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Sunday, September 9, 2012

हिमालय सा व्यक्तित्व और दिल में बसता था पहाड़

लखनऊ, दिल्ली की रसोई में भी कुमाऊंनी भोजन बनता था 

पर्वतीय लोगों से अपनी बोली- भाषा में करते थे बात 
नवीन जोशी नैनीताल। देश की आजादी के संग्राम और आजादी के बाद देश को संवारने में अपना अप्रतिम योगदान देने वाले उत्तराखंड के लाल भारतरत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत का व्यक्तित्व हिमालय जैसा विशाल था। वह राष्ट्रीय फलक पर सोचते थे, लेकिन दिल में पहाड़ ही बसता था। उन्हें पहाड़ और पहाड़वासियों से अपार स्नेह था। पंत आज के नेताओं के लिए भी मिसाल हैं। वे महान ऊंचाइयों तक पहुंचने के बावजूद अपनी जड़ों से हमेशा जुड़े रहे और स्वार्थ की भावना से कहीं ऊपर उठकर अपने घर से विकास की शुरूआत की। उनके घर में आम कुमाऊंनी रसोई की तरह ही भोजन बनता था और आम पर्वतीय ब्राह्मणों की तरह वे जमीन पर बैठकर ही भोजन करते थे। पं. पंत के करीबी रहे नगर के वयोवृद्ध किशन लाल साह ‘कोनी’ ने 125वीं जयंती की पूर्व संध्या पर पं. पंत के नैनीताल नगर से जुड़ी यादों को से साझा किया। 
श्री साह 1952 में युवा कांग्रेस का गठन होते ही नैनीताल संयुक्त जनपद के पहले जिला अध्यक्ष बने। श्री साह बताते हैं कि 1945 से पूर्व संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री (प्रीमियर) रहने के दौरान तक पं. पंत तल्लीताल नया बाजार क्षेत्र में रहते थे। यहां वर्तमान क्लार्क होटल उस समय उनकी संपत्ति था। यहीं रहकर उनके पुत्र केसी पंत ने नगर के सेंट जोसफ कालेज से पढ़ाई की। वह अक्सर यहां तत्कालीन विधायक श्याम लाल वर्मा, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इंद्र सिंह नयाल, दलीप सिंह कप्तान आदि के साथ बी. दास, श्याम लाल एंड सन्स, इंद्रा फाम्रेसी, मल्लीताल तुला राम आदि दुकानों में बैठते और आजादी के आंदोलन और देश के हालातों व विकास पर लोगों की राय सुनते, सुझाव लेते, र्चचा करते और सुझावों का पालन भी करते थे।
बाद में वह फांसी गधेरा स्थित जनरल वाली कोठी में रहने लगे। यहीं से केसी पंत का विवाह बेहद सादगी से नगर के बिड़ला विद्या मंदिर में बर्शर के पद पर कार्यरत गोंविद बल्लभ पांडे ‘गोविंदा’ की पुत्री इला से हुआ। केसी पूरी तरह कुमाऊंनी तरीके से सिर पर मुकुट लगाकर और डोली में बैठकर दुल्हन के द्वार पहुंचे थे। इस मौके पर आजाद हिंद फौज के सेनानी रहे कैप्टन राम सिंह ने बैंड वादन किया था। आजादी के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए वे पंत सदन (वर्तमान उत्तराखंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का आवास) में रहे, जोकि मूलत: रामपुर के नवाब की संपत्ति था और इसे अंग्रेजों ने अधिग्रहीत किया था। साह बताते हैं कि वह जब भी उनके घर जाते, उनकी माताजी पर्वतीय दालों भट, गहत आदि लाने के बारे में पूछतीं और हर बार रस- भात बनाकर खिलाती थीं।
उनके लखनऊ के बदेरियाबाग स्थित आवास पर पहाड़ से जो लोग भी पहुंचते, पंत उनके भोजन व आवास की स्वयं व्यवस्था कराते थे और उनसे कुमाऊंनी में ही बात करते थे। उनका मानना था कि पहाड़ी बोली हमारी पहचान है। वह अन्य लोगों से भी अपनी बोली-भाषा में बात करने को कहते थे। साह पं. पंत की वर्तमान राजनेताओं से तुलना करते हुए कहते हैं कि पं. पंत के दिल में जनता के प्रति दर्द था, जबकि आज के नेता नितांत स्वार्थी हो गये हैं। पंत में सादगी थी, वह लोगों के दुख-दर्द सुनते और उनका निदान करते थे। वह राष्ट्रीय स्तर के नेता होने के बावजूद अपनी जड़ों से जुड़े हुए थे। उन्होंने नैनीताल जनपद में ही पंतनगर कृषि विवि की स्थापना और तराई में पाकिस्तान से आये पंजाबी विस्थापितों को बसाकर पहाड़ के आँगन को हरित क्रांति से लहलहाने सहित अनेक दूरगामी महत्व के कार्य किये। 

