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Friday, March 4, 2011

विदेशी वेबसाइटें बोल रहीं युवा पीढ़ी पर अश्लीलता का हमला

पाकिस्तान में बना था भीमताल का चर्चित एमएमएस !
इंटरनेट पर अप्रेल 2010 से है मौजूद
नवीन जोशी,  नैनीताल। सीमाओं के हमले देश की सेनाओं को नुकसान पहुंचाते हैं, पर देश के भीतर बाहरी दुनिया से एक ऐसा हमला हो रहा है, जिससे देश की युवा पीढ़ी के कोमल मन के साथ तन पर तो अश्लीलता का जहर घुल ही रहा है, आर्थिक रूप से भी बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। मोबाइल पर पाकिस्तान सहित अन्य देशों के नंबरों से फोन आने एवं विदेशों से करोड़ों रुपऐ की लॉटरी खुलने जैसी खबरों के बीच एक और हमला विदेशी अश्लील पोर्न साइटों की ओर से किया जा रहा है। इसी कड़ी में सनसनीखेज खुलासा हुआ है कि गत दिनों भीमताल में स्कूली छात्रा का चर्चित एमएसएस पाकिस्तान में बना हुआ है। यह एमएमएस बीते करीब एक वर्ष से इंटरनेट पर उपलब्ध है।
उल्लेखनीय है की बीते वर्ष नवंबर-दिसंबर माह में निकटवर्ती भीमताल के एक होटल के नाम से एक स्कूली छात्रा का अश्लील एमएमएस खासा चर्चा में आया था। एमएमएस में पर्वतीय स्कूलों की छात्राओं के समान ही आसमानी रंग की कमीज व सफेद रंग का पाजामा पहने युवती को स्थानीय छात्रा समझने में अच्छे-भले जानकार भी धोखा खा गऐ थे, जबकि एमएमएस में युवती जिस तरह का पीले रंग का दुपट्टा या पट्टा डाले हुऐ है, वैसा पहाड़ की लडकियां अमूमन प्रयोग नहीं करतीं। आईजी स्तर पर मामला उठने के बाद भीमताल थाना प्रभारी उत्तम सिंह ने स्वयं मुकदमा दर्ज किया था। बाद में एक स्थानीय युवक ललित मोहन पाण्डे को यह कहकर मामले में बलि का बकरा बनाया गया कि उसकी शक्ल एमएमएस में दिख रहे युवक से मिलती है। हालांकि बाद में उसे उसके मोबाइल में ऐसे 14 अश्लील एमएमएस पाऐ जाने के आरोपों में जेल भेजा गया। बमुश्किल उसे जमानत मिल पाई है। इस मामले की जांच चण्डीगढ़ स्थित प्रयोगशाला को भेजी गई है। लेकिन सच्चाई यह है कि यह 6.22 मिनट का एमएमएस lahore pakistani shy student in school uniform with her cousine (लाहौर पाकिस्तानी शाई स्टूडेण्ड इन स्कूल यूनीफार्म विद हर कजिन) नाम से 24 अप्रेल 2010 से इंटरनेट पर मौजूद है, और इसे कोई भी आसानी से देख सकता है। यह एमएमएस सामान्यता भारत में प्रयोग न की जाने वाली (भारत में विडियो डाउनलोड के लिऐ यू-ट्यूब का प्रयोग किया जाता है) फाइल्स ट्यूब वेबसाइट पर अपलोड किया गया है। इस एमएमएस पर हॉट पाकिस्तानी कालेज गर्ल्स स्केण्डल्स, पाकिस्तानी स्कूल, पाकिस्तान, लाहौर स्कूल, कपल सैक्स हिडन कैमरा जैसे टैग भी लगे हुऐ हैं। जानकार एमएमएस में युवती द्वारा 'हाय अल्ला" जैसा शब्द भी बोले जाने का दावा कर रहे हैं। 
इस आधार पर ई-दुनिया के जानकार आश्वस्त हैं कि यह एमएमएस पाकिस्तान में ही बना व अपलोड हुआ है। ऐसी वेबसाइटें भारत में अश्लील वेबसाइटें प्रतिबंधित होने के बावजूद आसानी से खुल रही हैं, और चलन में हैं। शौकीनों को फाइल्स ट्यूब, एक्स वीडियोज डॉट कॉम, विज डॉट कॉम, फक ओवर माइ सेक्स सरीखी कई विदेशी वेबसाइटें भारत में खुलेआम अश्लीलता परोस रही हैं, देश की युवा पीढ़ी के तन-मन व धन को प्रदूषित व खतरे में डाल रही हैं। इन साइटों से वीडियो क्लिपिंग डाउनलोड करने पर प्रतिमाह सैकड़ों डॉलर का खर्चा वसूला जाता है। बहरहाल, इस चर्चित एमएमएस के मामले में भीमताल थानाध्यक्ष उत्तम सिंह ने स्वीकारा कि उन्हें भी एमएमएस के पाकिस्तानी होने की सूचना है। कुमाऊं आईजी राम सिंह मीणा ने कहा कि बाहरी पोर्न वेबसाइटों को रोकने के क्या प्राविधान हैं, इसका वह अध्ययन करेंगे।
हाँ, यहाँ एक और बात कहना जरूर समीचीन होगा कि मीडिया को अपने क्षेत्र से जोड़कर ऐसे विषयों पर खासकर जल्दबाजी में, बिना तथ्यों की पड़ताल किये कुछ भी प्रकाशित/प्रसारित करने से बचना चाहिए। इससे अपने क्षेत्र की बहुत बदनामी होती है। जैसे इस मामले में भीमताल क्षेत्र की हर लड़की और लड़कों को संदेह की नजर से देखा जाने लगा, जबकी एमएमएस कहीं और का बना हुआ था।
इस तरह भी हो रहा हमला
नैनीताल। इंटरनेट पर सैक्सी हल्द्वानी, सैक्सी नैनीताल, सैक्सी देहरादून, सैक्स स्केण्डल हल्द्वानी, नैनीताल, देहरादून जैसे नामों से भी वीडियो क्लिप मौजूद हैं। खास बात यह भी है बड़ी धनराशि चुकाने के बाद ही डाउनलोड होने वाली यह क्लिप्स वास्तव में एक ही होती हैं, नाम स्वत: शहर के हिसाब से बदल जाते हैं। लड़कियों से अश्लील चेटिंग, वीडियो चेटिंग आदि भी शहर के हिसाब से इंटरनेट पर उपलब्ध हैं, और मोटी कीमत वसूल रहे हैं।

