नवीन जोशी, नैनीताल। भाषाओं को न केवल संवाद का माध्यम वरन संस्कृतियों का संवाहक भी माना जाता है। किसी देश की शक्ति उसकी भाषा की प्राचीनता के साथ ही उसके बोलने वाले लोगों की संख्या से भी आंकी जाती है, लेकिन `ग्लोबलाइजेशन´ के वर्तमान दौर में दुनिया भर की भाषाऐं स्वयं को खोकर अन्य में समाती जा रही हैं। इसमें भी भारत के लिए अधिक चिंताजनक बात यह है कि गंगा जैसी सदानीरा नदियों के साथ ही संस्कृतियों के उदगम स्थल कहे जाने वाले हिमालयी राज्यों में भाषाएँ सर्वाधिक तेजी से असुरक्षित होती जा रही हैं. देश का `भाल´ उत्तराखंड भी इसमें अपवाद नहीं है. बात उत्तराखंड से ही शुरू की जाए तो यहाँ यह पक्ष भी उजागर होता हैं कि भले यह प्रदेश अपने संवाद के प्रमुख माध्यम कुमाउनीं व गढ़वाली को `बोलियों´ से ऊपर `भाषा´ मानने तक को भले तैयार न हो, किन्तु सात समुन्दर पार संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन यानी 'यूनेस्को' ने इन भाषाओं के लिए खतरे की घंटी बजा दी है। यूनेस्को ने राज्य की कुमाउनीं, गढ़वाली के साथ ही रांग्पो भाषाओं को `वलनरेबले´ यानी भेद्य श्रेणी में रखा है, जिसका अर्थ यह हुआ कि इन भाषाओं पर ख़त्म होने का सर्वाधिक खतरा है। इसके पीछे संभवतया यह कारण प्रमुख हो कि इन भाषाओं के बोलने वाले इन्हें छोड़कर अन्य भाषाओं के प्रति अधिक आसानी से आकर्षित हो सकते हैं. इनके साथ ही राज्य की दारमा व ब्योंग्सी भाषाओं को `निश्चित खतरे´ तथा वांगनी को `अति गम्भीर खतरे´ वाली भाषाओं की श्रेणी में रखा गया है।
- हिमालयी राज्यों की भाषाओं को है अधिक खतरा
- यूनेस्को ने उत्तराखण्ड की 'रांग्पो' को भेद्य तथा 'दारमा' व 'ब्योंग्सी' को निश्चित व 'वांगनी' को अति गम्भीर खतरे में माना
यूनेस्को द्वारा अपनी वेबसाइट पर ताजा अपडेट की गई जानकारी के अनुसार कुमाउनीं भाषा 23 लाख 60 हजार लोगों द्वारा बोली जाती है। इस भाषा को बोलने वाले लोग उत्तराखण्ड के अलाव उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आसाम, बिहार और पड़ोसी देश नेपाल में भी हैं। यानी यनेस्को के सवेक्षण के दौरान इन क्षेत्रों के लोगों ने भी स्वयं को कुमाउनीं भाषा भाषी बताया है। मालूम हो कि कुमाउनी चन्द शासनकाल में राजभाषा रही है। इसकी शब्द सामर्थ्य दुनिया की समृध्हतम भ्हषाओं से भी अधिक है. उदाहरनार्थ अंगरेजी में केवल शब्द के लिए हिंदी में बू, खुसबू व बदबू आदि शब्द हैं तो कुमाउनी में अलग-अलग 'बू' के लिए किडैनी, हन्तरैनी, स्योंतैनी, बॉस, चुरैनी जैसे दर्जनों शब्द मौजूद है. इसके अलावा यूनेस्को ने गढ़वाली भाषा बोलने वालों की संख्या 22 लाख 67 हजार 314 आंकी गई है। `भेद्य´ श्रेणी में ही प्रदेश के चमोली जनपद में आठ हजार लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा रॉग्पो को भी रखा गया है, देश