का "खर्चा" नीरज ने ही उठाया, उसे जमानत दिलाने में भी सहयोग दिया। नीरज के परिवार द्वारा अभी हाल में करीब एक करोड़ रुपये में जमीन बेछे जाने की चर्चाएँ भी आम हैं। इस प्रकार पूरी कहानी साफ़ हो जाती है। न्यायिक हलकों के लोग तो न्यायपालिका को भी "बेदाग़" नहीं बता रहे।  इस बाबत पुलिस की भूमिका पर पूछे जाने पर एसएसपी मोहन सिंह बनंग्याल का कहना था कि न्यायालय का आदेश पढ़ने के बाद ही वह कोई प्रतिक्रिया करेंगे।
यहाँ यह सवाल भी उठता है कि जब सत्ताधारी दल के एक जनप्रतिनिधि की पुलिस थाने में हत्या होने के बावजूद हत्यारों को सजा दूर, उनकी पहचान भी नहीं हो पाती, ऐसे में आम राज्यवासी का जीवन कितना सुरक्षित है

पुलिस सहित सबके सहयोग से मिली सफलता: नंदिता
नीरज तिवारी को न्यायालय से दोषमुक्ति का आदे मिलने के दौरान उसकी बहन नंदिता भट्ट, बड़े भाई दीपक तिवारी के साथ ही भाई नरे व मयंक, जीजा गणे भट्ट व गोपाल र्मा न्यायालय परिसर में ही मौजूद थे। नंदिता ने भाई की रिहाई को देर से मिली न्याय की जीत करार दिया। उसका कहना था कि पुलिस सहित सभी ओर से मिले सहयोग के कारण यह सम्भव हो पाया। नंदिता पुलिश को सहयोग के लिए आभार ज्ञापित कर रही हैं तो यह गलत भी नहीं है, आखिर पुलिस ने कहानी में कमजोरी छोड़ने सहित कई मोर्चों पर उनकी मदद जो की है
यानी कालाढुंगी से विधायकी की फिराक में है नीरज !
ब्लाक प्रमुख बलवन्त कन्याल की हत्या के आरोपों से न्यायालय द्वारा बेदाग करार दे दिऐ गऐ नीरज तिवारी ने आगे गैर राजनीतिक संगठन बनाने तथा कालाढुंगी काण्ड की चपेट में आऐ लोगों की लड़ाई लड़ने का ऐलान किया है। हत्याकाण्ड के आरोपों से पूर्व बसपा के युवा जिलाध्यक्ष रहे नीरज ने घर पहुँचते ही पत्रकारों से बातचीत में कहा कि उन्हें न्यायपालिका पर शुरू से पूरा विश्वास था, जो आज न्याय की जीत के साथ और पुख्ता हो गया है। कहा कि कालाढुंगी थाना फूंकने के आरोपों में दर्जनों लोग परेशानी झेल रहे हैं। वह गैर राजनीतिक संघटन का गठन कर सरकार पर ऐसे लोगों पर लगे मामले वापस लेने के लिए दबाव बनाएंगे। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार नीरज कालाढूंगी से विधायकी की फिराक में है, और कोई आश्चर्य नहीं वह इसमें सफल भी हो जाए।



फिर खुलेगी कन्याल हत्याकांड की फाइलें, रिकार्ड हाईकोर्ट में तलब
नैनीताल,28 अप्रैल। बहुचर्चित बलवंत कन्याल हत्याकांड को लेकर दायर याचिका के आधार पर उच्च न्यायालय ने निचली अदालत से रिकार्ड तलब किए हैं। यह याचिका जिला एवं सत्र न्यायाधीश नैनीताल के फैसले के खिलाफ बलवंत की पत्नी दीपाली ने दाखिल की है। मामले की सुनवाई न्यायमूर्ति पीसी पंत और न्यायमूर्ति सव्रेश कुमार गुप्ता की पीठ में हो रही है। उल्लेखनीय है कि कालाढूंगी पुलिस थाने में बलवंत कन्याल की हत्या कर दी गई थी। पुलिस ने इस हत्या के लिए बसपा नेता नीरज तिवारी को जिम्मेदार ठहराया था। पुलिस ने नीरज तिवारी के खिलाफ पुख्ता सबूत होने का दावा किया था। गत 11 मार्च को जिला एवं सत्र न्यायालय नैनीताल ने मुख्य आरोपी नीरज तिवारी को बाइज्जत बरी कर दिया था। निचली अदालत के इस फैसले को कन्याल की पत्नी दीपाली ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी।



कन्याल हत्याकांड में थानेदार भी दोषमुक्त
नैनीताल (एसएनबी)। ब्लाक प्रमुख संगठन के प्रदेश अध्यक्ष बलवंत सिंह कन्याल की हत्या के मामले में थानेदार राम कुमार सकलानी को जिला न्यायालय ने दोषमुक्त करार दे दिया है। मुख्य आरोपित नीरज तिवारी पहले ही दोषमुक्त करार दिया जा चुका है। 22 अगस्त 2009 की रात को घटित हुए प्रदेश के इस बहुचर्चित हत्याकांड में भाजपा नेता व ब्लाक प्रमुख संगठन के प्रदेश अध्यक्ष बलवंत कन्याल की कालाढूंगी थाने में गोली मार कर हत्या कर दी गई थी। इस घटना के प्रत्युत्तर में अगले दिन कालाढूंगी थाना उत्तेजित लोगों ने फूंक दिया गया था। इस मामले में थानेदार सकलानी पर आरोप था कि उसने कन्याल की हत्या की रिपोर्ट नहीं लिखी। उसने घटनास्थल थाने की बजाय अन्यत्र दिखाने का प्रयास किया व थाने में कन्याल के रक्त को धोकर साक्ष्य छिपाने का प्रयास किया। सकलानी के विरुद्ध मुकदमा दर्ज हुआ था। मामले में थानेदार पूर्व से ही जमानत पर चल रहा था।

