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Wednesday, June 2, 2010

बच्चों ने खोल कर रख दी उत्तराखण्ड के सरकारी स्कूलों की पोल

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नवीन जोशी, नैनीताल। देश में जहां कमोबेश `सर्वशिक्षा अभियान´ की असफलता के बाद `शिक्षा का अधिकार´  का नया `शिगूफा´ लागू करने की सरकारी कवायद शुरू होने जा रही है, वहीं देश के सर्वाधिक शिक्षित राज्यों में शुमार उत्तराखण्ड के नौनिहालों ने सरकारी शिक्षा व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी है। साफ बता दिया है कि शिक्षा का दोगलापन अमीरी व गरीबी की खाई की तरह चौड़ा होता जा रहा है। प्रदेश के कभी शिक्षा नगर माने जाने वाले नैनीताल व देहरादून नगरों का उत्तराखण्ड बोर्ड की हाईस्कूल व इंटरमीडिऐट की 25 रैंकिंग सूची से कोई नाम लेवा तक नहीं है। बल्कि यह समूचे जिले तक सूची में दिखाई नहीं दे रहे। वहीं कभी देश में बड़ा नाम माने जाने वाले जीआईसी अल्मोड़ा की नाक केवल एक बच्चे ने बचाई है। हां, आज भी अधिकांशत: बिजली बिना मिट्टी तेल की ढिबरियों व चीढ़ के छिलकों के सहारे बच्चों को पढ़ाने वाला प्रदेश का दूरस्थ सीमावर्ती बागेश्वर जिला हाईस्कूल व इंटरमीडिऐट दोनों में प्रदेश में सिरमौर रहा है।
  • पुराने शिक्षा `हब´ नैनीताल व देहरादून का सूपड़ा साफ
  • हाईस्कूल के 35 व इंटर की 68 की मेरिट सूची में से केवल 11-11 बच्चे ही सरकारी स्कूलों के
  • इनमें से भी केवल छह व तीन बच्चे ही शहरी सरकारी स्कूलों के
  • सर्वसुविधा संपन्न मैदानी जिलों व शहरों की अपेक्षा पर्वतीय और वहां भी ग्रामीण और अशासकीय विद्यालयों के रहे बेहतर परिणाम
  • प्रदेश के शिक्षा मंत्री का गृहजनपद हाईस्कूल में रहा फिसड्डी, जबकि हाईस्कूल-इंटर दोनों में सर्वाधिक पिछड़े जिलों में शुमार बागेश्वर बना शिरमौर 
उत्तराखण्ड बोर्ड ने हाईस्कूल व इंटरमीडिऐट बोर्ड के परीक्षाफल में 25वीं रैंक तक की सूची जारी की है, जिसमें हाईस्कूल के 35 व इंटर के 68 बच्चे शामिल हैं। पहले बात इंटरमीडिऐट की, सूची में शामिल 35 मेधावी बच्चों में से केवल 11 ही राजकीय बालक अथवा बालिका इंटर कालेजों के विद्यार्थी रहे हैं, जबकि शेष अशासकीय विद्यालयों के हैं। इन 11 राजकीय स्कूलों के विद्यार्थियों में से भी केवल पांच राइंका श्रीनगर, गोपेश्वर, अल्मोड़ा, रुद्रप्रयाग, पटेलनगर देहरादून `नगरों´ के हैं, जहां पोस्टिंग पाने की शिक्षकों में होड़ मची रहती है, और यहां आवश्यकता से अधिक शिक्षक तैनात भी हैं। जबकि शेष आठ ग्रामीण क्षेत्रों के हैं, जहां स्कूलों में न तो शिक्षक हैं, और न ही आवश्यक सुविधाऐं ही। यानी बच्चों ने जो किया है, अपनी मेहनत से। शेष 57 मेधावी उन अशासकीय विद्यालयों के हैं, जिनके शिक्षकों को केवल वेतन और `वर्ग विशेष´ के छात्रों को छात्रवृत्तियां देकर सरकार अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेती है, और वह चॉक, डस्टर जैसे स्टेशनरी के जरूरी सामानों के लिऐ तक तरसते रहते हैं। सूची को अधिक गहनता से देखें तो इसमें देहरादून जिले का केवल एक, अल्मोड़ा जिले के दो और नैनीताल जिले