Thursday, January 31, 2013

उत्तराखंड भाजपाः कहां है राष्ट्रीय सोच


भारतीय जनता पार्टी एक राष्ट्रीय और धार्मिक-सांस्कृतिक सोच वाली पार्टी कही जाती है। पूर्ववर्ती जनसंघ की तरह ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से नजदीकी को बिना गुरेज स्वीकारते हुए यह पार्टी धार्मिक व जातीय समरसता की बात करती है। संघ के कार्यक्रमों में इसके नेता, कार्यकर्ता जमीन पर एक पांत में बैठकर माघ के माह में खिचड़ी और बसंत पंचमी को खीर बनाने-खाने से भी गुरेज नहीं करते। यही नहीं वहां मुस्लिमों सहित अन्य धर्मों के लोगों की भी कम ही सही, लेकिन उपस्थिति रहती है, और इसी आधार पर वह विपक्ष के ‘सांप्रदायिक पार्टी’ के आक्षेपों की परवाह किए बगैर देश को राजनीतिक विकल्प देने के मार्ग पर भी नजर आती है। लेकिन यही पार्टी देश को धर्म और सांस्कृतिक सौहार्द की ‘गंगा-जमुनी’ तहजीब की प्रणेता गंगा-यमुना के मायके यानी उत्तराखंड में अपने चरित्र-पथ से बुरी तरह डिगी हुई नजर आती है। 
उत्तराखंड में पार्टी का जातीय व धार्मिक समरसता का स्वरूप शायद ही अपने सही अर्थों में कहीं दिखाई देता है। बल्कि वह यहां समरसता को ‘जातीय व क्षेत्रीय तुष्टीकरण’ में बदलती है और इस मायने में उत्तराखंड कांग्रेस की ‘बी’ टीम से अधिक नजर नहीं आती। शायद यही कारण हो कि उसे राज्य बनाने के बावजूद जनता से कभी अभीष्ट भरोसा नहीं मिल पाया। पार्टी सत्ता में आने पर मुख्यमंत्री और विपक्ष में रहने पर नेता प्रतिपक्ष प्रदेश के एक मंडल-कुमाऊं से बनाती है तो पार्टी का अध्यक्ष दूसरे मंडल गढ़वाल से बनाया जाता है। यही नहीं इसके साथ यह भी होता है कि यदि एक महत्वपूर्ण पद पंडित बिरादरी के नेता को मिलता है तो दूसरे के लिए क्षत्रिय नेता की तलाश की जाती है। ऐसा ही इस बार पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए भी हुआ है। 
उत्तराखंड में गुटीय राजनीति में बंटी भाजपा यहां विधान सभा चुनावों में ‘खंडूड़ी है जरूरी’ का नारा चलाने के बाद कमोबेश खंडूड़ी की ही एक सीट के साथ अवपनी भी लुटिया डुबो बैठी। विपक्ष में बैठने को मजबूर हुई तो समय पर राज्य को नेता प्रतिपक्ष नहीं दे पाई। इस मामले में पार्टी की खूब थुक्का-फजीहत भी हुई। ऐसे ही अब नया प्रदेश अध्यक्ष चुनने की बारी आई तो पार्टी का सर्वानुमति से अध्यक्ष बनाने के दावे के साथ ही राज्य बनने के बाद से ही रही ऐसी परंपरा भी चकनाचूर कर डाली। प्रदेश अध्यक्ष के पद के लिए नेता प्रतिपक्ष के विरोधी मंडल और जाति के ही प्रत्याशी तलाशे जाने लगे। नेता प्रतिपक्ष कुमाऊं के पंडित बिरादरी से आने वाले अजय भट्ट हैं, लिहाजा तय माना गया कि प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी गढ़वाल के ही किसी क्षत्रिय क्षत्रप को दी जाएगी।ऐसे में एक जाति और मंडल विशेष (गढ़वाली क्षत्रिय) के पार्टी नेताओं को ही तरजीह दी जाने लगी। इसमें भी रोचक रहा कि एक जाति विशेष-‘रावत’ के ही पार्टी नेताओं के नाम आगे आने लगे। तीरथ सिंह रावत, ़ित्रवेंद्र सिंह रावत, धन सिंह रावत, मोहन सिंह रावत ‘गांववासी’ के नाम अध्यक्ष पद के लिए खासे चर्चा में रहे। गौरतलब है कि पूर्व में भी बची सिंह रावत पार्टी के अध्यक्ष रहे हैं। बहरहाल, अध्यक्ष पद के चुनावों में नौबत यहां तक आ गई कि तीरथ और त्रिवेंद्र दोनों ने पार्टी अनुशासन की धज्जियां उड़ाते हुए मैदान में एक साथ ताल ठोंक दी। 