Friday, February 11, 2011

अटल खाद्यान योजना: एक तीर से कई शिकार, आगे और तीर-तलवार


अगला कदम-गांवों में मिनी सचिवालय
नैनीताल को मिलेगी झील के संरक्षण के लीऐ 48 करोड़ की योजना व टिहरी झील के साथ अन्तर्राष्ट्रीय जल क्रीड़ा प्रतियोगिता 
नवीन जोशी, नैनीताल। 'मिशन 2012" के 'चुनावी मोड" में जा चुकी भाजपा सरकार के तरकश से छूटा 'अटल खाद्यान्न योजना" का तीर आखिरी नहीं वरन पहला है, और आगे ऐसे कई तीर विपक्ष को भेदने के लिए निकलने वाले हैं, मुख्यमन्त्री निशंक ने योजना के शुभारंभ मौके पर इसके इशारे कर दिऐ हैं। जल्द सरकार न्याय पंचायत स्तर पर विकसित किऐ जा रहे अटल आदर्श गांवों को 'मिनी सचिवालय" का रूप देने जा रही है। नैनीताल को सरकार से चुनावी वर्ष में जल्द दो तोहफे मिलने जा रहे हैं, यह हैं नैनी झील के लिऐ करीब 47.96 करोड़ रुपऐ की झील संरक्षण परियोजना और दूसरी नई विकसित टिहरी झील के साथ साझे में अन्तरराष्ट्रीय जल क्रीड़ा प्रतियोगिता।
मुख्यमन्त्री डा. निशंक ने शुक्रवार को मुख्यालय में अटल खाद्यान्न योजना के शुभारंभ योजना पर इन योजनाओं का खुलासा भर किया। उन्होंने कहा कि भाजपा सरकार समाज के अंतिम व्यक्ति के दुख-दर्द में साझीदार बनने के मिशन पर चल रही है। पहले चिकित्सक न होते हुऐ भी 108 सेवा के माध्यम से सबको निःशुल्क चिकित्सा सुविधा दिलाई। दीर्घकालीन योजना के तहत गरीब मेधावी बच्चे भी डाक्टर बन सकें इसलिए केवल 15 हजार रुपऐ में एमबीबीएस कराने की व्यवस्था की। दूसरे चरण में स्नातक स्तर की निःशुल्क व्यवस्था की। आगे गांवों के विकास के लिए अटल आदर्श गांव स्थापित कर हर गांव में सड़क, मिनी बैंक स्थापित किये गऐ। आगे इन गांवों को 'मिनी सचिवालय" का रूप दिया जाऐगा। आयुक्त एवं डीएम यहां आकर ग्रामीणों की समस्याओं का स्थाई तौर पर निदान करेंगे। कहा कि अटल खाद्यान्न योजना भी इसी कड़ी में करीब निःशुल्क ही भोजन उपलब्ध कराने की योजना शुरू की जा रही है। उन्होंने नैनीताल झील के संरक्षण के लिए 48 करोड़ की परियोजना व शीघ्र अन्तराष्ट्रीय जल क्रीड़ा प्रतियोगिता आयोजीत करने का भी इरादा जताया।
एपीएल कोटे में होगी कटौती
नैनीताल। भले सरकार अभी राज्य के सभी बीपीएल व एपीएल उपभोक्ताओं को सस्ते राशन का लाभ देने की बात कर रही हो, लेकिन एक सवाल के जवाब में मुख्यमन्त्री ने यह इशारा भी कर दिया कि हर आगे हर एपीएल श्रेणी के उपभोक्ता को योजना का लाभ नहीं मिलेगा। सरकार डेढ़ लाख रुपऐ से कम आय के उपभोक्ताओं को शेष बीपीएल" श्रेणी में लाने जा रही है, उन्हें ही चार व छह रुपऐ प्रति किग्रा की दर से गेहूं व चावल मिलेगा। इस सीमा से ऊपर के उपभोक्ता लाभ से वंचित रहेंगे। 
विक्रेताओं का लाभांश नहीं घटने देंगे
नैनीताल। सस्ता गल्ला विक्रेताओं की मांगों पर सीएम डा.निशंक ने कहा कि किसी कीमत में उनका लाभांश घटने नहीं दिया जाऐगा। साथ ही कहा कि उन्हें केवल सस्ता ही बेचना है, उन पर योजना के तहत अधिक अनाज उठाने जैसा कोई बोझ नहीं पड़ रहा है। बताया भाडा शाशन वहां करेगा. योजना के लिए बजट प्राविधान के सवाल को सीएम टाल गऐ। अलबत्ता कहा कि तीन माह की तैयारी व उचित प्राविधानों के साथ ही योजना शुरू की है। यह भी जोर देकर कहा कि योजना केन्द्र सरकार के भरोसे नहीं वरन राज्य ने अपने दम पर शुरू की है। 
चार हजार पदों पर पुलिस भर्ती होगी
नैनीताल। मुख्यमन्त्री डा. निशंक ने कहा कि यूपी के साथ पुलिस कर्मियों के बंटवारे का मसला हल हो गया है। गत दिनों यूपी की सीएम के साथ हुई बैठक में उन्होंने यूपी के सिपाहियों की जगह केवल पद देने को कहा, जि से मान लिया गया। कहा कि जल्द प्रदेश के चार हजार नौजवानों को पोलिस में भरती होने का मौका मिलेगा।
85 फीसद घोषणाएं की पूरीं
नैनीताल। मुख्यमन्त्री निशंक ने कहा सरकार की अटल खाद्यान्न योजना चुनावी नहीं है। कहा कि पूर्व सीएम नारायण दत्त तिवारी ने आज ही देहरादून में योजना का नाम अटल जी के नाम पर रखने का स्वागत किया है। दावा किया कि सरकार ने 85 फीसद घोषणाएँ पूरी कर ली हैं। उन्होंने नाम लिऐ बीना कहा कि वह पिछली सरकार की तरह चुनावी वर्ष में पूरी न होने वाली करोड़ों की घोषणाएँ नहीं करने जा रहे हैं। एक प्रश्न के जवाब में उन्होंने स्पेशाल कंपोनेंट प्लान में धन न मिलने के आरोपों पर विपक्ष को अध्ययन करने की सलाह दी।

Saturday, January 29, 2011

उत्तराखंड विचार: कुछ खट्टा-कुछ मीठा

पहाड़ के बच्चे नहीं मना पाते गणतन्त्र दिवस 
शीतकालीन विद्यालय रहते हैं बन्द, अधिकांश बच्चों को नहीं पता कैसे मनाते हैं गणतन्त्र दिवस
नवीन जोशी, नैनीताल। देश की युवा पीढी यानी बच्चों के बिना गणतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती, पर उत्तराखंड में ऐसा हो रहा है. प्रदेश के पहाडी  अंचलों में अधिकांश बच्चों को गणतन्त्र दिवस मनाने के बारे में जानकारी नहीं है। कारण,  उनके विद्यालय गणतन्त्र दिवस के दौरान शीतकालीन अवकाश के  लिए बन्द होते हैं, इसलिए न स्कूलों में गणतन्त्र दिवस का आयोजन होता है, और न ही बच्चों को देश के गणतन्त्र के इस मान राष्ट्रीय पर्व के आयोजन की जानकारी हो पाती है। 
उल्लेखनीय है कि गणतन्त्र दिवस देश की आजादी का वास्तविक पर्व है। इसी दिन से राष्ट्र में अपने संविधान के साथ अपना राज कायम हुआ था। देश भर में यह आयोजन खासकर विद्यालयों में बेहद हर्षोल्लास से मनाया जाता है। लेकिन नैनीताल जनपद से ही बात शुरू करें तो यहाँ कुल 96 प्राथमिक विद्यालयों में से 2 तथा जूनियर हाईस्कूल से इंटरमीडिएट तक के 9 सरकारी, मुख्यालय का एक स्थानीय निकाय संचालित नगर पालिका नर्सरी स्कूल एवं तीन अर्धशासकीय विद्यालयों भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय, सीआरएसटी इंटर कालेज व मोहन लाल साह बालिका विद्या मन्दिर के साथ ही सभी निजी पब्लिक स्कूलों में इन दिनों शीतकालीन अवकाश होने के कारण गणतन्त्र दिवस का आयोजन नहीं होता है। मुख्यालय में जहाँ अन्य राष्ट्रीय पर्वों पर सुबह प्रभात फेरी से लेकर अपराह्न तक कार्यक्रम बच्चों से ही गुलजार रहते हैं, वहीँ गणतन्त्र दिवस में बच्चे नहीं होते तो अन्य लोग भी कमोबेश इस राष्ट्रीय पर्व को औपचारिक ही मनाते हैं। शिक्षक अन्य संस्थानों में उपस्थिति दर्ज कराकर औपचारिकता निभा लेते हैं। वर्षों से ऐसा परिपाटी के रूप में हो रहा है। इसका एक नुकसान यह भी है कि बच्चों को गणतन्त्र दिवस के  इस महत्वपूर्ण आयोजन की जानकारी भी नहीं हो पाती है, या तब हो पाती है, जब वह ग्रीष्मकालीन अवकाश वाले विद्यालयों में जाते हैं। इसका निदान क्या हो यह एक विचारणीय प्रश्न हो सकता है।

पाकिस्तान का स्वंत्रता दिवस मनाया जाता है यहाँ !
यह आम बात है कि ख़ास कर निजी महंगे पब्लिक स्कूलों में त्योहारों के दिन अवकाश होने के कारण इन्हें पहले दिन ही मन लिया जाता है। गणतंत्र दिवस 25 जनवरी को तथा गांधी जयन्ती एक अक्टूबर को मनाकर औपचारिकता निभा ली जाती है। इन तिथियों के अखबार उठा कर देख लें पुष्टि हो जायेगी । यहाँ तक तो गलती कुछ हद तक माफी योग्य शायद हो भी, लेकिन यदि देश के भविष्य को तैयार महंगी फीस लेकर तैयार करने वाले यह स्कूल स्वतंत्रता दिवस को भी एक दिन पहले यानी 14 अगस्त को मना लें तो इसे क्या कहेंगे ? जान लें 14 अगस्त हमारा नहीं हमारे पड़ोसी दुश्मन राष्ट्र पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस है। आसपास नजर डालिए, कहीं आपके बच्चे के स्कूल में भी तो ऐसा नहीं हो रहा ? नैनीताल के तो अधिकाँश पब्लिक स्कूलों में ऐसा वर्षों से हो रहा है ।


....क्योंकि हमने अपनी `ताकतों´ को अपनी `कमजोरी´ बना लिया है ! 



हते हैं `पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं´, लेकिन `पालने´ की उम्र से बहुत पहले बाहर निकलकर 10 वर्ष के 'किशोर' होने जा रहे उत्तराखण्ड के `पांव´ कहां जा रहे हैं, यह कहना अभी भी मुश्किल ही बना हुआ है। इस उम्र तक आने में इसके `पालनहारों´ ने इसे कई दिशाओं में चलाने के दावे-वादे किऐ हैं, लेकिन यह कहीं पहुंचना तो दूर शायद अभी ठीक से चलना भी प्रारंभ नहीं कर पाया है। इसकी इस `गत´ का कारण एक से अधिक नावों का सवार होना भी माना जा सकता है, लेकिन असल कारण यह है कि इस अत्यधिक संभावनाओं वाले राज्य ने अपनी ताकतों को अपनी कमजोरी बना लिया है। हमने अपने संसाधनों का सदुपयोग करना दूर, उन पर पाबन्दियां लगा कर उन्हें निरुपयोगी बना दिया है। दरवाजे बन्द कर दिऐ हैं। हम ढांचागत सुविधाऐं बढ़ाने जैसे कार्य नहीं कर रहे हैं, कर रहे हैं तो बिना सोचे-समझे, और बेहद जल्दबाजी में, बिना गहन अध्ययन के दूसरों के ज्ञान को बिना पड़ताल किऐ आत्मसात करने के। ऐसे में एक कदम आगे बढ़ाते हैं तो दो कदम पीछे लौटने को मजबूर होते हैं।




