(राष्ट्रीय सहारा, कुमाऊं संस्करण, 16 जनवरी 2014) |
- 2600 वर्ष पूर्व आयुर्वद की सुश्रुत संहिता में बताई गई तकनीक पर ही आधारित है मोतियाबिंद की अत्याधुनिक टॉपिकल एनेस्थीसिया विधि
- बिना चीरा, बिना टांका, बिना इंजक्शन के होता है ऑपरेशन, ऑपरेशन के बाद तत्काल आंखों से देख सकते हैं मरीज
नवीन जोशी, नैनीताल। जी हां, सुनने में कुछ अजीब जरूर लग सकता है, पर देश के जाने-माने नेत्र शल्यक डा. विनोद तिवारी का यही कहना है। डा. विनोद तिवारी सिलसिलेवार बताते हैं कि कैसे देश-दुनिया में मोतियाबिंद के ऑपरेशन की तकनीक अत्याधुनिक होते हुए एक तरह से 2600 वर्ष पूर्व शल्यक्रिया के पितामह कहे जाने वाले महर्षि सुश्रुत द्वारा प्रयुक्त तकनीक की ओर ही लौट आई है।
उल्लेखनीय है कि नैनीताल के मूल निवासी डा. तिवारी उत्तर भारत के मोतियाबिंद की फेको इमल्सिफिकेशन तकनीक से ऑपरेशन करने वाले शुरुआती चिकित्सकों में शामिल हैं। उनका मोदीनगर यूपी में अपना नेत्र चिकित्सालय है, और वह अब तक कई जन्मान्धों सहित एक लाख से अधिक नेत्र रोगियों के ऑपरेशन कर उनकी आंखों की रोशनी लौटा चुके हैं, जिसमें पहाड़ के हजारों लोगों के निःशुल्क ऑपरेशन भी शामिल हैं। नैनीताल में निःशुल्क शिविर चला रहे डा.तिवारी ने विशेष बातचीत में मोतियाबिंद चिकित्सा के महर्षि सुश्रुत के दौर में वापस लौटने की बात बताते हुए देश के समृद्ध पुरातन ज्ञान-विज्ञान की ओर ध्यान आकृष्ट किया। बताया कि देश-दुनिया में मोतियाबिंद के आधुनिक उपचार की शुरुआत मोतियाबिंद को तकनीकें महर्षि सुश्रुत की प्रविधि के उलट मोतियाबिंद को आंखों के अंदर के बजाय बाहर लाकर करने की इंट्रा कैप्सुलर तकनीक से हुई थी। शुरुआती तकनीक में भी टांका लगाने की जरूरत नहीं होती थी, पर आगे 10 दिन तक आंख पर सफेद पट्टी और फिर तीन माह तक हरी पट्टी बांधी जाती थी। इस दौरान रोगी को बड़ी मुश्किल में बिना करवट बदले रहना पड़ता था। इसके बाद 10-12 नंबर का मोटा चश्मा दिया जाता था। आगे इंट्राकुलर लेंस की तकनीक में बड़ा 14 मिमी का चीरा लगाया जाता था। फिर फेको इमल्सिफिकेशन की बेहतर तकनीक आई, जिसमें मात्र तीन मिमी का चीरा लगाना पड़ता है। इसके बाद माइक्रो फेको तकनीक में 2-2 मिमी का चीरा लगाने की तकनीक से आंखों के ऑपरेशन होने लगे, जबकि अब टॉपिकल एनस्थीसिया तकनीक आई है, इसमें आंख में बेहोशी का इंजक्शन भी नहीं लगाना पड़ता है, और टांके व पट्टी की जरूरत भी नहीं पड़ती है, और रोगी ऑपरेशन के तत्काल बाद अपनी आंखों से देखते हुए ऑपरेशन थियेटर से बाहर आ सकते हैं, तथा अगले दिन से ही रसोई या वाहन चलाने जैसे कार्य भी कर सकते हैं। इस तकनीक में रोगी की आंखों में बेहोशी की दवाई की एक बूंद डालकर मोतियाबिंद को महर्षि सुश्रुत की ही भांति पीछे खिसका दिया जाता है। डा. तिवारी दोनों तकनीकों को समान बताते हुए कहते हैं कि महर्षि सुश्रुत और आज की टॉपिकल एनस्थीसिया तकनीक में केवल मशीन और तकनीक का फर्क आ गया है, दोनों में यह समानता भी है कि दोनों तकनीकों में आंख के ‘लिंबस’ नाम के हिस्से से मशीन को प्रवेश कर ऑपरेशन किया जाता है। उन्होंने बताया कि अकेले नैनीताल के डेड़ दर्जन रोगियों के इस विधि से सफल ऑपरेशन किये जा चुके हैं।
