You'll Also Like

Tuesday, September 3, 2013

दो टूक : आजादी के 66 वर्ष बाद आजादी से पूर्व जैसे हालात

आजादी के बाद गांधी-नेहरू जाति नाम व आजाद भारत के पहले युगदृष्टा कहे जाने वाले स्वनामधन्य प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के 17 वर्ष लंबे निरंकुश शासन के बाद 1965 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को देश वासियों से सप्ताह में एक दिन उपवास रखने का आह्वान करना पड़ा था। हालांकि इसके साथ ही उन्होंने देश में अन्न उत्पादन को बढ़ाने के लिए 'जय जवान' के साथ “जय किसान” का नारा भी दिया था। यह अलग बात है कि इस नारे से अधिक आज देश की तीसरी प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को “हरित क्रांति” के जरिए देश के अन्न उत्पादन को निर्यात की क्षमता तक विकसित करने का श्रेय दिया जाता है। बहरहाल आज 48 वर्ष बाद देश श्रीमती गांधी के ”गरीबी हटाओ” और जनसंख्या नियंत्रण के लिए “हम दो-हमारे दो” जैसे नारों के बावजूद कथित तौर पर 80 करोड़ गरीबों को कुपोषण से बचाने और भरपेट भोजन देने की ऐतिहासिक कही जा रही राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना लाने को मजबूर हुआ है। 

आज सरकार की ओर से कमोबेश उसी तर्ज पर “सोने का मोह त्यागने” का आह्वान किया गया है और पेट्रोल पंपों को रात्रि में बंद करने जैसे बचकाने बयान आए हैं। आजादी के दौर में एक रुपए का मिलने वाला डॉलर 70 के भाव जाने पर आमादा है। भूख और कुपोषण पर नजर रखने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था-अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आईएफपीआरआई) द्वारा ताज़ा जारी वैश्विक भूखमरी सूचकांक-2010 में भारत को 67वां स्थान दिया गया है जो सूची में चीन और पाकिस्तान से भी नीचे है। ऐसे में उत्साहित दुश्मन राष्ट्र चीन व पाकिस्तान भारत पर कमोबेश एक साथ गुर्रा रहे हैं, और हमारे देश के सबसे बड़े अर्थशास्त्री कहे जाने वाले प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह देश की सुरक्षा और रुपए की घटती कीमत, घटती विकास दर और बढ़ते मूल्य सूचकांक के साथ मुद्रा स्फीति व आपातकाल जैसे हालात स्वयं लाकर मिमियाने की मुद्रा में नजर आ रहे हैं। साथ ही परोक्ष तौर पर यह चुनौती देते भी दिखते हैं कि जब वह नहीं कर पा रहे तो औरों की क्या बिसात !

ऐसे में अच्छा हो कि प्रधानमंत्री थोड़ी और हिम्मत जुटा लें और सरकार और सरकारी मशीनरी के “खाने” व भ्रष्टाचार पर लगाम न कस पाने की अपनी विफलता को स्वीकार कर देश वासियों से बिना घबराए, सोने और पेट्रोल के साथ कम दाल-रोटी “खाने” करने की अपील भी कर दें, शायद देश की समस्त समस्याओं का हल अब इसी कदम में निहित है। 

यह भी पढ़ें: 

1.कांग्रेस के नाम खुला पत्र: कांग्रेसी आन्दोलन क्या जानें....
2. नैनीताल हाईकोर्ट ने सीबीआई की यूं की बोलती बंद
3. अमेरिका, विश्व बैंक, प्रधानमंत्री जी और ग्रेडिंग प्रणाली
4. जनकवि 'गिर्दा' की दो एक्सक्लूसिव कवितायें
5. कौन हैं अन्ना हजारे ? क्या है जन लोकपाल विधेयक ?
6. नीरो सरकार जाये, जनता जनार्दन आती है
7. यह युग परिवर्तन की भविष्यवाणी के सच होने का समय तो नहीं ?
  

Monday, August 19, 2013

सत्याग्रह की जिद पर गांधी जी को भी झुका दिया था डुंगर ने

पहले मना करने पर दुबारा की गई अनुनय पर दी थी अनुमति 
पांच वर्ष रहे जेल में, जेलरों की नाक में भी कर दिया था दम, बदलनी पड़ीं 11 जेलें
नवीन जोशी, नैनीताल। जिद यदि नेक उद्देश्य के लिए हो और दृ़ढ़ इच्छा शक्ति के साथ की जाए तो फिर पहाड़ों का भी झुकना पड़ता है। जिस अहिंसा और सत्याग्रह के मार्ग से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कभी अपने राज्य में सूर्य के न छुपने के घमंड वाले अंग्रेजों को झुका कर देश से बाहर खदेड़ दिया था, उसी अहिंसा  और सत्याग्रह की जिद से पहाड़ के एक बेटे ने महात्मा गांधी को भी झुका दिया था। जी हां, राष्ट्रपिता के समक्ष भी ऐसे विरले अनुभव ही आए होंगे, जहां उन्हें किसी ने अपना निर्णय बदलने को मजबूर किया होगा। देश को आजाद कराने के लिए गांधी जी के ऐसे ही एक जिद्दी सिपाही और स्वतंत्रता सेनानी का नाम डुंगर सिंह बिष्ट है।
यह 1940 की बात है। 1919 में जिले के सुंदरखाल गांव में सबल सिंह के घर जन्मे डुंगर तब कोई 20 वर्ष के रहे होंगे। इस उम्र में भी वह आईवीआरआई मुक्तेश्वर के सरकारी स्कूल में प्रधानाध्यापक के पद पर कार्यरत थे। तभी गांधी जी के सत्यागह्र आंदोलन से वह ऐसे प्रेरित हुए कि पांच नवंबर 1940 को आजादी के आंदोलन में पूरी तर रमने के लिए लगी-लगाई नौकरी छोड़ दी, और देश की सक्रिय सेवा के लिए फौज में शामिल होने का मन बनाया। 14 नवंबर 1940 को भर्ती अफसर कर्नल एटकिंशन ने उन्हें देखते ही अस्थाई सेकेंड लेफ्टिनेंट के पद पर चयनित कर लिया। लेकिन इसी बीच हल्द्वानी में पं. गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व में चल रहे सत्याग्रह आंदोलन को देखकर उन्होंने फौज का रास्ता छोड़ सीधे सत्याग्रह आंदोलन में कूदने का मन बना डाला, और पहले तत्कालीन कांग्रेस जिलाध्यक्ष मोतीराम पाण्डे को और फिर सीधे महात्मा गांधी को पत्र लिखकर सत्याग्रह आंदोलन की अनुमति देने का आग्रह किया। 26 दिसंबर 1940 को बापू के पीए प्यारे लाल नैयर ने उन्हें बापू का संदेश देते हुए पत्र लिखा कि उनके पिता 84 वर्ष के हैं, माता तथा भाभी की मृत्यु हो चुकी है, और पिता की देखभाल को कोई नहीं हैं, लिहाजा उन्हें सत्याग्रह की इजाजत नहीं दी जा सकती। वह पिता की सेवा करते हुए बाहर से ही देश सेवा करते रहें। डुंगर अनुमति न मिलने से बेहद दुःखी हुए, और पुनः एक जनवरी 1941 को बापू को पत्र लिखकर अनुमति देने की जिद की। आखिर उनकी जिद पर बापू को झुकना पड़ा और बापू ने 18 मार्च 41 को उन्हें, ‘स्वयं को उनके देश-प्रेम से बेहद हर्षित और उत्साहित’ बताते हुए इजाजत दे दी। इस पर डुंगर ने आठ अप्रेल को कड़ी सुरक्षा को धता बताते हुए आठ दिनों तक घर व जंगल में छुपते-छुपाते सरगाखेत में अपने साथी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व पुरोहित भवानी दत्त जोशी के साथ सत्यागह्र कर ही दिया। हजारों लोगों के बीच वह अचानक मंच पर प्रकट हुए, और ‘गांधी जी की जै-जैकार, अंग्रेजो भारत को स्वतंत्र करो’ तथा बापू द्वारा सत्याग्रह हेतु दिया गया संदेश ‘इस अंग्रेजी लड़ाई में रुपया या आदमी से मदद देना हराम है, हमारे लिए यही है कि अहिंसात्मक सत्याग्रह के जरिए हर हथियारबंद लड़ाई का मुकाबिला करें’ पढ़ा।  इसके तुरंत बाद उन्हें पुलिस ने पकड़कर पांच वर्ष के लिए जेल भेज दिया। वर्तमान में 96 वर्षीय श्री बिष्ट बताते हैं कि जेल में भी वह जेलर व जेल अधीक्षकों की नाक में दम किए रहे, इस कारण उन्हें पांच वर्षों में अल्मोड़ा, नैनीताल, हल्द्वानी, आगरा, खीरी-लखीमपुर, लखनऊ कैंप व वनारस सहित 11 जेलों में रखना पड़ा। इस दौरान देश में 87 हजार लोगों ने सत्याग्रह किया था, पर डुंगर का दावा है कि 1945 में वनारस जल से रिहा होने वाले वह आखिरी सत्याग्रही थे। आगे देश को दी गई सेवाओं का सिला उन्हें अपने गांव का पहला प्रधान, सरपंच तथा आगे यूपी के मंत्री बनने के रूप में मिला। 

Monday, August 12, 2013

वो भी क्या दिन थे.....

ठीक से तो याद नहीं, मेरी जन्म तिथि शायद सन् 1917 की रही होगी। 1917 इसलिऐ क्योंकि सन् 1946 के आसपास जब मैं अंग्रेजों की फौज (द्वितीय विश्व युद्ध की ब्रिटिश आर्मी-द ट्वेल्थ फ्रंटियर फोर्स रेजीमेंट सियालकोट (वर्तमान पाकिस्तान) में 03.05.1945 से 16.07.1946 तक सिपाही 3429418 के रूप में) में भर्ती हुआ था, तब मेरी उम्र करीब 29 वर्ष थी। मेरी शादी हो चुकी थी, और पहली सन्तान होने को थी। बड़े भाई ने मेरे खिलाफ पिता के कान भरे थे, जिस पर पिता ने एक दिन डपट दिया। बस क्या था, मैं घर से निकल भागा। तब गरुड़ तक ही सड़क थी, और हमारा गांव ‘तोली’ (पोथिंग) पिण्डारी ग्लेशियर के यात्रा मार्ग पर पड़ता था। मैं सुबह तड़के घर से भागकर जगथाना के रास्ते से गरुड़ के लिए निकल पड़ा। शाम तक वज्यूला गांव पहुंच गया, वहां मेरे ममेरे भाई की ससुराल थी। रात्रि में वहीं रुका। सुबह बस पकड़ी और नैनीताल के लिए चल पड़ा। वहां नैनीताल में मेरे जेठू अंबा दत्त, मोटर कंपनी में ‘मोटर मैन’ थे। चलते ही ममेरे भाई ने ताकीद कर दी थी, गेठिया में बस से उतर जाना, वहां से नैनीताल पास ही होता है। सीधे नैनीताल जाओगे तो वहां ‘टैक्स’ देना पड़ेगा। तब अक्सर लोग चार आने के करीब पड़ने वाले टैक्स को बचाने के लिए ऐसे यत्न आम तौर पर करते थे। मैंने भी ऐसा ही किया। गेठिया से नैनीताल के लिए करीब दो किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई थी। पर उस जमाने में जब पैदल चलना आम होता था, यह दूरी नगण्य ही मानी जाती थी।
खैर, मैं नैनीताल पहुंच गया। जेठू जी से मिला, उनके घर रहा। दूसरे दिन मुझे घर पर बैठे रहने को कह कर जेठू काम पर चले गऐ, लेकिन मैं अकेला ही बाहर निकल गया। गांव से पहली बार घर से निकला था, पर किसी तरह की झिझक मुझमें नहीं थी। देखा, तल्लीताल में अंग्रेजों की सेना के लिए भर्ती चल रही थी। मैं भी भर्ती प्रक्रिया में शामिल हो गया। वजन आदि लिया गया। आगे मेडिकल जांच के लिए नऐ रंगरूटों (रिक्रूटों) को पैदल अल्मोड़ा जाने की बात हुई। अंग्रेजी न जानने के बावजूद मुझमें अंग्रेजों से बात करने में कोई झिझक नहीं थी। अंग्रेज भी कोई ‘हिटलर’ जैसे न थे। मैंने कह दिया, अंग्रेज साहब तुम्हें भी साथ में पैदल चलना पड़ेगा, तभी जाऐंगे। उन्हें भी कोई आपत्ति नहीं हुई। तब अल्मोड़ा के लिए सीधे सड़क नहीं थी। गरमपानी से रानीखेत व कोसी होते हुऐ अल्मोड़ा के लिए रास्ता था। हम लोग सुयालबाड़ी के गधेरे से होते हुऐ पैदल रास्ते से अल्मोड़ा पहुंचे। कमोबेश इसी पैदल रास्ते से आज की सड़क बनी है। मेडिकल प्रक्रिया में शामिल हुआ। वहां साथ गऐ सभी रिक्रूटों में से केवल मैं भर्ती हुआ। अन्य ‘टेस्ट’ में कोई आंख न दिखाई देने, तो कोई न सुनाई देने जैसी बातें बताकर बाहर हो गये थे। बाद में पता चला कि यह लोग बहाने करते थे। वह बहुत गरीबी का जमाना था। भर्ती प्रक्रिया के दौरान खाने को पूड़ियां और वापसी पर दो रुपऐ मिलते थे, जिसके लालच में लड़के भर्ती होने आते थे, और बहाने बनाकर दो रुपऐ लेकर वापस लौट आते थे। मुझे यह पता न था। मुझसे अंग्रेज अफसर ने पूछा, तुम्हें कोई परेशानी नहीं है। मैंने दृढ़ता से कहा, ‘नहीं, मैं लड़ने आया हूं। कुछ परेशानी होती तो क्यों आता ?’ अफसर मुझसे बहुत प्रभावित हुआ। कहा, ‘तुम भर्ती हो गऐ हो। सियालकोट (पाकिस्तान) पोस्टिंग हुई है। वहीं ज्वाइनिंग लेनी होगी।’ रास्ते के खर्च के लिए चार रुपऐ दिऐ। तब आठ आने यानी 50 पैंसे में अच्छा खाना मिल जाता था। काठगोदाम तक साथ में एक आदमी भेजा, और रास्ते के बारे में बताकर अकेले सियालकोट भेज दिया। मैंने उससे पूर्व ट्रेन क्या बस भी नहीं देखी थी, पर मैं निर्भीक होकर रुपऐ ले खुशी-खुशी चल पड़ा।
ट्रेन से पहले बरेली, वहां से ट्रेन बदलकर मुरादाबाद, और वहां से एक और ट्रेन बदलकर सीधे सियालकोट पहुंच गया। वहां गर्मी के दिन थे, पहुंचते ही पोस्टिंग ले ली। तुरन्त मलेशिया की बनी नई ड्रेस मिल गई। अपने इलाके के और रिक्रूट मिल गऐ। मुझे देखकर खुश हो गऐ। मैं उनसे अधिक उम्र का था, और डील डौल में भी बड़ा, लिहाजा पहुंचते ही उन्होंने मेरी अच्छी सेवा की। वहां हिन्दू और मुस्लिम हर तरह के सिपाही थे, सबमें अच्छा दोस्ताना था। बस दोनों की ‘खाने की मेस’ अलग-अलग होती थी। छह माह के भीतर गोलियां चलाने की ट्रेनिंग शुरू हो गई। इस हेतु 600 गज में चॉंदमारी (गोलियां चलाने की ट्रेनिंग का स्थान) बनाई गई थी। मैंने जिन्दगी में पहला फायर झोंका, बिल्कुल निशाने पर। अंग्रेज अफसर से शाबासी मिली। फिर दूसरा, तीसरा.....कर पूरे दस, सब के सब ठीक निशाने पर। साथियों और अफसरों में मैं हीरो हो गया। सबसे शाबासी मिली। मेरा खयाल रखा जाने लगा। लेकिन फौज में एक वर्ष ही हुआ होगा, कि आजाद हिन्द फौज के सिपाही आ गऐ। अंग्रेजों के उनके सामने पांव उखड़ गऐ। लिहाजा, हमारी ‘फौज’ टूट गई। आजादी का वक्त आ गया। हमसे कहा गया कि ‘सेकेण्ड कुमाऊं रेजीमेंट’ खुल गई है। वहां चले जाओ। सीधे घर जाने पर 120 रुपऐ मिलने थे, और ‘सेकेण्ड कुमाऊं रेजीमेंट’ में जाने पर यह 120 रुपऐ खोने का खतरा था। तब अक्ल भी नहीं हुई। 120 रुपऐ बहुत होते थे, घर की परिस्थितियां भी याद आईं। लालच में आ गया। सीधे घर चला आया। 120 रुपऐ से गांव में चाचा की जमीन खरीद ली, जबकि शान्तिपुरी भाबर में 210 रुपऐ में 120 नाली जमीन और जंगल काटने के लिए हथियार मिल रहे थे। लेकिन अपनी मिट्टी के प्यार ने वहां भी नहीं जाने दिया। तभी से अपनी मिट्टी को थामे हुऐ पहाड़ में जमा हुआ हूं। 
(दादाजी स्वर्गीय श्री देवी दत्त जोशी जी से बातचीत के आधार पर, वह गत 8 अगस्त 2013 को मोक्ष को प्राप्त हो गए ) -नवीन जोशी, नैनीताल।

सम्बंधित लेख: http://uttarakhandsamachaar.blogspot.in/2013/08/blog-post_11.html

Wednesday, June 26, 2013

देवभूमि को आपदा से बचा सकता है "नैनीताल मॉडल"

वर्ष 1880 के भूस्खलन ने बदल दिया था सरोवरनगरी का नक्शा, तभी बने नालों की वजह से बचा है कमजोर भूगर्भीय संरचना का यह शहर 
इसी तरह से अन्यत्र भी हों प्रबंध तो बच सकते हैं दैवीय आपदाओं से 
पहाड़ का परंपरागत मॉडल भी उपयोगी 
नवीन जोशी, नैनीताल। कहते हैं कि आपदा और कष्ट मनुष्य की परीक्षा लेते हैं और समझदार मनुष्य उनसे सबक लेकर भावी और बड़े कष्टों से स्वयं को बचाने की तैयारी कर लेते हैं। ऐसी ही एक बड़ी आपदा नैनीताल में 18 सितंबर 1880 को आई थी, जिसने तब केवल ढाई हजार की जनसंख्या वाले इस शहर के 151 लोगों और नगर के प्राचीन नयना देवी मंदिर को लीलने के साथ नगर का नक्शा ही बदल दिया था, लेकिन उस समय उठाए गए कदमों का ही असर है कि यह बेहद कमजोर भौगोलिक संरचना का नगर आज तक सुरक्षित है। इसी तरह पहाड़ के ऊंचाई के अन्य गांव भी बारिश की आपदा से सुरक्षित रहते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि नैनीताल और पहाड़ के परंपरागत मॉडल केदारघाटी व चारधाम यात्रा क्षेत्र से भी भविष्य की आपदाओं की आशंका को कम कर सकते हैं। 
1841 में स्थापित नैनीताल में वर्ष 1867 में बड़ा भूस्खलन हुआ था, और भी कई भूस्खलन आते रहते थे, इसी कारण यहाँ राजभवन को कई जगह स्थानांतरित करना पढ़ा था। लेकिन 18 सितम्बर 1880 की तिथि नगर के लिए कभी न भुलाने वाली तिथि है। तब 16 से 18 सितम्बर तक 40 घंटों में 20 से 25 इंच तक बारिश हुई थी। इसके कारण आई आपदा को लिखते हुए अंग्रेज लेखक एटकिंसन भी सिहर उठे थे। लेकिन उसी आपदा के बाद लिये गये सबक से सरोवर नगरी आज तक बची है और तब से नगर में कोई बड़ा भूस्खलन भी नहीं हुआ है। उस दुर्घटना से सबक लेते हुए तत्कालीन अंग्रेज नियंताओं ने पहले चरण में नगर के सबसे खतरनाक शेर-का-डंडा, चीना (वर्तमान नैना), अयारपाटा, लेक बेसिन व बड़ा नाला (बलिया नाला) में नालों का निर्माण कराया। बाद में 1890 में नगर पालिका ने रुपये से अन्य नाले बनवाए। 23 सितम्बर 1898 को इंजीनियर वाइल्ड ब्लड्स द्वारा बनाए नक्शों के आधार पर 35 से अधिक नाले बनाए गए। वर्ष 1901 तक कैचपिट युक्त 50 नालों (लम्बाई 77,292 फीट) और 100 शाखाओं का निर्माण (लंबाई 1,06,499 फीट) कर लिया गया। बारिश में कैच पिटों में भरा मलबा हटा लिया जाता था। अंग्रेजों ने ही नगर के आधार बलिया नाले में भी सुरक्षा कार्य करवाए जो आज भी बिना एक इंच हिले नगर को थामे हुए हैं। यह अलग बात है कि इधर कुछ वर्ष पूर्व ही हमारे इंजीनियरों द्वारा बलिया नाला में कराये गए कार्य कमोबेश पूरी तरह दरक गये हैं। बहरहाल, बाद के वर्षो में और खासकर इधर 1984 में अल्मोड़ा से लेकर हल्द्वानी और 2010 में पूरा अल्मोड़ा एनएच कोसी की बाढ़ में बहने के साथ ही बेतालघाट और ओखलकांडा क्षेत्रों में जल-प्रलय जैसे ही नजारे रहे, लेकिन नैनीताल कमोबेश पूरी तरह सुरक्षित रहा। ऐसे में भूवैज्ञानिकों का मानना है ऐसी भौगोलिक संरचना में बसे प्रदेश के शहरों को "नैनीताल मॉडल" का उपयोग कर आपदा से बचाया जा सकता है। कुमाऊं विवि के विज्ञान संकायाध्यक्ष एवं भू-वैज्ञानिक प्रो. सीसी पंत एवं यूजीसी वैज्ञानिक प्रो. बीएस कोटलिया का कहना है कि नैनीताल मॉडल के सुरक्षित 'ड्रेनेज सिस्टम' के साथ ही पहाड़ के परंपरागत सिस्टम का उपयोग कर प्रदेश को आपदा से काफी हद तक बचाया जा सकता है। इसके लिए पहाड़ के परंपरागत गांवों की तरह नदियों के किनारे की भूमि पर खेतों (सेरों) और उसके ऊपर ही मकान बनाने का मॉडल कड़ाई से पालन करना जरूरी है। प्रो. कोटलिया का कहना है कि मानसून में नदियों के अधिकतम स्तर से 60 फीट की ऊंचाई तक किसी भी प्रकार के निर्माण की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