पन्त के जीवन के कुछ अनछुवे पहलू 

राष्ट्रीय नेता होने के बावजूद पं. पंत अपने क्षेत्र-कुमाऊं, नैनीताल से जुड़े रहे। केंद्रीय गृह मंत्री और संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री रहते हुई भी वह स्थानीय इकाइयों से जुड़े रहे। उनकी पहचान बचपन से लेकर ताउम्र कैसी भी विपरीत परिस्थितियों में सबको समझा-बुझाकर साथ लेकर चलने की रही। कहते हैं कि बचपन में वह मोटे बालक थे, वह कोई खेल भी नहीं खेलते थे, एक स्थान पर ही बैठे रहते थे, इसलिए बचपन में वह 'थपुवा" कहे जाते थे। लेकिन वे पढ़ाई में होशियार थे। कहते हैं कि गणित के एक शिक्षक ने कक्षा में प्रश्न पूछा था कि 30 गज कपड़े को यदि हर रोज एक मीटर काटा जाए तो यह कितने दिन में कट जाएगा, जिस पर केवल उन्होंने ही सही जवाब दिया था-29 दिन, जबकि अन्य बच्चे 30 दिन बता रहे थे। अलबत्ता, इस दौरान उनका काम खेल में लड़ने वाले बालकों का झगड़ा निपटाने का रहता था। उनकी यह पहचान बाद में गोपाल कृष्ण गोखले की तरह तमाम विवादों को निपटाने की रही। संयुक्त प्रांत का प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते वह रफी अहमद किदवई सरीखे अपने आलोचकों और अनेक जाति-धर्मों में बंटे इस बड़े प्रांत को संभाले रहे और यहां तक कि केंद्रीय गृह मंत्री रहते 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौर में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू अपने चीनी समकक्ष चाऊ तिल लाई से बात नहीं कर पा रहे थे, तब पं पंत ही थे, जिन्होंने चाऊलाई को काबू में किया था। इस पर चाऊलाई ने उनके लिए कहा था-भारत के इस सपूत को समझ पाना बड़ा मुश्किल है। अलबत्ता, वह कुछ गलत होने पर विरोध करने से भी नहीं हिचकते थे। कहते हैं कि उन्होंने न्यायाधीश से विवाद हो जाने की वजह से अल्मोड़ा में वकालत छोड़ी और पहले रानीखेत व फिर काशीपुर चले गए। इस दौरान एक मामले में निचली अदालत में जीतने के बावजूद उन्होंने सेशन कोर्ट में अपने मुवक्किल का मुकदमा लड़ने से इसलिए इंकार कर दिया था कि उसने उन्हें गलत सूचना दी थी, जबकि वह दोषी था।
राजनीति और संपन्नता उन्हें विरासत में मिली थी। उनके नाना बद्री दत्त जोशी तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर सर हेनरी रैमजे के अत्यधिक निकटस्थ सदर अमीन के पद पर कार्यरत थे, और उनके दादा घनानंद पंत टी-स्टेट नौकुचियाताल में मैनेजर थे। कुमाऊं परिषद की स्थापना 1916 में उनके नैनीताल के घर में ही हुई थी। प्रदेश के नया वाद, वनांदोलन, असहयोग व व्यक्तिगत सत्याग्रह सहित तत्कालीन समस्त आंदोलनों में वह शामिल रहे थे। अलबत्ता कुली बेगार आंदोलन में उनका शामिल न होना अनेक सवाल खड़ा करता है। इसी तरह उन्होंने गृह मंत्री रहते देश की आजादी के बाद के पहले राज्य पुर्नगठन संबंधी पानीकर आयोग की रिपोर्ट के खिलाफ जाते हुए हिमांचल प्रदेश को संस्कृति व बोली-भाषा का हवाला देते हुए अलग राज्य बनवा दिया, लेकिन वर्तमान में कुमाऊं आयुक्त अवनेंद्र सिंह नयाल के पिता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इंद्र सिंह नयाल के इसी तर्ज पर उत्तराखंड को भी अलग राज्य बनाने के प्रस्ताव पर बुरी तरह से यह कहते हुए डपट दिया था कि ऐसा वह अपने जीवन काल में नहीं होने देंगे। आलोचक कहते हैं कि बाद में पंडित नारायण दत्त तिवारी (जिन्होंने भी उत्तराखंड मेरी लाश पर बनेगा कहा था) की तरह वह भी नहीं चाहते थे कि उन्हें एक अपेक्षाकृत बहुत छोटे राज्य के मुख्यमंत्री के बारे में इतिहास में याद किया जाए।  1927 में साइमन कमीशन के विरोध में उन्होंने जवाहर लाल नेहरू को बचाकर लाठियां खाई थीं। इस पर भी आलोचकों का कहना है कि ऐसा उन्होंने नेहरू के करीब आने और ऊंचा पद प्राप्त करने के लिए किया। 1929 में वारदोली आंदोलन में शामिल होकर महात्मा गांधी के निकटस्थ बनने तथा 1925 में काकोरी कांड के भारतीय आरोपितों के मुकदमे कोर्ट में लड़ने जैसे बड़े कार्यों से भी उनका कद बढ़ा था।

वास्तव में 30 अगस्त है पं. पंत का जन्म दिवस 
नैनीताल। पं. पंत का जन्म दिन हालांकि हर वर्ष 10 सितम्बर को मनाया जाता है, लेकिन वास्तव में उनका जन्म 30 अगस्त 1887 को अल्मोड़ा जिले के खूंट गांव में हुआ था। वह अनंत चतुर्दशी का दिन था। प्रारंभ में वह अंग्रेजी माह के बजाय हर वर्ष अनंत चतुर्दशी को अपना जन्म दिन मनाते थे। 1946 में अनंत चतुर्दशी यानी जन्म दिन के मौके पर ही वह संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री बने थे, यह 10 सितम्बर का दिन था। इसके बाद उन्होंने हर वर्ष 10 सितम्बर को अपना जन्म दिन मनाना प्रारंभ किया।
भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत के बारे में और अधिक जानकारी यहाँ भी पढ़ सकते हैं।  

Friday, September 3, 2010

उत्तराखंड का प्राचीन इतिहास: ताकि सनद रहे........

