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Tuesday, February 5, 2013

प्रयागराज में आस्था का महासमागम


भारत को आस्था, आध्यात्म और पवित्रता की भूमि कहा जाता है। सर्वधर्म सम्भाव की इस पावन भूमि के कण-कण में देवों का वास बताया जाता है। दुनिया के सबसे प्राचीन हिंदू सनातन धर्म के इस देश में ऐसी अनेकों परंपराएं हैं जो सदियों पूर्व से अनवरत चली आ रही हैं, और दुनिया के साथ भारत के भी विकास पथ पर कहीं आगे निकल जाने के बावजूद इनका कोई जवाब नहीं है। प्रयागराज में इन दिनों चल रहा आस्था का महासमागम यानी कुम्भ मेला आज भी देश हीं नहीं दुनिया के 10 करोड़ से अधिक लोगों को आकर्षित कर रहा है तो इसमें कु्म्भ मेले से जुड़ी अनेकों विशिष्टताएं हैं। इतनी भारी संख्या में एक धार्मिक भावना ‘आस्था’ के साथ लोगों का एक स्थान पर समागम दुनिया में कहीं और देखने को नहीं मिलता। कुम्भ भारतीयों के मस्तिष्क और आत्मा में रचा-बसा हुआ पर्व है, जिसमें पुरुष, महिलाएं, अमीर, गरीब सभी लोग भाग लेते हैं। अपने विशाल स्वरूप में यह पर्व भारतीय जनमानस की पर्व चेतना की विराटता का द्योतक भी है। इससे भारत की सांस्कृतिक चेतना और एकता को जाग्रत व सुदृढ़ करने की दृष्टि मिलती है, साथ ही आस्थावान देश वासियों का संत समागम के साथ आपस में जुड़ाव भी मजबूत होता है। आर्थिक दृष्टिकोण से भी प्रयागराज में इस वर्ष आयोजित 55 दिन का कुंभ अत्यधिक लाभप्रद होने जा रहा है। इस महाआयोजन में 10 से 15 करोड़ श्रद्धालुओं के पहुंचने की संभावना जताई जा रही है, जिसके साथ ही इस दौरान 12,000 करोड़ रुपए का आर्थिक कारोबार होने और करीब छह लाख लोगों को सीमित समय के लिए ही सही रोजगार मिलने की बात भी कही जा रही है। 
कुम्भ पर्व हिंदू धर्म का तो यह सबसे बड़ा और पवित्र आयोजन है ही जिसमें अमृत स्नान और अमृत पान तक की कल्पना की गई है, साथ ही यह निर्विवाद तौर पर विश्व का सबसे विशालतम मेला और महाआयोजन भी कहा जाता है, जिसमें अनेकों जाति, धर्म, क्षेत्र के करोड़ों लोग भाग लेते हैं, और पवित्र गंगा नदी में डुबकी लगाते हैं। दुनिया भर के वैज्ञानिक भी गंगा के सर्वाधिक लंबे समय तक खराब न होने एवं त्वचा व अन्य रोगों में लाभकारी होना स्वीकार कर चुके हैं। गंगा वैसे भी पापनाशनी, पतित पावनी कही जाती है। इसे एक नदी से कहीं अधिक देवी और माता का दर्जा दिया गया है। यह हिंदुओं के जीवन और मृत्यु दोनों से जुड़ी हुई है और इसके बिना हिंदू संस्कार अधूरे हैं, वहीं यह देश के विशालतम भूभाग को सींचते हुए उर्वरा शक्ति भी बढ़ाती है। गंगाजल का अमृत समान माना जाता है। कहा जाता है कुम्भ पर्व के दौरान गंगा नदी में ऐसे अनूठे संयोग बनते हैं कि इसकी पावन धारा में अमृत का सतत प्रवाह होने लगता है, जिसमें स्नान करने से मनुष्य के सारे पाप दूर हो जाते हैं और मनुष्य जीवन मरण के बंधनों से मुक्त हो मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। इसलिए इलाहाबाद के कुम्भ में गंगा स्नान, पूजन का अलग ही महत्व है। अनेक पर्वों और उत्सवों का गंगा से सीधा संबंध है मकर संक्राति, कुम्भ और गंगा दशहरा के समय गंगा में स्नान, पूजन, दान एवं दर्शन करना महत्वपूर्ण माना जाता है। मान्यता है कि गंगा पूजन से मांगलिक दोष से ग्रसित जातकों को विशेष लाभ प्राप्त होता है, और गंगा स्नान करने से अशुभ ग्रहों का प्रभाव समाप्त हो जाता है, साथ ही सात्विकता और पुण्य लाभ भी प्राप्त होता है। अमावस्या के दिन गंगा स्नान और पितरों के निमित तर्पण व पिंडदान करने से सद्गति प्राप्त होती है। 
कुम्भ पर्व की महिमा का वर्णन पुराणों से शुरू होता है। साथ ही कई धार्मिक, ज्योतिषीय और पौराणिक आधार इस महापर्व को विशिष्ट बनाते हैं। पुराणों में वर्णित संदर्भों के अनुसार यह पर्व समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत घट के लिए हुए देवासुर संग्राम से जुड़ा है। इसी दौरान भगवान विष्णु का कूर्म अवतार भी हुआ था। मान्यता है कि समुद्र मंथन से 14 रत्नों की प्राप्ति हुई, जिनमें प्रथम विष था तो अन्त में अमृत घट लेकर धन्वन्तरि प्रकट हुए। कहते हैं अमृत पाने की होड़ ने एक युद्ध का रूप ले लिया। ऐसे समय असुरों से अमृत की रक्षा के उद्देश्य से विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अमृत देवताओं को सोंप दिया। एक मान्यता के अनुसार देवताओं के राजा इन्द्र के पुत्र जयंत और दूसरी मान्यता के अनुसार विष्णु के वाहन गरुड़ उस अमृत कलश (कुम्भ) को लेकर वहाँ से पलायन कर गये। इस दौरान सूर्य, चंद्रमा, गुरु एवं शनि ने अमृत कलश की रक्षा में सहयोग दिया। अमृत कलश को स्वर्ग लोक तक ले जाने में 12 दिन लगे। देवों का एक दिन मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है, लिहाजा