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Monday, February 10, 2014

पांव तले पावर हाउस

  • 12वीं के छात्र ने जूते में बनाया डायनेमो, 500 रुपये में तैयार हो जाएगा उपकरण 
ल्मोड़ा के रवि टम्टा नैनीताल के राजकीय इंटर कालेज में महज 12वीं के छात्र हैं। पिता एक साधारण से मोटर मैकेनिक। पिता की देखा-देखी गाड़ियों के कल-पुजरे को तोड़ते-जोड़ते उन्होंने एक ऐसा कारनामा कर दिखाया जो बड़े-बड़ों को दांतों तले उंगुली दबाने को मजबूर कर दे। पिछले महीने नैनीताल में बर्फबारी के दौरान बिजली क्या गुल हुई, रवि के दिमाग की बत्ती जल उठी। उन्होंने जूतों में एक ऐसा ‘डायनेमो’ फिट कर दिखाया जिससे चलते-फिरते बिजली पैदा हो सकती है। इस बिजली से मोबाइल को रिचार्ज किया जा सकता है तो 20 वाट का सीएफएल भी रोशन हो सकता है। पांव तले बने इस छोटे से पावर हाउस की बिजली को बैटरी में स्टोर कर जरूरत के अनुसार इस्तेमाल भी किया जा सकता है।  वह कहता है, मैं दुनिया को ऐसा कुछ देना चाहता हूं जिसके बारे में अब तक किसी ने सोचा तक न हो। पेश है रवि टम्टा से बातचीत के अंश :
सुना है आपने कोई नई खोज की है। क्या खोज की है, विस्तार से बताएं ? 
मैने केवल 500 रुपये खर्च कर जूते में ऐसा प्रबंध किया है कि इससे चलते-फिरते बिजली पैदा की जा सकती है। जूते में स्प्रिंग, घूमती हुई गति से बिजली पैदा करने वाले डायनेमो और चुंबकों को इस तरह लगाया है कि स्प्रिंग चलते समय कदमों से बनने वाले दबाव से डायनेमो को करीब 50 चक्कर घुमा देता है। दो चुंबकों के उत्तरी ध्रुवों को साथ रखकर उनके एक -दूसरे से दूर जाने के गुण का लाभ लेते हुए डायनेमो को पांच-छह अतिरिक्त चक्कर की अधिक गति देने का प्रयोग किया है। इस तरह एक किमी चलने से इतनी बिजली बन जाती है कि मोबाइल फोन रिचार्ज हो सके। जूते में पैदा हुई बिजली को स्टोर करने के लिए रिचार्जेबल बैटरी भी है। इससे बिजली का प्रयोग बाद में किया जा सकता है। 
आपकी यह खोज कितनी उपयोगी हो सकती है ? 
हमारे जीवन में बिजली की खपत बढ़ी है। बिजली आपूर्ति के लिए गैर परंपरागत ऊर्जा श्रोतों की लगातार तलाश है। देश में हर व्यक्ति बहुत चलता है। गरीब पेट भरने और अमीर मोटापा रोकने के लिए काफी चलते हैं। ऐसे में मेरा प्रयोग बेहद लाभप्रद हो सकता है। आपको इस खोज का विचार कहां से आया। आपने कितने समय में इसे कर दिखाया ? करीब एक माह पहले नैनीताल में बर्फ गिरी थी। इस दौरान तीन दिन बिजली गायब रही। मेरा मोबाइल डिस्चार्ज हो गया। मैंने सोचा कि जब गाड़ियों में चलते-फिरते बिजली पैदा कर रोशनी और मोबाइल रिचार्ज किया जा सकता है तो पैदल चलने से बिजली पैदा हो सकती है। करीब एक माह के प्रयास से मेरा प्रयोग सफल हो गया। गांवों में महीनों बिजली गायब रहती है। पहाड़ों पर लोगों को बहुत पैदल चलना पड़ता है। मेरे बनाए जूतों से लोग जरूरत की बिजली बना सकते हैं। 
अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बताएं ? 
मैं मूलत: अल्मोड़ा जनपद के काफलीखान का रहने वाला हूं। वहां मेरे पिता श्री हरीश चंद्र टम्टा का ऑटो गैराज है। बचपन से पिता के साथ गैराज में हाथ बंटाता हूं। मेरे पिता ने ऑटोमोबाइल से आईटीआई किया है। वे अक्सर नये प्रयोग करते रहते हैं। उन्हीं की देखा-देखी मैं भी नई-नर्इ खोजों के बारे में सोचता रहता हूं। मैं तीन भाई-बहनों में सबसे छोटा हूं। बड़े भाई पॉलीटेक्निक से डिप्लोमा कर रहे हैं। बड़ी बहन का विवाह हो चुका है। नैनीताल में चाचा के साथ रहकर मेजर राजेश अधिकारी राजकीय इंटर कालेज में 12वीं में पढ़ रहा हूं। 
और भी नई खोज करने की योजना है ? 
2008 से मैं वाहनों को हादसों से बचाने के प्रयोग पर कार्य कर रहा हूं। इसे मैं प्रायोगिक तौर पर कागज पर साबित कर भी चुका हूं। किसी वाहन पर इसे प्रदर्शित करने के लिए काफी बड़ी धनराशि चाहिए। मैंने ‘घोंघे’ से प्रेरणा ली है। वह दो नाजुक सींग सरीखे अंगों से रास्ते का अनुमान लगाता है और पतली सींक पर नहीं गिरता। मेरी खोजयुक्त गाड़ी के टायरों में ऐसा प्रबंध होगा कि वे कीचड़ या पथरीली सड़कों पर नहीं फिसलेगी। प्रयोग की सफलता तक मैं अधिक खुलासा नहीं कर सकता। मैं ऐसी प्रविधि विकसित करने की राह पर भी हूं जिससे जीवन में काफी कुछ सीख चुके मृत व्यक्तियों के मस्तिष्क को बच्चों में प्रतिस्थापित किया जा सकेगा। इससे बच्चे उस व्यक्ति के बराबर ज्ञानयुक्त होंगे। आगे उनके जीवन में मस्तिष्क लगातार सीखता रहेगा। इस प्रकार मानव मस्तिष्क समृद्ध होता चला जाएगा। मुझे पता चला है कि रोबोट में कुछ इस तरह का प्रयोग किया जा चुका है पर मेरा प्रयोग मनुष्यों में होगा। 
आपको ऐसी नई खोजों की प्रेरणा कहां से मिलती है, कौन मदद करते हैं ? 
मेरे पिता मेरे प्रेरणा श्रोत हैं। स्कूल में भौतिकी प्रवक्ता श्याम दत्त चौधरी से भी मदद मिलती है। मैं रात्रि में केवल तीन-चार घंटे ही सोता हूं। स्कूल के अलावा हर रोज दो घंटे होमवर्क आदि के बाद मेरा पूरा समय अपनी खोजों के बारे में सोचने में ही जाता है। कई बार रात में सोते हुए सपने में भी मैं स्वयं को कुछ नया करते हुए पाता हूं। इस कारण हाईस्कूल बोर्ड परीक्षा में मैं केवल 55 फीसद अंक ही प्राप्त कर पाया। 
भविष्य में क्या बनना चाहते हैं, सरकार से कोई अपेक्षा ? 
मैं भविष्य में कुछ नया करना चाहता हूं। पिता का ऑटो गैराज अच्छा चलता है। मुझ पर पैसे कमाने की जिम्मेदारी नहीं है। मैं नौकरी नहीं करना चाहता। मेरा लक्ष्य दुनिया को कुछ नया देना है। अपनी सोच को वहां पहुंचाना चाहता हूं जहां कोई न पहुंचा हो। कोई जूते बनाने वाली कंपनी मेरी बिजली बनाने वाली खोज को आगे बढ़ाए तो ठीक, वरना मैं अपनी ऐसी जूता फैक्टरी खोलने पर विचार कर सकता हूं। सरकार से भी मेरी इस खोज के बाबत कोई अपेक्षा नहीं है। वाहनों को दुर्घटना से बचाने वाली खोज में लाखों रुपये की जरूरत पड़ेगी। उसमें कोई मदद करे तो जरूर स्वीकार करूंगा।
प्रस्तुति :  नवीन जोशी