Friday, March 4, 2011

विदेशी वेबसाइटें बोल रहीं युवा पीढ़ी पर अश्लीलता का हमला

पाकिस्तान में बना था भीमताल का चर्चित एमएमएस !
इंटरनेट पर अप्रेल 2010 से है मौजूद
नवीन जोशी,  नैनीताल। सीमाओं के हमले देश की सेनाओं को नुकसान पहुंचाते हैं, पर देश के भीतर बाहरी दुनिया से एक ऐसा हमला हो रहा है, जिससे देश की युवा पीढ़ी के कोमल मन के साथ तन पर तो अश्लीलता का जहर घुल ही रहा है, आर्थिक रूप से भी बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। मोबाइल पर पाकिस्तान सहित अन्य देशों के नंबरों से फोन आने एवं विदेशों से करोड़ों रुपऐ की लॉटरी खुलने जैसी खबरों के बीच एक और हमला विदेशी अश्लील पोर्न साइटों की ओर से किया जा रहा है। इसी कड़ी में सनसनीखेज खुलासा हुआ है कि गत दिनों भीमताल में स्कूली छात्रा का चर्चित एमएसएस पाकिस्तान में बना हुआ है। यह एमएमएस बीते करीब एक वर्ष से इंटरनेट पर उपलब्ध है।
उल्लेखनीय है की बीते वर्ष नवंबर-दिसंबर माह में निकटवर्ती भीमताल के एक होटल के नाम से एक स्कूली छात्रा का अश्लील एमएमएस खासा चर्चा में आया था। एमएमएस में पर्वतीय स्कूलों की छात्राओं के समान ही आसमानी रंग की कमीज व सफेद रंग का पाजामा पहने युवती को स्थानीय छात्रा समझने में अच्छे-भले जानकार भी धोखा खा गऐ थे, जबकि एमएमएस में युवती जिस तरह का पीले रंग का दुपट्टा या पट्टा डाले हुऐ है, वैसा पहाड़ की लडकियां अमूमन प्रयोग नहीं करतीं। आईजी स्तर पर मामला उठने के बाद भीमताल थाना प्रभारी उत्तम सिंह ने स्वयं मुकदमा दर्ज किया था। बाद में एक स्थानीय युवक ललित मोहन पाण्डे को यह कहकर मामले में बलि का बकरा बनाया गया कि उसकी शक्ल एमएमएस में दिख रहे युवक से मिलती है। हालांकि बाद में उसे उसके मोबाइल में ऐसे 14 अश्लील एमएमएस पाऐ जाने के आरोपों में जेल भेजा गया। बमुश्किल उसे जमानत मिल पाई है। इस मामले की जांच चण्डीगढ़ स्थित प्रयोगशाला को भेजी गई है। लेकिन सच्चाई यह है कि यह 6.22 मिनट का एमएमएस lahore pakistani shy student in school uniform with her cousine (लाहौर पाकिस्तानी शाई स्टूडेण्ड इन स्कूल यूनीफार्म विद हर कजिन) नाम से 24 अप्रेल 2010 से इंटरनेट पर मौजूद है, और इसे कोई भी आसानी से देख सकता है। यह एमएमएस सामान्यता भारत में प्रयोग न की जाने वाली (भारत में विडियो डाउनलोड के लिऐ यू-ट्यूब का प्रयोग किया जाता है) फाइल्स ट्यूब वेबसाइट पर अपलोड किया गया है। इस एमएमएस पर हॉट पाकिस्तानी कालेज गर्ल्स स्केण्डल्स, पाकिस्तानी स्कूल, पाकिस्तान, लाहौर स्कूल, कपल सैक्स हिडन कैमरा जैसे टैग भी लगे हुऐ हैं। जानकार एमएमएस में युवती द्वारा 'हाय अल्ला" जैसा शब्द भी बोले जाने का दावा कर रहे हैं। 
इस आधार पर ई-दुनिया के जानकार आश्वस्त हैं कि यह एमएमएस पाकिस्तान में ही बना व अपलोड हुआ है। ऐसी वेबसाइटें भारत में अश्लील वेबसाइटें प्रतिबंधित होने के बावजूद आसानी से खुल रही हैं, और चलन में हैं। शौकीनों को फाइल्स ट्यूब, एक्स वीडियोज डॉट कॉम, विज डॉट कॉम, फक ओवर माइ सेक्स सरीखी कई विदेशी वेबसाइटें भारत में खुलेआम अश्लीलता परोस रही हैं, देश की युवा पीढ़ी के तन-मन व धन को प्रदूषित व खतरे में डाल रही हैं। इन साइटों से वीडियो क्लिपिंग डाउनलोड करने पर प्रतिमाह सैकड़ों डॉलर का खर्चा वसूला जाता है। बहरहाल, इस चर्चित एमएमएस के मामले में भीमताल थानाध्यक्ष उत्तम सिंह ने स्वीकारा कि उन्हें भी एमएमएस के पाकिस्तानी होने की सूचना है। कुमाऊं आईजी राम सिंह मीणा ने कहा कि बाहरी पोर्न वेबसाइटों को रोकने के क्या प्राविधान हैं, इसका वह अध्ययन करेंगे।
हाँ, यहाँ एक और बात कहना जरूर समीचीन होगा कि मीडिया को अपने क्षेत्र से जोड़कर ऐसे विषयों पर खासकर जल्दबाजी में, बिना तथ्यों की पड़ताल किये कुछ भी प्रकाशित/प्रसारित करने से बचना चाहिए। इससे अपने क्षेत्र की बहुत बदनामी होती है। जैसे इस मामले में भीमताल क्षेत्र की हर लड़की और लड़कों को संदेह की नजर से देखा जाने लगा, जबकी एमएमएस कहीं और का बना हुआ था।
इस तरह भी हो रहा हमला
नैनीताल। इंटरनेट पर सैक्सी हल्द्वानी, सैक्सी नैनीताल, सैक्सी देहरादून, सैक्स स्केण्डल हल्द्वानी, नैनीताल, देहरादून जैसे नामों से भी वीडियो क्लिप मौजूद हैं। खास बात यह भी है बड़ी धनराशि चुकाने के बाद ही डाउनलोड होने वाली यह क्लिप्स वास्तव में एक ही होती हैं, नाम स्वत: शहर के हिसाब से बदल जाते हैं। लड़कियों से अश्लील चेटिंग, वीडियो चेटिंग आदि भी शहर के हिसाब से इंटरनेट पर उपलब्ध हैं, और मोटी कीमत वसूल रहे हैं।

