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Sunday, January 6, 2013

हांके नहीं, जगाये मीडिया और सरकार


मारे देश की सबसे बड़ी समस्या क्या है ? आज की तिथि में यदि इस प्रश्न का जवाब देश के बच्चों से भी पूछा जाए तो उनका एकमत जवाब होगा-बलात्कार। निस्संदेह, बलात्कार एक राष्ट्रीय कोढ़ जैसी समस्या है, और इस समस्या के कारण देश की महिलाओं, युवतियों, किशोरियों और यहां तक कि तीन-चार वर्ष की बच्चियों के साथ ही पूरे देश को पड़ोसी देशों के साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ में तक शर्मसार होना पड़ा है। 

लेकिन, यदि इसी सवाल को बच्चों को शहरी, कस्बाई, ग्रामीण या झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों में विभक्त कर पूछा जाएगा तो इस बात में भी कोई शक नहीं कि प्रश्न के एक नहीं अनेक उत्तर मिलेंगे। 

वहीं, यही सवाल यदि पिछले वर्ष 2012 के चार चौथाई (क्वार्टर्स) में यदि अलग-अलग पूछा जाता तो भी इस सवाल के जवाब अलग-अलग मिलते। पहले चौथाई में शायद जवाब मिलता घोटाले, दूसरे में जवाब मिलता-काला धन, तीसरे में भ्रष्टाचार और देश में जनलोकपाल का ना होना और चौथे में बलात्कार....। और यह जवाब भी केवल शहरी, कश्बाई या दूसरे शब्दों में कहें तो आधुनिक टीवी, मीडिया या सोशियल मीडिया से जुड़े बच्चों या लोगों के होते। 

ऐसा क्यों है।कहीं ऐसा तो नहीं कि हम नहीं कोई और हमारी समस्याएं तय कर रहा है, या समस्याएं तय कर हम पर थोप रहा है। विगत वर्षों में पहले केंद्र और दिल्ली सरकार के राष्ट्रमंडल खेलों, टूजी स्पेक्ट्रम सहित अनेकानेक घोटाले ‘देश’ की चिंता का सबब बने रहे। बाबा रामदेव ने दल-बल के साथ देश का काला धन देश में वापस लाने के आह्वान के साथ दिल्ली कूच किया तो काला धन से अधिक बाबा रामदेव देश की मानो समस्या हो गए।खबरिया चैनल दिल्ली में उनके प्रवेश से लेकर मंत्रियों द्वारा समझाने, फिर उनके मंच पर उपस्थित लोगों, फिर समझौते का पत्र, रात्रि में लाठीचार्ज और महिलाओं के वस्त्रों में रामदेव के दिल्ली से वापस लौटने की कहानी में काला धन का मुद्दा कहीं गुम ही हो गया। फिर अन्ना हजारे जन लोकपाल के मुद्दे पर दिल्ली आए तो यहां भी कमोबेश जन लोकपाल की जरूरत से अधिक अन्ना की गिरफ्तारी, उनके अनशन के एक-एक दिन बीतने के साथ उनके स्वास्थ्य की चिंता जैसी बातें देश की समस्या बन गईं, और इन समस्याओं को लेकर कथित तौर पर ‘पूरा देश जाग’ भी गया। फिर अन्ना टीम में बिखराव व मतभेद पर ‘देश’ चिंतित रहा। आखिरकार केजरीवाल के ‘आम आदमी पार्टी’ बनाने के बाद ‘देश’ की चिंता कुछ कम होती नजर आई। लेकिन बीते वर्ष के आखिर में दिल्ली में पैरामेडिकल छात्रा के साथ चलती बस में हुई गैंग रेप की घटना ने तो मानो देश को झंकायमान करके ही रख दिया।

इन सभी घटनाक्रमों के पीछे क्या चीज ‘कॉमन’ है। एक-दिल्ली, दो-इन घटनाओं को जनता तक लाने वाला मीडिया, तीन-सरकार और चार-आक्रोशित आम आदमी। 

