Sunday, January 10, 2010

क्या रिपोर्टर को फांसी पर लटका देना चाहिए ?

गत दिवस एक न्यूज़ चैनल पर आयी खबर पर रिपोर्टर व चैनेल के खिलाफ कार्रवाई की मांग उठी है. मैं पूछता हूँ, क्या रिपोर्टर को फांसी पर लटका देना चाहिए ?

घटना के अनुसार एक पुलिस सब इंस्पेक्टर की समय पर चिकित्सा सहायता न होने से मौत हो गयी. कल रास्ते में कुछ अपराधियों ने इस पुलिस कर्मचारी की टांग काट दी थी. वह घायल अवस्था में सड़क पर ही पड़ा रहा. कुछ ही देर में दो मंत्रियों का काफिला वहां से गुजरा, साथ में कलक्टर साहब भी थे. पर किसी ने उसे अस्पताल पहुचाने की जहमत नहीं उठाई. कलक्टर साहब ने काफी देर बाद अबुलेंस को फ़ोन किया पर जब बीस मिनट तक अबुलेंस नहीं आई तो लोग पुलिस कर्मचारी को उठा कर अपनी ही गाड़ी में ले गए पर तब तक देर हो चुकी थी और अधिक खून बह जाने के कारण उसकी मौत हो गयी. मेरा कहना है, जो काम जिसका है वही ठीक से करले तो कोइ दिक्कत नहीं है, हमेशा नेगटिव तरीके से चीजों को देखना भी ठीक नहीं. एक न्यूज़ रिपोर्टर की जिम्मेदारी क्या है ? यही नां कि समाज मैं जो हो रहा है वह सबके सामने रखे, या कि बन्दूक लेकर देश की रक्षा के लिए सीमा पर चला जाए. या खुद ही नेता बन जाए. 
मेरे हिसाब से कलम समाज को आईना दिखाने के लिए होती है, साहित्य को समाज का आईना ही कहा गया है. वह इस घटना को शूट न करता तो दोषियों को सजा की बात ही कहाँ से उठती, इससे इतना तो हुआ कि बहुत से लोग इस घटना पर सोचने को मजबूर हुए. अगर भविष्य मैं ऐसा कोई वाकया उनके सामने खुदानखास्ता हुआ तो शायद उनमें से कुछ लोग ही घायल को बचाने को उद्यत होंगे, क्या यह उस रिपोर्टर और न्यूज़ चैनल की सफलता नहीं. और क्या इस सफलता के लिए आप उसे फांसी की सजा देना चाहेंगे. वैसे भी शायद यह खबर दिखाने वाले टीवी ने साफ़ किया है कि यह खबर उनके रिपोर्टर ने शूट नहीं की, और जिसने की उसने कहा है कि उसके पास इतने संसाधन नहीं थे.

5 comments:

  1. अति उत्तम , वह क्या निर्लज्जता है ???

    अगर रिपोर्टर का कम नहीं था उसको अस्पताल तक पहुचना तो फिर कम तो ये उन मंत्रियों का भी नहीं था
    कम तो ये उस कलेक्टर का भी नहीं था
    तो फिर कम था किसका ये ? किसी का नहीं था | फिर उन मंत्रियों या फिर कलेक्टर की निंदा क्यों ?
    वो क्या है ना की रामचरित मानस में एक पंक्ति है "पर उपदेश कुशल बहुतेरे "

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  2. मैंने टी वी पर यह खबर देखी थी। रिपोर्ट देना सही था किन्तु बार बार जो दृष्य दिखाया जा रहा था उसे देख यह अवश्य सोच रही थी कि मेरे घर में तो बच्चे नहीं हैं, जिनके घर में हैं उन्हें क्या समाचार देखने पर भी रोक लगा देनी होगी? शायद समय आ गया है कि बच्चों के लिए समाचार व मनोरंजन के लिए अलग चैनल खुलें। कार्यक्रम चाहे बच्चों पर आधारित न हों किन्तु उनमें विभत्सता, बर्बरता आदि न हों।

    वैसे हमारे देश में सबसे बड़ी समस्या एम्बुलेंस का समय पर नहीं पहुँच पाना है। सहायता की जानी चाहिए थी परन्तु हममें से कितने लोग प्राथमिक चिकित्सा के बारे में जरा सा भी ज्ञान रखते हैं? बहुत बार घायल को बोरी की तरह उठाया जाता है। यदि गर्दन या रीढ़ की हड्डी में चोट आई हो तो स्थिति गलत तरीके से उठाने से और भी बिगड़ सकती है।
    कुछ उपाय तो ढूँढने होंगे किन्तु वह रिपोर्टर को फाँसी चढ़ाना तो कतई नहीं हो सकता।

    घुघूती बासूती

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  3. नवीन जी कलर कोनट्रास्ट ठीक करें हम बूढे़ लोगो की आँखे कमजोर होती हैं

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  4. अच्छे विचार आ रहे हैं. अंकित जी ने अच्छी बात कही- पर उपदेश कुशल बहुतेरे ..., एक बात पूछना जरूरी हो गया है. कितने लोग हैं जो दिल पर हाथ रख कर कह सकते हैं कि उनके सामने जब दूसरे की मदद का मौका आया था उन्होंने अपने जरूरी काम छोड़ कर दूसरों की मदद की थी.

    जरूरी हो गया है, इसलिए बहुत संक्षेप मैं एक कहानी सुनाता हूँ. मेरी शादी जून २००० में हुई थी, लेकिन हम हनीमून पर नहीं जा पाए थे. 2002 में दूसरी सालगिरह पर अपने एक वर्ष के बच्चे को लेकर हमें पहली बार घर से निकल कर नैनीताल जाने का मौका मिला. यह एक तरीके से हमारा हनीमून ही था. रास्ते में बल्दियाखान के पास सड़क किनारे सुबकते एक लड़की को देखकर ठिठके, नीचे खाई में उनकी गाडी गिरी थी. माता पिता मौके पर ही मर चुके थे, भाई गंभीर और बेहोश था, सो लड़की अन्यमनस्क हो गयी थी. हमने गाड़ियों को रोका, तब मोबाइल नहीं थे, पुलिस को मेसेज भिजवाया, आज भी यह पुलिस रिकॉर्ड में है. शवों को रिकवर कर घायलों को अस्पताल भिजवाया. और आखिर में नैनीताल घूमने की बजाये पहले ही स्थित हनुमानगडी में शिर झुकाकर कर लौट आये.

    यह कहानी कुछ भी साबित करने के लिए नहीं. मैंने किसी को सही या गलत नहीं कहा. सिर्फ यह बताने की कोशिश की कि हमारा जिसका भी जो काम है वही ठीक से कर लें तो 'मेरा भारत महान' होने से कोई नहीं रोक पायेगा. बस पोजिटिव बनने की जरूरत हैं. आप लोग तो लगता है इस्त्री करने वाले 'प्रेस' वालों के सताए हुए हैं.

    हाँ, एक बात और, हर बात के दो से अधिक पक्ष होते हैं. इसलिए यह कभी न मानें की जो हम कह रहे हैं, वही सही है.

    घुघूती बासूती से पूरी तरह सहमत हूँ.

    ulook ji, यह कलर, फॉण्ट साइज़ ठीक करते करते थक हार गया हूँ.

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  5. naveen ji waise aapke kaam ki prashansha karta hun...

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