Saturday, February 12, 2011

अटल व तिवारी के सहारे सियासी कद बढाने की कोशिश में निशंक




`मिशन 2012´ के `चुनावी मोड´ में जा चुकी उत्तराखंड की भाजपा सरकार के तरकश से छूटा `अटल खाद्यान्न योजना´ का तीर आखिरी नहीं वरन पहला है। "अटल खाद्यान्न योजना" शुरू करने के साथ प्रदेश के मुख्य मंत्री डा. रमेश पोखरियाल 'निशंक'  ने अपने ताप-तेवरों से इशारा कर दिया कि आगे ऐसे कई तीर विपक्ष को भेदने के लिए उनके तरकश से निकलने वाले हैं। वहीँ "अटल आदर्श गाँव" के बाद इस योजना का नाम भी पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपयी के नाम से करके और योजना के प्रदेश भर में एक साथ भव्य शुभारम्भ करने तथा पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी को देहरादून में साथ बैठा कर निशंक ने खुद की सियासी तौर पर "हल्के व बातूनी" राजनेता की छवि तोड़ने की कोशिश की है, वहीँ अपना कद भी कुछ हद तक बढ़ाने की कोशिश शुरू कर दी है। 
मुख्यमन्त्री निशंक ने अटल खाद्यान्न योजना के साथ जो चुनावी 'ट्रंप कार्ड' मारा है, इससे खासकर विपक्षी कांग्रेस पार्टी कई मोर्चों पर एक साथ आहत हुई है, और बर्षों तक उसे इसका दर्द सालता रहेगा, यह भी तय है। मालूम हो कि केन्द्र सरकार शीघ्र संसद में खाद्य सुरक्षा विधेयक लाने जा रही है। यदि यह विधेयक लागू हुआ तो केन्द्र सरकार योजना का पूरा क्रियान्वयन खर्च ठाऐगी, और नाम भाजपा सरकार का का होगा। यूं तो भाजपा इस योजना के बल पर ही छत्तीसगढ़ व मध्य प्रदेश के साथ कमोबेश गुजरात में सत्ता में वापसी करने में सफल रही है, लेकिन ऐसा यदि उत्तराखण्ड में नहीं  दोहराया जाता तो अगली कांग्रेस सरकार के लिए भी जनता से जुडी इस योजना को जारी रखने की मजबूरी होगी। कांग्रेस अभी योजना के नाम पर आपत्ति कर रही है, लेकिन उसके पास भी गांधी परिवार के अतिरिक्त योजना के लिए कोई नाम मुश्किल से ही होगा, और ऐसा साहस जुटाना भी उसके लिऐ मुश्किल ही होगा। वैसे भी पूर्व सीएम तिवारी द्वारा योजना का नाम अटल जी के नाम पर रखने का स्वागत करने से कांग्रेस की स्थिति स्वयं हांस्यास्पद हो गई है। आगे मुख्यमन्त्री ने अटल जी के नाम से विकसित किऐ जा रे अटल आदर्श गांवों को मिनी सचिवालय बनाने का इरादा जताया है। 
उल्लेखनीय है कि अटल देश के एकमात्र गैर कांग्रेसी नेता हैं, जिन्हें धुर दक्षिणपंथी पार्टी का नेता होने के बावजूद उत्तर-दक्षिण रहने वाली बामपंथियों को भी साथ लेकर पांच से अधिक वर्ष केंद्र में सरकार चलाने का श्रेय जाता है। उत्तराखंड की बात करें तो उनके समय में ही यह राज्य बना। यही नहीं राज्य को वर्ष २०१३ तक के लिए विशेष राज्य का दर्जा दिया गया. आर्थिक व औद्योगिक पैकेज भी मिले, नैनीताल को दो अरब रुपये की झील संरक्ष्यं योजना मिली, वह भी तब जबकि राज्य में विपक्षी कांग्रेस पार्टी की सरकार थी, जिसके मुखिया तिवारी थे। जी हाँ, तिवारी जी, जो न केवल अटल जी के नाम से शुरू हुई "अटल खाद्यान्न योजना" के उदघाटन मौके पर आये, वरन अटल जी को अपना मित्र बताते हुए योजना और उसके नाम का स्वागत किया। निस्संदेह इसे निशंक की सफलता और एक तीर से कई शिकार कहा जा रहा है। अटल के नाम से योजना का नाम रखने और तिवारी को मंच पर लाने पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने भी निशंक की पीठ ठोंकी है। ऐसे में कहा जा सकता है कि यदि यह निशंक का चुनावी संख्नाद है तो फिर उनकी पार्टी राज्य में अब तक लगभग हारी गयी बाजी मानी जा रही जंग को जीतने का स्वप्न संजो सकती है। इससे विपक्ष में आने वाले दिनों में बेचैनी के और बढ़ने से भी इंकार नहीं किया जा सकता। 
अटल व तिवारी की दोस्ती का गवाह है नैनीताल
नैनीताल। पूर्व सीएम तिवारी ने अटल खाद्यान्न योजना के शुभारम्भ मौके पर पूर्व पीएम अटल बिहांरी बाजपेयी से अपनी दोस्ती का जिक्र किया, और मुख्यमन्त्री डा. निशंक ने तुरन्त ही राज्य में उनकी दोस्ती के स्थल नैनीताल के लिए दो बड़ी घोषणाऐं कर दो बढे नेताओं की दोस्ती को यादगार बनाने का सन्देश दिया है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2002 में तत्कालीन पीएम बाजपेयी व सीएम तिवारी की नगर के राजभवन में भेंट हुई थी, और इसमें बिना किसी पूर्व भूमिका के बाजपेयी ने तिवारी के कहने पर नगर के लिए 200 करोड़ की नैनीताल झील संरक्षण परियोजना की घोषणा कर दी थी। आगे निशंक देश के इन दो राजनीतिक धुरंधरों की दोस्ती के नाम पर और सियासी फसल काटते हुऐ (भी) इनकी दोस्ती के प्रतीक नैनीताल को और कुछ दे जाऐ, तथा इससे नगर और मण्डल के सियासी समीकरण भी बदल जाऐं तो सन्देह न होगा।