Thursday, February 6, 2014

कौन और क्या हैं हरीश रावत


रीश रावत उत्तराखंड में कांग्रेस के सबसे कद्दावर व मंझे हुए राजनेताओं में शामिल रहे हैं। अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत से ही जनता के दुलारे इस राजनेता का ऐसा आकर्षण था, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने सबसे कम उम्र में ब्लाक प्रमुख बनने का रिकार्ड बनाया। हालांकि बाद में निर्धारित से कम उम्र का होने के कारण उन्हें भिकियासेंण के ब्लाक प्रमुख के पद से इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेशों पर हटना पड़ा था। 1980 में अपने पहले संसदीय चुनाव में भाजपा के त्रिमूर्तियों में शुमार व तब भारतीय लोक दल से सांसद रहे मुरली मनोहर जोशी को पटखनी देकर हमेशा के लिए संसदीय क्षेत्र छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। वहीं 1989 के लोस चुनावों में उन्होंने उक्रांद के कद्दावर नेता व वर्तमान केंद्रीय अध्यक्ष काशी सिंह ऐरी और भाजपा के भगत सिंह कोश्यारी को बड़े अंतर से हराया। इस चुनाव में उन्हें 1,49,703, ऐरी को 1,38,902 और कोश्यारी को केवल 34,768 वोट मिले। अब इसे ‘देर आयद-दुरुस्त आयद’ ही कहा जाएगा कि रावत कोश्यारी से 12 वर्षों के बाद उत्तराखंड के आठवें मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे हैं।
27 अप्रैल 1947 को तत्कालीन उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा जिले के ग्राम मोहनरी पोस्ट चौनलिया में स्वर्गीय राजेंद्र सिंह रावत व देवकी देवी के घर जन्मे रावत की राजनीति यात्रा एलएलबी की पढ़ाई के लिए लखनऊ विश्व विद्यालय जाने से शुरू हुई। यहां वह रानीखेत के कांग्रेस विधायक व यूपी सरकार में कद्दावर मंत्री गोविंद सिंह मेहरा के संपर्क में आए, और उनकी पुत्री रेणुका से दूसरा विवाह किया। यहीं संजय गांधी की नजर भी उन पर पड़ी, जिन्होंने तभी उनमें भविष्य का नेता देख लिया था, और केवल 33 वर्ष के युवक हरीश को 1980 में कांग्रेस पार्टी का सक्रिय सदस्य बनाकर लोक सभा चुनावों में अल्मोड़ा संसदीय सीट से कांग्रेस-इंदिरा का टिकट दिलाने के साथ ही कांग्रेस सेवादल की जिम्मेदारी भी सोंप दी। इस चुनाव में एक छात्र हरीश ने गांव से निकले एक आम युवक की छवि के साथ तत्कालीन सांसद प्रो. मुरली मनोहर जोशी के विरुद्ध 50 हजार से अधिक मतों से बड़ी पटखनी देकर भारतीय राजनीति में एक नए नक्षत्र के उतरने के संकेत दे दिए। जोशी को मात्र 49,848 और रावत को 1,08,503 वोट मिले। आगे 1984 में भी उन्होंने जोशी को हराकर अल्मोड़ा सीट छोड़ने पर ही विवश कर दिया। 1989 के चुनावों में उक्रांद के कद्दावर नेता काशी सिंह ऐरी निर्दलीय और भगत सिंह कोश्यारी भाजपा के टिकट पर उनके सामने थे। यह चुनाव भी रावत करीब 11 हजार वोटों से जीते। रावत को 1,49,703, ऐरी को 1,38,902 और कोश्यारी को केवल 34,768 वोट मिले, और यही कोश्यारी रावत से 12 वर्ष पहले उत्तराखंड के दूसरे मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे। आगे वह युवा कांग्रेस व कांग्रेस की ट्रेड यूनियन के साथ ही 2000 से 2007 तक उत्तराखंड कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। इस बीच 2002 में वह राज्य सभा सांसद के रूप में भी संसद पहुंचे।
उत्तराखंड आंदोलन के दौर में भी हरीश रावत की प्रमुख भूमिका रही। उन्होंने उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति की स्थापना कर राज्य आंदोलन को आगे बढ़ाया, और राज्य की मजबूती के लिए उत्तराखंड को राज्य से पहले केंद्र शासित प्रदेश बनाने की मांग के साथ राज्य आंदोलन की बागडोर अपने हाथों में ले ली थी। आगे रामलहर के दौर में रावत भाजपा के नए चेहरे जीवन शर्मा से करीब 29 हजार वोटों से सीट गंवा बैठे। इसके साथ ही विरोधियों को मौका मिल गया, जो उनकी राजनीतिक छवि एक ब्राह्मण विरोधी छत्रिय नेता की बनाते चले गए, जिसका नुकसान उन्हें बाद में केंद्रीय मंत्री बने भाजपा नेता बची सिंह रावत से लगातार 1996, 1998 और 1999 में तीन हारों के रूप में झेलना पड़ा। 2004 के लोक सभा चुनावों में हरीश की पत्नी रेणुका को भी बची सिंह रावत ने करीब 10 हजार मतों के अंतर से हरा दिया। लेकिन यही असली राजनीतिज्ञ की पहचान होती है, कि वह विपरीत हालातों को भी अपने पक्ष में मोड़ने की काबीलियत रखता है। 2009 के चुनावों में रावत ने एक असाधारण फैसला करते हुए दूर-दूर तक संबंध रहित प्रदेश की हरिद्वार सीट से नामांकन करा दिया, जहां समाजवादी पार्टी से उनकी परंपरागत सीट रिकार्ड 3,32,235 वोट प्राप्त कर हासिल की गई जीत के साथ रावत का मंझे हुए राजनीतिज्ञ के रूप में राजनीतिक पुर्नजन्म हुआ। इसी जीत के बाद उन्हें केंद्र सरकार में पहले श्रम राज्यमंत्री बनाया गया, और आगे केंद्रीय मंत्रिमंडल में उनका कद बढ़ता चला गया। वर्ष 2011 में कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग में राज्य मंत्री तथा बाद में ससंदीय कार्य राज्य मंत्री बनाया गया, और 2012 में वह जल संसाधन मंत्रालय के कैबिनेट मंत्री बना दिए गए। इस दौरान वह लगातार विपक्ष के हमले झेल रही यूपीए सरकार और कांग्रेस पार्टी के ‘फेस सेवर’ की दोहरी जिम्मेदारी निभाते रहे। अनेक बेहद विषम मौकों पर जब पार्टी के कोई भी नेता मीडिया चैनलों पर आने से बचते थे, रावत एक ही दिन कई-कई मीडिया चैनलों पर अपनी कुशल वाकपटुता और तर्कों के साथ पार्टी और सरकार का मजबूती से बचाव करते थे। इस तरह वह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी के समक्ष उत्तराखंड के सबसे विश्वस्त और भरोसेमंद राजनेता बनने में सफल रहे। शायद इसी का परिणाम रहा कि 2002 और 2012 के विधानसभा चुनावों में पार्टी को प्रदेश में सत्ता तक पहुंचाने में सबसे प्रमुख भूमिका निभाने वाले हरीश रावत के राजनीतिक कौशल की हाईकमान अधिक दिनों तक अनदेखी नहीं कर पाया, और अब आगामी लोक सभा चुनावों के विपरीत नजर आ रहे हालातों में रावत के हाथों में ही संकटमोचक के रूप में उत्तराखंड राज्य की सत्ता सोंप दी गई है।
ऐसे में लगातार मुख्यमंत्री बदलने की छवि बना रहे 13 वर्षों के उत्तराखंड राज्य में आठवें मुख्यमंत्री के रूप में रावत की ताजपोशी कई मायनों में सुखद है। कमोबेश पहली बार ही राज्य के एक वास्तविक संघर्षशील, केंद्र से लेकर राज्य तक बेहतर संबंधों वाले, राज्य के जन-जन से आत्मीय और नजदीकी रिश्ता रखने वाले और मंझे हुए अनुभवी राजनेता को राज्य की कमान मिली है। वह पूरे प्रदेश और उसकी अच्छाइयों के साथ ही कमियों से भी वाकिफ हैं, तथा सत्ता पक्ष के साथ ही विपक्ष में भी उनकी बेहतर छवि है। मुख्यमंत्री बनते ही राज्य के दूरस्थ आपदाग्रस्त केदारघाटी और धारचूला क्षेत्र के लोगों के आंसू पोंछते हुए उन्होंने अपनी बेहतर कार्यशैली के संदेश भी दे दिए हैं।

