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Monday, July 5, 2010

मेरा अमेरिका-मेरा भारत: मेरी नैनीताल से नैनी यात्रा


मैं कभी अमेरिका नहीं गया, पर अमेरिका में रह रहे प्रवासी भारतीयों के वतन वापसी के कई रोचक प्रसंग कहानियों अथवा फिल्मों के माध्यम से पढ़े-सुने-देखे हैं। यूं जीवन में मैंने कई यात्राऐं की हैं, किन्तु जिस हालिया यात्रा को मैं अपने जीवन की सबसे रोचक यात्रा मान सकता हूं वह महज 150 किमी के भीतर की होते हुए भी मेरे लिऐ अमेरिका से भारत की सी है, और इस यात्रा से मुझे कमोबेश कुछ उसी तरह की अनुभूति हुई है, जैसी शायद प्रवासी भारतीयों को अमेरिका से भारत आकर होती होगी। यह यात्रा 'छोटी बिलायत' यानी उत्तराखंड के कुमाऊं मण्डल व अपने ही नाम के जिले के मुख्यालय विश्व विख्यात पर्वतीय पर्यटन नगरी (सरोवर नगरी) 'नैनीताल' से अल्मोड़ा जनपद में जागेश्वर से आगे एक दूरस्थ पड़ाव 'नैनी' (चौगर्खा) की है। यह दोनों स्थान मेरे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। नैनीताल मेरी कर्मभूमि है, तो नैनी की मिट्टी में मेरा बचपन बीता है।