Friday, February 11, 2011

अटल खाद्यान योजना: एक तीर से कई शिकार, आगे और तीर-तलवार


अगला कदम-गांवों में मिनी सचिवालय
नैनीताल को मिलेगी झील के संरक्षण के लीऐ 48 करोड़ की योजना व टिहरी झील के साथ अन्तर्राष्ट्रीय जल क्रीड़ा प्रतियोगिता 
नवीन जोशी, नैनीताल। 'मिशन 2012" के 'चुनावी मोड" में जा चुकी भाजपा सरकार के तरकश से छूटा 'अटल खाद्यान्न योजना" का तीर आखिरी नहीं वरन पहला है, और आगे ऐसे कई तीर विपक्ष को भेदने के लिए निकलने वाले हैं, मुख्यमन्त्री निशंक ने योजना के शुभारंभ मौके पर इसके इशारे कर दिऐ हैं। जल्द सरकार न्याय पंचायत स्तर पर विकसित किऐ जा रहे अटल आदर्श गांवों को 'मिनी सचिवालय" का रूप देने जा रही है। नैनीताल को सरकार से चुनावी वर्ष में जल्द दो तोहफे मिलने जा रहे हैं, यह हैं नैनी झील के लिऐ करीब 47.96 करोड़ रुपऐ की झील संरक्षण परियोजना और दूसरी नई विकसित टिहरी झील के साथ साझे में अन्तरराष्ट्रीय जल क्रीड़ा प्रतियोगिता।
मुख्यमन्त्री डा. निशंक ने शुक्रवार को मुख्यालय में अटल खाद्यान्न योजना के शुभारंभ योजना पर इन योजनाओं का खुलासा भर किया। उन्होंने कहा कि भाजपा सरकार समाज के अंतिम व्यक्ति के दुख-दर्द में साझीदार बनने के मिशन पर चल रही है। पहले चिकित्सक न होते हुऐ भी 108 सेवा के माध्यम से सबको निःशुल्क चिकित्सा सुविधा दिलाई। दीर्घकालीन योजना के तहत गरीब मेधावी बच्चे भी डाक्टर बन सकें इसलिए केवल 15 हजार रुपऐ में एमबीबीएस कराने की व्यवस्था की। दूसरे चरण में स्नातक स्तर की निःशुल्क व्यवस्था की। आगे गांवों के विकास के लिए अटल आदर्श गांव स्थापित कर हर गांव में सड़क, मिनी बैंक स्थापित किये गऐ। आगे इन गांवों को 'मिनी सचिवालय" का रूप दिया जाऐगा। आयुक्त एवं डीएम यहां आकर ग्रामीणों की समस्याओं का स्थाई तौर पर निदान करेंगे। कहा कि अटल खाद्यान्न योजना भी इसी कड़ी में करीब निःशुल्क ही भोजन उपलब्ध कराने की योजना शुरू की जा रही है। उन्होंने नैनीताल झील के संरक्षण के लिए 48 करोड़ की परियोजना व शीघ्र अन्तराष्ट्रीय जल क्रीड़ा प्रतियोगिता आयोजीत करने का भी इरादा जताया।
एपीएल कोटे में होगी कटौती
नैनीताल। भले सरकार अभी राज्य के सभी बीपीएल व एपीएल उपभोक्ताओं को सस्ते राशन का लाभ देने की बात कर रही हो, लेकिन एक सवाल के जवाब में मुख्यमन्त्री ने यह इशारा भी कर दिया कि हर आगे हर एपीएल श्रेणी के उपभोक्ता को योजना का लाभ नहीं मिलेगा। सरकार डेढ़ लाख रुपऐ से कम आय के उपभोक्ताओं को शेष बीपीएल" श्रेणी में लाने जा रही है, उन्हें ही चार व छह रुपऐ प्रति किग्रा की दर से गेहूं व चावल मिलेगा। इस सीमा से ऊपर के उपभोक्ता लाभ से वंचित रहेंगे। 
विक्रेताओं का लाभांश नहीं घटने देंगे
नैनीताल। सस्ता गल्ला विक्रेताओं की मांगों पर सीएम डा.निशंक ने कहा कि किसी कीमत में उनका लाभांश घटने नहीं दिया जाऐगा। साथ ही कहा कि उन्हें केवल सस्ता ही बेचना है, उन पर योजना के तहत अधिक अनाज उठाने जैसा कोई बोझ नहीं पड़ रहा है। बताया भाडा शाशन वहां करेगा. योजना के लिए बजट प्राविधान के सवाल को सीएम टाल गऐ। अलबत्ता कहा कि तीन माह की तैयारी व उचित प्राविधानों के साथ ही योजना शुरू की है। यह भी जोर देकर कहा कि योजना केन्द्र सरकार के भरोसे नहीं वरन राज्य ने अपने दम पर शुरू की है। 
चार हजार पदों पर पुलिस भर्ती होगी
नैनीताल। मुख्यमन्त्री डा. निशंक ने कहा कि यूपी के साथ पुलिस कर्मियों के बंटवारे का मसला हल हो गया है। गत दिनों यूपी की सीएम के साथ हुई बैठक में उन्होंने यूपी के सिपाहियों की जगह केवल पद देने को कहा, जि से मान लिया गया। कहा कि जल्द प्रदेश के चार हजार नौजवानों को पोलिस में भरती होने का मौका मिलेगा।
85 फीसद घोषणाएं की पूरीं
नैनीताल। मुख्यमन्त्री निशंक ने कहा सरकार की अटल खाद्यान्न योजना चुनावी नहीं है। कहा कि पूर्व सीएम नारायण दत्त तिवारी ने आज ही देहरादून में योजना का नाम अटल जी के नाम पर रखने का स्वागत किया है। दावा किया कि सरकार ने 85 फीसद घोषणाएँ पूरी कर ली हैं। उन्होंने नाम लिऐ बीना कहा कि वह पिछली सरकार की तरह चुनावी वर्ष में पूरी न होने वाली करोड़ों की घोषणाएँ नहीं करने जा रहे हैं। एक प्रश्न के जवाब में उन्होंने स्पेशाल कंपोनेंट प्लान में धन न मिलने के आरोपों पर विपक्ष को अध्ययन करने की सलाह दी।

Saturday, January 29, 2011

उत्तराखंड विचार: कुछ खट्टा-कुछ मीठा

पहाड़ के बच्चे नहीं मना पाते गणतन्त्र दिवस 
शीतकालीन विद्यालय रहते हैं बन्द, अधिकांश बच्चों को नहीं पता कैसे मनाते हैं गणतन्त्र दिवस
नवीन जोशी, नैनीताल। देश की युवा पीढी यानी बच्चों के बिना गणतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती, पर उत्तराखंड में ऐसा हो रहा है. प्रदेश के पहाडी  अंचलों में अधिकांश बच्चों को गणतन्त्र दिवस मनाने के बारे में जानकारी नहीं है। कारण,  उनके विद्यालय गणतन्त्र दिवस के दौरान शीतकालीन अवकाश के  लिए बन्द होते हैं, इसलिए न स्कूलों में गणतन्त्र दिवस का आयोजन होता है, और न ही बच्चों को देश के गणतन्त्र के इस मान राष्ट्रीय पर्व के आयोजन की जानकारी हो पाती है। 
उल्लेखनीय है कि गणतन्त्र दिवस देश की आजादी का वास्तविक पर्व है। इसी दिन से राष्ट्र में अपने संविधान के साथ अपना राज कायम हुआ था। देश भर में यह आयोजन खासकर विद्यालयों में बेहद हर्षोल्लास से मनाया जाता है। लेकिन नैनीताल जनपद से ही बात शुरू करें तो यहाँ कुल 96 प्राथमिक विद्यालयों में से 2 तथा जूनियर हाईस्कूल से इंटरमीडिएट तक के 9 सरकारी, मुख्यालय का एक स्थानीय निकाय संचालित नगर पालिका नर्सरी स्कूल एवं तीन अर्धशासकीय विद्यालयों भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय, सीआरएसटी इंटर कालेज व मोहन लाल साह बालिका विद्या मन्दिर के साथ ही सभी निजी पब्लिक स्कूलों में इन दिनों शीतकालीन अवकाश होने के कारण गणतन्त्र दिवस का आयोजन नहीं होता है। मुख्यालय में जहाँ अन्य राष्ट्रीय पर्वों पर सुबह प्रभात फेरी से लेकर अपराह्न तक कार्यक्रम बच्चों से ही गुलजार रहते हैं, वहीँ गणतन्त्र दिवस में बच्चे नहीं होते तो अन्य लोग भी कमोबेश इस राष्ट्रीय पर्व को औपचारिक ही मनाते हैं। शिक्षक अन्य संस्थानों में उपस्थिति दर्ज कराकर औपचारिकता निभा लेते हैं। वर्षों से ऐसा परिपाटी के रूप में हो रहा है। इसका एक नुकसान यह भी है कि बच्चों को गणतन्त्र दिवस के  इस महत्वपूर्ण आयोजन की जानकारी भी नहीं हो पाती है, या तब हो पाती है, जब वह ग्रीष्मकालीन अवकाश वाले विद्यालयों में जाते हैं। इसका निदान क्या हो यह एक विचारणीय प्रश्न हो सकता है।

