Thursday, July 3, 2014

नैनीताल और नैनी झील के बारे में कुछ तथ्य


सरोवर नगरी नैनीताल को कभी विश्व भर में अंग्रेजों के घर ‘छोटी बिलायत’ के रूप में जाना जाता था, और अब नैनीताल के रूप में भी इस नगर की वैश्विक पहचान है। इसका श्रेय केवल नगर की अतुलनीय, नयनाभिराम, अद्भुत, अलौकिक जैसे शब्दों से भी परे यहां की प्राकृतिक सुन्दरता को दिया जाऐ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। 
नैनीताल की वर्तमान रूप में खोज करने का श्रेय अंग्रेज व्यवसायी पीटर बैरन को जाता है, कहते हैं कि उनका शाहजहांपुर के रोजा नाम के स्थान में शराब का कारखाना था। कहा जाता है कि उन्होंने 18 नवम्बर 1841 को नगर की खोज की थी। बैरन के हवाले से सर्वप्रथम 1842 में आगरा अखबार में इस नगर के बारे में समाचार छपा, जिसके बाद 1850 तक यह नगर ‘छोटी बिलायत’ के रूप में देश-दुनियां में प्रसिद्ध हो गया। कुमाऊं विश्वविद्यालय के विज्ञान संकाय एवं भूविज्ञान विभाग के अध्यक्ष भूगर्भ वेत्ता प्रो.सीसी पंत के अनुसार बैरन ने ईस्ट इंडिया कंपनी के लोगों को दिखाने के लिये लंदन की पत्रिका National Geographic में भी नैनीताल नगर के बारे में लेख छापा था। 1843 में ही नैनीताल जिमखाना की स्थापना के साथ यहाँ खेलों की शुरुआत हो गयी थी, जिससे पर्यटन को भी बढ़ावा मिलने लगा। 1844 में नगर में पहले ‘सेंट जोन्स इन विल्डरनेस’ चर्च की स्थापना हुई। 1847 में यहां पुलिस व्यवस्था शुरू हुई। 1862 में यह नगर तत्कालीन नोर्थ प्रोविंस (उत्तर प्रान्त) की ग्रीष्मकालीन राजधानी व साथ ही लार्ड साहब का मुख्यालय बना साथ ही 1896 में सेना की उत्तरी कमांड का एवं 1906 से 1926 तक पश्चिमी कमांड का मुख्यालय रहा। 1872 में नैनीताल सेटलमेंट किया गया। 1880 में नगर का ड्रेनेज सिस्टम बनाया गया। 1881 में यहाँ ग्रामीणों को बेहतर शिक्षा के लिए डिस्ट्रिक्ट बोर्ड व 1892 में रेगुलर इलेक्टेड बोर्ड बनाए गए। 1892 में ही विद्युत् चालित स्वचालित पम्पों की मदद से यहाँ पेयजल आपूर्ति होने लगी। 1889 में 300 रुपये प्रतिमाह के डोनेशन से नगर में पहला भारतीय कॉल्विन क्लब राजा बलरामपुर ने शुरू किया। कुमाऊँ में कुली बेगार आन्दोलनों के दिनों में 1921 में इसे पुलिस मुख्यालय भी बनाया गया। वर्तमान में यह  कुमाऊँ मंडल का मुख्यालय है, साथ ही यहीं उत्तराखंड राज्य का उच्च न्यायालय भी है। यह भी एक रोचक तथ्य है कि अपनी स्थापना के समय सरकारी दस्तावेजों में 1842 से 1864 तक यह नगर नइनीटाल (Nynee tal) 1865 से 1890 तक नायनीटाल व 1891 से नैनीटाल लिखा गया। 2001 की भारतीय जनगणना के अनुसार नैनीताल की जनसंख्या 38,559 थी। जिसमें पुरुषों और महिलाओं की जनसंख्या क्रमशः 46 व 54 प्रतिशत और औसत साक्षरता दर 81 प्रतिशत थी, जो राष्ट्रीय औसत  59.5 प्रतिशत से अधिक है। इसमें भी पुरुष साक्षरता दर 86 प्रतिशत और महिला साक्षरता 76 प्रतिशत थी। 2011 की जनगणना के अनुसार नैनीताल की जनसंख्या 41,416 हो गई है। पूरा पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें। 

Monday, May 26, 2014

अब मोदी की बारी है......

बंबई प्रांत के मेहसाणा जिले के बड़नगर कसबे में एक बेहद साधारण परिवार में जन्मे नरेंद्र भाई मोदी ने आखिर देश के 15वें और पूर्ण बहुमत के साथ पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण कर ली है।  उनके बारे में कहा जाता है कि वह किसी जमाने में अपने बड़े भाई के साथ चाय की दुकान चलाते थे, और अब अपने प्रांत गुजरात में जीत की हैट-ट्रिक जमाने और रिकार्ड चौथी बार कार्यभार संभालने के बाद उन्हें भाजपा की ओर से पार्टी के भीष्म पितामह कहे जाने वाले लाल कृष्ण आडवाणी पर तरजीह देकर प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया गया, और अब पूरे देश की जनता ने चुनाव पूर्व व बाद के अनेकों सर्वेक्षणों को झुठलाते हुए प्रचंड बहुमत के साथ अविश्वसनीय जीत दिला कर उन्हें स्वीकार करते हुए अपना काम कर दिया है, और अब उमींदों को पूरा करने की मोदी की बारी है। मोदी ने अपनी जीत के बाद पहले ट्वीट में 'INDIA HAS WON' कहकर और संसद को दंडवत प्रणाम कर अपना सफर शुरू करते हुए  इसकी उम्मींद भी जगा दी है। ऐसे में उनकी ताजपोशी  के साथ उनका भविष्य में देश को 'विश्व का अग्रणी देश बनाने का दावा' भी विश्वसनीय लगने लगा है।

पूर्व आलेख :
राजनीति में वही बेहतर राजनीतिज्ञ कहलाता है जो भविष्यदृष्टा होता है, यानी मौजूदा वक्त की नब्ज से ही भविष्य की इबारत लिख जाता है। भाजपा के सबसे  वरिष्ठ नेता आडवाणी के संदर्भ में बात करें तो ‘अटल युग’ में ‘मोदी’ नजर आने वाले आडवाणी देश के उप प्रधानमंत्री पद पर ही ठिठक जाने के बाद ‘अटल’ बनने की कोशिश में जिन्ना की मजार पर चादर चढ़ाने जा पहुंचे थे। इसका लाभ जितना हो सकता था वह यही है कि वह कथित धर्म निरपेक्ष दलों द्वारा प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी से बेहतर दावेदार कहे जाने के भुलावे में थे। उनके साथ आम यथास्थितिवादी और कांग्रेस-भाजपा को एक-दूसरे की ए या बी टीम कहने वालों में यह विश्वास भी था कि देश की व्यवस्था जैसी है, थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ यथावत चलती रहेगी।

आडवाणी के इसी नफे-नुकसान के बीच से मोदी पैदा हुए। उनके आने से इस व्यवस्था से विश्वास खो चुकी जनता में नया विश्वास पैदा हुआ कि वही हैं जो मौजूदा (कांग्रेस-भाजपा की) व्यवस्था को तोड़कर और यहां तक कि भाजपा से भी बाहर निकलकर, और कहीं, राष्ट्रपिता गांधी के देश की आजादी के बाद कांग्रेस को भंग करने के साथ ही दिए गए वक्तव्य ‘इस देश को कोई उदारवादी तानाशाह ही चला सकता है’ की परिकल्पना को भी साकार करते नजर आते हैं। इसी कारण प्रधानमंत्री पद पर देशवासियों ने अन्य उम्मींदवारों अरविन्द केजरीवाल और राहुल गांधी को कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी।

राष्ट्रीय राजनीति में अपना कमोबेश पहला कदम बढ़ाते हुए मोदी ने दिल्ली के श्रीराम कॉलेज ऑफ कामर्स में छात्रों के समक्ष विकास की राजनीति को देश के भविष्य की राजनीति करार देते हुए अपने ‘वाइब्रेंट गुजरात’ का मॉडल पेश कर अपने 'मिशन 272+' की शुरुवात की। वह संभवतया पहले नेता होंगे, जो युवकों से अपनी पार्टी की विचारधारा से जुड़ने का आह्वान करने के बजाय उनसे वोट बैंक व जाति तथा धर्मगत राजनीति छोड़ने की बात कहते हैं, और साथ ही उन्हें आर्थिक गतिशीलता का विकल्प भी दिखाते हैं। मजेदार बात यह भी है कि उनका विकास का मॉडल कमोबेस देश की मौजूदा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का वही मॉडल है, जिसकी खूब आलोचना हो रही है, लेकिन वह विकास की इस दौड़ में सबको शामिल करने का संभव तरीका सुझाते हुए विश्वास जगाते हैं कि कैसे मुट्ठी भर लोगों की जगह सबको नीचे तक लाभ दिया जा सकता है। ऐसा वह हवा-हवाई भी नहीं कह रहे, इसके लिए वह अपने गुजरात और भारत देश के विकास का तुलनात्मक विवरण भी पेश करते हैं। वह स्वयं सांप्रदायिक नेता कहलाए जाने के बावजूद अपने राज्य में हर जाति-वर्ग का वोट हासिल कर ऐसा साबित कर चुके हैं। उन्होंने अपने राज्य में चलने वाली ‘खाम’ यानी क्षत्रिय, आदिवासी और मुसलमानों के गठबंधन की परंपरागत राजनीति के चक्रव्यूह को तोड़ा है। यह सब जिक्र करते हुए वह सफल प्रशासक के रूप में अपनी विकास, प्रबंधन व राजनीति की साझा समझ से प्रभावित करते हुए छात्रों-युवाओं की खूब तालियां बटोरते हैं।

क्या फर्क है गुजरात और भारत में। गुजरात में किसी का तुष्टीकरण नहीं होता, इसलिए वहां ‘सांप्रदायिक’ सरकार है। देश में एक धर्म विशेष के लोगों की लगातार उपेक्षा होती है। वहां सत्तारूढ़ पार्टी अपना हर कदम मात्र एक धर्म विशेष के लोगों के तुष्टीकरण के लिए उठाती है, बावजूद वह ‘धर्मनिरपेक्ष’ है। गुजरात में गोधरा कांड हुआ, इसलिए वहां का नेता अछूत है, हम उसे स्वीकार नहीं कर सकते। लेकिन देश के नेता की नीतियों से कृषि प्रधान देश के सैकड़ों किसानों ने आत्महत्या कर ली, हजारों युवा बेरोजगारी के कारण मौत को गले लगा रहे हैं। बेटियों-बहनों से बलात्कार रुक नहीं पा रहे हैं। महंगाई दो जून की रोटी के लिए मोहताज कर रही है। भ्रष्टाचार जीने नहीं दे रहा। कैग भ्रष्टाचार के आंकड़े पेश करते थक गया है, इतनी बड़ी संख्याएं हैं कि गिनती की सीमा-नील, पद्म, शंख तक पहुंच गई हैं। और अब तो केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन भी चालू वित्त वर्ष में देश की आर्थिक वृद्धि दर के विनिर्माण, कृषि एवं सेवा क्षेत्र के खराब प्रदर्शन के चलते एक दशक में सर्वाधिक घटकर पांच प्रतिशत पर आने का अनुमान लगा रहा है। बावजूद यह विकास की पक्षधर सरकार है, जिसके अगुवा देश के सर्वश्रेष्ठ अर्थशास्त्री हैं। वह न होते तो पता नहीं कैसे हालात होते। शायद इसीलिए आगे हम उनके राजकुमार में ही अपना अगला प्रधानमंत्री देख रहे हैं। हमें सड़क से, गांव से निकला व्यक्ति अपना नेता नहीं लग सकता। शायद हमारी मानसिकता ही ऐसी हो गई है, या कि ऐसी बना दी गई है।

