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Sunday, April 27, 2014

वार्निश पीकर चलती हैं नैनीताल की नौकाएं

-कई मायनों में अनूठी हैं नैनीताल की चप्पूदार नौकाएं
नवीन जोशी, नैनीताल। नैनीताल में बेतर आशाओं-उम्मीदों के साथ ग्रीष्मकालीन पर्यटन सीजन की शुरुआत होने जा रही है। ऐसे में नौका मालिक जोरों से सीजन की तैयारियों में जुटे हुए हैं। अपने आकार-प्रकार तथा निर्माण में प्रयुक्त सामग्री सति अनेक आधारों पर अपनी तरह की अनूठी नैनी सरोवर की शान कही जाने वाली नौकाओं को सीजन के लिए तैयार किया जा रहा है। खासकर नौकाओं को वार्निश पिलाने पर खासा ध्यान दिया जा रहा है। जी हां, जानकर हैरत में ना पड़ें, अनेक वाहन जहां चलने के लिए डीजल-पेट्रोल पीते हैं, वहीं नैनीताल की नावें वार्निश पीती हैं। नावों के लिए वार्निश का खर्चा नाव मालिकों के लिए बड़ी चिंता का विषय भी होता है।
नैनीताल की नौकाओं के वार्निश पीने के इस रोचक संदर्भ से पहले इन खास नौकाओं के बनने की प्रविधि भी जान लें। करीब 22 फीट लंबी, चार फीट चौड़ी व डेड़ फीट ऊंची नौकाएं बेशक अपनी गद्दियों पर लगे कपड़े की वजह से रंग-बिरंगी नजर आती हैं, पर इनके निर्माण में रंग का प्रयोग केवल पांव रखने के फर्श और चप्पुओं में ही होता है। सामान्यतया इन्हें पीले रंग से रंगा जाता है। वहीं नौका का शेष पूरा हिस्सा अंदर-बाहर वार्निश से ही जलरोधी (वाटरप्रूफ) बनाया जाता है। नौकाएं हल्की व मजबूत शीशम की लकड़ी से बने ढांचे (इसे नाव की रीढ़ कहा जाता है) पर तुन की मुड़ने योग्य खपच्चियों (पट्टियों) को जंगरोधी तांबे की बनी कीलों से जोड़कर बनाई जाती हैं। चप्पू और फर्श चीढ़ की लकड़ी के बनते हैं। इसमें करीब एक माह का समय लग जाता है और 78 हजार रुपए का खर्च आता है। नाव के पूरे ढांचे को जलरोधी बनाने के लिए हर तीन माह में करीब तीन लीटर और हर छह माह में करीब छह लीटर यानी वर्ष भर में करीब नौ लीटर वार्निश का प्रयोग किया जाता है, जिसे नाव को वार्निश पिलाना कहा जाता है। जान लें कि एक लीटर वार्निश करीब 280 रुपए का, और तीन लीटर की केन करीब 800 रुपए की आती है। हर वर्ष सीजन से पहले मार्च-अप्रैल तथा सर्दियों से पहले बारिश-बर्फ से नाव को बचाने के लिए अक्टूबर में दो बार नावों की मरम्मत की जाती है, तब तक तुन की दो-चार पट्टियां इस सारे प्रबंध के बावजूद सड़ जाती हैं, लिहाजा उन्हें बदलना पड़ता है। इस प्रकार हर मरम्मत पर तीन-चार हजार रुपए का खर्च आ जाता है। वर्ष भर पूरी देखरेख के बावजूद एक नाव औसतन 10 वर्षों में पूरी तरह से खराब हो जाती है। नगर में केवल सात-आठ शिल्पी ही हैं जो नावों का निर्माण और मरम्मत कर पाते हैं। बताते हैं कि सरदार धन्ना सिंह ने 1930 के आसपास यहां इस विशेष प्रकार की नावें बनाने की शुरुआत की थी। ऐसी नावें केवल जनपद की भीमताल, सातताल व नौकुचियाताल झीलों में ही सवारी के लिए मिलती हैं। 