पाकिस्तान का स्वंत्रता दिवस मनाया जाता है यहाँ !
यह आम बात है कि ख़ास कर निजी महंगे पब्लिक स्कूलों में त्योहारों के दिन अवकाश होने के कारण इन्हें पहले दिन ही मन लिया जाता है। गणतंत्र दिवस 25 जनवरी को तथा गांधी जयन्ती एक अक्टूबर को मनाकर औपचारिकता निभा ली जाती है। इन तिथियों के अखबार उठा कर देख लें पुष्टि हो जायेगी । यहाँ तक तो गलती कुछ हद तक माफी योग्य शायद हो भी, लेकिन यदि देश के भविष्य को तैयार महंगी फीस लेकर तैयार करने वाले यह स्कूल स्वतंत्रता दिवस को भी एक दिन पहले यानी 14 अगस्त को मना लें तो इसे क्या कहेंगे ? जान लें 14 अगस्त हमारा नहीं हमारे पड़ोसी दुश्मन राष्ट्र पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस है। आसपास नजर डालिए, कहीं आपके बच्चे के स्कूल में भी तो ऐसा नहीं हो रहा ? नैनीताल के तो अधिकाँश पब्लिक स्कूलों में ऐसा वर्षों से हो रहा है ।


....क्योंकि हमने अपनी `ताकतों´ को अपनी `कमजोरी´ बना लिया है ! 



हते हैं `पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं´, लेकिन `पालने´ की उम्र से बहुत पहले बाहर निकलकर 10 वर्ष के 'किशोर' होने जा रहे उत्तराखण्ड के `पांव´ कहां जा रहे हैं, यह कहना अभी भी मुश्किल ही बना हुआ है। इस उम्र तक आने में इसके `पालनहारों´ ने इसे कई दिशाओं में चलाने के दावे-वादे किऐ हैं, लेकिन यह कहीं पहुंचना तो दूर शायद अभी ठीक से चलना भी प्रारंभ नहीं कर पाया है। इसकी इस `गत´ का कारण एक से अधिक नावों का सवार होना भी माना जा सकता है, लेकिन असल कारण यह है कि इस अत्यधिक संभावनाओं वाले राज्य ने अपनी ताकतों को अपनी कमजोरी बना लिया है। हमने अपने संसाधनों का सदुपयोग करना दूर, उन पर पाबन्दियां लगा कर उन्हें निरुपयोगी बना दिया है। दरवाजे बन्द कर दिऐ हैं। हम ढांचागत सुविधाऐं बढ़ाने जैसे कार्य नहीं कर रहे हैं, कर रहे हैं तो बिना सोचे-समझे, और बेहद जल्दबाजी में, बिना गहन अध्ययन के दूसरों के ज्ञान को बिना पड़ताल किऐ आत्मसात करने के। ऐसे में एक कदम आगे बढ़ाते हैं तो दो कदम पीछे लौटने को मजबूर होते हैं।