ऐसा है तो क्यों ? दिल्ली निस्संदेह देश की राजधानी और देश का दिल है। लेकिन क्यों केवल दिल्ली की खबरें ही हमारी चिंता का सबब बनती हैं। क्या बाकी देश की कोई समस्याएं नहीं हैं। क्या बलात्कार देश भर में नहीं हो रहे। क्या देश में महंगाई, भूख, गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण और भ्रष्टाचार जैसी अनेकानेक समस्याएं नहीं हैं। यदि हैं, क्या कहीं कोई बड़ी गड़बड़ तो नहीं है। मीडिया क्यों नहीं गांवों में आ सकता।क्यों कपकोट के स्कूल में 139 बच्चों की जिंदा दफन हो जाने की खबर राष्ट्रीय मीडिया की ‘पट्टी’ में भी नहीं आती। क्यों लालकुआ के नृशंषतम प्रीति व संजना बलात्कार कांड पूरे राज्यवासियों को आंदोलित करने के बावजूद वहां कहीं नहीं दिखाई देते।यह टीआरपी के नाम पर जो चाहे दिखाने का खेल कब तक चलेगा।

ऐसे में सवाल उठता है कि कहीं हम पर समस्याएं थोपी तो नहीं जा रही हैं, कि लो अभी कुछ दिन यह समस्या लो, इससे बाहर कुछ ना सोचो। थोड़े दिन बाद, अब इस समस्या की घुट्टी पियो, और थोड़े दिन बाद अगली समस्या का काढ़ा पियो और अपनी वास्तविक समस्याओं को भूलकर मस्त रहो। यह कोई साजिश तो नहीं चल रही कि देश भर के लोगों की भावनाओं को चाहे जिस तरह से भड़काओ,और उनसे अपने लिए माल-मत्ता समेटो। लोगों की भावनाओं का बाजार सजा दो।देश की वास्तविक समस्याओं से लोगों का ध्यान भटका दो, और अपनी ऐश काटो। कोई बलात्कार जैसी समस्याओं का भी व्यापार तो नहीं कर रहा कि अभी मोदी अपनी जीत से बड़ा ‘हैट्रिक-हैट्रिक’ कहता हुआ उछल रहा है, बलात्कार हो गया, इसी गोटी से घोड़े को पीट डालो। रामदेव को महिलाओं के वस्त्र पहनाकर, अन्ना को केजरीवाल अलग करवाकर और केजरीवाल को राजनीति में लाकर पहले ही पीट चुके है। शतरंज की बिसात पर कोई बचना नहीं चाहिए। राजनीति में इतना दम है कि प्यांदे से राजा को ‘शह-मात’ दे दें।

कौन कर सकता है ऐसा, जी हां, इलेक्ट्रानिक मीडिया और सरकार। मीडिया ने निस्संदेह एक हद तक शहरी और कश्बाई जनता को जगा दिया है। वहीं सरकार और राजनीतिक दलों को जनता को मीडिया से दूर सोई जनता को जगाने का हुनर मालूम है। वह चुनाव के दिन मीडिया से कोशों दूर, सोई जनता को जगाकर मतदान स्थल तक ले जाने और अपने पक्ष में वोट डलवाने में सफल होते हैं। अच्छा हो वह एक दिन के बजाए रोज के लिए इस पूरी जनता को जगा दें। और जो एक चौथाई लोग कथित तौर पर मीडिया और सोशियल मीडिया से जागे हैं, चुनाव के दिन अपनी आदत के तहत सो ना जाऐं। 

Tuesday, January 1, 2013

क्या वाकई जाग गया देश ?