विश्व की तत्कालीन परिस्थितियों के आलोक में उत्तराखण्ड का इतिहास 
उत्तराखण्ड में अंग्रेजों का आगमन बिहार के सिघौली में 1815 में अंग्रेजों एवं गोर्खाओं के बीच हुई संधि के बाद हुआ। इससे पूर्व चन्द राजाओं के पतन के बाद गोर्खाओं के राज (कुमाऊं में 1790 से 1815 और गढ़वाल में 1804 से 1815 तक) में यहां के लोग खासे परेशान थे। गोर्खाली राज शासकीय जुल्मों का बेहद ही काला अध्याय रहा। इस दौर में कढ़ाई दीप व पाथर दान के मूर्खतापूर्ण तरीकों से दण्ड देने के प्राविधान थे। किसी व्यक्ति पर किसी अपराध का शक भी होता, तो उसका `पाथर दान´ के तहत पत्थरों से वजन लिया जाता और एक माह तक उसे बिना भोजन, केवल पानी देकर गुफा में रखा जाता। एक माह बाद उसका पुन: वजन लिया जाता, जो निश्चित ही भोजन न मिलने से पहले से कम होता, और इस आधार पर उसे दोषी मान लिया जाता व कड़ी सजा दी जाती। इसी प्रकार `कढ़ाई दीप´ के तहत शक होने पर व्यक्ति के हाथ खौलते घी में डाले जाते और जलने पर उसे दोषी मान लिया जाता। इस कारण हर्ष देव जोशी, जो कि पूर्व में चन्द वंशीय राजाओं के अन्तिम दीवान थे, अंग्रेजों को यहां लेकर आऐ। अंग्रेजों के इस पर्वतीय भूभाग में आने के कारण यहां की प्राकृतिक सुन्दरता से अभिभूत होने के साथ ही व्यापारिक भी थे। उन दिनों भारत का तिब्बत व नेपाल से बड़ा व्यापारिक लेन-देन होता था। यहां जौलजीवी, बागेश्वर, गोपेश्वर व हल्द्वानी आदि में बड़े व्यापारिक मेले होते थे। 19वीं शताब्दी का वह समय औपनिवेशिक वैश्विकवाद व साम्राज्यवाद का दौर था। नऐ उपनिवेशों की तलाश व वहां साम्राज्य फैलाने के लिए फ्रांस, इंग्लैण्ड व पुर्तगाल जैसे यूरोपीय देश समुद्री मार्ग से भारत आ चुके थे, जबकि रूस स्वयं को इस दौड़ में पीछे रहता महसूस कर रहा था। कारण, उसकी उत्तरी समुद्री सीमा में स्थित वाल्टिक सागर व उत्तरी महासागर सर्दियों में जम जाते थे। तब स्वेज नहर भी नहीं थी। ऐसे में उसने काला सागर या भूमध्य सागर के रास्ते भारत आने के प्रयास किऐ, जिसका फ्रांस व तुर्की ने विरोध किया। इस कारण 1854 से 1856 तक दोनों खेमों के बीच क्रोमिया का विश्व प्रसिद्ध युद्ध हुआ। इस युद्ध में रूस पराजित हुआ, जिसके फलस्वरूप 1856 में हुई पेरिस की संधि में यूरोपीय देशों ने रूस पर काला सागर व भूमध्य सागर की ओर से सामरिक विस्तार न करने का प्रतिबंध लगा दिया। ऐसे में भारत आने के लिए उत्सुक रूस के भारत आने के अन्य मार्ग बन्द हो गऐ थे, और वह केवल तिब्बत की ओर के मार्गों से ही भारत आ सकता था। तिब्बत से उत्तराखण्ड के लिपुलेख, नीति, माणा व जौहार घाटी के पहाड़ी दर्रों से आने के मार्ग बहुत पहले से प्रचलित थे। यूरोपीय देशों को इन रास्तों की जानकारी कमोबेश 1624 से थी। 1624 में आण्ड्रा डे नाम के यूरोपीय ने श्रीनगर गढ़वाल के रास्ते ही शापरांग तिब्बत जाकर वहां चर्च बनाया था। इसलिए कंपनी सरकार ने रूस की उत्तराखण्ड के रास्ते भारत आने की संभावना को भांप लिया, लिहाजा उसके लिए `जियो पालिटिकल´ यानी भौगोलिक व राजनीतिक कारणों से उत्तराखण्ड बेहद महत्वपूर्ण हो गया था।
अंग्रेजों ने इन्हीं `जियो पालिटिकल´ कारणों के कारण यहां स्काटलेण्ड के अधिकारियों को कमिश्नर जैसे बड़े पदों पर रखा। स्काटलेण्ड इंग्लेण्ड का उत्तराखण्ड की तरह का ही पर्वतीय इलाका है, लिहाजा वहां के मूल निवासी अधिकारी यहां के पहाड़ों के हालातों को भी बेहतर समझ सकते थे। कुमाऊं कमिश्नर हैनरी रैमजे, जीडब्ल्यू ट्रेल, लूसिंग्टन आदि सभी स्काटलेण्ड के थे। इनमें से रैमजे कुमाउनीं में बातें करते थे, उन्होंने यहां कई सुधार कार्य किऐ, बल्कि उन्हें यदा-कदा लोग `राम जी´ भी कह दिया करते थे। ट्रेल ने एक अन्य यात्रा मार्ग ट्रेलपास की खोज की, नैनीताल की खोज का भी उन्हें श्रेय दिया जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने इस क्षेत्र से लोगों की धार्मिक भावनाओं का जुड़ाव व अप्रतिम सुन्दरता को अंग्रेजों की नज़रों से भी बचाने का प्रयास किया, और क्षेत्रीय लोगों से भी इस स्थान पर अंग्रेजों को न लाने को प्रेरित किया। लूसिंग्टन नैनीताल की बसासत के दौरान कमिश्नर थे। उन्होंने यहां सार्वजनिक हित के अलावा व्यक्तिगत कार्यों के लिए भूमि के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया था, और यहां स्वयं का घर भी नहीं बनाया। उनकी कब्र आज भी नैनीताल में मौजूद है। इसका अर्थ यह हुआ कि उस दौर की कंपनी सरकार पहाड़ों के प्रति बेहद संवेदनशील थी।
शायद यही कारण रहा कि 1857 में जब देश कंपनी सरकार के खिलाफ उबल रहा था, पहाड़ में एकमात्र काली कुमाऊं में कालू महर व उनके साथियों ने ही रूहेलों से मिलकर आन्दोलन किऐ, हल्द्वानी से रुहेलों के पहाड़ की ओर बढ़ने के दौरान हुआ युद्ध व अल्मोड़ा जेल आदि में अंग्रेजों के खिलाफ छिटपुट आन्दोलन ही हो पाऐ। और जो आन्दोलन हुऐ उन्हें जनता का समर्थन हासिल नहीं हुआ। हल्द्वानी में 100 से अधिक रुहेले मारे गऐ। कालू महर व उनके साथियों को फांसी पर लटका दिया गया। 
शायद इसीलिए 1857 में जब देश में कंपनी सरकार की जगह `महारानी का राज´ कायम हुआ, अंग्रेज पहाड़ों के प्रति और अधिक उदार हो गऐ। उन्होंने यहां कई सुधार कार्य प्रारंभ किऐ, जिन्हें पूरे देश से इतर पहाड़ों पर अंग्रेजों द्वारा किऐ गऐ निर्माणों के रूप में भी देखा जा सकता है।
लेकिन इस कवायद में उनसे कुछ बड़ी गलतियां हो गईं। मसलन, उन्होंने पीने के पानी के अतिरिक्त शेष जल, जंगल, जमीन को अपने नियन्त्रण में ले लिया। इस वजह से यहां भी अंग्रेजों के खिलाफ नाराजगी शुरू होने लगी, जिसकी अभिव्यक्ति देश के अन्य हिस्सों से कहीं देर में पहली बार 1920 में देश में चल रहे `असहयोग आन्दोलन´ के दौरान देखने को मिली। इस दौरान गांधी जी की अगुवाई में आजादी की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस पार्टी यहां के लोगों को यह समझाने में पहली बार सफल रही कि अंग्रेजों ने उनके प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार जमा लिया है। कांग्रेस का कहना था कि वन संपदा से जुड़े जनजातीय व ऐसे क्षेत्रों के अधिकार क्षेत्रवासियों को मिलने चाहिऐ। इसकी परिणति यह हुई कि स्थानीय लोगों ने जंगलों को अंग्रेजों की संपत्ति मानते हुऐ 1920 में 84,000 हैक्टेयर भूभाग के जंगल जला दिऐ। इसमें नैनीताल के आस पास के 112 हैक्टेयर जंगल भी शामिल थे। इस दौरान गठित कुमाऊं परिशद के हर अधिवेशन में भी जंगलों की ही बात होती थी, लिहाजा जंगल जलते रहे। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान 1930-31 के दौरान और 1942 तक भी यही स्थिति चलती रही, तब भी यहां बड़े पैमाने पर जंगल जलाऐ गऐ। कुली बेगार जो कि वास्तव में गोर्खाली शासनकाल की ही देन थी, यह कुप्रथा हालांकि अंग्रेजों के दौरान कुछ शिथिल भी पड़ी थी। इतिहासकार पद्मश्री शेखर पाठक के अनुसार इसे समाप्त करने के लिए अंग्रेजों ने खच्चर सेना का गठन भी किया था। इस कुप्रथा के खिलाफ जरूर पहाड़ पर बड़ा आन्दोलन हुआ, जिससे पहाड़वासियों ने कुमाऊं परिषद के संस्थापक बद्री दत्त पाण्डे, हरिगोविन्द पन्त तथा चिरंजीवी लाल आदि के नेतृत्व में 14 जनवरी 1921 को उत्तरायणी के पर्व पर बागेश्वर में पीछा छुड़ाकर ही दम लिया। गढ़वाल में बैरिस्टर मुकुन्दी लाल के नेतृत्व में 30 जनवरी 21 को इसी तरह आगे से `कुली बेगार´ न देने की शपथ ली गई। सातवीं शताब्दी में कत्यूरी शासनकाल में भी बेगार का प्रसंग मिलता है। कहते हैं कि अत्याचारी कत्यूरी राजा वीर देव ने अपनी डोली पहाड़ी पगडण्डियों पर हिंचकोले न खाऐ, इसलिए कहारों के कंधों में हुकनुमा कीलें फंसा दी थी। कहते हैं कि इसी दौरान कुमाऊं का प्रसिद्ध गीत `तीलै धारो बोला...´ सृजित हुआ था। गोरखों के शासनकाल में खजाने का भार ढोने से लोगों के सिरों से बाल गायब हो गऐ थे। कुमाउनीं के आदि कवि गुमानी पन्त की कविता `दिन दिन खजाना का भार बोकना लै, शिब-शिब चूली में न बाल एकै कैका...´ कविता लिखी गई। 
                                                       (इतिहासविद् प्रो. अजय रावत से बातचीत के आधार पर)
उत्तराखंड में मिले हड़प्पा कालीन संस्कृति के भग्नावशेष
हड़प्पा कालीन है उत्तराखंड का इतिहास  
 महा पाषाण शवागारों से उत्तराखंड में आर्यों के आने की पुष्टि 
´ब्रिटिश कुमाऊं´ में भी गूंजे थे जंगे आजादी के `गदर में विद्रोह के स्वर
नवीन जोशी, नैनीताल। उत्तराखंड के पहाड़ों की भौगोलिक परिस्थितियां 1857 में देश के प्रथम स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान अंग्रेजों से विद्रोह के अधिक अनुकूल नहीं थीं। सच्चाई यह भी थी कि अंग्रेजों के 1815 में आगमन से पूर्व यहां के लोग गोरखों का बेहद दमनात्मक राज झेल रहे थे, वरन उन्हें ब्रिटिश राज में कष्टों से कुछ राहत ही मिली थी। इसके बावजूद यहां भी जंगे आजादी के पहले 'गदर' के दौरान विद्रोह के स्वर काफी मुखरता से गूंजे थे। 