इधर आपदा प्रबंधन एवं न्यूनीकरण केंद्र (डीएमएमसी) के अध्ययन "स्लोप इनस्टेबिलिटी एंड जियो-एन्वायरमेंटल इश्यूज ऑफ द एरिया अराउंड नैनीताल" के मुताबिक नैनीताल को 1880 से लेकर 1893, 1898, 1924, 1989, 1998 में भूस्खलन का दंश झेलना पड़ा। 18 सितम्बर 1880 में हुए भूस्खलन में 151 व 17 अगस्त 1898 में 28 लोगों की जान गई थी। इन भयावह प्राकृतिक आपदाओं से सबक लेते हुए अंग्रेजों ने शहर के आसपास की पहाड़ियों के ढलानों पर होने वाले भूधंसाव, बारिश और झील से होने वाले जल रिसाव और उसके जल स्तर के साथ ही कई धारों (प्राकृतिक जलस्रेत) के जलस्रव की दर आदि की नियमित मॉनीटरिंग करने व आंकड़े जमा करने की व्यवस्था की थी। यही नहीं प्राकृतिक रूप से संवेदनशील स्थानों को मानवीय हस्तक्षेप से मुक्त रखने के लिए कई कड़े नियम कानून बनाए थे। मगर आजादी के बाद यह सब ठंडे बस्ते में चला गया। शहर कंक्रीट का जंगल होने लगा। पिछले पांच वर्षो में ही झील व आस-पास के वन क्षेत्रों में खूब भू-उपयोग परिवर्तन हुआ है और इंसानी दखल बढ़ा है। नैनीझील के आसपास की संवेदनशील पहाड़ियों के ढालों से आपदा के मानकों की धज्जियां उड़ाते हुए गंभीर छेड़छाड़ की जा रही है। पहाड़ के मलबों को पहाड़ी ढालों से निकलने वाले पानी की निकासी करने वाले प्राकृतिक नालों को मलबे से पाटा जा रहा है। नैनी झील के जल संग्रहण क्षेत्रों तक में अवैध कब्जे हो रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद सरोवरनगरी में अवैध निर्माण कार्य अबाध गति से जारी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इन क्षेत्रों में हुए सूक्ष्म बदलाव भी नैनी झील के वजूद के लिए खतरा बन सकते हैं।

Sunday, May 26, 2013

बिनसर: प्रकृति की गोद में प्रभु का अनुभव

कत्यूरी राजाओं द्वारा निर्मित बिन्सर महादेव मंदिर
देवभूमि उत्तराखंड के कण-कण में देवत्व का वास कहा जाता है। यह देवत्व ऐसे स्थानों पर मिलता है जहां नीरव शांति होती है, और यदि ऐसे शांति स्थल पर प्रकृति केवल अपने प्राकृतिक स्वरूप में यानी मानवीय हस्तक्षेप रहित रूप में मिले तो क्या कहने। जी हां, ऐसा ही स्थल है-बिन्सर। जहां प्रकृति की गोद में बैठकर प्रभु को आत्मसात करने का अनुभव लिया जा सकता है। 
अल्मोड़ा जनपद मुख्यालय से करीब 35 किमी की दूरी पर बागेश्वर मोटर मार्ग पर बिन्सर समुद्र सतह से अधिकतम 2450 मीटर की ऊंचाई (जीरो पॉइंट) पर स्थित प्रकृति और प्रभु से एक साथ साक्षात्कार करने का स्थान है। प्रकृति से इतनी निकटता के मद्देनजर ही 1988 में इस 47.07 वर्ग किमी क्षेत्र को बिन्सर वन्य जीव विहार के रूप में संरक्षित किया गया, जिसके फलस्वरूप यहां प्रकृति बेहद सीमित मानवीय हस्तक्षेप के साथ अपने मूल स्वरूप में संरक्षित रह पाई है। इसी कारण इसे उत्तराखंड के ऐसे सुंदरतम पर्वतीय पर्यटक स्थलों में शुमार किया जाता है। यही कारण है कि अल्मोड़ा-बागेश्वर मोटर मार्ग से करीब 13 किमी के कठिन व कुछ हद तक खतरनाक सड़क मार्ग की दूरी और बिजली, पानी व दूरसंचार की सीमित सुविधाओं के बावजूद हर वर्ष देश ही नहीं दुनिया भर से हजारों की संख्या में सैलानी यहां पहुंचते हैं, और पकृति की नेमतों के बीच कई-कई दिन तक ऐसे खो जाते हैं, कि वापस लौटने का दिल ही नहीं करता। यहां सैकड़ों दुर्लभ वन्य जीवों, वनस्पतियों व परिंदों की प्रजातियों के साथ ही हिमालय की करीब 300 किमी लंबी पर्वत श्रृंखलाओं के एक साथ अकाट्य दर्शन होते हैं, तो 13वीं शताब्दी में कत्यूरी राजाओं द्वारा निर्मित बिन्सर महादेव मंदिर में हिमालयवासी महादेव शिव अष्टभुजा माता पार्वती के साथ दर्शन देते हैं। उत्तराखंड का राज्य बुरांश यहां चीड़, काफल, बांज, उतीस, मोरु, खरसों, तिलोंज व अयार के साथ ही देवदार की हरीतिमा से भरे जंगलों को अपने लाल सुर्ख फूलों से ‘जंगल की ज्वाला’ में तब्दील कर देता है, तो राज्य पक्षी मोनाल भी कठफोड़वा, कलीज फीजेंट, चीड़ फीजेंट, कोकलास फीजेंट, जंगली मुर्गी, गौरैया, लमपुछड़िया, सिटौला, कोकलास, गिद्ध, फोर्कटेल, तोता व काला तीतर आदि अपने संगी 200 से अधिक पक्षी प्रजातियों के साथ यदा-कदा दिख ही जाता है। करीब 40 प्राकृतिक जल श्रोतों वाले बिन्सर क्षेत्र में असंख्य वृक्ष प्रजातियों के साथ नैर जैसी सुंगधित वनस्पति भी मिलती है, जिससे हवन-यज्ञ में प्रयुक्त की जाने वाली धूप निर्मित की जाती है, और यह राज्य पशु कस्तूरा मृग का भोजन भी मानी जाती है। कस्तूरा की कुंडली में बसने वाली बहुचर्चित कस्तूरी और शिलाजीत जैसी औषधियां भी यहां पाई जाती हैं। कस्तूरा के साथ ही यहां तेंदुआ, काला भालू, गुलदार, साही, हिरन प्रजाति के घुरल, कांकड़, सांभर, सरों, चीतल, जंगली बिल्ली, सियार, लोमड़ी, जंगली सुअर, बंदर व लंगूरों के साथ गिलहरी आदि की दर्जनों प्रजातियां भी यहां मिलती हैं। बिन्सर जाते हुए गर्मियों में खुमानी, पुलम, आड़ू व काफल जैसे लजीज पहाड़ी फलों का स्वाद लिया जा सकता है। काफल के साथ हिसालू व किल्मोड़ा जैसे फल बिन्सर की ओर जाते हुए सड़क किनारे लगे पेड़ों-झाड़ियों से मुफ्त में ही प्राप्त किए जा सकते हैं। अपनी इन्हीं खूबियों के कारण शहरों की भीड़-भाड़ से दूर प्रकृति की गोद में स्वयं को सोंप देने के इच्छुक लोगों के लिए बिन्सर सबसे बेहतर स्थान है।
बिन्सर में नेचर वॉक
यूं पहाड़ों पर सैलानी गर्मियों के अवकाश में मैदानी गर्मी से बचकर पहाड़ों पर आते हैं, किंतु इस मौसम में प्रकृति में छायी धुंध कुछ हद तक दूर के सुंदर दृश्यों को देखने में बाधा डालकर आनंद को कम करने की कोशिश करती है, बावजूद बिन्सर में करीब में भी प्रकृति के इतने रूपों में दर्शन होते हैं कि इसकी कमी नहीं खलती। इस मौसम में भी यहां बुरांश के खिले फूलों को देखा जा सकता है, अलबत्ता अब तक वह कुछ हद तक सूख चुके होते हैं। गर्मियों से पूर्व बसंत के मार्च-अप्रैल और बरसात के बाद सितंबर-अक्टूबर यहां आने के लिए सर्वश्रेष्ठ समय हैं। इस मौसम में यहां से हिमालय पर्वत की केदारनाथ, कर्छकुंड, चौखम्भा, नीलकंठ, कामेत, गौरी पर्वत, हाथी पर्वत, नन्दाघुंटी, त्रिशूल, मैकतोली (त्रिशूल ईस्ट), पिण्डारी, सुन्दरढुंगा ग्लेशियर, नन्दादेवी, नन्दाकोट, राजरम्भा, लास्पाधूरा, रालाम्पा, नौल्पू व पंचाचूली तक की करीब 300 किमी लंबी पर्वत श्रृंखलाओं का एक नजर घुमाकर ‘बर्ड आई व्यू’ सरीखा अटूट नजार लिया जा सकता है। कमोबेस बादलों की ऊंचाई में होने के कारण बरसात सहित अन्य मौसम में बादल भी यहां कौतूहल के साथ सुंदर नजारा पेश करते हैं। 
 कुमाऊं मंडल विकास निगम का पर्यटक आवास गृह
आवास के लिए यहां कुमाऊं मंडल विकास निगम का 2300 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पर्यटक आवास गृह (टूरिस्ट रेस्ट हाउस) सर्वाधिक बेहतर सुविधाएं उपलब्ध कराता है। यहां करीब चार किमी दूर बिन्सर महादेव मंदिर के पास से मोटर की मदद से उठाकर पानी तथा जनरेटर की मदद से शाम को छह से नौ बजे तक बिजली की रोशनी भी उपलब्ध कराया जाता है। रेस्ट हाउस की टैरेस नुमा छत में बैठकर सुबह सूर्योदय एवं हिमालय की चोटियों तथा प्रकृति के दिलकश नजारे लिए जा सकते हैं। ‘नेचर वॉक’ करते हुए आधा किमी की दूरी पर स्थित सन सेट पॉइंट से शाम को सूर्यास्त के तथा करीब दो किमी की दूरी पर स्थित ‘जीरो पाइंट’ से हिमालय की चोटियों एवं दूर-दूर तक की पहाड़ी घाटियों और कुमाऊं की चोटियों का नजारा लिया जा सकता है। बिन्सर जाने की राह में चार किमी पहले 13वीं शताब्दी में बना बिन्सर महादेव मंदिर अपनी प्राकृतिक सुषमा एवं कत्यूरी शिल्प व मंदिर कला के कारण ध्यान आकृष्ट करता है। ध्यान-योग के लिए यह बेहद उपयुक्त स्थान है। मंदिर के पास की कोठरी में वर्ष भर प्रभु के भक्त पास ही के वन से प्राप्त वनस्पतियों से तैयार सुगंधित धूप की महक के साथ हवन-यज्ञ, ध्यान-साधना करते रहते हैं। मंदिर के बारे में कहा जाता है कि चंद राजाओं ने एक रात्रि में ही इसका निर्माण किया था। करीब 800 वर्षों के उपरांत भी बिना खास देखभाल के ठीक-ठाक स्थिति में मौजूद मंदिर इसके स्थापकों की समृद्ध भवन और मंदिर स्थापत्य कला एवं कर्तव्यनिष्ठा की प्रशंषा को मजबूर करता है। पास में एक प्राकृतिक नौला यानी स्वच्छ एवं मिनरल वाटर सरीखा प्राकृतिक रूप से शुद्ध पानी का चश्मा तथा सामने विशाल मैदान भी अपनी खूबसूरती के साथ मौजूद हैं। यहां मैरी बडन व खाली इस्टेट भी स्थित हैं।

Thursday, April 18, 2013

बसने के चार वर्ष के भीतर ही देश की दूसरी पालिका बन गया था नैनीताल


सफाई व्यवस्था सुनियोजित करने को बंगाल प्रेसीडेंसी एक्ट के तहत 1845 में हुआ था गठन
नवीन जोशी नैनीताल। जी हां, देश ही नहीं दुनिया में नैनीताल ऐसा अनूठा व इकलौता शहर होगा जिसे बसने के चार वर्ष के अंदर ही नगर पालिका का दर्जा मिल गया था। दूर की सोच रखने वाले इस शहर के अंग्रेज नियंताओं ने शहर के बसते ही इसकी साफ-सफाई को सुनियोजित करने के लिए बंगाल प्रेसीडेंसी एक्ट-1842 के तहत इसे 1845 में नगर पालिका का दर्जा दे दिया गया था। 
विदित है कि नैनीताल नगर को वर्तमान स्वरूप में बसाने का श्रेय अंग्रेज व्यवसायी पीटर बैरन को जाता है, जो 18 नवम्बर 1841 को यहां आया लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि इसके तीन वर्ष के उपरांत 1843-44 में ही, जब नगर की जनसंख्या कुछ सौ ही रही होगी, नगर की साफ-सफाई के कार्य को सुनियोजित करने के लिए इसे नगर पालिका बनाने का प्रस्ताव नगर के तत्कालीन नागरिकों ने कर दिया था। अंग्रेज लेखक टिंकर की पुस्तक "लोकल सेल्फ गवर्नमेंट इन इंडिया, पाकिस्तान एंड वर्मा" के पेज 28-29 में नैनीताल के देश की दूसरी नगर पालिका बनने का रोचक जिक्र किया गया है। पुस्तक के अनुसार उस दौर में किसी शहर की व्यवस्थाओं को सुनियोजित करने के लिए तत्कालीन नार्थ-वेस्ट प्रोविंस में कोई प्राविधान ही नहीं थे। लिहाजा 1842 में बंगाल प्रेसीडेंसी के लिए बने बंगाल प्रेसीडेंसी अधिनियम-1842 के आधार पर इस नए नगर को नगर पालिका का दर्जा दे दिया गया। इससे पूर्व केवल मसूरी को (1842 में) नगर पालिका का दर्जा हासिल था, इस प्रकार नैनीताल को देश की दूसरी नगर पालिका होने का सौभाग्य मिल गया। अधिनियम के तहत 7 जून 1845 को नगर की व्यवस्थाएं देखने के लिए कुमाऊं के दूसरे कमिश्नर मेजर लूसिंग्टन की अध्यक्षता में मेजर जनरल सर डब्लू रिचर्ड्स, मेजर एचएच आरवॉड, कैप्टेन वाईपी पोंग व पी वैरन की पांच सदस्यीय समिति  गठित कर दी गयी।  आगे 1850 में म्युनिसिपल एक्ट आने के बाद तीन अक्टूबर 1850 को यहां विधिवत नगर पालिका बोर्ड का गठन हुआ। नगर के बुजुर्ग नागरिक व म्युनिसिपल कमिश्नर (सभासद) रहे गंगा प्रसाद साह बताते हैं कि उस दौर में नियमों का पूरी तरह पालन सुनिश्चित किया जाता था। सेनिटरी इंस्पेक्टर घोड़े पर सवार होकर रोज एक-एक नाले का निरीक्षण करते थे। माल रोड पर यातायात को हतोत्साहित करने के लिए चुंगी का प्राविधान किया गया था। गवर्नर को चुंगी से छूट थी। एक बार अंग्रेज लेडी गवर्नर बिना चुंगी दिए माल रोड से गुजरने का प्रयास करने लगीं, जिस पर तत्कालीन पालिकाध्यक्ष राय बहादुर जसौत सिंह बिष्ट ने लेडी गवर्नर का 10 रुपये का चालान कर दिया था।

नैनीताल नगर पालिका की विकास यात्रा

  • 1841 में पहला भवन पीटर बैरन का पिलग्रिम हाउस बनना शुरू ।
  • तल्लीताल गोरखा लाइन से हुई बसासत की शुरूआत। 
  • 1845 में मेजर लूसिंग्टन, 1870 में जे मैकडोनाल्ड व 1845 में एलएच रॉबर्टस बने पदेन अध्यक्ष। 
  • 1891 तक कुमाऊं कमिश्नर होते थे छह सदस्यीय पालिका बोर्ड के पदेन अध्यक्ष व असिस्टेंट कमिश्नर उपाध्यक्ष। 
  • 1891 के बाद डिप्टी कमिश्नर (डीसी) ही होने लगे अध्यक्ष। 
  • 1900 से वैतनिक सचिव होने लगे नियुक्त, बोर्ड में होने लगे पांच निर्वाचित एवं छह मनोनीत सदस्य। 
  • 1921 से छह व 1927 से आठ सदस्य होने लगे निर्वाचित। 
  • 1934 में आरई बुशर बने पहले सरकार से मनोनीत गैर अधिकारी अध्यक्ष (तब तक अधिकारी-डीसी ही होते थे अध्यक्ष)। 
  • 1941 में पहली बार रायबहादुर जसौत सिंह बिष्ट जनता से चुन कर बने पालिकाध्यक्ष। 
  • 1953 से राय बहादुर मनोहर लाल साह रहे पालिकाध्यक्ष। 
  • 1964 से बाल कृष्ण सनवाल रहे पालिकाध्यक्ष। 
  • 1971 से किशन सिंह तड़ागी रहे पालिकाध्यक्ष। 
  • 1977 से 1988 तक डीएम के हाथ में रही सत्ता। 
  • 1977 तक बोर्ड सदस्य कहे जाते थे म्युनिसिपल कमिश्नर, जिम कार्बेट भी 1919 में रहे म्युनिसिपल कमिश्नर। 
  • 1988 में अधिवक्ता राम सिंह बिष्ट बने पालिकाध्यक्ष। 
  • 1994 से 1997 तक पुन: डीएम के हाथ में रही सत्ता। 
  • 1997 में संजय कुमार :संजू", 2003 में सरिता आर्या व 2008 में मुकेश जोशी बने अध्यक्ष।
यह भी पढ़ें: नैनीताल क्या नहीं, क्या-क्या नहीं, यह भी, वह भी, यानी सचमुच स्वर्ग 

Sunday, March 17, 2013

इस साल समय पर खिला राज्य वृक्ष बुरांश, क्या ख़त्म हुआ 'ग्लोबलवार्मिंग' का असर ?


नवीन जोशी, नैनीताल। राज्य वृक्ष बुरांश का छायावाद के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत ने अपनी मातृभाषा कुमाऊंनी में लिखी एकमात्र कविता में कुछ इस तरह वर्णन किया है 
‘सार जंगल में त्वि ज क्वे नहां रे क्वे नहां
फुलन छे के बुरूंश जंगल जस जलि जां।
सल्ल छ, दयार छ, पईं छ अयांर छ, 
पै त्वि में दिलैकि आग, 
त्वि में छ ज्वानिक फाग।
(बुरांश तुझ सा सारे जंगल में कोई नहीं है। जब तू फूलता है, सारा जंगल मानो जल उठता है। जंगल में और भी कई तरह के वृक्ष हैं पर एकमात्र तुझमें ही दिल की आग और यौवन का फाग भी मौजूद है।) 
कवि की कल्पना से बाहर निकलें, तो भी बुरांश में राज्य की आर्थिकी, स्वास्थ्य और पर्यावरण सहित अनेक आयाम समाहित हैं। अच्छी बात है कि इस वर्ष बुरांश अपने निश्चित समय यानी चैत्र माह के करीब खिला है, इससे इस वृक्ष पर ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव पड़ने की चिंताओं पर भी कुछ हद तक विराम लगा है। प्रदेश में 1,200 से 4,800 मीटर तक की ऊंचाई वाले करीब एक लाख हैक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल में सामान्यतया लाल के साथ ही गुलाबी, बैंगनी और सफेद रंगों में मिलने वाला और चैत्र (मार्च-अप्रैल) में खिलने वाला बुरांश बीते वर्षों में पौष-माघ (जनवरी-फरवरी) में भी खिलने लगा था। इस आधार पर इस पर ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का सर्वाधिक असर पड़ने को लेकर चिंता जताई जाने लगी थी। हालांकि कोई वृहद एवं विषय केंद्रित शोध न होने के कारण इस पर दावे के साथ कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती, लेकिन डीएफओ डा. पराग मधुकर धकाते कहते हैं कि हर फूल को खिलने के लिए एक विशेष ‘फोटो पीरियड’ यानी एक खास रोशनी और तापमान की जरूरत पड़ती है। यदि किसी पुष्प वृक्ष को कृत्रिम रूप से भी यह जरूरी रोशनी व तापमान दिया जाए तो वह समय से पूर्व खिल सकता है। 

बहुगुणी है बुरांश: बुरांश राज्य के मध्य एवं उच्च मिालयी क्षेत्रों में ग्रामीणों के लिए जलौनी लकड़ी व पालतू पशुओं को सर्दी से बचाने के लिए बिछौने व चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है, वहीं मानव स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से इसके फूलों का रस शरीर में हीमोग्लोबिन की कमी को दूर करने वाला, लौह तत्व की वृद्धि करने वाला तथा हृदय रोगों एवं उच्च रक्तचाप में लाभदायक होता है। इस प्रकार इसके जूस का भी अच्छा-खासा कारोबार होता है। अकेले नैनीताल के फल प्रसंस्कण केंद्र में प्रति वर्ष करीब 1,500 लीटर जबकि प्रदेश में करीब 2 हजार लीटर तक जूस निकाला जाता है। हालिया वर्षों में सड़कों के विस्तार व गैस के मूल्यों में वृद्धि के साथ ग्रामीणों की जलौनी लकड़ी पर बड़ी निर्भरता के साथ इसके बहुमूल्य वृक्षों के अवैध कटान की खबरें भी आम हैं।

यह भी पढ़ें : `जंगल की ज्वाला´ संग मुस्काया पहाड़..
कफुवा , प्योंली संग मुस्काया शरद, बसंत शंशय में

Sunday, February 17, 2013

बलात्कार, मीडिया, सरकार, समाज और समाधान..

समस्याएं थोपी तो नहीं जा रहीं ?

हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या क्या है ? बीते वर्ष पूरे देश को झकझोरने वाले दिल्ली गैंग रेप और हालिया बदायूं में दो बहनों की बलात्कार के बाद पेड़ पर लटका दिए जाने की घटनाओं के आलोक में यदि इस प्रश्न का जवाब देश के बच्चों से पूछा जाए तो उनमें अनेक बच्चों का भी जवाब होगा-बलात्कार।
ऐसा क्यों है ? निस्संदेह, बलात्कार एक राष्ट्रीय कोढ़ जैसी समस्या है, और इस समस्या के कारण देश की महिलाओं, युवतियों, किशोरियों और यहां तक कि तीन-चार वर्ष की बच्चियों के साथ ही पूरे देश को पड़ोसी देशों के साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ में तक शर्मसार होना पड़ा है। पर बच्चों के भी दिल-दिमाग में भी बलात्कार जैसा विषय क्यों ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम नहीं कोई और हमारी समस्याएं तय कर रहा है, या समस्याएं तय कर हम पर थोप रहा है। 

विगत वर्षों में पहले केंद्र और दिल्ली सरकार के राष्ट्रमंडल खेलों, टूजी स्पेक्ट्रम सहित अनेकानेक घोटाले ‘देश’ की चिंता का सबब बने रहे। बाबा रामदेव ने दल-बल के साथ देश का काला धन देश में वापस लाने के आह्वान के साथ दिल्ली कूच किया तो काला धन से अधिक बाबा रामदेव देश की मानो समस्या हो गए। खबरिया चैनल दिल्ली में उनके प्रवेश से लेकर मंत्रियों द्वारा समझाने, फिर उनके मंच पर उपस्थित चेहरों, इस बीच आए समझौते के पत्र, रात्रि में हुए लाठीचार्ज और महिलाओं के वस्त्रों में रामदेव के दिल्ली से वापस लौटने की कहानी में काला धन का मुद्दा कहीं गुम ही हो गया। फिर अन्ना हजारे जन लोकपाल के मुद्दे पर दिल्ली आए तो यहां भी कमोबेश जन लोकपाल की जरूरत से अधिक अन्ना की गिरफ्तारी, उनके अनशन के एक-एक दिन बीतने के साथ उनके स्वास्थ्य की चिंता जैसी बातें देश की समस्या बन गईं, और इन समस्याओं को लेकर कथित तौर पर ‘पूरा देश’ ‘जाग’ भी गया। फिर अन्ना टीम में बिखराव व मतभेद पर ‘देश’ चिंतित रहा। आखिरकार केजरीवाल के ‘आम आदमी पार्टी’ बनाने के बाद ‘देश’ की चिंता कुछ कम होती नजर आई। लेकिन बीते वर्ष के आखिर में दिल्ली में पैरामेडिकल छात्रा के साथ चलती बस में हुई गैंग रेप की घटना ने तो मानो देश को झंकायमान ही करके ही रख दिया। 

इन सभी घटनाक्रमों के पीछे क्या चीज ‘कॉमन’ थी। एक-दिल्ली, दो-इन घटनाओं को जनता तक लाने वाला मीडिया, तीन-सरकार और चार-आक्रोशित आम आदमी।

क्या है इन चारों का आपसी संबंध ? दिल्ली निस्संदेह देश की राजधानी और देश का दिल है। लेकिन क्यों केवल दिल्ली की खबरें ही हमारी चिंता का सबब बनती हैं। क्या बाकी देश की कोई समस्याएं नहीं हैं। क्या बलात्कार देश भर में नहीं हो रहे। क्या देश में महंगाई, भूख, गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण और भ्रष्टाचार जैसी अनेकानेक समस्याएं नहीं हैं। यदि हैं, क्या कहीं कोई बड़ी गड़बड़ तो नहीं है। मीडिया क्यों नहीं गांवों में आ सकता। क्यों उत्तराखंड के लालकुआं में ऑफिस कर्मी युवती के साथ बलात्कार के बाद उसके प्राइवेट नाजुक अंगों में रुपए व पेन आदि ठूंसने और उत्तराखंड के पहले करीब चार दर्जन लोगों की डीएनए जांच के बाद रिस्ते के फूफा के ही 13 बर्षीय बच्ची की बलात्कार बाद हत्या करने के मामले की खबरंे राष्ट्रीय मीडिया की ‘पट्टी’ में भी नहीं आती। यह टीआरपी के नाम पर जो चाहे दिखाने, और उसी को राष्ट्रीय चिंता व समस्या बना देने का कोई खेल तो नहीं है।

ऐसे में सवाल उठता है कि कहीं हम पर समस्याएं थोपी तो नहीं जा रही हैं। कि लो, अभी कुछ दिन यह समस्या लो, इससे बाहर कुछ ना सोचो। थोड़े दिन बाद, अब इस समस्या की घुट्टी पियो, और थोड़े दिन बाद अगली समस्या का काढ़ा पियो और अपनी वास्तविक समस्याओं को भूलकर मस्त रहो। यह कोई साजिश तो नहीं चल रही कि देश भर के लोगों की भावनाओं को चाहे जिस तरह से भड़काओ, और उनसे अपने लिए माल-मत्ता समेटो। लोगों की भावनाओं का बाजार सजा दो। देश की वास्तविक समस्याओं से लोगों का ध्यान भटका दो, और अपनी ऐश काटो। कोई बलात्कार जैसी समस्याओं का भी व्यापार तो नहीं कर रहा कि अभी मोदी अपनी जीत को ‘हैट्रिक-हैट्रिक’ कहते हुये बहुत उछल रहा है। अच्छा हुआ, बलात्कार हो गया, इसी गोटी से घोड़े को पीट डालो। रामदेव को महिलाओं के वस्त्र पहनाकर, अन्ना को केजरीवाल अलग करवाकर और केजरीवाल को राजनीति में लाकर पहले ही पीट चुके है। शतरंज की बिसात पर कोई बचना नहीं चाहिए। राजनीति में इतना दम है कि प्यांदे से राजा को ‘शह-मात’ दे दें।

कौन कर सकता है ऐसा ? मीडिया और सरकार ? मीडिया ने निस्संदेह एक हद तक शहरी और कस्बाई जनता को जगा दिया है। वहीं सरकार और राजनीतिक दलों को मीडिया से दूर सोई जनता को जगाने का हुनर मालूम है। वह चुनाव के दिन मीडिया से कोसों दूर, सोई जनता को जगाकर मतदान स्थल तक ले जाने और अपने पक्ष में वोट डलवाने में सफल होते हैं। अच्छा हो वह एक दिन के बजाए रोज के लिए इस पूरी जनता को जगा दें। और जो एक चौथाई लोग कथित तौर पर मीडिया और सोशियल मीडिया से जागे हैं, चुनाव के दिन अपनी आदत से ही सो ना जाऐं।

क्या वास्तव में जाग गया पूरा देशः

दिल्ली गैंग रेप कांड और इसके बाद जो कुछ भी हुआ है, वह कई मायनों में अभूतपूर्व है। इस नृशंशतम् घटना के बाद कहा जा रहा है कि देश ‘जाग’ गया है, 125 करोड़ देशवासी जाग गए हैं, लेकिन सच्चाई इसके कहीं आसपास भी नहीं है। न देश अन्ना के आंदोलन के बाद जागा था, और न ही अब जागा है। हमारी आदत है, हम आधुनिक सुख-सुविधाओं के साथ आराम तलब होते चले जा रहे है। हम पहले जागते नहीं, और कभी देर से जाग भी गए, तो वापस जल्दी ही सो भी जाते हैं। यदि जाग गए होते तो घटना के ठीक बाद बस से नग्नावस्था में फेंके गए युवक व युवती को यूं घंटों खुद को लपेटने के लिए कपड़े की गुहार लगाते हुए घंटों वहीं नहीं पड़े रहने देते।

और तब ना सही, करोड़ों रुपए की मोमबत्तियां जलाने-गलाने के बाद ही सही, जाग गये होते तो अब देश में कोई बलात्कार न हो रहे होते, जबकि दिल्ली की घटना के बाद तो देश में जैसे बलात्कार के मामलों की (या मामलों के प्रकाश में आने की) बाढ़ ही आ गई है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि कि देश की बड़ी आबादी को दिल्ली के कांड की जानकारी ही नहीं है, और देश की अन्य समस्याओं, भूख, गरीबी, बेकारी, बेरोजगारी, महंगाई व भ्रष्टाचार के बीच वह अपने लिए दो जून की रोटी जुटाने में सो ही नहीं पाता, तो जागेगा क्या। वह आज भी आजादी के पहले जैसी ही जिंदगी जीने को अभिशप्त है। उसके पास चुनाव के दौर से सैकड़ों की संख्या में ‘उगे’ खबरिया चौनल दूर, रेडियो तक मयस्सर नहीं है। फेसबुक, ट्विटर जैसी सोशियल साइटों का तो उसने नाम भी न सुना होगा। सच्चाई है, वह मीडिया से नहीं जागते। उन्हें जगाने का हुनर राजनीतिक दलों को ही आता है, जो उन्हें चुनाव के दौरान घर से बाहर निकालकर बूथों तक लाकर अपने पक्ष में वोट भी डलवा देते हैं। और कथित तौर पर ‘जागे’ लोग वोट डालते वक्त ‘सो’ जाते हैं, यह भी सच्चाई है। लिहाजा, यह गलतफहमी ही कही जाएगी, कि देश जाग चुका है।

आक्रोश के पीछे भी कोई साजिश तो नहीं ?

इसके बावजूद दिल्ली के साथ जिस तरह देश भर में महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी कंधे से कंधे मिलाते हुए ‘बलात्कारियों को फांसी दो’ के नारे के साथ निकल पड़े, दिल्ली में छात्र मानो 1997-97 में इंडोनेशिया के देशव्यापी छात्र आंदोलन की यादों को ताजा करने लगे और उनके समर्थन में देश भर के अनेकों छोटे-बढ़े कस्बों में खासकर युवा जुड़ गए, और दिल्ली में तो हजारों की भीड़ करीब-करीब निरंकुश होती हुई राष्ट्रपति भवन की ओर बढती हुई मिश्र में राष्ट्रपति होस्नी मुबारक को गद्दी से उतारने के बाद ही थमने वाली जनक्रांति जैसा नजारा पेश करने लगी।वह सरकार ही नहीं, देशवासियों के लिए भी कान खड़े करने वाला और मौजूदा शासन व्यवस्था के साथ ही देश के लिए भी खतरे की घंटी है। लेकिन आश्चर्य की बात रही कि ऐसे हालातों पर चर्चा केवल लाठी चार्ज और एक पुलिस कर्मी की शहादत को विवादित कर पीछे धकेल दी गई। यह सोचने की जरूरत भी महसूस नहीं की गई कि ऐसा क्यों हुआ। यह आक्रोश स्वतः स्फूर्त था कि इसके पीछे भी कोई साजिश थी। देश में चल रहे अनेक अन्य जरूरी मुद्दे, गैस सब्सिडी को सीमा में बांधने, महंगाई के आसमान छूने, आरटीआई के बावजूद नन्हे बच्चों के स्कूलों में एडमिशन न हो पाने के साथ ही भ्रष्टाचार, कालाधन, जन लोकपाल, पदोन्नति में आरक्षण, अन्ना, रामदेव, केजरीवाल सभी इस आंदोलन के आगे बौने पड़ गए, जिनके द्वारा भी कभी देश को जगा देने की बात कही जा रही थी । सारे देश को जगाने वाले अन्ना या रामदेव कहीं नहीं दिखे। रामदेव और केजरीवाल दिल्ली आए भी तो उन्हें भीड़ को भड़काने के आरोप में मुकदमे ठोंककर वापस भेज दिया गया। कहीं ऐसा तो न था कि गुजरात में मोदी की हैट्रिक के रूप में प्रचारित की जा रही जीत, केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के साथ ही बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आंदोलनों के साथ ही देश भर के सरकारी कर्मचारियों को प्रभावित करने वाले पदोन्नति में आरक्षण के बिल के लोक सभा में पास न हो पाने जैसे मुद्दों को इस नृशंशतम घटना के पीछे नेपथ्य में धकेल दिया गया।

इस आंदोलन में एक खास बात यह भी रही कि कमोबेश पहली बार सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की छात्र व युवा ब्रिगेड एनएसयूआई व युवा कांग्रेस के कार्यकर्ता भी इस मामले का विरोध करने सड़कों पर उतरे। लिहाजा, यह दिल्ली सहित देश भर में ऐसा व्यापक विरोध प्रदर्शन रहा, जिसमें हर वर्ग के लोग शामिल हुए, और खास तौर पर यदि सत्तारूढ़ दल की विचारधारा के लोग भी आंदोलन में शामिल रहे या शामिल होने का मजबूर हुए, तो यह वक्त है जब सरकार को संभल जाना चाहिए। अन्ना, रामदेव के आंदोलनों को दबाने, के लिए जिस तरह के राजनीतिक प्रपंच किए गऐ, उनसे अब काम चलाने से बाज आना चाहिए। आश्चर्य न होगा, यदि ऐसे में जल्द ही किसी सामान्य विषय पर भी लोग इसी तरह गुस्से का इजहार करने लगे।

दिल्ली का बलात्कार न पहला, न आखिरीः

यह सही है कि दिल्ली का बलात्कार न तो पहला था, और ना ही आखिरी, उत्तराखंड के लालकुआं में आफिसकर्मी युवती से बलात्कार का मामला भी कम वीभत्स नहीं था, जिसमें बलात्कारियों ने युवती से बलात्कार के बाद उसके खास अंगों में पेन और रुपए ठूंस दिए थे, और उसकी हत्या भी कर डाली थी। पूर्ववर्ती भाजपा सरकार मामले की सीबीआई जांच की संस्तुति कर चुकी है, पर आज भी जांच शुरू नहीं हुई है। इसके अलावा लालकुआ की ही आठ साल की मासूम संजना के बलात्कार के बाद हत्याकांड का मामला। ऐसे ही और भी अनेकों मामले हैं। लेकिन, दिल्ली जैसा आक्रोश पहले कभी देखने को नही मिला। निस्संदेह, इस आक्रोश के पीछे केवल दिल्ली की छात्रा के अपमान का रोष ही नहीं, वरन देश की हर मां-बहन की इज्जत, मान-सम्मान का प्रश्न आ खड़ा हुआ था। यह देश भर में पूर्व में हुई ऐसी अन्य घटनाओं के साथ लोगों के दिलों में भीतर राख में दहल रहे शोलों और खासकर छात्राओं, किशोरियों द्वारा समाज में कथित बराबरी के बावजूद झेली जा रही जिल्लत का स्वतः स्फूर्त नतीजा था। मौजूदा व्यवस्था से बुरी तरह आक्रोशित जनता को मौका मिला, और उन्होंने अपने गुस्से को व्यक्त कर दिया।

इस सबसे थोड़ा आगे निकलते हैं। कल तक मीडिया, समाचार पत्रों की सुर्खियां बनी बलात्कार पीड़िता की खबरें धीरे-धीरे पीछे होती चली जा रही हैं। सोशियल मीडिया में लोगों की प्रोफाइल पर लगे काले धब्बे भी हटकर वापस अपनी या किसी अन्य खूबसूरत चेहरे की आकर्षक तस्वीरों से गुलजार होने लगे हैं। आगे अखबरों, चौनलों में कभी संदर्भ के तौर पर ही इस घटना का इतना भर जिक्र होगा कि 16 दिसंबर 2012 को पांच बहशी दरिंदों ने दिल्ली के बसंत विहार इलाके में चलती बस में युवती से बलात्कार किया था, और उसे उसके मित्र के साथ महिपालपुर इलाके में नग्नावस्था में झाड़ियों में फेंक दिया था। यह नहीं बताया जाएगा कि करीब आधे घंटे तक सैकड़ों लोग उन्हें बेशर्मी से देखते हुए निकल गऐ थे, और आखिर पुलिस ने पास के होटल से चादर मंगाकर उन्हें ढका और दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल पहुंचाया, और जहां से हृदयाघात होने के बावजूद कमोबेश मृत अवस्था में ही उसे राजनीतिक कारणों से 27 दिसंबर को सिंगापुर ले जाकर वहां के माउंट एलिजाबेथ अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां 29 दिसंबर की सुबह तड़के 2.15 बजे उसने दम तोड़ दिया, लेकिन पूरे दिन रोककर रात्रि के अंधेरे में उसके शरीर को दिल्ली लाया गया और 30 की सुबह तड़के परिवार के कथित तौर पर विरोध के बीच उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया। ऐसा इसलिए ताकि लोग आक्रोषित ना हों, कानून-व्यवस्था के भंग होने की कोई स्थिति न उत्पन्न हो। क्योंकि पूरा देश कथित तौर पर जाग गया था।

क्या कानून से रुक सकते हैं बलात्कारः 

वादे कितने ही किये जायें पर बेहद लंबी कशमकश और दांव-पेंच भरी कानूनी लड़ाई के बाद शायद उसके बलात्कारियों और हत्यारों को शायद फांसी दे ही दी जाए। इससे पहले बलात्कारियों, हत्यारों को फांसी की मांग करने वाले अनेक अधिवक्ता उन्हें फांसी देने का भी विरोध करेंगे। न्यायाधीश महोदय भी पूछेंगे कि क्यों फांसी ही दी जाए, आखिर हमारे कानून की भावना जो ठहरी-”एक भी निर्दोष न फंसे“ (चाहे जितने दोषी बच जाएं, जबकि अनगिनत निर्दोष सींखचों के पीछे ट्रायल के नाम पर ही बर्षों से सजा भुगतते रहें हैं।)

हमारी संसद, पश्चिमी दुनिया के लिव-इन संबंधों को अपने यहां भी कानूनी मान्यता देने व विवाह जैसी सामाजिक संस्था के लिए पंजीकरण की कानूनी बाध्यता बनाने और यौन संबंधों में आपसी सहमति के लिए आयु को कम करने की पक्षधरता के बीच शायद बलात्कार को भी ”रेयर“ और ”गैर रेयर“ के अलावा कुछ अन्य नए वर्गों में भी वर्गीकृत कर दे। उम्र (नाबालिगों से सहमति के यौन संबंध भी बलात्कार की श्रेणी में हैं) व लिंग (महिलाओं, पुरुषों व किन्नरों के आधार पर तो बलात्कार के लिए भी कमोबेश अलग-अलग कानूनी प्राविधान) के साथ ही हमारे माननीय बलात्कार को जाति-वर्ण के आधार पर भी बांट दें, यानी जाति विशेष की महिलाओं से बलात्कार पर अधिक या कम सजा के प्राविधान हो जाएं तो आश्चर्य न होगा। ऐसे-ऐसे तर्क भी आ सकते हैं कि दूसरों के केवल गुप्त यौननांगों पर बलात आक्रमण या प्रयोग ही क्यों बलात्कार कहा जाए, पूरा शरीर और अन्य अंगों पर क्यों नहीं। ऐसे तर्क भी आने लगे हैं कि महिला बलात्कार के बाद ‘जिंदा लाश’ क्यों कही जाए। बलात्कार होना मौत से बदतर क्यों माना जाए। बहरहाल, इन सब कानूनी बातों और केवल इस एक मामले में कड़ा न्याय मिल जाने के बावजूद क्या दिल पर हाथ रखकर कहा जा सकता है कि देश में ऐसी घटनाओं पर रोक लग जाएगी । क्या हमारी बहन-बेटियां सुरक्षित हो जाएंगी ?

बलात्कारः मनोवैज्ञानिक व सामाजिक पहलूः 

बलात्कार की समस्या को समग्रता से समझें तो मानना होगा हमारी बहुत सी समस्याएं लगती तो शारीरिक हैं, लेकिन होती मानसिक हैं। बलात्कार भी एक तरह से तन से पहले मन की बीमारी है। और इसकी जड़ में समाज के अनेक-शिक्षा, लिंग, सामाजिक-आर्थिक स्तर के विभेद जैसे अनेक कारण भी हैं। कानून, पुलिस और न्यायिक व्यवस्था का प्रभाव तो बहुत देर में आता है।

इन समस्याओं पर सतही चर्चा करने के बजाए गहन मंथन करने की भी जरूरत है। अधिकतर लोग क्यों बलात्कार करते हैं ? इससे पहले एक बात पर शायद सभी सहमत हों कि यौन आवश्यकता हर जीवधारी में भोजन की तरह ही मूलभूत होती है, और पीढ़ियों के आगे बढ़ने के लिए जरूरी भी है। मनुष्य ने इस आवश्यकता को विवाह नाम के सामाजिक बंधन से बांध दिया है। विवाह में सबसे पहले, खासकर पुरुषों की हर वर्ग में और आर्थिक रूप से समर्थ वर्ग में महिलाओं (पुत्रियों) की पसंद का ध्यान रखा जाता है। विवाह से पूर्व कम उम्र में, जबसे मनुष्य के बच्चों के कोमल मन के साथ मस्तिष्क काम करना शुरू करने लगता है, छुपा कर रखे गए व गुप्त बताए जाने वाले खुद के एवं विरोधी लिंग के अंगों के प्रति जानने की इच्छा बढ़ने लगती है। यही समय है जब माता-पिता बच्चों की उनके अंगों के बारे में बताए और अच्छे-बुरे की जानकारी दें, साथ ही स्कूलों में नैतिक, संस्कारवान शिक्षा दी जाए। जरूरी समझी जाए तो यौन शिक्षा भी दी जाए।

जरूरी हो तो भूख और सैक्स का मनोविज्ञान भी समझा जाए। भूख को पेट की और सैक्स को शरीर की आग और दोनों को बेहद खतरनाक कहा जाता है। सैक्स की आग में शरीर की भूख के साथ ही मन की भी बड़ी भूमिका होती है, जिस पर मनुष्य की शैक्षिक, आर्थिक व सामाजिक स्थिति भी अत्यधिक प्रभाव डालती है। निठारी कांड इन दोनों भूखों को नृशंशतम् मामला था जिसमें कहा जाता है कि इन दोनों भूखों के भूखे भेड़िये दर्जनों मासूम बच्चों का बलात्कार करने के बाद उनके शरीर को भी खा गए। अफसोस, हमारी याददाश्त बेहद कमजोर होती है। हम इस कांड को कमोबेश भूल चुके हैं। मीडिया भी उसी दिन याद करता है, जब न्यायालय से इस मामले में कोई अपडेट आती है। वर्षों से मामला न्यायालय में चल रहा है। और इस ”रेयरेस्ट ऑफ द रेयर“ मामले में दोषियों को कब सजा होगी, कुछ नहीं कहा जा सकता।

एक आंकलन के अनुसार हमारे देश में केवल चार प्रतिशत बलात्कार के मामले ही अनजान लोगों द्वारा किए जाते हैं, तथा 96 प्रतिशत बलात्कार जानने-पहचानने वालों द्वारा किए जाते हैं। ऐसे में यह देखना होगा कि बलात्कार के साथ ही अवैध संबंध बनाने वालो का क्या मनोविज्ञान है।

आयु के आधार परः

इसे पहले आयु के आधार पर देखते हैं। कम उम्र के बच्चों (लड़के-लड़कियों दोनों में, भारत में अभी कम, विदेशों में काफी) में टीवी, सिनेमा व इंटरनेट की देखा-देखी और सैक्स व जननांगों के बारे में जानने की इच्छा, के कारण सैक्स संबंध बनाए जाते हैं। युवावस्था में युवक-युवतियों दोनों में शारीरिक और यौन अंगों का विकास होने के साथ यौन इच्छाएं भी नैसर्गिक रूप से बढ़ती हैं। सामाजिक व्यवस्था भी उन्हें बताती जाती है कि अब आप विवाह एवं यौन संबंध बनाने योग्य हो गऐ हो। यहां आकर व्यक्ति की आर्थिक और सामाजिक स्थित उसकी यौन इच्छाओं को प्रभावित करती है। अच्छे आर्थिक व सामाजिक स्तर के लोगों में इस स्थिति में अपने लिए मनपसंद जीवन साथी प्राप्त करने की अधिक सहज स्थिति रहती है, जबकि कमजोर तबके के लोगों के लिए यह एक कठिन समय होता है। इस कठिन समय पर यदि व्यक्ति को उसका मनपसंद साथी ना मिल पाए तो उसे अच्छी और संस्कारवान, नैतिक शिक्षा ही संबल व शक्ति प्रदान कर सकती हैं। अन्यथा उनके भटकने का खतरा अधिक रहता है। इस उम्र में कुछ लोग, खासकर युवक शराब जैसे बुरे व्यसनों की गिरफ्त में फंसकर और अपनी कथित पौरुष शक्ति के प्रदर्शन की कोशिश में युवतियों से छेड़छाड़ और बलात्कार की हद तक जा सकते हैं। 