स्याह पक्ष:

गांव में एक पत्नी के होते हुए रावत ने रेणुका से दूसरा विवाह किया। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान वह राज्य विरोधी रहे। इसी कारण 1989 के लोक सभा चुनावों के लिए उन्हें जनता के विरोध को देखते हुए अल्मोड़ा में नामांकन कराने के लिए भी चुपचाप अकेले आना पड़ा। लेकिन इस चुनाव में उक्रांद के काशी सिंह ऐरी को हराने के बाद राजनीतिक चालबाजी दिखाते हुए अचानक उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति का गठन कर खुद को राज्य आंदोलन से भी जोड़ लिया। हालांकि इस दौरान भी वह राज्य से पहले केंद्र शासित प्रदेश की मांग पर बल देते रहे। अल्मोड़ा के सांसद रहते वह ब्राह्मण विरोधी क्षत्रिय नेता बनते चले गए, जिसका खामियाजा उन्हें बाद में स्वयं की हार की तिकड़ी और पत्नी रेणुका की भी हार के साथ अल्मोड़ा छोड़ने के रूप में भुगतना पड़ा। आगे प्रदेश में पंडित नारायण दत्त तिवारी और विजय बहुगुणा सरकारों को लगातार स्वयं और अपने समर्थक विधायकों के भारी विरोध के निशाने पर रखा, और अपनी ब्राह्मण विरोधी क्षत्रिय नेता और सत्ता के लिए कुछ भी करने वाले नेता की छवि को आगे ही बढ़ाया। केंद्र में श्रम एवं सेवायोजन, कृषि एवं खाद्य प्रसंसकरण तथा जल संसाधन मंत्री रहे, लेकिन इन मंत्रालयों के जरिए प्रदेश के बेरोजगारों को रोजगार, कृषि व फल उत्पादों को बढ़ावा देने तथा जल संसाधनों के सदुपयोग की दिशा में उन्होंने एक भी उल्लेखनीय कार्य राज्य हित में नहीं किया।

मुख्यमंत्री हरीश रावत का राजनीतिक लेखा-जोखा 

चुनाव लोक सभा क्षेत्र         जीते                                                हारे
1980 अल्मोड़ा हरीश रावत-कांग्रेस-ई (108530) मुरली मनोहर जोशी-भाजपा(49848)
1884 अल्मोड़ा हरीश रावत-कांग्रेस (185006)         मुरली मनोहर जोशी-भाजपा(44674)
1989 अल्मोड़ा हरीश रावत-कांग्रेस (149703)         काशी सिंह ऐरी-निर्दलीय (138902)
1991 अल्मोड़ा जीवन शर्मा-भाजपा (149761)         हरीश रावत-कांग्रेस (120616)
1996 अल्मोड़ा बची सिंह रावत-भाजपा (161548) हरीश रावत-कांग्रेस (104642)
1998 अल्मोड़ा बची सिंह रावत-भाजपा (228414) हरीश रावत-कांग्रेस (146511)
1999 अल्मोड़ा बची सिंह रावत-भाजपा (192388)   हरीश रावत-कांग्रेस (180920)
2004 अल्मोड़ा बची सिंह रावत-भाजपा (225431)   रेणुका रावत-कांग्रेस (215568)
2009 हरिद्वार हरीश रावत -कांग्रेस (332235)        स्वामी यतींद्रानंद गिरि-भाजपा (204823)
(यह पोस्ट उत्तराखंड के नए मुख्यमंत्री के बारे में अधिकाधिक जानकारी देने के उद्देश्य से तैयार की गई है।)

यह भी पढ़ें: क्या अपना बोया काटने से बच पाएंगे हरीश रावत ?
कांग्रेस पार्टी और उनके नेताओं के सम्बन्ध में इस ब्लॉग पर और पढ़ें : यहां क्लिक कर के