नैनीताल और नैनी में नाम की समानता के साथ और भी बहुत कुछ एक सा है, तो अन्य मामलों में अमेरिका व भारत जैसी वृहद असमानताऐं भी हैं। पहाड़ के यह दोनों स्थान प्राकृतिक रूप से अद्वितीय हैं। दोनों जगहों से हिमालय की उत्तुंग धवल चोटियां मनोहारी दिखती हैं। वरन, मुझे यह कहने में भी गुरेज नहीं कि यदि नैनीताल में ताल न होता तो शायद यह स्थान भी नैनी ही कहलाता, और `नैनी´ से कई मामलों में कमतर होता। नैनी में नैनीताल से कहीं अधिक विस्तृत गंगोलीहाट से लेकर पिथौरागढ़ की चोटियों तक व जागेश्वर-बृद्ध जागेश्वर के बाजांणी धूरों (बांज के घने जंगलों) तक साफ दिखता चौड़ा फलक, थोड़ा ऊपर चोटी से साफ सुनाई देता नीचे बहती सदानीरा सरयू नदी के साफ-स्वच्छ नीले जल का कल-कल निनाद औरं कभी न भुलाया जाने वाला चीड़ के जंगलों में चलती हवा की सरसराहट का संगीत। 
नैनी अंग्रेजों के जमाने में अल्मोड़ा-झूलाघाट पैदल मार्ग पर चर्चालीखान  (खान यानी पैदल यात्रा मार्ग के पड़ाव) की ऊंची चोटियों और सरयू नदी की घाटी के पास के न्योलीखान के मध्य स्थित एक पड़ाव था। यहां अंग्रेजों के जमाने का एक डांक बंगला आज भी बिना खास देखभाल के भी ठीक ठाक स्थिति में है। यहां न सर्दी अधिक पड़ती है, न गर्मी। अलबत्ता बचपन के दिनों में यहां सर्दियों में प्रकृति सफेद रुई के फाहों सी बर्फ का तोहफा एक-दो बार जरूर दे जाया करती थी। नैनी 1982 में सड़क आने के बाद तक भी पैदल यात्रा मार्ग का एक पड़ाव ही था, इसलिए यहां पहाड़ी घाटियों में उत्पादित होने वाले आम व केला जैसे फलों के साथ मध्यम ऊंचाई में होने वाले नींबू, सन्तरा, माल्टा, अमृत फल, जमीर व अधिक ऊंचाई में होने वाले आडूं, पुलम, खुमानी, अखरोट आदि फलों की बहार थी। पहाड़ी फल बेड़ू, तिमिल, काफल आदि भी बहुत मिलते थे। 
लेकिन मेरे बचपन के नैनी और युवावस्था के नैनीताल में शायद अमेरिका व भारत जैसा ही बड़ा अन्तर तब भी था, और कमोबेश आज भी बरकरार है। और यह अन्तर प्रकृति से इतर इन दोनों स्थानों के लोगों के बात-व्यवहार से लेकर मानव द्वारा बसाई बाहरी दुनिया का है। तब यहां न सड़क थी, और न बिजली, टेलीफोन जैसे कोई भी आधुनिक सुविधाऐं। सरकारी व्यवस्था के नाम पर एक-एक प्राइमरी पाठशाला व हाईस्कूल, एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, डाकखाना और पानी की एक टंकी, जिसमें यदि पानी न आ रहा हो तो कहीं शिकायत करने की जरूरत नहीं। लोग आपस में बेहद मिल-जुलकर रहते थे। पड़ाव के कुछ लोग स्वयं ही इकट्ठे होकर लगभग दो किमी दूर जल-श्रोत के गधेरे पाइप रिंच लेकर चल पड़ते और लाइन ठीक कर पानी जोड़ लाते। अन्य कार्यों में भी लोगों में आपस का मेल-जोल देखने लायक होता। किसी के घर में कुछ भी अच्छी चीज बनती, पेड़ पर फल लगते तो सभी में बंटते। बहुत जरूरी होने पर लेन-देन की पैंच कही जाने वाली व्यवस्था पर जीवन चलता था। खरीद-फरोख्त बेहद सीमित। पड़ाव में रहने वाले बाहरी लोगों को करीब एक रुपऐ लीटर दूध व 25 रुपऐ किग्रा के भाव घी मिल जाया करता था। फल-सब्जियां भी बेहद सस्ते थे। एक रुपऐ किलो आलू और एक रुपऐ बीसी (दर्जन की जगह बीस का भाव ही सामान्यतया बताया जाता था) केले