  • नैनीताल व अल्मोड़ा में फांसी पर लटकाए गए कई साधु वेशधारी क्रांतिकारी 
  • इनमें तात्या टोपे के होने की भी संभावना 
  • हल्द्वानी में शहीद हुए थे 114  क्रांतिकारी रुहेले 
  • काली कुमाऊं में बिश्ना कठायत व कालू महर ने थामी थी क्रान्ति की मशाल
इतिहासकारों के अनुसार ´ब्रिटिश कुमाऊं´ कहे जाने वाले बृहद कुमाऊं में वर्तमान कुमाऊं मण्डल के छ: जिलों के अलावा गढ़वाल मण्डल के चमोली व पौड़ी जिले तथा रुद्रप्रयाग जिले का मन्दाकिनी नदी से पूर्व के भाग भी शामिल थे। 1856 में जब ब्रितानी ईस्ट इण्डिया कंपनी के विरुद्ध देश भर में विद्रोह होने प्रारंभ हो रहे थे, यह भाग कुछ हद तक अपनी भौगोलिक दुर्गमताओं के कारण इससे अलग थलग भी रहा। 1815 में कंपनी सरकार यहां आई, जिससे पूर्व पूर्व तक पहाड़वासी बेहद दमनकारी गोरखों को शासन झेल रहे थे, जिनके बारे में कुमाऊं के आदि कवि ´गुमानी´ ने लिखा था ´दिन दिन खजाना का भार बोकना लै, शिब शिब चूली में का बाल न एकै कैका´ यानि गोरखे इतना शासकीय भार जनता के सिर पर थोपते थे, कि किसी के सिर में बाल ही नहीं उग पाते थे। लेकिन कंपनी सरकार को उर्वरता के लिहाज से कमजोर इस क्षेत्रा से विशेश राजस्व वसूली की उम्मीद नहीं थी, और वह इंग्लेण्ड के समान जलवायु व सुन्दरता के कारण यहां जुल्म ढाने की बजाय अपनी बस्तियां बसाकर घर जैसा माहौल बनाना चाहते थे। इतिहासकार पद्मश्री डा. शेखर पाठक बताते हैं कि इसी कड़ी में अंग्रेजों ने जनता को पहले से चल रही कुली बेगार प्रथा से निजात दिलाने की भी कुछ हद तक पहल की। इसके लिए 1822 में ग्लिन नाम के अंग्रेज अधिकारी ने लोगों के विस्तृत आर्थिक सर्वेक्षण भी कराए। उसने इसके विकल्प के रूप में खच्चर सेना गठित करने का प्रस्ताव भी दिया था। इससे लोग कहीं न कहीं अंग्रेजों को गोरखों से बेहतर मानने लगे थे, लेकिन कई बार स्वाभिमान को चोट पहुंचने पर उन्होंने खुलकर इसका विरोध भी किया। कुमाउंनी कवि गुमानी व मौला राम की कविताओं में भी यह विरोध व्यापकता के साथ रहा। इधर 1857 में रुहेलखण्ड के रूहेले सरदार अंग्रेजों की बस्ती के रूप में विकसित हो चुकी `छोटी बिलायत´ कहे जाने वाले नैनीताल को अंग्रेजों से मुक्त कराना चाहते थे, पर 17 सितम्बर 1857 को तत्कालीन कुमाऊं कमिश्नर हेनरी रैमजे ने अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें हल्द्वानी के बमौरी दर्रे व कालाढुंगी से आगे नहीं बढ़ने दिया। इस कवायद में 114 स्वतंत्रता सेनानी क्रान्तिकारी रुहेले हल्द्वानी में शहीद हुए। इसके अलावा 1857 में ही रैमजे ने नैनीताल में तीन से अधिक व अल्मोड़ा में भी कुछ साधु वेशधारी क्रान्तिकारियों को फांसी पर लटका दिया गया। नैनीताल का फांसी गधेरा (तत्कालीन हैंग मैन्स वे) आज भी इसका गवाह है। प्रो. पाठक इन साधुवेश धारियों में मशहूर क्रांतिकारी तात्या टोपे के भी शामिल होने की संभावना जताते हैं, पर दस्तावेज न होने के कारण इसकी पुष्टि नहीं हो पाती।
इसी दौरान पैदा हुआ उत्तराखंड का पहला नोबल पुरस्कार विजेता
एक ओर जहां देश की आजादी के लिए पहले स्वतन्त्रता संग्राम चल रहा था, ऐसे में रत्नगर्भा कुमाऊं की धरती एक महान अंग्रेज वैज्ञानिक को जन्म दे रही थी। 1857 में मैदानी क्षेत्रों में फैले गदर के दौरान कई अंग्रेज अफसर जान बचाने के लिए कुमाऊं के पहाड़ों की ओर भागे थे। इनमें एक गर्भवती ब्रिटिश महिला भी शामिल थी, जिसने अल्मोड़ा में एक बच्चे को जन्म दिया। रोनाल्ड रॉस नाम के इस बच्चे ने ही बड़ा होकर   मलेरिया के परजीवी प्लास्मोडियम के जीवन चक्र  की खोज की, जिसके लिए उसे चिकित्सा का नोबल भी पुरस्कार प्राप्त हुआ।