बात कहीं से भी शुरू कर लीजिऐ। उत्तराखण्ड को पर्यटन प्रदेश कहा गया। लेकिन सैलानियों की जरूरतों का खयाल नहीं रखा गया। पर्यटक स्थलों में ढांचागत सुविधाओं को बढ़ाना व सुधारना तो दूर 10 वर्ष बाद भी पर्यटन विभाग का ढांचा ही नहीं बनाया गया। हालत यह है कि राज्य की पर्यटन राजधानी नैनीताल में विभाग के नाम पर केवल तीन कर्मचारी हैं। राज्य में बाहर से आवागमन की सुविधाऐं नहीं बढ़ाई गईं। जो सैलानी पहुंचते भी हैं, उन्हें अपेक्षित मौज मस्ती के अवसर देने से हमारी संस्कृति पर दाग लग जाते हैं। लिहाजा हमने उनसे प्रकृति के अलावा अपनी संस्कृति सहित सब कुछ छुपाकर रखा है। हम उन्हें अच्छी शराब तक नहीं दे सकते। शराब कहने सुनने में शायद बुरा लग रहा हो, (इस पर यह साफ़ करते हुए कि में स्वयं व मेरे परिवार में कोई शराब नहीं पीता, और मैं शराब समर्थक भी नहीं हूँ) याद रखना होगा कि हमें अपने यहां पर्यटन विस्तार के लिए गोवा, मारीशश व सिंगापुर आदि सस्ते और `सर्वसुविधा´ वाले पर्यटक स्थलों से मुकाबला करना है, तभी हम पर्यटन प्रदेश बन सकते हैं। लेकिन जाहिर है, हम ऐसा नहीं कर सकते। कोई भी व्यक्ति जब जीवन के बेहद तनाव भरे क्षणों से बमुश्किल छुटि्टयां निकालकर घर से बाहर निकलता है तो स्वच्छन्दता चाहता है, और उसे हम अपने यहां स्वच्छन्दता तो हरगिज नहीं दे सकते। हां, आते ही उनका स्वागत हमारे `मित्र पुलिस´ के परेशानहाल जवान `यहां पार्किंग ही नहीं है तो इतनी बड़ी गाड़ियां लेकर आते ही क्यों हो´ सरीखी फब्तियां कस कर करते हैं। हम पर्वतारोहण कराकर ही देश-दुनिया के सैलानियों को आकर्षित कर सकते थे, लेकिन हमने 40 हजार रुपऐ से अधिक शुल्क नियत कर इस ओर भी रास्ते जैसे बन्द कर दिऐ हैं। 
बात वापस शराब पर मोड़ते हैं। `सूर्य अस्त...´ के रूप में अभिशप्त हमारे पहाड़ के जहां हजारों घर शराब की भेंट चढ़ रहे हैं, वहीं यह भी सार्वभौमिक सत्य है कि करों के बाद शराब ही हमारे राज्य की तिजोरी की सर्वाधिक `सेहत´ सुधार रही है। बावजूद हमारे `तारणहार´ मुंह में 'शराब पर राज्य की तिजारी की निर्भरता खत्म करेंगे´ का `राम´ बोलते हुऐ बगल में `हर वर्ष शराब विक्रेताओं के लक्ष्य 10 से 25 फीसद तक बढ़ाकर´ छुरियां भांज रहे होते हैं। बावजूद शराब के शौकीनों के अनुसार उत्तराखण्ड की शराब देश में सर्वाधिक महंगी और गुणवत्ता में घटिया है। राज्य की सेहत सुधार रही शराब सैलानियों को पिलाकर हम अपनी आर्थिकी भी सुधार सकते थे, किन्तु हमने शराब का काम करने वाले लोगों को `शराब माफिया´ शब्द दे दिया है, इसलिए हम खुद यह काम नहीं कर सकते, भले इस शब्द का लोकलाज भय दिखाकर बाहर के लोग हमें शराब पिलाकर मार डालें, और खुद `फिल्म निर्माता´ और इस लायक तक हो जाऐं कि सरकारों को बदल डालें।
हमने अपनी वन संपदा, चिड़ियां, जैव संपदा बचाई है, जिसे दिखाकर भी हम सैलानियों से लाखों कमा सकते हैं। राज्य की आर्थिकी की प्रमुख धुरी जल, जंगल, जमीन और जवानी भी हो सकते हैं। बात राज्य के 65 फीसद से अधिक भूभाग पर फैले वनों की करें तो इन से रोजगार की भी प्रचुर संभावनाऐं हो सकती थीं। लेकिन हमारे यहां जो भी वन संपदा संबंधी कार्य करेगा, उनके लिए हमने `वन माफिया´ शब्द मानो `पेटेंट´ कर रखा है। चीड़, यूकेलिप्टस, पापुलर जैसे पेड़ जो हमारी आर्थिकी का मजबूत आधार हो सकते हैं, उन्हें हमने `विदेशी´, `पर्यावरण  शत्रु´ और बांज के जंगलों के `घुसपैठिऐ´ आदि  शब्द दे डाले हैं। लीसा खोप कर हमारे यहां हजारों लोगों के घरों में चूल्हा जलता था, हमारी पिछली पीढ़ी लीसे के छिलकों से पढ़कर ही आगे बढ़ी, लेकिन लीसे का कारोबार जो करे वह `लीसाचोर´, लिहाजा इस क्षेत्र में कारोबार करने के रास्ते भी हमारे लिऐ बन्द। भले बाहर के लोग सारे जंगल तबाह कर डालें। इसी प्रकार हमारे यहां की खड़िया, रेता, बजरी आदि का कारोबार करने वाले `खनन माफिया´, सो हम अपने खेतों से पत्थर भी नहीं उठा सकते। भले अपनी उपजाऊ जमीनों पर हम खाईयां खुदवाकर अथवा खनन सामग्री के ढेर लगाकर उन्हें हमेशा के लिए बंजर बना दें। भले हमारी जीवनदायिनी नदियां, जमीनें कौड़ियों के भाव बाहर वालों को सालों, दशकों के लिए लीज पर दे दी जाऐं। हम पूरे एशिया को अकेले `प्राणवायु-आक्सीजन´ देने की क्षमता वाले अपने वनों को अपने `विकास की बलि देकर´ बचाने वाले गांवों को बदले में `कार्बन क्रेडिट´ लेकर सड़क की बजाय सीधे सस्ती या मुफ्त `रोप वे´ अथवा `हवाई सेवा´ दे सकते थे, पर ऐसी सोच सोचने में ही शायद अभी हमें वर्षों लगें।
`जल´ की बात करें तो हमें अपने पानी के उपयोग पर सख्त आपत्ति है। बड़े बांधों का हम विरोध करेंगे, छोटे हम बनाऐंगे नहीं। कोई हम जल विद्युत परियोजनाओं का विरोध करने वालों से पूछे तो सही कि हममें से कुछ को छोड़कर अन्य ने खुद कितना पानी बचाया। हम पर्यावरणप्रेमियों ने अखबारों में अपने प्रचार के लिए छपने में खर्च किऐ कागज से अधिक कितना पर्यावरण बचाया है। क्या हम दावे से कह सकते हैं कि जिन सड़कों का हमने विरोध किया, वैसी सड़कें हमने अपने घर तक भी नहीं बनने दीं। पर्यावरण बचाने के लिए क्या हमने अपनी लंबी गाड़ियां लेने से परहेज किया। हम कब तक `छद्मविद्´ बने रहेंगे। हमने अपने पनघट बन्द कर हमने गांव गांव तक डीजल चालित आटा चक्कियां बना लीं। जल संरक्षण के परंपरागत प्रबंध `बज्या´ दिऐ। गांवों के पुश्तैनी कार्य करने में हमें शर्म आती है। सड़कें हमारे गांव में आईं तो समृद्धि को करीब लाने के बजाय हमारे लिए `पलायन´ का रास्ता खोलने वाली साबित हुईं। हमारी सिंचाई विभाग की अरबों की परिसंपत्तियों पर यूपी आज भी कब्जा जमाऐ बैठा है। कुल मिलाकर हम अपनी करोड़ों रुपऐ की आय दे सकने वाली जल संपदा से कोई लाभ लेने का तैयार नहीं।
बात `जवानी´ की करें तो हमारे पढ़े-लिखे युवा जो अपनी दुरूह भौगोलिक व कठिनतम् प्राकृतिक परिस्थितियों से कम मेहनत के भी अच्छे एथलीट, कवि, लेखक, कलाकारखिलाड़ी, वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ, बुद्धिजीवी व प्रशासनिक अधिकारी के रूप में प्रदेश ही नहीं देश के लिए विश्वसनीय मानवशक्ति हो सकते हैं आज भी राज्य बनने से पूर्व की ही तरह `पलायन´ करने को मजबूर हैं। जो यहां बचते हैं, उन्हें भी राज्य `पेट पालने लायक´ रोजगार नहीं दिला पा रहा। लिहाजा वह नशे की अंधेरी खाई में बढ़ रहे हैं। वरन उनमें राष्ट्रविरोधी विचारधारा से प्रभावित होने का खतरा भी बेहद बढ़ गया है। कोई स्वरोजगार करने की सोचे भी तो सरकारी योजनाऐं उसे बेरोजगार से `कर्जदार´ बनाने पर तुली हुई हैं।


