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Wednesday, February 28, 2018

इस साल की नयी होली : कुछ काम अब तो कर लो बलम...

‘कुछ काम अब तो कर लो बलम-2,

बंद करा क्यूं ग्यूं चावल हमरा, गुझिया हुंणी चीनी दिला दो बलम,

कुछ काम अब तो कर लो बलम..

खाली खजाना जेब भी खाली-करने वाले जेल चलें,

मुख पे मलो उनके कालो डीजल, भ्रष्टाचार की होरी जलें,

औरों पर तो बहुत चलाई, कुछ खुद पर भी तो चला दो कलम,

कुछ काम अब तो कर लो बलम....’

सब्बै इष्ट-मितुरन, संगी-साथी, नाना-ठुला भाई-भुला, दीदी-भुली, ब्वारिन-बोजिन सबन, सरकार में और सरकार से भ्यार-भितर वालों, कलम के सिपाहियों, घर-ऑफिस, अखबार वालों, फेसबुकिया, ट्विटरिया, ब्लॉगिया और ‘राष्ट्रीय सहारा’-‘नवीन समाचार’ के पाठकों  को होली की बहुत-बहुत बधाइयां... 

हो-हो-हो लख रे....गावैं, खेलैं, देवैं असीस, हो हो हो लख रे। बरस दिवाली-बरसै फाग, हो हो हो लख रे...। जो नर जीवैं, खेलें फाग, हो हो हो लख रे...।
नवीन जोशी, 'नवेंदु'

यह भी पढ़ें : सदियों पुरानी सांस्कृतिक विरासत है कुमाउनी शास्त्रीय होली

Thursday, May 15, 2014

बाखलीः पहाड़ की परंपरागत हाउसिंग कालोनी


एक बाखली में 100 परिवार तक रहते हैं, भीतर-भीतर ही रेल के डिब्बों की तरह एक से दूसरे घर में जाने का प्रबंध भी रहता है। 
नवीन जोशी, नैनीताल। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, और वह समाज में एक साथ मिलकर रना पसंद करता है। आज के एकाकी व एकल परिवार के दौर में भी मनुष्य समाज के साथ एक तरह की सुविधाओं युक्त कालोनियों में रहना पसंद करता है। बीते दौर में भी मानव की यही प्रवृत्ति रही थी। खासकर उत्तराखंड के गांवों में घरों की लंबी श्रृंखला होती थी, जिसे बाखली (बाखई) कहा जाता है। पहाड़ में अनेक गांवों में ऐसी बाखली हैं, जिनमें सैकड़ों परिवार एक साथ रहा करते थे। आज के बदलते दौर में भी कई गांवों में ऐसी बाखली मौजूद हैं, जो सामाजिकता का संदेश देती हैं। इन्हें पहाड़ की परंपरागत हाउसिंग कालोनियां भी कहा जा सकता है।
नैनीताल जनपद के मौना क्षेत्र में शिमायल के पास कुमाटी नाम का एक गांव है, जहां स्थित बाखली में करीब 80 मवासे (परिवार) एक साथ रहते हैं। बाखली पहाड़ के घरों की एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें पहाड़ के परंपरागत पत्थर व मिट्टी के गारे से बने तथा चपटे पत्थरों (पाथरों) से छाये गए दर्जनों घर आपस में रेल के डिब्बों की तर बाहर ही नहीं भीतर से भी जुड़े रहते हैं, और इनमें घरों के बाहर आए बिना भी रेल के डिब्बों की तरह भीतर-भीतर ही एक से दूसरे घर में जाया जा सकता है। सामान्यतया घरों में बनने वाले व्यंजनों का आदान-प्रदान, एक-दूसरे के घरों में दुःख-तकलीफ तथा कामकाज में सहयोग और खासकर गांवों में रात्रि में बाघ आदि जंगली जानवरों के आने की स्थिति में घरों के भीतर-भीतर ही आने-जाने की यह व्यवस्था खासी कारगर साबित होती रही है। इससे गांव के लोगों में आपसी संबंध भी काफी मधुर रहते हैं, क्योंकि लोग एक-
दूसरे से अधिक गहराई तक जुड़े रहते हैं। इन घरों में जहां दरवाजे व खिड़कियों (द्वार-म्वाव) पर लकड़ी की नक्काशी पहाड़ की समृद्ध काष्ठ कला के दर्शन कराती है, वहीं निचली मंजिल में पशुओं के लिए गोठ, ऊपरी मंजिल में बाहरी कमरा-चाख (जहां चाख यानी अनाज पीसने के लिए हाथ से चलाई जाने वाली चक्की भी होती है), पीछे की ओर रसोई, बाहर की ओर पंछियों के लिए घोंसले, छत में पाथरों के बीच से धुंवे के बाहर निकलने और रोशनी के भीतर आने के प्रबंध तथा आंगन (पटांगण) में बैठने के लिए चौकोर पत्थरों (पटाल) के बीच धान कूटने की ओखली (ऊखल) आदि के प्रबंध भी होते थे। लाल मिट्टी व गोबर से लीपे इन घरों में पहाड़ की समृद्ध परंपरागत चित्रकारी-ऐपण भी देखने लायक होती हैं। बदलते दौर में जहां 1970 के दशक में आए वनाधिकारों के बाद गांवों में पत्थर, लकड़ी आदि वन सामग्री न मिलने की वजह से सीमेंट-कंक्रीट से घर बनने लगे, और पुराने घर भी उनमें रहने वाले लोगों के पलायन की वजह से खाली छूटने के कारण खंडहर में तब्दील होने लगे हैं। इसके बावजूद कुमाटी जैसे अनेक गांव हैं, जहां के ग्रामीणों ने आज भी अपनी विरासत को सहेज कर रखा हुआ है।

Thursday, March 27, 2014

उत्तराखंड में अनूठी है भाई-बहन के प्रेम की 'भिटौली' परंपरा

  • चैत्र माह में निभाई जाती है यह परंपरा, भाई देते हैं बहनों को सौगात
अनेक अनूठी परंपराओं के लिए पहचाने जाने वाले उत्तराखण्ड राज्य में भाई-बहन के प्रेम की एक अनूठी ‘भिटौली’ देने की प्राचीन परंपरा है। पहाड़ में सभी विवाहिता बहनों को जहां हर वर्ष चैत्र मास का इंतजार रहता है, वहीं भाई भी इस माह को याद रखते हैं और अपनी बहनों को ‘भिटौली’ देते हैं। 
घुघुती
'भिटौली' का शाब्दिक अर्थ भेंट देने से हैं। प्राचीन काल से चली आ रही यह परंपरा उस दौर में काफी महत्व रखती थी। इसके जरिए भाई-बहन का मिलन तो होता ही था, इसके जरिए उस संचार के साधन विहीन दौर में अधिकांशतया बहुत दूर होने वाले मायकों की विवाहिताओं की कुशल-क्षेम मिल जाती थी। भाई अपनी बहनों के लिए घर से हलवा-पूड़ी सहित अनेक परंपरागत व्यंजन तथा बहन के लिए वस्त्र एवं उपलब्ध होने पर आभूषण आदि भी लेकर जाता था। बाद के दौर में व्यंजनों के साथ ही गुड़, मिश्री व मिठाई जैसी वस्तुएं भी भिटौली के रूप में दी जाने लगीं। व्यंजनों को विवाहिता द्वारा अपने ससुराल के पूरे गांव में बांटा जाता था। भिटौली का विवाहिताओं को बेसब्री से इंतजार रहता था। भिटौली जल्दी आना बहुत अच्छा माना जाता था, जबकि भिटौली देर से मिली तो भी बहनों की खुशी का पारा-वार न होता था। आज के बदलते दौर में भिटौली की परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों में तो कमोबेश पुराने स्वरूप में ही जारी है, लेकिन शहरी क्षेत्रों में भाइयों द्वारा ले जाए जाने वाले व्यंजनों का स्थान बाजार की मिठाइयों ने ले लिया है। भाई कई बार साथ में बहनों के लिए कपड़े ले जाते हैं, और कई बार इनके स्थान पर कुछ धनराशि देकर भी परंपरा का निर्वहन कर लिया जाता है।