मिलते थे। मुझे याद है बाद में जब दो रुपऐ बीसी केले हुऐ थे, तो पड़ाव में सभी ने कहा था, अब केले कौन खाऐगा ? कभी गोश्त खाने का मन हुआ तो पड़ाव के लोग एक बकरा ले आते थे, और उसके बिना तराजू बराबर हिस्से कर आपस में बांट लिऐ जाते थे। मुझे याद नहीं हमने कभी पांच रुपऐ धड़ी (पांच किलो) के भाव आलू के अलावा कभी कोई सब्जी खरीदी हो। वह तराजू का जमाना ही नहीं था। वहां बाहर से लोग आते तो उन्हें अतिथि देवता की तरह आदर-सम्मान दिया जाता था।
और इधर नैनीताल, जहां हर ओर तराजू और बाजार है। जहां रोज सैलानियों के रूप में हजारों अतिथि देवता आते तो हैं, पर उन्हें भूखे भेड़ियों की नज़रों से देखा जाता है। उन्हें हर कदम पर नोचा जाता है। सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी `झटके´ से काट दी जाती है, उसे `हलाल´ होने तक का मौका नहीं दिया जाता। होटल के नाम पर, घुमाने के नाम पर, बस बेवकूफ बनाने की प्रतिस्पर्धाऐं चलती रहती हैं। सैलानियों से ही नहीं, स्थाई रूप से रहने आऐ बाहरी लोगों को किराऐ पर कमरा देने से लेकर स्थानीय मूल वाशिन्दों से भी बाजार कोई मुरौबत नहीं करता। सब्जियां दुकान पर हफ्तों-पखवाड़ों सूखने-सड़ने के बाद फेंक दी जाती हैं, लेकिन गरीबों-भिखारियों को भी एक रुपऐ सस्ती नहीं दी जातीं। 
नैनी, मेरे बचपन का गांव, हमेशा से मेरे मन में बैठा, मुझे वापस बुलाने को जैसे पुकारता हुआ। लेकिन नैनीताल के बाजार में बैठा मैं, कभी फुरसत ही नहीं मिलती। लेकिन इस बार शायद आदेश ईश्वरीय था, और मैं  इस 21 जून की सुबह करीब पौने आठ बजे अपने अमेरिका से बच्चों को स्कूटर पर ही लेकर नैनी के लिए चल पड़ा अपने बचपन के भारत यानी नैनी की राह पर। स्कूटर इसलिए क्योंकि बच्चों को कार में पहाड़ी रास्तों पर उल्टियाँ होने की शिकायत है। उस जमाने की बसों की रफ्तार के हिसाब से अन्दाजा लगाया था कि शाम तक जागेश्वर धाम ही पहुंच पाऐंगे। वहां कुमाऊं मण्डल विकास निगम के रेस्ट हाउस में कमरा बुक किया था। योजना थी कि रात्रि वहीं विश्राम कर सुबह मन्दिर में पूजा-पाठ करेंगे और सुबह वहां से 17 किमी आगे नैनी जाकर शाम तक करीब 52 किमी वापस अल्मोड़ा लौट आऐंगे। लेकिन रास्ते में रुकते-सुस्ताते हुऐ भी हम दोपहर सवा बजे के करीब जागेश्वर पहुंच गऐ। कमरे में सामान रखा, थोड़ा सुस्ताऐ भी, अब क्या करें। यूं राह में पहले भी अन्दाजा हो गया था कि जागेश्वर जल्दी पहुंच रहे हैं, क्या सम्भव है कि शाम को ही सीधे नैनी भी चल पड़ें। मैं आखिरी बार 1985 में नैनी से लौटा था, सो मन में 25 वर्ष बाद अपने बचपन के भारत को देखने की भावनाऐं हिलोरें मार रही थीं। और हम चल पड़े। बच्चे भी मेरे सपनों में अक्सर आने वाले गांव को देखने की छटपटाहट को जैसे समझ रहे थे।
`देखो, हम बचपन में यहां ब्रह्मकुण्ड में सुबह-सुबह ठण्डे जल से स्नान कर जागनाथ जी के मन्दिर में दर्शन करने जाते थे। इसी के बगल की इस पगडण्डी से पैदल नैनी जाते थे´ मैं बच्चों को बताता चल रहा था, और बच्चे आश्चर्य में थे कि तब हम बच्चे कैसे 17 किमी पैदल जाते थे। उन्हें इस बात पर सहज विश्वास नहीं हुआ, और यह तो उनके लिए अकल्पनीय था कि हम पनुवानौला (जागेश्वर से करीब 10 किमी पहले का स्थान, कहते हैं यहां महाभारत काल में बना पाण्डवकालीन नौला यानी पानी का चश्मा है।) से शौकियाथल, बृद्ध जागेश्वर के घने बाघ-भालुओं युक्त वनों से होते हुऐ नैनी पैदल आते-जाते थे। 