बात कहीं से भी शुरू कर लीजिऐ। उत्तराखण्ड को पर्यटन प्रदेश कहा गया। लेकिन सैलानियों की जरूरतों का खयाल नहीं रखा गया। पर्यटक स्थलों में ढांचागत सुविधाओं को बढ़ाना व सुधारना तो दूर 10 वर्ष बाद भी पर्यटन विभाग का ढांचा ही नहीं बनाया गया। हालत यह है कि राज्य की पर्यटन राजधानी नैनीताल में विभाग के नाम पर केवल तीन कर्मचारी हैं। राज्य में बाहर से आवागमन की सुविधाऐं नहीं बढ़ाई गईं। जो सैलानी पहुंचते भी हैं, उन्हें अपेक्षित मौज मस्ती के अवसर देने से हमारी संस्कृति पर दाग लग जाते हैं। लिहाजा हमने उनसे प्रकृति के अलावा अपनी संस्कृति सहित सब कुछ छुपाकर रखा है। हम उन्हें अच्छी शराब तक नहीं दे सकते। शराब कहने सुनने में शायद बुरा लग रहा हो, (इस पर यह साफ़ करते हुए कि में स्वयं व मेरे परिवार में कोई शराब नहीं पीता, और मैं शराब समर्थक भी नहीं हूँ) याद रखना होगा कि हमें अपने यहां पर्यटन विस्तार के लिए गोवा, मारीशश व सिंगापुर आदि सस्ते और `सर्वसुविधा´ वाले पर्यटक स्थलों से मुकाबला करना है, तभी हम पर्यटन प्रदेश बन सकते हैं। लेकिन जाहिर है, हम ऐसा नहीं कर सकते। कोई भी व्यक्ति जब जीवन के बेहद तनाव भरे क्षणों से बमुश्किल छुटि्टयां निकालकर घर से बाहर निकलता है तो स्वच्छन्दता चाहता है, और उसे हम अपने यहां स्वच्छन्दता तो हरगिज नहीं दे सकते। हां, आते ही उनका स्वागत हमारे `मित्र पुलिस´ के परेशानहाल जवान `यहां पार्किंग ही नहीं है तो इतनी बड़ी गाड़ियां लेकर आते ही क्यों हो´ सरीखी फब्तियां कस कर करते हैं। हम पर्वतारोहण कराकर ही देश-दुनिया के सैलानियों को आकर्षित कर सकते थे, लेकिन हमने 40 हजार रुपऐ से अधिक शुल्क नियत कर इस ओर भी रास्ते जैसे बन्द कर दिऐ हैं। 
बात वापस शराब पर मोड़ते हैं। `सूर्य अस्त...´ के रूप में अभिशप्त हमारे पहाड़ के जहां हजारों घर शराब की भेंट चढ़ रहे हैं, वहीं यह भी सार्वभौमिक सत्य है कि करों के बाद शराब ही हमारे राज्य की तिजोरी की सर्वाधिक `सेहत´ सुधार रही है। बावजूद हमारे `तारणहार´ मुंह में 'शराब पर राज्य की तिजारी की निर्भरता खत्म करेंगे´ का `राम´ बोलते हुऐ बगल में `हर वर्ष शराब विक्रेताओं के लक्ष्य 10 से 25 फीसद तक बढ़ाकर´ छुरियां भांज रहे होते हैं। बावजूद शराब के शौकीनों के अनुसार उत्तराखण्ड की शराब देश में सर्वाधिक महंगी और गुणवत्ता में घटिया है। राज्य की सेहत सुधार रही शराब सैलानियों को पिलाकर हम अपनी आर्थिकी भी सुधार सकते थे, किन्तु हमने शराब का काम करने वाले लोगों को `शराब माफिया´ शब्द दे दिया है, इसलिए हम खुद यह काम नहीं कर सकते, भले इस शब्द का लोकलाज भय दिखाकर बाहर के लोग हमें शराब पिलाकर मार डालें, और खुद `फिल्म निर्माता´ और इस लायक तक हो जाऐं कि सरकारों को बदल डालें।
हमने अपनी वन संपदा, चिड़ियां, जैव संपदा बचाई है, जिसे दिखाकर भी हम सैलानियों से लाखों कमा सकते हैं। राज्य की आर्थिकी की प्रमुख धुरी जल, जंगल, जमीन और जवानी भी हो सकते हैं। बात राज्य के 65 फीसद से अधिक भूभाग पर फैले वनों की करें तो इन से रोजगार की भी प्रचुर संभावनाऐं हो सकती थीं। लेकिन हमारे यहां जो भी वन संपदा संबंधी कार्य करेगा, उनके लिए हमने `वन माफिया´ शब्द मानो `पेटेंट´ कर रखा है। चीड़, यूकेलिप्टस, पापुलर जैसे पेड़ जो हमारी आर्थिकी का मजबूत आधार हो सकते हैं, उन्हें हमने `विदेशी´, `पर्यावरण  शत्रु´ और बांज के जंगलों के `घुसपैठिऐ´ आदि  शब्द दे डाले हैं। लीसा खोप कर हमारे यहां हजारों लोगों के घरों में चूल्हा जलता था, हमारी पिछली पीढ़ी लीसे के छिलकों से पढ़कर ही आगे बढ़ी, लेकिन लीसे का कारोबार जो करे वह `लीसाचोर´, लिहाजा इस क्षेत्र में कारोबार करने के रास्ते भी हमारे लिऐ बन्द। भले बाहर के लोग सारे जंगल तबाह कर डालें। इसी प्रकार हमारे यहां की खड़िया, रेता, बजरी आदि का कारोबार करने वाले `खनन माफिया´, सो हम अपने खेतों से पत्थर भी नहीं उठा सकते। भले अपनी उपजाऊ जमीनों पर हम खाईयां खुदवाकर अथवा खनन सामग्री के ढेर लगाकर उन्हें हमेशा के लिए बंजर बना दें। भले हमारी जीवनदायिनी नदियां, जमीनें कौड़ियों के भाव बाहर वालों को सालों, दशकों के लिए लीज पर दे दी जाऐं। हम पूरे एशिया को अकेले `प्राणवायु-आक्सीजन´ देने की क्षमता वाले अपने वनों को अपने `विकास की बलि देकर´ बचाने वाले गांवों को बदले में `कार्बन क्रेडिट´ लेकर सड़क की बजाय सीधे सस्ती या मुफ्त `रोप वे´ अथवा `हवाई सेवा´ दे सकते थे, पर ऐसी सोच सोचने में ही शायद अभी हमें वर्षों लगें।
`जल´ की बात करें तो हमें अपने पानी के उपयोग पर सख्त आपत्ति है। बड़े बांधों का हम विरोध करेंगे, छोटे हम बनाऐंगे नहीं। कोई हम जल विद्युत परियोजनाओं का विरोध करने वालों से पूछे तो सही कि हममें से कुछ को छोड़कर अन्य ने खुद कितना पानी बचाया। हम पर्यावरणप्रेमियों ने अखबारों में अपने प्रचार के लिए छपने में खर्च किऐ कागज से अधिक कितना पर्यावरण बचाया है। क्या हम दावे से कह सकते हैं कि जिन सड़कों का हमने विरोध किया, वैसी सड़कें हमने अपने घर तक भी नहीं बनने दीं। पर्यावरण बचाने के लिए क्या हमने अपनी लंबी गाड़ियां लेने से परहेज किया। हम कब तक `छद्मविद्´ बने रहेंगे। हमने अपने पनघट बन्द कर हमने गांव गांव तक डीजल चालित आटा चक्कियां बना लीं। जल संरक्षण के परंपरागत प्रबंध `बज्या´ दिऐ। गांवों के पुश्तैनी कार्य करने में हमें शर्म आती है। सड़कें हमारे गांव में आईं तो समृद्धि को करीब लाने के बजाय हमारे लिए `पलायन´ का रास्ता खोलने वाली साबित हुईं। हमारी सिंचाई विभाग की अरबों की परिसंपत्तियों पर यूपी आज भी कब्जा जमाऐ बैठा है। कुल मिलाकर हम अपनी करोड़ों रुपऐ की आय दे सकने वाली जल संपदा से कोई लाभ लेने का तैयार नहीं।
बात `जवानी´ की करें तो हमारे पढ़े-लिखे युवा जो अपनी दुरूह भौगोलिक व कठिनतम् प्राकृतिक परिस्थितियों से कम मेहनत के भी अच्छे एथलीट, कवि, लेखक, कलाकारखिलाड़ी, वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ, बुद्धिजीवी व प्रशासनिक अधिकारी के रूप में प्रदेश ही नहीं देश के लिए विश्वसनीय मानवशक्ति हो सकते हैं आज भी राज्य बनने से पूर्व की ही तरह `पलायन´ करने को मजबूर हैं। जो यहां बचते हैं, उन्हें भी राज्य `पेट पालने लायक´ रोजगार नहीं दिला पा रहा। लिहाजा वह नशे की अंधेरी खाई में बढ़ रहे हैं। वरन उनमें राष्ट्रविरोधी विचारधारा से प्रभावित होने का खतरा भी बेहद बढ़ गया है। कोई स्वरोजगार करने की सोचे भी तो सरकारी योजनाऐं उसे बेरोजगार से `कर्जदार´ बनाने पर तुली हुई हैं।