विरोध से भी मजबूत होते जाने की कला 

उल्लेखनीय है की संसदीय चुनावों से पहले देश में विरोधियों के अनेक स्तरों पर यह बहस चल रही थी कि आखिर मोदी ही क्यों बेहतर हैं। लेकिन विपक्ष को वह कत्तई मंजूर नहीं थे। हर विपक्षी पार्टी उन्हें रोकने की जुगत में लगी थी, और दावा कर रही थी की वही मोदी को रोक सकती है। उनका मानना है मोदी देश के प्रधानमंत्री नहीं हो सकते। कतई नहीं हो सकते। क्यों ? इस प्रश्न का उत्तर उनके धुर विरोधियों के पास ‘गोधरा’ के अलावा कोई दूसरा नहीं है। विपक्षी कांग्रेस सहित उनके एनडीए गठबंधन की अन्य पार्टियों के साथ ही मीडिया को भी वह खास पसंद नहीं आते। जब भी उनका नाम उनके कार्यो के साथ आगे आता है, या कि भाजपा उन्हें अपना प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताती है, तो विपक्षी दलों के साथ ही दिल्ली में बैठी मीडिया को गुजरात का ‘2002 का गोधरा’ याद आ जाता है, लेकिन कभी दिल्ली में बैठकर भी ‘1984 की दिल्ली’ याद नहीं आती, हालिया दिनों का मुजफ्फरनगर भी भुलाने की कोशिश की जाती है। दिल्ली के श्रीराम कॉलेज के गेट के बाहर भी दिल्ली के छात्र गुटों को गुजरात के दंगों के कथित आरोपी का आना गंवारा नहीं, लेकिन उन्हें दिल्ली के दंगों की याद नहीं है। फिर भी वह कहते हैं, उनका विरोध प्रायोजित नहीं है।
हालिया गुजरात विधान सभा चुनावों के दौरान विपक्षी कांग्रेस पार्टी को गुजरात में कुपोषित बच्चे व समस्याग्रस्त किसान फोटो खिंचवाने के लिए भी नहीं मिलते। लिहाजा मुंबई के कुपोषण से ग्रस्त बच्चों और राजस्थान के किसानों की फोटो मीडिया में छपवाई जाती हैं, वह विपक्षी पार्टी के प्रायोजित विज्ञापन हैं, ऐसा छापने से हमें कोई रोक नहीं सकता। पर हम जो लिखते हैं, दिखाते हैं, क्या वह भी प्रायोजित है। नहीं, तो हम एकतरफा क्यों दिखाते हैं। क्यों विपक्ष की भाषा ही बोलते हुए हमारी सुई बार-बार ‘गोधरा’ में अटक जाती है। हम गुजरात चुनाव के दौरान ही गुजरात के गांव-गांव में घूमते हैं। वहां के गांव देश के किसी बड़े शहर से भी अधिक व्यवस्थित और साफ-सुथरे हैं। हम खुद टीवी पर अपने गांवों-शहरों के भी ऐसा ही होने की कल्पना करते हैं। गुजरात में क्या हमें आज कहीं ‘गोधरा’ नजर आता है, या कि गुजरात तुष्टीकरण की राजनीति के इतर सभी गुजरातियों को एक इकाई के रूप में साथ लेकर प्रगति कर रहा है। गुजरात ने जो प्रगति की है, वह किसी दूसरे देश से आए लोगों ने आकर या किसी दूसरे देश के कानूनों, व्यवस्थाओं के जरिए नहीं की है, उन्हें एक अच्छा मार्गदर्शक नेता मिला है, जिसकी प्रेरणा से आज वह ऐसे गुजरात बने हैं, जैसा देश बन जाए तो फिर ‘विश्वगुरु’ क्या है, देश का गौरवशाली अतीत क्या है, हम निस्सदेह विकास की नई इबारत लिख सकते हैं।
तो यह डर किसका है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम मोदी के जादू से डरे हुए हैं, वह एक बार सत्तासीन हो जाते हैं तो जीत की हैट-ट्रिक जमा देते हैं, लोगों के दिलों पर छा जाते हैं। कहीं दिल्ली पर भी सत्तासीन हो गए तो फिर उन्हें उतारना मुश्किल हो जाएगा। हमारी बारी ही नहीं आएगी। यह डर उस विकास का तो नहीं है, जो मोदी ने गुजरात में कर डाला है, कि यदि यही उन्होंने देश में कर दिया तो बाकी दलों की गुजरात की तरह ही दुकानें बंद हो जाएंगी। या यह डर उस ‘सांप्रदायिकता’ का है, जिससे गुजरात एक इकाई बन गया है। या उस स्वराज और सुराज का तो नहीं है, जिससे गुजरात के गांव चमन बन गए हैं। उस कर्तव्यशीलता का तो नहीं है, जिससे गुजरात के किसान रेगिस्तान में भी फसलें लहलहा रहे हैं, गुजरात के युवा फैक्टरियों में विकास की नई इबारत लिख रहे हैं। गुजरात बिजली, पानी से नहा रहा है। 
या यह डर मोदी के उस साहस से है, जिसके बल पर मोदी चुनाव परिणाम आने के तत्काल बाद अपनी जीत के अंतर को कम करने वाले अपने धुर विरोधी हो चुके राजनीतिक गुरु केशुभाई से आशीर्वाद लेने उनके घर जाते हैं। प्रधानमंत्री पद पर नाम  घोषित किये  जाने के बाद सबसे पहले नाराजगी जताने वाले लाल कृष्ण आडवाणी के घर की ही राह पकड़ते हैं। उन्हें अपना सबसे प्रबल विरोध कर रहे आडवाणी के सार्वजनिक मंच पर पांव छूने से भी कोई हिचक नहीं है। उनके पास ‘ऐसा या वैसा होना चाहिए’ कहते हुए शब्दों की लफ्फाजी से भाषण निपटाने की मजबूरी की बजाए अपने किए कार्य बताने के लिए हैं। वह अपने किये कार्यों पर घंटों बोल सकते हैं, उनके समक्ष अपने ‘गौरवमयी इतिहास’ शब्द के पीछे अपनी वर्तमान की विफलताऐं छुपाने की मजबूरी कभी नहीं होती। वह पानी से आधा भरे और आधे खाली गिलास को आधा पानी और आधा हवा से भरे होने की दृष्टि रखते हैं, और देश की जनता और खासकर युवाओं को दिखाते हैं। ऐसी दृष्टि उन्होंने ‘सत्ता के पालने’ में झूलते हुए नहीं अपने बालों को अनुभव से पकाते हुए प्राप्त की है। बावजूद उनमें युवाओं से कहीं ओजस्वी जोश है, उन्हें देश वासियों को भविष्य के सपने दिखाने के लिए किसी दूसरी दुनिया के उदाहरणों की जरूरत नहीं पड़ती। वह पड़ोसी देश पाकिस्तान सहित पूरे विश्व को ललकारने की क्षमता रखते हैं। वह अपने घर का उदाहरण पेश करने वाले अपनी ही गुजरात की धरती के महात्मा गांधी व सरदार पटेल जैसे देश के गिने-चुने नेताओं में शुमार हैं, जो केवल सपने नहीं दिखाते, उन्हें पूरा करने का हुनर भी सिखाते हैं। इसके लिए उन्हें कहीं बाहर से कोई शक्ति या जादू का डंडा लाने की जरूरत भी नहीं होती, वरन वह देश के युवाओं व आमजन में मौजूद ऐसी शक्ति को जगाने का ‘जामवंत’ सा हुनर रखते हैं, और स्वयं अपनी शक्तियों को जगाकर ‘हनुमान’ भी हो जाते हैं। उन्हें भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता, नाकारापन के साथ भूख, महंगाई, बलात्कार, लूट, चोरी, डकैती जैसी अनेकों समस्याओं से घिरे देश के एक छोटे से प्रांत में इन्हीं कमजोरियों से ग्रस्त जनता, राजनेताओं और नौकरशाहों से ही काम निकालते हुऐ विकास का रास्ता निकालना आता है, जिसके बल पर वह गुजरात के रेगिस्तान में भी दुनिया के लिए फसलें लहलहा देते हैं। वह मौजूदा शक्तियों, कानूनों से ही आगे बढ़ने का माद्दा रखते हैं, और मौजूदा कानूनों से ही देश को आगे बढ़ाने का विश्वास जगाते हैं। वह नजरिया बदलने का हुनर रखते हैं, नजरिया बदलना सिखाते हैं, विकास से जुड़ी राजनीति के हिमायती हैं। एक कर्मयोगी की भांति अपने प्रदेश को आगे बढ़ा रहे हैं, और अनेक सर्वेक्षणों में देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में सर्वाधिक पसंदीदा राजनेता के रूप में उभर रहे हैं। 

लिहाजा, उनका विरोध होना स्वाभाविक ही है। सरहद के पार भी देश के अगले प्रधानमंत्री के रूप में नाम आने पर सर्वाधिक चिंता उन्हीं के नाम पर होनी तय है, और ऐसा ही देश के भीतर भी हो सकता है। लेकिन जनता दल-यूनाइटेड सरीखे दलों को समझना होगा कि अपना कद छोटा लगने की आशंका में आप दूसरों के बड़े होते जाने को अस्वीकार नहीं कर सकते। वरन राजनीतिक तौर पर भी यही लाभप्रद होगा कि आप बड़े पेड़ के नीचे शरण ले लें, इससे उस बड़े पेड़ की सेहत को तो खास फर्क नहीं पड़ेगा, अलबत्ता आप जरूर आंधी-पानी जैसी मुसीबतों से सुरक्षित हो जाएंगे। आप जोश के साथ बहती नदी पर चाहे जितने बांध बनाकर उसे रोक लें, लेकिन उसे अपना हुनर मालूम है, वह बिजली बन जाएगा, रोके जाने के बाद भी अपना रास्ता निकालते हुए सूखी धरती को भी हरीतिमा देता आगे बढ़ता जाएगा। नरेंद्र भाई मोदी भी ऐसी ही उम्मीद जगाते हैं। उनमें पहाड़ी नदी जैसा ही जोश नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। 

मोदी के मंत्र:

  • तरक्की के लिए कार्यकुशलता, तेजी व व्यापक नजरिया जरूरी।
  • उत्पाद की गुणवत्ता और पैकेजिंग जरूरी। हमें उत्पादन बड़ाना है और ‘मेड इन इंडिया’ टैग को हमें क्वालिटी का पर्याय बनाना है।
  • युवा जाति-धर्मगत व वोट बैंक की राजनीति से बाहर निकलें। तरक्की का रास्ता पकड़ें। 
  • 21वीं सदी भारत की। भारत अब सपेरों का नहीं ‘माउस’ से दुनिया जीतने वाले युवाओं का देश है। 
  • विकास से ही देश में आएगा विराट परिवर्तन, विकास ही है सभी समस्याओं का समाधान।
  • 60 साल पहले स्वराज पाया था, अब सुराज (गुड गर्वनेंस) की जरूरत।
  • आशावादी बनें, न कहें आधा गिलास भरा व आधा खाली है, कहें आधा गिलास पानी और आधा हवा से भरा है।

मोदी का गुजरात मॉडलः

  • गुजरात ने पशुओं की 120 बीमारियां खत्म की, जिससे दूध उत्पादन 80 फीसदी बढ़ा। गुजरात का दूध दिल्ली से लेकर सिंगापुर तक जाता है। 
  • गुजरात में एक माह का कृषि महोत्सव होता है। यहां की भिंडी यूरोप और टमाटर अफगानिस्तान के बाजार में भी छाये रहते हैं। 
  • गुजरात में 24 घंटे बिजली आती है। नैनो देश भर में घूमकर गुजरात पहुंच गई। गुजरात में बने कोच ही दिल्ली की मैट्रो में जुड़े हैं। 
  • गुजराती सबसे बढ़िया पर्यटक हैं। वह पांच सितारा होटलों से लेकर हर जगह मिलते है।
  • गुजरात दुनिया का पहला राज्य है जहां फोरेंसिक साइंस यूनिवर्सिटी है। फोरेंसिक साइंस आज अपराध नियंत्रण की पहली जरूरत है। 
  • गुजरात में देश की पहली सशस्त्र बलों की यूनिवर्सिटी है। गुजरात के पास तकनीक की जानकार सबसे युवा पुलिस-शक्ति है।
  • पूरा देश गुजरात में बना नमक इस्तेमाल करता है।

भारत के 15वें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का देश के नागरिकों के लिए अपनी आधिकारिक वेबसाइट http://www.pmindia.nic.in/ पर सबसे पहला संदेश...

भारत और पूरे विश्व के प्रिय नागरिको, नमस्ते

भारत के प्रधानमंत्री की आधिकारिक वेबसाइट पर आपका स्वागत है।

16 मई 2014 को भारत के लोगों ने जनादेश दिया। उन्होंने विकास, अच्छे प्रशासन और स्थिरता के लिए जनादेश दिया। अब, जबकि हम भारत की विकास यात्रा को एक नई ऊंचाई पर ले जाने में जुट जाने वाले हैं, हम आपका साथ, आशीर्वाद और सक्रिय भागीदारी चाहते हैं। हम सब मिलकर भारत के शानदार भविष्य की रूपरेखा लिखेंगे। आइए, मिलकर एक मजबूत, विकसित, सभी को सम्मिलित भारत का सपना देखें। एक ऐसे भारत का सपना, जो पूरी दुनिया के शांति और विकास के सपने में सक्रिय भागीदारी निभाएगा।
मैं इस वेबसाइट को भारत हमारे बीच संवाद एक महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में देखता हूं। पूरी दुनिया के लोगों से संवाद के लिए तकनीक और सोशल मीडिया की ताकत में में मेरा दृढ़ विश्वास है। मैं उम्मीद करता हूं कि यह माध्यम सुनने, सीखने और एक-दूसरे के विचार बांटने के मौके पैदा करेगा।

इस वेबसाइट के जरिए आपको मेरे भाषणों, कार्यक्रमों, विदेश यात्राओं और बहुत सी अन्य बातों की ताजा जानकारी मिलती रहेगी। मैं आपको यह भी बताता रहूंगा कि भारत सरकार किस तरह की पहलें कर रही है।

आपका
नरेंद्र मोदी

Thursday, May 15, 2014

बाखलीः पहाड़ की परंपरागत हाउसिंग कालोनी


एक बाखली में 100 परिवार तक रहते हैं, भीतर-भीतर ही रेल के डिब्बों की तरह एक से दूसरे घर में जाने का प्रबंध भी रहता है। 
नवीन जोशी, नैनीताल। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, और वह समाज में एक साथ मिलकर रना पसंद करता है। आज के एकाकी व एकल परिवार के दौर में भी मनुष्य समाज के साथ एक तरह की सुविधाओं युक्त कालोनियों में रहना पसंद करता है। बीते दौर में भी मानव की यही प्रवृत्ति रही थी। खासकर उत्तराखंड के गांवों में घरों की लंबी श्रृंखला होती थी, जिसे बाखली (बाखई) कहा जाता है। पहाड़ में अनेक गांवों में ऐसी बाखली हैं, जिनमें सैकड़ों परिवार एक साथ रहा करते थे। आज के बदलते दौर में भी कई गांवों में ऐसी बाखली मौजूद हैं, जो सामाजिकता का संदेश देती हैं। इन्हें पहाड़ की परंपरागत हाउसिंग कालोनियां भी कहा जा सकता है।
नैनीताल जनपद के मौना क्षेत्र में शिमायल के पास कुमाटी नाम का एक गांव है, जहां स्थित बाखली में करीब 80 मवासे (परिवार) एक साथ रहते हैं। बाखली पहाड़ के घरों की एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें पहाड़ के परंपरागत पत्थर व मिट्टी के गारे से बने तथा चपटे पत्थरों (पाथरों) से छाये गए दर्जनों घर आपस में रेल के डिब्बों की तर बाहर ही नहीं भीतर से भी जुड़े रहते हैं, और इनमें घरों के बाहर आए बिना भी रेल के डिब्बों की तरह भीतर-भीतर ही एक से दूसरे घर में जाया जा सकता है। सामान्यतया घरों में बनने वाले व्यंजनों का आदान-प्रदान, एक-दूसरे के घरों में दुःख-तकलीफ तथा कामकाज में सहयोग और खासकर गांवों में रात्रि में बाघ आदि जंगली जानवरों के आने की स्थिति में घरों के भीतर-भीतर ही आने-जाने की यह व्यवस्था खासी कारगर साबित होती रही है। इससे गांव के लोगों में आपसी संबंध भी काफी मधुर रहते हैं, क्योंकि लोग एक-
दूसरे से अधिक गहराई तक जुड़े रहते हैं। इन घरों में जहां दरवाजे व खिड़कियों (द्वार-म्वाव) पर लकड़ी की नक्काशी पहाड़ की समृद्ध काष्ठ कला के दर्शन कराती है, वहीं निचली मंजिल में पशुओं के लिए गोठ, ऊपरी मंजिल में बाहरी कमरा-चाख (जहां चाख यानी अनाज पीसने के लिए हाथ से चलाई जाने वाली चक्की भी होती है), पीछे की ओर रसोई, बाहर की ओर पंछियों के लिए घोंसले, छत में पाथरों के बीच से धुंवे के बाहर निकलने और रोशनी के भीतर आने के प्रबंध तथा आंगन (पटांगण) में बैठने के लिए चौकोर पत्थरों (पटाल) के बीच धान कूटने की ओखली (ऊखल) आदि के प्रबंध भी होते थे। लाल मिट्टी व गोबर से लीपे इन घरों में पहाड़ की समृद्ध परंपरागत चित्रकारी-ऐपण भी देखने लायक होती हैं। बदलते दौर में जहां 1970 के दशक में आए वनाधिकारों के बाद गांवों में पत्थर, लकड़ी आदि वन सामग्री न मिलने की वजह से सीमेंट-कंक्रीट से घर बनने लगे, और पुराने घर भी उनमें रहने वाले लोगों के पलायन की वजह से खाली छूटने के कारण खंडहर में तब्दील होने लगे हैं। इसके बावजूद कुमाटी जैसे अनेक गांव हैं, जहां के ग्रामीणों ने आज भी अपनी विरासत को सहेज कर रखा हुआ है।