इससे आगे प्रौढ़ अवस्था में विवाहितों और अविवाहितों में यौन इच्छाऐं (मन के स्तर से ही) पारिवारिक स्तर पर तृप्त या अतृप्त होने पर निर्भर करती हैं। और यह भी बहुत हद तक मनुष्य की आर्थिक, शैक्षिक व सामाजिक स्तर पर निर्भर करता है। इन तीनों स्तरों के समन्वित प्रभाव से ही मनुष्य स्वयं में एक तरह की शक्ति या कमजोरी महसूस करता है। शक्ति की कमजोरी की स्थिति में आकर गिरा व्यक्ति इससे बुरा क्या होगा की दशा में बुराइयों को दलदल में और धंसता चला जाता है, जबकि शक्ति के उच्चस्तर स्तर पर आकर भी व्यक्ति में सब कुछ अपने कदमों पर आ गिरने जैसा अहम और कोई क्या बिगाड़ लेगा का दंभ भी उसे ऐसे कुकृत्य करने को मजबूर करता है, और वह अपने बल से अपनी आवश्यकताओं को जबर्दस्ती जुटा भी लेता है, फिर बल से ही लोगों का मुंह भी बंद कराने में अक्सर सफल हो जाता है। कमजोर वर्ग के लोगों के मामले जल्दी प्रकाश में आ जाते हैं। दिल्ली कांड में भी बलात्कारी कमोबेश इसी वर्ग के हैं। कोई ड्राइवर, क्लीनर, कोई सड़क पर फल विक्रेता, और एक कम उम्र युवक। यानी किसी की भी आर्थिक, सामाजिक व शैक्षिक स्थिति बहुत ठीक नहीं है। वहीं, मध्यम वर्ग के लोगों में सहयोग से या ”पटा कर (जुगाड़ से)“ काम निकालने की प्रवृत्ति अधिक देखी जाती है। यह वर्ग कोई बुरा कार्य करने से पहले सामाजिक स्तर पर डर भी अधिक महसूस करता है, इसलिए एक हद तक बुराइयों से बचा भी रहता है।

महिलाओं के प्रति समाज का गैर बराबरी का रवैयाः

दूसरी ओर, बालिकाओं के प्रति आज भी समाज में बरकरार असमानता की भावना बड़ी हद तक जिम्मेदार है। माता-पिता के मन में उसे पैदा करने से ही डर लगता है कि वह पैदा हो जाएगी तो उस ”लक्ष्मी“ के आने के बावजूद बधाइयां नहीं मिलेंगी। उसे, स्कूल-कालेज या कहीं भी अकेले भेजने में डर लगेगा। फिर उस ”पराए धन“ को कैसा घर-बर मिलेगा। और इस डर के कारण बेटियों को कोख में ही मार दिया जाता है। पैदा हो जाती है तो उसे यूं ”घर की इज्जत“ कहा जाता है, मानो वह हर दम दांव पर लगी रहती है। ससुराल में भी पह ”पराई“ ही रहती है, और उसे ”डोली पर आने“ के बाद ”अर्थी पर ही जाने“ की घुट्टी पिला दी जाती है कि वह कदम बाहर निकालने की हिमाकत न करे। बंधनों में कोई बंधा नहीं रहना चाहता। वह भी ”सारे बंधन तोड़कर उड़ने“ की कोशिश करती है। आज के दौर में पश्चिमीकरण की हवा में टीवी- सिनेमा और इंटरनेट उसकी ”उड़ानों को पंख“ देने का काम कर रहा है। इस हवा में उसका अचानक ”उड़ना“ बरसों से उसे कैद कर रखने वाला पुरुष प्रधान समाज कैसे बर्दास्त कर ले, यह भी एक चुनौती है। यह संक्रमण और तेजी से आ रहे बदलावों का दौर है। इसलिए विशेष सतर्क रहने की जरूरत है।

लिहाजा, यह कहा जा सकता है कि बलात्कार केवल एक शब्द नहीं, मानव मात्र पर एक अभिशाप है। यह केवल महिलाओं के लिए ही नहीं संपूर्ण समाज और मानवता पर कोढ़ की तरह है। इसके लिए किसी एक व्यक्ति, महिला या पुरुष, जाति, वर्ण, वर्ग को एकतरफा दोषी नहीं ठहराया जा सकता। भले ही एक व्यक्ति बलात्कार करता हो, लेकिन इसके लिए पूरा समाज, हम सब, हमारी व्यवस्था दोषी है। लिहाजा, इसके उन्मूलन के लिए हर तरह के सामूहिक प्रयास करने होंगे। और यह सब हमारे हाथ में है, जब कहा जा रहा है कि दिल्ली की घटना के बाद पूरा देश जाग गया है। ऐसे में अच्छा हो कि अदालत से इस एक मामले में चाहे जो और जब व जैसा परिणाम आऐ, उससे पूर्व ही हम सब मिलकर मानवता पर लगे इस दाग को हमेशा के लिए और जड़ से मिटा दें।

Tuesday, February 5, 2013

प्रयागराज में आस्था का महासमागम


भारत को आस्था, आध्यात्म और पवित्रता की भूमि कहा जाता है। सर्वधर्म सम्भाव की इस पावन भूमि के कण-कण में देवों का वास बताया जाता है। दुनिया के सबसे प्राचीन हिंदू सनातन धर्म के इस देश में ऐसी अनेकों परंपराएं हैं जो सदियों पूर्व से अनवरत चली आ रही हैं, और दुनिया के साथ भारत के भी विकास पथ पर कहीं आगे निकल जाने के बावजूद इनका कोई जवाब नहीं है। प्रयागराज में इन दिनों चल रहा आस्था का महासमागम यानी कुम्भ मेला आज भी देश हीं नहीं दुनिया के 10 करोड़ से अधिक लोगों को आकर्षित कर रहा है तो इसमें कु्म्भ मेले से जुड़ी अनेकों विशिष्टताएं हैं। इतनी भारी संख्या में एक धार्मिक भावना ‘आस्था’ के साथ लोगों का एक स्थान पर समागम दुनिया में कहीं और देखने को नहीं मिलता। कुम्भ भारतीयों के मस्तिष्क और आत्मा में रचा-बसा हुआ पर्व है, जिसमें पुरुष, महिलाएं, अमीर, गरीब सभी लोग भाग लेते हैं। अपने विशाल स्वरूप में यह पर्व भारतीय जनमानस की पर्व चेतना की विराटता का द्योतक भी है। इससे भारत की सांस्कृतिक चेतना और एकता को जाग्रत व सुदृढ़ करने की दृष्टि मिलती है, साथ ही आस्थावान देश वासियों का संत समागम के साथ आपस में जुड़ाव भी मजबूत होता है। आर्थिक दृष्टिकोण से भी प्रयागराज में इस वर्ष आयोजित 55 दिन का कुंभ अत्यधिक लाभप्रद होने जा रहा है। इस महाआयोजन में 10 से 15 करोड़ श्रद्धालुओं के पहुंचने की संभावना जताई जा रही है, जिसके साथ ही इस दौरान 12,000 करोड़ रुपए का आर्थिक कारोबार होने और करीब छह लाख लोगों को सीमित समय के लिए ही सही रोजगार मिलने की बात भी कही जा रही है। 
कुम्भ पर्व हिंदू धर्म का तो यह सबसे बड़ा और पवित्र आयोजन है ही जिसमें अमृत स्नान और अमृत पान तक की कल्पना की गई है, साथ ही यह निर्विवाद तौर पर विश्व का सबसे विशालतम मेला और महाआयोजन भी कहा जाता है, जिसमें अनेकों जाति, धर्म, क्षेत्र के करोड़ों लोग भाग लेते हैं, और पवित्र गंगा नदी में डुबकी लगाते हैं। दुनिया भर के वैज्ञानिक भी गंगा के सर्वाधिक लंबे समय तक खराब न होने एवं त्वचा व अन्य रोगों में लाभकारी होना स्वीकार कर चुके हैं। गंगा वैसे भी पापनाशनी, पतित पावनी कही जाती है। इसे एक नदी से कहीं अधिक देवी और माता का दर्जा दिया गया है। यह हिंदुओं के जीवन और मृत्यु दोनों से जुड़ी हुई है और इसके बिना हिंदू संस्कार अधूरे हैं, वहीं यह देश के विशालतम भूभाग को सींचते हुए उर्वरा शक्ति भी बढ़ाती है। गंगाजल का अमृत समान माना जाता है। कहा जाता है कुम्भ पर्व के दौरान गंगा नदी में ऐसे अनूठे संयोग बनते हैं कि इसकी पावन धारा में अमृत का सतत प्रवाह होने लगता है, जिसमें स्नान करने से मनुष्य के सारे पाप दूर हो जाते हैं और मनुष्य जीवन मरण के बंधनों से मुक्त हो मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। इसलिए इलाहाबाद के कुम्भ में गंगा स्नान, पूजन का अलग ही महत्व है। अनेक पर्वों और उत्सवों का गंगा से सीधा संबंध है मकर संक्राति, कुम्भ और गंगा दशहरा के समय गंगा में स्नान, पूजन, दान एवं दर्शन करना महत्वपूर्ण माना जाता है। मान्यता है कि गंगा पूजन से मांगलिक दोष से ग्रसित जातकों को विशेष लाभ प्राप्त होता है, और गंगा स्नान करने से अशुभ ग्रहों का प्रभाव समाप्त हो जाता है, साथ ही सात्विकता और पुण्य लाभ भी प्राप्त होता है। अमावस्या के दिन गंगा स्नान और पितरों के निमित तर्पण व पिंडदान करने से सद्गति प्राप्त होती है। 
कुम्भ पर्व की महिमा का वर्णन पुराणों से शुरू होता है। साथ ही कई धार्मिक, ज्योतिषीय और पौराणिक आधार इस महापर्व को विशिष्ट बनाते हैं। पुराणों में वर्णित संदर्भों के अनुसार यह पर्व समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत घट के लिए हुए देवासुर संग्राम से जुड़ा है। इसी दौरान भगवान विष्णु का कूर्म अवतार भी हुआ था। मान्यता है कि समुद्र मंथन से 14 रत्नों की प्राप्ति हुई, जिनमें प्रथम विष था तो अन्त में अमृत घट लेकर धन्वन्तरि प्रकट हुए। कहते हैं अमृत पाने की होड़ ने एक युद्ध का रूप ले लिया। ऐसे समय असुरों से अमृत की रक्षा के उद्देश्य से विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अमृत देवताओं को सोंप दिया। एक मान्यता के अनुसार देवताओं के राजा इन्द्र के पुत्र जयंत और दूसरी मान्यता के अनुसार विष्णु के वाहन गरुड़ उस अमृत कलश (कुम्भ) को लेकर वहाँ से पलायन कर गये। इस दौरान सूर्य, चंद्रमा, गुरु एवं शनि ने अमृत कलश की रक्षा में सहयोग दिया। अमृत कलश को स्वर्ग लोक तक ले जाने में 12 दिन लगे। देवों का एक दिन मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है, लिहाजा इन बारह वर्षों में बारह स्थानों पर अमृत कलश रखने से वहाँ अमृत की कुछ बूंदे छलक गईं। इनमें आठ स्थान देवलोक स्वर्ग में तथा चार स्थान पृथ्वी पर बताए जाते हैं। कहते हैं उन्हीं स्थानों पर, ग्रहों के उन्हीं संयोगों पर कुम्भ पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि कुम्भ और महाकुम्भ में वही अमृत की बूंदे वापस इन नदियों के पानी में छलक उठती हैं। जो भी इस दौरान इन पवित्र नदियों में स्नान करता है वह जीवन-मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जाता है। पृथ्वी के इन चारों स्थानों पर तीन वर्षों के अन्तराल पर प्रत्येक बारह वर्ष में कुम्भ का आयोजन होता है। कुम्भ पर्वों को तारों के क्रम के अनुसार हर 12वें वर्ष विभिन्न तीर्थ स्थानों पर आयोजित करने की बात भी कही जाती है। नारदीय पुराण (2/66/44), शिव पुराण (1/12/22/23), वराह पुराण (1/71/47/48) और ब्रह्मा पुराण आदि पौराणिक ग्रंथों में भी कुम्भ एवं अर्द्ध कुम्भ के आयोजन को लेकर ज्योतिषीय विश्लेषण मिलते हैं, इनके अनुसार कुम्भ पर्व हर तीन साल के अंतराल पर देवभूमि उत्तराखंड की धरती पर स्थित तीर्थ नगरी हरिद्वार से शुरू होता है। यहां गंगा नदी के तट पर आयोजित होने वाला कुम्भ को महाकुम्भ कहा जाता है, जिसकी अपार महिमा है। यहां के बाद तीन-तीन वर्ष के अंतराल में कुम्भ का आयोजन होता है। प्रयाग में गंगा, यमुना व अदृश्य मानी जाने वाली सरस्वती के संगम-त्रिवेणी पर आयोजित होने वाली कुंभ की ऐसी धार्मिक महत्ता है कि इस स्थान को "तीर्थराज" प्रयागराज कहा जाता है। कहते हैं कि यहां इस दौरान त्रिवेणी में स्नान करना सहस्रों अश्वमेध यज्ञों, सैकड़ों वाजपेय यज्ञों तथा एक लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से भी अधिक पुण्य प्रदान करता है। मनुष्य जन्म-जन्मांतरों के फेर से बाहर निकलकर मोक्ष को प्राप्त करता है। इस अवसर पर तीर्थ यात्रियों को गंगा स्नान के साथ ही सन्त समागम का लाभ भी मिलता है। इसके अलावा नासिक-पंचवटी में गोदावरी और अवन्तिका-उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर भी तीन-तीन वर्षों के अंतराल में कुंभ का आयोजन किया जाता है। 
हजारों वर्षों से चली आ रही यह परम्परा केवल रूढ़िवाद या अंधश्रद्धा नहीं है, वरन यह महापर्व सौर मंडल के धार्मिक मान्यता के अनुसार कुम्भ की रक्षा करने के प्रसंग से जुड़े चार ग्रहों सूर्य, चंद्रमा, बृहस्पति एवं शनि के विशिष्ट स्थितियों में आने से बने खगोलीय संयोग पर आयोजित होते हैं, इस तरह इस पर्व का वैज्ञानिक आधार भी है। यही विशिष्ट बात इस सनातन लोकपर्व के प्रति भारतीय जनमानस की आस्था का दृढ़तम आधार है। तभी तो सदियों से चला आ रहा यह पर्व आज संसार के विशालतम धार्मिक मेले का रूप ले चुका है। अंतरराष्ट्रीय ख्याति के इस आयोजन का जिक्र प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन सांग की डायरी में भी मिलता है। उनकी डायरी में हिन्दू महीने माघ (जनवरी - फरवरी) में 75 दिनों के उत्सव का उल्लेख है, जिसमें लाखों साधु, आम आदमी, अमीर और राजा शामिल होते थे। 
कुम्भ के दौरान शाही स्नान कर अमृत पान करने के लिए निकलने वाले भव्य जुलूस में अखाड़ों के प्रमुख महंतों की सवारी सजे-धजे हाथी, पालकी और भव्य रथों पर निकलती हैं। उनके आगे पीछे सुसज्जित ऊँट, घोड़े, हाथी और बैंड़ भी होते हैं। इनके बीच विशेषकर शरीर पर वस्त्रों के बजाय राख मलकर निकलने वाले नागा साधुओं का समूह श्रद्धालुओं के लिए कौतूहल का विषय रहता है। विभिन्न अखाड़ों के लिए शाही स्नान का क्रम निश्चित होता है। उसी क्रम में साधु समाज स्नान करते हैं। साधुओं की बड़ी-बड़ी जटाएं और अनोखी मुद्राएं भी आकर्षण का केंद्र रहती हैं। सामान्यतया घने वनों, जंगलों, गुफाओं में शीत, गर्मी व बरसात जैसी हर तरह की मौसमी विभीषिकाओं की परवाह किए बिना नग्न शरीर पर केवल भस्म रमा कर रहने वाले साधुओं के कुम्भ में सहज दर्शन हो पाते हैं। कुम्भ मेले का एक और बड़ा वैशिष्ट्य यह भी है कि यहाँ शैव, वैष्णव और उदासीन सम्प्रदायों के साधु अनेक अखाड़ों और मठों व विभिन्न साधु सम्प्रदायों के अखाड़ों की उपस्थिति रहती है। प्रत्येक अखाड़े के अपने प्रतीक चिह्न और ध्वज-पताका होती है, जिसके साथ ही अखाड़े मेले में उपस्थित होते हैं, वहाँ उनकी अपनी छावनी होती है, जिसके बीचों-बीच बहुत ऊँचे स्तम्भ पर उनका ध्वज फहराता है। इन अखाड़ों के साधु शस्त्रधारी होते हैं। उनकी रचना एकदम सैनिक पद्धति पर होती है। उनमें शस्त्र और शास्त्र का अद्भुत संगम होता है। ये साधु सांसारिक जीवन से विरक्त और अविवाहित होते हैं। उनकी दिनचर्या बहुत कठोर होती है। शस्त्रधारी होते हुए भी, और विश्व का सबसे बड़ा ऐश्वर्य प्रदर्शन करने के बावजूद वह फक्कड़ तपस्वी होते हैं। 
कहा जाता है कि मुगल बादशाह बाबर के पूर्वज तैमूर की आत्मकथा के अनुसार तैमूर ने सन 1394 में हरिद्वार के कुम्भ में कई सहस्र तीर्थयात्रियों की अकारण ही निर्मम हत्या कर दी थी। उन दिनों हिन्दुओं की तीर्थ यात्रा भी सुरक्षित नहीं बची थी। ऐसे में निहत्थे हिन्दू समाज की रक्षा के लिए साधु-संतों को मोक्ष-साधना के साथ-साथ शस्त्र धारण भी करना पड़ा। विदेशी शासकों के अत्याचारों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष करने और हिन्दू समाज को अपनी धार्मिक आस्थाओं का निर्विघ्न पालन करने हेतु संरक्षण देने का बीड़ा साधु समाज ने उठाया। शस्त्र धारण करने की दिशा में पहले नागा साधु आगे बढ़े। कुम्भ मेलों की सुरक्षा का दायित्व वे ही संभालते थे। बहुत बाद में रामानंदी सम्प्रदाय के वैष्णव वैरागियों ने भी सन् 1713 में जयपुर के समीप ‘गाल्ता’ नामक स्थान पर महन्त रामानन्द के मठ में शस्त्र धारण करने का निर्णय लिया। जयपुर नरेश सवाई जयसिंह का नाम भी इस घटना के साथ जोड़ा जाता है। उन्हें मुगल शासनकाल में हिन्दू तीर्थ स्थानों पर ‘जयसिंहपुरा’ नामक केन्द्र स्थापित करने और उनमें रामानंदी सम्प्रदाय के निर्मोही अखाड़ो को प्रवेश देने, मराठे, बुन्देले और बंदा बैरागी जैसी अनेक हिन्दू शक्तियों को यथाशक्ति सहायता देने और पेशवा बाजीराव प्रथम को मालवा पर विजय और अधिकार दिलाने में निर्णायक भूमिका निभाने का श्रेय भी दिया जाता है।
कुम्भ की तरह ही प्रयाग भी हजारों वर्षों तक देश को ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, कला, धर्म और संस्कृति की अमूल्य शिक्षा देने के बावजूद वर्तमान में मुगल शासक अकबर द्वारा 1583 में दिए गए इलाहाबाद नाम से जाना जाता है। इलाहाबाद एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ होता है अल्लाह द्वारा बसाया गया शहर। यानी अकबर भी इस पुरातन हिंदू शहर के स्वरूप से भलीभांति परिचित था। बताते हैं कि मुगल काल में इस स्थान के अनेकों ऐतिहासिक मंदिरों को तोड़कर उनका अस्तित्व मिटा दिया गया। बावजूद, प्रयाग में हिंदुओं के बहुत सारे प्राचीन मंदिर और तीर्थ है। संगम तट पर जहां कुम्भ मेले का आयोजन होता है, वहीं भारद्वाज ऋषि का प्राचीन आश्रम है। प्रयाग को विष्णु की नगरी भी कहा जाता है और यहीं पर भगवान ब्रह्मा के द्वारा प्रथम बार यज्ञ करने का वृतांत भी मिलता है। माना जाता है पवित्र गंगा और यमुना के मिलन स्थल के पास आर्यों ने प्रयाग तीर्थ की स्थापना की थी। 
वहीं कुम्भ मेले के इतिहास के शोधार्थियों का प्राचीन संस्कृत वाङ्मय के अध्ययन के आधार पर मानना है कि प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में कुम्भ मेलों का सूत्रपात किसी एक केन्द्रीय निर्णय के अन्तर्गत, किसी एक समय पर, एक साथ नहीं किया गया होगा, वरन एक के बाद एक अपने-अपने कारणों से पवित्र तीर्थस्थलों पर आयोजित किए गए होंगे, और आगे चलकर एक पौराणिक कथा के माध्यम से इन्हें एक श्रृंखला में पिरो दिया गया होगा। आदि गुरु शंकराचार्य को कुंभ पर्व को वर्तमान मेले का स्वरूप देने का श्रेय दिया जाता है, जिन्होंने ही भारत के चार कोनों पर चार धामों की स्थापना की थी, जिसके कारण चार धाम की तीर्थयात्रा का प्रचलन हुआ। बारहवीं शताब्दी से कुम्भ मनाए जाने के लिखित प्रमाण मिलते हैं। 

कुम्भ पर्व (मेला)-2013 के मुख्य स्नान-पर्वों की तिथियांः 
1 मकर संक्रानित 14.1.2013 (शाही स्नान)
2 पौष पूर्णिमा 27.1.2013 
3 मौनी अमावस्या 10.2.2013 (शाही स्नान)
4 वसन्त पंचमी 15.2.2013 (शाही स्नान)
5 माघी पूर्णिमा 25.2.2013 
6 महाशिवरात्रि 10.3.2013