इन बारह वर्षों में बारह स्थानों पर अमृत कलश रखने से वहाँ अमृत की कुछ बूंदे छलक गईं। इनमें आठ स्थान देवलोक स्वर्ग में तथा चार स्थान पृथ्वी पर बताए जाते हैं। कहते हैं उन्हीं स्थानों पर, ग्रहों के उन्हीं संयोगों पर कुम्भ पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि कुम्भ और महाकुम्भ में वही अमृत की बूंदे वापस इन नदियों के पानी में छलक उठती हैं। जो भी इस दौरान इन पवित्र नदियों में स्नान करता है वह जीवन-मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जाता है। पृथ्वी के इन चारों स्थानों पर तीन वर्षों के अन्तराल पर प्रत्येक बारह वर्ष में कुम्भ का आयोजन होता है। कुम्भ पर्वों को तारों के क्रम के अनुसार हर 12वें वर्ष विभिन्न तीर्थ स्थानों पर आयोजित करने की बात भी कही जाती है। नारदीय पुराण (2/66/44), शिव पुराण (1/12/22/23), वराह पुराण (1/71/47/48) और ब्रह्मा पुराण आदि पौराणिक ग्रंथों में भी कुम्भ एवं अर्द्ध कुम्भ के आयोजन को लेकर ज्योतिषीय विश्लेषण मिलते हैं, इनके अनुसार कुम्भ पर्व हर तीन साल के अंतराल पर देवभूमि उत्तराखंड की धरती पर स्थित तीर्थ नगरी हरिद्वार से शुरू होता है। यहां गंगा नदी के तट पर आयोजित होने वाला कुम्भ को महाकुम्भ कहा जाता है, जिसकी अपार महिमा है। यहां के बाद तीन-तीन वर्ष के अंतराल में कुम्भ का आयोजन होता है। प्रयाग में गंगा, यमुना व अदृश्य मानी जाने वाली सरस्वती के संगम-त्रिवेणी पर आयोजित होने वाली कुंभ की ऐसी धार्मिक महत्ता है कि इस स्थान को "तीर्थराज" प्रयागराज कहा जाता है। कहते हैं कि यहां इस दौरान त्रिवेणी में स्नान करना सहस्रों अश्वमेध यज्ञों, सैकड़ों वाजपेय यज्ञों तथा एक लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से भी अधिक पुण्य प्रदान करता है। मनुष्य जन्म-जन्मांतरों के फेर से बाहर निकलकर मोक्ष को प्राप्त करता है। इस अवसर पर तीर्थ यात्रियों को गंगा स्नान के साथ ही सन्त समागम का लाभ भी मिलता है। इसके अलावा नासिक-पंचवटी में गोदावरी और अवन्तिका-उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर भी तीन-तीन वर्षों के अंतराल में कुंभ का आयोजन किया जाता है। 
हजारों वर्षों से चली आ रही यह परम्परा केवल रूढ़िवाद या अंधश्रद्धा नहीं है, वरन यह महापर्व सौर मंडल के धार्मिक मान्यता के अनुसार कुम्भ की रक्षा करने के प्रसंग से जुड़े चार ग्रहों सूर्य, चंद्रमा, बृहस्पति एवं शनि के विशिष्ट स्थितियों में आने से बने खगोलीय संयोग पर आयोजित होते हैं, इस तरह इस पर्व का वैज्ञानिक आधार भी है। यही विशिष्ट बात इस सनातन लोकपर्व के प्रति भारतीय जनमानस की आस्था का दृढ़तम आधार है। तभी तो सदियों से चला आ रहा यह पर्व आज संसार के विशालतम धार्मिक मेले का रूप ले चुका है। अंतरराष्ट्रीय ख्याति के इस आयोजन का जिक्र प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन सांग की डायरी में भी मिलता है। उनकी डायरी में हिन्दू महीने माघ (जनवरी - फरवरी) में 75 दिनों के उत्सव का उल्लेख है, जिसमें लाखों साधु, आम आदमी, अमीर और राजा शामिल होते थे। 
कुम्भ के दौरान शाही स्नान कर अमृत पान करने के लिए निकलने वाले भव्य जुलूस में अखाड़ों के प्रमुख महंतों की सवारी सजे-धजे हाथी, पालकी और भव्य रथों पर निकलती हैं। उनके आगे पीछे सुसज्जित ऊँट, घोड़े, हाथी और बैंड़ भी होते हैं। इनके बीच विशेषकर शरीर पर वस्त्रों के बजाय राख मलकर निकलने वाले नागा साधुओं का समूह श्रद्धालुओं के लिए कौतूहल का विषय रहता है। विभिन्न अखाड़ों के लिए शाही स्नान का क्रम निश्चित होता है। उसी क्रम में साधु समाज स्नान करते हैं। साधुओं की बड़ी-बड़ी जटाएं और अनोखी मुद्राएं भी आकर्षण का केंद्र रहती हैं। सामान्यतया घने वनों, जंगलों, गुफाओं में शीत, गर्मी व बरसात जैसी हर तरह की मौसमी विभीषिकाओं की परवाह किए बिना नग्न शरीर पर केवल भस्म रमा कर रहने वाले साधुओं के कुम्भ में सहज दर्शन हो पाते हैं। कुम्भ मेले का एक और बड़ा वैशिष्ट्य यह भी है कि यहाँ शैव, वैष्णव और उदासीन सम्प्रदायों के साधु अनेक अखाड़ों और मठों व विभिन्न साधु सम्प्रदायों के अखाड़ों की उपस्थिति रहती है। प्रत्येक अखाड़े के अपने प्रतीक चिह्न और ध्वज-पताका होती है, जिसके साथ ही अखाड़े मेले में उपस्थित होते हैं, वहाँ उनकी अपनी छावनी होती है, जिसके बीचों-बीच बहुत ऊँचे स्तम्भ पर उनका ध्वज फहराता है। इन अखाड़ों के साधु शस्त्रधारी होते हैं। उनकी रचना एकदम सैनिक पद्धति पर होती है। उनमें शस्त्र और शास्त्र का अद्भुत संगम होता है। ये साधु सांसारिक जीवन से विरक्त और अविवाहित होते हैं। उनकी दिनचर्या बहुत कठोर होती है। शस्त्रधारी होते हुए भी, और विश्व का सबसे बड़ा ऐश्वर्य प्रदर्शन करने के बावजूद वह फक्कड़ तपस्वी होते हैं। 