Sunday, April 27, 2014

वार्निश पीकर चलती हैं नैनीताल की नौकाएं

-कई मायनों में अनूठी हैं नैनीताल की चप्पूदार नौकाएं
नवीन जोशी, नैनीताल। नैनीताल में बेतर आशाओं-उम्मीदों के साथ ग्रीष्मकालीन पर्यटन सीजन की शुरुआत होने जा रही है। ऐसे में नौका मालिक जोरों से सीजन की तैयारियों में जुटे हुए हैं। अपने आकार-प्रकार तथा निर्माण में प्रयुक्त सामग्री सति अनेक आधारों पर अपनी तरह की अनूठी नैनी सरोवर की शान कही जाने वाली नौकाओं को सीजन के लिए तैयार किया जा रहा है। खासकर नौकाओं को वार्निश पिलाने पर खासा ध्यान दिया जा रहा है। जी हां, जानकर हैरत में ना पड़ें, अनेक वाहन जहां चलने के लिए डीजल-पेट्रोल पीते हैं, वहीं नैनीताल की नावें वार्निश पीती हैं। नावों के लिए वार्निश का खर्चा नाव मालिकों के लिए बड़ी चिंता का विषय भी होता है।
नैनीताल की नौकाओं के वार्निश पीने के इस रोचक संदर्भ से पहले इन खास नौकाओं के बनने की प्रविधि भी जान लें। करीब 22 फीट लंबी, चार फीट चौड़ी व डेड़ फीट ऊंची नौकाएं बेशक अपनी गद्दियों पर लगे कपड़े की वजह से रंग-बिरंगी नजर आती हैं, पर इनके निर्माण में रंग का प्रयोग केवल पांव रखने के फर्श और चप्पुओं में ही होता है। सामान्यतया इन्हें पीले रंग से रंगा जाता है। वहीं नौका का शेष पूरा हिस्सा अंदर-बाहर वार्निश से ही जलरोधी (वाटरप्रूफ) बनाया जाता है। नौकाएं हल्की व मजबूत शीशम की लकड़ी से बने ढांचे (इसे नाव की रीढ़ कहा जाता है) पर तुन की मुड़ने योग्य खपच्चियों (पट्टियों) को जंगरोधी तांबे की बनी कीलों से जोड़कर बनाई जाती हैं। चप्पू और फर्श चीढ़ की लकड़ी के बनते हैं। इसमें करीब एक माह का समय लग जाता है और 78 हजार रुपए का खर्च आता है। नाव के पूरे ढांचे को जलरोधी बनाने के लिए हर तीन माह में करीब तीन लीटर और हर छह माह में करीब छह लीटर यानी वर्ष भर में करीब नौ लीटर वार्निश का प्रयोग किया जाता है, जिसे नाव को वार्निश पिलाना कहा जाता है। जान लें कि एक लीटर वार्निश करीब 280 रुपए का, और तीन लीटर की केन करीब 800 रुपए की आती है। हर वर्ष सीजन से पहले मार्च-अप्रैल तथा सर्दियों से पहले बारिश-बर्फ से नाव को बचाने के लिए अक्टूबर में दो बार नावों की मरम्मत की जाती है, तब तक तुन की दो-चार पट्टियां इस सारे प्रबंध के बावजूद सड़ जाती हैं, लिहाजा उन्हें बदलना पड़ता है। इस प्रकार हर मरम्मत पर तीन-चार हजार रुपए का खर्च आ जाता है। वर्ष भर पूरी देखरेख के बावजूद एक नाव औसतन 10 वर्षों में पूरी तरह से खराब हो जाती है। नगर में केवल सात-आठ शिल्पी ही हैं जो नावों का निर्माण और मरम्मत कर पाते हैं। बताते हैं कि सरदार धन्ना सिंह ने 1930 के आसपास यहां इस विशेष प्रकार की नावें बनाने की शुरुआत की थी। ऐसी नावें केवल जनपद की भीमताल, सातताल व नौकुचियाताल झीलों में ही सवारी के लिए मिलती हैं। 
कई स्नातक भी खेह रहे नाव
उल्लेखनीय है कि नाशपाती के आकार की नैनी झील करीब तीन किमी की परिधि की 14 मीटर लंबी, 46 मीटर चौड़ाई व अधिकतम 28 मीटर गहराई की तथा 4.8 हेक्टेयर यानी 0.4 वर्ग किमी में फैली हुई है। इतनी छोटी झील में अकेले 222 चप्पूदार नौकाएं चलती हैं, जो अभी हाल में अक्टूबर से बड़े किराए के अनुसार 210 रुपए में झील का पूरा और 160 रुपए में आधा चक्कर लगाती हैं। कड़ी मेहनत से नाव चालक हाथों में छाले लगाने के बावजूद दिन भर में अधिकतम आठ से 10 चक्कर ही लगा पाते हैं, और दिन में औसतन एक हजार और वर्षभर में 55 हजार रुपए ही कमा पाते हैं। एक नाव से औसतन तीन लोगों के और  करीब 500 परिवार पलते हैं। करीब 175 नाव मालिक खुद ही अपनी नाव चलाते हैं। इनमें करीब डेड़ दर्जन नाव चालक स्नातक भी हैं। नाव के बनने का खर्च उतारने में खुद नाव खेने पर तीन साल और चालकों से चलवाने पर पांच वर्ष तक लग जाते हैं।
कभी नहीं हुई बड़ी दुर्घटना
नैनीताल। दिन भर पूरी मेहनत के बावजूद अच्छी आय प्राप्त न करने से नाव चालक बेहद कठिनाई का जीवन जी रहे हैं। नैनीताल नाव मालिक संघ के संयुक्त सचिव मोहन राम, पूर्व कोषाध्यक्ष डीके सती व सदस्य प्रमोद पवार बताते हैं उनकी समस्याएं चुनावी दौर में भी किसी प्रत्याशी या दल के एजेंडे में शामिल नहीं होती। उन्हें लाइसेंस लेने सहित अनेकों पाबंदियां झेलनी पड़ती हैं। सूर्यास्त के बाद नाव चलाने की अनुमति नहीं है। अब तक के इतिहास में कभी चप्पूदार नौकाओं की कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुई है, वरन झील में कूदने वालों की नाव चालक ही जान बचाते हैं।

Thursday, March 27, 2014

उत्तराखंड में अनूठी है भाई-बहन के प्रेम की 'भिटौली' परंपरा

  • चैत्र माह में निभाई जाती है यह परंपरा, भाई देते हैं बहनों को सौगात
अनेक अनूठी परंपराओं के लिए पहचाने जाने वाले उत्तराखण्ड राज्य में भाई-बहन के प्रेम की एक अनूठी ‘भिटौली’ देने की प्राचीन परंपरा है। पहाड़ में सभी विवाहिता बहनों को जहां हर वर्ष चैत्र मास का इंतजार रहता है, वहीं भाई भी इस माह को याद रखते हैं और अपनी बहनों को ‘भिटौली’ देते हैं। 
घुघुती
'भिटौली' का शाब्दिक अर्थ भेंट देने से हैं। प्राचीन काल से चली आ रही यह परंपरा उस दौर में काफी महत्व रखती थी। इसके जरिए भाई-बहन का मिलन तो होता ही था, इसके जरिए उस संचार के साधन विहीन दौर में अधिकांशतया बहुत दूर होने वाले मायकों की विवाहिताओं की कुशल-क्षेम मिल जाती थी। भाई अपनी बहनों के लिए घर से हलवा-पूड़ी सहित अनेक परंपरागत व्यंजन तथा बहन के लिए वस्त्र एवं उपलब्ध होने पर आभूषण आदि भी लेकर जाता था। बाद के दौर में व्यंजनों के साथ ही गुड़, मिश्री व मिठाई जैसी वस्तुएं भी भिटौली के रूप में दी जाने लगीं। व्यंजनों को विवाहिता द्वारा अपने ससुराल के पूरे गांव में बांटा जाता था। भिटौली का विवाहिताओं को बेसब्री से इंतजार रहता था। भिटौली जल्दी आना बहुत अच्छा माना जाता था, जबकि भिटौली देर से मिली तो भी बहनों की खुशी का पारा-वार न होता था। आज के बदलते दौर में भिटौली की परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों में तो कमोबेश पुराने स्वरूप में ही जारी है, लेकिन शहरी क्षेत्रों में भाइयों द्वारा ले जाए जाने वाले व्यंजनों का स्थान बाजार की मिठाइयों ने ले लिया है। भाई कई बार साथ में बहनों के लिए कपड़े ले जाते हैं, और कई बार इनके स्थान पर कुछ धनराशि देकर भी परंपरा का निर्वहन कर लिया जाता है।

लोकगीतों-दंतकथाओं में भी है भिटौली

भिटौली प्रदेश की लोक संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। इसके साथ कई दंतकथाएं और लोक गीत भी जुड़े हुए हैं। पहाड़ में चैत्र माह में यह लोकगीत काफी प्रचलित है- 
ओहो, रितु ऐगे हेरिफेरि रितु रणमणी, हेरि ऐछ फेरि रितु पलटी ऐछ।
ऊंचा डाना-कानान में कफुवा बासलो, गैला-मैला पातलों मे नेवलि बासलि।।
ओ, तु बासै कफुवा, म्यार मैति का देसा, इजु की नराई लागिया चेली, वासा।
छाजा बैठि धना आंसु वे ढबकाली, नालि-नालि नेतर ढावि आंचल भिजाली।
इजू, दयोराणि-जेठानी का भै आला भिटोई, मैं निरोलि को इजू को आलो भिटोई।।
इस लोकगीत का कहीं-कहीं यह रूप भी प्रचलित है-
रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।
डाली में कफुवा वासो, खेत फुली दैणा।
कावा जो कणाण, आजि रते वयांण।
खुट को तल मेरी आज जो खजांण।
इजु मेरी भाई भेजली भिटौली दीणा।
रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।
वीको बाटो मैं चैंरुलो।
दिन भरी देली मे भै रुंलो।
वैली रात देखछ मै लै स्वीणा।
आगन बटी कुनै ऊँनौछीयो -
कां हुनेली हो मेरी वैणा ?
रितु रैणा, ऐ गे रितु रैणा।
रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।।
भावार्थ :-
रुन झुन करती ऋतु आ गई है, ऋतु आ गई है रुन-झुन करती।
डाल पर 'कफुवा' पक्षी कूजने लगा, खेतों मे सरसों फूलने लगी।
आज तडके ही जब कौआ घर के आगे बोलने लगा।
जब मेरे तलवे खुजलाने लगे, तो मैं समझ गई कि -
माँ अब भाई को मेरे पास भिटौली देने के लिए भेजेगी।
रुन झुन करती ऋतु आ गई है, ऋतु आ गई है रुन-झुन करती।
मैं अपने भाई की राह देखती रहूंगी।
दिन भर दरवाजे मे बैठी उसकी प्रतीक्षा करुँगी।
कल रात मैंने स्वप्न देखा था।
मेरा भाई आंगन से ही यह कहता आ रहा था -
कहाँ होगी मेरी बहिन ?
रुन झुन करती ऋतु आ गई है, ऋतु आ गई है रुन-झुन करती।।

वहीं ‘भै भुखो-मैं सिती’ नाम की दंतकथा भी काफी प्रचलित है। कहा जाता है कि एक बहन अपने भाई के भिटौली लेकर आने के इंतजार में पहले बिना सोए उसका इंतजार करती रही। लेकिन जब देर से भाई पहुंचा, तब तक उसे नींद आ गई और वह गहरी नींद में सो गई। भाई को लगा कि बहन काम के बोझ से थक कर सोई है, उसे जगाकर नींद में खलल न डाला जाए। उसने भिटौली की सामग्री बहन के पास रखी। अगले दिन शनिवार होने की वजह से वह परंपरा के अनुसार बहन के घर रुक नहीं सकता था, और आज की तरह के अन्य आवासीय प्रबंध नहीं थे, उसे रात्रि से पहले अपने गांव भी पहुंचना था, इसलिए उसने बहन को प्रणाम किया और घर लौट आया। बाद में जागने पर बहन को जब पता चला कि भाई भिटौली लेकर आया था। इतनी दूर से आने की वजह से वह भूखा भी होगा। मैं सोई रही और मैंने भाई को भूखे ही लौटा दिया। यह सोच-सोच कर वह इतनी दुखी हुई कि ‘भै भूखो-मैं सिती’ यानी भाई भूखा रहा, और मैं सोती रही, कहते हुए उसने प्राण ही त्याग दिए। कहते हैं कि वह बहन अगले जन्म में वह ‘घुघुती’ नाम की पक्षी बनी और हर वर्ष चैत्र माह में ‘भै भूखो-मैं सिती’ की टोर लगाती सुनाई पड़ती है। पहाड़ में घुघुती पक्षी को विवाहिताओं के लिए मायके की याद दिलाने वाला पक्षी भी माना जाता है। ‘घुर-घुर न घुर घुघुती चैत में, मकें याद उं आपणै मैत की’ जैसे गीत भी काफी लोकप्रिय हैं।

पिथौरागढ में भिटौली पर 'चैतोल' की परंपरा

कुमाऊं के पिथौरागढ़ जनपद क्षेत्र में चैत्र मास में भिटौली के साथ ही चैतोल पर्व मनाए जाने की एक अन्य परंपरा भी है। चैत्र मास के अन्तिम सप्ताह में मनाये जाने वाले इस त्योहार में पिथौरागढ के समीपवर्ती गांव चहर-चौसर से डोला यानी शोभायात्रा भी निकाली जाती है, जो कि निकट के 22 गांवों में घूमती है। चैतोल के डोले को भगवान शिव के देवलसमेत अवतार का प्रतीक बताया जाता है, डोला पैदल ही 22 गांवों में स्थित भगवती देवी के थानों यानी मंदिरों में भिटौली के अवसर पर पहुंचता है। मंदिरों में देवता किसी व्यक्ति के शरीर में अवतरित होकर उपस्थित लोगों व भक्तों को आशीर्वाद देते हैं।

कुमाऊं के एक अन्य लोक पर्व 'फूलदेई' पर बच्चों 'द्वारा  पूजा' के दौरान गाया जाने वाला लोकगीत- 

" फूलदेई, छम्मा देई.…
जतुकै देला, उतुकै सही ।
देंणी द्वार, भर भकार,
सास ब्वारी, एक लकार,
यो देलि सौ नमस्कार ।
फूलदेई, छम्मा देई.…
जतुकै देला, उतुकै सही । "
प्रस्तुति: नवीन जोशी।

Thursday, March 13, 2014

होली छाई ऐसी झकझोर कुमूं में....