Thursday, January 31, 2013

उत्तराखंड भाजपाः कहां है राष्ट्रीय सोच


भारतीय जनता पार्टी एक राष्ट्रीय और धार्मिक-सांस्कृतिक सोच वाली पार्टी कही जाती है। पूर्ववर्ती जनसंघ की तरह ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से नजदीकी को बिना गुरेज स्वीकारते हुए यह पार्टी धार्मिक व जातीय समरसता की बात करती है। संघ के कार्यक्रमों में इसके नेता, कार्यकर्ता जमीन पर एक पांत में बैठकर माघ के माह में खिचड़ी और बसंत पंचमी को खीर बनाने-खाने से भी गुरेज नहीं करते। यही नहीं वहां मुस्लिमों सहित अन्य धर्मों के लोगों की भी कम ही सही, लेकिन उपस्थिति रहती है, और इसी आधार पर वह विपक्ष के ‘सांप्रदायिक पार्टी’ के आक्षेपों की परवाह किए बगैर देश को राजनीतिक विकल्प देने के मार्ग पर भी नजर आती है। लेकिन यही पार्टी देश को धर्म और सांस्कृतिक सौहार्द की ‘गंगा-जमुनी’ तहजीब की प्रणेता गंगा-यमुना के मायके यानी उत्तराखंड में अपने चरित्र-पथ से बुरी तरह डिगी हुई नजर आती है। 
उत्तराखंड में पार्टी का जातीय व धार्मिक समरसता का स्वरूप शायद ही अपने सही अर्थों में कहीं दिखाई देता है। बल्कि वह यहां समरसता को ‘जातीय व क्षेत्रीय तुष्टीकरण’ में बदलती है और इस मायने में उत्तराखंड कांग्रेस की ‘बी’ टीम से अधिक नजर नहीं आती। शायद यही कारण हो कि उसे राज्य बनाने के बावजूद जनता से कभी अभीष्ट भरोसा नहीं मिल पाया। पार्टी सत्ता में आने पर मुख्यमंत्री और विपक्ष में रहने पर नेता प्रतिपक्ष प्रदेश के एक मंडल-कुमाऊं से बनाती है तो पार्टी का अध्यक्ष दूसरे मंडल गढ़वाल से बनाया जाता है। यही नहीं इसके साथ यह भी होता है कि यदि एक महत्वपूर्ण पद पंडित बिरादरी के नेता को मिलता है तो दूसरे के लिए क्षत्रिय नेता की तलाश की जाती है। ऐसा ही इस बार पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए भी हुआ है। 
उत्तराखंड में गुटीय राजनीति में बंटी भाजपा यहां विधान सभा चुनावों में ‘खंडूड़ी है जरूरी’ का नारा चलाने के बाद कमोबेश खंडूड़ी की ही एक सीट के साथ अवपनी भी लुटिया डुबो बैठी। विपक्ष में बैठने को मजबूर हुई तो समय पर राज्य को नेता प्रतिपक्ष नहीं दे पाई। इस मामले में पार्टी की खूब थुक्का-फजीहत भी हुई। ऐसे ही अब नया प्रदेश अध्यक्ष चुनने की बारी आई तो पार्टी का सर्वानुमति से अध्यक्ष बनाने के दावे के साथ ही राज्य बनने के बाद से ही रही ऐसी परंपरा भी चकनाचूर कर डाली। प्रदेश अध्यक्ष के पद के लिए नेता प्रतिपक्ष के विरोधी मंडल और जाति के ही प्रत्याशी तलाशे जाने लगे। नेता प्रतिपक्ष कुमाऊं के पंडित बिरादरी से आने वाले अजय भट्ट हैं, लिहाजा तय माना गया कि प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी गढ़वाल के ही किसी क्षत्रिय क्षत्रप को दी जाएगी।ऐसे में एक जाति और मंडल विशेष (गढ़वाली क्षत्रिय) के पार्टी नेताओं को ही तरजीह दी जाने लगी। इसमें भी रोचक रहा कि एक जाति विशेष-‘रावत’ के ही पार्टी नेताओं के नाम आगे आने लगे। तीरथ सिंह रावत, ़ित्रवेंद्र सिंह रावत, धन सिंह रावत, मोहन सिंह रावत ‘गांववासी’ के नाम अध्यक्ष पद के लिए खासे चर्चा में रहे। गौरतलब है कि पूर्व में भी बची सिंह रावत पार्टी के अध्यक्ष रहे हैं। बहरहाल, अध्यक्ष पद के चुनावों में नौबत यहां तक आ गई कि तीरथ और त्रिवेंद्र दोनों ने पार्टी अनुशासन की धज्जियां उड़ाते हुए मैदान में एक साथ ताल ठोंक दी। 
हालांकि परदे के आगे चल रहे नेताओं के खेल के पीछे पार्टी के तीन ध्रुवों-कोश्यारी, खंडूड़ी व निशंक गुटों का परदे के पीछे चलता रहा। राजनीतिक बिसात में नित नए पाले और समीकरण बदलने में माहिर पार्टी के इन गुटीय नेताओं ने ऐसी-ऐसी चालें चलीं कि नतीजा किसी के पक्ष में नहीं जा पाया और राज्य बनने के बाद पहली बार ऐसी नौबत आयी कि तय समय पर चुनाव टालना पड़ गया। इस दौरान धुर विरोधी और एक-दूसरे को फूटी आंख न सुहाने वाले खंडूड़ी और निशंक धड़े गलबहियां डाले एक-साथ नजर आने लगे। उठा-पटक की इस जंग में कोश्यारी अकेले रहने के बावजूद केवल इसलिए मजबूत माने गए कि वह नेता प्रतिपक्ष के उलट क्षत्रिय बिरादरी से आते हैं। राजनाथ सिंह के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद तो उनके होंसले अपने पुराने संबंधों और राजनाथ के भी क्षत्रिय नेता होने के नाते बुलंद हो चले। ऐसे में यहां तक चर्चाएं चल पड़ीं कि कोश्यारी ही दुबारा प्रदेश अध्यक्ष बनेंगे। वह पूर्व में भी यह दायित्व संभाल चुके हैं। यदि ऐसा हुआ तो पार्टी के लिए बमुश्किल चुने गऐ नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट को बदलना भी मजबूरी हो जाएगा। ऐसे में स्वयं भट्ट इस कटु सच्चाई को स्वीकार करते हुए पार्टी के आदेश को सिरोधार्य बताकर पार्टी के भरोसेमंद सिपाही का तमगा हासिल में ही भलाई तलाशने लगे हैं। 
गौरतलब है कि पार्टी ऐसे जातीय समीकरणों को आजमाने का दंश यूपी में हुए हालिया विधानसभा चुनावों में भुगत चुकी है। जहां पार्टी ने एनआरएचएम के दागी बसपा मंत्री बाबूराम कुशवाहा और पूर्व में पार्टी छोड़ चुकी उमा भारती की पार्टी में मजबूती से वापसी करवाई, लेकिन चुनाव परिणामों में इस कवायद का कोई लाभ नहीं को नहीं मिल पाया। अब वहां पुराने साथी कल्याण सिंह की भी इसी जातीय वोटों के गुणा-भाग के आधार पर पार्टी में वापसी की गई है, किंतु आगे भी उसे इसका लाभ मिल पाएगा, कहना मुश्किल है। 
बहरहाल, प्रदेश में पार्टी के अगले सिपहसालार पर बना सस्पेंस तो देर-सबेर समाप्त हो जाएगा। लेकिन पार्टी जनों के आपसी कच्चे-धागे जो इस प्रक्रिया में टूटे-उलझे हैं, वह आसानी से और जल्द सुलझ जाएंगे ऐसा कहना आसान नहीं है। अच्छा होता कि पार्टी उत्तराखंड या यूपी में इस तरह जातीय समीकरणों में उलझने से बेहतर अपनी राष्ट्रीय व बड़ी सोच प्रकट करते हुए क्षमताओं युक्त नेताओं को जिम्मेदारियां सोंपती, और अपनी जीत का मार्ग प्रशस्त करती। 

Monday, January 28, 2013

राहुल की 'साफगोई' के मायने


Rs 3/kg: Rahul Gandhi Lands in a Potatoe Soup

यपुर में कांग्रेस पार्टी की चिंतन बैठक में चाहे जो और जितना नाटकीय तरीके से हुआ हो, लेकिन काफी कुछ हुआ वही, जिसकी उम्मीद कमोबेश हर कांग्रेसी कर रहा था, और बाकी देशवासियों को भी उसका अंदाजा था। यानी राहुल गांधी को पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी मिलना, और उन्हें उपाध्यक्ष बना भी दिया गया। चिंतन शिविर से यही सबसे बड़ी खबर आई, यानी चिंतिन शिविर आयोजित ही इस लिए किया गया था कि इसके बाद राहुल को पार्टी का नंबर दो यानी सोनिया गांधी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया जाए। 
राहुल को उपाध्यक्ष घोषित कर दिया गया, किंतु यह भी बहुत बड़ी घटना नहीं क्योंकि वह पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रहते हुए भी गांधी-नेहरू परिवार से होने और सोनिया गांधी के पुत्र होने के नाते पार्टी के नंबर दो तथा सोनिया के निर्विवाद तौर पर उत्तराधिकारी ही थे। लेकिन इससे बड़ी बात यह है कि नई जिम्मेदारी देने के साथ यह संदेश साफ कर देने की कोशिश की गई है कि वह आगामी लोक सभा चुनावों में पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे। 
गौर कीजिए, राहुल और सोनिया गांधी दोनों इस बात को मानते हैं, इसलिए ‘पार्टी’ की एक बड़ी जिम्मेदारी मिलने पर दोनों के मन में पार्टी से पहले ‘सत्ता’ का खयाल आता है। यह खयाल आते ही सोनिया बेहद डर जाती हैं। वह रात्रि में ही राहुल के कक्ष में जाती हैं, और पुत्र को गले लगाकर रोते हुए याद दिलाती है, सत्ता जहर है। इस जहर ने उनकी ‘आइरन लेडी’ कही जाने वाली दादी और मजबूत पिता को उनसे छीन लिया। पुत्र को भी डर सताता है, उनके साथ बैडमिंटन खेलने वाले दो पुलिस कर्मी कैसे गोलियों से भूनकर उनकी दादी की हत्या कर देते हैं। यहां किस पर विश्वास किया जाए, किस पर नहीं ! कहीं सत्ता उन्हें भी.....! भगवान करे ऐसा कभी ना हो।
बहरहाल, टीवी पर आने वाले एक विज्ञापन की तर्ज पर डर सभी को लगता है, गला सभी का सूखता है। मां-पुत्र भी इसके अपवाद नहीं हो सकते। दोनों बेहद डरे हुए हैं। लेकिन उनके समक्ष क्या मजबूरी है सत्ता रूपी जहर को पीने की। यह जहर उनके परिवार को इतने बड़े घाव पहले ही दे चुका है, तो उसे जानते-बूझते फिर से क्यों गटका जाए। किसी और के लिए हो सकता है, पर गांधी-नेहरू परिवार के लिए तो सत्ता कभी ‘शादी के लड्डू’ की तरह अनजानी वस्तु भी नहीं हो सकती कि उसे बिना खाए पछताने से बेहतर एक बार खा ही लिया जाए। उनके लिए यह स्वाद कोई नया नही। 
फिर क्या मजबूरी है कि राहुल अपने इस डर को पार्टी की भरी चिंतन सभा में उजागर कर देते हैं। क्या केवल ‘साफगोई’ का तमगा हासिल करने के लिए। और यह भी ‘साफ’ किए बगैर कि आखिर उनके समक्ष इतने बड़े डर के बावजूद विषपान करने की इतनी बड़ी मजबूरी क्या है। क्या वह पार्टी की चिंतन बैठक में देशवासियों के दुःखों पर चिंता कर रहे हैं, और देशवासियों के दुःख उनसे देखे नहीं जा रहे और वह उनके दुःखों को दूर करने के लिए उनके हिस्से के ‘विष’ को पीकर ‘शिव’ बनना चाहते हैं। ऐसा ही मौका सोनिया के पास भी तो आया था, और उन्होंने यह विष क्या पी न लिया होता, यदि उन पर ‘विदेशी’ होने का दाग न लग गया होता। 
राहुल जानते हैं, वह नेहरू-गांधी परिवार के चश्मो-चिराग हैं, जिसका नाम अपने नाम से जोड़ देने भर से उन्हें बिना किसी अन्य विशेषता के मां से उत्तराधिकार में कांग्रेस के नंबर दो की कुर्सी के साथ ही आगे पार्टी को सत्ता मिलने पर देश की नंबर एक की कुर्सी भी कमोबेस बिना प्रयास के मिलनी तय है। वह देश की सत्ता के इतने बड़े नाम हैं कि चाहें तो विपक्षी पार्टियों की सत्ता रहते भी लोकहित के जो मर्जी कार्य करवा सकते हैं। फिर क्या मजबूरी है कि वह सत्ता को जहर होने के बावजूद भी पीना ही चाहते हैं।
यहां राहुल के एक वक्तव्य से दो चीजें हो जाती हैं। एक, देश का भावी प्रधानमंत्री होने के बावजूद वह इस कथित ‘साफगोई’ के फेर में स्वयं के डर के साथ अपनी कमजोरी भी प्रकट कर देते हैं। दूसरे, ‘पालने’ से ही सत्ता शीर्ष पर होने के बावजूद स्वयं का जहर जैसी सत्ता से न छूट पा रहा मोह भी उनकी इस ‘साफगोई’ से उजागर हो जाता है।
राहुल की यह ‘साफगोई’ अनायास नहीं है, वरन सोची समझी रणनीति के तहत हैं। वह अभी भी अपना ‘चेहरा’ विकसित करने के दौर में ही हैं। कभी दाड़ी वाले बेफुरसत युवा, कभी यूपी की चुनावी सभा में पर्चा फाड़ते एंग्री यंग मैन तो कभी गरीब की झोपड़ी में रात बिताते गरीब-गुरबा के मसीहा, और अब साफगोई दिखाते, देश के दिलों को छूते नेता। उनकी पार्टी यूपी, गुजरात जैसे राज्य हारते जा रही है। उत्तर पूर्व के तीन राज्यों में भी उनकी पार्टी के लिए जीत की कम ही संभावनाएं हैं। 2014 भागा हुआ आ रहा है। जनता भ्रष्टाचार, महंगाई, सब्सिडी वापस लिए जाने, डीजल-पेट्रोल को तेल कंपनियों के हाथ में दे दिए जाने, जन लोकपाल, बलात्कार पर कड़े कानून बनाने का शोर मचाए हुए है। वह क्या करें, कौन सा रूप धरें। कौन सा चमत्कार करें कि इस सबके बावजूद सत्ता वापस कदमों में आ जाए। यह बड़ी चिंता है। उनकी भी, कांग्रेस के नेताओं की भी, जिन्हें पता है कि यही नेहरू-गांधी का नाम है जिसके बल पर वह जनता को तमाम अन्य मुद्दे भुलाकर सत्ता हासिल कर सकते हैं। और मां सोनिया की भी, बेटे के लिए दुल्हन भी तलाशें तो पूछते हैं, लड़का करता क्या है। सचमुच बड़ी मजबूरी है। 
लेकिन राहुल को घबराने या जल्दबाजी की जरूरत नहीं, उन्हें समझना होगा, वह अकेले दौड़ने के बाद भी पार्टी के ‘नंबर दो’ बने हैं। इस पद के लिए उनके अलावा कोई और दूसरा प्रत्याशी नहीं है। वह कभी देश के प्रधानमंत्री भी बनेंगे तो ऐसी ही स्थिति में, जहां कोई दूसरा उनका प्रतिद्वंद्वी नहीं होगा या ऐसी स्थितियां बना दी जाएंगी कि कोई दूसरा उनके बराबर मंे खड़ा ही नहीं हो सकता। उन्हें यह प्रमोशन तब मिला है, जबकि उनके नेतृत्व में लड़े राज्यों में भी कांग्रेस लगातार हारती रही है। उनका ‘नेता बनो या नेता चुनो’ का मॉडल युवा कांग्रेस में भी फेल हो चुका है। वह न पार्टी की युवा ब्रिगेड को सुधार पाए हैं, और न ही अपनी पार्टी को अपने दम पर किसी राज्य में ही जीत दिला पाए हैं। 
बावजूद वह जानते हैं, कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी के बाद एक वे ही हैं, जिनकी छांव तले कांग्रेसी एक छत के तले खड़े हो सकते हैं। राहुल भले कहें कि उन्हें नहीं पता कि कांग्रेस में आज के कारपोरेट प्रबंधन के दौर में भी (कमोबेस देश की तरह ही) कोई सिस्टम ही नहीं हैं, बावजूद (देश की तरह भगवान भरोसे नहीं) विपक्षी दलों की राजनीतिक अपरिपक्वता और राजनीतिक दांवपेंच में कहीं न ठहरने जैसे अनेक कारणों से वह चुनाव जीत ही जाते हैं। 
तो क्या, यह जल्दबाजी, यह विषपान की मजबूरी इसलिए है कि उन्हें लगने लगा है, गांधी-नेहरू जाति नाम भले कांग्रेस पार्टी में अब भी चलता हो पर देश में यह तिलिस्म लगातार टूटता जा रहा है। युवा कांग्रेस के साथ ही यूपी में ‘बदलाव’ की कोशिश कर वह थक हार चुके हैं। उनके हाथों में युवा कांग्रेस की कमान थी। उन्होंने वहां जमीनी स्तर से ‘नेता बनो या नेता चुनो’ का नारा दिया, लेकिन वह नारा भी नहीं चल पाया। कमोबेश सभी जगह वही युवा आगे आ पाए, जिनके पिता या गुट के नेता मुख्य पार्टी में बड़े ओहदे पर थे। जो भी जीता, उसने नीचे से लेकर ऊपर तक कार्यकर्ताओं को मैनेज किया। अपने सदस्य बनाए, फिर अपने लोगों को जितवाया और आखिर में अपने पक्ष में लॉबिंग की। लेकिन राहुल की सोच के मुताबिक ऐसा कुछ नहीं हुआ कि अनजान चेहरे युकां के प्रदेश अध्यक्ष बन गए।
तो क्या राहुल अपनी इस साफगोई से मात्र पार्टी जनों को भावनात्मक रूप से जोड़े रखने का ही प्रयास नहीं कर रहे हैं। इसके साथ ही कहीं वह कार्यकर्ताओं को स्वयं शीर्ष पर जगह बनाने के बाद परोक्ष तौर पर चेतावनी तो नहीं दे रहे कि यह बहुत खतरनाक जगह है। यहां आने की भी न सोचें। हम बहुत बड़ी कुरबानी देने वाले लोग हैं, इसलिए यहां हैं। 
इससे बेहतर क्या यह न होता कि वह अपना डर दिखाने के बजाए देश की बड़ी समस्याओं, भ्रष्टाचार, महंगाई, सब्सिडी को खत्म करने, जन लोकपाल, पदोन्नति में आरक्षण जैसे विषयों पर बोलने का साहस दिखाते। देश की जनता की नब्ज, उसकी समस्याओं को समझते, और अपनी युवा ऊर्जा का इस्तेमाल पर उनका स्थाई समाधान तलाशते। 
राहुल को जानना होगा उन्हें प्रधानमंत्री बनना है तो उन्हें केवल कांग्रेस पार्टी का नहीं पूरे देश का नेता बनना होगा। और ऐसा केवल भावनात्मक तरीके के बजाए कुछ करके बेहतर किया सकता है। उन्हें इस पद पर आरूढ़ होने से पूर्व कुछ और समय लेना होगा। प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने की जल्दबाजी उनके कॅरियर पर भी भारी पड़ सकती है। इस पद के लिए स्वयं को तैयार भी करना होगा। उन्हें स्वयं में गंभीरता लानी होगी। केवल कांग्रेस के गैर गांधी प्रधानमंत्रियों की तरह ‘मौनी बाबा’ बनने अथवा अपने पिता के ‘हमने देखा है, हम देखेंगे’ की तरह ही ऐसा या वैसा होना चाहिए के बजाय कुछ करके दिखाने का साहस और होंसला स्वयं में विकसित करना होगा। अभी वह युवा हैं, उनकी उम्र भागी नहीं जा रही। निस्संदेह उन्हें एक न एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनना है। 

Wednesday, January 23, 2013

देवभूमि के कण-कण में देवत्व

स्वामी विवेकानंद का 'बोध गया' : काकड़ीघाट
Somvaaree Baba Ashram Kaakadeeghat, Nainital
काकड़ीघाट धाम, नैनीताल जिले में अल्मोड़ा रोड पर स्थित वह स्थान है, जहाँ से ही स्वामी विवेकानंद का कुमाऊं आगमन प्रारंभ हुआ। यहीं उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। स्वयं उन्होंने इस स्थान के बारे में लिखा है कि यहाँ आकर उन्हें लगा कि उनके भीतर की समस्त समस्याओं का समाधान हो गया, और उन्हें पूरे ब्रह्माण्ड के एक अणु में दर्शन हुए। महान तत्वदर्शी सोमवारी बाबा ने भी यहाँ लम्बे समय तक तपस्या की।
भारत को दुनिया में आध्यात्मिक गुरु के रूप में प्रस्तुत करने वाले व युवाओं को सृष्टि के कल्याण के लिए 'जागो, उठो और कर्म करो' का मूल मंत्र देने वाले युगदृष्टा स्वामी विवेकानंद को आध्यात्मिक ज्ञान नैनीताल जनपद के काकड़ीघाट में प्राप्त हुआ था। विवेकानंद की देवभूमि यात्रा यहीं से प्रारंभ हुई थी। यहां स्वामी जी के अवचेतन शरीर में सिहरन हुई। वह पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान लगा कर बैठ गए। बाद में उन्होंने इसका जिक्र करते हुए कहा था कि उनको काकड़ीघाट में पूरे ब्रह्माण्ड के एक अणु में दर्शन हुए। यही वह ज्ञान था जिसे उन्होंने 11 सितंबर 1893 को शिकागो में पूरी दुनिया के समक्ष रखकर देश का मान बढ़ाया। स्वामी विवेकानंद और देवभूमि का गहरा संबंध रहा है। वह तीन बार देवभूमि आए। 