दिल्ली में चलती बस में बहशी दरिंदों की हवस से सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई पैरामेडिकल की छात्रा की मौत पर कहा जा रहा है उसकी चिता मशाल बन 125 करोड़ देशवासियों को जगा गई है। दिल्ली में इंडिया गेट से लेकर मीडिया-समाचार पत्रों और सोशियल मीडिया पर आज यही चर्चा है, जैसे कुछ दिन पहले केजरीवाल, अन्ना हजारे और बाबा रामदेव की चर्चा थीं (तब भी देश को जागा हुआ बताया जा रहा था)। 
इस सबसे थोड़ा आगे निकलते हैं। मीडिया, समाचार पत्रों में धीरे-धीरे उसकी खबरें पीछे होती चली जाएंगीं। सोशियल मीडिया में लोगों की प्रोफाइल पर लगे काले धब्बे भी जल्द हटकर वापस अपनी या किसी अन्य खूबसूरत चेहरे की आकर्षक तस्वीरों से गुलजार हो जाएंगे। अखबरों, चैनलों में कभी संदर्भ के तौर पर यह आएगा कि 16 दिसंबर 2012 को पांच बहशी दरिंदों ने दिल्ली के बसंत विहार इलाके में चलती बस में युवती से बलात्कार किया था, और उसे उसके मित्र के साथ महिपालपुर इलाके में नग्नावस्था में झाड़ियों में फेंक दिया गया था। यह नहीं बताया जाएगा कि करीब आधे घंटे तक सैकड़ों लोग उन्हें बेशर्मी से देखते हुए निकल गऐ थे, और आखिर पुलिस ने पास के होटल से चादर मंगाकर उन्हें ढका और दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल पहुंचाया, और जहां से हृदयाघात होने के बावजूद कमोबेश मृत अवस्था में ही उसे राजनीतिक कारणों से 27 दिसंबर को सिंगापुर ले जाकर वहां के माउंट एलिजाबेथ अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां 29 दिसंबर की सुबह तड़के 2.15 बजे उसने दम तोड़ दिया, लेकिन पूरे दिन रोककर रात्रि के अंधेरे में उसके शरीर को दिल्ली लाया गया और 30 की सुबह तड़के परिवार के कथित तौर पर विरोध के बीच उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया। ऐसा इसलिए ताकि लोग आक्रेाशित ना हों, कानून-व्यवस्था के भंग होने की कोई स्थिति न उत्पन्न हो। क्योंकि पूरा देश कथित तौर पर जाग गया था....! 
आगे, चाहे जितने दावे किए जाएं, बेहद लंबी कशमकश और कानूनी लड़ाई के बाद शायद उसके बलात्कारियों और हत्यारों को शायद फांसी दे ही दी जाए। इससे पहले बलात्कारियांे, हत्यारों को फांसी की मांग करने वाले अनेक अधिवक्ता उन्हें फंासी देने का भी विरोध करेंगे। न्यायाधीश महोदय भी पूछेंगे कि क्यों फंासी ही दी जाए, आखिर हमारे कानून की भावना जो ठहरी-”एक भी निर्दोष न फंसे“ (चाहे जितने दोषी बच जाएं, और अनगिनत र्निदोष सीखचों के पीछे ट्रायल के नाम पर ही बर्षों से सजा भुगतते रहें।)