कुमाऊं में है अनूठी बैठकी, खड़ी, धूम व महिला होलियों की परंपरा
देवभूमि उत्तराखंड प्रदेश के कुमाऊं अंचल में रामलीलाओं की तरह राग व फाग का त्योहार होली भी अलग वैशिष्ट्य के साथ मनाई जाती हैं। यूं कुमाऊं में होली के दो प्रमुख रूप मिलते हैं, बैठकी व खड़ी होली, परन्तु अब दोनों के मिश्रण के रूप में तीसरा रूप भी उभर कर आ रहा है। इसे धूम की होली कहा जाता है। इसके साथ ही महिला होलियां भी अपना अलग स्वरूप बनाऐ हुऐ हैं।
कुमाऊं में बैठकी होली की शुरुआत होली के पूर्वाभ्यास के रूप में पौष माह के पहले रविवार से विष्णुपदी होली गीतों से होती है। माना जाता है कि प्राचीनकाल में यहां के राजदरबारों में बाहर के गायकों के आने से यह होली गीत यहां आऐ हैं। इनमें शाष्त्रीयता का अधिक महत्व होने के कारण इन्हें शाष्त्रीय होली भी कहा जाता है। इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रहरों में अलग अलग शाष्त्रीय रागों पर आधारित होलियां गाई जाती हैं। शुरुआत बहुधा धमार राग से होती है, और फिर सर्वाधिक काफी व पीलू राग में तथा जंगला काफी, सहाना, बिहाग, जैजैवन्ती, जोगिया, झिंझोटी, भीमपलासी, खमाज व बागेश्वरी सहित अनेक रागों में भी बैठकी होलियां विभिन्न पारंपरिक वाद्य यंत्रो के साथ गाई जाती हैं। 
होली की शुरुआत बसन्त के स्वागत के गीतों से होती है, जिसमें प्रथम पूज्य गणेश, राम, कृष्ण व शिव सहित कई देवी देवताओं की स्तुतियां व उन पर आधारित होली गीत गाऐ जाते हैं। बसन्त पंचमी के आते आते होली गायकी में क्षृंगारिकता बढ़ने लगती है तथा 
`आयो नवल बसन्त सखी ऋतुराज कहायो, पुष्प कली सब फूलन लागी, फूल ही फूल सुहायो´ 
के अलावा जंगला काफी राग में
`राधे नन्द कुंवर समझाय रही, होरी खेलो फागुन ऋतु आइ रही´ 
व झिंझोटी राग में 
`आहो मोहन क्षृंगार करूं में तेरा, मोतियन मांग भरूं´
तथा राग बागेश्वरी में
`अजरा पकड़ लीन्हो नन्द के छैयलवा अबके होरिन में...´
आदि होलियां गाई जाती हैं। इसके साथ ही महाशिवरात्रि पर्व तक के लिए होली बैठकों का आयोजन शुरू हो जाता है। शिवरात्रि के अवसर पर शिव के भजन जैसे
`जय जय जय शिव शंकर योगी´ 
आदि होली के रूप में गाऐ जाते हैं। इसके पश्चात कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्रों में होलिका एकादशी से लेकर पूर्णमासी तक खड़ी होली गीत जैसे 
`शिव के मन मांहि बसे काशी´, `जल कैसे भरूं जमुना गहरी´`सिद्धि ´को दाता विघ्न विनाशन, होरी खेलें गिरिजापति नन्दन´ आदि होलियां गाई जाती हैं। सामान्यतया खड़ी होलियां कुमाऊं की लोक परंपरा के अधिक निकट मानी जाती हैं और यहां की पारंपरिक होलियां कही जाती हैं। यह होलियां ढोल व मंजीरों के साथ बैठकर व विशिष्ट तरीके से पद संचालन करते हुऐ खड़े होकर गाई जाती हैं। इन दिनों होली में राधा-कृष्ण की छेड़छाड़ के साथ क्षृंगार की प्रधानता हो जाती है, यह होलियां प्राय: पीलू राग में गाई जाती हैं। 
इधर कुमाउनीं होली में बैठकी व खड़ी होली के मिश्रण के रूप में तीसरा रूप भी उभर रहा है, इसे धूम की होली कहा जाता है। यह `छलड़ी´ के आस पास गाई जाती है। इसमें कई जगह कुछ वर्जनाऐं भी टूट जाती हैं, तथा स्वांग का प्रयोग भी किया जाता है। महिलाओं में भी होली का यह रूप प्रचलित है। 

होलियों के दौरान युवक, युवतियों और वृद्ध सभी को होली के गीतों में सराबोर देखा जा सकता है। खासकर ग्रामीण अंचलों में तबले, मंजीरे और हारमोनियम के सुर में होलियां गाई जाती हैं, इस दौरान ऐसा लगता है मानो हर होल्यार शास्त्रीय गायक हो गया हो। नैनीताल, अल्मोड़ा और चंपावत की होलियां खास मानी जाती हैं, जबकि बागेश्वर, गंगोलीहाट, लोहाघाट व पिथौरागढ़ में तबले की थाप, मंजीरे की छन-छन और हारमोनियम के मधुर सुरों पर जब ‘ऐसे चटक रंग डारो कन्हैया’ जैसी होलियां गाते हैं। बैठकी होली पौष माह के पहले रविवार से ही शुरू हो जाती हैं, और फाल्गुन तक गाई जाती है। पौष से बसंत पंचमी तक अध्यात्मिक, बसंत पंचमी से शिवरात्रि तक अर्ध श्रृंगारिक और उसके बाद श्रृंगार रस में डूबी होलियाँ गाई जाती हैं. इनमें भक्ति, वैराग्य, विरह, कृष्ण-गोपियों की हंसी-ठिठोली, प्रेमी प्रेमिका की अनबन, देवर-भाभी की छेड़छाड़ के साथ ही वात्सल्य, श्रृंगार, भक्ति जैसे सभी रस मिलते हैं। बैठकी होली अपने समृद्ध लोक संगीत की वजह से यहाँ की संस्कृति में रच बस गई है, खास बात यह भी है कि कुछ को छोड़कर अधिकांश होलियों की भाषा कुमाऊंनी न होकर ब्रज है। सभी बंदिशें राग-रागनियों में गाई जाती है, और यह काफी हद तक शास्त्रीय गायन है। इनमें एकल और समूह गायन का भी निराला अंदाज दिखाई देता है। लेकिन यह न तो सामूहिक गायन है न ही शास्त्रीय होली की तरह एकल गायन। महफिल में मौजूद कोई भी व्यक्ति बंदिश का मुखड़ा गा सकता है, जिसे स्थानीय भाषा में भाग लगाना कहते हैं। खड़ी होली होली में होल्यार दिन में ढोल-मंजीरों के साथ गोल घेरे में पग संचालन और भाव प्रदर्शन के साथ गाते हैं, और रात में यही होली बैठकर गाई जाती है। शिवरात्रि से होलिकाअष्टमी तक बिना रंग के ही होली गाई जाती है। होलिका अष्टमी को मंदिरों में आंवला एकादशी को गाँव मोहल्ले के निर्धारित स्थान पर चीर बंधन होता है और रंग डाला जाता है। 

इधर शहरी क्षेत्रों में हर त्योहार की तरह होली में भी कमी आने लगी है। लोग केवल छलड़ी के दि नही रंग लेकर निकलते हैं, और एक-दूसरे को रंग लगाते हुए गुजिया खिलाते हैं। गांवों में भांग का प्रचलन भी है। 
 कुमाउनीं होली में चीर व निशान की विशिष्ट परम्परायें 
कुमाऊं में चीर व निशान बंधन की भी अलग विशिष्ट परंपरायें  हैं। इनका कुमाउनीं होली में विशेश महत्व माना जाता है। होलिकाष्टमी के दिन ही कुमाऊं में कहीं कहीं मन्दिरों में `चीन बंधन´ का प्रचलन है। पर अधिकांशतया गांवों, शहरों में सार्वजनिक स्थानों में एकादशी को मुहूर्त देखकर चीर बंधन किया जाता है। इसके लिए गांव के प्रत्येक घर से एक एक नऐ कपड़े के रंग बिरंगे टुकड़े `चीर´ के रूप में लंबे लटठे पर बांधे जाते हैं। इस अवसर पर `कैलै बांधी चीर हो रघुनन्दन राजा...सिद्धि को दाता गणपति बांधी चीर हो...´ जैसी होलियां गाई जाती हैं। इस होली में गणपति के साथ सभी देवताओं के नाम लिऐ जाते हैं। कुमाऊं में `चीर हरण´ का भी प्रचलन है। गांव में चीर को दूसरे गांव वालों की पहुंच से बचाने के लिए दिन रात पहरा दिया जाता है। चीर चोरी चले जाने पर अगली होली से गांव की चीर बांधने की परंपरा समाप्त हो जाती है। कुछ गांवों में चीर की जगह लाल रंग के झण्डे `निशान´ का भी प्रचलन है, जो यहां की शादियों में प्रयोग होने वाले लाल सफेद `निशानों´ की तरह कुमाऊं में प्राचीन समय में रही राजशाही की निशानी माना जाता है। बताते हैं कि कुछ गांवों को तत्कालीन राजाओं से यह `निशान´ मिले हैं, वह ही परंपरागत रूप से होलियों में `निशान´ का प्रयोग करते हैं। सभी घरों में होली गायन के पश्चात घर के सबसे सयाने सदस्य से  शुरू कर सबसे छोटे पुरुष  सदस्य का नाम लेकर `जीवें लाख बरीस...हो हो होलक रे...´ कह आशीष देने की भी यहां अनूठी परंपरा है।

Friday, March 7, 2014

यह युग परिवर्तन की भविष्यवाणी के सच होने का समय तो नहीं ?



(मूलतः 2011 में लिखी गई पोस्ट) 

बात कुछ पुराने संदर्भों से शुरू करते हैं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि १८३६ में उनके गुरु आचार्य रामकृष्ण परमहंस के जन्म के साथ ही युग परिवर्तन काल प्रारंभ हो गया है। यह वह दौर था जब देश ७०० वर्षों की मुगलों की गुलामी के बाद अंग्रेजों के अधीन था, और पहले स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल भी नहीं बजा था।
बाद में महर्षि अरविन्द ने प्रतिपादित किया कि युग परिवर्तन का काल, संधि काल कहलाता है और यह करीब १७५ वर्ष का होता है...
पुनः, स्वामी विवेकानंद ने कहा था ‘वह अपने दिव्य चक्षुओं से देख रहे हैं कि या तो संधि काल में भारत को मरना होगा, अन्यथा वह अपने पुराने गौरव् को प्राप्त करेगा.... ’
उन्होंने साफ किया था ‘भारत के मरने का अर्थ होगा, सम्पूर्ण दुनिया से आध्यात्मिकता का सर्वनाश ! लेकिन यह ईश्वर को भी मंजूर नहीं होगा... ऐसे में एक ही संभावना बचती है कि देश अपने पुराने गौरव को प्राप्त करेगा....और यह अवश्यम्भावी है।’
वह आगे बोले थे ‘देश का पुराना गौरव विज्ञान, राज्य सत्ता अथवा धन बल से नहीं वरन आध्यात्मिक सत्ता के बल पर लौटेगा....’
अब १८३६ में युग परिवर्तन के संधि काल की अवधि १७५ वर्ष को जोड़िए. उत्तर आता है २०११. यानी हम 2011 में युग परिवर्तन की दहलीज पर खड़े थे, और इसी दौर से देश में परिवर्तनों के कई सुर मुखर होने लगे थे....
अब आज के दौर में देश में आध्यात्मिकता की बात करें, और बीते कुछ समय से बन रहे हालातों के अतिरेक तक जाकर देखें तो क्या कोई व्यक्ति इस दिशा में आध्यात्मिकता की ध्वजा को आगे बढाते हुआ दिखते हैं, क्या वह बाबा रामदेव या अन्ना हजारे हो सकते हैं.....?
कोई आश्चर्य नहीं, ईश्वर बाबा अथवा अन्ना को युग परिवर्तन का माध्यम बना रहे हों, और युगदृष्टा महर्षि अरविन्द और स्वामी विवेकानंद की बात सही साबित होने जा रही हो....
यह भी जान लें कि आचार्य श्री राम शर्मा सहित फ्रांस के विश्वप्रसिद्ध भविष्यवेत्ता नास्त्रेदमस सहित कई अन्य विद्वानों ने भी इस दौर में ही युग परिवर्तन होने की भविष्यवाणी की हुई है। उन्होंने तो यहाँ तक कहा था कि "दुनिया में तीसरे महायुद्ध की स्थिति सन् 2012 से 2025 के मध्य उत्पन्न हो सकती है। तृतीय विश्वयुद्ध में भारत शांति स्थापक की भूमिका निबाहेगा। सभी देश उसकी सहायता की आतुरता से प्रतीक्षा करेंगे। नास्त्रेदमस ने तीसरे विश्वयुद्ध की जो भविष्यवाणी की है उसी के साथ उसने ऐसे समय एक ऐसे महान राजनेता के जन्म की भविष्यवाणी भी की है, जो दुनिया का मुखिया होगा और विश्व में शांति लाएगा।"
अब 2014 में, जबकि लोक सभा चुनावों की दुंदुभि बज चुकी है। ऐसे में क्या यह मौका युग परिवर्तन की भविष्यवाणी के सच साबित होने का तो नहीं है। देश का बदला मिजाज भी इसका इशारा करता है, पर क्या यह सच होकर रहेगा ? कौन होगा युग परिवर्तक ? क्या मोदी ?

एक रिपोर्ट के अनुसार केंद्र की कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार अब तक चीनी, आईपीएल, राष्ट्रमंडल खेल, आदर्श सोसाइटी, २-जी स्पेक्ट्रम आदि सहित २,५०,००० करोड़ मतलब २,५०,००, ००,००,००,००० रुपये का घोटाला कर चुकी है. मतलब दो नील ५० खरब रुपये का घोटाला, 

यह अलग बात है कि हमारे (कभी विश्व गुरु रहे हिंदुस्तान के) प्रधानमंत्री मनमोहन जी और देश की सत्ता के ध्रुव सोनिया जी को यह नील..खरब जैसे हिन्दी के शब्द समझ में ही नहीं आते हैं.... 
अतिरेक नहीं कि एक विदेशी है और दूसरा विश्व बैंक का पुराना कारिन्दा.... यानी दोनों ही देश की आत्मा से बहुत दूर …
शायद वह अपनी करनी से देश में क्रांति को रास्ता दे रहे है….
संभव है बाबा रामदेव जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं, और अन्ना हजारे जो जन लोकपाल के मुद्दे पर आन्दोलन का बिगुल बजाये हुए हैं, इस क्रांति के अग्रदूत हों. बाबा रामदेव के आरोप अब सही लगने लगे हैं की गरीब देश कहे जाने वाले (?) हिन्दुस्तानियों के ( जिनमें निस्संदेह नेताओं का हिस्सा ही अधिक है) १०० लाख करोड़ (यानी १०,००,००,००,००,००,००,०००) यानी १० पद्म रुपये (बाबा रामदेव के अनुसार) और एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार ७० लाख करोड़ यानी सात पद्म रुपये भारत से बाहर स्विस और दुनिया ने देश के अन्य देशों के अन्य बैंको में छुपाये है. इस अकूत धन सम्पदा को यदि वापस लाकर देश की एक अरब  से अधिक जनसँख्या में यूँही बाँट दिया जाए तो हर बच्चे-बूढ़े, अमीर-गरीब को ७० लाख से एक करोड़ रुपये तक बंट सकते हैं....  
जान लीजिये की देश की केंद्र सरकार, सभी राज्य सरकारों और सभी निकायों का वर्ष का कुल बजट इस मुकाबले कहीं कम केवल २० लाख करोड़ यानी दो पद्म रुपये यानी विदेशों में जमा धन का पांचवा हिस्सा  है. यानी इस धनराशी से देश का पांच वर्ष का बजट चल सकता है..
लेकिन अपने सत्तासीन नेताओं से यह उम्मीद करनी ही बेमानी है की देश की इस अकूत संपत्ति को वापस लाने के लिए वह इस ओर पहल भी करेंगे…
मालूम हो की संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्विट्जरलैंड के बैंकों में जमा धन वापस लाने के लिए भारत सहित १४० देशों के बीच एक संधि की है. इस संधि पर १२६ देश पुनः सहमति पत्र पर हस्ताक्षर कर चुके हैं, लेकिन भारत इस पर हस्ताक्षर नहीं कर रहा है. 

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Monday, March 3, 2014

मुरली मनोहर जोशी और एनडी तिवारी बदल सकते हैं नैनीताल के चुनावी समीकरण !