हम उस डामरीकृत परन्तु बुरी तरह से उखड़ी हुई सड़क पर आगे बढ़े, जो पहले कच्ची हुआ करती थी। देवदार के सुरम्य वन को पार कर चीढ़ के वनों की ऊंचाई पर पहुंचे। चीढ़ की चाहे जितनी बुराई होती हो, लेकिन न जाने क्यों अंग्रेजी, व्यवसायिक व पर्यावरण शत्रु के रूप में कुख्यात यह वृक्ष मुझे बचपन से ही मानव मित्र सा प्रतीत होता रहा है। शायद, इसलिऐ कि इसी की छांव तले नैनी में मेरा बचपन बीता। इसी की लकड़ियों पर हमारे घर का चूल्हा जलता था, और सैकड़ों स्थानीय लोगों का भी, जो `लिसुओं´ के रूप में इस पेड़ के तनों को एक खास तरह के बसूले (छोटा कुल्हाड़ा) से खोप-खोप कर लीसा निकालते थे। लीसे को पहले छोटे कुप्पों और फिर कनस्तरों में एकत्र किया जाता। इन्हें स्थानीय और बाहर स्थित टरपिनटाइन फैक्टरियों में भेजा जाता, जहां इससे रेजिन व तारपीन का तेल बनाया जाता। तब मैं बालक था, पर खूब प्रचलित `लीसा चोर´ जैसे शब्दों को सुना करता था। मुझे लगता था, कुछ लोग सरकारी व्यवस्था के इतर लीसे को अन्यत्र बेचते होंगे, और इसलिऐ चोर कहे जाते होंगे। `लीसा चोर सेठ हो गऐ हैं, चीड़ के पेड़ों को इमारती लकड़ी के लिए अवैध रूप से चोरी-छुपे बड़े स्तर पर काटा जा रहा है,´ यह भी सुना जाता था। इधर 1983 से सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के बाद 1000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर पेड़ काटने पर जो प्रतिबंध लगा, उसका असर, बल्कि बुरा असर कुछ हद तक इस बार मुझे जंगलों में दिखाई दिया। जंगलों में बूढ़े पेड़ अपनी उम्र पूरी कर ही गिर पा रहे हैं, इस कारण नई पौध व नऐ जंगल विकसित नहीं हो पा रहे हैं। लेकिन इन आरोपों की पुष्टि मुझे नहीं हुई कि चीड़ बांज एवं अन्य चौड़ी पत्ती के उपयोगी वनों में घुसपैठ और अतिक्रमण कर रहा है। जागेश्वर के पास ही मैंने देखा, नदी के एक ओर उत्तरी ढाल पर देवदार का घना सुरम्य वन और दूसरी ओर 25 वर्ष बाद भी वही बिखरा छंटा हुआ सा चीड़ का जंगल। यानी, चीड़ ने दूसरे वनों में अतिक्रमण नहीं किया। वह दूसरों को हटा कर प्रतिस्थापित नहीं हुआ।
हम आगे बढ़े। यह 'चमुवा' नाम का गांव था, जहां आकर मैं सुखद अनुभूति से भर उठा। रास्ते भर मैंने पानी के लिए कनस्तर, डिब्बे आदि लेकर घूमतीं महिलाओं, बच्चों को देखा था। लेकिन यहां जगह-जगह पानी के तालाब भरे हुऐ थे। यह वर्षा जल संग्रहण का व्यवस्थित प्रयास था, जिससे ग्रामीण खेतों में फसलें लहलहा रहे थे। यहां काफी संख्या में `पॉली हाउस´ भी मुझे दिखाई दिऐ। नैनी पहुंचने की जल्दी में मैं यहां रुककर और जानकारियां इकट्ठा नहीं कर पाया। सोचा, लौटते हुऐ रुकुंगा, लेकिन लौटते समय अंधेरा घिर जाने के कारण यह सम्भव न हो पाया। 