उधर `काली कुमाऊं´ में बिश्ना कठायत व आनन्द सिंह फर्त्याल को अंग्रेजों ने विरोध करने पर फांसी पर चढ़ा दिया, जबकि प्रसिद्ध  क्रांतिकारी कालू महर को जेल में डाल दिया गया। ब्रिटिश कुमाऊं के ही हिस्सा रहे श्रीनगर में अलकनन्दा नदी के बीच पत्थर पर खड़ा कर कई क्रान्तिकारियों को गोली मार दी गई। 1858 में देश में ईस्ट इण्डिया कंपनी की जगह ब्रिटिश महारानी की सरकार बन जाने से पूर्व अल्मोड़ा कैंट स्थित आर्टिलरी सेना में भी विद्रोह के लक्षण देखे गए, जिसे समय से जानकारी मिलने के कारण दबा दिया गया। कई सैनिकों को सजा भी दी गईं। अंग्रेजों के शासकीय दस्तावेजों में यह घटनाएं दर्ज मिलती हैं, पर खास बात यह रही कि अंग्रेजों ने दस्तावेजों में कहीं उन क्रान्तिकारियों का नाम दर्ज करना तक उचित नहीं समझा, जिससे वह अनाम ही रह गऐ।

Saturday, April 17, 2010

लीजिये इतिहास हुई गदर के जमाने की अनूठी `गांधी पुलिस'