कहा जाता है कि मुगल बादशाह बाबर के पूर्वज तैमूर की आत्मकथा के अनुसार तैमूर ने सन 1394 में हरिद्वार के कुम्भ में कई सहस्र तीर्थयात्रियों की अकारण ही निर्मम हत्या कर दी थी। उन दिनों हिन्दुओं की तीर्थ यात्रा भी सुरक्षित नहीं बची थी। ऐसे में निहत्थे हिन्दू समाज की रक्षा के लिए साधु-संतों को मोक्ष-साधना के साथ-साथ शस्त्र धारण भी करना पड़ा। विदेशी शासकों के अत्याचारों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष करने और हिन्दू समाज को अपनी धार्मिक आस्थाओं का निर्विघ्न पालन करने हेतु संरक्षण देने का बीड़ा साधु समाज ने उठाया। शस्त्र धारण करने की दिशा में पहले नागा साधु आगे बढ़े। कुम्भ मेलों की सुरक्षा का दायित्व वे ही संभालते थे। बहुत बाद में रामानंदी सम्प्रदाय के वैष्णव वैरागियों ने भी सन् 1713 में जयपुर के समीप ‘गाल्ता’ नामक स्थान पर महन्त रामानन्द के मठ में शस्त्र धारण करने का निर्णय लिया। जयपुर नरेश सवाई जयसिंह का नाम भी इस घटना के साथ जोड़ा जाता है। उन्हें मुगल शासनकाल में हिन्दू तीर्थ स्थानों पर ‘जयसिंहपुरा’ नामक केन्द्र स्थापित करने और उनमें रामानंदी सम्प्रदाय के निर्मोही अखाड़ो को प्रवेश देने, मराठे, बुन्देले और बंदा बैरागी जैसी अनेक हिन्दू शक्तियों को यथाशक्ति सहायता देने और पेशवा बाजीराव प्रथम को मालवा पर विजय और अधिकार दिलाने में निर्णायक भूमिका निभाने का श्रेय भी दिया जाता है।
कुम्भ की तरह ही प्रयाग भी हजारों वर्षों तक देश को ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, कला, धर्म और संस्कृति की अमूल्य शिक्षा देने के बावजूद वर्तमान में मुगल शासक अकबर द्वारा 1583 में दिए गए इलाहाबाद नाम से जाना जाता है। इलाहाबाद एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ होता है अल्लाह द्वारा बसाया गया शहर। यानी अकबर भी इस पुरातन हिंदू शहर के स्वरूप से भलीभांति परिचित था। बताते हैं कि मुगल काल में इस स्थान के अनेकों ऐतिहासिक मंदिरों को तोड़कर उनका अस्तित्व मिटा दिया गया। बावजूद, प्रयाग में हिंदुओं के बहुत सारे प्राचीन मंदिर और तीर्थ है। संगम तट पर जहां कुम्भ मेले का आयोजन होता है, वहीं भारद्वाज ऋषि का प्राचीन आश्रम है। प्रयाग को विष्णु की नगरी भी कहा जाता है और यहीं पर भगवान ब्रह्मा के द्वारा प्रथम बार यज्ञ करने का वृतांत भी मिलता है। माना जाता है पवित्र गंगा और यमुना के मिलन स्थल के पास आर्यों ने प्रयाग तीर्थ की स्थापना की थी। 
वहीं कुम्भ मेले के इतिहास के शोधार्थियों का प्राचीन संस्कृत वाङ्मय के अध्ययन के आधार पर मानना है कि प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में कुम्भ मेलों का सूत्रपात किसी एक केन्द्रीय निर्णय के अन्तर्गत, किसी एक समय पर, एक साथ नहीं किया गया होगा, वरन एक के बाद एक अपने-अपने कारणों से पवित्र तीर्थस्थलों पर आयोजित किए गए होंगे, और आगे चलकर एक पौराणिक कथा के माध्यम से इन्हें एक श्रृंखला में पिरो दिया गया होगा। आदि गुरु शंकराचार्य को कुंभ पर्व को वर्तमान मेले का स्वरूप देने का श्रेय दिया जाता है, जिन्होंने ही भारत के चार कोनों पर चार धामों की स्थापना की थी, जिसके कारण चार धाम की तीर्थयात्रा का प्रचलन हुआ। बारहवीं शताब्दी से कुम्भ मनाए जाने के लिखित प्रमाण मिलते हैं। 

कुम्भ पर्व (मेला)-2013 के मुख्य स्नान-पर्वों की तिथियांः 
1 मकर संक्रानित 14.1.2013 (शाही स्नान)
2 पौष पूर्णिमा 27.1.2013 
3 मौनी अमावस्या 10.2.2013 (शाही स्नान)
4 वसन्त पंचमी 15.2.2013 (शाही स्नान)
5 माघी पूर्णिमा 25.2.2013 
6 महाशिवरात्रि 10.3.2013

Monday, July 5, 2010

मेरा अमेरिका-मेरा भारत: मेरी नैनीताल से नैनी यात्रा


मैं कभी अमेरिका नहीं गया, पर अमेरिका में रह रहे प्रवासी भारतीयों के वतन वापसी के कई रोचक प्रसंग कहानियों अथवा फिल्मों के माध्यम से पढ़े-सुने-देखे हैं। यूं जीवन में मैंने कई यात्राऐं की हैं, किन्तु जिस हालिया यात्रा को मैं अपने जीवन की सबसे रोचक यात्रा मान सकता हूं वह महज 150 किमी के भीतर की होते हुए भी मेरे लिऐ अमेरिका से भारत की सी है, और इस यात्रा से मुझे कमोबेश कुछ उसी तरह की अनुभूति हुई है, जैसी शायद प्रवासी भारतीयों को अमेरिका से भारत आकर होती होगी। यह यात्रा 'छोटी बिलायत' यानी उत्तराखंड के कुमाऊं मण्डल व अपने ही नाम के जिले के मुख्यालय विश्व विख्यात पर्वतीय पर्यटन नगरी (सरोवर नगरी) 'नैनीताल' से अल्मोड़ा जनपद में जागेश्वर से आगे एक दूरस्थ पड़ाव 'नैनी' (चौगर्खा) की है। यह दोनों स्थान मेरे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। नैनीताल मेरी कर्मभूमि है, तो नैनी की मिट्टी में मेरा बचपन बीता है।


