पार्टी के बिन मांगे कांग्रेस को समर्थन देने से आश्चर्यचकित नहीं राज्य आंदोलनकारी
भाजपा-कांग्रेस की तरह ही कुर्सी प्रेमी साबित हुई उक्रांद
नवीन जोशी, नैनीताल। कहते हैं इतिहास स्वयं को दोराता है, साथ ही यह ही एक सच्चाई है कि इतिहास से मिले सबकों से कोई सबक नहीं सीखता। राज्य के एकमात्र क्षेत्रीय दल बताये जाने वाले उत्तराखंड क्रांति दल यानी उक्रांद ने इतिहास को इसी रूप में सही साबित करते हुऐ अपनी गलती का इतिहास दोहरा दिया है। ऐसे में ऐसी कल्पना तक की जाने लगी है कि पिछली बार की तरह सरकार को समर्थन देने वाला उक्रांद इस बार भी एक दिन सरकार से समर्थन वापस लेगा और सत्ता सुख भोग रहे उसके एकमात्र विधायक पिछली सरकार के दो विधायकों की तरह इस फैसले को अस्वीकार करते हुऐ अलग उक्रांद बना लेंगे और फिर अगले चुनावों में कांग्रेस के चुनाव पर टिकट ल़कर इस बार पार्टी का अस्तित्व ही शून्य कर देंगे।
यह आशंकाऐं उक्रांद के कांग्रेस सरकार को बिना मांगे और बिना अपनी शर्तें बताऐ समर्थन देने के बाद उठ खड़ी हुई हैं। और बसपा के भी सरकार को समर्थन की घोषणा करने के बाद तो सरकार बनने से पले ही उक्रांद की स्थिति सरकार को समर्थन दे रहे निर्दल विधायकों से भी बदतर होने की चर्चाऐं होने लगी हैं। ऐसा लगने लगा है कि अपने हालिया राजनीतिक निर्णयों से उक्रांद ने न केवल राज्य की जनता वरन राज्य की आंदोलनकारी शक्तियों का विश्वास भी खो दिया है। राज्य आंदोलन से गहरे जु़ड़े वरिष्ठ रंगकर्मी जहूर आलम कहते हैं, उन्हें उक्रांद के हालिया कदमों से कोई आश्चर्य नहीं हुआ है। इस पार्टी ने राज्य बनने से पूर्व ही प्रदेश की सबसे बड़ी दुश्मन बताई जाने वाली सपा से सांठ-गांठ कर अपने कुर्सी से जु़ड़े रहने के मंसूबे जाहिर कर दिये थे। यही उसके दो विधायकों ने पिछली भाजपा सरकार को और अब जनता से और भी बुरी तरह ठुकराये जाने के बाद एकमात्र विधायक के भरोसे कांग्रेस सरकार को अपनी अस्मिता को भुलाते हुऐ समर्थन देकर प्रदर्शित किया है। उक्रांद को यदि समर्थन देना ही था तो राज्य की अवधारणा से जु़ड़े मुद्दों को शर्तों में आगे रखना चाहिऐ था। उन्होंने कहा कि वास्तव में अब उक्रांद किसी राजनीतिक विचारधारा वाला दल नहीं वरन कुछ सत्ता लोलुप लोगों का जेबी संगठन बनकर रह गया है। राज्य आंदोलनकारी एवं गत विस चुनावों में उक्रांद क¢ स्टार प्रचारक घोषित किये गये वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक समालोचक राजीव लोचन साह की राय भी इससे जुदा नहीं है। उनका कहना है बसपा के समर्थन देने से पूर्व उक्रांद के पास एकमात्र विधायक होने के बावजूद अपनी मांगें रखने का बेहतरीन मौका था। उक्रांद के कदम को बेहद दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए उन्होंने कहा कि जो पिछली बार दिवाकर भट्ट या तत्कालीन अध्यक्ष ने जो किया था, वही इस बार त्रिवेंद्र पंवार ने कर दिया। पूरी आशंका है कि इतिहास स्वयं को दोहराये और उक्राद अपनी शक्ति तीन विधायकों से एक करने के बाद आगे शून्य न हो जाऐ। इससे बेतहर होता कि वह आगामी पंचायत तथा अन्य