नवीन जोशी, नैनीताल। अंग्रेजों के जमाने की और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सिद्धान्तों पर आधारित देश की एक अनूठी व्यवस्था 150 से अधिक वर्षों तक सफलता के साथ चलने के बाद बीती 30 मार्च से तकरीबन इतिहास बन गई है। पूरे देश से इतर उत्तराखण्ड राज्य के केवल पहाड़ी अंचलों में कानून व्यवस्था को कमोबेश सफलता से निभाते हुऐ सामान्यतया `गांधी पुलिस´ कही जाने वाली राजस्व पुलिस यानी पटवारी व्यवस्था को आगे जारी रखने की आखिरी उम्मीद भी इसके साथ तकरीबन टूट गई है। पटवारी व कानूनगो तो बीते लंबे समय से इसका बहिस्कार किऐ ही हुऐ थे, अब नायब तहसीलदारों ने भी इससे तौबा कर ली है।
  • नायब तहसीलदारों ने किया प्रदेश भर में पुलिस कार्यों का बहिस्कार 
  • 1857 के गदर के जमाने से चल रही पटवारी व्यवस्था से पटवारी व कानूनगो पहले ही हैं विरत
  • पहले आधुनिक संसाधनों के लिए थे आन्दोलित, सरकार के उदासीन रवैये के बाद अब कोई मांग नहीं, राजस्व पुलिस भत्ता भी त्यागा
हाथ में बिना लाठी डण्डे के तकरीबन गांधी जी की ही तरह गांधी पुलिस के जवान देश आजाद होने और राज्य अलग होने के बाद भी अब तक उत्तराखण्ड राज्य के पर्वतीय भू भाग में शान्ति व्यवस्था का दायित्व सम्भाले हुऐ थे। लेकिन इधर अपराधों के बढने के साथ बदले हालातों में राजस्व पुलिस के जवानों ने व्यवस्था और वर्तमान दौर से तंग आकर स्वयं इस दायित्व का परित्याग कर दिया है। 1857 में जब देश का पहला स्वतन्त्राता संग्राम यानी गदर लड़ा जा रहा था, तत्कालीन हुक्मरान अंग्रेजों को पहली बार देश में कानून व्यवस्था और शान्ति व्यवस्था बनाने की सूझी थी। अमूमन पूरे देश में उसी दौर में पुलिस व्यवस्था की शुरूआत हुई। इसके इतर उत्तराखण्ड के पहाड़ों के लोगों की शान्ति प्रियता, सादगी और अपराधों से दूरी ने अंग्रेजों को अत्यधिक प्रभावित किया था, सम्भवतया इसी कारण अंग्रेजों ने 1861 में यहां अलग से "कुमाऊँ रूल्स" के तहत पूरे देश से इतर `बिना शस्त्रों वाली´ गांधी जी की ही तरह केवल लाठी से संचालित `राजस्व पुलिस व्यवस्था शुरू की, जो बाद में देश में `गांधी पुलिस व्यवस्था´ के रूप में भी जानी गई। इस व्यवस्था के तहत पहाड़ के इस भूभाग में पुलिस के कार्य भूमि के राजस्व सम्बंधी कार्य करने वाले राजस्व लेखपालों को पटवारी का नाम देकर ही सोंप दिऐ गऐ। पटवारी, और उनके ऊपर के कानूनगो व नायब तहसीलदार जैसे अधिकारी भी बिना लाठी डण्डे के ही यहां पुलिस का कार्य सम्भाले रहे। गांवों में उनका काफी प्रभाव होता था, और उन्हें सम्मान से अहिंसावादी गांधी पुलिस भी कहा जाता था। कहा जाता था कि यदि पटवारी क्या उसका चपरासी यानी सटवारी भी यदि गांव का रुख कर ले तो कोशों दूर गांव में खबर लग जाती थी, और ग्रामीण डर से थर-थरा उठते थे। 
एक किंवदन्ती के अनुसार कानूनगो के रूप में प्रोन्नत हुऐ पुत्र ने नई नियुक्ति पर जाने से पूर्व अपनी मां के चरण छूकर आशीर्वाद मांगा तो मां ने कह दिया, `बेटा, भगवान चाहेंगे तो तू फिर पटवारी ही हो जाएगा´। यह किंवदन्ती पटवारी के प्रभाव को इंगित करती है। लेकिन बदले हालातों और हर वर्ग के सरकारी कर्मचारियों के कार्य से अधिक मांगों पर अड़ने के चलन में पटवारी भी कई दशकों तक बेहतर संसाधनों की मांगों के साथ आन्दोलित रहे। उनका कहना था कि वर्तमान ब-सजय़ते और गांवों तक हाई-टेक होते अपराधों के दौर में उन्हें भी पुलिस की तरह बेहतर संसाधन चाहिऐ, लेकिन सरकार ने कुछ पटवारी चौकियां बनाने के अतिरिक्त उनकी एक नहीं सुनी। यहाँ तक कि वह 1947 की बनी हथकड़ियों से ही दुर्दांत अपराधियों को भी गिरफ्त में लेने को मजबूर थे इधर 40-40 जिप्सियां व मोटर साईकिलें मिलीं भी तो अधिकाँश पर कमिश्नर-डीएम जैसे अधिकारियों ने तक कब्ज़ा जमा लिया। 1982 से पटवारियों को प्रभारी पुलिस थानाध्यक्ष की तरह राजस्व पुलिस चौकी प्रभारी बना दिया गया, लेकिन वेतन तब भी पुलिस के सिपाही से भी कम था। अभी हाल तक वह केवल एक हजार रुपऐ के पुलिस भत्ते के साथ अपने इस दायित्व को अंजाम दे रहे थे। उनकी संख्या भी बेहद कम थी। स्थिति यह थी कि प्रदेश के समस्त पर्वतीय अंचलों के राजस्व क्षेत्रों की जिम्मेदारी केवल 1250 पटवारी, उनके इतने ही अनुसेवक, 150 राजस्व निरीक्षक यानी कानूनगो और इतने ही चेनमैन सहित कुल 2813 राजस्व कर्मी सम्भाल रहे थे। इस पर पटवारियों ने मई 2008 से पुलिस भत्ते सहित अपने पुलिस के दायित्वों का स्वयं परित्याग कर दिया। इसके बाद थोड़ा बहुत काम चला रहे कानूनगो के बाद बीती 30 मार्च से प्रदेश के रहे सहे नायब तहसीलदारों ने भी पुलिस कार्यों का परित्याग कर दिया है। पर्वतीय नायब तहसीलदार संघ के कुमाऊं मण्डल अध्यक्ष नन्दन सिंह रौतेला के हवाले से धारी के नायब तहसीलदार दामोदर पाण्डे ने बताया कि गढवाल मण्डल में इस बाबत पहले ही निर्णय ले लिया गया था, जबकि कुमाऊं के नायब तहसीलदारों ने बीती 28 मार्च 2010 को अल्मोड़ा में हुई बैठक में यह निर्णय लिया। लिहाजा प्रदेश के समस्त नायब तहसीलदारों ने 30 मार्च से पुलिस कार्य त्याग दिऐ हैं। उल्लेखनीय है कि राजस्व पुलिस व्यवस्था में अब ऐसा कोई पद संवर्ग नहीं बचा है, जो पुलिस कार्य करने को राजी है। ऐसे में नायब तहसीलदारों के भी पुलिस कार्यों के परित्याग से पहाड़ी गांवों में होने वाले अपराधों का खुलासा और ग्रामीणों की सुरक्षा भगवान भरोसे ही रह गई है।इधर प्रदेश के शासन प्रशासन ने पटवारियों के बाद नायब तहसीलदारों के भी पुलिसिंग कार्यों का बहिस्कार करने पर कड़ा रवैया अपनाया है। प्रदेश के मुख्य सचिव, राजस्व आयुक्त, कुमाऊं आयुक्त एवं जिलों में जिलाधिकारियों ने नायब तहसीलदारों से 30 अप्रैल तक कार्य पर लौटने का अल्टीमेटम दिया है। उनका कहना है कि अधिकतर आन्दोलित नायब तहसीलदार मूलत: पटवारी ही हैं। पटवारियों के पुलिस कार्यों का परित्याग करने पर पुलिस कार्य कराने के उद्देश्य से उन्हें प्रभारी नायब तहसीलदार बनाया गया था। वास्तविक नायब तहसीलदारों को पुलिस के अधिकार ही नहीं होते हैं। ऐसे में प्रभारी नायब तहसीलदारों के द्वारा पुलिस कार्यों का परित्याग करना कर्मचारी संहिता के तहत निरुद्ध है। ऐसे में उनके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है। उन्हें मूल पद पर पदावनत भी किया जा सकता है। इधर 11 अप्रैल को नैनीताल में नायब तहसीलदारों की प्रदेश अध्यक्ष धीरज सिंह आर्य की अध्यक्षता में हुई बैठक में सरकार की धमकी के आगे न झुकने का ऐलान किया गया, साथ ही उत्पीड़न या जोर जबर्दस्ती होने पर आन्दोलन की धमकी भी दी गई।इस बाबत पूछे जाने पर उत्तराखंड के प्रमुख सचिव-राजस्व सुभाष कुमार ने एक मुलाकात में साफगोई से कहा कि पूरे प्रदेश में राजस्व पुलिस व्यवस्था पर केवल 1.5 करोड़ रुपये खर्च होते हैं, जबकि इसकी जगह यदि नागरिक पुलिस लगाई जाए तो 400 करोड़ रुपये खर्च होंगे




    भैया, यह का फल है ? जी यह 'काफल' ही है .

    नवीन जोशी, नैनीताल। दिल्ली की गर्मी से बचकर नैनीताल आऐ सैलानी दिवाकर शर्मा सरोवरनगरी पहुंचे। बस से उतरते ही झील के किनारे बिकते एक नऐ से फल को देख बच्चे उसे लेने की जिद करने लगे। शर्मा जी ने पूछ लिया, भय्या यह का फल है ? टोकरी में फल लेकर बेच रहे विक्रेता प्रकाश ने जवाब दिया `काफल´ है। शर्मा जी की समझ में कुछ न आया, पुन: फल का नाम पूछा लेकिन फिर वही जवाब। आखिर शर्मा जी के एक स्थानीय मित्र ने स्थिति स्पष्ट की, भाई साहब, इस फल का नाम ही काफल है। दाम पूछे तो जवाब मिला, 150 रुपऐ किलो। आखिर कागज की शंकु के अकार की पुड़िया दस रुपऐ में ली, लेकिन स्वाद लाजबाब था, सो एक से काम न चला। सब के लिए अलग अलग ली। अधिक लेने की इच्छा भी जताई, तो दुकानदार बोला, बाबूजी यह पहाड़ का फल है। बस, चखने भर को ही उपलब्ध है।