लोकगीतों-दंतकथाओं में भी है भिटौली

भिटौली प्रदेश की लोक संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। इसके साथ कई दंतकथाएं और लोक गीत भी जुड़े हुए हैं। पहाड़ में चैत्र माह में यह लोकगीत काफी प्रचलित है- 
ओहो, रितु ऐगे हेरिफेरि रितु रणमणी, हेरि ऐछ फेरि रितु पलटी ऐछ।
ऊंचा डाना-कानान में कफुवा बासलो, गैला-मैला पातलों मे नेवलि बासलि।।
ओ, तु बासै कफुवा, म्यार मैति का देसा, इजु की नराई लागिया चेली, वासा।
छाजा बैठि धना आंसु वे ढबकाली, नालि-नालि नेतर ढावि आंचल भिजाली।
इजू, दयोराणि-जेठानी का भै आला भिटोई, मैं निरोलि को इजू को आलो भिटोई।।
इस लोकगीत का कहीं-कहीं यह रूप भी प्रचलित है-
रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।
डाली में कफुवा वासो, खेत फुली दैणा।
कावा जो कणाण, आजि रते वयांण।
खुट को तल मेरी आज जो खजांण।
इजु मेरी भाई भेजली भिटौली दीणा।
रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।
वीको बाटो मैं चैंरुलो।
दिन भरी देली मे भै रुंलो।
वैली रात देखछ मै लै स्वीणा।
आगन बटी कुनै ऊँनौछीयो -
कां हुनेली हो मेरी वैणा ?
रितु रैणा, ऐ गे रितु रैणा।
रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।।
भावार्थ :-
रुन झुन करती ऋतु आ गई है, ऋतु आ गई है रुन-झुन करती।
डाल पर 'कफुवा' पक्षी कूजने लगा, खेतों मे सरसों फूलने लगी।
आज तडके ही जब कौआ घर के आगे बोलने लगा।
जब मेरे तलवे खुजलाने लगे, तो मैं समझ गई कि -
माँ अब भाई को मेरे पास भिटौली देने के लिए भेजेगी।
रुन झुन करती ऋतु आ गई है, ऋतु आ गई है रुन-झुन करती।
मैं अपने भाई की राह देखती रहूंगी।
दिन भर दरवाजे मे बैठी उसकी प्रतीक्षा करुँगी।
कल रात मैंने स्वप्न देखा था।
मेरा भाई आंगन से ही यह कहता आ रहा था -
कहाँ होगी मेरी बहिन ?
रुन झुन करती ऋतु आ गई है, ऋतु आ गई है रुन-झुन करती।।

वहीं ‘भै भुखो-मैं सिती’ नाम की दंतकथा भी काफी प्रचलित है। कहा जाता है कि एक बहन अपने भाई के भिटौली लेकर आने के इंतजार में पहले बिना सोए उसका इंतजार करती रही। लेकिन जब देर से भाई पहुंचा, तब तक उसे नींद आ गई और वह गहरी नींद में सो गई। भाई को लगा कि बहन काम के बोझ से थक कर सोई है, उसे जगाकर नींद में खलल न डाला जाए। उसने भिटौली की सामग्री बहन के पास रखी। अगले दिन शनिवार होने की वजह से वह परंपरा के अनुसार बहन के घर रुक नहीं सकता था, और आज की तरह के अन्य आवासीय प्रबंध नहीं थे, उसे रात्रि से पहले अपने गांव भी पहुंचना था, इसलिए उसने बहन को प्रणाम किया और घर लौट आया। बाद में जागने पर बहन को जब पता चला कि भाई भिटौली लेकर आया था। इतनी दूर से आने की वजह से वह भूखा भी होगा। मैं सोई रही और मैंने भाई को भूखे ही लौटा दिया। यह सोच-सोच कर वह इतनी दुखी हुई कि ‘भै भूखो-मैं सिती’ यानी भाई भूखा रहा, और मैं सोती रही, कहते हुए उसने प्राण ही त्याग दिए। कहते हैं कि वह बहन अगले जन्म में वह ‘घुघुती’ नाम की पक्षी बनी और हर वर्ष चैत्र माह में ‘भै भूखो-मैं सिती’ की टोर लगाती सुनाई पड़ती है। पहाड़ में घुघुती पक्षी को विवाहिताओं के लिए मायके की याद दिलाने वाला पक्षी भी माना जाता है। ‘घुर-घुर न घुर घुघुती चैत में, मकें याद उं आपणै मैत की’ जैसे गीत भी काफी लोकप्रिय हैं।

पिथौरागढ में भिटौली पर 'चैतोल' की परंपरा

कुमाऊं के पिथौरागढ़ जनपद क्षेत्र में चैत्र मास में भिटौली के साथ ही चैतोल पर्व मनाए जाने की एक अन्य परंपरा भी है। चैत्र मास के अन्तिम सप्ताह में मनाये जाने वाले इस त्योहार में पिथौरागढ के समीपवर्ती गांव चहर-चौसर से डोला यानी शोभायात्रा भी निकाली जाती है, जो कि निकट के 22 गांवों में घूमती है। चैतोल के डोले को भगवान शिव के देवलसमेत अवतार का प्रतीक बताया जाता है, डोला पैदल ही 22 गांवों में स्थित भगवती देवी के थानों यानी मंदिरों में भिटौली के अवसर पर पहुंचता है। मंदिरों में देवता किसी व्यक्ति के शरीर में अवतरित होकर उपस्थित लोगों व भक्तों को आशीर्वाद देते हैं।

कुमाऊं के एक अन्य लोक पर्व 'फूलदेई' पर बच्चों 'द्वारा  पूजा' के दौरान गाया जाने वाला लोकगीत- 

" फूलदेई, छम्मा देई.…
जतुकै देला, उतुकै सही ।
देंणी द्वार, भर भकार,
सास ब्वारी, एक लकार,
यो देलि सौ नमस्कार ।
फूलदेई, छम्मा देई.…
जतुकै देला, उतुकै सही । "
प्रस्तुति: नवीन जोशी।

Tuesday, January 14, 2014

कुमाऊं का ऋतु पर्व ही नहीं ऐतिहासिक व लोक सांस्कृतिक पर्व भी है उत्तरायणी


-1921 में इसी त्योहार के दौरान बागेश्वर में हुई रक्तहीन क्रांति, कुली बेगार प्रथा से मिली थी निजात
-घुघुतिया के नाम से है पहचान, काले कौआ कह कर न्यौते जाते हैं कौए और परोसे जाते हैं पकवान

नवीन जोशी, नैनीताल। दुनिया को रोशनी के साथ ऊष्मा और ऊर्जा के रूप में जीवन देने के कारण साक्षात देवता कहे जाने वाले सूर्यदेव के धनु से मकर राशि में यानी दक्षिणी से उत्तरी गोलार्ध में आने का पर्व पूरे देश में अलग-अलग प्रकार से मनाया जाता है। पूर्वी भारत में यह बीहू, पश्चिमी भारत (पंजाब) में लोहणी और दक्षिणी भारत (कर्नाटक, तमिलनाडु आदि) में पोंगल तथा उत्तर भारत में मकर संक्रांति के रूप में मनाया जाने वाला  यह पर्व देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में उत्तरायणी के रूप में मनाया जाता है।उत्तरायणी पर्व कुमाऊं का न केवल मौसम परिवर्तन के लिहाज से एक ऋतु पर्व वरन बड़ा ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पर्व भी है। 