कई स्नातक भी खेह रहे नाव
उल्लेखनीय है कि नाशपाती के आकार की नैनी झील करीब तीन किमी की परिधि की 14 मीटर लंबी, 46 मीटर चौड़ाई व अधिकतम 28 मीटर गहराई की तथा 4.8 हेक्टेयर यानी 0.4 वर्ग किमी में फैली हुई है। इतनी छोटी झील में अकेले 222 चप्पूदार नौकाएं चलती हैं, जो अभी हाल में अक्टूबर से बड़े किराए के अनुसार 210 रुपए में झील का पूरा और 160 रुपए में आधा चक्कर लगाती हैं। कड़ी मेहनत से नाव चालक हाथों में छाले लगाने के बावजूद दिन भर में अधिकतम आठ से 10 चक्कर ही लगा पाते हैं, और दिन में औसतन एक हजार और वर्षभर में 55 हजार रुपए ही कमा पाते हैं। एक नाव से औसतन तीन लोगों के और  करीब 500 परिवार पलते हैं। करीब 175 नाव मालिक खुद ही अपनी नाव चलाते हैं। इनमें करीब डेड़ दर्जन नाव चालक स्नातक भी हैं। नाव के बनने का खर्च उतारने में खुद नाव खेने पर तीन साल और चालकों से चलवाने पर पांच वर्ष तक लग जाते हैं।
कभी नहीं हुई बड़ी दुर्घटना
नैनीताल। दिन भर पूरी मेहनत के बावजूद अच्छी आय प्राप्त न करने से नाव चालक बेहद कठिनाई का जीवन जी रहे हैं। नैनीताल नाव मालिक संघ के संयुक्त सचिव मोहन राम, पूर्व कोषाध्यक्ष डीके सती व सदस्य प्रमोद पवार बताते हैं उनकी समस्याएं चुनावी दौर में भी किसी प्रत्याशी या दल के एजेंडे में शामिल नहीं होती। उन्हें लाइसेंस लेने सहित अनेकों पाबंदियां झेलनी पड़ती हैं। सूर्यास्त के बाद नाव चलाने की अनुमति नहीं है। अब तक के इतिहास में कभी चप्पूदार नौकाओं की कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुई है, वरन झील में कूदने वालों की नाव चालक ही जान बचाते हैं।

Sunday, May 26, 2013

बिनसर: प्रकृति की गोद में प्रभु का अनुभव

कत्यूरी राजाओं द्वारा निर्मित बिन्सर महादेव मंदिर
देवभूमि उत्तराखंड के कण-कण में देवत्व का वास कहा जाता है। यह देवत्व ऐसे स्थानों पर मिलता है जहां नीरव शांति होती है, और यदि ऐसे शांति स्थल पर प्रकृति केवल अपने प्राकृतिक स्वरूप में यानी मानवीय हस्तक्षेप रहित रूप में मिले तो क्या कहने। जी हां, ऐसा ही स्थल है-बिन्सर। जहां प्रकृति की गोद में बैठकर प्रभु को आत्मसात करने का अनुभव लिया जा सकता है। 
अल्मोड़ा जनपद मुख्यालय से करीब 35 किमी की दूरी पर बागेश्वर मोटर मार्ग पर बिन्सर समुद्र सतह से अधिकतम 2450 मीटर की ऊंचाई (जीरो पॉइंट) पर स्थित प्रकृति और प्रभु से एक साथ साक्षात्कार करने का स्थान है। प्रकृति से इतनी निकटता के मद्देनजर ही 1988 में इस 47.07 वर्ग किमी क्षेत्र को बिन्सर वन्य जीव विहार के रूप में संरक्षित किया गया, जिसके फलस्वरूप यहां प्रकृति बेहद सीमित मानवीय हस्तक्षेप के साथ अपने मूल