-मोदी के लिए बनारस छो़ड़ नैनीताल आने का है मुरली मनोहर जोशी पर दबाव
-रोहित को पुत्र स्वीकारने के बाद राजनीतिक विरासत भी सोंप सकते हैं एनडी तिवारी
नवीन जोशी, नैनीताल। जी हां, अब तक कांग्रेस के राजकुमार केसी सिंह ‘बाबा’ के कब्जे वाली नैनीताल-ऊधमसिंहनगर संसदीय सीट एक बार फिर प्रदेश की सबसे बड़ी वीवीआईपी व हॉट सीट हो सकती है। अभी भले यहां कांग्रेस से बाबा या राहुल गांधी के खास प्रकाश जोशी तथा भाजपा से पूर्व सीएम भगत सिंह कोश्यारी, बची सिंह रावत और बलराज पासी में से किसी के लोक सभा चुनाव लड़ने के भी चर्चे हों, लेकिन बेहद ताजा राजनीतिक घटनाक्रमों को देखा जाए तो इस सीट से भाजपा अपने त्रिमूर्तियों में शुमार मुरली मनोहर जोशी को चुनाव मैदान में उतार सकती है। जोशी को इस हेतु मनाया जा रहा है। वहीं पूर्व सीएम एनडी तिवारी अपने जैविक पुत्र रोहित शेखर को स्वीकारने के बाद यहां से अपनी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की कोशिश कर सकते हैं। उनके जल्द ही संसदीय क्षेत्र का तीन दिवसीय कार्यक्रम भी तय बताया जा रहा है।
देश के बदले राजनीतिक हालातों में यूपी भाजपा के मिशन-272 प्लस की मुख्य धुरी माना जा रहा है। भाजपा मान रही है कि ‘मुजफ्फरनगर’ के हालिया हालातों और कल्याण सिंह व उनकी पार्टी के औपचारिक तौर पर पार्टी में आने के बाद पश्चिमी यूपी में भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण होना तय हो गया है। मध्य यूपी में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व उपाध्यक्ष राहुल गांधी का प्रभाव क्षेत्र मानते हुए भाजपा जबरन बहुत जोर लगाने के पक्ष में नहीं है, ऐसे में पूवी यूपी को साधने के लिए भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के लिए मुरली मनोहर जोशी की बनारस सीट खाली कराने का न केवल पार्टी वरन संघ की ओर से भी भारी दबाव अब खुलकर सामने आ गया है। दूसरी ओर जोशी लोस चुनाव लड़ने पर अढ़े हुए हैं। ऐसे में उन्हें काफी समय से नैनीताल सीट के लिए मनाये जाने की चर्चाएं अब सतह पर आने लगी हैं। गौरतलब है कि जोशी मूलतः उत्तराखंड के ही अल्मोड़ा के निवासी हैं, और 1977 में भारतीय लोकदल से अल्मोड़ा के सांसद रह चुके हैं। उनके नैनीताल आने की सूरत में माना जा रहा है कि पार्टी के यहां से तीन प्रबल दावेदार भगत सिंह कोश्यारी, बची सिंह रावत व बलराज पासी के होने की वजह से उठ रही भितरघात की संभावनाएं क्षींण हो जाएंगी। वह नैनीताल से भली प्रकार वाकिफ भी हैं, और संसदीय क्षेत्र में ब्राह्मण मतों का ध्रुवीकरण भी कर सकते हैं, लिहाजा वह नैनीताल के लिए मान भी सकते हैं। भाजपा के लिए नैनीताल का संसदीय इतिहास भी बेहतर नहीं रहा है। यहां भाजपा के केवल बलराज पासी 1991 की रामलहर ओर  इला पंत 1998 में जीते भी तो जीत का अंतर करीब महज नौ और 12 हजार मतों का ही रहा, और आगे बाबा इस अंतर को कांग्रेस के पक्ष में बढ़ाते हुए 2004 में 40 हजार और 2009 में 88 हजार कर चुके हैं। ऐसे में यह सीट भाजपा के लिए कठिन है और इसे पार्टी का कोई हैवीवेट प्रत्याशी ही पाट सकता है।
दूसरी ओर एनडी तिवारी के लिए यह सीट 1980 से अपनी सी रही है। तिवारी ने यहां से 1980 में जीत हासिल की, 84 में उनके खास सत्येंद्र चंद्र गु़िड़या जीते और आगे 1996 में तिवारी ने अपनी तिवारी कांग्रेस के टिकट पर तथा 99 में पुनः कांग्रेस से जीत हासिल की। उल्लेखनीय है कि तिवारी हाल में कांग्रेस पार्टी में रहते हुए भी सपा से नजदीकी बढ़ा चुके हैं, और ताजा घटनाक्रम में उन्होंने रोहित शेखर को एक दशक लंबी चली कानूनी लड़ाई के बाद अपना पुत्र मान लिया है। उनका तीन दिवसीय नैनीताल दौरा तीन जनवरी से तय भी हो गया था। ऐसे में आने वाले कुछ दिन इस संसदीय सीट पर नए गुल भी खिला सकते हैं।

रावत, तिवारी, जोशी का भी अलग राजनीतिक त्रिकोण

नैनीताल। हालांकि यह अभी राजनीतिक भविष्य के गर्भ में है, लेकिन अटकलें सही साबित हुईं तो उत्तराखंड में हरीश रावत, एनडी तिवारी और मुरली मनोहर जोशी का अलग राजनीतिक त्रिकोण भी चर्चाओं में रहना तय है। रावत और तिवारी का संघर्ष हमेशा से प्रदेश की राजनीति में दिखता रहा है। 2002 में तिवारी के नेतृत्व वाली तिवारी सरकार के पूरे कार्यकाल में यह संघर्ष खुलकर नजर आया। रावत जिस तरह तिवारी को परेशान किए रहे, ऐसे में रावत की ताजपोशी तिवारी को कितना रास आ रही होगी, समझना आसान है। वहीं रावत एवं जोशी के बीच उनके मूल स्थान अल्मोड़ा में 1980 से जंग शुरू हुई थी, जब युवा रावत ने तब के सिटिंग सांसद जोशी को 80 और 84 के लगातार दो चुनावों में हराकर अल्मोड़ा छोड़ने पर ही मजबूर कर दिया था।
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Wednesday, February 26, 2014

यह क्या अजीबोगरीब हो रहा हरीश सरकार में !

हरीश रावत के आते ही तीन 'रावत' निपटे 
उत्तराखंड में जब से हरीश रावत के नेतृत्व में सरकार बनी है, बहुत कुछ अजीबोगरीब हो रहा है। विरोधियों को 'विघ्नसंतोषी' कहने और उनसे निपटने में महारत रखने वाले रावत के खिलाफ मुंह खोल रहे और खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बता रहे तीन रावत (सतपाल, अमृता और हरक) निपट चुके हैं। सतपाल व अमृता के खिलाफ विपक्ष ने अपने परिजनो को पॉलीहाउस बांटने में घोटाले का आरोप लगाया, और सीबीआई जांच की मांग उठाई है। हरक का नाम दिल्ली की लॉ इंटर्न ने छेड़खानी का मुक़दमा दर्ज कराकर ख़राब कर दिया है। बचा-खुचा नाम भाजपाई हरक को 'बलात्कारी हरक सिंह रावत' बताकर और उनका पुतला फूंक कर ख़राब करने में जुट गए हैं। रावत ने पहले ही उनके पसंदीदा कृषि महकमे की एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी गैर विधायक तिलक राज बेहड़ को मंत्री के दर्जे के साथ देकर जोर का झटका धीरे से दे दिया था। विपक्ष के 'मुंहमांगे' से अविश्वाश प्रस्ताव से हरीश सरकार पहले ही छह मांह के लिए पक्की हो ही चुकी है। अब यह समझने वाली बात है कि विरोधी खुद-ब-खुद निपट रहे और रावत की राह स्वतः आसान होती जा रही है कि यह रावत के राजनीतिक या कूटनीतिक कौशल का कमाल है। 

माँगा गाँव-मिला शहर  

हरीश रावत सरकार आसन्न त्रि-स्तरीय पंचायत व लोक सभा चुनावों की चुनावी बेला में अनेक अनूठी चीजें कर रही हैं। अचानक राज्य के सब उत्तराखंडी लखपति हो गए हैं। सरकार ने बताया है, राज्य की प्रति व्यक्ति आय 1,12,000 रुपये से अधिक हो गयी है। सांख्यिकी विभाग ने आंकड़ों की बाजीगरी कर कर सिडकुल में लगे चंद उद्योगों के औद्योगिक घरानों की आय राज्य की जीडीपी में जोड़कर यह कारनामा कर डाला है।
दूसरे संभवतया देश में ही ऐसा पहली बार हुआ है कि राज्य में पंचायत चुनावों की अधिसूचना 1 मार्च को और चुनाव आचार संहिता 2 मार्च से जारी होने वाली है और चुनावों के लिए नामांकन पत्रों की बिक्री इससे एक सप्ताह पहले 24 फरवरी से ही शुरू हो गयी है।
तीसरे राज्य के वन क्षेत्र सीधे ही शहर बन गए हैं। लालकुआ के पास पूरी तरह वन भूमि पर बसे बिन्दुखत्ता को राज्य कैबिनेट ने जनता की राजस्व गाँव घोषित करने की मांग से भी कई कदम आगे बढ़कर एक तरह के बिन मांगे ही स्वतंत्र रूप से नगर पालिका बनाने की घोषणा कर दी है, वहीँ इसी तरह के दमुवाढूंगा को सीधे हल्द्वानी नगर निगम का हिस्सा बनाने की घोषणा कर दी गयी है।

Sunday, February 16, 2014

देश को भी दिल्ली की तरह मध्यावधि चुनावों में धकेलेंगे केजरीवाल !

Digital Painting Of Arvind Kejariwalरविंद केजरीवाल बकौल उनके विरोधियों प्रधानमंत्री बनने और बकौल समर्थकों-देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने और आम आदमी के हाथों में सत्ता दिलाने की निर्विवाद तौर पर जल्दबाजी या हड़बड़ी में दिखते हैं। दिल्ली में 50 दिन का कार्यकाल पूरा किए बिना ही वह देश में (पांच वर्ष) सरकार चलाने के दिवास्वप्न को पूरा करने के लिए दौड़ पड़े हैं। निःसंदेह लोक सभा चुनाव ही उनका अभीष्ट थे। इसके बिना उनका कथित भ्रष्टाचार मुक्ति का मिशन पूरा होना नहीं था। इस मिशन के लिए उन्होंने दिल्ली विधान सभा से अपनी राजनीतिक शुरुआत की। अपने राजनीतिक गुरु अन्ना हजारे की भी नहीं सुनी और इंडिया अगेन्स्ट करप्शन को भी पीछे छोडकऱ आम आदमी पार्टी बना ली। दिल्ली के विधान सभा चुनावों से पहले अपनी स्थापना के करीब एक वर्ष में जनता के बिजली और पानी के बिलों के मुद्दे पर राजनीतिक जमीन तैयार की। जनता को भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन का भरोसा दिलाया। जनता ने भरोसा किया, उनके नां-नां कहते भी ऐसे हालात खड़े कर दिए कि दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कमोबेश जबरन ही बिठा दिया। लेकिन केजरीवाल अपनी अति महत्वकांक्षा में ‘मेरो मन अनंत, अनंत कहां सुख पावे’ की तर्ज पर 49 दिन में ही यह छोटी कुर्सी छोड़कर देश के प्रधानमंत्री पद की बड़ी कुर्सी के लिए दौड़ पड़े हैं। 
दिल्ली की गद्दी छोड़ने, सरकार न चला पाने की असफलता का ठीकरा ‘नाच न जाने आंगन टेढ़ा’ की तर्ज पर कांग्रेस-भाजपा पर फोड़ा जा रहा है। जैसे यह भी ना जानते हों कि कांग्रेस-भाजपा विपक्षी पार्टी हैं। वह स्वयं के राजनीतिक लाभ के बिना कभी भी आप का समर्थन नहीं करेंगे। वह क्यों चाहेंगे कि आप मनमानी करें। वह भी तब, जबकि आप केवल अपने समर्थकों के बिजली बिल आधे करने जैसे एकतरफा निर्णय ले रहे हों, जिनकी मिसाल कथित धर्म निरपेक्ष पार्टियों के एक धर्म विशेष के आपदा प्रभावितों को अधिक मुआवजा देने जैसे निर्णयों से इतर अन्यत्र कम ही मिलती है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की गद्दी आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल का अभीष्ट कभी नहीं रही। वह तो दिल्ली के चुनावों को महज लोक सभा चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बनने के स्वप्न को पूरा करने की पहली सीढ़ी मानते हुए भाग्य आजमाने के लिए ही लड़े थे। लेकिन उनका कांग्रेस से ‘आम आदमी’, भाजपा से ‘राष्ट्रवाद’, अन्ना हजारे से भ्रष्टाचार मुक्ति और अपने दिमाग से झाड़ू को चुनाव चिन्ह बनाने से इससे जुड़े एक वर्ग विशेष के खुलकर समर्थन में आ जाने, पार्टी का नाम आम आदमी के नाम से और छोटा नाम ‘आप’ रखने, वामपंथी विचारधारा वाले मतदाताओं की स्वाभाविक पसंद बनने आदि अनेक कारणों के समन्वय से सत्ता के करीब पहुंच गए और जबर्दस्ती उस कुर्सी पर बैठा दिए गए थे। अब कुर्सी में बैठे हुए तो वह देश भर में लोक सभा चुनावों के प्रचार के लिए जा नहीं सकते थे, इसलिए यहां सत्ता छोड़ी और अगले दिन ही अपने 20 लोक सभा प्रत्याशियों की पहली सूची की घोषणा कर चुनाव की तैयारियों में जुट गए। सत्ता न छोड़ते तो दिल्ली की समस्याओं में ही उलझे रहते। जितने दिन सत्ता में रहते, जनता उतने दिनों का हिसाब मांगती।
केजरीवाल को अपने 49 दिन के कार्यकाल के बाद इस हकीकत को स्वीकार करना होगा कि बाहर से किसी पर भी आरोप लगाना आसान है, खुद अंदर जाकर, बिना स्थितियों और दूसरों पर ठीकरा फोड़े वहां टिककर स्थितियों को ठीक करना बेहद कठिन काम है। परिस्थितियां चाहे जो भी रही हों, सच्चाई यह है कि आप 50 दिन भी दिल्ली की सीएम की कुर्सी को नहीं संभाल या झेल पाए, और अब जनता को नया ख्वाब दिखा रहे हैं कि पांच साल के लिए देश के पीएम की कुर्सी को संभाल लेंगे। चलिए मान लेते हैं कि आप दिल्ली के पीएम बन जाते हैं, अब आपको केवल भाजपा-कांग्रेस को ही नहीं, देश की सैकड़ों पार्टियों को किसी ना किसी रूप में झेलना पड़ेगा। आपके सत्ता में आते ही उनके, और जिस मशीनरी के भरोसे आप व्यवस्थाएं सुधारना चाहते हैं, उनके अपने राजनीतिक हित, भ्रष्टाचार की आदतें रातों-रात सुधर नहीं जाने वाली हैं। वैसे आप किसी भी के साथ समझौता ना करने का भी वादा कर चुके हैं, और ‘एकोऽहम् द्वितियो नास्ति’ के सिद्धांत पर चलते हैं। फिर कैसे आप देश को पांच दिन भी चला लेंगे। 
अब ‘आप’ सोचें कि आपने स्वयं का और आप से उम्मीदें लगाये बैठी जनता का कितना नुकसान कर डाला है। बेहतर होता कि आप दिल्ली से ही औरअधिक राजनीतिक अनुभव लेते, तभी आप का भ्रष्टाचार मुक्ति और कथित तौर पर आम आदमी के हाथ में सरकार देने का ख्वाब पूरा होता। आपकी सरकार ने अपने चुनावी वादे निभाते हुए दिल्ली में पानी व बिजली के बिलों में जो कटौती की है, उसे अगली सरकार भी क्रियान्वयित करेगी, इस बात की कोई गारंटी नहीं है। ऐसे में क्या अच्छा ना होता कि दिल्ली की बिन मांगे ही मिली गद्दी पर आप स्वयं को साबित करते। स्वयं को और राजनीतिक रूप से परिपक्व बनाते और फिर अपनी ऊर्जा और शक्तियों का लाभ देश को पहुंचाते। यह जल्दबाजी में कुमाउनी की उक्ति ‘तात्तै खाऊं, जल मरूं’ (गर्मा-गर्म खाकर जल मरूं) की तर्ज पर आत्महत्या करने की क्या जरूरत थी। ऐसे में आप तो ‘आधी छोड़ सारी को धाये, सारी मिले ना आधी पाये’ की तर्ज पर कहीं के न रहे। हाँ, यह जरूर कर लेंगे कि दिल्ली की तरह देश में भी 'वोट कटुवा' पार्टी साबित होकर खंडित जनादेश दिलाएंगे, देश को भी दिल्ली की तरह मध्यावधि चुनावों में धकेलेंगे। 

Friday, February 14, 2014

इस झाड़ू ने तो गंदगी ही अधिक फैला दी....