के केवल चार बच्चे हैं। नैनीताल जिले के जो चार बच्चे हैं, वे सभी कुसुमखेड़ा हल्द्वानी के हरगोविन्द सुयाल सरस्वती विद्या मन्दिर इंका के हैं, जहां अभावग्रस्त शिक्षक एक वक्त खाकर भी ज्ञान के यज्ञ में अपनी आहुति दे रहे हैं। इन्हें यदि हटा लें तो मानना होगा कि जिले के एक भी विद्यालय के शिक्षक अपने वेतन-सुविधाओं को सर्वश्रेश्ठ बनाने के लिए कमोबेश हर महीने किऐ जाने वाले धरना-प्रदर्शनों, आन्दोलनों से बच्चों की पढ़ाई के लिए इतना समय नहीं निकाल पाऐ कि वह श्रेश्ठता सूची में आ सकें। 
यही वरन इससे भी बुरा हाल हाईस्कूल के परिणामों में दिखता है जहां 25 रैंकिंग के 68 मेधावी बच्चों में से महज 11 बच्चे राजकीय स्कूलों से हैं, जिनमें से आठ ग्रामीण क्षेत्रों के जबकि महज तीन राइंका चौखुटिया, राजा आनन्द सिंह राइंका अल्मोड़ा नगरों के हैं। सूची में नैनीताल नगर तो छोड़िऐ समूचे जनपद का नाम लेवा तक नहीं है। देहरादून नगर का भी यही हाल है, हां विकासनगर, ऋषिकेश व डोईवाला के तीन स्कूलों के पांच बच्चों ने इज्जत रख दी है। अल्मोड़ा नगर के विवेकानन्द इंटर कालेज के नौ बच्चों के कमाल को थोड़ी देर के हटा दें तो यहां भी नगर के राजा आनन्द सिंह इंका की एक छात्रा दिव्या तिवारी ही मैरिट में स्थान बना पायी। 
चलिऐ अब मैरिट की बात छोड़ केवल उत्तीर्ण हुऐ बच्चों की ही बात करते हैं। यहां भी परीक्षा परिणाम नयी कहानी बयां कर रहे हैं । नैनीताल, देहरादून, हरिद्वार व ऊधमसिंह नगर जैसे सुविधासंपन्न एवं मैदानी नगरों पर पहाड़ के बागेश्वर, रुद्रप्रयाग, टिहरी व चंपावत जैसे जनपदों के विद्यार्थियों ने बेहतर परिणाम दिऐ हैं। हाईस्कूल में प्रदेश के शिक्षा राज्यमंत्री गोविन्द सिंह बिष्ट का गृहजनपद नैनीताल फिसड्डी रहा है। यहां के महज 55.71 फीसद विद्यार्थी ही उत्तीर्ण हुऐ। इस कड़ी हरिद्वार में 59.65, चंपावत में 62.67, चमोली में 62.79, देहरादून में 63.52, अल्मोड़ा में 64.4, उत्तरकाशी में 66.25, ऊधमसिंह नगर में 69.32, पिथौरागढ़ में 69.58, टिहरी में 71.2, रुद्रप्रयाग में 71.34 जबकि आज भी बिजली बिना ढिबरियों के सहारे बच्चों को पढ़ाने वाले बागेश्वर जनपद में सर्वाधिक 71.99 फीसद विद्यार्थी उत्तीर्ण हुऐ। इसी तरह इंटरमीडिऐट की बोर्ड परीक्षा में हरिद्वार 58 फीसद के साथ फिसड्डी तो बागेश्वर 84 फीसद के साथ सबसे आगे रहा है। वहीं देहरादून का परीक्षा परिणाम 65.13 फीसद, पिथौरागढ़ का 70.06 फीसद, ऊधमसिंह नगर का 71.23 फीसद, नैनीताल का 71.43, उत्तरकाशी को 72.62, अल्मोड़ा का 72.64, चमोली का 74.69, टिहरी का 76.78, पौड़ी का 77.19, चंपावत का 82.56 तथा रुद्रप्रयाग का 83.92 फीसद रहा है। 
साफ है कि सुविधासंपन्न नगरों व विद्यालयों का परिणाम बदतर और सुविधाहीनों का बेहतर रहा है। माना जा सकता है कि जुगाड़ लगाकर सुविधा संपन्न नगरों में आने के बावजूद सर्वाधिक कुशल शिक्षक बच्चों पर अपेक्षित मेहनत नहीं कर रहे। दूसरे सरकारी स्कूलों से मोहभंग होते-होते यह नौबत आ पहुंची है कि सरकारी स्कूलों के शिक्षक भी अब अपने बच्चों को यहां पढ़ाना छोड़ उपलब्ध होने पर निजी स्कूलों में भेज रहे हैं। सरकारी