कहा जाता है की स्वामी जी ने बेलूर मठ से हिमालय की कठिन यात्रा के लिए निकलते समय मठ के साथियों से कहा था की वह स्पर्श मात्र से लोगों को रुपान्तरित कर देने की क्षमता प्राप्त किए बिना वापस नहीं लौटेंगे। उन्होंने कहा था, 'इस बार जब यहां लौटूंगा तब मैं समाज के उपर एक बम की तरह फट पड़ूगा और समाज स्वान की तरह मेरे पीछे चलेगा।'  वह अपनी पहली आध्यात्मिक यात्रा  पर1890 में साधु नरेंद्र के रूप में गुरु भाई अखंडानंद के साथ नैनीताल पहुंचे। यहाँ वह तत्कालीन खेत्री के महाराज प्रसन्न भट्टाचार्य के आतिथ्य में उनके घर पर छह दिन रहे थे। यहाँ से उन्होंने पैदल ही अल्मोड़ा के लिए यात्रा प्रारंभ की. तीसरे दिन दोनो लोग रात्रि विश्राम के लिए काकड़ीघाट पहुंचे। 
काकड़ीघाट में वह एक झरने के किनारे पानी की चक्की (पन चक्की-पहाड़ी घट) के समीप ठहरे। यहाँ कोसी (कौशिकी) और सरोता नदी की संगम-स्थली पर उभरे एक त्रिभुजाकार भूखण्ड के बीच में खड़े विशाल पीपल के वृक्ष के साथ समस्त वातावरण दिव्य आनन्द से भरा हुआ था। स्वामीजी वहाँ रुककर खड़े हो गये, और स्वामी अखंडानन्द से कहा- ” भाई, देखते हो यह स्थान तो ध्यान करने के लिये अत्यन्त उपयुक्त है ! “सुबह स्नान के उपरांत वह निकट ही स्थित विशाल पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान करने बैठ गये। ध्यान में एक घन्टा बीत जाने के बाद स्वामी विवेकानन्द ने अपने साथी अखण्डानंद से कहा 'देखो गंगाधर (अखण्डानंद) इस वृक्ष के नीचे एक अत्यंत शुभ मुहुर्त बीत गया है। आज एक बड़ी समस्या का समाधान हो गया। मैने जान लिया कि समष्टि और व्यष्टि (विश्व ब्रह्माण्ड व अणु ब्रह्माण्ड) दोनो एक ही नियम से परिचालित होते हैं।’ स्वामी अखण्डानंद के पास रखी हुई एक नोट बुक में स्वामीजी ने उस दिन की अनुभूति की बात बांग्ला भाषा में लिख लीं-” आमार जीवनेर एकटा मस्त समस्या आमि महाधामे फेले दिये गेलुम ! ”   

स्वामीजी का उपरोक्त उद्गार का वर्णन हिन्दी में ‘ अल्मोड़ा का आकर्षण ‘- नामक महामण्डल पुस्तिका के पृष्ठ संख्या 5 पर इस प्रकार दिया हुआ है”-आज मेरे जीवन की एक बहुत गूढ़ समस्या का समाधान इस महा धाम में प्राप्त हो गया है ! “। उन्होंने लिखा, 'जिस प्रकार व्यष्टि जीवात्मा एक चेतन शरीर द्वारा आवृत्त है, उसी प्रकार विश्वात्मा भी चेतनामयी प्रकृति या दृश्य जगत में स्थित है। शिवा (काली) शिव का आलिंगन कर रही है। यह कोई कल्पना नही है। इसी एक (प्रकृति) के द्वारा दूसरे (आत्मा) का आलिंगन मानो शब्द और अर्थ के सम्बंध की भांति है। वे दोनों अभिन्न हैं और केवल मानसिक विश्लेषण के द्वारा ही उन्हें पृथक किया जा सकता है। शब्द के बिना विचार करना असम्भव है। अतः सृष्टि के आदि में शब्द-ब्रह्म था।’ उन्होने आगे कहा, 'विश्वात्मा का यह युगल रूप अनादि है। अतः हम लोग जो कुछ देखते हैं या अनुभव करते हैं। सभी की संरचना साकार और निराकार के सम्मिलन से हुई है’।
इसी अद्वैत दर्शन के आधार पर उन्होंने  लोगों को बताया कि सूक्ष्म ब्रह्मांड व वृहद ब्रह्मांड ठीक उसी प्रकार एक ही पटल पर स्थित हैं जैसे आत्मा शरीर के अंदर निवास करती है। 

काकड़ीघाट से वह अल्मोड़ा की ओर बढ़े। अल्मोड़ा से पूर्व वर्तमान मुस्लिम कब्रिस्तान करबला के पास चढ़ाई चढ़ने और भूख-प्यास के कारण उन्हें मूर्छा आ गई। वहां एक मुस्लिम फकीर जुल्फिकार अली ने उन्हें ककड़ी (पहाड़ी खीरा) खिलाकर ठीक किया। उन्होंने कसार देवी के समीप स्थित एक गुफा में भी कुछ समय तक साधना की। इसका जिक्र स्वामी जी ने 1898 में दूसरी बार अल्मोड़ा आने पर किया। अल्मोड़ा में वह लाला बद्री शाह के आतिथ्य में रहे। यह स्वामी विवेकानंद का नया अवतार था। इस मौके पर हिंदी के छायावादी सुकुमार कवि सुमित्रानंदन ने कविता लिखी थी- 

‘मां अल्मोड़े में आए थे जब राजर्षि  विवेकानंद, तब मग में मखमल बिछवाया था, दीपावली थी अति उमंग’
स्वामी जी अल्मोड़ा से आगे चंपावत जिले के मायावती अद्वैत आश्रम भी गए, और तपस्या कर आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित किया।  उनके अनुयायी कैप्टन जेम्स हेनरी सीवर व सार लौट एलिजाबेथ सीवर ने  1899 में वर्तमान में मायावती स्थित इस आश्रम की स्थापना की थी। वहां आज भी उनका प्रचुर साहित्य संग्रहित है। 1898 में उन्होंने कुमाऊं की तीसरी यात्रा की। वह अल्मोड़ा के थामसन हाउस में रहे। 18 जनवरी 1901 को उन्होंने कुमाऊं की अंतिम यात्रा की। वह मायावती आश्रम की देखरेख करने वाले कैप्टन सीवर्स की मौत के बाद वहां पहुंचे थे। अल्मोड़ा में भी स्वामी जी के गुरु रामकृष्ण परमहंस के नाम से मठ और कुटी आज भी मौजूद है। काकड़ीघाट में भी स्वामी जी के आगमन की यादें और उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने वाला वह "बोधि वृक्ष" पीपल का पेड़ आज भी मौजूद हैं।


यह भी पढ़ें: काकड़ीघाट  (नैनीताल) में मिला था नरेद्र को राजर्षि विवेकानंद बनाने का आत्मज्ञान, इस लिंक पर : http://uttarakhandsamachaar.blogspot.com/2011/01/blog-post_12.html



पाषाण देवी शक्तिपीठ: जहां घी, दूध का भोग करती हैं सिंदूर सजीं मां वैष्णवी
उत्तराखंड को देवभूमि इसीलिए कहा जाता है, कि यहां के कण-कण में देवों कावास है। बदरी, केदार सहित चार धामों और गंगा, यमुना की इसी धरती में शिवके धाम कैलाश का द्वार है, और यहीं शिवा यानी माता पार्वती का मायका हिमालय भी है। यहां के हर पुराने शहर और गांव देवी देवताऑ  के प्रसंगों से जुड़े हैं और वहां आज भी श्रद्धालु साक्षात दर्शन कर दिव्य अनुभूतियां प्राप्त करते हैं। प्रदेश के कुमाऊं मंडल के मुख्यालय मां नयना की नगरी का शास्त्रों में त्रिऋषि  सरोवर के रूप में वृतांत मिलता है। यहीं नगर का प्राचीनतम बताया जाने वाला मां पाषाण देवी के एक विशाल शिला खंड पर नवदुर्गा स्वरूप में दर्शन होते हैं, जबकि मां के चरण नैनी झील में बताये जाते हैं। कई बारमां का वाहन शेर यहां दिन में भी घूमता मिल जाता है, और बिना किसी को नुकसान पहुंचाये अचानक आंखों से ओझल भी हो जाता है। यहां मां का क्षृंगार महाबली हनुमान की तरह सिंदूर से होता है, और उन्हें वैष्णवी स्वरूप में दुग्ध उत्पादों व फल फूलों का भोग लगाया जाता है।  माना जाता है कि पिता दक्ष प्रजापति द्वारा पति का अनादर करने पर माता पार्वती अग्रि में कूदकर सती हो गई थीं। उनके दग्ध शरीर को देवाधिदेव महादेव आकाश मार्ग से कैलाश की ओर लेकर चले। इस बीच माता के दग्ध अंग जहां जहां गिरे वहां शक्तिपीठ स्थापित हो गये। मां के नयनों के गिरने के कारण और सरोवर यानी ताल होने से यह स्थान नयना ताल तथा कालांतर में अपभ्रंस होता हुआ नैनीताल कहलाया। एक अन्य मान्यता के अनुसार मां के नयनों के नीर से नैनी सरोवर बना और दक्षिण पूर्वी अयारपाटा पहाड़ी पर हृदय सहित अन्य शरीर यानी ‘पाषाण’ गिरा, तथा मां पाषाण देवी के प्राकृतिक मंदिर की स्थापना अनादि काल में ही हो गई थी। बताते हैं कि 1841 में नगर की स्थापना से पूर्व से ही इस स्थान पर नजदीकी गांवों के लोग गायों और पशुओं के चारण के लिए आते थे, और धार्मिक मान्यता के कारण शाम होने से पहले वापस भी लौट जाते थे। पहाड़ों में खासकर गायों के नई संतति देने पर नये दूध से देवों का अभिषेक करने की परंपरा है। ऐसे देवता ‘बौधांण देवता’ कहे जाते हैं। लेकिन नैनीताल संभवतया अकेला ऐसा स्थान होगा जहां नया दूध एवं घी, दही, मक्खन व छांस जैसे दुग्ध उत्पाद बौधांण देवता के बजाय बौधांण देवी के रूप में पाषाण देवी को चढ़ाये जाते थे, और आज भी ग्रामीण पाषाण देवी की इसी रूप में पूजा करते हैं। मान्यता है कि मां का चेहरा धुले पानी से समस्त त्वचा रोगों के साथ ही अतृप्त व बुरी आत्माऑ के प्रकोप भी समाप्त हो जाते हैं। बताते हैं कि नगर की स्थापना के बाद एक अंग्रेज अफसर इस स्थान से होता हुआ घोड़े पर निकला था, किंतु उसका घोड़ा यहां से लाख प्रयासों के बावजूद आगे नहीं बढ़ पाया। इस पर नाराज हो उसने मां की मूर्ति पर कालिख पोत दी थी। हालांकि बाद में उसे गलती का अहसास हुआ और स्थानीय महिलाऑ ने कालिख के स्थान पर मां का सिंदूर से क्षृंगार किया। इस प्रकार यहां देवी का सिंदूर से क्षृंगार किये जाने की अनूठी मान्यता है। इस स्थान पर पाषाण देवी नवदुर्गा के रूप में पत्थर की शिला पर प्राकृतिक रूप से विराजमान हैं, जो स्पष्ट दिखाई देती हैं। मां के नवदुर्गा स्वरूप चेहरे के नीचे गले वाला भाग हालांकि अब ढक दिया गया है, लेकिन अभी हाल तक इसके नीचे गुफा बताई जाती है, जिसमें पानी चढ़ाने पर इस तरह ‘घट घट’ की आवाज आती थी, मानो मां पानी पी रही हों। कई बार झील का पानी मंदिर तक चढ़ आता था। इसके नीचे गुफा अब भी है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका अन्य द्वार हरिद्वार में खुलता है। मंदिर की जिम्मेदारी शुरू से स्थानीय भट्ट परिवार के जिम्मे है। सर्वप्रथम चंद्रमणि भट्ट मंदिर के पुजारी थे, बाद में उनके पुत्र भैरव दत्त भट्ट और वर्तमान में उनके पौत्र जगदीश चंद्र भट्ट मंदिर के पुजारी हैं। इस मंदिर के सदस्य बारी बारी से मंदिर की सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाते हैं। नीचे की गुफा में केवल हरीश चंद्र भट्ट ही जा पाते हैं। गुफा में नागों की उपस्थिति बताई जाती है, जो कई बार श्रद्धालुऑ द्वारा अशुद्धता बरतने पर बाहर निकल आते हैं। मां को दुग्ध उत्पाद व फल फूल ही चढ़ते हैं, इस प्रकार यहां मां नवदुर्गा वैष्णवीस्वरूप में पूजी जाती हैं। नगर को सर्वप्रथम खोजने वाले कुमाऊं के पहले कमिश्नर जीडब्ल्यू ट्रेल द्वारा वर्णित और नगर को 1941 में बसाने वाले अंग्रेज व्यापारी पीटर बैरन की बहुचर्चित पुस्तक ‘वंडरिंग इन हिमालया’ में वर्णित नगर का प्राचीनतम मंदिर भी इसी प्राकृतिक मंदिर को बताया जाता है। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी सहित न जाने कितने श्रद्धालु होंगे जो अपने प्रत्येक कार्य के लिए आशीर्वाद लेने यहां निरंतर आते रहते हैं।
कुमाऊँ में है महर्षि मार्कंडेय का आश्रम


जी हाँ, युग-युग के अधिष्ठाता कहे जाने वाले भगवान महर्षि मार्कंडेय का आश्रम उत्तराखंड प्रदेश के कुमाऊँ अंचल में अवस्थित है. कुमाऊँ में काठगोदाम से नैनीताल के राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या ८७ पर स्थित करीब ६ किमी दूर भुजियाघाट नामक स्थान से एक पैदल पगडंडीनुमा मार्ग मोरा गाँव के लिए निकलता है. इस मार्ग पर आगे जाकर करीब ढाई घंटे के बेहद कठिन चढ़ाई युक्त मार्ग से बलौनधूरा नाम के चीड़ के घने जंगल में लोक आस्था के अनुसार महर्षि मार्कंडेय का यह आश्रम स्थित है. स्थानीय लोगों की मान्यता है कि महर्षि मार्कंडेय ने यहाँ लम्बे समय तक तपस्या की थी. आश्रम ऐसे निर्जन स्थान पर है कि यह कहीं से भी दृश्यमान नहीं है. आश्रम तक कोई सीधा भी नहीं है. यहाँ पर जंगल के बीच एक बड़े पत्थर के नींचे छोटा सा अनपेक्षित जल कुंड है. पास में ही कुछ झंडे लगे हुए हैं, जिनसे घने जंगल में इस महान स्थान की पहचान बमुश्किल हो पाती है. पास में गधेरे के ऊपर एक पत्थरनुमा पुल भी ध्यानाकर्षित करता है.  कहा जाता है कि पूर्व में यहाँ पर कुछ साधू-सन्यासी धूनी रमने के लिए पहुंचे थे, लेकिन अब यहाँ कोई नहीं रहता. संभवतया आज के सुविधानुरागी साधु-सन्यासियों के लिए भी यहाँ रहना आसान न हो. बलौनधूरा मोरा गाँव का ही एक तोक है. इसके पास ही पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी का नैनिहाल 'बल्यूटी' गाँव स्थित है, महर्षि मार्कंडेय के बारे में कहा जाता है कि उन्हें श्रृष्टि के सृजनकर्ता ब्रह्मा जी की तरह ही अनंत आयु प्राप्त थे. वह त्रिकालदर्शी और अन्तर्यामी भी कहे जाते हैं.
आदि गुरु शंकराचार्य का उत्तराखंड में प्रथम पड़ाव: कालीचौड़ मंदिर
देवभूमि के कण-कण में देवत्व होने की बात यूँ ही नहीं कही जाती। अब इन दो स्थानों को ही लीजिये, यह नैनीताल जिले में हल्द्वानी के निकट खेड़ा गौलापार से अन्दर सुरम्य बेहद घने वन में स्थित कालीचौड़ मंदिर है। यहाँ महिषासुर मर्दिनी मां काली की आदमकद मूर्ति सहित दर्जनों मूर्तियाँ मंदिर के स्थान से ही धरती से निकलीं। तराई-भाबर के गजेटियर के अनुसार लगभग आठवीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य अपने देवभूमि उत्तराखंड आगमन के दौरान सर्वप्रथम इस स्थान पर आये थे। उन्हें  यहाँ आध्यात्मिक ओजस्व प्राप्त हुआ, जिसके बाद उन्होंने यहाँ काफी समय तक आध्यात्मिक चिंतन किया, और यहां से जागेश्वर और गंगोलीहाट गए थे। बाद में कोलकाता के एक महंत की प्रेरणा पर गौलापार के जमींदार-मेहरा थोकदार ने यहाँ मंदिर बनवाया था। 

श्री रामदत्त जोशी पंचांगकार के पिता पंडित हरि दत्त जोशी ने यहां मूर्तियों की स्थापना की थी, और श्री राम दत्त ने यहां सर्वप्रथम श्रीमद् देवी भागवत कथा का पाठ कराया था। इसके आगे की कथा भी कम रोचक नहीं है, हल्द्वानी के एक चूड़ी कारोबारी राम कुमार को इस स्थान से ऐसा अध्यात्मिक लगाव हुआ कि उन्होंने वर्ष 2000 तक मंदिर की व्यवस्थाएं संभालीं। इधर किच्छा के एक सिख (अशोक बावा के) परिवार ने अपने मृत बच्चे को यहाँ मां के दरबार में यह कहकर समर्पित कर दिया कि मां चाहे जो करे, अब वह मां का है। इस पर वह बच्चा फिर से जी उठा, आज करीब 30 वर्षीय वही बालक और उसका परिवार मंदिर में पिछले कई वर्षों से भंडार चलाये हुए है।
उत्तराखंड में देवालयों की लम्बी श्रृंखला के क्रम में जगतजननी जगदम्बा के कालीचौड स्थित काली मंदिर की महिमा का यहां विशेष महत्व है।
’’काली-काली महाकाली कालिके परमेश्वरी,
सर्वानन्द करो देवी नारायणी नमोअस्तुते।।‘‘
काली का यह पावन मंत्र वियावन वन के मध्य कालीचौड में काली भक्तों के मुखारबिंद से अक्सर गुंजायमान रहता है। आध्यात्मिक शांति को समेटे कालीचौड का काली मंदिर माता जगदम्बा की ओर से भक्तों के लिए अनुपम भेंट है। पावन भूमि उत्तराखण्ड में कुमाऊं क्षेत्र के अन्तर्गत काठगोदाम के पास वियावान वन में स्थित काली का यह मंदिर प्राचीन काल से ऋृषि-मुनियों की आराधना और तपस्या का केन्द्र रहा है। हिमालयी भू-भाग में काली के जितने भी प्राचीन शक्तिपीठ व मंदिर है। वे सभी परम आस्थाओं के केन्द्र हैं। लौकिक व अलौकिक आस्थाओं की सिद्ध का केन्द्र कालीचौड के प्रति भी भक्तों में अपार व अटूट विश्वास है। यह एक ऐसा स्थान है जहां पंहुचते ही सांसारिक मायाजाल में भटका मानव अनायास ही कालिका के चरणों में निराली शांति का अनुभव करता है। यह देवी दरबार प्राचीन काल से ही पूजनीय रहा है। कथाओं के अनुसार सतयुग में सप्त ऋृषियों ने इस स्थान पर भगवती की आराधना, तपस्या करके मनोवांछित लौकिक व अलौकिक सिद्धयां प्राप्त की इन्हीं सिद्धियों के प्रताप से उन्होंने सप्तऋृषि लोक की प्राप्ति की। श्री मार्कण्डेय ऋृषि ने भी यहां तपस्या करके काली की कृपा को प्राप्त किया। यूं तो उत्तराखण्ड की धरती पर अनेकों स्थानों में सप्तऋृषियों ने तपस्या की जिनमें झाकर के सैम दरबार के आसपास वनों में लोहाघाट के ऋृषेश्वर क्षेत्र में इनकी तपस्या का वर्णन पुराणों के आधार पर मिलता है पर कहते हैं काली की कृपा के पश्चात ही सप्तऋृषियों ने हिमालय को अपनी तपस्या का केन्द्र बनाया। मार्कण्डेय ऋृषि ने इस दरबार में अपने आराधना के श्रद्धा पुष्प काली के चरणों में इतनी अगाध भक्ति व श्रद्धा से अर्पित किए कि काली कृपा ने उन्हें समस्त चराचर जगत की नश्वरता का ज्ञान दे डाला। अखण्ड ज्ञान को प्राप्त करके ही उन्होंने संसार को ज्ञान का अलौकिक प्रकाश दिया। शक्ति की कृपा के फलस्वरूप ही इन्होंने श्री महाकाली दरबार के निकट ही पाताल भुवनेश्वर में पुराणों की रचना की और पूज्यनीय बने भुवनेश्वर महात्म्य में आया भी है।
’’समार्चाति विद्यानेन श्रियं प्राप्तनोति मानवः
कपिलाद्या महात्मानों मार्कण्डेयादयों नृप (३४०)
मानसखण्ड भुवनेश्वर महात्म्य
अर्थात मार्कण्डेय ऋृषि भुवनेश की पूजा में यहां विराजमान होकर भक्तों द्वारा पूजित हैं।
ऐसा माना जाता है कि जब बाबा गुरु गोरखनाथ जी ने इस वसुंधरा में कदम रखा तो सर्वप्रथम इसी क्षेत्र को अपनी आराधना व तपस्या का केन्द्र बनाया क्योंकि कुमाऊं का प्रवेश द्वार क्षेत्र होने से भी यह क्षेत्र यहां पधारने वाले संतो, ऋृषि-मुनियों का प्रथम पडाव रहा है। इसी कारण से माना जाता है जब गुरु गोरखनाथ जी यहां की धरती पर आये तो सर्वप्रथम इस क्षेत्र में अपना पडाव डालकर उन्होंने यहां धूनी रमाकर कालिका की कठोर आराधना की और बाद में काली कृपा से उन्हें यहां के महान प्रतापी देवता हरू, सैम, गोल्ज्यू समेत अनेक देवताओं के गुरू होने का गौरव प्राप्त हुआ। चम्पावत में जल रही गुरू गोरखनाथ जी की अखण्ड धूनी ’’काली की गोरख‘‘ पर हुई कृपा का ही प्रताप मानी जाती है। महायोगी महेन्द्र नाथ, सोमवारी बाबा की तो यह अद्भुत साधना स्थली कही जाती है। इतना ही नहीं नानतिन बाबा, टाटम्बरी बाबा, हैडाखान बाबा सहित अनेकों संतों ने इस स्थान पर साधना करके कालिका माता से निर्मल ज्ञान की प्राप्ति की यहां की प्राचीन सिद्ध शक्ति पीठ में सिद्धबली हनुमान, काल भैरव व भगवान शिव की मूर्तियां विराजमान हैं। पौराणिक काल से अनेक कथाओं को समेटे यह स्थल ऋृषि-मुनियों की आराधना के पश्चात काफी समय तक गोपनीय रहा आधुनिक समय में यह स्थान लगभग सात दशक पूर्व प्रकाश में आया कहा जाता है कि वर्ष १९४२ से पूर्व कलकत्ता में एक बंगाली भक्त को माता कालिका ने स्वप्न में दर्शन देकर कृतार्थ किया व इस स्थान पर अपनी अलौकिक शक्ति होने का भान कराया। दिव्य प्रेरणा से अभिभूत उस काली भक्त ने इस स्थान की खोज की व बाद में हल्द्वानी निवासी रामकुमार जी ने इस स्थान को बंगाली बाबा के साथ मिलकर माँ की कृपा से मंदिर रूप में स्थापित किया। मंदिर के समीप ही एक तामपत्र निकला इसमें पाली भाषा में महाकाली मंदिर महात्म्य का उल्लेख किया गया है।
सनातन धर्म की महान ध्वजावाहक आदि जगतगुरु शंकराचार्य महामाया भगवती के अनन्य भक्त थे। देवाधिदेव महादेव की असीम कृपा तथा अपने अंतरमन की प्रेरणा के फलस्वरूप उनके मन में भगवती काली के विविध स्वरूपों तथा शक्तिपीठों के दर्शन की इच्छा जागृत हुई और इस हेतु उन्होंने सम्पूर्ण भारतभूमि के भ्रमण का निश्चय किया। जहां-जहां भी माँ जिस रूप में स्थित थी वहां-वहां उन्हें माँ के उस स्वरूप के दर्शन हुये।
भारत भ्रमण करते हुये जगदगुरु शंकराचार्य ने जब हिमालय के अंचल में अवस्थित देवभूमि उत्तराखण्ड में पदापर्ण किया तो उनके आनंद का कोई पारावार नहीं था। कूर्मांचल की तराई में आगमन पर सर्वप्रथम जगद्गुरु ने गार्गी गंगा के दर्शन तथा इस पवित्र नदी में स्नान की इच्छा अपने भक्तों के बीच व्यक्त की। कुछ स्थानीय भक्तों ने उनकी इस इच्छा को पूर्ण करने में अपना योगदान दिया।
इसी क्रम में जगद्गुरु एकाएक कह उठे कि ’’यहां तो भगवती काली की अद्भुद आभा सर्वत्र बिखरी है।‘‘ अवश्य ही कही आस-पास में वह आदिशक्ति विद्यमान है। यह सुनकर स्थानीय भक्तों ने जगद्गुरु को गार्गी नदी के उस एक प्राचीन मंदिर स्थित होने की जानकारी दी। फिर क्या था शंकराचार्य समस्त भक्त मण्डली के साथ तत्क्षीण माँ काली के उस दरबार की ओर प्रस्थान कर गये और वहां पहुंचकर वीरान वन में स्थित पवित्र दरबार के दर्शन कर धन्य हो गये।
कहा जाता है कि कूर्मांचल के पर्वतीय भू-भाग में चरण रखने से पूर्व आदिगुरु कई दिनों तक इस दिव्य स्थल में साधनारत रहे। इस बीच उनके अनुयायों की संख्या निरन्तर बढती रही पुराने बुर्जग बताते हैं कि यह मंदिर घनी झाडयों के बीच स्थित का जहां बढने योग्य स्थान का अभाव था। आदिगुरु के आदेश पर तब भक्त मण्डली द्वारा मंदिर के चारों ओर की झाडी व उबड-खाबड, भू-भाग को काट कर चौरस किया गया और यही से लोग इसे कालीचौड कहने लगे। इसके अलावा नाम को लेकर और भी अनेक किवदंतियां हैं किन्तु इतना अवश्य है कि आदिगुरु शंकराचार्य ने इस दिव्य स्थल के दर्शन के पश्चात ही पर्वतों की ओर अपनी यात्रा का शुभारम्भ किया। पवित्र धाम काली चौड में तभी से माँ काली के वैष्ण स्वरूप की पूजा की प्राचीन परम्परा लोक संस्कृति का अभिन्न अंग बन गई जो आज भी जीवंत है।
पुराणों के अनुसार इस भू-भाग में सटे तमाम पर्वतीय क्षेत्र महान् आस्थाओं के सिद्ध क्षेत्र हैं। इन्हीं क्षेत्र में लंकापति रावण के पितामह पुलस्त्य ऋृषि ने काली की कठोर तपस्या करके उनके दर्शन किए स्कंद पुराण के इकतालीसवें अध्याय के उपरोक्त श्लोक -
अत्रिः पुलस्त्यः पुलहः ऋषयो गर्ग पर्वतम्।
से यह संकेत मिलता है कि महर्षि पुलस्त्य के साथ यहां ब्रह्म पुत्र अत्रि पुलह ने भी इन वन क्षेत्रों में घोर तपस्या की है। गर्ग ऋृषि की तपस्थली भी इस क्षेत्र की परिधि के पवित्र पर्वत ही रहे हैं। इसी पर्वत माला में गर्गांचल पर्वत का जिक्र भी महर्षि व्यास जी ने मानस खण्ड में ’’शेषस्य दक्षिणे भागे पुण्यो गर्गगिरिः स्मृत।‘‘ के नाम से इन तमाम क्षेत्रों की महिमा स्कंद पुराण में गाई है। कालीचौड मंदिर के एक ओर गर्गांचल व समीपस्थ ही भद्रवट क्षेत्र भी स्थित है। भद्रवट का स्मरण ही करोडों पापों को दूर भगा देता है। व्यास जी का यह कथन मानस खण्ड के ४२वें अध्याय के तीसरे श्लोक से स्पष्ट है।
’’क्षेत्र भद्रवट नाम सर्वपापप्राणशनम’’ अर्थात् इस क्षेत्र की उपमा व्यास जी ने तीर्थराज के रूप में की है।
कालीचौड के आसपास पवित्र पहाडों में तीर्थों की भरमार है। ये किसी न किसी ऋृषि-मुनियों की तपस्याओं के महान केन्द्र रहे हैं। कालीचौड क्षेत्र के बारे में श्रीमद्भागवत में भी कथा आती है कि इस क्षेत्रों में शिव व शक्ति की आराधना करते हुए एक बार ऋृषि मार्कण्डेय ने स्वर्ग में भी हलचल पैदाकर दी उनके कठोर तप को भंग करने के लिए देवराज इन्द्र ने प्रकृति के देवता यम, वरूण, अग्नि सहित अनेक अप्सराएं भेजी जब इन्द्र सहित सभी देव असफल हो गये तब भगवान के रूप में नर और नारायण ऋृषि से वरदान मांगने को कहा। दर्शन से प्रसन्न मार्कण्डेय जी ने प्रभु से प्रभु की कृपा को मांगा इस दौरान धन्य मार्कण्डेयऋृषि को नश्वर माया का ज्ञान प्राप्त हुआ। ये चिरजीवी ऋृषि के रूप में संसार में प्रसिद्ध हुए। श्री महाकाली की कृपा के प्रताप से ही मार्कण्डेय ऋृषि की पूजा लोग चिरजीविता के लिए करते हैं। माता महाकाली के शक्ति स्थल उत्तराखण्ड में अनेकों स्थानों पर मौजूद हैं। कालीचौड की कालिका की कथा, महिमा, अनन्त है। इसे शब्दों में समेट पाना किसी भी प्राणी के लिए सहज व संभव नहीं है। इस स्थान पर काली कब से और किस कारण पूजित है। इस बारे में कोई स्पष्ट मत नहीं है। पुष्पभद्रा तीर्थ-महात्म्य के ४०वें अध्याय में ’’वाम तत्र महादेवी चण्डिका परमेश्वरी‘‘ के नाम से इस देवी की विराट महिमा की ओर इशारा किया गया है। जनपद पिथौरागढ के गंगोलीहाट क्षेत्र में स्थित श्री महाकाली का शक्ति पीठ भी सदियों से पूजनीय है। इस मंदिर की ख्याति देश-विदेशों तक है। जगतगुरु शंकराचार्य जी ने अपने तपोबल से इस स्थान पर काली माँ के दर्शन किए।