AAP
खिर वही हुआ, जिसका डर था। केजरीवाल दिल्ली विधानसभा में सरकार बनाना ही नहीं चाहते थे। बहुत मजबूरी-जनदबाव में बनानी पड़ी तो बना ली। और आगे हर कदम, एक कदम सत्ता सुख (बंगला-गाड़ी) बटोरते और फिर मानो याद आते ही ठुकराते चले। क्योंकि नजरें तो दिल्ली की बड़ी कुरसी पर लगी थीं। जन लोकपाल बिल शर्तिया गिर जाएगा, पता था। बिल पास ना होगा तो इस्तीफा दे देंगे, की घोषणा कर चुके थे। बिल विधानसभा के पटल पर रख भी दिया। फिर ठिठके, बिल रखे जाने पर सहमति-असहमति की वोटिंग करवाने को राजी हो गए। इस्तीफा दिया, और चलते बने। किसी ने कहा-पहले ही कहा था, झाड़ू दो-तीन महीने से अधिक नहीं चलती। सफाई भी तब करती है, जब सफाई करने वाले हाथ अनुभवी हों, उन हाथों में सफाई करने की दृढ़ इच्छा शक्ति हो, नीयत हो। और ना हो, तो यही होता है, सफाई कम होती है-गंदगी अधिक फैल जाती है। केजरीवाल सरकार ने 49 दिनों में क्या खोया-क्या पाया, इस पर बिना दिमाग खपाए भी विश्लेषण किया जाए तो हर कोई यही कहेगा-इस झाड़ू ने तो गंदगी ही अधिक फैला दी। 
पहले नां का वादा किया था, लेकिन पहले बड़े डुप्लेक्स, फिर गाड़ियों पर ललचाए। बच्चे की क्रिकेट बॉल से हमला बता दिया। कानून मंत्री खुद ही पुलिस बन कानून तोड़ने लगे। दो पुलिस वालों को हटवाने के लिए धरना दिया, फिर भी उन्हें नहीं हटा पाए। पानी-बिजली के बिल घटाए भी तो सब्सिडी से और आधे किए तो सिर्फ ‘अपनों’ के (वह भी सरकार जाने के बाद पता नहीं होंगे भी या नहीं)। वादे के अनुरूप शीला के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। यानी कुल मिलाकर अपनी साख ही गिराई। जनता को उम्मीद बंधाकर उम्मीदों पर पानी फेर दिया। सरकार बनाते समय तो जनता की राय ली थी, गिराते वक्त राय नहीं ली। मौका था, लेकिन जरूरत ही नहीं समझी। इसका अंदाजा राजनीति के जानने वालों को पहले से ही था।
अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि जो सीएम पद की कुर्सी पर 50 दिन पूरे नहीं कर पाये, क्या पीएम पद की कुर्सी पर 5 साल बैठने का ख्वाब देखने योग्य भी हें। उल्टे कहीं 'आधी छोड़ सारी को धाये, आधी मिले न पूरी पावे' कि उक्ति चरितार्थ हो जाये। 

शुरू से ही अंदेशा था, इससे आगे की पोस्ट केजरीवाल के सरकार बनाने से पूर्व लिखी गयी थी : 

आम आदमी की नहीं अकेले (‘अ’ से अरविंद, ‘के’ से केजरीवा‘ले’ के दिमाग की उपज) की है आप 

सबसे पहले क्या अरविन्द ही इकलौते ‘आम आदमी’ हैं... ?
दिल्ली को मध्यावधि चुनावों की और धकेलने का फैसला अरविन्द केजरीवाल का है या कि ‘कथित आम आदमी’ का ? क्या दिल्ली का ‘आम आदमी’ वाकई यही चाहता है ? या केवल ‘आम आदमी’ के नाम पर ‘आम आदमी’ को ही ‘बेवकूफ’ बना रहे ‘आम आदमी पार्टी’ के सर्वेसर्वा-अरविन्द अपने दम्भ में यह चाहते हैं ? 
नहीं तो ‘आप’ भाजपा को जन लोकपाल व अन्य मुद्दों पर सशर्त समर्थन देने की बात कर रहे प्रशांत और पूर्व सहयोगी रही किरण बेदी की तो सुनते..., क्या वह ‘आम आदमी’ नहीं हैं, या कि अरविन्द ही इकलौते ‘आम आदमी’ हैं ? कांग्रेस ने चुनाव के तत्काल बाद उन्हें बिना शर्त समर्थन देने का ऐलान कर दिया था, उसे भी आप ने नहीं माना। या कि अरविन्द चुनाव पूर्व किसी भी अन्य राजनीतिक दल की तरह, अपने ही किये असम्भव से ‘चुनावी वादों’ को पूरा करने से डर गए हैं ? वैसे भी अपने राजनीतिक गुरु अन्ना हजारे से लेकर किरन बेदी व स्वामी अग्निवेश आदि को एक-एक कर खो चुके अति ऊर्जावान अरविंद केजरीवाल की शख्सियत और उनका इतिहास आश्वस्त नहीं करता कि वह सबको साथ लेकर चल सकते हैं।

आम आदमी ने नहीं अरविंद के दिमाग ने जिताया है ‘आप’ को 
जी हां, भले विश्वास न हो, पर यही सही है। केवल एक सवाल का जवाब इस बात को स्वतः साबित कर सकता है। आम आदमी के प्रतीक-जरूरतें क्या होती हैं, जी हां, रोटी, कपड़ा और मकान। यह प्रतीक व जरूरतें भले आज के दौर में गाड़ी, बंगला भी हो गए हों तो भी झाड़ू तो कभी भी ना होंगे। केजरीवाल ने दिल्ली वालों के बिजली के कटे कनेक्शन जोड़कर और पानी के बड़े बिलों की बात से अपनी राजनीतिक पारी शुरू की थी, सो बिजली के कोई उपकरण यानी पानी के नल जैसे चुनाव चिन्ह भी उनके हो सकते थे, लेकिन ऐसा भी न हुआ। जितने लोग बीते दिनों दिल्ली की गलियों में झाड़ू हाथों में लहराते दिखे, उनमें से महिलाओं को छोड़कर कोई मुश्किल से ही अपने घर में भी झाड़ू लगाकर सफाई करते होंगे। 

लेकिन यही झाड़ू है, जिसने एक खास जाति वर्ग के लोगों को इस चुनाव चिन्ह की बदौलत ही ‘आप’ से जोड़ दिया। क्या यह सही नहीं है। और यह इत्तफाक है या कि सोची समझी रणनीति ? खुद सोच लें। यानी ‘आप’ की राजनीति जातिगत राजनीति से बाहर नहीं निकली है।

अब धर्म-पंथ की राजनीति की बात....
मौजूदा कांग्रेस-भाजपा की राजनीति से बात शुरू करते हैं। हिंदुओं और धारा 370 की बात करने वाली तथा बाबरी विध्वंस व गोधरा की आरोपी भाजपा दूसरे धर्म विशेष की घोषित रूप से दुश्मन नंबर एक है। सो इस धर्म विशेष के लोग उस पार्टी को वोट देते हैं, जिसमें भाजपा को हराने की क्षमता दिखती है, और इस कसौटी पर आम तौर पर लोक सभा चुनावों में कांग्रेस तो यूपी जैसे राज्यों के विधानसभा चुनावों में सपा और बसपा जैसी पार्टियों पर उनकी नेमत बरस पड़ती है। इधर दिल्ली के विस चुनावों में कांग्रेस की डूबती नैया को देखते हुए इस धर्म के मतदाताओं के पास एक ही विकल्प बचा-आप। यह है आप की जीत का दूसरा कारण। और साफ हो गया कि आप ने राजनीति को जाति व धर्म की राजनीति से बाहर नहीं निकाला।

लेकिन इसके साथ ही अब तक देश में कांग्रेस के कुशासन के विकल्प के रूप में मोदी को देख रहे नवमतदाताओं के मन में दिल्ली विस चुनावों के दौरान आप निःसंदेह एक विकल्प के उभरी। अन्ना के आंदोलन और निर्भया मामले में दिल्ली की सड़कों पर उतरे दक्षिणपंथी व राष्ट्रवादी विचारों की राजनीति के इन नवांकुरों को भी लगा कि विस चुनावों में आप को आजमा लिया जाए, और यह फैक्टर भी आप की जीत का एक कारण बना। 

एक अन्य कोण पर दिल्ली में उपभोक्तावाद, पश्चिमीकरण आदि प्रतिमानों के साथ बामपंथी विचारधारा के लोगों के समक्ष अब तक किसी अन्य विकल्प के अभाव में कांग्रेस को ही वोट डालने की मजबूरी रहती थी। इस वर्ग को इस बार के चुनावों में आप अपने अधिक करीब नजर आई। उनके समक्ष अपने प्रभाव क्षेत्रों में खिसकती जमीन को उर्वर और उन्नत बताने की मजबूरी भी थी, सो उन्होंने  भी आप को वोट दिए, और हो गया इस राजनीतिक कॉकटेल से आप का पहले चुनावों में करिश्माई प्रदर्शन।

भविष्य की चिंताएं...
अब यह भी देख लें कि दिल्ली की जनता से प्रति परिवार प्रतिदिन 700 लीटर पीने का पानी और मौजूदा से आधी दर पर बिजली देने का वादा करने के बाद किसी तरह उसे पूरा करने का जोखिम लेने से बच रही आप का भविष्य क्या हो सकता है। 

देश के लोकतांत्रिक राजनीतिक इतिहास में यह 70 के दशक से ही देखा जा रहा है कि जिस दल या उसके नेता ने देश या किसी राज्य को अपनी हठधर्मिता के कारण मध्यावधि चुनाव की आग में धकेला उसका हश्र क्या हुआ। फरवरी-2005 के बिहार विधानसभा के चुनाव में आप की ही तरह राजद से अलग होकर बंगला चुनाव चिन्ह के साथ रामविलास पासवान अपनी लोक जन शक्ति पार्टी-लोजपा को 29 विधायक जिता लाए थे, लेकिन उन्होंने नितीश कुमार को समर्थन नहीं दिया, फलस्वरूप बिहार में राष्ट्रपति शासन लग गया, जिसके बाद अक्टूबर-2005 में हुए मध्यावधि चुनाव में लोजपा 10 सीटों पर और आगे 2010 के चुनाव में महज 4 सीटों पर सिमट गई, बाद में उनमें से भी तीन विधायक जदयू में शामिल हो गए। देश को मध्यावधि चुनावों की ओर धकेलने वाली मोरारजी देसाई सरकार के साथ भी यही कुछ हुआ था।

आप की तरह आंध्र में 1983 में ‘तेलुगु देशम’ और 1985 में असम में तब महज छात्र संघ रहे प्रफुल्ल कुमार महंत की अगुवाई वाले ‘असम गंण परिषद’ ने अनुपात की दृष्टि से आप से भी अधिक सीटें हासिल की थीं, लेकिन बाद में वह भी मुख्य धारा की राजनीति में ही बिला गईं। 

आप वर्तमान दौर में एक-दूसरे के कार्बन कॉपी कहे जाने वाले कांग्रेस-भाजपा जैसे मौजूदा राजनीतिक दलों के बीच जनता में उपजी राजनीतिक थकान के बीच नई ऊर्जा का संचार करती हुई उम्मीद तो जगाती है, लेकिन अपने मुखिया और ना कहते हुए भी ‘एकोऽहम् द्वितियो नास्ति’ के पुरोधा नजर आ रहे अरविंद केजरीवाल के दंभ से डरा भी रही है, कि वह अपने पहले कदम से ही मौजूदा अन्य राजनीतिक दलों जैसा ही व्यवहार कर रही है। चुनाव परिणामों के बाद भाजपा की ही तरह उसने भी आम जनता की भावनाओं नहीं वरन राजनीतिक नफा-नुकसान देखकर सरकार बनाने से तौबा कर ली है। चुनाव के दौरान उसने कांग्रेस को निसाने पर लिया, और भाजपा के खिलाफ मुंह नहीं खोला, क्योंकि यहां उसे कांग्रेस को सत्ता से च्युत करना था और इस लड़ाई में उसके साथ मोदी को प्रधानमंत्री देखने वाले युवा भी थे। और परिणाम आने से हौंसले बुलंद होने के बाद भाजपा को नंबर वन दुश्मन करार दे दिया है, क्योंकि यहां से उन्हें लगता है कि आज के दौर के बड़े दुश्मन को वह हरा चुके हैं, और इस ताकत से वह अपने बड़े दुश्मन से भी पार पा लेंगे, नहीं भी तो इस लोक सभा चुनाव में अपनी राष्ट्रीय पहचान तो बना ही लेंगे। 

और आखिर में केवला इतना कि एक राजनीतिक दल के रूप में 'आप' जो कर रही है, उससे किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि उसे एक राजनीतिक दल के रूप में राजनीतिक नफे-नुकसान का हिसाब लगाकर हर निर्णय लेने की स्वतंत्रता और पूर्ण अधिकार है। बस अगर वह ‘आम आदमी’ का नाम लेकर ढोंग करेगी तो शायद जनता उसे दूसरा मौका नहीं देगी। 

कैसे बना अरविंद केजरीवाल , जानिए पूरी कहानी!