    • नैनीताल की बाजार में पहुंचा काफल, तो हाथों हाथ लिया सैलानियों ने 
    • फिर न कहिऐगा, `काफल पाको मैंल न चाखो´, केवल चखने भर को हैं उपलब्ध
    पहाड़ में `काफल पाको मैंल न चाखो´ व `उतुकै पोथी पुरै पुरै´ जैसी कई कहानियां व प्रशिद्ध  कुमाउनी गीत 'बेडू पाको बारों मासा' भी (अगली पंक्ति 'ओ नरैन काफल पाको चैता') `काफल´ के इर्द गिर्द ही घूमते हैं। कहा जाता है कि आज भी पहाड़ के जंगलों में दो अलग अलग पक्षी गर्मियों के इस मौसम में इस तरह की ध्वनियां निकालते हैं। एक कहानी के अनुसार यह पक्षी पूर्व जन्म में मां-बेटी थे, बेटी को मां ने काफलों के पहरे में लगाया था। धूप के कारण काफल सूख कर कम दिखने लगे, जिस पर मां ने बेटी पर काफलों को खाने का आरोप लगाया। चूंकि वह काफल का स्वाद भी नहीं ले पाई थी, इसलिऐ इस दु:ख में उसकी मृत्यु हो गई और वह अगले जन्म में पक्षी बन कर `काफल पाको मैंल न चाखो´ यानी काफल पक गऐ किन्तु मैं नहीं चख पायी की टोर लगाती रहती है। उधर, शाम को काफल पुन: नम होकर पूर्व की ही मात्रा में दिखने लगे। पुत्री की मौत के लिए स्वयं को दोषी मानते हुऐ मां की भी मृत्यु हो गई और वह अगले जन्म में `उतुकै पोथी पुरै-पुरै´ यानी पुत्री काफल पूरे ही हैं की टोर लगाने वाली चिड़िया बन गई। आज भी पहाड़ी जंगलों में गर्मियों के मौसम में ऐसी टोर लगाने वाले दो पक्षियों की उदास सी आवाजें खूब सुनाई पड़ती हैं। गर्मियों में होने वाले इस फल का यह नाम कैसे पड़ा, इसके पीछे भी सैलानी शर्मा जी व दुकानदार प्रकाश के बीच जैसा वार्तालाप ही आधार बताया जाता है। कहा जाता है कि किसी जमाने में एक अंग्रेज द्वारा इसका नाम इसी तरह `का फल है ?' पूछने पर ही इसका यह नाम पड़ा। पकने पर लाल एवं फिर काले से रंग वाली 'जंगली बेरी' सरीखे फल की प्रवृत्ति शीतलता प्रदान करने वाली है। कब्ज दूर करने या पेट साफ़ करने में तो यह अचूक माना ही जाता है, इसे हृदय सम्बंधी रोगों में भी लाभदायक बताया जाता है। बीते वर्षों में काफल  'काफल पाको चैता' के अनुसार चैत्र यानी मार्च-अप्रैल की बजाय दो माह पूर्व माघ यानी जनवरी-फरवरी माह में ही बाजार में आकर वनस्पति विज्ञानियों का भी चौंका रहा था, किन्तु इस वर्ष यह ठीक समय पर बाजार में आया था। गत दिनों 200 रुपऐ किग्रा तक बिकने के बाद इन दिनों यह कुछ सस्ता 150 रुपऐ तक में बिक रहा है। लेकिन बाजार में इसकी आमद बेहद सीमित है, और दाम इससे कम होने के भी कोई संभावनायें नहीं हैं। केवल गिने-चुने कुछ स्थानीय लोग ही इसे बेच रहे हैं। इसलिए यदि आप भी इस रसीले फल का स्वाद लेना चाहें तो आपको जल्द पहाड़ आना होगा।

    Tuesday, March 2, 2010

    `जंगल की ज्वाला´ संग मुस्काया पहाड़..


     `...पारा भीड़ा बुरूंशी फूली छौ, मैं ज कूंछू मेरी हीरू ऐरै छौ ,´ देवभूमि उत्तराखण्ड के पहाड़ी जंगलों में पशु चारण करते ग्वाल बालों की जुबान पर यह गीत इन दिनों खासा चढ़ा हुआ है। कारण उनका प्यारा लाल , सुर्ख बुरांश पूरी तरह खिल आया है। उत्तराखण्ड के राज्य वृक्ष पर लकदक खिला यह फूल इस कदर मुस्कुराया है, कि इसके खिलने से महके ऋतुराज बसन्त के साथ मुस्काते पहाड़ों की खूबसूरती में चार चाँद लग गऐ हैं। कोशिश की जाऐ तो फूलों के मौसम की यह खूबसूरती प्रदेश के पर्यटन में भी  चार चाँद लगाते हुए काफी लाभकर हो सकती है। 


    बुरांश का फूल जितना सुन्दर है, उतना ही अधिक लाभकारी भी। वनस्पति विज्ञान की भाशा में रोडोडिण्ड्रोन कहे जाने वाले बुरांश का पहाड़ से गहरा आत्मीय लगाव है। शायद इसीलिए इसके पेड़ को देवभूमि उत्तराखंड में राज्य वृक्ष का दर्जा मिला हुआ है। 