सुश्रुत इस तरह करते थे आंखों की शल्य क्रिया
नैनीताल। डा. तिवारी बताते हैं कि ईसा से 600 वर्ष पूर्व आयुर्वेद के अंतर्गत आने वाली सुश्रुत संहिता लिखने वाले व धन्वंतरि के शिष्य कहे जाने वाले महर्षि सुश्रुत मोतियाबिंद का ऑपरेशन आंख में पतली गर्म कर स्टरलाइज की गई सींक डालकर करते थे, वह सींक से आंख के मोतियाबिंद को पीछे की ओर धकेल देते थे, जिससे आंख तात्कालिक तौर पर ठीक हो जाती थी। हालांकि यह तकनीक मोतियाबिंद को बाहर न निकाले जाने की वजह से तब बहुत अच्छी नहीं थी और कुछ समय बाद आंख पूरी तरह ही खराब हो जाती थी, लेकिन साफ तौर पर यह कहा जा सकता है कि उस दौर में भी सुश्रुत भारत में आंखों के ऑपरेशन करते थे। सुश्रुत की तकनीक को अब ‘कॉचिंग’ तकनीक कहा जाता है, और दक्षिण अफ्रीका के कई गरीब देशों में अब भी यह विधि प्रयोग की जाती है।
उम्र बढ़ने पर हर व्यक्ति को होता है मोतियाबिंद
नैनीताल। नेत्र विशेषज्ञ डा. विनोद तिवारी का कना है कि उम्र बढ़ने पर 50-60 की आयु से कमोबेश हर व्यक्ति को मोतियाबिंद की शिकायत होती है। पहाड़ पर ईधन के धुंवे की वजह से इसके अधिक मामले होते हैं। इधर पहाड़ पर 30 से कम उम्र के कुछ लोगों को भी मोतियाबिंद की शिकायत मिली है। आधुनिक खानपान को इसका कारण माना जा सकता है।
हमारे आयुर्वेद में दुनिया के सब रोगों का इलाज है. लेकिन हम हिन्दुस्तानी खुद इस पर विश्वास नही करते हैं
ReplyDeleteसही कह रहे हैं सर...
Deleteलेख अच्छा है. पर यह बात समझ में नहीं आई की सुश्रुत विधि से मोतियाबिंद की चिकित्सा करने पर आंख बाद में पूरी तरह खराब हो जाती थी. इसका क्या कारण हो सकता है? क्या सुश्रुत के पास उसका कोई समाधान नहीं था?
ReplyDeleteहा, उस दौर में इतने बेहतर प्रबंध नहीं थे, खासकर मोतियाबिंद को आंख से बाहर निकाल कर उसकी जगह नया लेंस पहनाने के . आजकर मोतियाबिंद को पीछे की ओर खिसका कर नया लेंस लगा दिया जाता है.
Deleteबदकिस्मती से हम ऐसे मुल्क में रह रहे हें जिसे अपनी परम्पराओं की तरफ देखने की भी फुर्सत नहीं है. यहाँ के हमारे शाशक केवल राजनीत और धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक और अपने आराम आदि में डूबी रहटी है. विदेशी लोग जैसे जर्मनी आदि देश हमारे ग्रन्थों का अध्यन कर पैटेन्ट दवाइयाँ बनाते जा रहे हें और हम अपनी ही खोजों के बारे में अनजान हें या फिर अनजान बने रहना चाहते हें.
ReplyDeleteसही कह रहे हैं सर...
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