आगे 'भगरतोला' के पास हम बड़ा ऊंचा टावर देखकर चौंके। इसकी तो कल्पना ही नहीं की थी। शायद किसी मोबाइल कंपनी का टावर था। जमाना बदल रहा है, सोचते हुऐ हम आगे बढ़े। अगले मोड़ पर एक दुकान बन गई थी। यहां से नैनी की झलक दिख गई। मुझे विश्वास हो गया, अब नैनी पहुंच जाऐंगे। पता नहीं क्यों अब तक मुझे अपनी यादों में बसी इस जगह वापस पहुंच पाने का जैसे विश्वास ही नहीं हो पा रहा था। अब मुझे 'चर्चालीखान' पहुंचने का इन्तजार था। इससे पहले ही एक स्थान, जहां बहुत कम धूप आने के कारण बेहद नमी रहती थी, इस कारण वहां सड़क भी बहुत दिन अपने निर्माण के दौर में अटकी रही, वहां गांव की प्रतीकात्मक लालटेनें लटकाऐ हुऐ आलीशान होटल बन रहा था। मुंह से निकला, जंगल में मंगल।
मेरे मन में बसा था 'चर्चाली', यहां बचपन में जी भर कर खाऐ पुलम, आढू, खुमानी जैसे फलों का स्वाद आज भी जैसे मेरी जिह्वा भूली नहीं है। लेकिन यह क्या, आज उस जमाने से भी अधिक उजड़ा हुआ था चर्चाली। वहां फलों का भी नामोनिशान नहीं था। मुझे अच्छा नहीं लगा। सामने सड़क पर एक जगह पर चीड़ की पत्तियों (पिरूल) की चादर बिछी हुई थी, हम आराम से वहां पसर गऐ। पत्नी ऐसे बैठने को चादर साथ लाना भूल गई थी, लेकिन यहां चादर बिछाने की जरूरत ही नहीं थी। बच्चे हमारे बचपन के खेल की तरह ही चार नुकीली पत्तियों वाला पिरूल ढूंढने में लग गऐ। सामान्यतया पिरूल में तीन पत्तियां एक साथ होती हैं, किन्तु कहा जाता है कि जिसे चार पत्तियों वाला पिरूल मिल जाता है, वह भाग्यशाली होता है। 
हम करीब तीन किमी आगे सैम मन्दिर पहुंचे। इस मन्दिर से मेरी कई यादें जुड़ी हुई थीं। यहां से थोड़ा आगे बढ़े तो पक्की सड़क कच्ची रह गई। सड़क के एक ओर मजदूरों द्वारा तोड़ कर ढेर लगाऐ गऐ 'डांसी' (खास तरह के मजबूत पत्थर) पत्थर ठीक उसी तरह दिखाई दिऐ, जैसे 25 वर्ष पूर्व दिखाई देते थे। यह पत्थर सड़क के डामरीकरण से पूर्व की तैयारी में सड़क पर बिछाने के लिए थे। यह सोचते सोचते मल्ला नैनी आ गया। तब ही की तरह केवल एक दुकान, हां वहां सरकारी सस्ता गल्ला विक्रेता का बोर्ड लटक गया था। सामने बुजुर्ग दुकानदार दिखाई दिऐ। चेहरा पहचाना हुआ सा, लेकिन नाम याद नहीं। मैंने प्रणाम कहते हुऐ स्कूटर रोक दिया। वह जैसे धन्य हो गऐ। बातें, पुराने परिचय का सिलसिला शुरू हो गया। वह रमेश भट्ट जी थे। कहने लगे, बस ढाई किमी सड़क पक्का होने से बची है। बस दो परतें और चढ़नी हैं और पूरी सड़क पक्की। मैंने कहा, यही 25 वर्ष पहले भी हम कहते थे। हां, 17 किमी में से 14.5 किमी सड़क जरूर पक्की हो गई। यह अलग बात है कि पूरी बनने से पहले कभी मरम्मत न होने के कारण काफी उखड़ भी गई। 
चर्चाली और पूरे क्षेत्र में फलों के खत्म होने की उन्होंने जानकारी दी। बताया, शायद जब से आप गऐ, तभी से फल खत्म हो गऐ, वो 'दो रुपऐ बीसी' वाले पहाड़ी केले अब किसी भाव उपलब्ध नहीं, अन्य फल भी गायब। कारण कुछ तो बाग मालिकों की पिछली पीढ़ी के दिवंगत होने के बाद नयी पीढ़ी द्वारा ध्यान न दिया जाना, और कुछ मौसम की बेरुखी। अब सब्जियां, फल, अनाज सब कुछ हल्द्वानी मण्डी से आता है। भट्ट जी ने बताया, `कई वर्षों से बर्फ नहीं पड़ रही, पानी बरसना भी लगातार कम होता जा रहा है। पहाड़ की खेती आसमानी मेहरबानी पर ही निर्भर ठैरी....´। सामने एक पेड़ में नाशपाती खूब लदी हुई थी। बोले, `15 रुपऐ कट्टे के भाव ठेकेदार ले जाता है। हल्द्वानी मण्डी में 150 के भाव बिकती है।´ नैनी अब अधिक दूर नहीं था। ढाई किमी बाद हम नैनी में थे। एक गधेरे पर मैंने बच्चों को बताया, यहां से हम पानी जोड़ने को आते थे। अगले `हेयर पिन´ मोड़ पर मैंने बताया, यहां तक नैनी के बच्चे बस को आता देख पीछे से लटकने को रोज ही दौड़े चले आते थे। कई चोटिल भी होते थे।