उपजाऊ जमीनें हमारे यहां शुरू से कम थीं, लेकिन ताकत के तौर पर जो तराई-भावर की उपजाऊ कृषि भूमि थी, उस पर हमने फसलों के बजाय उद्योग उगा लिऐ। जो कब `कट´ जाऐं, कुछ भरोसा नहीं। तब तक इन्हें बेचकर `उजड़े´ किसान भी खेती भूल, कीमत खर्च कर, चाकरी करने शहर जा चुके होंगे।
लोक संस्कृति के रूप में हम समृद्ध थे, किन्तु हमने अपनी पहचान नाड़ा बाहर लटके धारीदार `घोड़िया´ पैजामा, फटा कुर्ता और टेढ़ी बदबूदार टोपी पहने 'जोकर नुमा' व्यक्ति के रूप में बना ली। अपनी `दुदबोली´ को बोलने में `शरम´ की, और मानो किस्मत फोड़ ली। उसे लिखने, पढ़ने की बात तो बहुत दूर की ठैरी। स्वयं की पहचान, स्वयं में अपनी पहाड़ी होने की `शिनाख्त´ के निशानों को छुपाने में हमारा कोई सानी नहीं। `धौनी´ से लेकर हमारा आम पहाड़ी अपनी पहचान बताने में आख़िरी दम तक संकोच नहीं छोड़ता। अपने धुर पहाड़ी गांव में `डीजे´ पर `बोलो तारा रा रा´ पर `भांगड़ा´ करने में हम `माडर्न लुक´ देने वाले ठैरे। कैसेट में हमारी बहनें रंग्वाली पिछौड़ा पहनकर घास काटने और अपने परदेश गऐ `हीरो´ के लिए हिन्दी फिल्मी गीतों की पहाड़ी `पैरोडी´ गाने वाली ठैरीं।
इसी तरह हम जड़ी बूटी, आयुर्वेद, ऊर्जा, शिक्षा आदि प्रदेश बनने के दावे भी कर रहे हैं, पर उनकी तैयारी भी हमारी कितनी और कैसी है, जरा सोचें तो खुद समझ में आ जाता है। ऐसे में `जब जागें, तभी सवेरा´ मानकर हम स्वयं और अपनी क्षमताओं को पहचान व निखारकर समिन्वत रूप में सर्वोत्तम योगदान देने की कोशिश करें, और दूसरों की तिजोरियां भरने के बजाय अपने `घर´ को सजाऐं।
                                                                  (नैनीताल, 11 अगस्त, 2010)

....फिर क्या हो ? (दिवंगत गिर्दा को श्रद्धांजलि के साथ)



girda3.JPG........ऐसे में यह सोचना जरूरी हो जाता है कि जब हम अपने संसाधनों (मूलतः पानी, जवानी और जंगलों) का उपयोग नहीं होने देना चाहते, (इसलिए कि सरकारें उनका सदुपयोग या उपयोग करने की बजाय शोषण करने पर तुली हुई हैं) ऐसे में यह भी सच्चाई है कि हमारा भविष्य बेरोजगारी, मुफलिसी से भरा होने वाला है, ऐसा न हो, इससे बचने के लिए क्या करें ? 
हम 'भोले-भाले' पहाड़ियों को हमेशा ही सबने छला है। पहले दूसरे छलते थे, और अब अपने छल रहे हैं हमने देश-दुनिया के अनूठे 'चिपको आन्दोलन' वाला वनान्दोलन लड़ा, इसमें हमें कहने को जीत मिली, लेकिन सच्चाई गिर्दा बताते थे गिर्दा को वनान्दोलन के परिणामस्वरूप पूरे देश के लिए बने वन अधिनियम से हमारे हकूक और अधिक पाबंदियां आयद कर दिए जाने की गहरी टीस थी इसी तरह हमने राज्य आन्दोलन से अपना नयां राज्य तो हासिल कर लिया पर राज्य बनने से बकौल गिर्दा ही,"कुछ नहीं बदला कैसे कहूँ,  दो बार नाम बदला-अदला, चार-चार मुख्यमंत्री बदले", पर नहीं बदला तो हमारा मुकद्दर, और उसे बदलने की कोशिश तो हुई ही नहीं बकौल गिर्दा, हमने गैरसैण राजधानी इसलिए माँगी थी ताकि अपनी 'औकात' के हिसाब से राजधानी बनाएं, छोटी सी 'डिबिया सी' राजधानी, हाई स्कूल के कमरे जितनी 'काले पाथर' के छत वाली विधान सभा, जिसमें हेड मास्टर की जगह विधान सभा अध्यक्ष और बच्चों की जगह आगे मंत्री और पीछे विधायक बैठते, इंटर कोलेज जैसी विधान परिषद्, प्रिंसिपल साहब के आवास जैसे राजभवन तथा मुख्यमंत्रियों व मंत्रियों के आवास पहाड़ पर राजधानी बनाने के का एक लाभ यह भी कि बाहर के असामाजिक तत्व, चोर, भ्रष्टाचारी वहां गाड़ियों में उल्टी होने की डर से ही न आ पायें, और आ जाएँ तो भ्रष्टाचार कर वहाँ की सीमित सड़कों से भागने से पहले ही पकडे जा सकें गिर्दा कहते थे कि अगर गैरसैण राजधानी ले जाकर वहां भी देहरादून जैसी ही 'रौकात' करनी है तो अच्छा है कि उत्तराखंड की राजधानी लखनऊ से भी कहीं दूर ले जाओ यह कहते हुए वह खास तौर पर 'औकात' और 'रौकात' पर ख़ास जोर देते थे खैर...., बात शुरू हुई थी, फिर करें क्या से, पर गिर्दा मन-मस्तिष्क में ऐसे बैठे हैं कि... 

गिर्दा भी बड़े बांधों के विरोधी थे, उनका मानना था के हमें पारंपरिक घट-आफर जैसे अपने पुश्तैनी धंधों की ओर लौटना होगा यह वन अधिनियम के बाद और आज के बदले हालातों में शायद पहले की तरह संभव न हो, ऐसे में सरकारों व राजनीतिक दलों को सत्ता की हिस्सेदारी से ऊपर उठाकर राज्य की अवधारण पर कार्य करना होगा। हमारे यहाँ सड़कें इसलिए न बनें कि वह बेरोजगारों के लिए पलायन के द्वार खोलें, वरन घर पर रोजगार के अवसर ले कर आयें हमारा पानी बिजली बनकर महानगरों को ही न चमकाए व ए.सी. ही न चलाये, वरन हमारे पनघटों, चरागाहों को भी 'हरा' रखे हमारी जवानी परदेश में खटने की बजाये अपनी ऊर्जा से अपना 'घर' सजाये हमारे जंगल पूरे एशिया को 'प्राणवायु' देने के साथ ही हमें कुछ नहीं तो जलौनी लकड़ी, मकान बनाने के लिए 'बांसे', हल, दनेला, जुआ बनाने के काम तो आयें हमारे पत्थर टूट-बिखर कर रेत बन अमीरों की कोठियों में पुतने से पहले हमारे घरों में पाथर, घटों के पाट, चाख, जातर या पटांगड़ में बिछाने के काम तो आयें हम अपने साथ ही देश-दुनियां के पर्यावरण के लिए बेहद नुक्सानदेह पनबिजली परियोजनाओ से अधिक तो दुनियां को अपने धामों, अनछुए प्राकृतिक सुन्दरता से भरपूर स्थलों को पर्यटन केंद्र बना कर ही और अपनी 'संजीवनी बूटी' सरीखी जड़ी-बूटियों से ही कमा लेंगे हम अपने मानस को खोल अपनी जड़ों को भी पकड़ लेंगे, तो लताओं की तरह भी बहुत ऊंचे चले जायेंगे.......
                                                                        (नैनीताल, 24 अगस्त, 2010)