Sunday, February 2, 2014

दर्द से कहीं बड़ी होती है देश को जिताने की खुशी

आज भी बच्चों को प्रेरित करने के लिए समर्पित है ओलंपियन राजेंद्र रावत का जीवन
ह प्रतिष्ठित अजलान शाह हॉकी टूर्नामेंट के पहले संस्करण का मलेशिया में हो रहा फाइनल मुकाबला था। जर्मनी के फुल बैक खिलाड़ी ने पेनाल्टी कार्नर से गेंद भारतीय गोल पोस्ट की ओर पूरे वेग से दागी। गोली की गति से गेंद भारतीय गोलकीपर के घुटने की हड्डी पर टकराई और मैदान से बाहर निकल गई। गोलकीपर के दर्द की कोई सीमा न थी, लेकिन वह दर्द के बजाय खुशी से उछल रहा था, कारण भारत वह फाइनल और प्रतियोगिता का स्वर्ण पदक जीत चुका था।
पहली अजलान शाह हॉकी प्रतियोगिता में भारत की जीत के वह हीरो गोलकीपर राजेंद्र सिंह रावत उत्तराखंड की धरती के हैं। देश के राष्ट्रीय खेल के प्रति जोश और जुनून का जज्बा उन्हें आगे चलकर 1988 के सियोल ओलंपिक तक ले गया। कभी नैनीताल के मल्लीताल जय लाल साह बाजार में पट्ठों के पैड और नगर के रेतीले खेल मैदान फ्लैट्स में नंगे पांव हॉकी खेलने वाला यह गुदड़ी का लाल नगर के सीआरएसटी इंटर कॉलेज में पढ़ने के दौरान जिले की टीम में क्या चुना गया, उसके बाद उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज भी उनमें खेल के प्रति वही जोश व जज्बा उसी फ्लैट्स मैदान पर 40-50 बच्चों को अपनी नैनीताल हॉकी अकादमी में हॉकी सिखाते हुए देखा जा सकता है। वह अभी हाल में यहां ऐतिहासिक 1880 में स्थापित नैनीताल जिमखाना एवं जिला क्रीड़ा संघ के प्रतिष्ठित अवैतनिक महासचिव के पद पर भी चुने गए हैं। पुराने दिनों को याद कर रावत बताते हैं कि उनके पिता स्वर्गीय देव सिंह रावत नगर के जय लाल साह बाजार में मिठाई की छोटी सी दुकान चलाते थे। यहीं से अभावों के बीच वह पहले सीआरएसटी और फिर जिले की टीम में चुने गए। इसके बाद उन्हें पहले स्पोर्ट्स हॉस्टल मेरठ और फिर लखनऊ में प्रशिक्षण का मौका मिल गया। इंग्लैंड के उस दौर के सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर एलन को बिना देखे अपना गुरु मानकर वह आगे बढ़े। दिल में था, नाम भले कैप्टन का हो लेकिन गोलकीपर की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए गोल बचाएंगे और देश को मैच जिताएंगे। 1982 में वह भारतीय जूनियर हॉकी टीम का हिस्सा बन गए और क्वालालंपुर में जूनियर वर्ल्ड कप खेले। 85 के जूनियर वर्ल्ड कप में उन्हें टीम का उप कप्तान बनाया गया। 1985 में देश की सीनियर टीम में आकर हांगकांग में 10वीं नेशन हॉकी टूर्नामेंट में खेले। इसी वर्ष दुबई में हुए चार देशों के टूर्नामेंट में वह प्रतियोगिता के सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर चुने गए। भारत ने यह प्रतियोगिता अपने नाम की। 1986 में लंदन में हुए छठे विश्व कप में वह प्रतियोगिता के साथ दुनिया के सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर चुने गए। इस प्रतियोगिता के फाइनल मुकाबले में उनके द्वारा इंग्लैंड के विरुद्ध रोके गए दो पेनल्टी स्ट्रोकों को आज भी याद किया जाता है। रावत बताते हैं कि हॉकी के जादूगर ध्यान चंद के दौर में पूरी दुनिया में घास के मैदानों में ही हॉकी खेली जाती थी, तब इस खेल में भारत का डंका बजता था। लेकिन 1976 के बाद विदेशों में आए एस्ट्रो टर्फ के मैदानों और अन्य सुविधाओं की वजह से भारत की हॉकी पिछड़ती चली गई। वह बताते हैं, उस दौर में देश में पटियाला में इकलौता केवल 25 गज का एस्ट्रो टर्फ का मैदान हुआ करता था, जबकि हालैंड जैसे छोटे से देश में ऐसे 120 बड़े मैदान थे। भारतीय खिलाड़ियों के पास हेलमेट, पैड, गार्ड आदि नहीं हुआ करते थे। भारत और पाकिस्तान में ही हॉकी स्टिक बनती थीं, इसलिए भारतीय खिलाड़ी अपनी हॉकी देकर विदेशी खिलाड़ियों से हेलमेट खरीदकर मैच खेलते थे। भारतीय खिलाड़ियों के पैड रुई के बने होते थे, जो एस्ट्रो टर्फ के पानी युक्त मैदानों में भीग जाते थे और उन्हें पंखों से सुखाना पड़ता था। फाइबर के पैडों से खेलने वाले विदेशी खिलाड़ियों के साथ यह समस्या नहीं थी।
प्रस्तुति: नवीन जोशी

Saturday, February 1, 2014

10 जनपथ की नाकामी अधिक है बहुगुणा की वापसी

उत्तराखंड में आयी दैवीय आपदा का आख़िरी पीड़ित
अपने दो वर्ष से भी कम समय में ही उत्तराखड की सत्ता से च्युत हुए विजय बहुगुणा की मुख्यमन्त्री पद से वापसी न केवल उनकी वरन 10 जनपथ की नाकामी अधिक है। 2010 के बाद दोबारा मार्च 2012 में विधायक दल की स्वाभाविक पसंद की अनदेखी के बावजूद उन्हें राज्य पर थोपे जाने  का ही नतीजा है कि बहुगुणा अपने कार्यकाल के पहले दिन से ही कमोबेश हर दिन सत्ता से आते-जाते रहे और एक जज के बाद एक सांसद और अब मुख्यमंत्री के रूप में भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए हैं.  तथा अपना नाम डुबाने के साथ ही अपने पिता के नाम पर भी दाग लगा चुके हैं, और कांग्रेस को भी केदारनाथ आपदा के दौरान अपने निकृष्ट कुप्रबंधन से न केवल उत्तराखंड वरन पूरे देश में नुकसान पहुंचा चुके हैं।
याद रखना होगा कि बहुगुणा की ताजपोशी 10 जनपथ को 500 करोड़ रुपए की थैली पहुंचाए जाने का प्रतिफल बताई गई थी। शायद तभी उन्हें पूरे देश को झकझोरने वाली उत्तराखंड में आई जल प्रलय की तबाही में निकृष्ट प्रबंधन की नाकामी और चारों ओर से हो रही आलोचनाओं के बावजूद के बावजूद नहीं हटाया गया। और अब हटाया भी गया है तो तब , जब तमाम ओपिनियन पोल में कांग्रेस को आगामी लोक सभा चुनावों में उत्तराखंड में पांच में से कम से कम चार सीटों पर हारता बताया जा रहा है, और आसन्न पंचायत चुनावों में भी कांग्रेस की बहुत बुरी हालत बताई जा रही है। 

क्या अपना बोया काटने से बच पाएंगे हरीश रावत ?

त्तराखंड राज्य के आठवें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण करने वाले हरीश रावत की धनै के पीडीएफ से इस्तीफे, महाराज के आशीर्वाद बिना और झन्नाटेदार थप्पड़ जैसे एक्शन-ड्रामा के साथ हुई ताजपोशी के बाद यही सबसे बड़ा सवाल उठ रहा है कि क्या रावत अपना बोया काटने से बच पाएंगे। इस बाबत आशंकाएं गैरवाजिब भी नहीं हैं। रावत के तीन से चार दशक लंबे राजनीतिक जीवन में उपलब्धियों के नाम पर वादों और विरोध के अलावा कुछ नहीं दिखता। 
चाहे राज्य की पिछली बहुगुणा सरकार हो या 2002 में प्रदेश में बनी पं. नारायण दत्त तिवारी की सरकार, रावत ने कभी अपनी सरकारों और मुख्यमंत्रियों के विरोध के लिए विपक्ष को मौका ही नहीं दिया। इधर केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहते चाहे श्रम राज्य मंत्री का कार्यकाल हो, उन्होंने बेरोजगारी व पलायन से पीड़ित अपने राज्य के लिए एक भी कार्य उपलब्धि बताने लायक नहीं किया। वह कृषि मंत्री बने तब भी उन्होंने लगातार किसानी छोड़कर पलायन करने को मजबूर अपने राज्य के किसानों के लिए कुछ नहीं किया। जल संसाधन मंत्री बने, तब भी अपने राज्य की जवानी की तरह ही बह रहे पानी को रोकने या उसके सदुपयोग के लिए एक भी उल्लेखनीय पहल नहीं की। कुल मिलाकर तीन-चार दशक लंबे राजनीतिक करियर के बावजूद रावत के पास अपनी उपलब्धियां बताते के लिए कुछ है तो उत्पाती प्रकृति के समर्थक, जिनकी झलक रावत ने अपनी ताजपोशी से पहले खुद भी अपनी ही पार्टी के एक कार्यकर्ता को झन्नाटेदार थप्पड़ जड़कर दिखा दी है।