स्वरूप में संरक्षित रह पाई है। इसी कारण इसे उत्तराखंड के ऐसे सुंदरतम पर्वतीय पर्यटक स्थलों में शुमार किया जाता है। यही कारण है कि अल्मोड़ा-बागेश्वर मोटर मार्ग से करीब 13 किमी के कठिन व कुछ हद तक खतरनाक सड़क मार्ग की दूरी और बिजली, पानी व दूरसंचार की सीमित सुविधाओं के बावजूद हर वर्ष देश ही नहीं दुनिया भर से हजारों की संख्या में सैलानी यहां पहुंचते हैं, और पकृति की नेमतों के बीच कई-कई दिन तक ऐसे खो जाते हैं, कि वापस लौटने का दिल ही नहीं करता। यहां सैकड़ों दुर्लभ वन्य जीवों, वनस्पतियों व परिंदों की प्रजातियों के साथ ही हिमालय की करीब 300 किमी लंबी पर्वत श्रृंखलाओं के एक साथ अकाट्य दर्शन होते हैं, तो 13वीं शताब्दी में कत्यूरी राजाओं द्वारा निर्मित बिन्सर महादेव मंदिर में हिमालयवासी महादेव शिव अष्टभुजा माता पार्वती के साथ दर्शन देते हैं। उत्तराखंड का राज्य बुरांश यहां चीड़, काफल, बांज, उतीस, मोरु, खरसों, तिलोंज व अयार के साथ ही देवदार की हरीतिमा से भरे जंगलों को अपने लाल सुर्ख फूलों से ‘जंगल की ज्वाला’ में तब्दील कर देता है, तो राज्य पक्षी मोनाल भी कठफोड़वा, कलीज फीजेंट, चीड़ फीजेंट, कोकलास फीजेंट, जंगली मुर्गी, गौरैया, लमपुछड़िया, सिटौला, कोकलास, गिद्ध, फोर्कटेल, तोता व काला तीतर आदि अपने संगी 200 से अधिक पक्षी प्रजातियों के साथ यदा-कदा दिख ही जाता है। करीब 40 प्राकृतिक जल श्रोतों वाले बिन्सर क्षेत्र में असंख्य वृक्ष प्रजातियों के साथ नैर जैसी सुंगधित वनस्पति भी मिलती है, जिससे हवन-यज्ञ में प्रयुक्त की जाने वाली धूप निर्मित की जाती है, और यह राज्य पशु कस्तूरा मृग का भोजन भी मानी जाती है। कस्तूरा की कुंडली में बसने वाली बहुचर्चित कस्तूरी और शिलाजीत जैसी औषधियां भी यहां पाई जाती हैं। कस्तूरा के साथ ही यहां तेंदुआ, काला भालू, गुलदार, साही, हिरन प्रजाति के घुरल, कांकड़, सांभर, सरों, चीतल, जंगली बिल्ली, सियार, लोमड़ी, जंगली सुअर, बंदर व लंगूरों के साथ गिलहरी आदि की दर्जनों प्रजातियां भी यहां मिलती हैं। बिन्सर जाते हुए गर्मियों में खुमानी, पुलम, आड़ू व काफल जैसे लजीज पहाड़ी फलों का स्वाद लिया जा सकता है। काफल के साथ हिसालू व किल्मोड़ा जैसे फल बिन्सर की ओर जाते हुए सड़क किनारे लगे पेड़ों-झाड़ियों से मुफ्त में ही प्राप्त किए जा सकते हैं। अपनी इन्हीं खूबियों के कारण शहरों की भीड़-भाड़ से दूर प्रकृति की गोद में स्वयं को सोंप देने के इच्छुक लोगों के लिए बिन्सर सबसे बेहतर स्थान है।
बिन्सर में नेचर वॉक