स्कूलों में केवल बेहद निम्न आय वर्ग के बच्चे ही आ रहे हैं, जिनके घरों में पढ़ाई का माहौल ही नहीं है, जो स्कूल में आकर पढ़ते हैं, और वापस लौटकर माता-पिता के साथ जीविकोपार्जन के कार्यों में हाथ बंटाने जुट जाते हैं। उन्होंने इसके बावजूद यदि कमाल किया है तो इसमें उनकी मेहनत को पूरे अंक दिऐ जाने चाहिऐ। जरूरत है कि ऐसी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद मैरिट सूची में आऐ नौनिहालों को सरकार आगे कोचिंग जैसी सुविधाऐं दे और उनकी ऊर्जा को देश के विकास में लगाने में योगदान दे।

Wednesday, May 12, 2010

देश की 196 भाषाओं के साथ कुमाउनीं व गढ़वाली भी खतरे की जद में

नवीन जोशी, नैनीताल। भाषाओं को न केवल संवाद का माध्यम वरन संस्कृतियों का संवाहक भी माना जाता है। किसी देश की शक्ति उसकी भाषा की प्राचीनता के साथ ही उसके बोलने वाले लोगों की संख्या से भी आंकी जाती है, लेकिन `ग्लोबलाइजेशन´ के वर्तमान दौर में दुनिया भर की भाषाऐं स्वयं को खोकर अन्य में समाती जा रही हैं। इसमें भी भारत के लिए अधिक चिंताजनक बात यह है कि गंगा जैसी सदानीरा नदियों के साथ ही संस्कृतियों के उदगम स्थल कहे जाने वाले हिमालयी राज्यों में भाषाएँ सर्वाधिक तेजी से असुरक्षित होती जा रही हैं.  देश का `भाल´ उत्तराखंड भी इसमें अपवाद नहीं है. बात उत्तराखंड से ही शुरू की जाए तो यहाँ यह पक्ष भी उजागर होता हैं कि भले यह प्रदेश अपने संवाद के प्रमुख माध्यम कुमाउनीं व गढ़वाली को `बोलियों´ से ऊपर `भाषा´ मानने तक को भले तैयार न हो, किन्तु सात समुन्दर पार संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन यानी 'यूनेस्को' ने इन भाषाओं के लिए खतरे की घंटी बजा दी है। यूनेस्को ने राज्य की कुमाउनीं, गढ़वाली के साथ ही रांग्पो भाषाओं को `वलनरेबले´ यानी भेद्य श्रेणी में रखा है, जिसका अर्थ यह हुआ कि इन भाषाओं पर ख़त्म होने का सर्वाधिक खतरा है। इसके पीछे संभवतया यह कारण प्रमुख हो कि इन भाषाओं के बोलने वाले इन्हें छोड़कर अन्य भाषाओं के प्रति अधिक आसानी से आकर्षित हो सकते हैं. इनके साथ ही राज्य की दारमा व ब्योंग्सी भाषाओं को `निश्चित खतरे´ तथा वांगनी को `अति गम्भीर खतरे´ वाली भाषाओं की श्रेणी में रखा गया है।
  • हिमालयी राज्यों की भाषाओं को है अधिक खतरा
  • यूनेस्को ने उत्तराखण्ड की 'रांग्पो' को भेद्य तथा 'दारमा' व 'ब्योंग्सी' को निश्चित व 'वांगनी' को अति गम्भीर खतरे में माना
यूनेस्को द्वारा अपनी वेबसाइट पर ताजा अपडेट की गई जानकारी के अनुसार कुमाउनीं भाषा 23 लाख 60 हजार लोगों द्वारा बोली जाती है। इस भाषा को बोलने वाले लोग उत्तराखण्ड के अलाव उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आसाम, बिहार और पड़ोसी देश नेपाल में भी हैं। यानी यनेस्को के सवेक्षण के दौरान इन क्षेत्रों के लोगों ने भी स्वयं को कुमाउनीं भाषा भाषी बताया है। मालूम हो कि कुमाउनी चन्द शासनकाल में राजभाषा रही है। इसकी शब्द सामर्थ्य दुनिया की समृध्हतम भ्हषाओं से भी अधिक है. उदाहरनार्थ अंगरेजी में केवल शब्द के लिए हिंदी में बू,  खुसबू व बदबू आदि शब्द हैं तो कुमाउनी में अलग-अलग 'बू' के लिए किडैनी, हन्तरैनी, स्योंतैनी, बॉस, चुरैनी जैसे दर्जनों शब्द मौजूद है.  