सूर्या देवी की विराट महिमा


marg surya mata-बृक्ष की गोद में स्थित है,सूर्या देवी
राजेन्द्रपन्त’रमाकान्त‘
क्षीर वृक्ष स्वरुपिणी दयनीये दयाधिके जय करुणारुपे सूर्या देवी
मंगला, वैश्णवी, माया, कालरात्रि, महामाया, मंतगी, काली कमलवासिनी, शिवा, सर्वमंगलरुपिणी सहित अनन्त नामों से भक्तों के हदय में वास करने वाली महेश्वरी महादेवी की पूजा अर्चना से व आराधना करने पर भगवती दुर्गा कश्टप्रद नरक रुपी दुर्ग से उद्वारकर परम पद प्रदान करती है, देवभूमि उतराखण्ड में ्रशक्तिपीठों की भरमार है,स्थान स्थान पर स्थित देवी के ्रशक्ति स्थल परम पूजनीय है, लालकआ विधानसभा अन्तर्गत गौला पार से लगभग १७ किमी आगे सेलजाम नदी के तट पर सूर्या देवी का पावन स्थान सदियों से भक्तों को असीम व अलौकिक ्रशान्ति प्रदान करता आ रहा है, इस स्थान पर पहुचनें पर सासारिक मायाजाल में भटके मानव की समस्त ब्याधियाँ ्रशान्ति को प्राप्त हो जाती है।
सूर्या देवी की महंता स्थानीय जनमानस में काफी लोकप्रिय है, दूर-दराज क्षेत्रों से भी भक्तों का आवगमन लगा रहता है, नवरात्रि, शिवरात्रि को भक्तों की खासी भीड यहां पर लगी रहती है, समय समय पर आयोजित धार्मिक समारोह में लोग काफी संख्या अपनी अपनी भागीदारी अदा करते है, सूर्या देवी मंदिर क्षेत्र पाण्डव कालीन गाथाओं को भी अपने आप में समेटे हुए है, माना जाता है, कि बनवास काल के दौरान पाण्डवों ने अपना काफी समय सूर्या देवी की ्रशरण में ब्यतीत किया, सूर्या देवी ्रशक्ति क्षेत्र की सबसे बडी विशेशता यह है, कि यह देवी ्रशेलजाम नदी के तट पर एक वट-वृक्ष के मध्य में है, भक्तजनों को देवी की पूजा अर्चना के लिए सीढयों के सहारे वृक्ष के मध्य तक जाना पडता है, सदियों से स्थित यह वृक्ष सूर्या देवी की विराट महिमा का बखान करता प्रतीत होता है, वट वृक्षों में विराजित ्रशक्ति के बारे में देवी भागवत में आता है।
’’अश्वत्थवट निम्बाम्रकपित्थ बदरीगते।
पनसार्ककरीरादिक्षीर वृक्षस्वरुपिणी।।
दुग्ध वल्लीनिवासार्हे दयनीये दयाधिके।
दाक्षिण्यकरुणारुपे जय सर्वज्ञवल्ल्भे।।
अर्थात् पीपल, वट, नीम, आम, कैथ, बेर में निवास करने वाली आप कटहल, मदार, करील, जामुन आदि क्षीर वृक्षस्वरुपिणी है, दुग्धवल्ली में निवास करने वाली दयनीय महान दयालु कृपालुता एंव करुणा की साक्षात् मूर्तिस्वरुपा एंव सर्वज्ञजनों की प्रिय स्वरुपिणी आपकी जय हों।
इस प्रकार वट-वक्षों के मध्य निवास करने वाली ्रशक्तियाँ साक्षात् शिवा का ही स्वरुप मानी जाती है, जगदम्बा माता की महाविराट शक्ति के रुप में ही लोग यहाँ माता सूर्या देवी की वंदना करते है, हिमालय भूमि में पूज्यनीय तमाम ्रशक्तिपीठों की भांति ही माता सूर्या देवी पूज्यनीयां व वदनीया है, इस स्थान पर ्रशक्ति का अवतरण कब व किस प्रकार हुआ इसका कोई स्पश्ट उल्लेख नही है, सदियों से लोग यहाँ देवी की पूजा अर्चना बडी श्रद्वा व भक्ति के साथ करते आ रहे है, जानकार लोगों बताते है सूर्या देवी की आराधना श्रावण मास में दही से भाद्रपद मास में ्रशर्करा अश्विन मास में खीर तथा कार्तिक मास में दूध, मार्गशीर्श महीने में फेनी एवं पौश माह में दूधि कूर्चिका माघ में महीने में गाय के द्यी का फाल्गुन के महीने में नारियल चैत्र में भावनाओं के निर्मल मोती, वैशाख, मास में गुडमिश्रित प्रसाद, ज्येश्ठ में ्रशहद, आशाढ में नवनीत व महुए के रस का नवैध माँ सूर्या देवी को अर्पित करना चाहिए।
महामंगल मूर्तिस्वरुपा महेश्वरी महादेवी परमेश्वरी सूर्या देवी को इनके भक्तजन सिद्वीकारिणी व कश्ट निवारिणी देवी के रुप में पूजते है, आस्थावान भक्तजन बताते है, इस दरबार में आकर जिसने सच्चे मन से सूर्या देवी का स्मरण कर लिया वह सदैव वैभवशाली रहता है, कोटि सूर्यो की आभाधारण करने वाली सभी प्रकार की सिद्वियां प्रदान करने वाली देवी सूर्या की महिमा अपरम्पार बतायी जाती है, देवी के उपासक इन्हें सर्वशक्तिस्वरुपा महेश्वर की ्रशाश्वत ्रशक्ति साधकों को सिद्वि देने वाली सिद्विरुपा, सिद्वश्वेरी, ईश्वरी आदि तमाम नामों से पुकारते है। कहा जाता है,अनेकों साधकों ने यहाँ साधन करके अलौकिक सिद्वियां प्राप्त की, इस क्षेत्र की गगनचुम्बी पर्वतमालाएं कल कल करती नदियां पूरे क्षेत्र को नवजीवन प्रदान करती है, लगभग पाँच भक्त एक साथ पेड पर ्रशक्ति स्वरुपा माता सूर्या देवी की पूजा अर्चना कर सकते है, यूं तो असंख्य धनाढय लोग माँ के भक्त है कोई भी यहां पर मंदिर का निर्माण करवा सकता है परन्तु मान्यता है, कि इस स्थान पर माता मन्दिर में नही बल्कि प्रकृति के खुले वातावरण में रहना चाहती है, कहा जाता है कि एक बार किसी भक्त ने यहा पर भव्य मंदिर के निर्माण की बात सोची तो उसी रात्रि स्वप्न में प्रकट होकर माता ने ऐसा करने से कदाचित माना किया कहा तो यहां तक जाता है कि यहां पर भव्य मंदिर के निर्माण की योजना एक बार महायोगी हैडाखान बाबा ने संकल्प पूवर्क बनायी तो माता सूर्या देवी ने बाबा हैडाखान जी को भी इस कार्य को करने से रोक दिया था, सेलजाम के पवित्र नदी के तट पर पर्वत की तटहटी पर स्थित आदि काल से पेड की गोद में विराजमान इस वट वृक्ष का नदी का तेज बहाव भी कुछ नही बिगाड पायी है, लालकुआंॅ विधानसभा क्षेत्र के अन्तर्गत गौलापार नामक गाँव से पूर्व दिशा में लगभग सत्रह किलों मीटर की यात्रा के साथ इस मंदिर तक आसानी से पहुंचा जा सकता है, इसी के समीप काल भैरव जी का मंदिर स्थित है।

देवीधूरा की बग्वाल: जहाँ लोक हित में पत्थरों से अपना लहू बहाते हैं लोग
कहा जाता है कि जब पृथ्वी पर मानव सभ्यता की शुरुआत हुई तो तत्कालीन आदि मानव के हाथ में एकमात्र वास्तु 'पाषाण' यानी पत्थर था, तभी उस युग को पाषाण युग कहा गया। पत्थर से ही आदि मानव ने घिसकर नुकीले औजार बनाये, उदर की आग को बुझाने के लिए जानवर मारे और पत्थरों को ही घिसकर आग जलाई और पका हुआ भोजन खाया, बाद में पत्थर से ही गोल पहिये बनाए और जानवरों पर सवारी गांठकर खुद को ब्रह्मा की बनाई दुनियां का सबसे बुद्धिमान शाहकार साबित किया। आज जहाँ एक ओर अपनी तरक्की से हमेशा असंतुष्ट रहने वाला मानव पृथ्वी से भी ऊँचा उठकर चाँद  व मंगल तक पहुँच गया है, वहीँ दूसरी ओर वही मानव आज भी मानो उसी पाषाण युग में पत्थरों को थामे हुए भी जी रहा है। जातीय व धार्मिक दंगो से कहीं दूर देवत्व की धरती देवभूमि उत्तराखंड के देवीधूरा नामक स्थान पर, वह अपने ही भाइयों पर पत्थर मारता है, पर खुशी उसे उनका लहू बहाने से अधिक उनके पत्थरों से अपना लहू बहने पर होती है। वर्ष में कुछ मिनटों के लिए यहाँ होने वाले पत्थर युद्ध में लोक-लाभ की भावना से लोग अपने थोड़े-थोड़े रक्त का योगदान देते हुए पूरे एक मनुष्य के बराबर रक्त बहाते हैं। लेकिन वर्षों से चली आ रही इस परंपरा ने आज तक किसी की जान नहीं ली है, वरन किसी की जान ही बचाई है। यह मौका है जब सवाल-जबाबों से परे होने वाली आस्था के बिना भी अपनी जड़ों और अतीत को समझने का प्रयास किया जा सकता है।