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली एनजीओ गिरोह ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी)’ ने घोर सांप्रदायिक ‘सांप्रदायिक और लक्ष्य केंद्रित हिंसा निवारण अधिनियम’ का ड्राफ्ट तैयार किया है। एनएसी की एक प्रमुख सदस्य अरुणा राय के साथ मिलकर अरविंद केजरीवाल ने सरकारी नौकरी में रहते हुए एनजीओ की कार्यप्रणाली समझी और फिर ‘परिवर्तन’ नामक एनजीओ से जुड़ गए। अरविंद लंबे अरसे तक राजस्व विभाग से छुटटी लेकर भी सरकारी तनख्वाह ले रहे थे और एनजीओ से भी वेतन उठा रहे थे, जो ‘श्रीमान ईमानदार’ को कानूनन भ्रष्टा चारी की श्रेणी में रखता है। वर्ष 2006 में ‘परिवर्तन’ में काम करने के दौरान ही उन्हें अमेरिकी ‘फोर्ड फाउंडेशन’ व ‘रॉकफेलर ब्रदर्स फंड’ ने ‘उभरते नेतृत्व’ के लिए ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ पुरस्कार दिया, जबकि उस वक्त तक अरविंद ने ऐसा कोई काम नहीं किया था, जिसे उभरते हुए नेतृत्व का प्रतीक माना जा सके। इसके बाद अरविंद अपने पुराने सहयोगी मनीष सिसोदिया के एनजीओ ‘कबीर’ से जुड़ गए, जिसका गठन इन दोनों ने मिलकर वर्ष 2005 में किया था।
अरविंद को समझने से पहले ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ को समझ लीजिए!
अमेरिकी नीतियों को पूरी दुनिया में लागू कराने के लिए अमेरिकी खुफिया ब्यूरो ‘सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए)’ अमेरिका की मशहूर कार निर्माता कंपनी ‘फोर्ड’ द्वारा संचालित ‘फोर्ड फाउंडेशन’ एवं कई अन्य फंडिंग एजेंसी के साथ मिलकर काम करती रही है। 1953 में फिलिपिंस की पूरी राजनीति व चुनाव को सीआईए ने अपने कब्जे में ले लिया था। भारतीय अरविंद केजरीवाल की ही तरह सीआईए ने उस वक्त फिलिपिंस में ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ को खड़ा किया था और उन्हें फिलिपिंस का राष्ट्रपति बनवा दिया था। अरविंद केजरीवाल की ही तरह ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ का भी पूर्व का कोई राजनैतिक इतिहास नहीं था। ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ के जरिए फिलिपिंस की राजनीति को पूरी तरह से अपने कब्जे में करने के लिए अमेरिका ने उस जमाने में प्रचार के जरिए उनका राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय ‘छवि निर्माण’ से लेकर उन्हें ‘नॉसियोनालिस्टा पार्टी’ का उम्मीदवार बनाने और चुनाव जिताने के लिए करीब 5 मिलियन डॉलर खर्च किया था। तत्कालीन सीआईए प्रमुख एलन डॉउल्स की निगरानी में इस पूरी योजना को उस समय के सीआईए अधिकारी ‘एडवर्ड लैंडस्ले’ ने अंजाम दिया था। इसकी पुष्टि 1972 में एडवर्ड लैंडस्ले द्वारा दिए गए एक साक्षात्कार में हुई।
ठीक अरविंद केजरीवाल की ही तरह रेमॉन मेग्सेसाय की ईमानदार छवि को गढ़ा गया और ‘डर्टी ट्रिक्स’ के जरिए विरोधी नेता और फिलिपिंस के तत्कालीन राष्ट्रपति ‘क्वायरिनो’ की छवि धूमिल की गई। यह प्रचारित किया गया कि क्वायरिनो भाषण देने से पहले अपना आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए ड्रग का उपयोग करते हैं। रेमॉन मेग्सेसाय की ‘गढ़ी गई ईमानदार छवि’ और क्वायरिनो की ‘कुप्रचारित पतित छवि’ ने रेमॉन मेग्सेसाय को दो तिहाई बहुमत से जीत दिला दी और अमेरिका अपने मकसद में कामयाब रहा था। भारत में इस समय अरविंद केजरीवाल बनाम अन्य राजनीतिज्ञों की बीच अंतर दर्शाने के लिए छवि गढ़ने का जो प्रचारित खेल चल रहा है वह अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए द्वारा अपनाए गए तरीके और प्रचार से बहुत कुछ मेल खाता है।
उन्हीं ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ के नाम पर एशिया में अमेरिकी नीतियों के पक्ष में माहौल बनाने वालों, वॉलेंटियर तैयार करने वालों, अपने देश की नीतियों को अमेरिकी हित में प्रभावित करने वालों, भ्रष्टायचार के नाम पर देश की चुनी हुई सरकारों को अस्थिर करने वालों को ‘फोर्ड फाउंडेशन’ व ‘रॉकफेलर ब्रदर्स फंड’ मिलकर अप्रैल 1957 से ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ अवार्ड प्रदान कर रही है। ‘आम आदमी पार्टी’ के संयोजक अरविंद केजरीवाल और उनके साथी व ‘आम आदमी पार्टी’ के विधायक मनीष सिसोदिया को भी वही ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ पुरस्कार मिला है और सीआईए के लिए फंडिंग करने वाली उसी ‘फोर्ड फाउंडेशन’ के फंड से उनका एनजीओ ‘कबीर’ और ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ मूवमेंट खड़ा हुआ है।
भारत में राजनैतिक अस्थिरता के लिए एनजीओ और मीडिया में विदेशी फंडिंग! 
‘फोर्ड फाउंडेशन’ के एक अधिकारी स्टीवन सॉलनिक के मुताबिक ‘‘कबीर को फोर्ड फाउंडेशन की ओर से वर्ष 2005 में 1 लाख 72 हजार डॉलर एवं वर्ष 2008 में 1 लाख 97 हजार अमेरिकी डॉलर का फंड दिया गया।’’ यही नहीं, ‘कबीर’ को ‘डच दूतावास’ से भी मोटी रकम फंड के रूप में मिली। अमेरिका के साथ मिलकर नीदरलैंड भी अपने दूतावासों के जरिए दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में अमेरिकी-यूरोपीय हस्तक्षेप बढ़ाने के लिए वहां की गैर सरकारी संस्थाओं यानी एनजीओ को जबरदस्त फंडिंग करती है।
अंग्रेजी अखबार ‘पॉयनियर’ में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक डच यानी नीदरलैंड दूतावास अपनी ही एक एनजीओ ‘हिवोस’ के जरिए नरेंद्र मोदी की गुजरात सरकार को अस्थिर करने में लगे विभिन्‍न भारतीय एनजीओ को अप्रैल 2008 से 2012 के बीच लगभग 13 लाख यूरो, मतलब करीब सवा नौ करोड़ रुपए की फंडिंग कर चुकी है। इसमें एक अरविंद केजरीवाल का एनजीओ भी शामिल है। ‘हिवोस’ को फोर्ड फाउंडेशन भी फंडिंग करती है।
डच एनजीओ ‘हिवोस’ दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में केवल उन्हीं एनजीओ को फंडिंग करती है,जो अपने देश व वहां के राज्यों में अमेरिका व यूरोप के हित में राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने की क्षमता को साबित करते हैं। इसके लिए मीडिया हाउस को भी जबरदस्त फंडिंग की जाती है। एशियाई देशों की मीडिया को फंडिंग करने के लिए अमेरिका व यूरोपीय देशों ने ‘पनोस’ नामक संस्था का गठन कर रखा है। दक्षिण एशिया में इस समय ‘पनोस’ के करीब आधा दर्जन कार्यालय काम कर रहे हैं। ‘पनोस’ में भी फोर्ड फाउंडेशन का पैसा आता है। माना जा रहा है कि अरविंद केजरीवाल के मीडिया उभार के पीछे इसी ‘पनोस’ के जरिए ‘फोर्ड फाउंडेशन’ की फंडिंग काम कर रही है। ‘सीएनएन-आईबीएन’ व ‘आईबीएन-7’ चैनल के प्रधान संपादक राजदीप सरदेसाई ‘पॉपुलेशन काउंसिल’ नामक संस्था के सदस्य हैं, जिसकी फंडिंग अमेरिका की वही ‘रॉकफेलर ब्रदर्स’ करती है जो ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ पुरस्कार के लिए ‘फोर्ड फाउंडेशन’ के साथ मिलकर फंडिंग करती है।
माना जा रहा है कि ‘पनोस’ और ‘रॉकफेलर ब्रदर्स फंड’ की फंडिंग का ही यह कमाल है कि राजदीप सरदेसाई का अंग्रेजी चैनल ‘सीएनएन-आईबीएन’ व हिंदी चैनल ‘आईबीएन-7’ न केवल अरविंद केजरीवाल को ‘गढ़ने’ में सबसे आगे रहे हैं, बल्कि 21 दिसंबर 2013 को ‘इंडियन ऑफ द ईयर’ का पुरस्कार भी उसे प्रदान किया है। ‘इंडियन ऑफ द ईयर’ के पुरस्कार की प्रयोजक कंपनी ‘जीएमआर’ भ्रष्टािचार में में घिरी है।
‘जीएमआर’ के स्वामित्व वाली ‘डायल’ कंपनी ने देश की राजधानी दिल्ली में इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा विकसित करने के लिए यूपीए सरकार से महज 100 रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से जमीन हासिल किया है। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ‘सीएजी’ ने 17 अगस्त 2012 को संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जीएमआर को सस्ते दर पर दी गई जमीन के कारण सरकारी खजाने को 1 लाख 63 हजार करोड़ रुपए का चूना लगा है। इतना ही नहीं, रिश्वत देकर अवैध तरीके से ठेका हासिल करने के कारण ही मालदीव सरकार ने अपने देश में निर्मित हो रहे माले हवाई अड्डा का ठेका जीएमआर से छीन लिया था। सिंगापुर की अदालत ने जीएमआर कंपनी को भ्रष्टााचार में शामिल होने का दोषी करार दिया था। तात्पर्य यह है कि अमेरिकी-यूरोपीय फंड, भारतीय मीडिया और यहां यूपीए सरकार के साथ घोटाले में साझीदार कारपोरेट कंपनियों ने मिलकर अरविंद केजरीवाल को ‘गढ़ा’ है, जिसका मकसद आगे पढ़ने पर आपको पता चलेगा।
‘जनलोकपाल आंदोलन’ से ‘आम आदमी पार्टी’ तक का शातिर सफर!
आरोप है कि विदेशी पुरस्कार और फंडिंग हासिल करने के बाद अमेरिकी हित में अरविंद केजरीवाल व मनीष सिसोदिया ने इस देश को अस्थिर करने के लिए ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ का नारा देते हुए वर्ष 2011 में ‘जनलोकपाल आंदोलन’ की रूप रेखा खिंची। इसके लिए सबसे पहले बाबा रामदेव का उपयोग किया गया, लेकिन रामदेव इन सभी की मंशाओं को थोड़ा-थोड़ा समझ गए थे। स्वामी रामदेव के मना करने पर उनके मंच का उपयोग करते हुए महाराष्ट्र के सीधे-साधे, लेकिन भ्रष्टानचार के विरुद्ध कई मुहीम में सफलता हासिल करने वाले अन्ना हजारे को अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली से उत्तर भारत में ‘लॉंच’ कर दिया। अन्ना हजारे को अरिवंद केजरीवाल की मंशा समझने में काफी वक्त लगा, लेकिन तब तक जनलोकपाल आंदोलन के बहाने अरविंद ‘कांग्रेस पार्टी व विदेशी फंडेड मीडिया’ के जरिए देश में प्रमुख चेहरा बन चुके थे। जनलोकपाल आंदोलन के दौरान जो मीडिया अन्ना-अन्ना की गाथा गा रही थी, ‘आम आदमी पार्टी’ के गठन के बाद वही मीडिया अन्ना को असफल साबित करने और अरविंद केजरीवाल के महिमा मंडन में जुट गई।
विदेशी फंडिंग तो अंदरूनी जानकारी है, लेकिन उस दौर से लेकर आज तक अरविंद केजरीवाल को प्रमोट करने वाली हर मीडिया संस्थान और पत्रकारों के चेहरे को गौर से देखिए। इनमें से अधिकांश वो हैं, जो कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के द्वारा अंजाम दिए गए 1 लाख 76 हजार करोड़ के 2जी स्पेक्ट्रम, 1 लाख 86 हजार करोड़ के कोल ब्लॉक आवंटन, 70 हजार करोड़ के कॉमनवेल्थ गेम्स और ‘कैश फॉर वोट’ घोटाले में समान रूप से भागीदार हैं।
आगे बढ़ते हैं…! अन्ना जब अरविंद और मनीष सिसोदिया के पीछे की विदेशी फंडिंग और उनकी छुपी हुई मंशा से परिचित हुए तो वह अलग हो गए, लेकिन इसी अन्ना के कंधे पर पैर रखकर अरविंद अपनी ‘आम आदमी पार्टी’ खड़ा करने में सफल रहे। जनलोकपाल आंदोलन के पीछे ‘फोर्ड फाउंडेशन’ के फंड को लेकर जब सवाल उठने लगा तो अरविंद-मनीष के आग्रह व न्यूयॉर्क स्थित अपने मुख्यालय के आदेश पर फोर्ड फाउंडेशन ने अपनी वेबसाइट से ‘कबीर’ व उसकी फंडिंग का पूरा ब्यौरा ही हटा दिया। लेकिन उससे पहले अन्ना आंदोलन के दौरान 31 अगस्त 2011 में ही फोर्ड के प्रतिनिधि स्टीवेन सॉलनिक ने ‘बिजनस स्टैंडर’ अखबार में एक साक्षात्कार दिया था, जिसमें यह कबूल किया था कि फोर्ड फाउंडेशन ने ‘कबीर’ को दो बार में 3 लाख 69 हजार डॉलर की फंडिंग की है। स्टीवेन सॉलनिक के इस साक्षात्कार के कारण यह मामला पूरी तरह से दबने से बच गया और अरविंद का चेहरा कम संख्या में ही सही, लेकिन लोगों के सामने आ गया।
सूचना के मुताबिक अमेरिका की एक अन्य संस्था ‘आवाज’ की ओर से भी अरविंद केजरीवाल को जनलोकपाल आंदोलन के लिए फंड उपलब्ध कराया गया था और इसी ‘आवाज’ ने दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए भी अरविंद केजरीवाल की ‘आम आदमी पार्टी’ को फंड उपलब्ध कराया। सीरिया, इजिप्ट, लीबिया आदि देश में सरकार को अस्थिर करने के लिए अमेरिका की इसी ‘आवाज’ संस्था ने वहां के एनजीओ, ट्रस्ट व बुद्धिजीवियों को जमकर फंडिंग की थी। इससे इस विवाद को बल मिलता है कि अमेरिका के हित में हर देश की पॉलिसी को प्रभावित करने के लिए अमेरिकी संस्था जिस ‘फंडिंग का खेल’ खेल खेलती आई हैं, भारत में अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और ‘आम आदमी पार्टी’ उसी की देन हैं।
सुप्रीम कोर्ट के वकील एम.एल.शर्मा ने अरविंद केजरीवाल व मनीष सिसोदिया के एनजीओ व उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ में चुनावी चंदे के रूप में आए विदेशी फंडिंग की पूरी जांच के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दाखिल कर रखी है। अदालत ने इसकी जांच का निर्देश दे रखा है, लेकिन केंद्रीय गृहमंत्रालय इसकी जांच कराने के प्रति उदासीनता बरत रही है, जो केंद्र सरकार को संदेह के दायरे में खड़ा करता है। वकील एम.एल.शर्मा कहते हैं कि ‘फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट-2010’ के मुताबिक विदेशी धन पाने के लिए भारत सरकार की अनुमति लेना आवश्यक है। यही नहीं, उस राशि को खर्च करने के लिए निर्धारित मानकों का पालन करना भी जरूरी है। कोई भी विदेशी देश चुनावी चंदे या फंड के जरिए भारत की संप्रभुता व राजनैतिक गतिविधियों को प्रभावित नहीं कर सके, इसलिए यह कानूनी प्रावधान किया गया था, लेकिन अरविंद केजरीवाल व उनकी टीम ने इसका पूरी तरह से उल्लंघन किया है। बाबा रामदेव के खिलाफ एक ही दिन में 80 से अधिक मुकदमे दर्ज करने वाली कांग्रेस सरकार की उदासीनता दर्शाती है कि अरविंद केजरीवाल को वह अपने राजनैतिक फायदे के लिए प्रोत्साहित कर रही है।