की कुल 82 भाषाऐं भी इस श्रेणी में हैं। इसके अतिरिक्त देश की 62 भाषाएँ `डेफिनिटली इनडेंजर्ड´ यानी `निश्चित खतरे´ की श्रेणी में रखी गई हैं, जिनमें उत्तराखण्ड की अल्मोड़ा व पिथौरागढ़ जिलों तथा नेपाल के दार्चूला जिले में बोली जाने वाली `दारमा´ एवं महाकाली नदी घाटी क्षेत्रा में बोली जाने वाली भाषा `ब्योंसी´ को रखा गया है, जिसके बोलने वालो की संख्या क्रमश: 1,761 व 1,734 बताई गई है। इससे आगे की श्रेणी `अति गम्भीर´ में भी देश की 41 भाषाओं के साथ गढ़वाल मण्डल की `वांगनी´ को रखा गया है, जिसे बोलने वालों की संख्या 12 हजार आंकी गई है। अन्तिम श्रेणी `विलुप्त´ हो चुकी भाषाओं की है। इसमें देश की पांच भाषाऐं पूर्वोत्तर की अहोम, अण्डरो व सेंगमाई के साथ उत्तराखण्ड की तोहचा व रंगकास भी शामिल हैं।
श्रीलंका सबसे भाग्यशाली
भाषाओं के खतरे में न जाने के मामले में भारतीय उपमहाद्वीप में सर्वाधिक परिवर्तन भारत में ही हुऐ हैं। यहां 196 भाषाओं पर खतरे की छाया पड़ी है, जबकि श्रीलंका स्वयं की भाषाओं को बचाने में सर्वाधिक भाग्यशाली रहा है। यहां की केवल एक भाषा इस जद में है। जबकि पड़ोसी देशों पाकिस्तान की 27 व नेपाल की 71 भाषाऐं विभिन्न श्रेणियों में खतरे में है। उधर अपनी भाषा को सर्वाधिक महत्व देने के लिए पहचाने जाने वाले जापान की केवल आठ भाषाऐं ही इस श्रेणी में हैं।
खास बात यह है कि देश की जिन कुल 196 भाषाओं को इन विभिन्न श्रेणियों में रखा गया है, उनमें दक्षिण भारत की तकरीबन केवल एक दर्जन भाषाओं के अतिरिक्त कुछ उड़ीसा तथा शेष तकरीबन 85 फीसद पूर्वोत्तर के सात राज्यों सहित उत्तराखण्ड, हिमांचल, जम्मू व कश्मीर तथा सिक्किम आदि हिमालयी राज्यों की हैं। यानी हिमालयी राज्यों से ही अधिकांश भाषाऐं खतरे की जद में जाती जा रही हैं। विशेशज्ञों की मानें तो अभी हाल तक इन्हीं राज्यों ने अपनी मूल भाषाओं को सम्भाल कर रखा था, किन्तु बीते दशक में यही भाषाओं के संक्रमणकाल में सर्वाधिक प्रभावित हुऐ और अपनी भाषाओं को बचाऐ न रख सके, जबकि अन्य राज्यों में भाषाओं का किसी एक भाषा में सिमटना पहले ही हो चुका था।
यह कर सकते हैं:-
देश-प्रदेश में 'भारतीय जनगणना २०११' चल रही है. इसमें अपनी मातृ-भाषा गढ़वाली / कुमाऊंनी लिखी जा सकती है. इस तरह और कुछ नहीं तो अपनी दुदबोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूचि में स्थान दिलाया जा सकता है.
(अधिक जानकारी यहाँ देखें: http://www.facebook.com/pages/garhavali-kumaunni-ko-matr-bhasa-ke-rupa-mem-likhembharatiya-janaganana-2011-mem-l/113347272038036?ref=mf)
(देश-दुनिया की असुरक्षित भाषाओं के बारे में अधिक जानकारी यहाँ देखें: http://www.unesco.org/culture/ich/index.php?pg=00206)
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