उपजाऊ जमीनें हमारे यहां शुरू से कम थीं, लेकिन ताकत के तौर पर जो तराई-भावर की उपजाऊ कृषि भूमि थी, उस पर हमने फसलों के बजाय उद्योग उगा लिऐ। जो कब `कट´ जाऐं, कुछ भरोसा नहीं। तब तक इन्हें बेचकर `उजड़े´ किसान भी खेती भूल, कीमत खर्च कर, चाकरी करने शहर जा चुके होंगे।
लोक संस्कृति के रूप में हम समृद्ध थे, किन्तु हमने अपनी पहचान नाड़ा बाहर लटके धारीदार `घोड़िया´ पैजामा, फटा कुर्ता और टेढ़ी बदबूदार टोपी पहने 'जोकर नुमा' व्यक्ति के रूप में बना ली। अपनी `दुदबोली´ को बोलने में `शरम´ की, और मानो किस्मत फोड़ ली। उसे लिखने, पढ़ने की बात तो बहुत दूर की ठैरी। स्वयं की पहचान, स्वयं में अपनी पहाड़ी होने की `शिनाख्त´ के निशानों को छुपाने में हमारा कोई सानी नहीं। `धौनी´ से लेकर हमारा आम पहाड़ी अपनी पहचान बताने में आख़िरी दम तक संकोच नहीं छोड़ता। अपने धुर पहाड़ी गांव में `डीजे´ पर `बोलो तारा रा रा´ पर `भांगड़ा´ करने में हम `माडर्न लुक´ देने वाले ठैरे। कैसेट में हमारी बहनें रंग्वाली पिछौड़ा पहनकर घास काटने और अपने परदेश गऐ `हीरो´ के लिए हिन्दी फिल्मी गीतों की पहाड़ी `पैरोडी´ गाने वाली ठैरीं।
इसी तरह हम जड़ी बूटी, आयुर्वेद, ऊर्जा, शिक्षा आदि प्रदेश बनने के दावे भी कर रहे हैं, पर उनकी तैयारी भी हमारी कितनी और कैसी है, जरा सोचें तो खुद समझ में आ जाता है। ऐसे में `जब जागें, तभी सवेरा´ मानकर हम स्वयं और अपनी क्षमताओं को पहचान व निखारकर समिन्वत रूप में सर्वोत्तम योगदान देने की कोशिश करें, और दूसरों की तिजोरियां भरने के बजाय अपने `घर´ को सजाऐं।
                                                                  (नैनीताल, 11 अगस्त, 2010)

....फिर क्या हो ? (दिवंगत गिर्दा को श्रद्धांजलि के साथ)



girda3.JPG........ऐसे में यह सोचना जरूरी हो जाता है कि जब हम अपने संसाधनों (मूलतः पानी, जवानी और जंगलों) का उपयोग नहीं होने देना चाहते, (इसलिए कि सरकारें उनका सदुपयोग या उपयोग करने की बजाय शोषण करने पर तुली हुई हैं) ऐसे में यह भी सच्चाई है कि हमारा भविष्य बेरोजगारी, मुफलिसी से भरा होने वाला है, ऐसा न हो, इससे बचने के लिए क्या करें ? 
हम 'भोले-भाले' पहाड़ियों को हमेशा ही सबने छला है। पहले दूसरे छलते थे, और अब अपने छल रहे हैं हमने देश-दुनिया के अनूठे 'चिपको आन्दोलन' वाला वनान्दोलन लड़ा, इसमें हमें कहने को जीत मिली, लेकिन सच्चाई गिर्दा बताते थे गिर्दा को वनान्दोलन के परिणामस्वरूप पूरे देश के लिए बने वन अधिनियम से हमारे हकूक और अधिक पाबंदियां आयद कर दिए जाने की गहरी टीस थी इसी तरह हमने राज्य आन्दोलन से अपना नयां राज्य तो हासिल कर लिया पर राज्य बनने से बकौल गिर्दा ही,"कुछ नहीं बदला कैसे कहूँ,  दो बार नाम बदला-अदला, चार-चार मुख्यमंत्री बदले", पर नहीं बदला तो हमारा मुकद्दर, और उसे बदलने की कोशिश तो हुई ही नहीं बकौल गिर्दा, हमने गैरसैण राजधानी इसलिए माँगी थी ताकि अपनी 'औकात' के हिसाब से राजधानी बनाएं, छोटी सी 'डिबिया सी' राजधानी, हाई स्कूल के कमरे जितनी 'काले पाथर' के छत वाली विधान सभा, जिसमें हेड मास्टर की जगह विधान सभा अध्यक्ष और बच्चों की जगह आगे मंत्री और पीछे विधायक बैठते, इंटर कोलेज जैसी विधान परिषद्, प्रिंसिपल साहब के आवास जैसे राजभवन तथा मुख्यमंत्रियों व मंत्रियों के आवास पहाड़ पर राजधानी बनाने के का एक लाभ यह भी कि बाहर के असामाजिक तत्व, चोर, भ्रष्टाचारी वहां गाड़ियों में उल्टी होने की डर से ही न आ पायें, और आ जाएँ तो भ्रष्टाचार कर वहाँ की सीमित सड़कों से भागने से पहले ही पकडे जा सकें गिर्दा कहते थे कि अगर गैरसैण राजधानी ले जाकर वहां भी देहरादून जैसी ही 'रौकात' करनी है तो अच्छा है कि उत्तराखंड की राजधानी लखनऊ से भी कहीं दूर ले जाओ यह कहते हुए वह खास तौर पर 'औकात' और 'रौकात' पर ख़ास जोर देते थे खैर...., बात शुरू हुई थी, फिर करें क्या से, पर गिर्दा मन-मस्तिष्क में ऐसे बैठे हैं कि... 

गिर्दा भी बड़े बांधों के विरोधी थे, उनका मानना था के हमें पारंपरिक घट-आफर जैसे अपने पुश्तैनी धंधों की ओर लौटना होगा यह वन अधिनियम के बाद और आज के बदले हालातों में शायद पहले की तरह संभव न हो, ऐसे में सरकारों व राजनीतिक दलों को सत्ता की हिस्सेदारी से ऊपर उठाकर राज्य की अवधारण पर कार्य करना होगा। हमारे यहाँ सड़कें इसलिए न बनें कि वह बेरोजगारों के लिए पलायन के द्वार खोलें, वरन घर पर रोजगार के अवसर ले कर आयें हमारा पानी बिजली बनकर महानगरों को ही न चमकाए व ए.सी. ही न चलाये, वरन हमारे पनघटों, चरागाहों को भी 'हरा' रखे हमारी जवानी परदेश में खटने की बजाये अपनी ऊर्जा से अपना 'घर' सजाये हमारे जंगल पूरे एशिया को 'प्राणवायु' देने के साथ ही हमें कुछ नहीं तो जलौनी लकड़ी, मकान बनाने के लिए 'बांसे', हल, दनेला, जुआ बनाने के काम तो आयें हमारे पत्थर टूट-बिखर कर रेत बन अमीरों की कोठियों में पुतने से पहले हमारे घरों में पाथर, घटों के पाट, चाख, जातर या पटांगड़ में बिछाने के काम तो आयें हम अपने साथ ही देश-दुनियां के पर्यावरण के लिए बेहद नुक्सानदेह पनबिजली परियोजनाओ से अधिक तो दुनियां को अपने धामों, अनछुए प्राकृतिक सुन्दरता से भरपूर स्थलों को पर्यटन केंद्र बना कर ही और अपनी 'संजीवनी बूटी' सरीखी जड़ी-बूटियों से ही कमा लेंगे हम अपने मानस को खोल अपनी जड़ों को भी पकड़ लेंगे, तो लताओं की तरह भी बहुत ऊंचे चले जायेंगे.......
                                                                        (नैनीताल, 24 अगस्त, 2010)