यूं भी शायद ही रुक पायें बलात्कार 
और हमारी संसद, पश्चिमी दुनिया के लिव-इन संबंधों को अपने यहां भी कानूनी मान्यता देने व विवाह जैसी सामाजिक संस्था के लिए पंजीकरण की कानूनी बाध्यता बनाने और यौन संबंधों में आपसी सहमति के लिए आयु को कम करने की पक्षधरता के बीच शायद बलात्कार को भी ”रेयर“ और ”गैर रेयर“ के अलावा कुछ अन्य नए वर्गों में भी वर्गीकृत कर दे। उम्र (नाबालिगों से सहमति के यौन संबंध भी बलात्कार की श्रेणी में हैं) व लिंग (महिलाओं, पुरुषों व किन्नरों के आधार पर तो बलात्कार के लिए भी कमोबेश अलग-अलग कानूनी प्राविधान) के साथ ही हमारे माननीय बलात्कार को जाति-वर्ण के आधार पर भी बांट दें, यानी जाति विशेष की महिलाओं से बलात्कार पर अधिक या कम सजा के प्राविधान हो जाएं तो आश्चर्य न होगा। ऐसे-ऐसे तर्क भी आ सकते हैं कि दूसरों के केवल गुप्त यौननांगों पर बलात आक्रमण या प्रयोग ही क्यों बलात्कार कहा जाए, पूरा शरीर और अन्य अंगों पर क्यों नहीं। बहरहाल, इन सब कानूनी बातों और केवल इस एक मामले में कड़ा न्याय मिल जाने के बावजूद क्या दिल पर हाथ रखकर कहा जा सकता है कि देश में ऐसी घटनाओं पर रोक लग जाएगी ? क्या हमारी बहन-बेटियां सुरक्षित हो जाएंगी ?
इस सबसे इतर, मेरा मानना है कि हमारी बहुत सी समस्याएं लगती तो शारीरिक हैं, लेकिन होती मानसिक हैं। जैसे स्पांडलाइटिस सहित अनेक रोग होते तो मूलतःतनाव से हैं, लेकिन शरीर हो दुःख पहुंचाते हैं, इसलिए उनका इलाज भी शरीर को दवाई देकर करने की कोशिश की जाती है, जबकि उपचार मन का किए जाने की जरूरत होती है। बलात्कार भी एक तरह से तन से पहले मन की बीमारी है। और इसकी जड़ में समाज के अनेक-शिक्षा, लिंग, सामाजिक-आर्थिक स्तर के विभेद जैसे अनेक कारण हैं। कानून, पुलिस और न्यायिक व्यवस्था का प्रभाव तो बहुत देर में आता है। 
इससे आगे बढ़ते हुऐ अच्छा न होगा कि भूख और सैक्स का मनोविज्ञान समझा जाए, भूख को पेट की और सैक्स को शरीर की आग और दोनों को बेहद खतरनाक भी कहा जाता है।सैक्स की आग में शरीर की भूख के साथ ही मन की भी बड़ी भूमिका होती है, जिस पर मनुष्य की शैक्षिक, आर्थिक व सामाजिक स्थिति भी अत्यधिक प्रभाव डालती है। निठारी कांड इन दोनों भूखों को नृशंशतम् मामला था जिसमें कहा जाता है कि इन दोनों भूखों के भूखे भेड़िये दर्जनों मासूम बच्चों का बलात्कार करने के बाद उनके शरीर को भी खा गए। अफसोस, हमारी याददाश्त बेहद कमजोर होती है। हम इस कांड को कमोबेश भूल चुके हैं। मीडिया भी उसी दिन याद करता है, जब न्यायालय से इस मामले में कोई अपडेट आती है। वर्षों से मामला न्यायालय में चल रहा है। और इस ”रेयरेस्ट ऑफ द रेयर“ मामले में दोषियों को कब सजा होगी, कुछ नहीं कहा जा सकता। 
एक आंकलन के अनुसार हमारे देश में केवल चार प्रतिषत बलात्कार के मामले ही अनजान लोगों द्वारा किए जाते हैं, यानी 96 प्रतिशत बलात्कार जानने-पहचानने वालों द्वारा किए जाते हैं। ऐसे में यह ही देखना होगा कि बलात्कार के साथ ही अवैध संबंध बनाने वालो का क्या मनोविज्ञान है। 
इसे पहले आयु के आधार पर देखते हैं। कम उम्र के बच्चों (लड़के-लड़कियों दोनों में, भारत में अभी कम, विदेशों में काफी) में टीवी, सिनेमा व इंटरनेट की देखा-देखी और सैक्स व जननांगों के बारे में जानने की इच्छा, जिज्ञासा (क्यूरियोसिटी) के कारण सैक्स संबंध बनाए जाते हैं। युवावस्था में युवक-युवतियों दोनों में शारीरिक और यौन अंगों का विकास होने के साथ यौन इच्छाएं भी नैसर्गिक रूप से बढ़ती हैं। सामाजिक व्यवस्था भी उन्हें बताती जाती है कि अब आप विवाह एवं यौन संबंध बनाने योग्य हो गऐ हो। यहां आकर व्यक्ति की आर्थिक और सामाजिक स्थित उसकी यौन इच्छाओं को प्रभावित करती है। अच्छे आर्थिक व सामाजिक स्तर के लोगों में इस स्थिति में अपने लिए मनपसंद जीवन साथी प्राप्त करने की अधिक सहज स्थिति रहती है, जबकि इन दोनों मामलों में कमजोर तबके के लोगों के लिए यह एक कठिन समय होता है। इस कठिन समय पर यदि व्यक्ति को उसका मनपसंद साथी ना मिल पाए तो उसे अच्छी और संस्कारवान, नैतिक शिक्षा ही संबल व शक्ति प्रदान कर सकती हैं। अन्यथा उनके भटकने का खतरा अधिक रहता है। इस उम्र में कुछ लोग, खासकर युवक शराब जैसे बुरे व्यसनों की गिरफ्त में फंसकर और अपनी कथित पौरुष शक्ति के प्रदर्शन की कोशिश में युवतियों से छेड़छाड़ और बलात्कार की हद तक जा सकते हैं। बलात्कार केवल महिलाओं, आधी आबादी के लिए ही नहीं संपूर्ण समाज के लिए अभिषाप और मानवता पर कोढ़ की तरह है।