    • पूरी तरह लाल सुर्ख हो गऐ पहाड़ के कई जंगल 
    • पर्यटन के लिहाज से हो सकता है लाभकारी
    देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू भी इसके प्रशंशकों में थे। उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा कि पहाड़ पर बुरांश के रंजित लाल स्थल दूर ही से दिख रहे थे। महाकवि अज्ञेय ने भी अपनी कविताओं में इसका कई बार जिक्र किया। 
    हिन्दी के सुकुमार छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पन्त को तो इस पुष्प ने अपनी लोकभाषा  कुमाउनीं में लिखने को मजबूर कर दिया था। उन्होंने इसे `जंगल की ज्वाला´ नाम दिया था। वहीं कवि श्रीकान्त वर्मा भी इसका जिक्र करने से स्वयं को नहीं रोक पाये. उन्होंने लिखा, `दुपहर भर उड़ती रही सड़क पर मुरम की धूल, शाम को उभरा मैं, तुमने मुझे पुकारा बुरूंश का फूल´। राज्य के कुमाउंनी गढ़वाली कवियों ने इसे कभी प्रेमिका के गालों तो कभी उसके रूप सौन्दर्य के लिए खूब इस्तेमाल किया। इधर जलवायु परिवर्तन का असर इस पेड़ पर जहां समय पूर्व खिलने के रूप में सर्वाधिक दिखाई दे रहा है। इस प्रकार जलवायु परिवर्तनों पर  शोध करने के लिए भी इस वृक्ष की उपयोगिता बढ़ जाती है। दूसरी ओर पशुओं के लिए उत्तम चारा व जलौनी लकड़ी होने के कारण इसके जंगलों के आसपास के ग्रामीण भी इसे खासा नुकसान पहुंचा रहे हैं, जिसे रोकने की जरूरत है। फलस्वरूप इसके जंगल सिमटते जा रहे हैं। पहाड़ों पर 1200 से 4800 मीटर पर उगने वाले इस सदापर्णी वृक्ष के रक्तिम सुर्ख फूल में  शहद का भण्डार होता है। ऊंचाई बढ़ने के साथ इसके रंग में परिवर्तन होता जाता है और यह लाल रंग खोता हुआ गुलाबी, सफेद व बैगनी रंगों में भी पाया जाता है। एक ओर जहां यह चीड़ मिश्रित वनों में भी पाया जाता है, वहीं हिमालय के बुग्यालों के करीब होने वाली सीमित वृक्ष प्रजातियों में भी यह कम लंबाई के साथ मिल जाता है। इससे जूस, स्कवैश, जैम आदि उत्पाद बनाऐ जाते हैं, जो रक्तशोधक एवं हीमोग्लोबिन की पूर्तिकारक के रूप में अचूक औषधि माने जाते हैं। बुरांश का एक अन्य तरह से भी बड़ा व्यवसायिक इस्तेमाल हो सकता है। पहाड़ पर जिस मौसम में यह खिलता है, वह प्रदेश के पर्यटन के लिहाज से `ऑफ पीक´ यानी सर्वाधिक बुरा समय कहा जाता है, क्योंकि इन दिनों बर्फवारी की आस सिमट जाती है, और मैदानों में खास गर्मी नहीं बढ़ी होती। ऐसे में बुरांश के खिलने से पहाड़ में खिले फूलों का मौसम जहाँ सैलानियों को बड़ी संख्या में आकर्षित कर प्रदेश को बड़ी राजस्व आय दे सकता है, वहीँ सैलानियों के लिए प्रकृति के स्वर्ग में बड़ा आकर्षण भी साबित हो सकता है।
    यह भी पढ़ें : इस साल समय पर खिला राज्य वृक्ष बुरांश, क्या ख़त्म हुआ 'ग्लोबलवार्मिंग' का असर ? 

    Friday, February 26, 2010

    घोडाखाल: यहां अर्जियां पढ़कर ग्वल देवता करते हैं न्याय

    ग्वल देव के दरबार में न्यायालयों से थके हारे लोग लगाते हैं न्याय की गुहार
    ग्वेल, ग्वल, गोलज्यू कुछ भी कह लीजिऐ, यह कुमाऊं के सर्वमान्य न्याय देवता के नाम हैं, जो आज भी न्यायालयों में पूरी उम्र न्याय की आश में ऐड़िया रगड़ने को मजबूर लोगों को चुटकियों में न्याय दिलाने के लिए प्रसिद्ध हैं। इस हेतु उनके दरबार में न्याय की आस में लोग बकायदा सादे कागजों के साथ ही स्टांप पेपरों पर भी अर्जियां लगाते हैं। यह भी मान्यता है कि यहां अर्जियां लगाने से श्रद्धालुओं को नौकरी, विवाह, संपत्ति आदि की रुकावटें भी दूर होती हैं।
    ग्वल देव कुमाऊं के राजकुमार थे। उनका राजमहल आज भी चंपावत में बताया जाता है। अपने जन्म से ही सौतेली माताओं के षडयन्त्र के कारण कई विषम परिस्थितियों में घिरे राजकुमार अपने न्याय कौशल से ही राजभवन लौट पाऐ थे। इसी कारण उन्हें न्याय देव के रूप में कुमाऊं के जन जन द्वारा ईष्ट देव के रूप में अटूट आस्था के साथ पूजा जाता है। चंपावत, द्वाराहाट, चितई व नैनीताल के निकट घोड़ाखाल नामक स्थान पर उनके मन्दिर स्थित हैं, जहां प्रवासी कुमाउंनियों के साथ ही अन्य प्रदेशों के लोग भी लगातार आते रहते हैं, और खास पर्वों पर मन्दिरों में भक्तों का मेला लगता है। उनके मन्दिरों को कमोबेश देश, राज्य में चल रही राजस्व व्यवस्था की तरह ही न्यायिक अधिकार बताऐ जाते हैं। श्रद्धालुओं को इसका लाभ भी मिलता है। घोड़ाखाल एवं चितई आदि मन्दिरों में बंधी असंख्य घंटियां बताती हैं कि कितने लोगों को यहां से न्याय मिला और मनमांगी मुराद पूरी हुई।
    युगलों के विवाह का पंजीकरण भी होता है यहां 

    जिस प्रकार युगल वैवाहिक बंधन में बंधने के लिए परगना मजिस्ट्रेट के न्यायालय में विवाह पंजीकृत कराते हैं, उसी तर्ज पर ग्वल देव के मन्दिरों में भी विवाह का पंजीकरण किया जाता है। इस हेतु बकायदा स्टांप पेपर पर वर एवं वधु पक्ष के गिने चुने और कभी कभार प्रेमी युगल भी मन्दिर पहुंचते हैं, और स्टांप पेपर पर विवाह बंधन में बंधने का शपथ पत्र देते हैं। जिसके बाद ही यहां सादे विवाह आयोजन की इजाजत होती है।
    लेकिन घंटों का गला पकड़ लिया गया...





    मन्दिरों के घंटे घड़ियालों की मधुर ध्वनि किसे अच्छी नहीं लगती। इसे पर्यावरण के शुद्धीकरण में भी उपयोगी माना जाता है। लेकिन लगता है कि घोड़ाखाल मन्दिर प्रबंधन इसका अपवाद है। मनमांगी मुरादें पूरी होने पर श्रद्धालु ग्वल देव के मन्दिरों में घंटियां चढ़ाते हैं। छोटी घंटियों की असंख्य संख्या को देखते हुऐ पूर्व में घोड़ाखाल मन्दिर प्रबंधन ने छोटी घंटियों को गलाकर बड़ी घंटियों में बदल दिया था। मन्दिर में सवा टन भारी घंटियां तक मौजूद हैं। लेकिन इधर मन्दिर प्रबंधन लगता है घंटियों की मधुर ध्वनि से परेशान है। शायद इसी लिए घंटियों को इस तरह बांध दिया गया है कि श्रद्धालु चाहकर भी इसे नहीं बजा पाते। मन्दिर के पुजारी भी नि:संकोच स्वीकार करते हैं कि घंटियों की अधिक ध्वनि के कारण उन्हें बांध दिया गया है।