Thursday, March 27, 2014

उत्तराखंड में अनूठी है भाई-बहन के प्रेम की 'भिटौली' परंपरा

  • चैत्र माह में निभाई जाती है यह परंपरा, भाई देते हैं बहनों को सौगात
अनेक अनूठी परंपराओं के लिए पहचाने जाने वाले उत्तराखण्ड राज्य में भाई-बहन के प्रेम की एक अनूठी ‘भिटौली’ देने की प्राचीन परंपरा है। पहाड़ में सभी विवाहिता बहनों को जहां हर वर्ष चैत्र मास का इंतजार रहता है, वहीं भाई भी इस माह को याद रखते हैं और अपनी बहनों को ‘भिटौली’ देते हैं। 
घुघुती
'भिटौली' का शाब्दिक अर्थ भेंट देने से हैं। प्राचीन काल से चली आ रही यह परंपरा उस दौर में काफी महत्व रखती थी। इसके जरिए भाई-बहन का मिलन तो होता ही था, इसके जरिए उस संचार के साधन विहीन दौर में अधिकांशतया बहुत दूर होने वाले मायकों की विवाहिताओं की कुशल-क्षेम मिल जाती थी। भाई अपनी बहनों के लिए घर से हलवा-पूड़ी सहित अनेक परंपरागत व्यंजन तथा बहन के लिए वस्त्र एवं उपलब्ध होने पर आभूषण आदि भी लेकर जाता था। बाद के दौर में व्यंजनों के साथ ही गुड़, मिश्री व मिठाई जैसी वस्तुएं भी भिटौली के रूप में दी जाने लगीं। व्यंजनों को विवाहिता द्वारा अपने ससुराल के पूरे गांव में बांटा जाता था। भिटौली का विवाहिताओं को बेसब्री से इंतजार रहता था। भिटौली जल्दी आना बहुत अच्छा माना जाता था, जबकि भिटौली देर से मिली तो भी बहनों की खुशी का पारा-वार न होता था। आज के बदलते दौर में भिटौली की परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों में तो कमोबेश पुराने स्वरूप में ही जारी है, लेकिन शहरी क्षेत्रों में भाइयों द्वारा ले जाए जाने वाले व्यंजनों का स्थान बाजार की मिठाइयों ने ले लिया है। भाई कई बार साथ में बहनों के लिए कपड़े ले जाते हैं, और कई बार इनके स्थान पर कुछ धनराशि देकर भी परंपरा का निर्वहन कर लिया जाता है।

लोकगीतों-दंतकथाओं में भी है भिटौली

भिटौली प्रदेश की लोक संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। इसके साथ कई दंतकथाएं और लोक गीत भी जुड़े हुए हैं। पहाड़ में चैत्र माह में यह लोकगीत काफी प्रचलित है- 
ओहो, रितु ऐगे हेरिफेरि रितु रणमणी, हेरि ऐछ फेरि रितु पलटी ऐछ।
ऊंचा डाना-कानान में कफुवा बासलो, गैला-मैला पातलों मे नेवलि बासलि।।
ओ, तु बासै कफुवा, म्यार मैति का देसा, इजु की नराई लागिया चेली, वासा।
छाजा बैठि धना आंसु वे ढबकाली, नालि-नालि नेतर ढावि आंचल भिजाली।
इजू, दयोराणि-जेठानी का भै आला भिटोई, मैं निरोलि को इजू को आलो भिटोई।।
इस लोकगीत का कहीं-कहीं यह रूप भी प्रचलित है-
रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।
डाली में कफुवा वासो, खेत फुली दैणा।
कावा जो कणाण, आजि रते वयांण।
खुट को तल मेरी आज जो खजांण।
इजु मेरी भाई भेजली भिटौली दीणा।
रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।
वीको बाटो मैं चैंरुलो।
दिन भरी देली मे भै रुंलो।
वैली रात देखछ मै लै स्वीणा।
आगन बटी कुनै ऊँनौछीयो -
कां हुनेली हो मेरी वैणा ?
रितु रैणा, ऐ गे रितु रैणा।
रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।।
भावार्थ :-
रुन झुन करती ऋतु आ गई है, ऋतु आ गई है रुन-झुन करती।
डाल पर 'कफुवा' पक्षी कूजने लगा, खेतों मे सरसों फूलने लगी।
आज तडके ही जब कौआ घर के आगे बोलने लगा।
जब मेरे तलवे खुजलाने लगे, तो मैं समझ गई कि -
माँ अब भाई को मेरे पास भिटौली देने के लिए भेजेगी।
रुन झुन करती ऋतु आ गई है, ऋतु आ गई है रुन-झुन करती।
मैं अपने भाई की राह देखती रहूंगी।
दिन भर दरवाजे मे बैठी उसकी प्रतीक्षा करुँगी।
कल रात मैंने स्वप्न देखा था।
मेरा भाई आंगन से ही यह कहता आ रहा था -
कहाँ होगी मेरी बहिन ?
रुन झुन करती ऋतु आ गई है, ऋतु आ गई है रुन-झुन करती।।