वनान्दोलन से ठगे जाने की टीस थी दिवंगत 'गिर्दा' को



पहाड़ के छोटे से भूभाग का आन्दोलन बना था देश भर के लिए वन अधिनियम 1980 का प्रणेता, लेकिन इससे पहाड़ वासियों को मिला कुछ नहीं उल्टे हक हुकूक छिन गऐ 
1972 से शुरू हुऐ पहाड़ के एक छोटे से भूभाग का वन आन्दोलन, चिपको जैसे विश्व प्रसिद्ध आन्दोलन के साथ ही पूरे देश के लिए वन अधिनियम 1980 का प्रणेता भी रहा। लेकिन यह सफलता भी आन्दोलनकारियों की विफलता बन गई। दरअसल शासन सत्ता ने आन्दोलनकारियों के कंधे का इस्तेमाल कर अपने हक हुकूक के लिए आन्दोलन में साथ दे रहे पहाड़वासियों से उल्टे उनके हक हुकूक और बुरी तरह छीन लिऐ थे। आन्दोलनकारियों को अपने ही लोगों के बीच गुनाहगार की तरह खड़ा कर दिया था। आन्दोलनकारियों में यह टीस आज भी है।वनान्दोलन से गहरे जुड़े जनकवि गिरीश तिवारी `गिर्दा´ से जब वनान्दोलन की बात चलते हुऐ वन अधिनियम 1980 की सफलता तक पहुंचती है, उनके भीतर की टीस बाहर निकल आती है। वह खोलते हैं, 1972 में वनान्दोलन शुरू होने के पीछे लोगों की मंशा अपने हक हुकूकों को बेहतरी से प्राप्त करने की थी। यह वनों से जीवन यापन के लिए अधिकार की लड़ाई थी। सरकार स्टार पेपर मिल सहारनपुर को कौड़ियों के भाव यहां की वन संपदा लुटा रही थी। इसके खिलाफ ऐतिहासिक वन आन्दोलन हुआ, लेकिन जो वन अधिनियम मिला, उसने स्थितियों को और अधिक बदतर कर दिया है। इससे जनभावनाऐं साकार नहीं हुईं। जनता की स्थिति यथावत बनी हुई है। तत्कालीन पतरौलशाही के खिलाफ जो आक्रोश था, वह आज भी है। औपनिवेशिक व्यवस्था ने जन के जंगल के साथ जल भी हड़प लिया। वन अधिनियम से वनों का कटना नहीं रुका, उल्टे वन विभाग का उपक्रम वन निगम ही और विल्डर वनों को बेदर्दी से काटने लगे। साथ ही ग्रामीण भी परिस्थितियों के वशीभूत ऐसा करने को मजबूर हो गऐ। अधिनियम का पालन करते वह अपनी भूमि के व्यक्तिगत पेड़ों तक को नहीं काट सकते थे। उन्हें हक हुकूक के नाम पर गिनी चुनी लकड़ी भी मीलों दूर मिलती। इससे उनका अपने वनों से आत्मीयता का रिश्ता खत्म हो गया। वन जैसे उनके दुश्मन हो गऐ, जिनसे उन्हें अपनी व्यक्तिगत जरूरतों की चीजें तो मिलती नहीं, उल्टे वन्यजीव उनकी फसलों और उन्हें नुकसान पहुंचा जाते हैं। इसलिऐ अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए ग्रामीण महिलाऐं वनाधिकारियों की नज़रों से बचने के फेर में बड़े पेड़ों की टहनियों को काटने की बजाय छोटे पेड़ों को जल्द काट गट्ठर बना उनके निसान तक छुपा देती हैं। इससे वनों की नई पौध पैदा ही नहीं हो रही। पेड़ पौधों का चक्र समाप्त हो गया है। अब आप गांव में अपना नया घर बनाना दूर उनकी मरम्मत तक नहीं कर सकते। आपका न अपने निकट के पत्थरों, न लकड़ी की `दुन्दार´, न `बांस´ और न छत के लिऐ चौडे़ `पाथरों´ पर ही हक रह गया है। पास के श्रोत का पानी भी आप गांव में अपनी मर्जी से नहीं ला सकते। अधिनियम ने गांवों के सामूहिक गौचरों, पनघटों आदि से भी ग्रामीणों का हक समाप्त करने का शडयन्त्र कर दिया। उनके चीड़ के बगेटों से जलने वाले आफर, हल, जुऐ, नहड़, दनेले बनाने की ग्रामीण काष्ठशालाऐं, पहाड़ के तांबे के जैसे परंपरागत कारोबार बन्द हो गऐ। लोग वनों से झाड़ू, रस्सी को `बाबीला´ घास तक अनुमति बिना नहीं ला सकते। यहां तक कि पहाड़ की चिकित्सा व्यवस्था का मजबूत आधार रहे वैद्यों के औशधालय भी जड़ी बूटियों के दोहन पर लगी रोक के कारण बन्द हो गऐ। दूसरी ओर वन, पानी, खनिज के रूप में धरती का सोना बाहर के लोग ले जा रहे हैं, और गांव के असली मालिक देखते ही रह जा रहे हैं। इसके साथ ही गिर्दा वन अधिनियम के नाम पर पहाड़ के विकास को बाधित करने से भी चिन्तित हैं। उनका मानना है कि विकास की राह में अधिनियम के नाम पर जो अवरोध खड़े किऐ जाते हैं उनमें वास्तविक अड़चन की बजाय छल व प्रपंच अधिक होता है। जिस सड़क के निर्माण से राजनीतिक हित न सध रहे हों, वहां अधिनियम का अड़ंगा लगा दिया जाता है।
                                      (गिर्दा से 20 अप्रैल, 2010 को हुए साक्षात्कार के आधार पर)

Monday, July 5, 2010

मेरा अमेरिका-मेरा भारत: मेरी नैनीताल से नैनी यात्रा


मैं कभी अमेरिका नहीं गया, पर अमेरिका में रह रहे प्रवासी भारतीयों के वतन वापसी के कई रोचक प्रसंग कहानियों अथवा फिल्मों के माध्यम से पढ़े-सुने-देखे हैं। यूं जीवन में मैंने कई यात्राऐं की हैं, किन्तु जिस हालिया यात्रा को मैं अपने जीवन की सबसे रोचक यात्रा मान सकता हूं वह महज 150 किमी के भीतर की होते हुए भी मेरे लिऐ अमेरिका से भारत की सी है, और इस यात्रा से मुझे कमोबेश कुछ उसी तरह की अनुभूति हुई है, जैसी शायद प्रवासी भारतीयों को अमेरिका से भारत आकर होती होगी। यह यात्रा 'छोटी बिलायत' यानी उत्तराखंड के कुमाऊं मण्डल व अपने ही नाम के जिले के मुख्यालय विश्व विख्यात पर्वतीय पर्यटन नगरी (सरोवर नगरी) 'नैनीताल' से अल्मोड़ा जनपद में जागेश्वर से आगे एक दूरस्थ पड़ाव 'नैनी' (चौगर्खा) की है। यह दोनों स्थान मेरे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। नैनीताल मेरी कर्मभूमि है, तो नैनी की मिट्टी में मेरा बचपन बीता है।