यूं पहाड़ों पर सैलानी गर्मियों के अवकाश में मैदानी गर्मी से बचकर पहाड़ों पर आते हैं, किंतु इस मौसम में प्रकृति में छायी धुंध कुछ हद तक दूर के सुंदर दृश्यों को देखने में बाधा डालकर आनंद को कम करने की कोशिश करती है, बावजूद बिन्सर में करीब में भी प्रकृति के इतने रूपों में दर्शन होते हैं कि इसकी कमी नहीं खलती। इस मौसम में भी यहां बुरांश के खिले फूलों को देखा जा सकता है, अलबत्ता अब तक वह कुछ हद तक सूख चुके होते हैं। गर्मियों से पूर्व बसंत के मार्च-अप्रैल और बरसात के बाद सितंबर-अक्टूबर यहां आने के लिए सर्वश्रेष्ठ समय हैं। इस मौसम में यहां से हिमालय पर्वत की केदारनाथ, कर्छकुंड, चौखम्भा, नीलकंठ, कामेत, गौरी पर्वत, हाथी पर्वत, नन्दाघुंटी, त्रिशूल, मैकतोली (त्रिशूल ईस्ट), पिण्डारी, सुन्दरढुंगा ग्लेशियर, नन्दादेवी, नन्दाकोट, राजरम्भा, लास्पाधूरा, रालाम्पा, नौल्पू व पंचाचूली तक की करीब 300 किमी लंबी पर्वत श्रृंखलाओं का एक नजर घुमाकर ‘बर्ड आई व्यू’ सरीखा अटूट नजार लिया जा सकता है। कमोबेस बादलों की ऊंचाई में होने के कारण बरसात सहित अन्य मौसम में बादल भी यहां कौतूहल के साथ सुंदर नजारा पेश करते हैं। 
 कुमाऊं मंडल विकास निगम का पर्यटक आवास गृह
आवास के लिए यहां कुमाऊं मंडल विकास निगम का 2300 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पर्यटक आवास गृह (टूरिस्ट रेस्ट हाउस) सर्वाधिक बेहतर सुविधाएं उपलब्ध कराता है। यहां करीब चार किमी दूर बिन्सर महादेव मंदिर के पास से मोटर की मदद से उठाकर पानी तथा जनरेटर की मदद से शाम को छह से नौ बजे तक बिजली की रोशनी भी उपलब्ध कराया जाता है। रेस्ट हाउस की टैरेस नुमा छत में बैठकर सुबह सूर्योदय एवं हिमालय की चोटियों तथा प्रकृति के दिलकश नजारे लिए जा सकते हैं। ‘नेचर वॉक’ करते हुए आधा किमी की दूरी पर स्थित सन सेट पॉइंट से शाम को सूर्यास्त के तथा करीब दो किमी की दूरी पर स्थित ‘जीरो पाइंट’ से हिमालय की चोटियों एवं दूर-दूर तक की पहाड़ी घाटियों और कुमाऊं की चोटियों का नजारा लिया जा सकता है। बिन्सर जाने की राह में चार किमी पहले 13वीं शताब्दी में बना बिन्सर महादेव मंदिर अपनी प्राकृतिक सुषमा एवं कत्यूरी शिल्प व मंदिर कला के कारण ध्यान आकृष्ट करता है। ध्यान-योग के लिए यह बेहद उपयुक्त स्थान है। मंदिर के पास की कोठरी में वर्ष भर प्रभु के भक्त पास ही के वन से प्राप्त वनस्पतियों से तैयार सुगंधित धूप की महक के साथ हवन-यज्ञ, ध्यान-साधना करते रहते हैं। मंदिर के बारे में कहा जाता है कि चंद राजाओं ने एक रात्रि में ही इसका निर्माण किया था। करीब 800 वर्षों के उपरांत भी बिना खास देखभाल के ठीक-ठाक स्थिति में मौजूद मंदिर इसके स्थापकों की समृद्ध भवन और मंदिर स्थापत्य कला एवं कर्तव्यनिष्ठा की प्रशंषा को मजबूर करता है। पास में एक प्राकृतिक नौला यानी स्वच्छ एवं मिनरल वाटर सरीखा प्राकृतिक रूप से शुद्ध पानी का चश्मा तथा सामने विशाल मैदान भी अपनी खूबसूरती के साथ मौजूद हैं। यहां मैरी बडन व खाली इस्टेट भी स्थित हैं।