वहीं ‘भै भुखो-मैं सिती’ नाम की दंतकथा भी काफी प्रचलित है। कहा जाता है कि एक बहन अपने भाई के भिटौली लेकर आने के इंतजार में पहले बिना सोए उसका इंतजार करती रही। लेकिन जब देर से भाई पहुंचा, तब तक उसे नींद आ गई और वह गहरी नींद में सो गई। भाई को लगा कि बहन काम के बोझ से थक कर सोई है, उसे जगाकर नींद में खलल न डाला जाए। उसने भिटौली की सामग्री बहन के पास रखी। अगले दिन शनिवार होने की वजह से वह परंपरा के अनुसार बहन के घर रुक नहीं सकता था, और आज की तरह के अन्य आवासीय प्रबंध नहीं थे, उसे रात्रि से पहले अपने गांव भी पहुंचना था, इसलिए उसने बहन को प्रणाम किया और घर लौट आया। बाद में जागने पर बहन को जब पता चला कि भाई भिटौली लेकर आया था। इतनी दूर से आने की वजह से वह भूखा भी होगा। मैं सोई रही और मैंने भाई को भूखे ही लौटा दिया। यह सोच-सोच कर वह इतनी दुखी हुई कि ‘भै भूखो-मैं सिती’ यानी भाई भूखा रहा, और मैं सोती रही, कहते हुए उसने प्राण ही त्याग दिए। कहते हैं कि वह बहन अगले जन्म में वह ‘घुघुती’ नाम की पक्षी बनी और हर वर्ष चैत्र माह में ‘भै भूखो-मैं सिती’ की टोर लगाती सुनाई पड़ती है। पहाड़ में घुघुती पक्षी को विवाहिताओं के लिए मायके की याद दिलाने वाला पक्षी भी माना जाता है। ‘घुर-घुर न घुर घुघुती चैत में, मकें याद उं आपणै मैत की’ जैसे गीत भी काफी लोकप्रिय हैं।

पिथौरागढ में भिटौली पर 'चैतोल' की परंपरा

कुमाऊं के पिथौरागढ़ जनपद क्षेत्र में चैत्र मास में भिटौली के साथ ही चैतोल पर्व मनाए जाने की एक अन्य परंपरा भी है। चैत्र मास के अन्तिम सप्ताह में मनाये जाने वाले इस त्योहार में पिथौरागढ के समीपवर्ती गांव चहर-चौसर से डोला यानी शोभायात्रा भी निकाली जाती है, जो कि निकट के 22 गांवों में घूमती है। चैतोल के डोले को भगवान शिव के देवलसमेत अवतार का प्रतीक बताया जाता है, डोला पैदल ही 22 गांवों में स्थित भगवती देवी के थानों यानी मंदिरों में भिटौली के अवसर पर पहुंचता है। मंदिरों में देवता किसी व्यक्ति के शरीर में अवतरित होकर उपस्थित लोगों व भक्तों को आशीर्वाद देते हैं।

कुमाऊं के एक अन्य लोक पर्व 'फूलदेई' पर बच्चों 'द्वारा  पूजा' के दौरान गाया जाने वाला लोकगीत- 

" फूलदेई, छम्मा देई.…
जतुकै देला, उतुकै सही ।
देंणी द्वार, भर भकार,
सास ब्वारी, एक लकार,
यो देलि सौ नमस्कार ।
फूलदेई, छम्मा देई.…
जतुकै देला, उतुकै सही । "
प्रस्तुति: नवीन जोशी।

1 comment:

  1. यह लेख मेरे जीवन की सोच, आकांक्षा और प्रेरणा को नई ऊचाईयों तक ले जाता है। आपकी लेखनी बहुत ही प्रभावशाली है! मेरा यह लेख भी पढ़े - जुबिन नौटियाल जीवन परिचय

    ReplyDelete