नैनीताल और नैनी में नाम की समानता के साथ और भी बहुत कुछ एक सा है, तो अन्य मामलों में अमेरिका व भारत जैसी वृहद असमानताऐं भी हैं। पहाड़ के यह दोनों स्थान प्राकृतिक रूप से अद्वितीय हैं। दोनों जगहों से हिमालय की उत्तुंग धवल चोटियां मनोहारी दिखती हैं। वरन, मुझे यह कहने में भी गुरेज नहीं कि यदि नैनीताल में ताल न होता तो शायद यह स्थान भी नैनी ही कहलाता, और `नैनी´ से कई मामलों में कमतर होता। नैनी में नैनीताल से कहीं अधिक विस्तृत गंगोलीहाट से लेकर पिथौरागढ़ की चोटियों तक व जागेश्वर-बृद्ध जागेश्वर के बाजांणी धूरों (बांज के घने जंगलों) तक साफ दिखता चौड़ा फलक, थोड़ा ऊपर चोटी से साफ सुनाई देता नीचे बहती सदानीरा सरयू नदी के साफ-स्वच्छ नीले जल का कल-कल निनाद औरं कभी न भुलाया जाने वाला चीड़ के जंगलों में चलती हवा की सरसराहट का संगीत। 
नैनी अंग्रेजों के जमाने में अल्मोड़ा-झूलाघाट पैदल मार्ग पर चर्चालीखान  (खान यानी पैदल यात्रा मार्ग के पड़ाव) की ऊंची चोटियों और सरयू नदी की घाटी के पास के न्योलीखान के मध्य स्थित एक पड़ाव था। यहां अंग्रेजों के जमाने का एक डांक बंगला आज भी बिना खास देखभाल के भी ठीक ठाक स्थिति में है। यहां न सर्दी अधिक पड़ती है, न गर्मी। अलबत्ता बचपन के दिनों में यहां सर्दियों में प्रकृति सफेद रुई के फाहों सी बर्फ का तोहफा एक-दो बार जरूर दे जाया करती थी। नैनी 1982 में सड़क आने के बाद तक भी पैदल यात्रा मार्ग का एक पड़ाव ही था, इसलिए यहां पहाड़ी घाटियों में उत्पादित होने वाले आम व केला जैसे फलों के साथ मध्यम ऊंचाई में होने वाले नींबू, सन्तरा, माल्टा, अमृत फल, जमीर व अधिक ऊंचाई में होने वाले आडूं, पुलम, खुमानी, अखरोट आदि फलों की बहार थी। पहाड़ी फल बेड़ू, तिमिल, काफल आदि भी बहुत मिलते थे। 
लेकिन मेरे बचपन के नैनी और युवावस्था के नैनीताल में शायद अमेरिका व भारत जैसा ही बड़ा अन्तर तब भी था, और कमोबेश आज भी बरकरार है। और यह अन्तर प्रकृति से इतर इन दोनों स्थानों के लोगों के बात-व्यवहार से लेकर मानव द्वारा बसाई बाहरी दुनिया का है। तब यहां न सड़क थी, और न बिजली, टेलीफोन जैसे कोई भी आधुनिक सुविधाऐं। सरकारी व्यवस्था के नाम पर एक-एक प्राइमरी पाठशाला व हाईस्कूल, एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, डाकखाना और पानी की एक टंकी, जिसमें यदि पानी न आ रहा हो तो कहीं शिकायत करने की जरूरत नहीं। लोग आपस में बेहद मिल-जुलकर रहते थे। पड़ाव के कुछ लोग स्वयं ही इकट्ठे होकर लगभग दो किमी दूर जल-श्रोत के गधेरे पाइप रिंच लेकर चल पड़ते और लाइन ठीक कर पानी जोड़ लाते। अन्य कार्यों में भी लोगों में आपस का मेल-जोल देखने लायक होता। किसी के घर में कुछ भी अच्छी चीज बनती, पेड़ पर फल लगते तो सभी में बंटते। बहुत जरूरी होने पर लेन-देन की पैंच कही जाने वाली व्यवस्था पर जीवन चलता था। खरीद-फरोख्त बेहद सीमित। पड़ाव में रहने वाले बाहरी लोगों को करीब एक रुपऐ लीटर दूध व 25 रुपऐ किग्रा के भाव घी मिल जाया करता था। फल-सब्जियां भी बेहद सस्ते थे। एक रुपऐ किलो आलू और एक रुपऐ बीसी (दर्जन की जगह बीस का भाव ही सामान्यतया बताया जाता था) केले मिलते थे। मुझे याद है बाद में जब दो रुपऐ बीसी केले हुऐ थे, तो पड़ाव में सभी ने कहा था, अब केले कौन खाऐगा ? कभी गोश्त खाने का मन हुआ तो पड़ाव के लोग एक बकरा ले आते थे, और उसके बिना तराजू बराबर हिस्से कर आपस में बांट लिऐ जाते थे। मुझे याद नहीं हमने कभी पांच रुपऐ धड़ी (पांच किलो) के भाव आलू के अलावा कभी कोई सब्जी खरीदी हो। वह तराजू का जमाना ही नहीं था। वहां बाहर से लोग आते तो उन्हें अतिथि देवता की तरह आदर-सम्मान दिया जाता था।
और इधर नैनीताल, जहां हर ओर तराजू और बाजार है। जहां रोज सैलानियों के रूप में हजारों अतिथि देवता आते तो हैं, पर उन्हें भूखे भेड़ियों की नज़रों से देखा जाता है। उन्हें हर कदम पर नोचा जाता है। सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी `झटके´ से काट दी जाती है, उसे `हलाल´ होने तक का मौका नहीं दिया जाता। होटल के नाम पर, घुमाने के नाम पर, बस बेवकूफ बनाने की प्रतिस्पर्धाऐं चलती रहती हैं। सैलानियों से ही नहीं, स्थाई रूप से रहने आऐ बाहरी लोगों को किराऐ पर कमरा देने से लेकर स्थानीय मूल वाशिन्दों से भी बाजार कोई मुरौबत नहीं करता। सब्जियां दुकान पर हफ्तों-पखवाड़ों सूखने-सड़ने के बाद फेंक दी जाती हैं, लेकिन गरीबों-भिखारियों को भी एक रुपऐ सस्ती नहीं दी जातीं। 
नैनी, मेरे बचपन का गांव, हमेशा से मेरे मन में बैठा, मुझे वापस बुलाने को जैसे पुकारता हुआ। लेकिन नैनीताल के बाजार में बैठा मैं, कभी फुरसत ही नहीं मिलती। लेकिन इस बार शायद आदेश ईश्वरीय था, और मैं  इस 21 जून की सुबह करीब पौने आठ बजे अपने अमेरिका से बच्चों को स्कूटर पर ही लेकर नैनी के लिए चल पड़ा अपने बचपन के भारत यानी नैनी की राह पर। स्कूटर इसलिए क्योंकि बच्चों को कार में पहाड़ी रास्तों पर उल्टियाँ होने की शिकायत है। उस जमाने की बसों की रफ्तार के हिसाब से अन्दाजा लगाया था कि शाम तक जागेश्वर धाम ही पहुंच पाऐंगे। वहां कुमाऊं मण्डल विकास निगम के रेस्ट हाउस में कमरा बुक किया था। योजना थी कि रात्रि वहीं विश्राम कर सुबह मन्दिर में पूजा-पाठ करेंगे और सुबह वहां से 17 किमी आगे नैनी जाकर शाम तक करीब 52 किमी वापस अल्मोड़ा लौट आऐंगे। लेकिन रास्ते में रुकते-सुस्ताते हुऐ भी हम दोपहर सवा बजे के करीब जागेश्वर पहुंच गऐ। कमरे में सामान रखा, थोड़ा सुस्ताऐ भी, अब क्या करें। यूं राह में पहले भी अन्दाजा हो गया था कि जागेश्वर जल्दी पहुंच रहे हैं, क्या सम्भव है कि शाम को ही सीधे नैनी भी चल पड़ें। मैं आखिरी बार 1985 में नैनी से लौटा था, सो मन में 25 वर्ष बाद अपने बचपन के भारत को देखने की भावनाऐं हिलोरें मार रही थीं। और हम चल पड़े। बच्चे भी मेरे सपनों में अक्सर आने वाले गांव को देखने की छटपटाहट को जैसे समझ रहे थे।
`देखो, हम बचपन में यहां ब्रह्मकुण्ड में सुबह-सुबह ठण्डे जल से स्नान कर जागनाथ जी के मन्दिर में दर्शन करने जाते थे। इसी के बगल की इस पगडण्डी से पैदल नैनी जाते थे´ मैं बच्चों को बताता चल रहा था, और बच्चे आश्चर्य में थे कि तब हम बच्चे कैसे 17 किमी पैदल जाते थे। उन्हें इस बात पर सहज विश्वास नहीं हुआ, और यह तो उनके लिए अकल्पनीय था कि हम पनुवानौला (जागेश्वर से करीब 10 किमी पहले का स्थान, कहते हैं यहां महाभारत काल में बना पाण्डवकालीन नौला यानी पानी का चश्मा है।) से शौकियाथल, बृद्ध जागेश्वर के घने बाघ-भालुओं युक्त वनों से होते हुऐ नैनी पैदल आते-जाते थे। 
हम उस डामरीकृत परन्तु बुरी तरह से उखड़ी हुई सड़क पर आगे बढ़े, जो पहले कच्ची हुआ करती थी। देवदार के सुरम्य वन को पार कर चीढ़ के वनों की ऊंचाई पर पहुंचे। चीढ़ की चाहे जितनी बुराई होती हो, लेकिन न जाने क्यों अंग्रेजी, व्यवसायिक व पर्यावरण शत्रु के रूप में कुख्यात यह वृक्ष मुझे बचपन से ही मानव मित्र सा प्रतीत होता रहा है। शायद, इसलिऐ कि इसी की छांव तले नैनी में मेरा बचपन बीता। इसी की लकड़ियों पर हमारे घर का चूल्हा जलता था, और सैकड़ों स्थानीय लोगों का भी, जो `लिसुओं´ के रूप में इस पेड़ के तनों को एक खास तरह के बसूले (छोटा कुल्हाड़ा) से खोप-खोप कर लीसा निकालते थे। लीसे को पहले छोटे कुप्पों और फिर कनस्तरों में एकत्र किया जाता। इन्हें स्थानीय और बाहर स्थित टरपिनटाइन फैक्टरियों में भेजा जाता, जहां इससे रेजिन व तारपीन का तेल बनाया जाता। तब मैं बालक था, पर खूब प्रचलित `लीसा चोर´ जैसे शब्दों को सुना करता था। मुझे लगता था, कुछ लोग सरकारी व्यवस्था के इतर लीसे को अन्यत्र बेचते होंगे, और इसलिऐ चोर कहे जाते होंगे। `लीसा चोर सेठ हो गऐ हैं, चीड़ के पेड़ों को इमारती लकड़ी के लिए अवैध रूप से चोरी-छुपे बड़े स्तर पर काटा जा रहा है,´ यह भी सुना जाता था। इधर 1983 से सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के बाद 1000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर पेड़ काटने पर जो प्रतिबंध लगा, उसका असर, बल्कि बुरा असर कुछ हद तक इस बार मुझे जंगलों में दिखाई दिया। जंगलों में बूढ़े पेड़ अपनी उम्र पूरी कर ही गिर पा रहे हैं, इस कारण नई पौध व नऐ जंगल विकसित नहीं हो पा रहे हैं। लेकिन इन आरोपों की पुष्टि मुझे नहीं हुई कि चीड़ बांज एवं अन्य चौड़ी पत्ती के उपयोगी वनों में घुसपैठ और अतिक्रमण कर रहा है। जागेश्वर के पास ही मैंने देखा, नदी के एक ओर उत्तरी ढाल पर देवदार का घना सुरम्य वन और दूसरी ओर 25 वर्ष बाद भी वही बिखरा छंटा हुआ सा चीड़ का जंगल। यानी, चीड़ ने दूसरे वनों में अतिक्रमण नहीं किया। वह दूसरों को हटा कर प्रतिस्थापित नहीं हुआ।
हम आगे बढ़े। यह 'चमुवा' नाम का गांव था, जहां आकर मैं सुखद अनुभूति से भर उठा। रास्ते भर मैंने पानी के लिए कनस्तर, डिब्बे आदि लेकर घूमतीं महिलाओं, बच्चों को देखा था। लेकिन यहां जगह-जगह पानी के तालाब भरे हुऐ थे। यह वर्षा जल संग्रहण का व्यवस्थित प्रयास था, जिससे ग्रामीण खेतों में फसलें लहलहा रहे थे। यहां काफी संख्या में `पॉली हाउस´ भी मुझे दिखाई दिऐ। नैनी पहुंचने की जल्दी में मैं यहां रुककर और जानकारियां इकट्ठा नहीं कर पाया। सोचा, लौटते हुऐ रुकुंगा, लेकिन लौटते समय अंधेरा घिर जाने के कारण यह सम्भव न हो पाया। 