इधर, बहुगुणा की सरकार बनने के दौरान एक हफ्ते तक दिल्ली में पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र के नाम पर चले राजनीतिक ड्रामे की यादें अभी बहुत पुरानी नहीं पड़ी हैं, जिसकी हल्की झलक शनिवार को उनकी ताजपोशी के दिन सतपाल महाराज ने दिखा दी है। शपथ ग्रहण समारोह में उनके साथ शपथ लेते मंत्रियों के बुझे चेहरे भी बहुत कुछ कहानी कह रहे थे। बहुगुणा जाते-जाते अपने अनेक समर्थकों को ‘बैक डेट’ से दायित्व देकर उनके लिए परेशानी के सबब पहले ही खड़े कर चुके हैं, जिन्हें उगलना और निगलना दोनों रावत के लिए आसान न होगा। उनके रहते रावत अपने समर्थकों को माल-मलाई देकर कैसे सहलाएंगे, यह बड़ा सवाल है। व्यक्तिगत रूप से वह, उनके समर्थकों का चाल-चरित्र कैसा रहने वाला है, इसकी झलक खुद तो दिखा ही चुके हैं, उनके आज 'कंधों पर झूलते' उनके बड़े समर्थकों के 'दिन-दहाड़े' के चर्चे भी आम हैं। इसलिए बहुत आश्चर्य नहीं उनके कार्यकाल के लिए आज चैनलों में प्रयुक्त किए जा रहे "राव'त' राज" का केवल एक अक्षर बदल कर आगे काम चलाया जाए। 

वह गूल में पानी ना आने पर प्रधानमंत्री को पत्र लिखने की अदा...

अपने शुरुआती राजनीतिक दौर में अपनी समस्याएं बताने वाले लोगों को तत्काल पत्र लिखकर समाधान कराने का वादा करना तब हरीश चंद्र सिंह रावत के नाम से पहचाने जाने वाले रावत का लोगों को अपना मुरीद बनाने का मूलमंत्र रहा। अपने खेत में पानी की गूल से पानी न आने की शिकायत करने वाले ग्रामीण को उनका तीसरे दिन ही पोस्टकार्ड से जवाब आ जाता कि उन्हें लगा है कि गूल में पानी आपके नहीं मेरी गूल में नहीं आ रहा है। उन्होंने शिकायत को सिंचाई विभाग के जेई, एई, ईई, एसई से लेकर राज्य के सिंचाई मंत्री, मुख्यमंत्री के साथ ही केंद्रीय सिंचाई मंत्री और प्रधानमंत्री को भी सूचित कर दिया है। गूल में पानी कभी ना आता, लेकिर ग्रामीण पत्र प्राप्त कर ही हरीश का मुरीद बन जाते। 

विरोध, विरोध और विरोध...

उत्तराखंड आंदोलन के दौरान हरीश की पहचान उत्तराखंड राज्य विरोधी की भी बनी, जिसके परिणामस्वरूप 1989 के चुनावों के लिए नामांकन कराने के लिए भी चुपचाप आना पड़ा था। बाद के वर्षों में हरीश की अपने अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र में ब्राह्मणद्रोही क्षत्रिय नेता की छवि बनती चली गई, जिसका परिणाम उन्हें अपनी हार की हैट-ट्रिक और पत्नी की भी हार के बाद अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र का रण छोड़ने पर विवश कर गया। राज्य के ब्राह्मण नेता तिवारी और बहुगुणा का लगातार विरोध करने से भी उनकी इस ब्राह्मण विरोधी छवि का विस्तार ही हुआ है। इसी का परिणाम है कि आज उन्होंने कुर्सी प्राप्त भी की है तो नारायण दत्त तिवारी के राज्य की राजनीति से दूर जाने के बाद....

Thursday, January 16, 2014

अत्याधुनिक होकर वापस महर्षि सुश्रुत के दौर में पहुंच गई नेत्र चिकित्सा

(राष्ट्रीय सहारा, कुमाऊं संस्करण, 16 जनवरी 2014) 
  • 2600 वर्ष पूर्व आयुर्वद की सुश्रुत संहिता में बताई गई तकनीक पर ही आधारित है मोतियाबिंद की अत्याधुनिक टॉपिकल एनेस्थीसिया विधि
  • बिना चीरा, बिना टांका, बिना इंजक्शन के होता है ऑपरेशन, ऑपरेशन के बाद तत्काल आंखों से देख सकते हैं मरीज
नवीन जोशी, नैनीताल। जी हां, सुनने में कुछ अजीब जरूर लग सकता है, पर देश के जाने-माने नेत्र शल्यक डा. विनोद तिवारी का यही कहना है। डा. विनोद तिवारी सिलसिलेवार बताते हैं कि कैसे देश-दुनिया में मोतियाबिंद के ऑपरेशन की तकनीक अत्याधुनिक होते हुए एक तरह से 2600 वर्ष पूर्व शल्यक्रिया के पितामह कहे जाने वाले महर्षि सुश्रुत द्वारा प्रयुक्त तकनीक की ओर ही लौट आई है।
उल्लेखनीय है कि नैनीताल के मूल निवासी डा. तिवारी उत्तर भारत के मोतियाबिंद की फेको इमल्सिफिकेशन तकनीक से ऑपरेशन करने वाले शुरुआती चिकित्सकों में शामिल हैं। उनका मोदीनगर यूपी में अपना नेत्र चिकित्सालय है, और वह अब तक कई जन्मान्धों सहित एक लाख से अधिक नेत्र रोगियों के ऑपरेशन कर उनकी आंखों की रोशनी लौटा चुके हैं, जिसमें पहाड़ के हजारों लोगों के निःशुल्क ऑपरेशन भी शामिल हैं। नैनीताल में निःशुल्क शिविर चला रहे डा.तिवारी ने विशेष बातचीत में मोतियाबिंद चिकित्सा के महर्षि सुश्रुत के दौर में वापस लौटने की बात बताते हुए देश के समृद्ध पुरातन ज्ञान-विज्ञान की ओर ध्यान आकृष्ट किया। बताया कि देश-दुनिया में मोतियाबिंद के आधुनिक उपचार की शुरुआत मोतियाबिंद को तकनीकें महर्षि सुश्रुत की प्रविधि के उलट मोतियाबिंद को आंखों के अंदर के बजाय बाहर लाकर करने की इंट्रा कैप्सुलर तकनीक से हुई थी। शुरुआती तकनीक में भी टांका लगाने की जरूरत नहीं होती थी, पर आगे 10 दिन तक आंख पर सफेद पट्टी और फिर तीन माह तक हरी पट्टी बांधी जाती थी। इस दौरान रोगी को बड़ी मुश्किल में बिना करवट बदले रहना पड़ता था। इसके बाद 10-12 नंबर का मोटा चश्मा दिया जाता था। आगे इंट्राकुलर लेंस की तकनीक में बड़ा 14 मिमी का चीरा लगाया जाता था। फिर फेको इमल्सिफिकेशन की बेहतर तकनीक आई, जिसमें मात्र तीन मिमी का चीरा लगाना पड़ता है। इसके बाद माइक्रो फेको तकनीक में 2-2 मिमी का चीरा लगाने की तकनीक से आंखों के ऑपरेशन होने लगे, जबकि अब टॉपिकल एनस्थीसिया तकनीक आई है, इसमें आंख में बेहोशी का इंजक्शन भी नहीं लगाना पड़ता है, और टांके व पट्टी की जरूरत भी नहीं पड़ती है, और रोगी ऑपरेशन के तत्काल बाद अपनी आंखों से देखते हुए ऑपरेशन थियेटर से बाहर आ सकते हैं, तथा अगले दिन से ही रसोई या वाहन चलाने जैसे कार्य भी कर सकते हैं। इस तकनीक में रोगी की आंखों में बेहोशी की दवाई की एक बूंद डालकर मोतियाबिंद को महर्षि सुश्रुत की ही भांति पीछे खिसका दिया जाता है। डा. तिवारी दोनों तकनीकों को समान बताते हुए कहते हैं कि महर्षि सुश्रुत और आज की टॉपिकल एनस्थीसिया तकनीक में केवल मशीन और तकनीक का फर्क आ गया है, दोनों में यह समानता भी है कि दोनों तकनीकों में आंख के ‘लिंबस’ नाम के हिस्से से मशीन को प्रवेश कर ऑपरेशन किया जाता है। उन्होंने बताया कि अकेले नैनीताल के डेड़ दर्जन रोगियों के इस विधि से सफल ऑपरेशन किये जा चुके हैं।