आखिर हम नैनी पहुंच गऐ। मेरा मन था, उस मिट्टी को चूम लूं। मैं यह सोच कर आया था कि उस जमाने के बहुत से लोग दुनिया छोड़ चुके होंगे। तब के बच्चे रहे मेरे साथी बड़े हो चुके होंगे। इसलिए कम ही लोग होंगे, जो पहचान पाऐंगे। इसलिए शुरू में रुके बिना सीधे ही पड़ाव का एक चक्कर लगा आया। लोग, खासकर बच्चे पड़ाव में आऐ स्कूटर को कुछ वैसे ही कौतूहल से देख रहे थे, जैसे तब शायद हम भी देखते होंगे। चक्कर लगा कर लौटे, तभी मेरे मोबाइल पर घंटी बजने लगी। यह सुखद था कि यहां मोबाइल के सिग्नल साफ आ रहे थे। मैं स्कूटर रोककर बात करने लगा, इस दौरान स्थानीय लोगों की मेरे प्रति जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी। कई लोग पास आकर खड़े हो गऐ थे। मानो कोई अमेरिका से भारत आ गया हो। मुझे एक वृद्ध चेहरा पहचाना सा लगा। मैंने पुकार लिया, `अरे, सर्वजीत दा!´ उस बृद्ध ने भी तब तक मुझमें मेरे पिताजी की छवि भांप ली थी। `हां, बाब स्यैप....´ फिर तो बातों का सिलसिला चल पड़ा। कई परिचित मिलते चले गऐ। पुरानी स्मृतियों के कपाट खुलते चले गऐ। मेरी आंखें पुरानी चीजों को तलाश रही थीं, और मस्तिश्क छूट गऐ सवालों के जवाब तलाश रहा था। दुकानों में किसी भी बड़े नगर सी कोल्ड ड्रिंक, स्नैक्स, बिस्कुट इत्यादि दिख रहे थे। मुझे भारत में रहने वाले बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार मार्क टुली का स्मरण हो आया, जिन्होंने हाल ही में कहा है, `अब मुझे व मेरी पत्नी को इंग्लेण्ड से बड़ा बैग भरकर सामान नहीं लाना पड़ता, क्योंकि अब वहां के सभी सामान यहां के बाजारों में आसानी से मिल जाते हैं।´ यानी मेरा भारत भी इस मायने में अमेरिका बन गया था। और हां, कुछ मामलों में अभी भी वही ढाई दशक पुराना भारत ही था।
अपना स्कूल देखने की बड़ी इच्छा थी। मैं पुराने परिचित मोहन सिंह खनी जी को साथ लेकर बच्चों सहित पैदल पगडण्डी चढ़कर स्कूल पहुंच गया। वहां पुराना विद्यालय भवन तोड़ दिया गया था। 1980 के करीब कक्षों की कमी के कारण तत्कालीन प्रधानाचार्य व शिक्षकों द्वारा अपने प्रयासों से टिन की हल्की चादरों से बनवाया गया शिक्षक कक्ष तकरीबन तभी की स्थिति में था, लेकिन इस बीच बने विद्यालय भवन का लिंटर सहित प्लास्टर जगह-जगह से उखड़ रहा था। नींचे विद्यालय परिसर में पिताजी एवं अन्य शिक्षकों तथा बच्चों द्वारा रोपे गऐ नन्हे देवदार, बांज आदि के पौधे उस चीड़ के वन प्रदेश में बड़े होकर जंगल का आभाश करा रहे थे। स्कूल से लौटते दूर पहाड़ी पर बारिश की मोटी बून्दें उड़ती हुई दिखाई देने लगीं। मोहनदा ने चेता दिया, जल्दी चलें, भीग जाऐंगे। हम तेजी से चलकर भीगने से पहले ही पड़ाव में उतर आऐ। बाद में खूब बारिश हुई। इस बीच पुरानी खट-खट वाली चाय याद आ गई तो पीने की इच्छा जाग गई। लेकिन वह उपलब्ध नहीं हुई। उस चाय में क्या अलग स्वाद होता था। दिन-रात चूल्हे पर पत्ती पड़ा हुआ पानी खौलता रहता था। चाय बनाने पर उसे गिलास में डाला। दूध, चीनी मिलाकर अलग-अलग गिलासों में चम्मच से खास तरीके से खट-खटा दिया, और चाय तैयार। इस बार `टी स्टाल´ वाले ने कहा, `सर, वह दिन गऐ। अब तो यही पीनी पड़ेगी।´ 