आगे 'भगरतोला' के पास हम बड़ा ऊंचा टावर देखकर चौंके। इसकी तो कल्पना ही नहीं की थी। शायद किसी मोबाइल कंपनी का टावर था। जमाना बदल रहा है, सोचते हुऐ हम आगे बढ़े। अगले मोड़ पर एक दुकान बन गई थी। यहां से नैनी की झलक दिख गई। मुझे विश्वास हो गया, अब नैनी पहुंच जाऐंगे। पता नहीं क्यों अब तक मुझे अपनी यादों में बसी इस जगह वापस पहुंच पाने का जैसे विश्वास ही नहीं हो पा रहा था। अब मुझे 'चर्चालीखान' पहुंचने का इन्तजार था। इससे पहले ही एक स्थान, जहां बहुत कम धूप आने के कारण बेहद नमी रहती थी, इस कारण वहां सड़क भी बहुत दिन अपने निर्माण के दौर में अटकी रही, वहां गांव की प्रतीकात्मक लालटेनें लटकाऐ हुऐ आलीशान होटल बन रहा था। मुंह से निकला, जंगल में मंगल।
मेरे मन में बसा था 'चर्चाली', यहां बचपन में जी भर कर खाऐ पुलम, आढू, खुमानी जैसे फलों का स्वाद आज भी जैसे मेरी जिह्वा भूली नहीं है। लेकिन यह क्या, आज उस जमाने से भी अधिक उजड़ा हुआ था चर्चाली। वहां फलों का भी नामोनिशान नहीं था। मुझे अच्छा नहीं लगा। सामने सड़क पर एक जगह पर चीड़ की पत्तियों (पिरूल) की चादर बिछी हुई थी, हम आराम से वहां पसर गऐ। पत्नी ऐसे बैठने को चादर साथ लाना भूल गई थी, लेकिन यहां चादर बिछाने की जरूरत ही नहीं थी। बच्चे हमारे बचपन के खेल की तरह ही चार नुकीली पत्तियों वाला पिरूल ढूंढने में लग गऐ। सामान्यतया पिरूल में तीन पत्तियां एक साथ होती हैं, किन्तु कहा जाता है कि जिसे चार पत्तियों वाला पिरूल मिल जाता है, वह भाग्यशाली होता है। 
हम करीब तीन किमी आगे सैम मन्दिर पहुंचे। इस मन्दिर से मेरी कई यादें जुड़ी हुई थीं। यहां से थोड़ा आगे बढ़े तो पक्की सड़क कच्ची रह गई। सड़क के एक ओर मजदूरों द्वारा तोड़ कर ढेर लगाऐ गऐ 'डांसी' (खास तरह के मजबूत पत्थर) पत्थर ठीक उसी तरह दिखाई दिऐ, जैसे 25 वर्ष पूर्व दिखाई देते थे। यह पत्थर सड़क के डामरीकरण से पूर्व की तैयारी में सड़क पर बिछाने के लिए थे। यह सोचते सोचते मल्ला नैनी आ गया। तब ही की तरह केवल एक दुकान, हां वहां सरकारी सस्ता गल्ला विक्रेता का बोर्ड लटक गया था। सामने बुजुर्ग दुकानदार दिखाई दिऐ। चेहरा पहचाना हुआ सा, लेकिन नाम याद नहीं। मैंने प्रणाम कहते हुऐ स्कूटर रोक दिया। वह जैसे धन्य हो गऐ। बातें, पुराने परिचय का सिलसिला शुरू हो गया। वह रमेश भट्ट जी थे। कहने लगे, बस ढाई किमी सड़क पक्का होने से बची है। बस दो परतें और चढ़नी हैं और पूरी सड़क पक्की। मैंने कहा, यही 25 वर्ष पहले भी हम कहते थे। हां, 17 किमी में से 14.5 किमी सड़क जरूर पक्की हो गई। यह अलग बात है कि पूरी बनने से पहले कभी मरम्मत न होने के कारण काफी उखड़ भी गई। 
चर्चाली और पूरे क्षेत्र में फलों के खत्म होने की उन्होंने जानकारी दी। बताया, शायद जब से आप गऐ, तभी से फल खत्म हो गऐ, वो 'दो रुपऐ बीसी' वाले पहाड़ी केले अब किसी भाव उपलब्ध नहीं, अन्य फल भी गायब। कारण कुछ तो बाग मालिकों की पिछली पीढ़ी के दिवंगत होने के बाद नयी पीढ़ी द्वारा ध्यान न दिया जाना, और कुछ मौसम की बेरुखी। अब सब्जियां, फल, अनाज सब कुछ हल्द्वानी मण्डी से आता है। भट्ट जी ने बताया, `कई वर्षों से बर्फ नहीं पड़ रही, पानी बरसना भी लगातार कम होता जा रहा है। पहाड़ की खेती आसमानी मेहरबानी पर ही निर्भर ठैरी....´। सामने एक पेड़ में नाशपाती खूब लदी हुई थी। बोले, `15 रुपऐ कट्टे के भाव ठेकेदार ले जाता है। हल्द्वानी मण्डी में 150 के भाव बिकती है।´ नैनी अब अधिक दूर नहीं था। ढाई किमी बाद हम नैनी में थे। एक गधेरे पर मैंने बच्चों को बताया, यहां से हम पानी जोड़ने को आते थे। अगले `हेयर पिन´ मोड़ पर मैंने बताया, यहां तक नैनी के बच्चे बस को आता देख पीछे से लटकने को रोज ही दौड़े चले आते थे। कई चोटिल भी होते थे।
आखिर हम नैनी पहुंच गऐ। मेरा मन था, उस मिट्टी को चूम लूं। मैं यह सोच कर आया था कि उस जमाने के बहुत से लोग दुनिया छोड़ चुके होंगे। तब के बच्चे रहे मेरे साथी बड़े हो चुके होंगे। इसलिए कम ही लोग होंगे, जो पहचान पाऐंगे। इसलिए शुरू में रुके बिना सीधे ही पड़ाव का एक चक्कर लगा आया। लोग, खासकर बच्चे पड़ाव में आऐ स्कूटर को कुछ वैसे ही कौतूहल से देख रहे थे, जैसे तब शायद हम भी देखते होंगे। चक्कर लगा कर लौटे, तभी मेरे मोबाइल पर घंटी बजने लगी। यह सुखद था कि यहां मोबाइल के सिग्नल साफ आ रहे थे। मैं स्कूटर रोककर बात करने लगा, इस दौरान स्थानीय लोगों की मेरे प्रति जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी। कई लोग पास आकर खड़े हो गऐ थे। मानो कोई अमेरिका से भारत आ गया हो। मुझे एक वृद्ध चेहरा पहचाना सा लगा। मैंने पुकार लिया, `अरे, सर्वजीत दा!´ उस बृद्ध ने भी तब तक मुझमें मेरे पिताजी की छवि भांप ली थी। `हां, बाब स्यैप....´ फिर तो बातों का सिलसिला चल पड़ा। कई परिचित मिलते चले गऐ। पुरानी स्मृतियों के कपाट खुलते चले गऐ। मेरी आंखें पुरानी चीजों को तलाश रही थीं, और मस्तिश्क छूट गऐ सवालों के जवाब तलाश रहा था। दुकानों में किसी भी बड़े नगर सी कोल्ड ड्रिंक, स्नैक्स, बिस्कुट इत्यादि दिख रहे थे। मुझे भारत में रहने वाले बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार मार्क टुली का स्मरण हो आया, जिन्होंने हाल ही में कहा है, `अब मुझे व मेरी पत्नी को इंग्लेण्ड से बड़ा बैग भरकर सामान नहीं लाना पड़ता, क्योंकि अब वहां के सभी सामान यहां के बाजारों में आसानी से मिल जाते हैं।´ यानी मेरा भारत भी इस मायने में अमेरिका बन गया था। और हां, कुछ मामलों में अभी भी वही ढाई दशक पुराना भारत ही था।
अपना स्कूल देखने की बड़ी इच्छा थी। मैं पुराने परिचित मोहन सिंह खनी जी को साथ लेकर बच्चों सहित पैदल पगडण्डी चढ़कर स्कूल पहुंच गया। वहां पुराना विद्यालय भवन तोड़ दिया गया था। 1980 के करीब कक्षों की कमी के कारण तत्कालीन प्रधानाचार्य व शिक्षकों द्वारा अपने प्रयासों से टिन की हल्की चादरों से बनवाया गया शिक्षक कक्ष तकरीबन तभी की स्थिति में था, लेकिन इस बीच बने विद्यालय भवन का लिंटर सहित प्लास्टर जगह-जगह से उखड़ रहा था। नींचे विद्यालय परिसर में पिताजी एवं अन्य शिक्षकों तथा बच्चों द्वारा रोपे गऐ नन्हे देवदार, बांज आदि के पौधे उस चीड़ के वन प्रदेश में बड़े होकर जंगल का आभाश करा रहे थे। स्कूल से लौटते दूर पहाड़ी पर बारिश की मोटी बून्दें उड़ती हुई दिखाई देने लगीं। मोहनदा ने चेता दिया, जल्दी चलें, भीग जाऐंगे। हम तेजी से चलकर भीगने से पहले ही पड़ाव में उतर आऐ। बाद में खूब बारिश हुई। इस बीच पुरानी खट-खट वाली चाय याद आ गई तो पीने की इच्छा जाग गई। लेकिन वह उपलब्ध नहीं हुई। उस चाय में क्या अलग स्वाद होता था। दिन-रात चूल्हे पर पत्ती पड़ा हुआ पानी खौलता रहता था। चाय बनाने पर उसे गिलास में डाला। दूध, चीनी मिलाकर अलग-अलग गिलासों में चम्मच से खास तरीके से खट-खटा दिया, और चाय तैयार। इस बार `टी स्टाल´ वाले ने कहा, `सर, वह दिन गऐ। अब तो यही पीनी पड़ेगी।´ 
इधर पड़ाव में हमारा तत्कालीन तीन मंजिला आवास जो कि तब भी कमोबेश जर्जर स्थिति में था, और अधिक बूढ़ा लग रहा था, लेकिन उसके अहाते में मेरे द्वारा लगाया गया कनेर के गुलाबी फूलों का पेड़ खिला महक रहा था। पड़ाव में बने नऐ भवनों में पुराने भवनों को पहचानना मुश्किल हो रहा था। पानी की टंकी के सटाकर भवन बन गऐ थे, शायद अतिक्रमण किया गया हो। पड़ाव में कई पुराने परिचित मिले। वह रात्रि यहीं रुकने का अनुरोध करने लगे। अगली बार रुकने का कार्यक्रम बनाकर ही आने का मैंने उनसे वादा किया। एक पांव से विकलांग दर्जी का कार्य करने वाले दलीप सिंह बोरा कार्की जी मिल गऐ, उन्हें हम `दुल्दा´ कहते थे। उन्होंने बैशाखी के सहारे दुकान की सीढ़ियां चढ़कर भी बच्चों को नां-नां कहते बिस्कुट पकड़ा दिऐ। बमुश्किल एक दुकान पर पहाड़ी खट्टे-मीठे आम मिल गऐ, जिन्हें उस स्थान का प्रसाद समझ हम वापस लौट आऐ। 
वापसी में दो उल्लेखनीय घटनाएं घटीं। पहली 'मल्ली नैनी' में सैम मंदिर के पास, जहाँ वर्षा के बाद आसमान में बेहद खूबसूरत 'इन्द्र धनुष' ताना हुआ थाइन्द्र धनुष मैंने नैनीताल के अपेक्षाकृत छोटे आकाशीय फलक में कभी नहीं देखा था। दूसरी घटना चमुआ के पास जंगल में हुईअंधेरा घिर आया था। एक मोड़ पर कुछ जंगली प्राणी देख बच्चे डर गऐ। हम ठिठक पड़े। वहां किसी जानवर के कुछ बच्चे एक और बड़ा जानवर था। हमें देखने के कुछ देर बाद बच्चे तो भाग गऐ, लेकिन बड़ा जानवर सड़क पर बैठा रहा। अंधेरे में वह बाघ सदृश लग रहा था। मैंने स्कूटर की लाइट जलाई, हार्न बजाया, किन्तु वह टस से मस नहीं हुआ। मेरी भी कुछ समझ में नहीं आया। आखिर कुछ देर बाद जब तक मैं कुछ सोच पाता, वह उठ खड़ा हुआ। तब पता चला कि वह वास्तव में लोमड़ी था। यह परेशानी तो गुजर गई, और मैं इस सोच में पड़ गया कि बेहद डरपोक मानी जाने वाली लोमड़ी इतनी निर्भीक कैसे हो गई। विचार अतीत तक चले गऐ, जहां कभी वन्य पशुओं द्वारा आज की तरह घरेलू जानवरों व मनुष्यों को निवाला बनाने की खबरें नहीं सुनी जाती थीं। मनुष्य जंगलों से अकेले पैदल यात्राऐं करता था, लेकिन बन्दर, लंगूर जैसे गैर नुकसानदेह वन्य जानवर भी नहीं दिखते थे। पिताजी, हम बच्चों को अकेले सुबह ब्रह्म मुहूर्त में तड़के उठाकर नैनी से करीब 10 मील दूर पनुवानौला ले जाते थे, और हम वहां से सुबह सात या आठ बजे पिथौरागढ़ से हल्द्वानी के लिए आने वाली इकलौती रोडवेज की बस पकड़ते थे। तब कभी हमें कोई जानवर दूर से तक नहीं दिखता था। लेकिन अब तो मेरे अमेरिका यानी नैनीताल में बीते दिनों हिंसक हुए बन्दरों, लंगूरों को गोली मारने तक की नौबत आई। मथुरा से उन्हें पकड़ने के लिए विशेषज्ञ बुलाने पड़े, और उन्होंने उन्हें ही काट डाला। 600 से अधिक बन्दर-लंगूर पकड़े गऐ, परन्तु एक माह बाद भी स्थिति फिर से यथावत हो गई।