अमेरिकी ‘कल्चरल कोल्ड वार’ के हथियार हैं अरविंद केजरीवाल!
फंडिंग के जरिए पूरी दुनिया में राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने की अमेरिका व उसकी खुफिया एजेंसी ‘सीआईए’ की नीति को ‘कल्चरल कोल्ड वार’ का नाम दिया गया है। इसमें किसी देश की राजनीति, संस्कृति व उसके लोकतंत्र को अपने वित्त व पुरस्कार पोषित समूह, एनजीओ, ट्रस्ट, सरकार में बैठे जनप्रतिनिधि, मीडिया और वामपंथी बुद्धिजीवियों के जरिए पूरी तरह से प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है। अरविंद केजरीवाल ने ‘सेक्यूलरिज्म’ के नाम पर इसकी पहली झलक अन्ना के मंच से ‘भारत माता’ की तस्वीर को हटाकर दे दिया था। चूंकि इस देश में भारत माता के अपमान को ‘सेक्यूलरिज्म का फैशनेबल बुर्का’ समझा जाता है, इसलिए वामपंथी बुद्धिजीवी व मीडिया बिरादरी इसे अरविंद केजरीवाल की धर्मनिरपेक्षता साबित करने में सफल रही।
एक बार जो धर्मनिरपेक्षता का गंदा खेल शुरू हुआ तो फिर चल निकला और ‘आम आदमी पार्टी’ के नेता प्रशांत भूषण ने तत्काल कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का सुझाव दे दिया। प्रशांत भूषण यहीं नहीं रुके, उन्होंने संसद हमले के मुख्य दोषी अफजल गुरु की फांसी का विरोध करते हुए यह तक कह दिया कि इससे भारत का असली चेहरा उजागर हो गया है। जैसे वह खुद भारत नहीं, बल्कि किसी दूसरे देश के नागरिक हों?
प्रशांत भूषण लगातार भारत विरोधी बयान देते चले गए और मीडिया व वामपंथी बुद्धिजीवी उनकी आम आदमी पार्टी को ‘क्रांतिकारी सेक्यूलर दल’ के रूप में प्रचारित करने लगी। प्रशांत भूषण को हौसला मिला और उन्होंने केंद्र सरकार से कश्मीर में लागू एएफएसपीए कानून को हटाने की मांग करते हुए कह दिया कि सेना ने कश्मीरियों को इस कानून के जरिए दबा रखा है। इसके उलट हमारी सेना यह कह चुकी है कि यदि इस कानून को हटाया जाता है तो अलगाववादी कश्मीर में हावी हो जाएंगे।
अमेरिका का हित इसमें है कि कश्मीर अस्थिर रहे या पूरी तरह से पाकिस्तान के पाले में चला जाए ताकि अमेरिका यहां अपना सैन्य व निगरानी केंद्र स्थापित कर सके। यहां से दक्षिण-पश्चिम व दक्षिण-पूर्वी एशिया व चीन पर नजर रखने में उसे आसानी होगी। आम आदमी पार्टी के नेता प्रशांत भूषण अपनी झूठी मानवाधिकारवादी छवि व वकालत के जरिए इसकी कोशिश पहले से ही करते रहे हैं और अब जब उनकी ‘अपनी राजनैतिक पार्टी’ हो गई है तो वह इसे राजनैतिक रूप से अंजाम देने में जुटे हैं। यह एक तरह से ‘लिटमस टेस्ट’ था, जिसके जरिए आम आदमी पार्टी ‘ईमानदारी’ और ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ का ‘कॉकटेल’ तैयार कर रही थी।
8 दिसंबर 2013 को दिल्ली की 70 सदस्यीय विधानसभा चुनाव में 28 सीटें जीतने के बाद अपनी सरकार बनाने के लिए अरविंद केजरीवाल व उनकी पार्टी द्वारा आम जनता को अधिकार देने के नाम पर जनमत संग्रह का जो नाटक खेला गया, वह काफी हद तक इस ‘कॉकटेल’ का ही परीक्षण है। सवाल उठने लगा है कि यदि देश में आम आदमी पार्टी की सरकार बन जाए और वह कश्मीर में जनमत संग्रह कराते हुए उसे पाकिस्तान के पक्ष में बता दे तो फिर क्या होगा?
आखिर जनमत संग्रह के नाम पर उनके ‘एसएमएस कैंपेन’ की पारदर्शिता ही कितनी है? अन्ना हजारे भी एसएमएस कार्ड के नाम पर अरविंद केजरीवाल व उनकी पार्टी द्वारा की गई धोखाधड़ी का मामला उठा चुके हैं। दिल्ली के पटियाला हाउस अदालत में अन्ना व अरविंद को पक्षकार बनाते हुए एसएमएस कार्ड के नाम पर 100 करोड़ के घोटाले का एक मुकदमा दर्ज है। इस पर अन्ना ने कहा, ‘‘मैं इससे दुखी हूं, क्योंकि मेरे नाम पर अरविंद के द्वारा किए गए इस कार्य का कुछ भी पता नहीं है और मुझे अदालत में घसीट दिया गया है, जो मेरे लिए बेहद शर्म की बात है।’’
प्रशांत भूषण, अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और उनके ‘पंजीकृत आम आदमी’ ने जब देखा कि ‘भारत माता’ के अपमान व कश्मीर को भारत से अलग करने जैसे वक्तव्य पर ‘मीडिया-बुद्धिजीवी समर्थन का खेल’ शुरू हो चुका है तो उन्होंने अपनी ईमानदारी की चासनी में कांग्रेस के छद्म सेक्यूलरवाद को मिला लिया। उनके बयान देखिए, प्रशांत भूषण ने कहा, ‘इस देश में हिंदू आतंकवाद चरम पर है’, तो प्रशांत के सुर में सुर मिलाते हुए अरविंद ने कहा कि ‘बाटला हाउस एनकाउंटर फर्जी था और उसमें मारे गए मुस्लिम युवा निर्दोष थे।’ इससे दो कदम आगे बढ़ते हुए अरविंद केजरीवाल उत्तरप्रदेश के बरेली में दंगा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार हो चुके तौकीर रजा और जामा मस्जिद के मौलाना इमाम बुखारी से मिलकर समर्थन देने की मांग की।
याद रखिए, यही इमाम बुखरी हैं, जो खुले आम दिल्ली पुलिस को चुनौती देते हुए कह चुके हैं कि ‘हां, मैं पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का एजेंट हूं, यदि हिम्मत है तो मुझे गिरफ्तार करके दिखाओ।’ उन पर कई आपराधिक मामले दर्ज हैं, अदालत ने उन्हें भगोड़ा घोषित कर रखा है लेकिन दिल्ली पुलिस की इतनी हिम्मत नहीं है कि वह जामा मस्जिद जाकर उन्हें गिरफ्तार कर सके। वहीं तौकीर रजा का पुराना सांप्रदायिक इतिहास है। वह समय-समय पर कांग्रेस और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के पक्ष में मुसलमानों के लिए फतवा जारी करते रहे हैं। इतना ही नहीं, वह मशहूर बंग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन की हत्या करने वालों को ईनाम देने जैसा घोर अमानवीय फतवा भी जारी कर चुके हैं।
नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए फेंका गया ‘आखिरी पत्ता’ हैं अरविंद! 
दरअसल विदेश में अमेरिका, सउदी अरब व पाकिस्तान और भारत में कांग्रेस व क्षेत्रीय पाटियों की पूरी कोशिश नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभाव को रोकने की है। मोदी न अमेरिका के हित में हैं, न सउदी अरब व पाकिस्तान के हित में और न ही कांग्रेस पार्टी व धर्मनिरेपक्षता का ढोंग करने वाली क्षेत्रीय पार्टियों के हित में। मोदी के आते ही अमेरिका की एशिया केंद्रित पूरी विदेश, आर्थिक व रक्षा नीति तो प्रभावित होगी ही, देश के अंदर लूट मचाने में दशकों से जुटी हुई पार्टियों व नेताओं के लिए भी जेल यात्रा का माहौल बन जाएगा। इसलिए उसी भ्रष्टामचार को रोकने के नाम पर जनता का भावनात्मक दोहन करते हुए ईमानदारी की स्वनिर्मित धरातल पर ‘आम आदमी पार्टी’ का निर्माण कराया गया है।
दिल्ली में भ्रष्टाीचार और कुशासन में फंसी कांग्रेस की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की 15 वर्षीय सत्ता के विरोध में उत्पन्न लहर को भाजपा के पास सीधे जाने से रोककर और फिर उसी कांग्रेस पार्टी के सहयोग से ‘आम आदमी पार्टी’ की सरकार बनाने का ड्रामा रचकर अरविंद केजरीवाल ने भाजपा को रोकने की अपनी क्षमता को दर्शा दिया है। अरविंद केजरीवाल द्वारा सरकार बनाने की हामी भरते ही केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा, ‘‘भाजपा के पास 32 सीटें थी, लेकिन वो बहुमत के लिए 4 सीटों का जुगाड़ नहीं कर पाई। हमारे पास केवल 8 सीटें थीं, लेकिन हमने 28 सीटों का जुगाड़ कर लिया और सरकार भी बना ली।’’
कपिल सिब्बल का यह बयान भाजपा को रोकने के लिए अरविंद केजरीवाल और उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ को खड़ा करने में कांग्रेस की छुपी हुई भूमिका को उजागर कर देता है। वैसे भी अरविंद केजरीवाल और शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित एनजीओ के लिए साथ काम कर चुके हैं। तभी तो दिसंबर-2011 में अन्ना आंदोलन को समाप्त कराने की जिम्मेवारी यूपीए सरकार ने संदीप दीक्षित को सौंपी थी। ‘फोर्ड फाउंडेशन’ ने अरविंद व मनीष सिसोदिया के एनजीओ को 3 लाख 69 हजार डॉलर तो संदीप दीक्षित के एनजीओ को 6 लाख 50 हजार डॉलर का फंड उपलब्ध कराया है। शुरू-शुरू में अरविंद केजरीवाल को कुछ मीडिया हाउस ने शीला-संदीप का ‘ब्रेन चाइल्ड’ बताया भी था, लेकिन यूपीए सरकार का इशारा पाते ही इस पूरे मामले पर खामोशी अख्तियार कर ली गई।
‘आम आदमी पार्टी’ व उसके नेता अरविंद केजरीवाल की पूरी मंशा को इस पार्टी के संस्थापक सदस्य व प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण ने ‘मेल टुडे’ अखबार में लिखे अपने एक लेख में जाहिर भी कर दिया था, लेकिन बाद में प्रशांत-अरविंद के दबाव के कारण उन्होंने अपने ही लेख से पल्ला झाड़ लिया और ‘मेल टुडे’ अखबार के खिलाफ मुकदमा कर दिया। ‘मेल टुडे’ से जुड़े सूत्र बताते हैं कि यूपीए सरकार के एक मंत्री के फोन पर ‘टुडे ग्रुप’ ने भी इसे झूठ कहने में समय नहीं लगाया, लेकिन तब तक इस लेख के जरिए नरेंद्र मोदी को रोकने लिए ‘कांग्रेस-केजरी’ गठबंधन की समूची साजिश का पर्दाफाश हो गया। यह अलग बात है कि कम प्रसार संख्या और अंग्रेजी में होने के कारण ‘मेल टुडे’ के लेख से बड़ी संख्या में देश की जनता अवगत नहीं हो सकी, इसलिए उस लेख के प्रमुख हिस्से को मैं यहां जस का तस रख रहा हूं, जिसमें नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए गठित ‘आम आदमी पार्टी’ की असलियत का पूरा ब्यौरा है।
शांति भूषण ने इंडिया टुडे समूह के अंग्रेजी अखबार ‘मेल टुडे’ में लिखा था, ‘‘अरविंद केजरीवाल ने बड़ी ही चतुराई से भ्रष्टामचार के मुद्दे पर भाजपा को भी निशाने पर ले लिया और उसे कांग्रेस के समान बता डाला। वहीं खुद वह सेक्यूलरिज्म के नाम पर मुस्लिम नेताओं से मिले ताकि उन मुसलमानों को अपने पक्ष में कर सकें जो बीजेपी का विरोध तो करते हैं, लेकिन कांग्रेस से उकता गए हैं। केजरीवाल और आम आदमी पार्टी उस अन्ना हजारे के आंदोलन की देन हैं जो कांग्रेस के करप्शन और मनमोहन सरकार की कारगुजारियों के खिलाफ शुरू हुआ था। लेकिन बाद में अरविंद केजरीवाल की मदद से इस पूरे आंदोलन ने अपना रुख मोड़कर बीजेपी की तरफ कर दिया, जिससे जनता कंफ्यूज हो गई और आंदोलन की धार कुंद पड़ गई।’’
‘‘आंदोलन के फ्लॉप होने के बाद भी केजरीवाल ने हार नहीं मानी। जिस राजनीति का वह कड़ा विरोध करते रहे थे, उन्होंने उसी राजनीति में आने का फैसला लिया। अन्ना इससे सहमत नहीं हुए । अन्ना की असहमति केजरीवाल की महत्वाकांक्षाओं की राह में रोड़ा बन गई थी। इसलिए केजरीवाल ने अन्ना को दरकिनार करते हुए ‘आम आदमी पार्टी’ के नाम से पार्टी बना ली और इसे दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों के खिलाफ खड़ा कर दिया। केजरीवाल ने जानबूझ कर शरारतपूर्ण ढंग से नितिन गडकरी के भ्रष्टािचार की बात उठाई और उन्हें कांग्रेस के भ्रष्टा नेताओं की कतार में खड़ा कर दिया ताकि खुद को ईमानदार व सेक्यूलर दिखा सकें। एक खास वर्ग को तुष्ट करने के लिए बीजेपी का नाम खराब किया गया। वर्ना बीजेपी तो सत्ता के आसपास भी नहीं थी, ऐसे में उसके भ्रष्टा चार का सवाल कहां पैदा होता है?’’
‘‘बीजेपी ‘आम आदमी पार्टी’ को नजरअंदाज करती रही और इसका केजरीवाल ने खूब फायदा उठाया। भले ही बाहर से वह कांग्रेस के खिलाफ थे, लेकिन अंदर से चुपचाप भाजपा के खिलाफ जुटे हुए थे। केजरीवाल ने लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल करते हुए इसका पूरा फायदा दिल्ली की चुनाव में उठाया और भ्रष्टावचार का आरोप बड़ी ही चालाकी से कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा पर भी मढ़ दिया। ऐसा उन्होंने अल्पसंख्यक वोट बटोरने के लिए किया।’’
‘‘दिल्ली की कामयाबी के बाद अब अरविंद केजरीवाल राष्ट्रीय राजनीति में आने जा रहे हैं। वह सिर्फ भ्रष्टाीचार की बात कर रहे हैं, लेकिन गवर्नेंस का मतलब सिर्फ भ्रष्टाेचार का खात्मा करना ही नहीं होता। कांग्रेस की कारगुजारियों की वजह से भ्रष्टालचार के अलावा भी कई सारी समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं। खराब अर्थव्यवस्था, बढ़ती कीमतें, पड़ोसी देशों से रिश्ते और अंदरूनी लॉ एंड ऑर्डर समेत कई चुनौतियां हैं। इन सभी चुनौतियों को बिना वक्त गंवाए निबटाना होगा।’’

‘‘मनमोहन सरकार की नाकामी देश के लिए मुश्किल बन गई है। नरेंद्र मोदी इसलिए लोगों की आवाज बन रहे हैं, क्योंकि उन्होंने इन समस्याओं से जूझने और देश का सम्मान वापस लाने का विश्वास लोगों में जगाया है। मगर केजरीवाल गवर्नेंस के व्यापक अर्थ से अनभिज्ञ हैं। केजरीवाल की प्राथमिकता देश की राजनीति को अस्थिर करना और नरेंद्र मोदी को सत्ता में आने से रोकना है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अगर मोदी एक बार सत्ता में आ गए तो कांग्रेस की दुकान हमेशा के लिए बंद हो जाएगी।’’
साभार: Shashi Kant Kansal