नैनीताल और नैनी में नाम की समानता के साथ और भी बहुत कुछ एक सा है, तो अन्य मामलों में अमेरिका व भारत जैसी वृहद असमानताऐं भी हैं। पहाड़ के यह दोनों स्थान प्राकृतिक रूप से अद्वितीय हैं। दोनों जगहों से हिमालय की उत्तुंग धवल चोटियां मनोहारी दिखती हैं। वरन, मुझे यह कहने में भी गुरेज नहीं कि यदि नैनीताल में ताल न होता तो शायद यह स्थान भी नैनी ही कहलाता, और `नैनी´ से कई मामलों में कमतर होता। नैनी में नैनीताल से कहीं अधिक विस्तृत गंगोलीहाट से लेकर पिथौरागढ़ की चोटियों तक व जागेश्वर-बृद्ध जागेश्वर के बाजांणी धूरों (बांज के घने जंगलों) तक साफ दिखता चौड़ा फलक, थोड़ा ऊपर चोटी से साफ सुनाई देता नीचे बहती सदानीरा सरयू नदी के साफ-स्वच्छ नीले जल का कल-कल निनाद औरं कभी न भुलाया जाने वाला चीड़ के जंगलों में चलती हवा की सरसराहट का संगीत। 
नैनी अंग्रेजों के जमाने में अल्मोड़ा-झूलाघाट पैदल मार्ग पर चर्चालीखान  (खान यानी पैदल यात्रा मार्ग के पड़ाव) की ऊंची चोटियों और सरयू नदी की घाटी के पास के न्योलीखान के मध्य स्थित एक पड़ाव था। यहां अंग्रेजों के जमाने का एक डांक बंगला आज भी बिना खास देखभाल के भी ठीक ठाक स्थिति में है। यहां न सर्दी अधिक पड़ती है, न गर्मी। अलबत्ता बचपन के दिनों में यहां सर्दियों में प्रकृति सफेद रुई के फाहों सी बर्फ का तोहफा एक-दो बार जरूर दे जाया करती थी। नैनी 1982 में सड़क आने के बाद तक भी पैदल यात्रा मार्ग का एक पड़ाव ही था, इसलिए यहां पहाड़ी घाटियों में उत्पादित होने वाले आम व केला जैसे फलों के साथ मध्यम ऊंचाई में होने वाले नींबू, सन्तरा, माल्टा, अमृत फल, जमीर व अधिक ऊंचाई में होने वाले आडूं, पुलम, खुमानी, अखरोट आदि फलों की बहार थी। पहाड़ी फल बेड़ू, तिमिल, काफल आदि भी बहुत मिलते थे। 
लेकिन मेरे बचपन के नैनी और युवावस्था के नैनीताल में शायद अमेरिका व भारत जैसा ही बड़ा अन्तर तब भी था, और कमोबेश आज भी बरकरार है। और यह अन्तर प्रकृति से इतर इन दोनों स्थानों के लोगों के बात-व्यवहार से लेकर मानव द्वारा बसाई बाहरी दुनिया का है। तब यहां न सड़क थी, और न बिजली, टेलीफोन जैसे कोई भी आधुनिक सुविधाऐं। सरकारी व्यवस्था के नाम पर एक-एक प्राइमरी पाठशाला व हाईस्कूल, एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, डाकखाना और पानी की एक टंकी, जिसमें यदि पानी न आ रहा हो तो कहीं शिकायत करने की जरूरत नहीं। लोग आपस में बेहद मिल-जुलकर रहते थे। पड़ाव के कुछ लोग स्वयं ही इकट्ठे होकर लगभग दो किमी दूर जल-श्रोत के गधेरे पाइप रिंच लेकर चल पड़ते और लाइन ठीक कर पानी जोड़ लाते। अन्य कार्यों में भी लोगों में आपस का मेल-जोल देखने लायक होता। किसी के घर में कुछ भी अच्छी चीज बनती, पेड़ पर फल लगते तो सभी में बंटते। बहुत जरूरी होने पर लेन-देन की पैंच कही जाने वाली व्यवस्था पर जीवन चलता था। खरीद-फरोख्त बेहद सीमित। पड़ाव में रहने वाले बाहरी लोगों को करीब एक रुपऐ लीटर दूध व 25 रुपऐ किग्रा के भाव घी मिल जाया करता था। फल-सब्जियां भी बेहद सस्ते थे। एक रुपऐ किलो आलू और एक रुपऐ बीसी (दर्जन की जगह बीस का भाव ही सामान्यतया बताया जाता था) केले मिलते थे। मुझे याद है बाद में जब दो रुपऐ बीसी केले हुऐ थे, तो पड़ाव में सभी ने कहा था, अब केले कौन खाऐगा ? कभी गोश्त खाने का मन हुआ तो पड़ाव के लोग एक बकरा ले आते थे, और उसके बिना तराजू बराबर हिस्से कर आपस में बांट लिऐ जाते थे। मुझे याद नहीं हमने कभी पांच रुपऐ धड़ी (पांच किलो) के भाव आलू के अलावा कभी कोई सब्जी खरीदी हो। वह तराजू का जमाना ही नहीं था। वहां बाहर से लोग आते तो उन्हें अतिथि देवता की तरह आदर-सम्मान दिया जाता था।
और इधर नैनीताल, जहां हर ओर तराजू और बाजार है। जहां रोज सैलानियों के रूप में हजारों अतिथि देवता आते तो हैं, पर उन्हें भूखे भेड़ियों की नज़रों से देखा जाता है। उन्हें हर कदम पर नोचा जाता है। सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी `झटके´ से काट दी जाती है, उसे `हलाल´ होने तक का मौका नहीं दिया जाता। होटल के नाम पर, घुमाने के नाम पर, बस बेवकूफ बनाने की प्रतिस्पर्धाऐं चलती रहती हैं। सैलानियों से ही नहीं, स्थाई रूप से रहने आऐ बाहरी लोगों को किराऐ पर कमरा देने से लेकर स्थानीय मूल वाशिन्दों से भी बाजार कोई मुरौबत नहीं करता। सब्जियां दुकान पर हफ्तों-पखवाड़ों सूखने-सड़ने के बाद फेंक दी जाती हैं, लेकिन गरीबों-भिखारियों को भी एक रुपऐ सस्ती नहीं दी जातीं। 