Saturday, May 1, 2010

पहाड़ की बेटी ने छुवा आसमान, मनस्वी बनी `मिस इण्डिया वर्ल्ड´

नवीन जोशी, नैनीताल। पहाड़ चढ़ने के लिए पहाड़ सा होंसला, विश्वास व काबिलियत होनी चाहिऐ, यह आज तक सिर्फ सुना जाता है. तन, मन, मस्तिष्क और मानस की सुन्दरता की समन्वय 'पहाड़ की बेटी' मनस्वी ममंगई नाम की लड़की ने इस कथन को सही साबित करते हुऐ देश भर की मध्यमवर्गीय समाज की लड़कियों के लिए सौन्दर्य प्रतियोगिताओं की एक नयी राह खोल दी है। उसने मुम्बई में आयोजित देश की सबसे प्रतिष्ठित और धनाढ्य व हाई-प्रोफाइल वर्ग की लड़कियों के लिए मानी जानी वाली 'पेंटालून फेमिना मिस इण्डिया वर्ल्ड २०१०' (पीएफएमआई) का खिताब जीत लिया है। जीवन में सभी प्रतियोगिताओं की `टॉपर´ बनने का अनोखा रिकार्ड रखने वाली मनस्वी की बीते चार वर्षों में खिताबों की हैट-ट्रिक है, अब उसके आगे `मिस वर्ल्ड´ प्रतियोगिता का नया आसमान है, जिसे जीतने का उसके साथ ही उसके परिजनों को भी पूरा विश्वास है।
जीवन में सभी प्रतियोगितओं की `टॉपर´ रहने का अनोखा रिकार्ड, यह थी पुरस्कारों की हैट-ट्रिक, आगे मिस वर्ल्ड बनने का पूरा भरोसा

मनस्वी की ननिहाल नैनीताल में है। उसके नाना चन्द्रशेखर नैलवाल यहां प्रभागीय वनाधिकारी रहे। वह मनस्वी की नानी पुष्पा नैलवाल, मामा तुमुल नैलवाल व मामी मीनू के साथ यहीं मेविला कंपाउण्ड में रहते हैं। ममगाईं परिवार मूलत: प्रदेश के दूरस्थ बागेश्वर जिले के गरुड़ कश्बे के निकट गड़सेर गांव का निवासी है। मनस्वी की मां प्रभा और पिता जन्मेजय नैलवाल नैनीताल के ही डीएसबी परिसर से पढ़े। मां ने यहीं से एमए किया, और पिता ने ग्रेजुऐशन के बाद एमएलएनआर कालेज से इंजीनियरिंग की। बहरहाल नौकरी पर अपने कार्य को तरजीह देते हुऐ उन्होंने दिल्ली से कांट्रेक्टिंग शुरू की। यहीं 1988 में मनस्वी का जन्म हुआ। बाद में वह चण्डीगढ़ चले गऐ। इस बीच मनस्वी अपनी ननिहाल नैनीताल आती रही।कुमाउनी व्यंजन 'भट्ट की चुड़कानी' व 'पालक का कापा' आज भी उसके पसंदीदा ब्यंजन हैं. उसे नैनी सरोवर में बोटिंग करना व यहाँ के चिड़ियाघर में घूमना भी बहुत पसंद है.  यहां 10 वर्ष की मनस्वी ने वर्ष 1998, 99 और 2000 में लगातार तीन वर्ष मल्लीताल `जूम लेण्ड´ में होने वाली साह मेमोरियल स्केटिंग प्रतियोगिता जीत कर प्रतियोगिता की रनिंग ट्राफी भी हासिल की। चण्डीगढ़ के हंसराज पब्लिक स्कूल से प्रथम श्रेणी में इंटर करने के बाद परिजन चाहते थे कि वह इंजीनियरिंग करे, परन्तु उसने अपने बचपन की ख्वाहिस 'मोडलिंग' की ओर कदम बढ़ाये, इस दौरान माता-पिता में चल रहे अलगाव को नजरअंदाज करते हुए वह एलीट माडलिंग कंपनी से जुड़ गई और वर्ष 2006 में ही उसने कैरियर का पहला खिताब `इण्डिया मॉडल हंट´ जीत लिया। वर्ष 08 में उसने मलेशिया में आयोजित हुई `मिस इंटरनेशनल टूरिज्म प्रतियोगिता´ में देश का प्रतिनिधित्व किया और इसे भी वह जीत कर ही लौटी। इधर शुक्रवार की मध्य रात्रि उसने प्रख्यात फिल्म निर्माता मधुर भण्डारकर व विपुल अम्रुतलाल शाह जैसे निर्णायकों के समक्ष पेंटालून फेमिना मिस इण्डिया वर्ल्ड 2010 के 18 फाइनलिस्टों को पछाड़ते हुऐ वह मुकाम हासिल कर लिया, जिसे पाना देश की मध्यमवर्गीय लड़कियों के लिए आज से पहले कभी सम्भव न हुआ । प्रतियोगिता की शर्तों के अनुसार उसे मधुर भण्डारकर की फिल्म मिलनी भी तय है। लेकिन उसकी मंजिल देश के लिए `मिस वर्ल्ड´ का खिताब वापस लाना है।
मिसाल हैं मनस्वी और प्रभा 
आज भी लड़कियों को वर्जनाओं से घिरा मानने वाले समाज में मनस्वी एक मिसाल है। वह अपने माता पिता की इकलौती सन्तान है। उसके परिजनों का कहना है कि उसने वह कर दिखाया जैसा उसके जैसी मध्मवर्गीय लड़कियां ख्वाब में भी नहीं सोच भी नहीं पातीं, और लड़कों के लिए भी यह संभव नहीं होता. और यह भी सच्चाई है कि मनस्वी की इस सफलता के पीछे भी एक अकेली महिला यानि उसकी मा प्रभा नैलवाल ही हैं, जो चार वर्ष पूर्व पति से अलगाव के बाद अकेले  दम उसे यह मुकाम दिला पाई हैं. 
हाईकोर्ट में अधिवक्ता उसके मामा तुमुल नैलवाल ने बताया कि अपनी जीत के तुरन्त बाद उसने उसने यह विश्वास जताया। तुमुल सहित सभी परिजनों को भी उसके विश्वास पर पूरा विश्वास है, साथ ही अब पूरे प्रदेशवासियों की निगाहें भी उसकी ओर लग गई हैं। उसकी इस उपलब्धि से यहां उसकी ननिहाल में बेहद हर्ष का माहौल है। परिजन मिठाइयां बांट रहे हैं। घर में बधाइयां देने वालों का ताँता लगा हुआ है। 
मनस्वी की उपलब्धि पर उसकी नानी को मिठाई खिलते मामा-मामी.