घुघुते 
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में मकर संक्रांति यानी उत्तरायणी को लोक सांस्कृतिक पर्व घुघुतिया के रूप में मनाए जाने की विशिष्ट परंपरा रही है। यहाँ 14 जनवरी 1921 को इसी त्योहार के दिन हुए एक बड़े घटनाक्रम को कुमाऊं की ‘रक्तहीन क्रांति’ की संज्ञा दी जाती है, इस दिन कुमाऊं परिषद के अगुवा कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे के नेतृत्व में सैकड़ों क्रांतिकारियों ने कुमाऊं की काशी कहे जाने वाले बागेश्वर के सरयू बगड़ में सरयू नदी का जल हाथों में लेकर बेहद दमनकारी गोर्खा और अंग्रेजी राज के सदियों पुराने 'कुली बेगार' नाम के काले कानून संबंधी दस्तावेजों को नदी में बहाकर हमेशा के लिए तोड़ डाला था। यह परंपरा बागेश्वर में राजनीतिक दलों के सरयू बगड़ में पंडाल लगने और राजनीतिक हुंकार भरने के रूप में अब भी कायम है। इस त्योहार से कुमाऊं के लोकप्रिय कत्यूरी शासकों की एक अन्य परंपरा भी जुड़ी हुई है, जिसके तहत आज भी कत्यूरी राजाओं के वंशज नैनीताल जिले के रानीबाग में गार्गी (गौला) नदी के तट पर उत्तरायणी के दिन रानी जिया का जागर लगाते व परंपरागत पूजा-अर्चना करते हैं। वहीं एक अन्य पौराणिक मान्यता के अनुसार कुमाऊं के अन्य लोकप्रिय चंदवंशीय राजवंश के राजा कल्याण चंद को बागेश्वर में भगवान बागनाथ की तपस्या के उपरांत राज्य का इकलौता वारिस निर्भय चंद प्राप्त हुआ, जिसे रानी प्यार से घुघुती कहती थी। राजा का मंत्री राज्य प्राप्त करने की नीयत से एक बार घुघुतिया को शड्यंत्र रच कर चुपचाप उठा ले गया। इस दौरान एक कौए ने घुघुतिया के गले में पड़ी मोतियों की माला ले ली, और उसे राजमल में छोड़ आया, इससे रानी को पुत्र की कुशल मिली। उसने कौए को तरह-तरह के पकवान खाने को दिए और अपने पुत्र का पता जाना। तभी से कुमाऊं में घुघुतिया के दिन आटे में गुड़ मिलाकर पक्षी की तरह के घुघुती कहे जाने वाले और पूड़ी नुमा ढाल, तलवार, डमरू, अनार आदि के आकार के स्वादिष्ट पकवानों से घुघुतिया माला तैयार करने और कौओं को पुकारने की प्रथा प्रचलित है। बच्चे उत्तरायणी के दिन गले में घुघुतों की माला डालकर कौओं को ‘काले कौआ काले घुघुति माला खाले, 
ले कौआ पूरी, मकै दे सुनकि छुरी, ले कौआ ढाल, मकैं दे सुनक थाल, ले कौआ बड़, मकैं दे सुनल घड़...’ पुकार कर कोओं को आकर्षित करते हैं, और प्रसाद स्वरूप स्वयं भी घुघुते ग्रहण करते हैं। कौओं को इस तरह बुलाने और पकवान खिलाने की परंपरा त्रेता युग में भगवान श्रीराम की पत्नी सीता से भी जोड़ी जाती है। कहते हैं कि देवताओं के राजा इंद्र का पुत्र जयेंद्र सीता के रूप-सौंदर्य पर मोहित होकर कौए के वेश में उनके करीब जाता है। राम कुश के एक तिनके से जयेंद्र की दांयी आंख पर प्रहार कर डालते हैं, जिससे कौओं की एक आंख हमेशा के लिए खराब हो जाती है। बाद में राम ने ही कौओं को प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के दिन पवित्र नदियों में स्नान कर पश्चाताप करने का उपाय सुझाया था।
इसके साथ ही कुमाऊं में उत्तरायणी के दिन सरयू, रामगंगा, काली, गोरी व गार्गी (गौला) आदि नदियों में कड़ाके की सर्दी के बावजूद सुबह स्नान-ध्यान कर सूर्य का अर्घ्य च़ाकर सूर्य आराधना की जाती है, जो इस त्योहार के कुमाऊं में भी देश भर की तरह सूर्य उपासना से जु़ड़े होने का प्रमाण है। तात्कालीन राज व्यवस्था के कारण कुमाऊं में इस पर्व को सरयू नदी के पार और वार अलग- अलग दिनों में मनाने की परंपरा है। सरयू पार के लोग पौष मासांत के दिन घुघुते तैयार करते हैं, और अगले दिन कौओं को चढ़ाते हैं। जबकि वार के लोग माघ मास की सक्रांति यानि एक दिन बाद पकवान तैयार करते हैं, और अगले दिन कौओं को न्यौतते हुए यह पर्व मनाते हैं।

Sunday, January 12, 2014

कटारमलः जहां है देश का प्राचीनतम सूर्य मंदिर

कटारमल सूर्य मंदिर: जिसका शीर्ष बुर्ज के बजाय जमीन पर पड़ा हुआ है
देश में सूर्य मन्दिर का नाम आते ही मस्तिष्क में सर्वप्रथम कोणार्क के सूर्य मंदिर का नाम आता है, लेकिन देवताओं की भूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड में भी दुनिया को सीधे तौर पर जीवन प्रदान करने वाले सूर्य देव का ऐसा मंदिर स्थित है, जो कई संदर्भों में कोणार्क के सूर्य मंदिर से भी पहले आता है। अल्मोड़ा जिले में जिला मुख्यालय से करीब 14 किमी सड़क एवं तीन किमी की पैदल दूरी पर स्थित कटारमल के सूर्य मंदिर में ‘क’ नाम की समानता के साथ ही बाहरी स्वरूप के लिहाज से भी बड़ी समानता दिखाई देती है। दोनों मंदिरों की स्थापत्य कला और स्थापना की अवधि के बारे में वैज्ञानिकों में भी काफी हद तक मतैक्य है।

कटारमल मंदिर समूह
भारतीय पुरातत्व सवेक्षण विभाग के अनुसार कटारमल का मंदिर समूह 13वीं सदी में निर्मित है, जबकि कोणार्क मंदिर समूह का निर्माण वर्ष भी 13वीं सदी में ही 1236 से 1264 के बीच बताया जाता है। हालांकि अनेक पुरातत्व विद्वान कटारमल के सूर्य मंदिर को कोणार्क के मुकाबले दो सदी पुराना यानी सबसे पुराना भी मानते हैं। हालांकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीक्षण पुरातत्वविद् डा. डीएन डिमरी भी मानते हैं कि मंदिर 11वीं सदी का बना हुआ यानी देश का सबसे पुराना सूर्य मंदिर है। हालांकि यहां के मंदिरों के आठवीं-नवीं सदी में होने के भी कुछ प्रमाण मिलते हैं। बहरहाल, दोनों मंदिरों में यह भी समानता है कि दोनों मूल स्वरूप से खंडित हैं। कटारमल का मंदिर तो इस लिहाज से अनूठा ही है कि इसका शीर्ष बुर्ज के बजाय जमीन पर पड़ा हुआ है।
अल्मोडा जिले में रानीखेत रोड पर कोसी नदी व स्थान के निकट समुद्र सतह से करीब 1554 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कटारमल गांव पहुंचने के लिए सड़क निर्माणाधीन है। यहां स्थित सूर्य मंदिर में भगवान सूर्य की मटमैले रंग के पत्थर की करीब एक मीटर लम्बी और पौन मीटर चौड़ी कमल के पुष्प पर आसीन पद्मासन में बैठी मुद्रा की मूर्ति स्थित है। मूर्ति के सिर पर मुकुट तथा पीछे प्रभामंडल है। स्थानीय लोग इसे बड़ादित्य (बड़ा आदित्य यानी बड़ा सूर्य) मंदिर भी कहते हैं। स्कन्दपुराण के मानस खंड के अनुसार ऋषि मुनियों ने आतंक मचाने वाले कालनेमि नाम के राक्षश के वध के लिए इस स्थान पर वट आदित्य की स्थापना कर भगवान सूर्य देव का आह्वान किया था। वास्तु लक्षणों और स्तंभों पर उत्कीर्ण अभिलेखों के आधार पर १३वी सदी में कुमाऊं के कत्यूर वंश के राजा कटारमल देव ने यहां नव ग्रहों सहित सूर्य देव की स्थापना करवाई। राजा कटारमल के नाम से इसे कटारमल सूर्य मंदिर नाम मिला। मंदिर परिसर में सूर्य के अलावा लक्ष्मीनारायण, शिव-पार्वती, कुबेर, नृसिंह, कार्तिकेय, महिषासुरमर्दिनी व गणेश की मूर्तियों सहित अनेक देवी-देवताओं के करीब 45 छोटे-बड़े मंदिर हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि वह मनौतियां पूरी होने पर समय-समय पर बनवाए गए। मुख्य मन्दिर की संरचना त्रिरथ आकार की है, जो वर्गाकार गर्भगृह के साथ नागर शैली के वक्र रेखी शिखर सहित निर्मित है। मन्दिर में पहुंचते ही इसकी विशालता और वास्तु शिल्प बरबस ही पर्यटकों का मन मोह लेता है। मुख्य मंदिर के दक्षिण में तुंगेश्वर व पश्चिम में महारूद्र के मंदिर तथा पास में सूर्य व चंद्र नाम के दो जल-धारे भी हैं।
कत्यूरियों द्वारा निर्मित देवालयों के बारे में यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि सूर्यवंशी होने की वजह से कत्यूरी राजा हर मंदिर को सूर्य की रोशनी के बिना हजारों लोगों, श्रमिकों की मदद से विशालकाय शिलाओं और बेजोड़ शिल्प कला का प्रयोग करते हुए एक ही रात्रि में बनाते थे। एक रात्रि में मंदिर जितने बन जाते, और शेष अधूरे रह जाते। कुमाऊं में बिन्सर महादेव सहित कत्यूरियों द्वारा अधूरे छोड़े कई मंदिरों से इस बात की पुष्टि होती है। उन्होंने जागेश्वर, चंपावत व द्वाराहाट मंदिर समूह सहित सैकड़ों मंदिरों का निर्माण किया था।


भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग कटारमल सूर्य मंदिर समूह को संरक्षित स्मारक घोषित कर चुका है। पूर्व में मंदिर का प्रवेश द्वार पश्चिम दिशा में था, लेकिन वर्ष 2010 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को मन्दिर की पूर्व दिशा में आठ सीढियों के अवशेष मिले।एक वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद इसके पूर्व दिशा में दरवाजे के बाहर चुनी गई दीवार को हटा दिया गया। इसके बाद वर्ष के अक्टूबर और फरवरी के अंतिम पखवाड़े में सुबह के सूरज की पहली किरणें मंदिर के भीतर स्थित सूर्यदेव की प्रतिमा का अभिषेक करने लगीं। इसके बाद कोणार्क और कटारमल के सूर्य मंदिर में प्रवेश द्वार के पूर्व दिशा में होने की समानता भी जुड़ गई है।

Wednesday, December 11, 2013

पहाड़ का कल्पवृक्ष है इंडियन बटर ट्री-च्यूरा

वसा रहित तेल-घी, शहद, गुड़, धूप, वैसलीन, मोमबत्ती, साबुन, गोंद, मच्छर व सांप रोधी व कीटनाशक दवाएं, जलौनी लकड़ी, पशुओं को चारा सहित अनेकों उत्पाद देने के साथ ही भूक्षरण रोधी भी है यह बहुउपयोगी वृक्ष
नवीन जोशी, नैनीताल। क्या आपने किसी ऐसे बहुपयोगी वृक्ष का नाम सुना है जिसके फूलों से शहद, बीजों की गिरी से वसा रहित तेल, घी, वैसलीन व मोमबत्ती, फल से गुड़, तेल निकालकर बची मीठी खली से धूप, अगरबत्ती तथा सांप व मच्छररोधी तथा कीटनाशक दवाएं व साबुन, तने के रस से गोंद, पत्तियों से पशुओं के लिए चारा और शेष हिस्से से इमारती व जलौनी लकड़ी सहित 30 के लगभग उपयोगी पदार्थ मिलते हों। और यदि ऐसा कोई एक वृक्ष हो तो उसे कल्पवृक्ष से इतर क्या कहेंगे। जी हां, उत्तराखंड में च्यूरा नाम का एक ऐसा कल्पवृक्ष पाया जाता है, जिससे प्रदेश के केवल एक जनपद पिथौरागढ़ में केवल तेल के जरिए ही डेढ़ करोड़ रुपए प्रति वर्ष की आय हो सकती है। देश में अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह के अलावा यह वृक्ष केवल उत्तराखंड में ही पाया जाता है, इस लिहाज से भी इसका उत्पादन देश में उत्तराखंड को अलग पहचान दिला सकता है।
च्यूरा का वृक्ष
पहाड़ के इस कल्पवृक्ष, हिंदी में फुलवाड़ा, चिउड़ा व फलेल एवं देश-दुनिया में इंडियन बटर ट्री कहा जाने वाले च्यूरा-वानस्पतिक नाम डिप्लोनेमा बुटीरैशिया (Diploknema butyracea) के वृक्ष उच्च हिमालयन क्षेत्र तथा बाह्य हिमालय में कुमांऊ से पूर्व की ओर सिक्किम तथा भूटान तक समुद्र सतह से 300 से 1500 मीटर की ऊंचाई पर पाये जाते हैं। देश में अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह व पड़ोसी देश नेपाल के अलावा उत्तराखण्ड में मुख्यतः पिथौरागढ़ जनपद के काली, सरयू पूर्वी रामगंगा तथा गोरी नदी की घाटियों में प्राकृतिक रूप से बहुतायत में मिलता है, जबकि नैनीताल के पास नौकुचियाताल व भीमताल, बागेश्वर की गरुड़ व चंपावत जिले में नदियों की अपेक्षाकृत गरम घाटियों में भी इसके वृक्ष मिलते हैं। नेपाल में इसके 108 लाख वृक्ष बताए जाते हैं। बच्चे इसकी मीठी दूधिया फलियों को बड़े चाव से खाते हैं, जबकि इसके बीजों की गिरी से वसा रहित तथा अल्सर, हृदयरोग व गठियाबात आदि में बहुपयोगी तेल निकलता है, जो जमने की प्रवृत्ति वाला होता है, एवं वनस्पति घी के रूप में प्रयोग होता है। तेल को मट्ठे के साथ पकाकर सफेद वैसलीन बना ली जाती है। बची हुई गिरी और छिलकों को जलाकर मच्छर व मछलियां मारने तथा सांप को भगाने में उपयोग किया जाता है। वहीं फूलों से प्राकृतिक तरीके से शहद बनता ही है, जबकि फलियों से भी मीठा गुड़ उत्पादित किया जाता है। इसके अतिरिक्त यह ईंधन, दवा, इमारती लकड़ी, जानवरों के चारे तथा शहद प्राप्ति का उत्तम स्रोत है। नेपाल में इस वृक्ष से प्राप्त वसा को ‘चिवरी घी’ कहा जाता है। उत्तराखंड में च्यूरे के 12 से 21 मीटर तक ऊंचे और 1.8 से तीन मीटर तक गोलाई के वृक्षों में अगस्त माह के उत्तरार्द्ध से पतझड़ होने लगता है, जबकि सितंबर के दूसरे सप्ताह से नई कोपलें आ जाती हैं। अक्टूबर प्रथम सप्ताह से 20 से 50 के गुच्छों में सुंदर सफेद फूल आने लग जाते हैं। अक्टूबर अंत तक इन फूलों में रस भरने लगता है, जिनसे मधुमक्खियां शहद बनाती हैं। दिसंबर तक फूल सूख जाते हैं, तथा फलियां लगने लगती हैं। फलियां जून माह के दूसरे पखवाड़े तक पक जाती हैं, और इनके भीतर प्राप्त बीजों से बीजों के भार का 42 से 47 प्रतिशत और गिरी के भार का 60 से 67 प्रतिशत तक तेल प्राप्त हो जाता है। इसमें ग्लाइसिन, एलानीन, एस्पारटिक एसिड, ग्लुटेमिक एसिड, थ्रिओनीन, मीथीओनीन, नारल्युसीन, आरजीनीन, हिसटीडीन, लायसीन, प्रोलीन, टायरोसीन, ट्रिप्टोफीन व सीसटीन नाम के एमीनो अम्ल भी पाए जाते हैं, जिनकी अपनी अलग विशेशताएं व उपयोग हैं। 
डा. तिवारी के अनुसार भूस्खलन रोकने में भी इसके वृक्ष बेहद सहायक साबित होते हैं। पिथौरागढ़ के चिमस्यानौला में च्यूरा पर आधारित मच्छरमार अगरबत्ती, धूप, सुगंधित अगरबत्ती, हवन सामग्री व मलहम आदि अनेक उत्पाद तैयार कर रहे नियो इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट ऑफ हिमालया (निधि) संस्था के निदेशक डा. सुनील पांडे बताते हैं कि पिथौरागढ़ जनपद की पंचेश्वर घाटी के डाकुड़ा, गुरुड़ा, गोगना, लिसनी, जमराड़ी, वेडा, हिमतड़, जाजर, सेल, सल्ला, गुरना, रोड़ा, निशनी व चहज गंगोलीहाट सहित करीब 100 गांवों की हजारों ग्रामीणों की आर्थिकी का यह मुख्य आधार है, और यहां प्रतिवर्ष 250 टन च्यूरा तेल उत्पादन व लगभग डेढ़ करोड़ रूपयों की प्रतिवर्ष आय की क्षमता है, जबकि वर्तमान में क्षमता का महज 30 फीसदी लाभ ही लिया जा पा रहा है। डा. तिवारी के मुताबिक प्रयास करने पर व इसके विपणन तथा गुणवत्ता सुधार आदि से आजीविका में 30 फीसदी तक की बढ़ोत्तरी की जा सकती है।

