हाल में आयी एक खबर में कहा गया है 'विश्व बैंक ने भारत को अधिक से अधिक बच्चों को शिक्षा सुविधाएं मुहैया कराने के लिए एक अरब पांच करोड़ डॉलर यानी 5,250 करोड़ रुपये से अधिक के ऋण की मंजूरी दे दी है। यह ऋण सरकार द्वारा चलाए जा रहे सर्व शिक्षा अभियान की सहायता के लिए दिया जाएगा।' यह शिक्षा के क्षेत्र में विश्व बैंक का अब तक का सबसे बड़ा निवेश तो है ही, साथ ही यह कार्यक्रम विश्व में अपनी तरह का सबसे बड़ा कार्यक्रम है।
इसके इतर दूसरी ओर इससे भी बड़ी परन्तु दब गयी खबर यह है कि भारत सरकार देश भर के स्कूलों में परंपरागत आंकिक परीक्षा प्रणाली को ख़त्म करना चाहती है, वरन देश के कई राज्यों की मनाही के बावजूद सी.बी.एस.ई. में इस की जगह 'ग्रेडिंग प्रणाली' लागू कर दी गयी है।
तीसरे कोण पर जाएँ तो अमेरिका भारतीय पेशेवरों से परेशान है. कुछ दशक पहले नौकरी करने अमेरिका गए भारतीय अब वहां नौकरियां देने लगे हैं। अमेरिका की जनसँख्या के महज एक फीसद से कुछ अधिक भारतीयों ने अमेरिका की 'सिलिकोन सिटी' के 15 फीसद से अधिक हिस्सेदारी अपने नाम कर ली है। उसे भारतीय युवाओं की दुनिया की सर्वश्रेष्ठ ऊर्जा तो चाहिए, पर नौकरों के रूप में, नौकरी देने वाले बुद्धिमानों के रूप में नहीं।
आश्चर्य नहीं इस स्थिति के उपचार को अमेरिका ने अपने यहाँ आने भारतीयों के लिए H 1 B व L1 बीजा के शुल्क में इतनी बढ़ोत्तरी कर ली है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की गत दिनों हुई भारत यात्रा में भी यह मुख्य मुद्दा रहा।
अब एक और कोण, 1991 में भारत के रिजर्व बैंक में विदेशी मुद्रा भण्डार इस हद तक कम हो जाने दिया गया कि सरकार दो सप्ताह के आयात के बिल चुकाने में भी सक्षम नहीं थी। यही मौका था जब अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान संकट मोचक का छद्म वेश धारण करके सामने आये । देश आर्थिक संकट से तो जूझ रहा था पर विश्व बैंक और अन्तराष्ट्रीय मुद्राकोष को पता था कि भारत कंगाल नहीं हुआ है, और वह इस स्थिति का फायदा उठा सकते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के सुझाव पर भारतीय रिजर्व बैंक ने अपने भण्डार में रखा हुआ 48 टन सोना गिरवी रखकर विदेशी मुद्रा एकत्र की। उदारवाद के मोहपाश में बंधे तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी सरकार और अन्तराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे थे। यही वह समय था जब सरकार हर सलाह के लिये विश्व बैंक - आईएमएफ की ओर ताक रही थी। हर नीति और भविष्य के विकास की रूपरेखा वाशिंगटन में तैयार होने लगी थी। याद कर लें, वाशिंगटन केवल अमेरिका की राजधानी नहीं है बल्कि यह विश्व बैंक का मुख्यालय भी है।
अब वापस इस तथ्य को साथ लेकर लौटते हैं कि आज "1991 के तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह" भारत के प्रधानमंत्री हैं। उन्होंने देश भर में ग्रेडिंग प्रणाली लागू करने का खाका खींच लिया है, वरन सी.बी.एस.ई. में (निदेशक विनीत जोशी की काफी हद तक अनिच्छा के बावजूद) इसे लागू भी कर दिया है। इसके पीछे कारण प्रचारित किया जा रहा है कि आंकिक परीक्षा प्रणाली में बच्चों पर काफी मानसिक दबाव व तनाव रहता है, जिस कारण हर वर्ष कई बच्चे आत्महत्या तक कर बैठते हैं। (यह नजर अंदाज करते हुए कि "survival of the fittest" का अंग्रेज़ी सिद्धांत भी कहता है कि पीढ़ियों को बेहतर बनाने के लिए कमजोर अंगों का टूटकर गिर जाना ही बेहतर होता है। जो खुद को युवा कहने वाले जीवन की प्रारम्भिक छोटी-मोटी परीक्षाओं से घबराकर श्रृष्टि के सबसे बड़े उपहार "जीवन की डोर" को तोड़ने से गुरेज नहीं करते, उन्हें बचाने के लिए क्या आने वाली मजबूत पीढ़ियों की कुर्बानी दी जानी चाहिए।)
यह भी कहा जाता है कि फ़्रांस के एक अखबार ने चुनाव से पहले ही वर्ष २००० में सिंह के देश का अगला वित्त मंत्री बनाने की भविष्यवाणी कर दी थी....(यानी जिस दल की भी सरकार बनती, 'मनमोहन' नाम के मोहरे को अमेरिका और विश्व बैंक भारत का वित्त मंत्री बना देते)
कोई आश्चर्य नहीं, यहाँ "दो और लो (Give and Take)" के बहुत सामान्य से नियम का ही पालन किया जा रहा है। अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान कर्ज एवं अनुदान दे रहे हैं, इसलिये स्वाभाविक है कि शर्ते भी उन्हीं की चलेंगी। लिहाजा हमारे प्रधानमंत्री जी पर अमेरिका का भारी दबाव है, "तुम्हारी (दुनियां की सबसे बड़ी बौद्धिक शक्ति वाली) युवा ब्रिगेड ने हमारे लोगों के लिए बेरोजगारी की समस्या खड़ी कर दी है, विश्व बेंक के 1.05 अरब डॉलर पकड़ो, और इन्हें यहाँ आने से रोको, भेजो भी तो हमारे इशारों पर काम करने वाले कामगार....हमारी छाती पर मूंग दलने वाले होशियार नहीं...समझे....", और प्रधानमंत्री जी ठीक सोनिया जी के सामने शिर झुकाने की अभ्यस्त मुद्रा में 'यस सर' कहते है, और विश्व बैंक के दबाव में ग्रेडिंग प्रणाली लागू कर रहे हैं।
उनके इस कदम से देश के युवाओं में बचपन से एक दूसरे से आगे बढ़ने की प्रतिद्वंद्विता की भावना और "self motivation" की प्रेरणा दम तोड़ने जा रही है। देश की आने वाली पीढियां पंगु होने जा रही हैं। अब उन्हें कक्षा में प्रथम आने, अधिक प्रतिशतता के अंक लाने और यहाँ तक कि पास होने की भी कोई चिंता नहीं रही। शिक्षकों के हाथ से छड़ी पहले ही छीन चुकी सरकार ने अब अभिभावकों के लिए भी गुंजाइस नहीं छोडी कि वह बच्चों को न पढ़ने, पास न होने या अच्छी परसेंटेज न आने पर डपटें भी।
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