नैनी, मेरे बचपन का गांव, हमेशा से मेरे मन में बैठा, मुझे वापस बुलाने को जैसे पुकारता हुआ। लेकिन नैनीताल के बाजार में बैठा मैं, कभी फुरसत ही नहीं मिलती। लेकिन इस बार शायद आदेश ईश्वरीय था, और मैं  इस 21 जून की सुबह करीब पौने आठ बजे अपने अमेरिका से बच्चों को स्कूटर पर ही लेकर नैनी के लिए चल पड़ा अपने बचपन के भारत यानी नैनी की राह पर। स्कूटर इसलिए क्योंकि बच्चों को कार में पहाड़ी रास्तों पर उल्टियाँ होने की शिकायत है। उस जमाने की बसों की रफ्तार के हिसाब से अन्दाजा लगाया था कि शाम तक जागेश्वर धाम ही पहुंच पाऐंगे। वहां कुमाऊं मण्डल विकास निगम के रेस्ट हाउस में कमरा बुक किया था। योजना थी कि रात्रि वहीं विश्राम कर सुबह मन्दिर में पूजा-पाठ करेंगे और सुबह वहां से 17 किमी आगे नैनी जाकर शाम तक करीब 52 किमी वापस अल्मोड़ा लौट आऐंगे। लेकिन रास्ते में रुकते-सुस्ताते हुऐ भी हम दोपहर सवा बजे के करीब जागेश्वर पहुंच गऐ। कमरे में सामान रखा, थोड़ा सुस्ताऐ भी, अब क्या करें। यूं राह में पहले भी अन्दाजा हो गया था कि जागेश्वर जल्दी पहुंच रहे हैं, क्या सम्भव है कि शाम को ही सीधे नैनी भी चल पड़ें। मैं आखिरी बार 1985 में नैनी से लौटा था, सो मन में 25 वर्ष बाद अपने बचपन के भारत को देखने की भावनाऐं हिलोरें मार रही थीं। और हम चल पड़े। बच्चे भी मेरे सपनों में अक्सर आने वाले गांव को देखने की छटपटाहट को जैसे समझ रहे थे।
`देखो, हम बचपन में यहां ब्रह्मकुण्ड में सुबह-सुबह ठण्डे जल से स्नान कर जागनाथ जी के मन्दिर में दर्शन करने जाते थे। इसी के बगल की इस पगडण्डी से पैदल नैनी जाते थे´ मैं बच्चों को बताता चल रहा था, और बच्चे आश्चर्य में थे कि तब हम बच्चे कैसे 17 किमी पैदल जाते थे। उन्हें इस बात पर सहज विश्वास नहीं हुआ, और यह तो उनके लिए अकल्पनीय था कि हम पनुवानौला (जागेश्वर से करीब 10 किमी पहले का स्थान, कहते हैं यहां महाभारत काल में बना पाण्डवकालीन नौला यानी पानी का चश्मा है।) से शौकियाथल, बृद्ध जागेश्वर के घने बाघ-भालुओं युक्त वनों से होते हुऐ नैनी पैदल आते-जाते थे। 
हम उस डामरीकृत परन्तु बुरी तरह से उखड़ी हुई सड़क पर आगे बढ़े, जो पहले कच्ची हुआ करती थी। देवदार के सुरम्य वन को पार कर चीढ़ के वनों की ऊंचाई पर पहुंचे। चीढ़ की चाहे जितनी बुराई होती हो, लेकिन न जाने क्यों अंग्रेजी, व्यवसायिक व पर्यावरण शत्रु के रूप में कुख्यात यह वृक्ष मुझे बचपन से ही मानव मित्र सा प्रतीत होता रहा है। शायद, इसलिऐ कि इसी की छांव तले नैनी में मेरा बचपन बीता। इसी की लकड़ियों पर हमारे घर का चूल्हा जलता था, और सैकड़ों स्थानीय लोगों का भी, जो `लिसुओं´ के रूप में इस पेड़ के तनों को एक खास तरह के बसूले (छोटा कुल्हाड़ा) से खोप-खोप कर लीसा निकालते थे। लीसे को पहले छोटे कुप्पों और फिर कनस्तरों में एकत्र किया जाता। इन्हें स्थानीय और बाहर स्थित टरपिनटाइन फैक्टरियों में भेजा जाता, जहां इससे रेजिन व तारपीन का तेल बनाया जाता। तब मैं बालक था, पर खूब प्रचलित `लीसा चोर´ जैसे शब्दों को सुना करता था। मुझे लगता था, कुछ लोग सरकारी व्यवस्था के इतर लीसे को अन्यत्र बेचते होंगे, और इसलिऐ चोर कहे जाते होंगे। `लीसा चोर सेठ हो गऐ हैं, चीड़ के पेड़ों को इमारती लकड़ी के लिए अवैध रूप से चोरी-छुपे बड़े स्तर पर काटा जा रहा है,´ यह भी सुना जाता था। इधर 1983 से सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के बाद 1000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर पेड़ काटने पर जो प्रतिबंध लगा, उसका असर, बल्कि बुरा असर कुछ हद तक इस बार मुझे जंगलों में दिखाई दिया। जंगलों में बूढ़े पेड़ अपनी उम्र पूरी कर ही गिर पा रहे हैं, इस कारण नई पौध व नऐ जंगल विकसित नहीं हो पा रहे हैं। लेकिन इन आरोपों की पुष्टि मुझे नहीं हुई कि चीड़ बांज एवं अन्य चौड़ी पत्ती के उपयोगी वनों में घुसपैठ और अतिक्रमण कर रहा है। जागेश्वर के पास ही मैंने देखा, नदी के एक ओर उत्तरी ढाल पर देवदार का घना सुरम्य वन और दूसरी ओर 25 वर्ष बाद भी वही बिखरा छंटा हुआ सा चीड़ का जंगल। यानी, चीड़ ने दूसरे वनों में अतिक्रमण नहीं किया। वह दूसरों को हटा कर प्रतिस्थापित नहीं हुआ।
हम आगे बढ़े। यह 'चमुवा' नाम का गांव था, जहां आकर मैं सुखद अनुभूति से भर उठा। रास्ते भर मैंने पानी के लिए कनस्तर, डिब्बे आदि लेकर घूमतीं महिलाओं, बच्चों को देखा था। लेकिन यहां जगह-जगह पानी के तालाब भरे हुऐ थे। यह वर्षा जल संग्रहण का व्यवस्थित प्रयास था, जिससे ग्रामीण खेतों में फसलें लहलहा रहे थे। यहां काफी संख्या में `पॉली हाउस´ भी मुझे दिखाई दिऐ। नैनी पहुंचने की जल्दी में मैं यहां रुककर और जानकारियां इकट्ठा नहीं कर पाया। सोचा, लौटते हुऐ रुकुंगा, लेकिन लौटते समय अंधेरा घिर जाने के कारण यह सम्भव न हो पाया। 