यूँ उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल में यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है, "नौ नौर्त, दस दशैं, बिस बग्वाल, ये कुमू फुलि भंग्वाल, हिट कुमय्या माल..।" अर्थात शारदीय नवरात्रि व विजयादशमी के बाद भैया दूज को बीस स्थानों पर बग्वाल खेलकर कुमाऊंवासी माल प्रवास में चले जाते थे। लेकिन अब केवल देवीधूरा में ही बग्वाल खेली जाती है। देवीधुरा यानी "देवी के वन" नाम का छोटा सा कश्बा उत्तराखंड के चंपावत ज़िले में कुमाऊं मंडल के तीन जिलों अल्मोडा, नैनीताल और चंपावत की सीमा पर समद्रतल से लगभग 2,400 मीटर (लगभग 6,500 फिट) की ऊंचाई पर लोहाघाट से 45 किमी तथा चम्पावत से 61 किमी की दूरी पर स्थित है । यहाँ ऐतिहासिक, आध्यात्मिक और नैसर्गिक सौंदर्य की त्रिवेणी के रूप में मां बाराही देवी का मंदिर स्थित है, जिसे शक्तिपीठ की मान्यता प्राप्त है। कहा जाता है कि चंद राजाओं ने अपने शासन काल में इस सिद्ध पीठ में चम्पा देवी और महाकाली की स्थापना की थी। महाकाली को महर और फर्त्याल जाति के लोगों द्वारा बारी-बारी से प्रतिवर्ष नियमित रुप से नरबलि दी जाती थी। बताया जाता है कि रुहेलों के आक्रमण के दौरान कत्यूरी राजाओं द्वारा मां बाराही की मूर्ति को घने जंगल के मध्य एक भवन में स्थापित कर दिया गया था। धीरे-धीरे इसके चारों ओर गांव स्थापित हो गये और यह मंदिर लोगों की आस्था का केन्द्र बन गया। इस स्थान का महाभारतकालीन इतिहास भी बताया जाता है, कहते हैं कि यहाँ पहाड़ी के छोर पर खेल-खेल में भीम ने शिलायें फेंकी थी। ग्रेनाइट की इन विशाल शिलाओं में से दो आज भी मन्दिर के निकट मौजूद हैं। इनमें से एक को राम शिला कहा जाता है। जन श्रुति है कि यहां पर पाण्डवों ने जुआ खेला था, दूसरी शिला पर हाथों के भी निशान हैं। निकट ही स्थित भीमताल और हिडिम्बा मंदिर भी इस मान्यता की पुष्टि करते हैं। वैसे अन्य इतिहासकर इस परंपरा को आठवीं-नवीं सदी का तथा कुछ खस जाति से भी सम्बिन्धित मानते हैं । दूसरी ओर पौराणिक कथाओं के अनुसार जब राक्षक्षराज हिरणाक्ष व अधर्मराज पृथ्वी को अपहरण कर पाताल लोक ले गए, तब पृथ्वी की करुण पुकार सुनकर भगवान विष्णु ने बाराह यानी सूकर का रूप धारण कर पृथ्वी को बचाया, और उसे अपनी बांयी ओर धारण किया। तभी से पृथ्वी वैष्णवी बाराही कहलायी गईं ।कहा जाता हैं कि तभी से मां वैष्णवी बाराही आदिकाल से गुफा गह्वरों में भक्तों की मनोकामना पूर्ण करती आ रही हैं। इन्हीं मां बाराही की पवित्र भूमि पर उल्लास, वैभव एवं उमंग से भरपूर सावन के महीने में जब हरीतिमा की सादी ओढ़ प्रकृति स्वयं पर इठलाने लगती हैं, आकाश में मेघ गरजते हैं, दामिनी दमकती है और धरती पर नदियां एवं झरने नव जीवन के संगीत की स्वर लहरियां गुंजा देते हैं, बरसात की फुहारें प्राणिमात्र में नव स्पंदन भर देती हैं तथा खेत और वनों में हरियाली लहलहा उठती है। ऐसे परिवेश में देवीधूरा में प्राचीनकाल से भाई-बहन के पवित्र प्रेम के पर्व रक्षाबंधन से कृष्ण जन्माटष्मी तक आषाड़ी कौतिक (मेला) मनाया जाता है, वर्तमान में इसे बग्वाल मेले के नाम से अधिक प्रसिद्धि प्राप्त है। कौतिक के दौरान श्रावणी पूर्णिमा को ‘पाषाण युद्ध’ का उत्सव मनाया जाता है। एक-दूसरे पर पत्थर बरसाती वीरों की टोलियां,  वीरों की जयकार और वीर रस के गीतों से गूंजता वातावरण, हवा में तैरते पत्थर ही पत्थर और उनकी मार से बचने के लिये हाथों में बांस के फर्रे लिये युद्ध करते वीर। सब चाहते हैं कि उनकी टोली जीते, लेकिन साथ ही जिसका जितना खून बहता है वो उतना ही ख़ुशक़िस्मत भी समझा जाता है. इसका मतलब होता है कि देवी ने उनकी पूजा स्वीकार कर ली। आस-पास के पेड़ों, पहाड़ों औऱ घर की छतों से हजारों लोग सांस रोके पाषाण युद्ध के इस रोमांचकारी दृश्य को देखते हैं। कभी कोई पत्थर की चोट से घायल हो जाता है तो तुरंत उसे पास ही बने स्वास्थ्य शिविर में ले जाया जाता है। युद्धभूमि में खून बहने लगता है, लेकिन यह सिलसिला थमता नहीं। साल-दर-साल चलता रहता है, हर साल हजारों लोग दूर-दूर से इस उत्सव में शामिल होने आते हैं। आस-पास के गांवों में हफ़्तों पहले से इसमें भाग लेने के लिये वीरों और उनके मुखिया का चुनाव शुरू हो जाता है. अपने-अपने पत्थर और बांस की ढालें तैयार कर लोग इसकी बाट जोहने लगते हैं। 
बग्वाल यानी पाषाण युद्ध की यह परंपरा हजारों साल से देवीधूरा में चली आ रही है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यह स्थान गुह्य काली की उपासना का केन्द्र था, सघन व्न में बावन हजार वीर और चौंसठ योगनियों का आतंक था, उन्हें प्रसन्न करने के लिये नरबलि की प्रथा थी। देवीधूरा के आस-पास वालिक, लमगड़िया, चम्याल और गहड़वाल खामों (ग्रामवासियों का समूह, जिनमें महर और फर्त्याल जाति के लोग ही अधिक होते हैं) के लोग रहते थे, इन्हीं खामों में से प्रत्येक वर्ष एक व्यक्ति की बारी-बारी से बलि दी जाती थी। एक बार चम्याल खाम की एक ऐसी वृद्धा के पौत्र की बारी आई, जो अपने वंश में इकलौता था। अपने कुल के इकलौते वंशज को बचाने के लिये वृद्धा ने देवी की आराधना की तो देवी ने वृद्धा से अपने गणों को खुश करने के लिये कहा। वृद्धा को इस संकट से उबारने के लिये चारों खामों के लोगों ने इकट्ठे होकर युक्ति निकाली कि एक मनुष्य की जान देने से बेहतर है कि आपस में पाषाण युद्ध “बग्वाल” लड़ (खेल) कर एक मानव के बराबर रक्त देवी व उसके गणों को चड़ा दिया जाए। इस तरह नर बलि की कुप्रथा भी बंद हो गयी। तभी से बग्वाल का एक निश्चित विधान के साथ लड़ी नहीं वरन खेली जाती है । मेले के पूजन अर्चन के कार्यक्रम यद्यपि आषाड़ी कौतिक के रुप में लगभग एक माह तक चलते हैं लेकिन विशेष रुप से श्रावण माह की शुक्लपक्ष की एकादशी से प्रारम्भ होकर भाद्रपद कृष्ण पक्ष की द्वितीया तक परम्परागत पूजन होता है । श्रावण शुक्ल एकादशी के दिन चारों खामो के लोगों द्वारा सामूहिक पूजा-अर्चना, मंगलाचरण, स्वस्तिवान, सिंहासन-डोला पूजन और सांगी पूजन विशिष्ट प्रक्रिया के साथ किये जाते हैं। इस बीच अठ्वार का पूजन भी होता है, जिसमें सात बकरों और एक भैंसे का बलिदान दिया जाता है।  पूर्णमासी के दिन चारों खामों व सात तोकों के प्रधान आत्मीयता, प्रतिद्वन्द्विता व शौर्य के साथ बाराही देवी के मंदिर में एकत्र होते हैं, जहां पुजारी सामूहिक पूजा करवाते हैं । बग्वाल खेलने वाले बीरों (स्थानीय भाषा में द्योंकों) को घरों से महिलाएँ आरती उतार, आशीर्वचन और तिलक-चंदन लगाकर व हाथ में पत्थर देकर ढोल-नगाड़ों के साथ बग्वाल के लिए भेजती हैं। द्योंके युद्ध से पहले एक महीने तक संयम तथा सदाचार का पालन करते हैं, और सात्विक भोजन करते हैं।पूजा के बाद पाषाण युद्ध में भाग लेने वाले चारों खामों के योद्धाओं की टोलियाँ अपने घरों से परम्परागत वेश-भूषा में सुसज्जित होकर ढोल, नगाड़ो के साथ सिर पर कपड़ा बाँध, हाथों में लट्ठ तथा फूलों से सजे व रिंगाल की बनी हुई छन्तोली कही जाने वाली छतरियों (फर्रों) के साथ धोती-कुर्ता या पायजामा पहन व कपड़े से मुंह ढंक कर अपने-अपने गाँवों से भारी उल्लास के साथ देवी मंदिर के प्रांगण दुर्वाचौड़ मैदान में पहुँचती  हैं, और दो टीमों के रुप में मैदान में बंट जाती हैं। सर्वप्रथम मंदिर की परिक्रमा की जाती है। इसमें बच्चे, बूढ़े, जवान सभी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं । सबका मार्ग पहले से ही निर्धारित होता है । मैदान में पहुचने का स्थान व दिशा हर खाम की अलग होती है । उत्तर की ओर से लमगड़िया, दक्षिण की ओर से चम्याल, पश्चिम की ओर से वालिक और पूर्व की ओर से गहड़वाल खोलीखाण दूर्वाचौड़ मैदान में आते हैं । दोपहर तक चारों खाम देवी के मंदिर के उत्तरी द्वार से प्रवेश करती हुई परिक्रमा करके मंदिर के दक्षिण-पश्चिम द्वार से बाहर निकलते हैं, और देवी के मंदिर और बाजार के बीच के खुले दूर्वाचौड़ मैदान में दो दलों में विभक्त होकर अपना स्थान घेरने लगते हैं । दोपहर में जब मैदान के चारों ओर आस्था का सैलाब उमड़ पड़ता है, तब एक निश्चित समय पर मंदिर के पुजारी बग्वाल प्रारम्भ होने की घोषणा करते हैं। इसके साथ ही खामों के प्रमुखों की अगुवाई में पत्थरों की वर्षा दोनों ओर से प्रारम्भ हो जाती है। ढोल का स्वर ऊँचा होता चला जाता है, छन्तोली से रक्षा करते हुए दूसरे दल पर पत्थर फेंके जाते हैं। धीरे-धीरे बग्वाली एक दूसरे पर प्रहार करते हुए मैदान के बीचों बीच बने ओड़ (सीमा रेखा) तक पहुँचने का प्रयास करते हैं। फर्रों की मजबूत रक्षा दीवार बनायी जाती है। जिसकी आड़ से वे प्रतिद्वन्दी दल पर पत्थरों की वर्षा करते हैं। पुजारी को जब अंत:करण से विश्वास हो जाता है कि एक मानव के रक्त के बराबर खून बह गया होगा तब वह ताँबें के छत्र और चँवर के साथ मैदान में आकर बग्वाल सम्पन्न होने की घोषणा शंखनाद से करते हैं। तब एक दूसरे के प्रति आत्मीयता प्रदर्शित कर आपस में गले मिल, अपने क्षेत्र की समृद्धि की कामना करते हुए द्योंके धीरे-धीरे मैदान से बिदा होते हैं। श्रद्धालुओं में प्रसाद वितरण किया जाता है। इसके बाद भी मंदिर में पूजार्चन चलता रहता है। देवी की पूजा का दायित्व विभिन्न जातियों का होता है। फुलारा कोट के फुलारा जानी के लोग मंदिर में पुष्पों की व्यवस्था करते हैं । मनटांडे और ढोलीगाँव के ब्राह्मण श्रावण की एकादशी के अतिरिक्त सभी पर्वों पर पूजन करवा सकते हैं । भैंसिरगाँव के गहढ़वाल राजपूत बलि के भैंसों पर पहला प्रहार करते हैं। लोक विश्वास है कि क्रम से महर और फर्त्याल जातियों द्वारा चंद शासन तक यहाँ श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नर बलि दी जाती थी। कहा जाता है कि पहले जो बग्वाल आयोजित होती थी उसमें फर्रों का प्रयोग नहीं किया जाता था, परन्तु सन् 1945 के बाद से फर्रे प्रयोग किये जाने लगे। बगवाल में आज भी निशाना बनाकर पत्थर मारना निषेध है । रात्रि में मंदिर में देवी जागरण होता है।
खोलीखांड-दूर्वाचौड़ मैदान के सामने बने मंदिर की ऊपरी मंजिल में तांबे की पेटी में मां बाराही, मां सरस्वती और मां महाकाली की मूर्तियां हैं। ऐसा माना जाता है कि खुली आंखों से इन मूर्तियों को आज तक किसी ने नहीं देखा है। मां बाराही की मूर्ति कैसी और किस धातु की है यह आज भी रहस्य है। कहा जाता है कि मूर्तियों को खुली आंखों से देखने नेत्र की ज्योति चली जाती है। इसलिए मूर्तियों को स्नान कराते समय पुजारी भी आंखों पर काली पट्टी बांधे रहते हैं। इन मूर्तियों की रक्षा का भार लमगड़िया खाम के प्रमुख को सौंपा जाता है, जिनके पूर्वजों ने पूर्व में रोहिलों के हाथ से देवी विग्रह को बचाने में अपूर्व वीरता दिखाई थी। गहढ़वाल प्रमुख श्री गुरु पद से पूजन प्रारम्भ करते है। श्रावणी पूर्णिमा के दूसरे दिन बक्से में रखे देवी विग्रह की डोले के रुप में शोभा यात्रा भी सम्पन्न होती है। भक्तजनों की जय-जयकार के बीच डोला देवी मंदिर के प्रांगण में रखा जाता है। चारों खाम के मुखिया पूजन सम्पन्न करवाते हैं। कई लोग देवी को बकरे के अतिरिक्त अठ्वार-सात बकरे तथा एक भैंस की बलि भी अर्पित करते हैं।
बाबा नीब करौरी का कैंची धाम: जहाँ बाबा करते हैं भक्तों से बातें 
हिमालय की गोद में रचा-बसा देवभूमि उत्तराखण्ड वास्तव में दिव्य देव लोक की अनुभूति कराता है। यहां के कण-कण में देवताओ का वास और पग-पग पर देवालयों की भरमार है, इस कारण एक बार यहां आने वाले सैलानी लौटते हैं तो देवों से दुबारा बुलाने की कामना करते हैं। यहां की शान्त वादियों में घूमने मात्र से सांसारिक मायाजाल में घिरे मानव की सारी कठिनाइयों का निदान हो जाता है। यही कारण है कि पर्यटन प्रदेश कहे जाने वाले उत्तराखण्ड के पर्यटन में बड़ा हिस्सा यहां के तीर्थाटन की दृष्टि से मनोहारी देवालयों में आने वाले सैलानियों की दिनों-दिन बढ़ती संख्या का है। यह राज्य की आर्थिकी को भी बढ़ाने में सबल हैं, यह अलग बात है कि सरकारी उपेक्षा के चलते राज्य में अभी कई सुन्दर स्थान ऐसे है जो सरकार की आंखों से ओझल है, जिस कारण कई पर्यटक स्थलों का अपेक्षित लाभ हासिल नही हो पा रहा है।
देवभूमि के ऐसे ही रमणीय स्थानों में 20वीं सदी के महानतम संतों व दिव्य पुरुषों में शुमार बाबा नीब करौरी महाराज का कैंची धाम है, जहां अकेले हर वर्ष इसके स्थापना दिवस 15 जून को ही लाखों सैलानी जुटते हैं। बाबा की हनुमान जी के प्रति अगाध आस्था थी, और उनके भक्त उनमें भी हनुमान जी की ही छवि देखते हैं, और उन्हें हनुमान का अवतार मानते हैं। बाबा के भक्तों का मानना है कि बाबा उनकी रक्षा करते हैं, और साक्षात दर्शन देकर मनोकामनाऐं पूरी करते हैं । यहां सच्चे दिल से आने वाला भक्त कभी खाली नहीं लौटता। यहां बाबा की मूर्ति देखकर ऐसे लगता है जैसे वह भक्तों से साक्षात बातें कर रहे हों।
कैंची धाम उत्तराखण्ण्ड के विश्व प्रसिद्ध पर्वतीय पर्यटक स्थल नैनीताल से मात्र 18 किमी की दूरी पर अल्मोड़ा-रानीखेत मार्ग पर देश-दुनिया में विरले ही मिलने वाली उत्तरवाहिनी क्षिप्रा नदी के तट पर तकरीबन कैंची के आकार के दोहरे `हेयर पिन बैण्ड´ पर स्थित है। बाबा के कैंची आने की कथा भी बड़ी रोचक है । मंदिर के करीब रहने वाले  पूर्णानंद  तिवाड़ी के अनुसार 1942 में एक रात्रि  ख़ुफ़िया डांठ नाम के निर्जन स्थान पर एक कंबल ओढ़े व्यक्ति ने कथित भूत के डर से भय मुक्त कराया, और 20 वर्ष बाद लौटने की बात कही। वादे के अनुसार 1962 में वह रानीखेत से नैनीताल लौटते समय कैंची में रुके और सड़क किनारे के पैराफिट पर बैठ गए और पूर्णानंद को बुलाया । कहा जाता है कि इससे पूर्व सोमवारी बाबा इस स्थान पर भी धूनी रमाते थे, जबकि उनका मूल स्थान पास ही स्थित काकड़ीघाट में कोसी नदी किनारे था। सोमवारी बाबा के बारे में प्रशिद्ध था कि  एक बार भण्डारे में प्रशाद बनाने के लिए घी खत्म हो गया। इस पर बाबा ने भक्तों से निकटवर्ती  नदी से एक कनस्तर जल मंगवा लिया, जो कढ़ाई में डालते ही घी हो गया। तब तक निकटवर्ती भवाले से घी का कनस्तर आ गया। बाबा ने उसे वापस नदी में उड़ेल दिया। लेकिन यह क्या, वह घी पानी बन नदी में समाहित हो गया। इधर जब नीब करौरी बाबा कैंची से गुजरे तो उन्हें कुछ देवी सिंहरन सी हुई, इस पर उन्होंने 1962 में यहाँ आश्रम की स्थापना की। बाद में 15 जून 1973 को यहां विंध्यवासिनी और ठीक एक साल बाद मां वैष्णों देवी की मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा की गई। 1964 से मन्दिर का स्थापना दिवस समारोह अनवरत 15 जून को मनाया जा रहा है। 
बाबा का जन्म आगरा के निकट फिरोजाबाद जिले के अकबरपुर में जमींदार घराने में मार्गशीर्ष माह की अष्टमी तिथि को हुआ था। उनका वास्तविक नाम लक्ष्मणदास  शर्मा था। इस नाम से उत्तर प्रदेश के जिला फर्रुखाबाद में एक रेलवे स्टेशन है। कहते हैं कि एक बार छापामार दस्ते ने बाबा को टिकट न होने के कारण इस स्थान पर ट्रेन से उतार दिया। लेकिन यह क्या, बाबा के उतरने के बाद ट्रेन लाख प्रयत्नों के बावजूद यहां से चल नहीं सकी। बाद में रेलकर्मियों ने बाबा की महिमा जान उन्हें आदर सहित वापस ट्रेन में बैठाया, जिसके बाद बाबा के `चल´ कहने पर ही ट्रेन चल पड़ी। तभी से इस स्थान पर रेलवे का छोटा स्टेशन बना और इस स्टेशन का नाम लक्ष्मणदास पुरी पड़ा। कहते हैं कि फर्रुखाबाद जिले के नीब करोरी गाँव में ही वह सर्वप्रथम साधू के रूप में दिखाई दिए थे, इसलिए उन्हें नीब करोरी बाबा कहा गया, हालांकि उनके नाम का अपभ्रंश "नीम करोली" नाम भी प्रसिद्द हुआ। बाबा ने ऐसे कई चमत्कार किये, मसलन उनके कैंची धाम में आज भी मौजूद एक उत्तीस के हरे-भरे पेड़ के लिए कहा जाता है कि वह बाबा के जीवन काल में ही सूख गया था, और बाबा के भक्त उस सूखे ठूँठ को  काटना चाहते थे, बाबा ने कहा "इस पर जल चढ़ाव, आरती करा, यह हरा-भरा हो जाएगा", सचमुच ऐसा ही हुआ. एक अन्य किंवदंती के अनुसार नैनीताल के निकट अंजनी मंदिर में बहुत पहले कोई सिद्ध पुरुष आये थे, और उन्होंने कहा था कि एक दिन यहाँ अंजनी का पुत्र आएगा,  1944-45 में बाबा के चरण-पद यहाँ पड़े तो लागों ने सिद्ध पुरुष के बचनों को सत्य माना। इस स्थान को तभी से हनुमानगढ़ी कहा गया, बाद में बाबा ने ही यहाँ अपना पहला आश्रम बनाया,  इसके बाद निकटवर्ती भूमियाधार सहित वृन्दावन, लखनऊ, कानपुर, दिल्ली, बद्रीनाथ, हनुमानचट्टी आदि स्थानों में कुल 22 आश्रम स्थापित किये। कहते हैं कि बाबा जी 9 सितम्बर 1973 को कैंची से आगरा के लिए लौटे थे, जिसके दो दिन बाद ही समय बाद इसी वर्ष अनन्त चतुर्दशी के दिन 11 सितम्बर को वृन्दावन में उन्होंने महाप्रयाण किया ।
सन्त परंपरा की अनूठी मिसाल है कैंची धाम
यूं कैंची के निकटवर्ती मुक्तेश्वर क्षेत्र का पाण्डवकालीन इतिहास रहा है, बाद के दौर में यह स्थान सप्त ऋषियों तिगड़ी बाबा, नान्तिन बाबा, लाहिड़ी बाबा, पायलट बाबा, हैड़ाखान बाबा, सोमवारी गिरि बाबा व नीब करौरी बाबा आदि की तपस्थली रहा। कहते हैं कि कैंचीधाम में पहले सोमवारी बाबा साधना में लीन रहे। कहते हैं कि सोमबारी बाबा के भक्त नींब करौरी बाबा रानीखेत जाते समय यहां ठहरे थी, इसी दौरान प्रेरणा होने पर उन्होंने यहां रात्रि विश्राम की इच्छा जताई, और 1962 में यहां आश्रम की स्थापना की गई। गत दिनों यह मन्दिर अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव प्रचार के दिनों में बराक ओबामा का हनुमान प्रेम उजागर होने के बाद बाबा के भक्तों द्वारा ओबामा की विजय के लिए यहाँ किऐ गऐ अनुष्ठान के कारण भी चर्चा में आया था। 
बाबा ने फिर किया चमत्कार: जूलिया रॉबर्ट्स को हिंदू बना दिया 
Julia Roberts, with Swami Dharmdev at Hari Mandir Ashram in Pataudi on the outskirts of New Delhi, India,where she is shooting her upcoming film "Eat, Pray, Love"जी हाँ, बाबा नीब करौरी महाराज ने फिर कमोबेश एक चमत्कार कर डाला है । गत दिवस हिन्दू धर्म अपनाने के लिए चर्चा में आयी हालीवुड की हॉट अभिनेत्री, हॉलीवुड की सुपर स्‍टार, प्रोड्यूसर और फैशन मॉडल  जूलिया राबर्ट्स ने खुद एक पत्रिका को दिए दिए ताजा इंटरव्‍यू में बताया है कि वह आजकल हिंदू धर्म का पालन कर रही हैं। जूलिया ने इस इंटरव्यू में कहा, ‘नीम करोली बाबा की एक तस्‍वीर देख कर मैं उस शख्‍स के प्रति एकदम मोहित हो गई। मैं कह नहीं सकती कि उनकी कौन सी बात मुझे इतनी अच्‍छी लगी कि मैं उनके सम्‍मोहन में फंस गई।’ 42 साल की जूलिया ने कहा कि हिंदू धर्म में कुछ ऐसा तो है जो मैं इसकी मुरीद हो गई और आजकल इसका पालन भी कर रही हूं। कैथलिक मां और बैप्टिस्‍ट पिता की संतान जूलिया ने दोहराया कि वह पूरे परिवार के साथ मंदिर जाती हैं, मंत्र पढ़ती हैं और प्रार्थना करती हैं। मालूम हो कि बाबा के भक्तो में देश के बड़े राजनयिकों प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, हिमांचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल स्व. राजा भद्री, केन्द्रीय मंत्री जितिन प्रसाद, उत्तराखंड सरकार में सचिव मंजुल कुमार जोशी  से लेकर गुरु रामदास के नाम से प्रसिद्ध हुए हारवर्ड विश्व विद्यालय बोस्टन के डा. रिचार्ड एलपर्ट  (‘बी हियर नाउ’ के लेखक) सहित योगी भगवान दास, संगीतकार जय उत्‍तल, कृष्‍णा दास, लामा सूर्य दास, मानवाधिकारवादी डॉ. लैरी ब्रिलिएंट आदि भी नीब करोली बाबा के परम भक्‍तों में शुमार हैं। एप्‍पल कंपनी के सीईओ स्‍टीव जॉब्‍स भी उनके मुरीद हैं। हालांकि एक ऐसा वृत्तांत भी मिलता है जब बाबा ने एक मृत बालक को बहुत प्रार्थना के बाद भी जिलाने से इनकार कर दिया था। बाबा का तर्क था कि ब्रह्मा की बनाई सृष्टि के बनाए नियमों में बदलाव का हक़ किसी को नहीं है।
पढ़िए स्टीव जोब्स की आत्मकथा के ansh: http://www.jankipul.com/2011/11/blog-post_14.html
(रविवार 22 अगस्त 2010 को राष्ट्रीय सहारा के "सन्डे उमंग" परिशिष्ट में देश के सभी संस्करणों में प्रकाशित आलेख: )

लोक देवताओं की विधान सभा है ब्यानधूरा मंदिर
देवभूमि में स्थापित लोक देवताओं के मंदिर अपने में अद्भुत हैं और तमाम विशेषताएं समेटे हुए हैं। जनपद नैनीताल व चम्पावत की सीमा पर स्थित ब्यानधूरा का ऐड़ी देवता मंदिर भी इन्हीं मंदिरों में शामिल हैं। सड़क से 35 किमी दूर इस मंदिर में लोहे के धनुष-बाण व अन्य अस्त्र-शस्त्र चढ़ाए जाते हैं। ऐड़ी देवता के इस मंदिर को देवताओं की विधानसभा भी माना जाता है, जबकि ऐड़ी को महाभारत के अर्जुन का स्वरूप भी माना जाता है। ब्यानधूरा में मंदिर कितना पुराना है इसकी पुष्टि नहीं हो पाई। लेकिन मंदिर परिसर में धनुषबाणों के अकूत ढेर से अनुमान लगाया जा सकता है कि यह पौराणिक मंदिर है। बताया जाता है कि ऐड़ी नाम के राजा ने ब्यानधूरा में तपस्या कर देवत्व प्राप्त किया। कालान्तर में यह लोक देवताओं के राजा के रूप में पूजे जाने लगे। ऐड़ी धनुष युद्ध विद्या में निपुण थे। उन्हें महाभारत के अर्जुन के अवतार के रूप में माना जाने लगा। इसके साथ ही ब्यानधूरा को देवताओं की विधानसभा माना जाता है। यहां ऐड़ी देवता को लोहे के धनुष-बाण चढ़ाए जाते हैं और अन्य देवताओं को अस्त्र-शस्त्र चढ़ाने की परंपरा भी है। बताया जाता है कि यहां के अस्त्रों के ढेर में सौ मन भारी धनुष भी है। मंदिर के ठीक आगे शुरू गोरखनाथ की धुनी थी है जहां लगातार धुनी चलती है। मंदिर प्रांगण में एक अन्य धुनी भी है जिसमें जागर आयोजित होती है। मंदिर के पुजारी दयाकिशन जोशी के मुताबिक यहां तराई से लेकर पूरे कुमाऊं क्षेत्र के लोग पूजा करने आते हैं। कई लोग मंदिर को गाय दान करते हैं। मकर सक्रांति के अलावा चैत्र नवरात्र, माद्यी पूर्णमासी को यहां भव्य मेला लगता है। मंदिर को शिव के 108 ज्योर्तिलिंगों में से एक की मान्यता प्राप्त है। उन्होंने बताया कि मान्यता होने के बाबत यहां आज तक यातायात की कोई व्यवस्था नहीं हो पाई है।