इससे आगे प्रौढ़ अवस्था में विवाहितों और अविवाहितों में यौन इच्छाऐं (मन के स्तर से ही) पारिवारिक स्तर पर तृप्त या अतृप्त होने पर निर्भर करती हैं। और यह भी बहुत हद तक मनुष्य की आर्थिक, शैक्षिक व सामाजिक स्तर पर निर्भर करता है। इन तीनों स्तरों के समन्वित प्रभाव से ही मनुश्य स्वयं में एक तरह की शक्ति या कमजोरी महसूस करता है। शक्ति की कमजोरी की स्थिति में आकर गिरा व्यक्ति इससे बुरा क्या होगा की दशा में बुराइयों की दलदल में और धंसता चला जाता है, जबकि शक्ति के उच्चस्तर स्तर पर आकर भी व्यक्ति में सब कुछ अपने कदमों पर आ गिरने जैसा अहम और कोई क्या बिगाड़ लेगा का दंभ भी उसे ऐसे कुकृत्य करने को मजबूर करता है, और वह अपने बल से अपनी आवश्यकताओं को जबर्दस्ती जुटा भी लेता है, और फिर बल से ही लोगों का मुंह भी बंद कराने में अक्सर सफल हो जाता है। कमजोर वर्ग के लोगों के मामले जल्दी प्रकाश में आ जाते हैं। दिल्ली कांड में भी बलात्कारी कमोबेश इसी वर्ग के हैं। कोई ड्राइवर, क्लीनर, कोई सड़क पर फल विक्रेता, और एक कम उम्र युवक। यानी किसी की भी आर्थिक, सामाजिक व शैक्षिक स्थिति बहुत ठीक नहीं है। वहीं, मध्यम वर्ग के लोगों में सहयोग से या ”पटा कर (जुगाड़ से)“ काम निकालने की प्रवृत्ति अधिक देखी जाती है। यह वर्ग कोई बुरा कार्य करने से पहले सामाजिक स्तर पर डर भी अधिक महसूस करता है, इसलिए एक हद तक बुराइयों से बचा भी रहता है। 
दूसरी ओर, बालिकाओं के प्रति आज भी समाज में बरकरार असमानता की भावना बड़ी हद तक जिम्मेदार है। माता-पिता के मन में उसे पैदा करने से ही डर लगता है कि वह पैदा हो जाएगी तो उस ”लक्ष्मी“ के आने के बावजूद बधाइयां नहीं मिलेंगी। उसे, स्कूल-कालेज या कहीं भी अकेले भेजने में डर लगेगा। फिर उस ”पराए धन“ को कैसा घर-बर मिलेगा। और इस डर के कारण बेटियों को कोख में ही मार दिया जाता है। पैदा हो जाती है तो उसे यूं ”घर की इज्जत“ कहा जाता है, मानो वह हर दम दांव पर लगी रहती है। ससुराल में भी पह ”पराई“ ही रहती है, और उसे ”डोली पर आने“ के बाद ”अर्थी पर ही जाने“ की घुट्टी पिला दी जाती है कि वह कदम बाहर निकालने की हिमाकत न करे। बंधनों में कोई बंधा नहीं रहना चाहता। वह भी ”सारे बंधन तोड़कर उड़ने“ की कोशिश करती है। आज के दौर में पश्चिमीकरण की हवा में टीवी- सिनेमा और इंटरनेट उसकी ”उड़ानों को पंख“ देने का काम कर रहा है। इस हवा में उसका अचानक ”उड़ना“ बरसों से उसे कैद कर रखने वाला पुरुष प्रधान समाज कैसे बर्दास्त कर ले, यह भी एक चुनौती है। यह संक्रमण और तेजी से आ रहे बदलावों का दौर है। इसलिए विशेश सतर्क रहने की जरूरत है।
लिहाजा, यह कहा जा सकता है कि बलात्कार केवल एक शब्द नहीं, मानव मात्र पर एक अभिषाप है। इसके लिए किसी एक व्यक्ति, महिला या पुरुष, जाति, वर्ण, वर्ग को एकतरफा दोषी नहीं ठहराया जा सकता। भले ही एक व्यक्ति बलात्कार करता हो, लेकिन इसके लिए पूरा समाज, हम सब, हमारी व्यवस्था दोषी है। लिहाजा, इसके उन्मूलन के लिए चतुर्दिक व सामूहिक प्रयास करने होंगे। और यह सब हमारे हाथ में है, जब कहा जा रहा है कि दिल्ली की घटना के बाद पूरा देश जाग गया है। ऐसे में अच्छा न हो कि अदालत से इस एक मामले में चाहे जो और जब परिणाम आए, उसमें शायद समय भी लगे, उससे पूर्व ही हम सब मिलकर मानवता पर लगे इस दाग को हमेशा के लिए और जड़ से मिटा दें। 

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