Monday, August 19, 2013

सत्याग्रह की जिद पर गांधी जी को भी झुका दिया था डुंगर ने

पहले मना करने पर दुबारा की गई अनुनय पर दी थी अनुमति 
पांच वर्ष रहे जेल में, जेलरों की नाक में भी कर दिया था दम, बदलनी पड़ीं 11 जेलें
नवीन जोशी, नैनीताल। जिद यदि नेक उद्देश्य के लिए हो और दृ़ढ़ इच्छा शक्ति के साथ की जाए तो फिर पहाड़ों का भी झुकना पड़ता है। जिस अहिंसा और सत्याग्रह के मार्ग से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कभी अपने राज्य में सूर्य के न छुपने के घमंड वाले अंग्रेजों को झुका कर देश से बाहर खदेड़ दिया था, उसी अहिंसा  और सत्याग्रह की जिद से पहाड़ के एक बेटे ने महात्मा गांधी को भी झुका दिया था। जी हां, राष्ट्रपिता के समक्ष भी ऐसे विरले अनुभव ही आए होंगे, जहां उन्हें किसी ने अपना निर्णय बदलने को मजबूर किया होगा। देश को आजाद कराने के लिए गांधी जी के ऐसे ही एक जिद्दी सिपाही और स्वतंत्रता सेनानी का नाम डुंगर सिंह बिष्ट है।
यह 1940 की बात है। 1919 में जिले के सुंदरखाल गांव में सबल सिंह के घर जन्मे डुंगर तब कोई 20 वर्ष के रहे होंगे। इस उम्र में भी वह आईवीआरआई मुक्तेश्वर के सरकारी स्कूल में प्रधानाध्यापक के पद पर कार्यरत थे। तभी गांधी जी के सत्यागह्र आंदोलन से वह ऐसे प्रेरित हुए कि पांच नवंबर 1940 को आजादी के आंदोलन में पूरी तर रमने के लिए लगी-लगाई नौकरी छोड़ दी, और देश की सक्रिय सेवा के लिए फौज में शामिल होने का मन बनाया। 14 नवंबर 1940 को भर्ती अफसर कर्नल एटकिंशन ने उन्हें देखते ही अस्थाई सेकेंड लेफ्टिनेंट के पद पर चयनित कर लिया। लेकिन इसी बीच हल्द्वानी में पं. गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व में चल रहे सत्याग्रह आंदोलन को देखकर उन्होंने फौज का रास्ता छोड़ सीधे सत्याग्रह आंदोलन में कूदने का मन बना डाला, और पहले तत्कालीन कांग्रेस जिलाध्यक्ष मोतीराम पाण्डे को और फिर सीधे महात्मा गांधी को पत्र लिखकर सत्याग्रह आंदोलन की अनुमति देने का आग्रह किया। 26 दिसंबर 1940 को बापू के पीए प्यारे लाल नैयर ने उन्हें बापू का संदेश देते हुए पत्र लिखा कि उनके पिता 84 वर्ष के हैं, माता तथा भाभी की मृत्यु हो चुकी है, और पिता की देखभाल को कोई नहीं हैं, लिहाजा उन्हें सत्याग्रह की इजाजत नहीं दी जा सकती। वह पिता की सेवा करते हुए बाहर से ही देश सेवा करते रहें। डुंगर अनुमति न मिलने से बेहद दुःखी हुए, और पुनः एक जनवरी 1941 को बापू को पत्र लिखकर अनुमति देने की जिद की। आखिर उनकी जिद पर बापू को झुकना पड़ा और बापू ने 18 मार्च 41 को उन्हें, ‘स्वयं को उनके देश-प्रेम से बेहद हर्षित और उत्साहित’ बताते हुए इजाजत दे दी। इस पर डुंगर ने आठ अप्रेल को कड़ी सुरक्षा को धता बताते हुए आठ दिनों तक घर व जंगल में छुपते-छुपाते सरगाखेत में अपने साथी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व पुरोहित भवानी दत्त जोशी के साथ सत्यागह्र कर ही दिया। हजारों लोगों के बीच वह अचानक मंच पर प्रकट हुए, और ‘गांधी जी की जै-जैकार, अंग्रेजो भारत को स्वतंत्र करो’ तथा बापू द्वारा सत्याग्रह हेतु दिया गया संदेश ‘इस अंग्रेजी लड़ाई में रुपया या आदमी से मदद देना हराम है, हमारे लिए यही है कि अहिंसात्मक सत्याग्रह के जरिए हर हथियारबंद लड़ाई का मुकाबिला करें’ पढ़ा।  इसके तुरंत बाद उन्हें पुलिस ने पकड़कर पांच वर्ष के लिए जेल भेज दिया। वर्तमान में 96 वर्षीय श्री बिष्ट बताते हैं कि जेल में भी वह जेलर व जेल अधीक्षकों की नाक में दम किए रहे, इस कारण उन्हें पांच वर्षों में अल्मोड़ा, नैनीताल, हल्द्वानी, आगरा, खीरी-लखीमपुर, लखनऊ कैंप व वनारस सहित 11 जेलों में रखना पड़ा। इस दौरान देश में 87 हजार लोगों ने सत्याग्रह किया था, पर डुंगर का दावा है कि 1945 में वनारस जल से रिहा होने वाले वह आखिरी सत्याग्रही थे। आगे देश को दी गई सेवाओं का सिला उन्हें अपने गांव का पहला प्रधान, सरपंच तथा आगे यूपी के मंत्री बनने के रूप में मिला। 

Monday, August 12, 2013

वो भी क्या दिन थे.....