आगे 'भगरतोला' के पास हम बड़ा ऊंचा टावर देखकर चौंके। इसकी तो कल्पना ही नहीं की थी। शायद किसी मोबाइल कंपनी का टावर था। जमाना बदल रहा है, सोचते हुऐ हम आगे बढ़े। अगले मोड़ पर एक दुकान बन गई थी। यहां से नैनी की झलक दिख गई। मुझे विश्वास हो गया, अब नैनी पहुंच जाऐंगे। पता नहीं क्यों अब तक मुझे अपनी यादों में बसी इस जगह वापस पहुंच पाने का जैसे विश्वास ही नहीं हो पा रहा था। अब मुझे 'चर्चालीखान' पहुंचने का इन्तजार था। इससे पहले ही एक स्थान, जहां बहुत कम धूप आने के कारण बेहद नमी रहती थी, इस कारण वहां सड़क भी बहुत दिन अपने निर्माण के दौर में अटकी रही, वहां गांव की प्रतीकात्मक लालटेनें लटकाऐ हुऐ आलीशान होटल बन रहा था। मुंह से निकला, जंगल में मंगल।
मेरे मन में बसा था 'चर्चाली', यहां बचपन में जी भर कर खाऐ पुलम, आढू, खुमानी जैसे फलों का स्वाद आज भी जैसे मेरी जिह्वा भूली नहीं है। लेकिन यह क्या, आज उस जमाने से भी अधिक उजड़ा हुआ था चर्चाली। वहां फलों का भी नामोनिशान नहीं था। मुझे अच्छा नहीं लगा। सामने सड़क पर एक जगह पर चीड़ की पत्तियों (पिरूल) की चादर बिछी हुई थी, हम आराम से वहां पसर गऐ। पत्नी ऐसे बैठने को चादर साथ लाना भूल गई थी, लेकिन यहां चादर बिछाने की जरूरत ही नहीं थी। बच्चे हमारे बचपन के खेल की तरह ही चार नुकीली पत्तियों वाला पिरूल ढूंढने में लग गऐ। सामान्यतया पिरूल में तीन पत्तियां एक साथ होती हैं, किन्तु कहा जाता है कि जिसे चार पत्तियों वाला पिरूल मिल जाता है, वह भाग्यशाली होता है। 
हम करीब तीन किमी आगे सैम मन्दिर पहुंचे। इस मन्दिर से मेरी कई यादें जुड़ी हुई थीं। यहां से थोड़ा आगे बढ़े तो पक्की सड़क कच्ची रह गई। सड़क के एक ओर मजदूरों द्वारा तोड़ कर ढेर लगाऐ गऐ 'डांसी' (खास तरह के मजबूत पत्थर) पत्थर ठीक उसी तरह दिखाई दिऐ, जैसे 25 वर्ष पूर्व दिखाई देते थे। यह पत्थर सड़क के डामरीकरण से पूर्व की तैयारी में सड़क पर बिछाने के लिए थे। यह सोचते सोचते मल्ला नैनी आ गया। तब ही की तरह केवल एक दुकान, हां वहां सरकारी सस्ता गल्ला विक्रेता का बोर्ड लटक गया था। सामने बुजुर्ग दुकानदार दिखाई दिऐ। चेहरा पहचाना हुआ सा, लेकिन नाम याद नहीं। मैंने प्रणाम कहते हुऐ स्कूटर रोक दिया। वह जैसे धन्य हो गऐ। बातें, पुराने परिचय का सिलसिला शुरू हो गया। वह रमेश भट्ट जी थे। कहने लगे, बस ढाई किमी सड़क पक्का होने से बची है। बस दो परतें और चढ़नी हैं और पूरी सड़क पक्की। मैंने कहा, यही 25 वर्ष पहले भी हम कहते थे। हां, 17 किमी में से 14.5 किमी सड़क जरूर पक्की हो गई। यह अलग बात है कि पूरी बनने से पहले कभी मरम्मत न होने के कारण काफी उखड़ भी गई। 
चर्चाली और पूरे क्षेत्र में फलों के खत्म होने की उन्होंने जानकारी दी। बताया, शायद जब से आप गऐ, तभी से फल खत्म हो गऐ, वो 'दो रुपऐ बीसी' वाले पहाड़ी केले अब किसी भाव उपलब्ध नहीं, अन्य फल भी गायब। कारण कुछ तो बाग मालिकों की पिछली पीढ़ी के दिवंगत होने के बाद नयी पीढ़ी द्वारा ध्यान न दिया जाना, और कुछ मौसम की बेरुखी। अब सब्जियां, फल, अनाज सब कुछ हल्द्वानी मण्डी से आता है। भट्ट जी ने बताया, `कई वर्षों से बर्फ नहीं पड़ रही, पानी बरसना भी लगातार कम होता जा रहा है। पहाड़ की खेती आसमानी मेहरबानी पर ही निर्भर ठैरी....´। सामने एक पेड़ में नाशपाती खूब लदी हुई थी। बोले, `15 रुपऐ कट्टे के भाव ठेकेदार ले जाता है। हल्द्वानी मण्डी में 150 के भाव बिकती है।´ नैनी अब अधिक दूर नहीं था। ढाई किमी बाद हम नैनी में थे। एक गधेरे पर मैंने बच्चों को बताया, यहां से हम पानी जोड़ने को आते थे। अगले `हेयर पिन´ मोड़ पर मैंने बताया, यहां तक नैनी के बच्चे बस को आता देख पीछे से लटकने को रोज ही दौड़े चले आते थे। कई चोटिल भी होते थे।
आखिर हम नैनी पहुंच गऐ। मेरा मन था, उस मिट्टी को चूम लूं। मैं यह सोच कर आया था कि उस जमाने के बहुत से लोग दुनिया छोड़ चुके होंगे। तब के बच्चे रहे मेरे साथी बड़े हो चुके होंगे। इसलिए कम ही लोग होंगे, जो पहचान पाऐंगे। इसलिए शुरू में रुके बिना सीधे ही पड़ाव का एक चक्कर लगा आया। लोग, खासकर बच्चे पड़ाव में आऐ स्कूटर को कुछ वैसे ही कौतूहल से देख रहे थे, जैसे तब शायद हम भी देखते होंगे। चक्कर लगा कर लौटे, तभी मेरे मोबाइल पर घंटी बजने लगी। यह सुखद था कि यहां मोबाइल के सिग्नल साफ आ रहे थे। मैं स्कूटर रोककर बात करने लगा, इस दौरान स्थानीय लोगों की मेरे प्रति जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी। कई लोग पास आकर खड़े हो गऐ थे। मानो कोई अमेरिका से भारत आ गया हो। मुझे एक वृद्ध चेहरा पहचाना सा लगा। मैंने पुकार लिया, `अरे, सर्वजीत दा!´ उस बृद्ध ने भी तब तक मुझमें मेरे पिताजी की छवि भांप ली थी। `हां, बाब स्यैप....´ फिर तो बातों का सिलसिला चल पड़ा। कई परिचित मिलते चले गऐ। पुरानी स्मृतियों के कपाट खुलते चले गऐ। मेरी आंखें पुरानी चीजों को तलाश रही थीं, और मस्तिश्क छूट गऐ सवालों के जवाब तलाश रहा था। दुकानों में किसी भी बड़े नगर सी कोल्ड ड्रिंक, स्नैक्स, बिस्कुट इत्यादि दिख रहे थे। मुझे भारत में रहने वाले बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार मार्क टुली का स्मरण हो आया, जिन्होंने हाल ही में कहा है, `अब मुझे व मेरी पत्नी को इंग्लेण्ड से बड़ा बैग भरकर सामान नहीं लाना पड़ता, क्योंकि अब वहां के सभी सामान यहां के बाजारों में आसानी से मिल जाते हैं।´ यानी मेरा भारत भी इस मायने में अमेरिका बन गया था। और हां, कुछ मामलों में अभी भी वही ढाई दशक पुराना भारत ही था।