सुश्रुत इस तरह करते थे आंखों की शल्य क्रिया

नैनीताल। डा. तिवारी बताते हैं कि ईसा से 600 वर्ष पूर्व आयुर्वेद के अंतर्गत आने वाली सुश्रुत संहिता लिखने वाले व धन्वंतरि के शिष्य कहे जाने वाले महर्षि सुश्रुत मोतियाबिंद का ऑपरेशन आंख में पतली गर्म कर स्टरलाइज की गई सींक डालकर करते थे, वह सींक से आंख के मोतियाबिंद को पीछे की ओर धकेल देते थे, जिससे आंख तात्कालिक तौर पर ठीक हो जाती थी। हालांकि यह तकनीक मोतियाबिंद को बाहर न निकाले जाने की वजह से तब बहुत अच्छी नहीं थी और कुछ समय बाद आंख पूरी तरह ही खराब हो जाती थी, लेकिन साफ तौर पर यह कहा जा सकता है कि उस दौर में भी सुश्रुत भारत में आंखों के ऑपरेशन करते थे। सुश्रुत की तकनीक को अब ‘कॉचिंग’ तकनीक कहा जाता है, और दक्षिण अफ्रीका के कई गरीब देशों में अब भी यह विधि प्रयोग की जाती है।

उम्र बढ़ने पर हर व्यक्ति को होता है मोतियाबिंद

नैनीताल। नेत्र विशेषज्ञ डा. विनोद तिवारी का कना है कि उम्र बढ़ने पर 50-60 की आयु से कमोबेश हर व्यक्ति को मोतियाबिंद की शिकायत होती है। पहाड़ पर ईधन के धुंवे की वजह से इसके अधिक मामले होते हैं। इधर पहाड़ पर 30 से कम उम्र के कुछ लोगों को भी मोतियाबिंद की शिकायत मिली है। आधुनिक खानपान को इसका कारण माना जा सकता है।

Tuesday, January 14, 2014

कुमाऊं का ऋतु पर्व ही नहीं ऐतिहासिक व लोक सांस्कृतिक पर्व भी है उत्तरायणी


-1921 में इसी त्योहार के दौरान बागेश्वर में हुई रक्तहीन क्रांति, कुली बेगार प्रथा से मिली थी निजात
-घुघुतिया के नाम से है पहचान, काले कौआ कह कर न्यौते जाते हैं कौए और परोसे जाते हैं पकवान

नवीन जोशी, नैनीताल। दुनिया को रोशनी के साथ ऊष्मा और ऊर्जा के रूप में जीवन देने के कारण साक्षात देवता कहे जाने वाले सूर्यदेव के धनु से मकर राशि में यानी दक्षिणी से उत्तरी गोलार्ध में आने का पर्व पूरे देश में अलग-अलग प्रकार से मनाया जाता है। पूर्वी भारत में यह बीहू, पश्चिमी भारत (पंजाब) में लोहणी और दक्षिणी भारत (कर्नाटक, तमिलनाडु आदि) में पोंगल तथा उत्तर भारत में मकर संक्रांति के रूप में मनाया जाने वाला  यह पर्व देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में उत्तरायणी के रूप में मनाया जाता है।उत्तरायणी पर्व कुमाऊं का न केवल मौसम परिवर्तन के लिहाज से एक ऋतु पर्व वरन बड़ा ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पर्व भी है। 

घुघुते 
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में मकर संक्रांति यानी उत्तरायणी को लोक सांस्कृतिक पर्व घुघुतिया के रूप में मनाए जाने की विशिष्ट परंपरा रही है। यहाँ 14 जनवरी 1921 को इसी त्योहार के दिन हुए एक बड़े घटनाक्रम को कुमाऊं की ‘रक्तहीन क्रांति’ की संज्ञा दी जाती है, इस दिन कुमाऊं परिषद के अगुवा कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे के नेतृत्व में सैकड़ों क्रांतिकारियों ने कुमाऊं की काशी कहे जाने वाले बागेश्वर के सरयू बगड़ में सरयू नदी का जल हाथों में लेकर बेहद दमनकारी गोर्खा और अंग्रेजी राज के सदियों पुराने 'कुली बेगार' नाम के काले कानून संबंधी दस्तावेजों को नदी में बहाकर हमेशा के लिए तोड़ डाला था। यह परंपरा बागेश्वर में राजनीतिक दलों के सरयू बगड़ में पंडाल लगने और राजनीतिक हुंकार भरने के रूप में अब भी कायम है। इस त्योहार से कुमाऊं के लोकप्रिय कत्यूरी शासकों की एक अन्य परंपरा भी जुड़ी हुई है, जिसके तहत आज भी कत्यूरी राजाओं के वंशज नैनीताल जिले के रानीबाग में गार्गी (गौला) नदी के तट पर उत्तरायणी के दिन रानी जिया का जागर लगाते व परंपरागत पूजा-अर्चना करते हैं। वहीं एक अन्य पौराणिक मान्यता के अनुसार कुमाऊं के अन्य लोकप्रिय चंदवंशीय राजवंश के राजा कल्याण चंद को बागेश्वर में भगवान बागनाथ की तपस्या के उपरांत राज्य का इकलौता वारिस निर्भय चंद प्राप्त हुआ, जिसे रानी प्यार से घुघुती कहती थी। राजा का मंत्री राज्य प्राप्त करने की नीयत से एक बार घुघुतिया को शड्यंत्र रच कर चुपचाप उठा ले गया। इस दौरान एक कौए ने घुघुतिया के गले में पड़ी मोतियों की माला ले ली, और उसे राजमल में छोड़ आया, इससे रानी को पुत्र की कुशल मिली। उसने कौए को तरह-तरह के पकवान खाने को दिए और अपने पुत्र का पता जाना। तभी से कुमाऊं में घुघुतिया के दिन आटे में गुड़ मिलाकर पक्षी की तरह के घुघुती कहे जाने वाले और पूड़ी नुमा ढाल, तलवार, डमरू, अनार आदि के आकार के स्वादिष्ट पकवानों से घुघुतिया माला तैयार करने और कौओं को पुकारने की प्रथा प्रचलित है। बच्चे उत्तरायणी के दिन गले में घुघुतों की माला डालकर कौओं को ‘काले कौआ काले घुघुति माला खाले, 
ले कौआ पूरी, मकै दे सुनकि छुरी, ले कौआ ढाल, मकैं दे सुनक थाल, ले कौआ बड़, मकैं दे सुनल घड़...’ पुकार कर कोओं को आकर्षित करते हैं, और प्रसाद स्वरूप स्वयं भी घुघुते ग्रहण करते हैं। कौओं को इस तरह बुलाने और पकवान खिलाने की परंपरा त्रेता युग में भगवान श्रीराम की पत्नी सीता से भी जोड़ी जाती है। कहते हैं कि देवताओं के राजा इंद्र का पुत्र जयेंद्र सीता के रूप-सौंदर्य पर मोहित होकर कौए के वेश में उनके करीब जाता है। राम कुश के एक तिनके से जयेंद्र की दांयी आंख पर प्रहार कर डालते हैं, जिससे कौओं की एक आंख हमेशा के लिए खराब हो जाती है। बाद में राम ने ही कौओं को प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के दिन पवित्र नदियों में स्नान कर पश्चाताप करने का उपाय सुझाया था।
इसके साथ ही कुमाऊं में उत्तरायणी के दिन सरयू, रामगंगा, काली, गोरी व गार्गी (गौला) आदि नदियों में कड़ाके की सर्दी के बावजूद सुबह स्नान-ध्यान कर सूर्य का अर्घ्य च़ाकर सूर्य आराधना की जाती है, जो इस त्योहार के कुमाऊं में भी देश भर की तरह सूर्य उपासना से जु़ड़े होने का प्रमाण है। तात्कालीन राज व्यवस्था के कारण कुमाऊं में इस पर्व को सरयू नदी के पार और वार अलग- अलग दिनों में मनाने की परंपरा है। सरयू पार के लोग पौष मासांत के दिन घुघुते तैयार करते हैं, और अगले दिन कौओं को चढ़ाते हैं। जबकि वार के लोग माघ मास की सक्रांति यानि एक दिन बाद पकवान तैयार करते हैं, और अगले दिन कौओं को न्यौतते हुए यह पर्व मनाते हैं।

