उत्तराखंड राज्य के आठवें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण करने वाले हरीश रावत की धनै के पीडीएफ से इस्तीफे, महाराज के आशीर्वाद बिना और झन्नाटेदार थप्पड़ जैसे एक्शन-ड्रामा के साथ हुई ताजपोशी के बाद यही सबसे बड़ा सवाल उठ रहा है कि क्या रावत अपना बोया काटने से बच पाएंगे। इस बाबत आशंकाएं गैरवाजिब भी नहीं हैं। रावत के तीन से चार दशक लंबे राजनीतिक जीवन में उपलब्धियों के नाम पर वादों और विरोध के अलावा कुछ नहीं दिखता।चाहे राज्य की पिछली बहुगुणा सरकार हो या 2002 में प्रदेश में बनी पं. नारायण दत्त तिवारी की सरकार, रावत ने कभी अपनी सरकारों और मुख्यमंत्रियों के विरोध के लिए विपक्ष को मौका ही नहीं दिया। इधर केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहते चाहे श्रम राज्य मंत्री का कार्यकाल हो, उन्होंने बेरोजगारी व पलायन से पीड़ित अपने राज्य के लिए एक भी कार्य उपलब्धि बताने लायक नहीं किया। वह कृषि मंत्री बने तब भी उन्होंने लगातार किसानी छोड़कर पलायन करने को मजबूर अपने राज्य के किसानों के लिए कुछ नहीं किया। जल संसाधन मंत्री बने, तब भी अपने राज्य की जवानी की तरह ही बह रहे पानी को रोकने या उसके सदुपयोग के लिए एक भी उल्लेखनीय पहल नहीं की। कुल मिलाकर तीन-चार दशक लंबे राजनीतिक करियर के बावजूद रावत के पास अपनी उपलब्धियां बताते के लिए कुछ है तो उत्पाती प्रकृति के समर्थक, जिनकी झलक रावत ने अपनी ताजपोशी से पहले खुद भी अपनी ही पार्टी के एक कार्यकर्ता को झन्नाटेदार थप्पड़ जड़कर दिखा दी है।
इधर, बहुगुणा की सरकार बनने के दौरान एक हफ्ते तक दिल्ली में पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र के नाम पर चले राजनीतिक ड्रामे की यादें अभी बहुत पुरानी नहीं पड़ी हैं, जिसकी हल्की झलक शनिवार को उनकी ताजपोशी के दिन सतपाल महाराज ने दिखा दी है। शपथ ग्रहण समारोह में उनके साथ शपथ लेते मंत्रियों के बुझे चेहरे भी बहुत कुछ कहानी कह रहे थे। बहुगुणा जाते-जाते अपने अनेक समर्थकों को ‘बैक डेट’ से दायित्व देकर उनके लिए परेशानी के सबब पहले ही खड़े कर चुके हैं, जिन्हें उगलना और निगलना दोनों रावत के लिए आसान न होगा। उनके रहते रावत अपने समर्थकों को माल-मलाई देकर कैसे सहलाएंगे, यह बड़ा सवाल है। व्यक्तिगत रूप से वह, उनके समर्थकों का चाल-चरित्र कैसा रहने वाला है, इसकी झलक खुद तो दिखा ही चुके हैं, उनके आज 'कंधों पर झूलते' उनके बड़े समर्थकों के 'दिन-दहाड़े' के चर्चे भी आम हैं। इसलिए बहुत आश्चर्य नहीं उनके कार्यकाल के लिए आज चैनलों में प्रयुक्त किए जा रहे "राव'त' राज" का केवल एक अक्षर बदल कर आगे काम चलाया जाए।
वह गूल में पानी ना आने पर प्रधानमंत्री को पत्र लिखने की अदा...
अपने शुरुआती राजनीतिक दौर में अपनी समस्याएं बताने वाले लोगों को तत्काल पत्र लिखकर समाधान कराने का वादा करना तब हरीश चंद्र सिंह रावत के नाम से पहचाने जाने वाले रावत का लोगों को अपना मुरीद बनाने का मूलमंत्र रहा। अपने खेत में पानी की गूल से पानी न आने की शिकायत करने वाले ग्रामीण को उनका तीसरे दिन ही पोस्टकार्ड से जवाब आ जाता कि उन्हें लगा है कि गूल में पानी आपके नहीं मेरी गूल में नहीं आ रहा है। उन्होंने शिकायत को सिंचाई विभाग के जेई, एई, ईई, एसई से लेकर राज्य के सिंचाई मंत्री, मुख्यमंत्री के साथ ही केंद्रीय सिंचाई मंत्री और प्रधानमंत्री को भी सूचित कर दिया है। गूल में पानी कभी ना आता, लेकिर ग्रामीण पत्र प्राप्त कर ही हरीश का मुरीद बन जाते।
विरोध, विरोध और विरोध...
उत्तराखंड आंदोलन के दौरान हरीश की पहचान उत्तराखंड राज्य विरोधी की भी बनी, जिसके परिणामस्वरूप 1989 के चुनावों के लिए नामांकन कराने के लिए भी चुपचाप आना पड़ा था। बाद के वर्षों में हरीश की अपने अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र में ब्राह्मणद्रोही क्षत्रिय नेता की छवि बनती चली गई, जिसका परिणाम उन्हें अपनी हार की हैट-ट्रिक और पत्नी की भी हार के बाद अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र का रण छोड़ने पर विवश कर गया। राज्य के ब्राह्मण नेता तिवारी और बहुगुणा का लगातार विरोध करने से भी उनकी इस ब्राह्मण विरोधी छवि का विस्तार ही हुआ है। इसी का परिणाम है कि आज उन्होंने कुर्सी प्राप्त भी की है तो नारायण दत्त तिवारी के राज्य की राजनीति से दूर जाने के बाद....
रावत जी ने पहला ही गलत निर्णय लिया देहरादून के पुलिस अधिकारी खुराना जो की बहुत अच्छा काम कर रहे है उनका तबादला कर दिया.
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