इधर पड़ाव में हमारा तत्कालीन तीन मंजिला आवास जो कि तब भी कमोबेश जर्जर स्थिति में था, और अधिक बूढ़ा लग रहा था, लेकिन उसके अहाते में मेरे द्वारा लगाया गया कनेर के गुलाबी फूलों का पेड़ खिला महक रहा था। पड़ाव में बने नऐ भवनों में पुराने भवनों को पहचानना मुश्किल हो रहा था। पानी की टंकी के सटाकर भवन बन गऐ थे, शायद अतिक्रमण किया गया हो। पड़ाव में कई पुराने परिचित मिले। वह रात्रि यहीं रुकने का अनुरोध करने लगे। अगली बार रुकने का कार्यक्रम बनाकर ही आने का मैंने उनसे वादा किया। एक पांव से विकलांग दर्जी का कार्य करने वाले दलीप सिंह बोरा कार्की जी मिल गऐ, उन्हें हम `दुल्दा´ कहते थे। उन्होंने बैशाखी के सहारे दुकान की सीढ़ियां चढ़कर भी बच्चों को नां-नां कहते बिस्कुट पकड़ा दिऐ। बमुश्किल एक दुकान पर पहाड़ी खट्टे-मीठे आम मिल गऐ, जिन्हें उस स्थान का प्रसाद समझ हम वापस लौट आऐ। 
वापसी में दो उल्लेखनीय घटनाएं घटीं। पहली 'मल्ली नैनी' में सैम मंदिर के पास, जहाँ वर्षा के बाद आसमान में बेहद खूबसूरत 'इन्द्र धनुष' ताना हुआ थाइन्द्र धनुष मैंने नैनीताल के अपेक्षाकृत छोटे आकाशीय फलक में कभी नहीं देखा था। दूसरी घटना चमुआ के पास जंगल में हुईअंधेरा घिर आया था। एक मोड़ पर कुछ जंगली प्राणी देख बच्चे डर गऐ। हम ठिठक पड़े। वहां किसी जानवर के कुछ बच्चे एक और बड़ा जानवर था। हमें देखने के कुछ देर बाद बच्चे तो भाग गऐ, लेकिन बड़ा जानवर सड़क पर बैठा रहा। अंधेरे में वह बाघ सदृश लग रहा था। मैंने स्कूटर की लाइट जलाई, हार्न बजाया, किन्तु वह टस से मस नहीं हुआ। मेरी भी कुछ समझ में नहीं आया। आखिर कुछ देर बाद जब तक मैं कुछ सोच पाता, वह उठ खड़ा हुआ। तब पता चला कि वह वास्तव में लोमड़ी था। यह परेशानी तो गुजर गई, और मैं इस सोच में पड़ गया कि बेहद डरपोक मानी जाने वाली लोमड़ी इतनी निर्भीक कैसे हो गई। विचार अतीत तक चले गऐ, जहां कभी वन्य पशुओं द्वारा आज की तरह घरेलू जानवरों व मनुष्यों को निवाला बनाने की खबरें नहीं सुनी जाती थीं। मनुष्य जंगलों से अकेले पैदल यात्राऐं करता था, लेकिन बन्दर, लंगूर जैसे गैर नुकसानदेह वन्य जानवर भी नहीं दिखते थे। पिताजी, हम बच्चों को अकेले सुबह ब्रह्म मुहूर्त में तड़के उठाकर नैनी से करीब 10 मील दूर पनुवानौला ले जाते थे, और हम वहां से सुबह सात या आठ बजे पिथौरागढ़ से हल्द्वानी के लिए आने वाली इकलौती रोडवेज की बस पकड़ते थे। तब कभी हमें कोई जानवर दूर से तक नहीं दिखता था। लेकिन अब तो मेरे अमेरिका यानी नैनीताल में बीते दिनों हिंसक हुए बन्दरों, लंगूरों को गोली मारने तक की नौबत आई। मथुरा से उन्हें पकड़ने के लिए विशेषज्ञ बुलाने पड़े, और उन्होंने उन्हें ही काट डाला। 600 से अधिक बन्दर-लंगूर पकड़े गऐ, परन्तु एक माह बाद भी स्थिति फिर से यथावत हो गई।