अपना स्कूल देखने की बड़ी इच्छा थी। मैं पुराने परिचित मोहन सिंह खनी जी को साथ लेकर बच्चों सहित पैदल पगडण्डी चढ़कर स्कूल पहुंच गया। वहां पुराना विद्यालय भवन तोड़ दिया गया था। 1980 के करीब कक्षों की कमी के कारण तत्कालीन प्रधानाचार्य व शिक्षकों द्वारा अपने प्रयासों से टिन की हल्की चादरों से बनवाया गया शिक्षक कक्ष तकरीबन तभी की स्थिति में था, लेकिन इस बीच बने विद्यालय भवन का लिंटर सहित प्लास्टर जगह-जगह से उखड़ रहा था। नींचे विद्यालय परिसर में पिताजी एवं अन्य शिक्षकों तथा बच्चों द्वारा रोपे गऐ नन्हे देवदार, बांज आदि के पौधे उस चीड़ के वन प्रदेश में बड़े होकर जंगल का आभाश करा रहे थे। स्कूल से लौटते दूर पहाड़ी पर बारिश की मोटी बून्दें उड़ती हुई दिखाई देने लगीं। मोहनदा ने चेता दिया, जल्दी चलें, भीग जाऐंगे। हम तेजी से चलकर भीगने से पहले ही पड़ाव में उतर आऐ। बाद में खूब बारिश हुई। इस बीच पुरानी खट-खट वाली चाय याद आ गई तो पीने की इच्छा जाग गई। लेकिन वह उपलब्ध नहीं हुई। उस चाय में क्या अलग स्वाद होता था। दिन-रात चूल्हे पर पत्ती पड़ा हुआ पानी खौलता रहता था। चाय बनाने पर उसे गिलास में डाला। दूध, चीनी मिलाकर अलग-अलग गिलासों में चम्मच से खास तरीके से खट-खटा दिया, और चाय तैयार। इस बार `टी स्टाल´ वाले ने कहा, `सर, वह दिन गऐ। अब तो यही पीनी पड़ेगी।´ 
इधर पड़ाव में हमारा तत्कालीन तीन मंजिला आवास जो कि तब भी कमोबेश जर्जर स्थिति में था, और अधिक बूढ़ा लग रहा था, लेकिन उसके अहाते में मेरे द्वारा लगाया गया कनेर के गुलाबी फूलों का पेड़ खिला महक रहा था। पड़ाव में बने नऐ भवनों में पुराने भवनों को पहचानना मुश्किल हो रहा था। पानी की टंकी के सटाकर भवन बन गऐ थे, शायद अतिक्रमण किया गया हो। पड़ाव में कई पुराने परिचित मिले। वह रात्रि यहीं रुकने का अनुरोध करने लगे। अगली बार रुकने का कार्यक्रम बनाकर ही आने का मैंने उनसे वादा किया। एक पांव से विकलांग दर्जी का कार्य करने वाले दलीप सिंह बोरा कार्की जी मिल गऐ, उन्हें हम `दुल्दा´ कहते थे। उन्होंने बैशाखी के सहारे दुकान की सीढ़ियां चढ़कर भी बच्चों को नां-नां कहते बिस्कुट पकड़ा दिऐ। बमुश्किल एक दुकान पर पहाड़ी खट्टे-मीठे आम मिल गऐ, जिन्हें उस स्थान का प्रसाद समझ हम वापस लौट आऐ। 
वापसी में दो उल्लेखनीय घटनाएं घटीं। पहली 'मल्ली नैनी' में सैम मंदिर के पास, जहाँ वर्षा के बाद आसमान में बेहद खूबसूरत 'इन्द्र धनुष' ताना हुआ थाइन्द्र धनुष मैंने नैनीताल के अपेक्षाकृत छोटे आकाशीय फलक में कभी नहीं देखा था। दूसरी घटना चमुआ के पास जंगल में हुईअंधेरा घिर आया था। एक मोड़ पर कुछ जंगली प्राणी देख बच्चे डर गऐ। हम ठिठक पड़े। वहां किसी जानवर के कुछ बच्चे एक और बड़ा जानवर था। हमें देखने के कुछ देर बाद बच्चे तो भाग गऐ, लेकिन बड़ा जानवर सड़क पर बैठा रहा। अंधेरे में वह बाघ सदृश लग रहा था। मैंने स्कूटर की लाइट जलाई, हार्न बजाया, किन्तु वह टस से मस नहीं हुआ। मेरी भी कुछ समझ में नहीं आया। आखिर कुछ देर बाद जब तक मैं कुछ सोच पाता, वह उठ खड़ा हुआ। तब पता चला कि वह वास्तव में लोमड़ी था। यह परेशानी तो गुजर गई, और मैं इस सोच में पड़ गया कि बेहद डरपोक मानी जाने वाली लोमड़ी इतनी निर्भीक कैसे हो गई। विचार अतीत तक चले गऐ, जहां कभी वन्य पशुओं द्वारा आज की तरह घरेलू जानवरों व मनुष्यों को निवाला बनाने की खबरें नहीं सुनी जाती थीं। मनुष्य जंगलों से अकेले पैदल यात्राऐं करता था, लेकिन बन्दर, लंगूर जैसे गैर नुकसानदेह वन्य जानवर भी नहीं दिखते थे। पिताजी, हम बच्चों को अकेले सुबह ब्रह्म मुहूर्त में तड़के उठाकर नैनी से करीब 10 मील दूर पनुवानौला ले जाते थे, और हम वहां से सुबह सात या आठ बजे पिथौरागढ़ से हल्द्वानी के लिए आने वाली इकलौती रोडवेज की बस पकड़ते थे। तब कभी हमें कोई जानवर दूर से तक नहीं दिखता था। लेकिन अब तो मेरे अमेरिका यानी नैनीताल में बीते दिनों हिंसक हुए बन्दरों, लंगूरों को गोली मारने तक की नौबत आई। मथुरा से उन्हें पकड़ने के लिए विशेषज्ञ बुलाने पड़े, और उन्होंने उन्हें ही काट डाला। 600 से अधिक बन्दर-लंगूर पकड़े गऐ, परन्तु एक माह बाद भी स्थिति फिर से यथावत हो गई।

Tuesday, March 2, 2010

`जंगल की ज्वाला´ संग मुस्काया पहाड़..