वनान्दोलन से ठगे जाने की टीस थी दिवंगत 'गिर्दा' को



पहाड़ के छोटे से भूभाग का आन्दोलन बना था देश भर के लिए वन अधिनियम 1980 का प्रणेता, लेकिन इससे पहाड़ वासियों को मिला कुछ नहीं उल्टे हक हुकूक छिन गऐ 
1972 से शुरू हुऐ पहाड़ के एक छोटे से भूभाग का वन आन्दोलन, चिपको जैसे विश्व प्रसिद्ध आन्दोलन के साथ ही पूरे देश के लिए वन अधिनियम 1980 का प्रणेता भी रहा। लेकिन यह सफलता भी आन्दोलनकारियों की विफलता बन गई। दरअसल शासन सत्ता ने आन्दोलनकारियों के कंधे का इस्तेमाल कर अपने हक हुकूक के लिए आन्दोलन में साथ दे रहे पहाड़वासियों से उल्टे उनके हक हुकूक और बुरी तरह छीन लिऐ थे। आन्दोलनकारियों को अपने ही लोगों के बीच गुनाहगार की तरह खड़ा कर दिया था। आन्दोलनकारियों में यह टीस आज भी है।वनान्दोलन से गहरे जुड़े जनकवि गिरीश तिवारी `गिर्दा´ से जब वनान्दोलन की बात चलते हुऐ वन अधिनियम 1980 की सफलता तक पहुंचती है, उनके भीतर की टीस बाहर निकल आती है। वह खोलते हैं, 1972 में वनान्दोलन शुरू होने के पीछे लोगों की मंशा अपने हक हुकूकों को बेहतरी से प्राप्त करने की थी। यह वनों से जीवन यापन के लिए अधिकार की लड़ाई थी। सरकार स्टार पेपर मिल सहारनपुर को कौड़ियों के भाव यहां की वन संपदा लुटा रही थी। इसके खिलाफ ऐतिहासिक वन आन्दोलन हुआ, लेकिन जो वन अधिनियम मिला, उसने स्थितियों को और अधिक बदतर कर दिया है। इससे जनभावनाऐं साकार नहीं हुईं। जनता की स्थिति यथावत बनी हुई है। तत्कालीन पतरौलशाही के खिलाफ जो आक्रोश था, वह आज भी है। औपनिवेशिक व्यवस्था ने जन के जंगल के साथ जल भी हड़प लिया। वन अधिनियम से वनों का कटना नहीं रुका, उल्टे वन विभाग का उपक्रम वन निगम ही और विल्डर वनों को बेदर्दी से काटने लगे। साथ ही ग्रामीण भी परिस्थितियों के वशीभूत ऐसा करने को मजबूर हो गऐ। अधिनियम का पालन करते वह अपनी भूमि के व्यक्तिगत पेड़ों तक को नहीं काट सकते थे। उन्हें हक हुकूक के नाम पर गिनी चुनी लकड़ी भी मीलों दूर मिलती। इससे उनका अपने वनों से आत्मीयता का रिश्ता खत्म हो गया। वन जैसे उनके दुश्मन हो गऐ, जिनसे उन्हें अपनी व्यक्तिगत जरूरतों की चीजें तो मिलती नहीं, उल्टे वन्यजीव उनकी फसलों और उन्हें नुकसान पहुंचा जाते हैं। इसलिऐ अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए ग्रामीण महिलाऐं वनाधिकारियों की नज़रों से बचने के फेर में बड़े पेड़ों की टहनियों को काटने की बजाय छोटे पेड़ों को जल्द काट गट्ठर बना उनके निसान तक छुपा देती हैं। इससे वनों की नई पौध पैदा ही नहीं हो रही। पेड़ पौधों का चक्र समाप्त हो गया है। अब आप गांव में अपना नया घर बनाना दूर उनकी मरम्मत तक नहीं कर सकते। आपका न अपने निकट के पत्थरों, न लकड़ी की `दुन्दार´, न `बांस´ और न छत के लिऐ चौडे़ `पाथरों´ पर ही हक रह गया है। पास के श्रोत का पानी भी आप गांव में अपनी मर्जी से नहीं ला सकते। अधिनियम ने गांवों के सामूहिक गौचरों, पनघटों आदि से भी ग्रामीणों का हक समाप्त करने का शडयन्त्र कर दिया। उनके चीड़ के बगेटों से जलने वाले आफर, हल, जुऐ, नहड़, दनेले बनाने की ग्रामीण काष्ठशालाऐं, पहाड़ के तांबे के जैसे परंपरागत कारोबार बन्द हो गऐ। लोग वनों से झाड़ू, रस्सी को `बाबीला´ घास तक अनुमति बिना नहीं ला सकते। यहां तक कि पहाड़ की चिकित्सा व्यवस्था का मजबूत आधार रहे वैद्यों के औशधालय भी जड़ी बूटियों के दोहन पर लगी रोक के कारण बन्द हो गऐ। दूसरी ओर वन, पानी, खनिज के रूप में धरती का सोना बाहर के लोग ले जा रहे हैं, और गांव के असली मालिक देखते ही रह जा रहे हैं। इसके साथ ही गिर्दा वन अधिनियम के नाम पर पहाड़ के विकास को बाधित करने से भी चिन्तित हैं। उनका मानना है कि विकास की राह में अधिनियम के नाम पर जो अवरोध खड़े किऐ जाते हैं उनमें वास्तविक अड़चन की बजाय छल व प्रपंच अधिक होता है। जिस सड़क के निर्माण से राजनीतिक हित न सध रहे हों, वहां अधिनियम का अड़ंगा लगा दिया जाता है।
                                      (गिर्दा से 20 अप्रैल, 2010 को हुए साक्षात्कार के आधार पर)