ठीक से तो याद नहीं, मेरी जन्म तिथि शायद सन् 1917 की रही होगी। 1917 इसलिऐ क्योंकि सन् 1946 के आसपास जब मैं अंग्रेजों की फौज (द्वितीय विश्व युद्ध की ब्रिटिश आर्मी-द ट्वेल्थ फ्रंटियर फोर्स रेजीमेंट सियालकोट (वर्तमान पाकिस्तान) में 03.05.1945 से 16.07.1946 तक सिपाही 3429418 के रूप में) में भर्ती हुआ था, तब मेरी उम्र करीब 29 वर्ष थी। मेरी शादी हो चुकी थी, और पहली सन्तान होने को थी। बड़े भाई ने मेरे खिलाफ पिता के कान भरे थे, जिस पर पिता ने एक दिन डपट दिया। बस क्या था, मैं घर से निकल भागा। तब गरुड़ तक ही सड़क थी, और हमारा गांव ‘तोली’ (पोथिंग) पिण्डारी ग्लेशियर के यात्रा मार्ग पर पड़ता था। मैं सुबह तड़के घर से भागकर जगथाना के रास्ते से गरुड़ के लिए निकल पड़ा। शाम तक वज्यूला गांव पहुंच गया, वहां मेरे ममेरे भाई की ससुराल थी। रात्रि में वहीं रुका। सुबह बस पकड़ी और नैनीताल के लिए चल पड़ा। वहां नैनीताल में मेरे जेठू अंबा दत्त, मोटर कंपनी में ‘मोटर मैन’ थे। चलते ही ममेरे भाई ने ताकीद कर दी थी, गेठिया में बस से उतर जाना, वहां से नैनीताल पास ही होता है। सीधे नैनीताल जाओगे तो वहां ‘टैक्स’ देना पड़ेगा। तब अक्सर लोग चार आने के करीब पड़ने वाले टैक्स को बचाने के लिए ऐसे यत्न आम तौर पर करते थे। मैंने भी ऐसा ही किया। गेठिया से नैनीताल के लिए करीब दो किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई थी। पर उस जमाने में जब पैदल चलना आम होता था, यह दूरी नगण्य ही मानी जाती थी।
खैर, मैं नैनीताल पहुंच गया। जेठू जी से मिला, उनके घर रहा। दूसरे दिन मुझे घर पर बैठे रहने को कह कर जेठू काम पर चले गऐ, लेकिन मैं अकेला ही बाहर निकल गया। गांव से पहली बार घर से निकला था, पर किसी तरह की झिझक मुझमें नहीं थी। देखा, तल्लीताल में अंग्रेजों की सेना के लिए भर्ती चल रही थी। मैं भी भर्ती प्रक्रिया में शामिल हो गया। वजन आदि लिया गया। आगे मेडिकल जांच के लिए नऐ रंगरूटों (रिक्रूटों) को पैदल अल्मोड़ा जाने की बात हुई। अंग्रेजी न जानने के बावजूद मुझमें अंग्रेजों से बात करने में कोई झिझक नहीं थी। अंग्रेज भी कोई ‘हिटलर’ जैसे न थे। मैंने कह दिया, अंग्रेज साहब तुम्हें भी साथ में पैदल चलना पड़ेगा, तभी जाऐंगे। उन्हें भी कोई आपत्ति नहीं हुई। तब अल्मोड़ा के लिए सीधे सड़क नहीं थी। गरमपानी से रानीखेत व कोसी होते हुऐ अल्मोड़ा के लिए रास्ता था। हम लोग सुयालबाड़ी के गधेरे से होते हुऐ पैदल रास्ते से अल्मोड़ा पहुंचे। कमोबेश इसी पैदल रास्ते से आज की सड़क बनी है। मेडिकल प्रक्रिया में शामिल हुआ। वहां साथ गऐ सभी रिक्रूटों में से केवल मैं भर्ती हुआ। अन्य ‘टेस्ट’ में कोई आंख न दिखाई देने, तो कोई न सुनाई देने जैसी बातें बताकर बाहर हो गये थे। बाद में पता चला कि यह लोग बहाने करते थे। वह बहुत गरीबी का जमाना था। भर्ती प्रक्रिया के दौरान खाने को पूड़ियां और वापसी पर दो रुपऐ मिलते थे, जिसके लालच में लड़के भर्ती होने आते थे, और बहाने बनाकर दो रुपऐ लेकर वापस लौट आते थे। मुझे यह पता न था। मुझसे अंग्रेज अफसर ने पूछा, तुम्हें कोई परेशानी नहीं है। मैंने दृढ़ता से कहा, ‘नहीं, मैं लड़ने आया हूं। कुछ परेशानी होती तो क्यों आता ?’ अफसर मुझसे बहुत प्रभावित हुआ। कहा, ‘तुम भर्ती हो गऐ हो। सियालकोट (पाकिस्तान) पोस्टिंग हुई है। वहीं ज्वाइनिंग लेनी होगी।’ रास्ते के खर्च के लिए चार रुपऐ दिऐ। तब आठ आने यानी 50 पैंसे में अच्छा खाना मिल जाता था। काठगोदाम तक साथ में एक आदमी भेजा, और रास्ते के बारे में बताकर अकेले सियालकोट भेज दिया। मैंने उससे पूर्व ट्रेन क्या बस भी नहीं देखी थी, पर मैं निर्भीक होकर रुपऐ ले खुशी-खुशी चल पड़ा।
ट्रेन से पहले बरेली, वहां से ट्रेन बदलकर मुरादाबाद, और वहां से एक और ट्रेन बदलकर सीधे सियालकोट पहुंच गया। वहां गर्मी के दिन थे, पहुंचते ही पोस्टिंग ले ली। तुरन्त मलेशिया की बनी नई ड्रेस मिल गई। अपने इलाके के और रिक्रूट मिल गऐ। मुझे देखकर खुश हो गऐ। मैं उनसे अधिक उम्र का था, और डील डौल में भी बड़ा, लिहाजा पहुंचते ही उन्होंने मेरी अच्छी सेवा की। वहां हिन्दू और मुस्लिम हर तरह के सिपाही थे, सबमें अच्छा दोस्ताना था। बस दोनों की ‘खाने की मेस’ अलग-अलग होती थी। छह माह के भीतर गोलियां चलाने की ट्रेनिंग शुरू हो गई। इस हेतु 600 गज में चॉंदमारी (गोलियां चलाने की ट्रेनिंग का स्थान) बनाई गई थी। मैंने जिन्दगी में पहला फायर झोंका, बिल्कुल निशाने पर। अंग्रेज अफसर से शाबासी मिली। फिर दूसरा, तीसरा.....कर पूरे दस, सब के सब ठीक निशाने पर। साथियों और अफसरों में मैं हीरो हो गया। सबसे शाबासी मिली। मेरा खयाल रखा जाने लगा। लेकिन फौज में एक वर्ष ही हुआ होगा, कि आजाद हिन्द फौज के सिपाही आ गऐ। अंग्रेजों के उनके सामने पांव उखड़ गऐ। लिहाजा, हमारी ‘फौज’ टूट गई। आजादी का वक्त आ गया। हमसे कहा गया कि ‘सेकेण्ड कुमाऊं रेजीमेंट’ खुल गई है। वहां चले जाओ। सीधे घर जाने पर 120 रुपऐ मिलने थे, और ‘सेकेण्ड कुमाऊं रेजीमेंट’ में जाने पर यह 120 रुपऐ खोने का खतरा था। तब अक्ल भी नहीं हुई। 120 रुपऐ बहुत होते थे, घर की परिस्थितियां भी याद आईं। लालच में आ गया। सीधे घर चला आया। 120 रुपऐ से गांव में चाचा की जमीन खरीद ली, जबकि शान्तिपुरी भाबर में 210 रुपऐ में 120 नाली जमीन और जंगल काटने के लिए हथियार मिल रहे थे। लेकिन अपनी मिट्टी के प्यार ने वहां भी नहीं जाने दिया। तभी से अपनी मिट्टी को थामे हुऐ पहाड़ में जमा हुआ हूं। 
(दादाजी स्वर्गीय श्री देवी दत्त जोशी जी से बातचीत के आधार पर, वह गत 8 अगस्त 2013 को मोक्ष को प्राप्त हो गए ) -नवीन जोशी, नैनीताल।