Sunday, January 12, 2014

शिक्षा व्यवस्था पर मेरा एक ‘खतरनाक और पुराना विचार’


शैक्षिक दखल’ पत्रिका के पहले अंक के आखिर में लिखे संपादक श्री दिनेश कर्नाटक जी के आलेख-‘और अंत में’ को पढ़ते हुए मन में आए प्रश्नों को यहां उकेरने की कोशिश कर रहा हूं। पत्रिका के अंतिम संपादकीय लेख ‘और अंत में’ के अंत में लेखक लिखते हैं-‘बच्चे परीक्षा पढ़ने के लिए पढ़ने के बजाय जीवन को जानने और समझने के लिए पढ़ेंगे, तभी जाकर शिक्षा सही मायने में लोकतांत्रिक होगी। तभी शिक्षा भयमुक्त हो पाएगी और विद्यालय आनंदालय बन सकेंगे।’ मुझे इस कल्पना के यहां तक साकार होने की उम्मीद तो है कि विद्यालय आनंदालय बन सकेंगे, लेकिन इसके आगे क्या होगा, इस पर संदेह है। इस लेख की प्रेरक हिंदी फिल्म ‘थ्री इडियट’ लगती है, पर क्या ‘थ्री इडियट’ के नायक ‘रड़छोड़ दास चांचड़’ फिल्मी परदे से बाहर कहीं नजर आते हैं। ऐसी कल्पना के लिए मौजूदा व्यवस्था और विद्यालयों के स्वरूप के साथ ही शिक्षकों में पठन-पाठन के प्रति वैसी प्रतिबद्धता भी नजर नहीं आती। वरन, मौजूदा व्यवस्था लोकतांत्रिक ही नहीं अति लोकतांत्रिक या अति प्रजातांत्रिक जैसी स्थिति तक पहुंच गई लगती है, जहां खासकर सरकारी विद्यालयों में सब कुछ होता है, बस पढ़ाई नहीं होती या तमाम गणनाओं और ‘डाक’ तैयार करने व आंकड़ों को इस से उस प्रारूप में परिवर्तित करने के बाद पढ़ाई के लिए समय ही नहीं होता। पाठशालाऐं, पाकशालाऐं बन गई हैं, सो शिक्षकों पर दाल, चावल के साथ ही महंगी हो चली गैस के कारण लकड़ियां बीनने तक का दायित्व-बोझ भी है। 
लेख में ‘जॉन होल्ट’ को उद्धृत कर कहा गया है, ‘(शायद पुराने/हमारे दौर की शिक्षा व्यवस्था से बाहर निकलने के बाद) बच्चे जब बंधनों से छूटते हैं, बार-बार बात काटते हैं....’ यह बात मुझे लेख पढ़ते हुऐ बार-बार प्रश्न उठाने को मजबूर करती हुई स्वयं पर सही साबित होती हुई महसूस हुई। शायद यह मेरा बार-बार बात काटना ही हो, खोजी/सच का अन्वेषण करने की प्रवृत्ति न हो। जॉन होल्ट से कम परिचित हूं, इसलिए जानना भी चाहता हूं कि वह कहां (क्या भारत) की शिक्षा व्यवस्था पर यह टिप्पणी कर रहे हैं ? वहीं लेख में विजय, सुशील व धौनी आदि के नाम गिनाए गए हैं, मुझे लगता है वह नई नहीं, पुरानी व्यवस्था से ही निकली हुई शख्शियतें हैं।
लेख में बच्चे को फेल कर देने की प्रणाली को ‘पुराना और खतरनाक विचार’ कहा गया है। यहां सवाल उठता है कि पिछली आधी शताब्दी में हमने जो चर्तुदिक प्रगति की है, क्या वह इसी ‘खतरनाक विचार’ की वजह से नहीं है ? क्या इसी ‘खतरनाक विचार’ से हम पूर्व में अपनी गुरुकुलों की पुरातन शिक्षा व्यवस्था से ‘विश्व गुरु’ नहीं थे, और हालिया (मैकाले द्वारा प्रतिपादित शिक्षा) व्यवस्था से भी हमने विश्व और खासकर आज के विश्व नायक देश ‘अमेरिका’ में अपनी प्रतिभा का डंका नहीं बजाया है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारा यूं दूसरों की मांद में घुसकर ‘उन’ की छाती पर चढ़कर मूंग दलना ‘उन्हें’ रास नहीं आ रहा और उन्होंने विश्व बैंक की थैलियां दिखाकर विश्व बैंक के ही पुराने कारिंदे-हमारे प्रधानमंत्री जी के जरिए इसे ‘पुराना और खतरनाक विचार’ करार दे दिया। सीबीएसई बोर्ड के वरिष्ठतम अधिकारी ने स्वयं मुझसे अनौपचारिक वार्ता में कहा था कि वह स्वयं नई व्यवस्था और खासकर पास-फेल के बजाय ग्रेडिंग प्रणाली लागू करने से असहमत हैं। उन्होंने इसे तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल की ‘सनक’ कहने से भी गुरेज नहीं किया था। बहरहाल, इस नई व्यवस्था से क्या होगा, इस पर अभी कयास ही लगाए जा सकते हैं, इसका असर देखने में अभी समय लगेगा। 
बहरहाल, मैं दुआ करूंगा कि मैं गलत होऊं। हमारे बच्चे, हमारी आने वाली पीढ़ियां इस नई प्रणाली से भी भारत का अपना पुराना ‘विश्व गुरु’ का सम्मान बरकरार रखें, आपकी बात सही साबित हो। विद्यालय में जैसे शैक्षिक माहौल की बात (कल्पना)  लेख में की गई है, वह सफल हो, विद्यार्थियों के मन से फेल होने के डर या दर्द के साथ प्रतिस्पर्धा की भावना ही दम न तोड़ दे। लेकिन मैं ‘नए’ विचारवान लोगों से स्वयं के लिए ‘पुराने व खतरनाक’ तथा यहां तक कि ‘जंगल के कानून’ की वकालत करने वाले की ‘गाली’ खाना भी पसंद करूंगा कि भविष्य के लिए मजबूत से मजबूत पीढ़ियां तैयार करने के लिए कमजोर कड़ियों का फेल हो जाना ही नहीं टूट जाना, यहां तक कि ‘शहीद हो जाना’ भी जरूरी है। बाल्यकाल से ही हमारे बच्चे कठिन चुनौतियों के अभ्यस्त होंगे तो आगे जीवन की कठिनतर होती जा रही विभीषिकाओं को ही सहज तरीके से सामना कर पाएंगे। 
वरना दुनिया जिस तरह चल रही है, वैसे में विद्यालयों को ‘आनंदालय’ बनाना तो संभव है (विद्यालयों को तो वहां पढ़ाना-लिखाना बंद करके बेहद आसान तरीके से भी आनंदालय बनाया जा सकता है), पर बिल्कुल भी संदेह नहीं कि उनसे बाहर निकलकर दुनिया कतई आनंदालय नहीं होने वाली है। बस आखिर में एक बात और, इस लेख और इस नए विचार को पढ़कर यह सवाल भी उठता है कि क्या हमें हमारे शास्त्रों में लिखा ‘सुखार्थी वा त्यजेत विद्या, विद्यार्थी वा त्यजेत सुखम्’ भी भूल जाना चाहिए ? या कि हम ‘पश्चिमी हवाओं’ के प्रभाव तथा बदलाव और विकास की अंधी दौड़ में अपने पुरातन व सनातन कहे जाने वाले विचारों को भी एक ‘पुराना व खतरनाक विचार’ ठहराने से गुरेज नहीं करेंगे ? 