हालांकि परदे के आगे चल रहे नेताओं के खेल के पीछे पार्टी के तीन ध्रुवों-कोश्यारी, खंडूड़ी व निशंक गुटों का परदे के पीछे चलता रहा। राजनीतिक बिसात में नित नए पाले और समीकरण बदलने में माहिर पार्टी के इन गुटीय नेताओं ने ऐसी-ऐसी चालें चलीं कि नतीजा किसी के पक्ष में नहीं जा पाया और राज्य बनने के बाद पहली बार ऐसी नौबत आयी कि तय समय पर चुनाव टालना पड़ गया। इस दौरान धुर विरोधी और एक-दूसरे को फूटी आंख न सुहाने वाले खंडूड़ी और निशंक धड़े गलबहियां डाले एक-साथ नजर आने लगे। उठा-पटक की इस जंग में कोश्यारी अकेले रहने के बावजूद केवल इसलिए मजबूत माने गए कि वह नेता प्रतिपक्ष के उलट क्षत्रिय बिरादरी से आते हैं। राजनाथ सिंह के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद तो उनके होंसले अपने पुराने संबंधों और राजनाथ के भी क्षत्रिय नेता होने के नाते बुलंद हो चले। ऐसे में यहां तक चर्चाएं चल पड़ीं कि कोश्यारी ही दुबारा प्रदेश अध्यक्ष बनेंगे। वह पूर्व में भी यह दायित्व संभाल चुके हैं। यदि ऐसा हुआ तो पार्टी के लिए बमुश्किल चुने गऐ नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट को बदलना भी मजबूरी हो जाएगा। ऐसे में स्वयं भट्ट इस कटु सच्चाई को स्वीकार करते हुए पार्टी के आदेश को सिरोधार्य बताकर पार्टी के भरोसेमंद सिपाही का तमगा हासिल में ही भलाई तलाशने लगे हैं। 
गौरतलब है कि पार्टी ऐसे जातीय समीकरणों को आजमाने का दंश यूपी में हुए हालिया विधानसभा चुनावों में भुगत चुकी है। जहां पार्टी ने एनआरएचएम के दागी बसपा मंत्री बाबूराम कुशवाहा और पूर्व में पार्टी छोड़ चुकी उमा भारती की पार्टी में मजबूती से वापसी करवाई, लेकिन चुनाव परिणामों में इस कवायद का कोई लाभ नहीं को नहीं मिल पाया। अब वहां पुराने साथी कल्याण सिंह की भी इसी जातीय वोटों के गुणा-भाग के आधार पर पार्टी में वापसी की गई है, किंतु आगे भी उसे इसका लाभ मिल पाएगा, कहना मुश्किल है। 
बहरहाल, प्रदेश में पार्टी के अगले सिपहसालार पर बना सस्पेंस तो देर-सबेर समाप्त हो जाएगा। लेकिन पार्टी जनों के आपसी कच्चे-धागे जो इस प्रक्रिया में टूटे-उलझे हैं, वह आसानी से और जल्द सुलझ जाएंगे ऐसा कहना आसान नहीं है। अच्छा होता कि पार्टी उत्तराखंड या यूपी में इस तरह जातीय समीकरणों में उलझने से बेहतर अपनी राष्ट्रीय व बड़ी सोच प्रकट करते हुए क्षमताओं युक्त नेताओं को जिम्मेदारियां सोंपती, और अपनी जीत का मार्ग प्रशस्त करती। 

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