सम्बंधित लेख: http://uttarakhandsamachaar.blogspot.in/2013/08/blog-post_11.html

Sunday, May 26, 2013

बिनसर: प्रकृति की गोद में प्रभु का अनुभव

कत्यूरी राजाओं द्वारा निर्मित बिन्सर महादेव मंदिर
देवभूमि उत्तराखंड के कण-कण में देवत्व का वास कहा जाता है। यह देवत्व ऐसे स्थानों पर मिलता है जहां नीरव शांति होती है, और यदि ऐसे शांति स्थल पर प्रकृति केवल अपने प्राकृतिक स्वरूप में यानी मानवीय हस्तक्षेप रहित रूप में मिले तो क्या कहने। जी हां, ऐसा ही स्थल है-बिन्सर। जहां प्रकृति की गोद में बैठकर प्रभु को आत्मसात करने का अनुभव लिया जा सकता है। 
अल्मोड़ा जनपद मुख्यालय से करीब 35 किमी की दूरी पर बागेश्वर मोटर मार्ग पर बिन्सर समुद्र सतह से अधिकतम 2450 मीटर की ऊंचाई (जीरो पॉइंट) पर स्थित प्रकृति और प्रभु से एक साथ साक्षात्कार करने का स्थान है। प्रकृति से इतनी निकटता के मद्देनजर ही 1988 में इस 47.07 वर्ग किमी क्षेत्र को बिन्सर वन्य जीव विहार के रूप में संरक्षित किया गया, जिसके फलस्वरूप यहां प्रकृति बेहद सीमित मानवीय हस्तक्षेप के साथ अपने मूल स्वरूप में संरक्षित रह पाई है। इसी कारण इसे उत्तराखंड के ऐसे सुंदरतम पर्वतीय पर्यटक स्थलों में शुमार किया जाता है। यही कारण है कि अल्मोड़ा-बागेश्वर मोटर मार्ग से करीब 13 किमी के कठिन व कुछ हद तक खतरनाक सड़क मार्ग की दूरी और बिजली, पानी व दूरसंचार की सीमित सुविधाओं के बावजूद हर वर्ष देश ही नहीं दुनिया भर से हजारों की संख्या में सैलानी यहां पहुंचते हैं, और पकृति की नेमतों के बीच कई-कई दिन तक ऐसे खो जाते हैं, कि वापस लौटने का दिल ही नहीं करता। यहां सैकड़ों दुर्लभ वन्य जीवों, वनस्पतियों व परिंदों की प्रजातियों के साथ ही हिमालय की करीब 300 किमी लंबी पर्वत श्रृंखलाओं के एक साथ अकाट्य दर्शन होते हैं, तो 13वीं शताब्दी में कत्यूरी राजाओं द्वारा निर्मित बिन्सर महादेव मंदिर में हिमालयवासी महादेव शिव अष्टभुजा माता पार्वती के साथ दर्शन देते हैं। उत्तराखंड का राज्य बुरांश यहां चीड़, काफल, बांज, उतीस, मोरु, खरसों, तिलोंज व अयार के साथ ही देवदार की हरीतिमा से भरे जंगलों को अपने लाल सुर्ख फूलों से ‘जंगल की ज्वाला’ में तब्दील कर देता है, तो राज्य पक्षी मोनाल भी कठफोड़वा, कलीज फीजेंट, चीड़ फीजेंट, कोकलास फीजेंट, जंगली मुर्गी, गौरैया, लमपुछड़िया, सिटौला, कोकलास, गिद्ध, फोर्कटेल, तोता व काला तीतर आदि अपने संगी 200 से अधिक पक्षी प्रजातियों के साथ यदा-कदा दिख ही जाता है। करीब 40 प्राकृतिक जल श्रोतों वाले बिन्सर क्षेत्र में असंख्य वृक्ष प्रजातियों के साथ नैर जैसी सुंगधित वनस्पति भी मिलती है, जिससे हवन-यज्ञ में प्रयुक्त की जाने वाली धूप निर्मित की जाती है, और यह राज्य पशु कस्तूरा मृग का भोजन भी मानी जाती है। कस्तूरा की कुंडली में बसने वाली बहुचर्चित कस्तूरी और शिलाजीत जैसी औषधियां भी यहां पाई जाती हैं। कस्तूरा के साथ ही यहां तेंदुआ, काला भालू, गुलदार, साही, हिरन प्रजाति के घुरल, कांकड़, सांभर, सरों, चीतल, जंगली बिल्ली, सियार, लोमड़ी, जंगली सुअर, बंदर व लंगूरों के साथ गिलहरी आदि की दर्जनों प्रजातियां भी यहां मिलती हैं। बिन्सर जाते हुए गर्मियों में खुमानी, पुलम, आड़ू व काफल जैसे लजीज पहाड़ी फलों का स्वाद लिया जा सकता है। काफल के साथ हिसालू व किल्मोड़ा जैसे फल बिन्सर की ओर जाते हुए सड़क किनारे लगे पेड़ों-झाड़ियों से मुफ्त में ही प्राप्त किए जा सकते हैं। अपनी इन्हीं खूबियों के कारण शहरों की भीड़-भाड़ से दूर प्रकृति की गोद में स्वयं को सोंप देने के इच्छुक लोगों के लिए बिन्सर सबसे बेहतर स्थान है।
बिन्सर में नेचर वॉक
यूं पहाड़ों पर सैलानी गर्मियों के अवकाश में मैदानी गर्मी से बचकर पहाड़ों पर आते हैं, किंतु इस मौसम में प्रकृति में छायी धुंध कुछ हद तक दूर के सुंदर दृश्यों को देखने में बाधा डालकर आनंद को कम करने की कोशिश करती है, बावजूद बिन्सर में करीब में भी प्रकृति के इतने रूपों में दर्शन होते हैं कि इसकी कमी नहीं खलती। इस मौसम में भी यहां बुरांश के खिले फूलों को देखा जा सकता है, अलबत्ता अब तक वह कुछ हद तक सूख चुके होते हैं। गर्मियों से पूर्व बसंत के मार्च-अप्रैल और बरसात के बाद सितंबर-अक्टूबर यहां आने के लिए सर्वश्रेष्ठ समय हैं। इस मौसम में यहां से हिमालय पर्वत की केदारनाथ, कर्छकुंड, चौखम्भा, नीलकंठ, कामेत, गौरी पर्वत, हाथी पर्वत, नन्दाघुंटी, त्रिशूल, मैकतोली (त्रिशूल ईस्ट), पिण्डारी, सुन्दरढुंगा ग्लेशियर, नन्दादेवी, नन्दाकोट, राजरम्भा, लास्पाधूरा, रालाम्पा, नौल्पू व पंचाचूली तक की करीब 300 किमी लंबी पर्वत श्रृंखलाओं का एक नजर घुमाकर ‘बर्ड आई व्यू’ सरीखा अटूट नजार लिया जा सकता है। कमोबेस बादलों की ऊंचाई में होने के कारण बरसात सहित अन्य मौसम में बादल भी यहां कौतूहल के साथ सुंदर नजारा पेश करते हैं। 
 कुमाऊं मंडल विकास निगम का पर्यटक आवास गृह
आवास के लिए यहां कुमाऊं मंडल विकास निगम का 2300 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पर्यटक आवास गृह (टूरिस्ट रेस्ट हाउस) सर्वाधिक बेहतर सुविधाएं उपलब्ध कराता है। यहां करीब चार किमी दूर बिन्सर महादेव मंदिर के पास से मोटर की मदद से उठाकर पानी तथा जनरेटर की मदद से शाम को छह से नौ बजे तक बिजली की रोशनी भी उपलब्ध कराया जाता है। रेस्ट हाउस की टैरेस नुमा छत में बैठकर सुबह सूर्योदय एवं हिमालय की चोटियों तथा प्रकृति के दिलकश नजारे लिए जा सकते हैं। ‘नेचर वॉक’ करते हुए आधा किमी की दूरी पर स्थित सन सेट पॉइंट से शाम को सूर्यास्त के तथा करीब दो किमी की दूरी पर स्थित ‘जीरो पाइंट’ से हिमालय की चोटियों एवं दूर-दूर तक की पहाड़ी घाटियों और कुमाऊं की चोटियों का नजारा लिया जा सकता है। बिन्सर जाने की राह में चार किमी पहले 13वीं शताब्दी में बना बिन्सर महादेव मंदिर अपनी प्राकृतिक सुषमा एवं कत्यूरी शिल्प व मंदिर कला के कारण ध्यान आकृष्ट करता है। ध्यान-योग के लिए यह बेहद उपयुक्त स्थान है। मंदिर के पास की कोठरी में वर्ष भर प्रभु के भक्त पास ही के वन से प्राप्त वनस्पतियों से तैयार सुगंधित धूप की महक के साथ हवन-यज्ञ, ध्यान-साधना करते रहते हैं। मंदिर के बारे में कहा जाता है कि चंद राजाओं ने एक रात्रि में ही इसका निर्माण किया था। करीब 800 वर्षों के उपरांत भी बिना खास देखभाल के ठीक-ठाक स्थिति में मौजूद मंदिर इसके स्थापकों की समृद्ध भवन और मंदिर स्थापत्य कला एवं कर्तव्यनिष्ठा की प्रशंषा को मजबूर करता है। पास में एक प्राकृतिक नौला यानी स्वच्छ एवं मिनरल वाटर सरीखा प्राकृतिक रूप से शुद्ध पानी का चश्मा तथा सामने विशाल मैदान भी अपनी खूबसूरती के साथ मौजूद हैं। यहां मैरी बडन व खाली इस्टेट भी स्थित हैं।