इसके अलावा यूनेस्को ने गढ़वाली भाषा बोलने वालों की संख्या 22 लाख 67 हजार 314 आंकी गई है। `भेद्य´ श्रेणी  में ही प्रदेश के चमोली जनपद में आठ हजार लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा रॉग्पो को भी रखा गया है, देश की कुल 82 भाषाऐं भी इस श्रेणी में हैं। इसके अतिरिक्त देश की 62 भाषाएँ  `डेफिनिटली इनडेंजर्ड´ यानी `निश्चित खतरे´ की श्रेणी में रखी गई हैं, जिनमें उत्तराखण्ड की अल्मोड़ा व पिथौरागढ़ जिलों तथा नेपाल के दार्चूला  जिले में बोली जाने वाली `दारमा´ एवं महाकाली नदी घाटी क्षेत्रा में बोली जाने वाली भाषा `ब्योंसी´ को रखा गया है, जिसके बोलने वालो की संख्या क्रमश: 1,761 व 1,734 बताई गई है। इससे आगे की श्रेणी `अति गम्भीर´ में भी देश की 41 भाषाओं के साथ गढ़वाल मण्डल की `वांगनी´ को रखा गया है, जिसे बोलने वालों की संख्या 12 हजार आंकी गई है। अन्तिम श्रेणी `विलुप्त´ हो चुकी भाषाओं की है। इसमें देश की पांच भाषाऐं पूर्वोत्तर की अहोम, अण्डरो व सेंगमाई के साथ उत्तराखण्ड की तोहचा व रंगकास भी शामिल हैं। 
श्रीलंका सबसे भाग्यशाली
भाषाओं के खतरे में न जाने के मामले में भारतीय उपमहाद्वीप में सर्वाधिक परिवर्तन भारत में ही हुऐ हैं। यहां 196 भाषाओं पर खतरे की छाया पड़ी है, जबकि श्रीलंका स्वयं की भाषाओं को बचाने में सर्वाधिक भाग्यशाली रहा है। यहां की केवल एक भाषा इस जद में है। जबकि पड़ोसी देशों पाकिस्तान की 27 व नेपाल की 71 भाषाऐं विभिन्न श्रेणियों में खतरे में है। उधर अपनी भाषा को सर्वाधिक महत्व देने के लिए पहचाने जाने वाले जापान की केवल आठ भाषाऐं ही इस श्रेणी में हैं। 
खास बात यह है कि देश की जिन कुल 196 भाषाओं को इन विभिन्न श्रेणियों में रखा गया है, उनमें दक्षिण भारत की तकरीबन केवल एक दर्जन भाषाओं के अतिरिक्त कुछ उड़ीसा तथा शेष  तकरीबन 85 फीसद पूर्वोत्तर के सात राज्यों सहित उत्तराखण्ड, हिमांचल, जम्मू व कश्मीर तथा सिक्किम आदि हिमालयी राज्यों की हैं। यानी हिमालयी राज्यों से ही अधिकांश भाषाऐं खतरे की जद में जाती जा रही हैं। विशेशज्ञों की मानें तो अभी हाल तक इन्हीं राज्यों ने अपनी मूल भाषाओं को सम्भाल कर रखा था, किन्तु बीते दशक में यही भाषाओं के संक्रमणकाल में सर्वाधिक प्रभावित हुऐ और अपनी भाषाओं को बचाऐ न रख सके, जबकि अन्य राज्यों में भाषाओं का किसी एक भाषा में सिमटना पहले ही हो चुका था। 
यह कर सकते हैं:-
देश-प्रदेश में 'भारतीय जनगणना २०११'  चल रही है. इसमें अपनी मातृ-भाषा गढ़वाली / कुमाऊंनी लिखी जा सकती है. इस तरह और कुछ नहीं तो अपनी दुदबोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूचि में स्थान दिलाया जा सकता है. 
(अधिक जानकारी यहाँ देखें: http://www.facebook.com/pages/garhavali-kumaunni-ko-matr-bhasa-ke-rupa-mem-likhembharatiya-janaganana-2011-mem-l/113347272038036?ref=mf)


(देश-दुनिया की असुरक्षित भाषाओं के बारे में अधिक जानकारी यहाँ देखें: http://www.unesco.org/culture/ich/index.php?pg=00206)