कटारमलः जहां है देश का प्राचीनतम सूर्य मंदिर

कटारमल सूर्य मंदिर: जिसका शीर्ष बुर्ज के बजाय जमीन पर पड़ा हुआ है
देश में सूर्य मन्दिर का नाम आते ही मस्तिष्क में सर्वप्रथम कोणार्क के सूर्य मंदिर का नाम आता है, लेकिन देवताओं की भूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड में भी दुनिया को सीधे तौर पर जीवन प्रदान करने वाले सूर्य देव का ऐसा मंदिर स्थित है, जो कई संदर्भों में कोणार्क के सूर्य मंदिर से भी पहले आता है। अल्मोड़ा जिले में जिला मुख्यालय से करीब 14 किमी सड़क एवं तीन किमी की पैदल दूरी पर स्थित कटारमल के सूर्य मंदिर में ‘क’ नाम की समानता के साथ ही बाहरी स्वरूप के लिहाज से भी बड़ी समानता दिखाई देती है। दोनों मंदिरों की स्थापत्य कला और स्थापना की अवधि के बारे में वैज्ञानिकों में भी काफी हद तक मतैक्य है।

कटारमल मंदिर समूह
भारतीय पुरातत्व सवेक्षण विभाग के अनुसार कटारमल का मंदिर समूह 13वीं सदी में निर्मित है, जबकि कोणार्क मंदिर समूह का निर्माण वर्ष भी 13वीं सदी में ही 1236 से 1264 के बीच बताया जाता है। हालांकि अनेक पुरातत्व विद्वान कटारमल के सूर्य मंदिर को कोणार्क के मुकाबले दो सदी पुराना यानी सबसे पुराना भी मानते हैं। हालांकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीक्षण पुरातत्वविद् डा. डीएन डिमरी भी मानते हैं कि मंदिर 11वीं सदी का बना हुआ यानी देश का सबसे पुराना सूर्य मंदिर है। हालांकि यहां के मंदिरों के आठवीं-नवीं सदी में होने के भी कुछ प्रमाण मिलते हैं। बहरहाल, दोनों मंदिरों में यह भी समानता है कि दोनों मूल स्वरूप से खंडित हैं। कटारमल का मंदिर तो इस लिहाज से अनूठा ही है कि इसका शीर्ष बुर्ज के बजाय जमीन पर पड़ा हुआ है।
अल्मोडा जिले में रानीखेत रोड पर कोसी नदी व स्थान के निकट समुद्र सतह से करीब 1554 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कटारमल गांव पहुंचने के लिए सड़क निर्माणाधीन है। यहां स्थित सूर्य मंदिर में भगवान सूर्य की मटमैले रंग के पत्थर की करीब एक मीटर लम्बी और पौन मीटर चौड़ी कमल के पुष्प पर आसीन पद्मासन में बैठी मुद्रा की मूर्ति स्थित है। मूर्ति के सिर पर मुकुट तथा पीछे प्रभामंडल है। स्थानीय लोग इसे बड़ादित्य (बड़ा आदित्य यानी बड़ा सूर्य) मंदिर भी कहते हैं। स्कन्दपुराण के मानस खंड के अनुसार ऋषि मुनियों ने आतंक मचाने वाले कालनेमि नाम के राक्षश के वध के लिए इस स्थान पर वट आदित्य की स्थापना कर भगवान सूर्य देव का आह्वान किया था। वास्तु लक्षणों और स्तंभों पर उत्कीर्ण अभिलेखों के आधार पर १३वी सदी में कुमाऊं के कत्यूर वंश के राजा कटारमल देव ने यहां नव ग्रहों सहित सूर्य देव की स्थापना करवाई। राजा कटारमल के नाम से इसे कटारमल सूर्य मंदिर नाम मिला। मंदिर परिसर में सूर्य के अलावा लक्ष्मीनारायण, शिव-पार्वती, कुबेर, नृसिंह, कार्तिकेय, महिषासुरमर्दिनी व गणेश की मूर्तियों सहित अनेक देवी-देवताओं के करीब 45 छोटे-बड़े मंदिर हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि वह मनौतियां पूरी होने पर समय-समय पर बनवाए गए। मुख्य मन्दिर की संरचना त्रिरथ आकार की है, जो वर्गाकार गर्भगृह के साथ नागर शैली के वक्र रेखी शिखर सहित निर्मित है। मन्दिर में पहुंचते ही इसकी विशालता और वास्तु शिल्प बरबस ही पर्यटकों का मन मोह लेता है। मुख्य मंदिर के दक्षिण में तुंगेश्वर व पश्चिम में महारूद्र के मंदिर तथा पास में सूर्य व चंद्र नाम के दो जल-धारे भी हैं।
कत्यूरियों द्वारा निर्मित देवालयों के बारे में यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि सूर्यवंशी होने की वजह से कत्यूरी राजा हर मंदिर को सूर्य की रोशनी के बिना हजारों लोगों, श्रमिकों की मदद से विशालकाय शिलाओं और बेजोड़ शिल्प कला का प्रयोग करते हुए एक ही रात्रि में बनाते थे। एक रात्रि में मंदिर जितने बन जाते, और शेष अधूरे रह जाते। कुमाऊं में बिन्सर महादेव सहित कत्यूरियों द्वारा अधूरे छोड़े कई मंदिरों से इस बात की पुष्टि होती है। उन्होंने जागेश्वर, चंपावत व द्वाराहाट मंदिर समूह सहित सैकड़ों मंदिरों का निर्माण किया था।


भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग कटारमल सूर्य मंदिर समूह को संरक्षित स्मारक घोषित कर चुका है। पूर्व में मंदिर का प्रवेश द्वार पश्चिम दिशा में था, लेकिन वर्ष 2010 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को मन्दिर की पूर्व दिशा में आठ सीढियों के अवशेष मिले।एक वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद इसके पूर्व दिशा में दरवाजे के बाहर चुनी गई दीवार को हटा दिया गया। इसके बाद वर्ष के अक्टूबर और फरवरी के अंतिम पखवाड़े में सुबह के सूरज की पहली किरणें मंदिर के भीतर स्थित सूर्यदेव की प्रतिमा का अभिषेक करने लगीं। इसके बाद कोणार्क और कटारमल के सूर्य मंदिर में प्रवेश द्वार के पूर्व दिशा में होने की समानता भी जुड़ गई है।