13 comments:

  1. आज तो लगा वापिस पहाड़ पहुँच गई। बहुत सुन्दर वर्णन है।
    घुघूती बासूती

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  2. वृत्तांत सुन्दर और रोचक रहा. अलबत्ता पोस्ट लम्बी हो गयी.

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  3. विवरण व चित्र देखकर अच्छा लगा.

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  4. आनन्द आ गया।
    हालांकि काफी लम्बी भी है।

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  5. अति सुन्दर...भौते भल छ...एशिके लिखते रया...

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  6. very nice naveen ji.

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  7. सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद ...आभार

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  8. नवीन जी, मेरा अधिकतर बचपन काशीपुर में बीता। इसलिए नैनीताल घूमने भी अक्सर आना-जाना होता था। तब की यादें अभी तक मस्तिष्क में ताजा हैं। बड़े होने पर दो-तीन बार ही जाना हुआ है। आखिरी बार 2011 में गया था। तब से ज्यादा कुछ तो नहीं बदला है, लेकिन एक बात खटकने वाली लगी। पहाड़ी पर्यटन स्थलों के विकास के नाम पर जिस तरह जंगल और पहाड़ काट कर महंगे होटल, रिजाॅटर््स और अपार्टमेंट बनाए जाने लगे हैं, उससे पहाड़ों की असली सुन्दरता और चमक कहीं खोती जा रही है। केदारनाथ आपदा के जरिए प्रकृति इंसान को कड़ी चेतावनी दे भी चुकी है। लेकिन सबसे ज्यादा खटकने वाली बात जो लगी, वह यह है कि, मेट्रो और बड़े शहरों से आने वाले पर्यटकों की सुविधाओं के नाम पर फन पार्क, फूड विलेज, अत्याधुनिक झूले आदि मनोरंजन व भोगविलास के साधनों का जमावड़ा किया जा रहा है, जैसे कि स्नोव्यू पीक पर भी है और मसूरी में भी कई स्थानों पर है; वह भी पहाड़ों की सूरत बिगाड़ने और शान्ति भंग करने का ही काम कर रहा है। जबकि आमतौर पर पर्यटक जिस शान्ति और सुकून की तलाश में पहाड़ों पर जाता है, तो उसे पहाड़ी मिजाज का अहसास कराने जैसी व्यवस्थाएँ ही होनी चाहिए। जिससे वे पहाड़ी निवासियों के रहन-सहन, स्थानीय खानपान, लोकसंस्कृति आदि से परिचित हो सकें। पहाड़ी रास्तों व पगडंडियों पर ऊपर-नीचे चढ़ने-उतरने के रोमांच की अनुभूति कर सकें। नदी-नालों पर बने लकड़ी के पुलों पर लड़खड़ाते-गिरते-पड़ते पार करने का मजा ले सकें। चोटियों पर आराम से बैठकर घाटियों-नदियों के विहंगम दृश्यों को घंटो निहार सकें। रोपवे हों भी तो ऐसे कि महज पर्यटन स्थानों पर ही सीमित न हों, बल्कि दूर-दराज के गाँवों तक पहुँच वाले हों ताकि उनका सम्पर्क और आनाजाना आसान हो सके। तभी हम पहाड़ों पर पर्यटन का असली आनन्द ले सकते हैं। सरकारी संगठनों और सम्बन्धित संस्थओं को भी इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा।
    - शलभ सक्सेना, आगरा

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    1. बिलकुल सही कह रहे हैं शलभ सक्सेना जी..

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  9. This info is invaluable. Where can I find out more?


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