चुनावों के साथ अपने संगठन और शक्ति का विस्तार करता। पद्मश्री शेखर पाठक ने भी उक्रांद के हालिया कदम को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुऐ कहा कि उक्रांद ने अपने इन कदमों से स्वयं के साथ ही उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी व उत्तराखंड रक्षा मोर्चा जैसे से जैसे अन्य क्षेत्रीय दलों की भी जनता के बीच विश्वसनीयता क्षींण कर दी है। उन्होंने कहा कि पहले दिवाकर भट्ट ने उत्तराखंड की जनता से दगा किया, और अब फिर यही दोहराया गया है। बेहतर होता कि वह अगले पांच वर्ष मेहनत कर भाजपा-कांग्रेस से स्वयं को बेहतर विकल्प बनाने की शक्ति हासिल करते।
अपने गठन से गलती दर गलती करता रहा है उक्रांद
नैनीताल। उक्रांद में वर्तमान राजनीति के लिहाज से राजनीतिक चातुर्य या तिक़ड़मों की कमी मानें या कुछ और पर सच्चाई यह है कि वह अपने गठन से ही गलतियों पर गलतियां करता जा रहा है, और इन्हीं गलतियों का ही परिणाम कहा जाऐगा कि वह प्रदेश का एकमात्र क्षेत्रीय दल होने के बावजूद अब निर्दलीयों की भांति एक विधायक पर सिमट गया है। इसके अलावा केवल एक अन्य सीट द्वाराहाट में ही व मुख्य मुकाबले में रहा, जबकि उसके पूर्व केंद्रीय अध्यक्ष काशी सिंह ऐरी व डा. नारायण सिंह जंतवाल चौथे स्थान पर रहे। 25 जुलाई 1979 को अलग उत्तराखंड राज्य की अवधारणा के साथ कुमाऊं विवि के संस्थापक कुलपति प्रो. डीडी पंत, उत्तराखंड के गांधी कहे जाने वाले इंद्रमणि बड़ौनी व विपिन त्रिपाठी सरीखे नेताओं द्वारा स्थापित इस दल ने 1994 में विस चुनावों का बहिस्कार कर अपनी पहली राजनीतिक गलती की थी। राज्य गठन के पूर्व उक्रांद के नेता सपा से सांठ-गांठ करते दिखे और अलग राज्य का विरोध कर रहे कांग्रेस-भाजपा जैसी राज्य विरोधी ताकतों को संघर्ष समिति की कमान सोंपकर हावी होने का मौका दिया। शायद यही कारण रहे कि राज्य बनने के बाद वह लगातार अपनी शक्ति खोता रहा। 2002 के पहले विस चुनावों में उसे चार सीटें मिलीं, जो 2007 में तीन और 2012 में मात्र एक रह गई है। 2007 में उसने भाजपा सरकार को समर्थन दिया और फिर समर्थन वापस लेकर अपनी राजनीतिक अनुभव हीनता का ही परिचय दिया। इस कवायद में दल दो टुकड़े भी हो गया। इस के बावजूद उसने पिछली गलती से सबक न लेकर एक बार फिर आत्मघाती कदम ही उठाया है। ऐसे ही अतिवादी रवैये के कारण वह 1995 में भी टूटा, और लगातार टूटना ही शायद उसकी नियति बन गया है।
राज्य के राजनीतिक दल की मान्यता खो देगा उक्रांद
नैनीताल। भारत निर्वाचन आयोग के नये प्राविधानों के अनुसार किसी पार्टी के लिये किसी राज्य की राज्य स्तरीय राजनीतिक पार्टी होने के लिये हर 3 सीटों में से एक सीट जीतनी आवश्यक है तथा प्रदेश में पड़े कुल वैध मतों का छः फीसद हिस्सा भी उसे हासिल होना चाहिऐ। इस आधार पर 70 विस सीटों वाले उत्तराखंड में किसी राजनीतिक दल को राज्य स्तरीय पार्टी का दर्जा हासिल करने के लिये दो से अधिक यानी तीन विधायक जीतने चाहिऐ। जो उक्रांद नहीं कर पाया है। इस आधार पर उससे राज्य की राजनीतिक पार्टी का तमगा छिनना कमोबेश तय है।