 `...पारा भीड़ा बुरूंशी फूली छौ, मैं ज कूंछू मेरी हीरू ऐरै छौ ,´ देवभूमि उत्तराखण्ड के पहाड़ी जंगलों में पशु चारण करते ग्वाल बालों की जुबान पर यह गीत इन दिनों खासा चढ़ा हुआ है। कारण उनका प्यारा लाल , सुर्ख बुरांश पूरी तरह खिल आया है। उत्तराखण्ड के राज्य वृक्ष पर लकदक खिला यह फूल इस कदर मुस्कुराया है, कि इसके खिलने से महके ऋतुराज बसन्त के साथ मुस्काते पहाड़ों की खूबसूरती में चार चाँद लग गऐ हैं। कोशिश की जाऐ तो फूलों के मौसम की यह खूबसूरती प्रदेश के पर्यटन में भी  चार चाँद लगाते हुए काफी लाभकर हो सकती है। 


बुरांश का फूल जितना सुन्दर है, उतना ही अधिक लाभकारी भी। वनस्पति विज्ञान की भाशा में रोडोडिण्ड्रोन कहे जाने वाले बुरांश का पहाड़ से गहरा आत्मीय लगाव है। शायद इसीलिए इसके पेड़ को देवभूमि उत्तराखंड में राज्य वृक्ष का दर्जा मिला हुआ है। 

  • पूरी तरह लाल सुर्ख हो गऐ पहाड़ के कई जंगल 
  • पर्यटन के लिहाज से हो सकता है लाभकारी
देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू भी इसके प्रशंशकों में थे। उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा कि पहाड़ पर बुरांश के रंजित लाल स्थल दूर ही से दिख रहे थे। महाकवि अज्ञेय ने भी अपनी कविताओं में इसका कई बार जिक्र किया। 
हिन्दी के सुकुमार छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पन्त को तो इस पुष्प ने अपनी लोकभाषा  कुमाउनीं में लिखने को मजबूर कर दिया था। उन्होंने इसे `जंगल की ज्वाला´ नाम दिया था। वहीं कवि श्रीकान्त वर्मा भी इसका जिक्र करने से स्वयं को नहीं रोक पाये. उन्होंने लिखा, `दुपहर भर उड़ती रही सड़क पर मुरम की धूल, शाम को उभरा मैं, तुमने मुझे पुकारा बुरूंश का फूल´। राज्य के कुमाउंनी गढ़वाली कवियों ने इसे कभी प्रेमिका के गालों तो कभी उसके रूप सौन्दर्य के लिए खूब इस्तेमाल किया। इधर जलवायु परिवर्तन का असर इस पेड़ पर जहां समय पूर्व खिलने के रूप में सर्वाधिक दिखाई दे रहा है। इस प्रकार जलवायु परिवर्तनों पर  शोध करने के लिए भी इस वृक्ष की उपयोगिता बढ़ जाती है। दूसरी ओर पशुओं के लिए उत्तम चारा व जलौनी लकड़ी होने के कारण इसके जंगलों के आसपास के ग्रामीण भी इसे खासा नुकसान पहुंचा रहे हैं, जिसे रोकने की जरूरत है। फलस्वरूप इसके जंगल सिमटते जा रहे हैं। पहाड़ों पर 1200 से 4800 मीटर पर उगने वाले इस सदापर्णी वृक्ष के रक्तिम सुर्ख फूल में  शहद का भण्डार होता है। ऊंचाई बढ़ने के साथ इसके रंग में परिवर्तन होता जाता है और यह लाल रंग खोता हुआ गुलाबी, सफेद व बैगनी रंगों में भी पाया जाता है। एक ओर जहां यह चीड़ मिश्रित वनों में भी पाया जाता है, वहीं हिमालय के बुग्यालों के करीब होने वाली सीमित वृक्ष प्रजातियों में भी यह कम लंबाई के साथ मिल जाता है। इससे जूस, स्कवैश, जैम आदि उत्पाद बनाऐ जाते हैं, जो रक्तशोधक एवं हीमोग्लोबिन की पूर्तिकारक के रूप में अचूक औषधि माने जाते हैं। बुरांश का एक अन्य तरह से भी बड़ा व्यवसायिक इस्तेमाल हो सकता है। पहाड़ पर जिस मौसम में यह खिलता है, वह प्रदेश के पर्यटन के लिहाज से `ऑफ पीक´ यानी सर्वाधिक बुरा समय कहा जाता है, क्योंकि इन दिनों बर्फवारी की आस सिमट जाती है, और मैदानों में खास गर्मी नहीं बढ़ी होती। ऐसे में बुरांश के खिलने से पहाड़ में खिले फूलों का मौसम जहाँ सैलानियों को बड़ी संख्या में आकर्षित कर प्रदेश को बड़ी राजस्व आय दे सकता है, वहीँ सैलानियों के लिए प्रकृति के स्वर्ग में बड़ा आकर्षण भी साबित हो सकता है।
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