Sunday, March 17, 2013

इस साल समय पर खिला राज्य वृक्ष बुरांश, क्या ख़त्म हुआ 'ग्लोबलवार्मिंग' का असर ?


नवीन जोशी, नैनीताल। राज्य वृक्ष बुरांश का छायावाद के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत ने अपनी मातृभाषा कुमाऊंनी में लिखी एकमात्र कविता में कुछ इस तरह वर्णन किया है 
‘सार जंगल में त्वि ज क्वे नहां रे क्वे नहां
फुलन छे के बुरूंश जंगल जस जलि जां।
सल्ल छ, दयार छ, पईं छ अयांर छ, 
पै त्वि में दिलैकि आग, 
त्वि में छ ज्वानिक फाग।
(बुरांश तुझ सा सारे जंगल में कोई नहीं है। जब तू फूलता है, सारा जंगल मानो जल उठता है। जंगल में और भी कई तरह के वृक्ष हैं पर एकमात्र तुझमें ही दिल की आग और यौवन का फाग भी मौजूद है।) 
कवि की कल्पना से बाहर निकलें, तो भी बुरांश में राज्य की आर्थिकी, स्वास्थ्य और पर्यावरण सहित अनेक आयाम समाहित हैं। अच्छी बात है कि इस वर्ष बुरांश अपने निश्चित समय यानी चैत्र माह के करीब खिला है, इससे इस वृक्ष पर ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव पड़ने की चिंताओं पर भी कुछ हद तक विराम लगा है। प्रदेश में 1,200 से 4,800 मीटर तक की ऊंचाई वाले करीब एक लाख हैक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल में सामान्यतया लाल के साथ ही गुलाबी, बैंगनी और सफेद रंगों में मिलने वाला और चैत्र (मार्च-अप्रैल) में खिलने वाला बुरांश बीते वर्षों में पौष-माघ (जनवरी-फरवरी) में भी खिलने लगा था। इस आधार पर इस पर ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का सर्वाधिक असर पड़ने को लेकर चिंता जताई जाने लगी थी। हालांकि कोई वृहद एवं विषय केंद्रित शोध न होने के कारण इस पर दावे के साथ कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती, लेकिन डीएफओ डा. पराग मधुकर धकाते कहते हैं कि हर फूल को खिलने के लिए एक विशेष ‘फोटो पीरियड’ यानी एक खास रोशनी और तापमान की जरूरत पड़ती है। यदि किसी पुष्प वृक्ष को कृत्रिम रूप से भी यह जरूरी रोशनी व तापमान दिया जाए तो वह समय से पूर्व खिल सकता है। 

बहुगुणी है बुरांश: बुरांश राज्य के मध्य एवं उच्च मिालयी क्षेत्रों में ग्रामीणों के लिए जलौनी लकड़ी व पालतू पशुओं को सर्दी से बचाने के लिए बिछौने व चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है, वहीं मानव स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से इसके फूलों का रस शरीर में हीमोग्लोबिन की कमी को दूर करने वाला, लौह तत्व की वृद्धि करने वाला तथा हृदय रोगों एवं उच्च रक्तचाप में लाभदायक होता है। इस प्रकार इसके जूस का भी अच्छा-खासा कारोबार होता है। अकेले नैनीताल के फल प्रसंस्कण केंद्र में प्रति वर्ष करीब 1,500 लीटर जबकि प्रदेश में करीब 2 हजार लीटर तक जूस निकाला जाता है। हालिया वर्षों में सड़कों के विस्तार व गैस के मूल्यों में वृद्धि के साथ ग्रामीणों की जलौनी लकड़ी पर बड़ी निर्भरता के साथ इसके बहुमूल्य वृक्षों के अवैध कटान की खबरें भी आम हैं।

यह भी पढ़ें : `जंगल की ज्वाला´ संग मुस्काया पहाड़..
कफुवा , प्योंली संग मुस्काया शरद, बसंत शंशय में

Sunday, September 9, 2012

हिमालय सा व्यक्तित्व और दिल में बसता था पहाड़

लखनऊ, दिल्ली की रसोई में भी कुमाऊंनी भोजन बनता था 

पर्वतीय लोगों से अपनी बोली- भाषा में करते थे बात 
नवीन जोशी नैनीताल। देश की आजादी के संग्राम और आजादी के बाद देश को संवारने में अपना अप्रतिम योगदान देने वाले उत्तराखंड के लाल भारतरत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत का व्यक्तित्व हिमालय जैसा विशाल था। वह राष्ट्रीय फलक पर सोचते थे, लेकिन दिल में पहाड़ ही बसता था। उन्हें पहाड़ और पहाड़वासियों से अपार स्नेह था। पंत आज के नेताओं के लिए भी मिसाल हैं। वे महान ऊंचाइयों तक पहुंचने के बावजूद अपनी जड़ों से हमेशा जुड़े रहे और स्वार्थ की भावना से कहीं ऊपर उठकर अपने घर से विकास की शुरूआत की। उनके घर में आम कुमाऊंनी रसोई की तरह ही भोजन बनता था और आम पर्वतीय ब्राह्मणों की तरह वे जमीन पर बैठकर ही भोजन करते थे। पं. पंत के करीबी रहे नगर के वयोवृद्ध किशन लाल साह ‘कोनी’ ने 125वीं जयंती की पूर्व संध्या पर पं. पंत के नैनीताल नगर से जुड़ी यादों को से साझा किया। 
श्री साह 1952 में युवा कांग्रेस का गठन होते ही नैनीताल संयुक्त जनपद के पहले जिला अध्यक्ष बने। श्री साह बताते हैं कि 1945 से पूर्व संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री (प्रीमियर) रहने के दौरान तक पं. पंत तल्लीताल नया बाजार क्षेत्र में रहते थे। यहां वर्तमान क्लार्क होटल उस समय उनकी संपत्ति था। यहीं रहकर उनके पुत्र केसी पंत ने नगर के सेंट जोसफ कालेज से पढ़ाई की। वह अक्सर यहां तत्कालीन विधायक श्याम लाल वर्मा, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इंद्र सिंह नयाल, दलीप सिंह कप्तान आदि के साथ बी. दास, श्याम लाल एंड सन्स, इंद्रा फाम्रेसी, मल्लीताल तुला राम आदि दुकानों में बैठते और आजादी के आंदोलन और देश के हालातों व विकास पर लोगों की राय सुनते, सुझाव लेते, र्चचा करते और सुझावों का पालन भी करते थे।
बाद में वह फांसी गधेरा स्थित जनरल वाली कोठी में रहने लगे। यहीं से केसी पंत का विवाह बेहद सादगी से नगर के बिड़ला विद्या मंदिर में बर्शर के पद पर कार्यरत गोंविद बल्लभ पांडे ‘गोविंदा’ की पुत्री इला से हुआ। केसी पूरी तरह कुमाऊंनी तरीके से सिर पर मुकुट लगाकर और डोली में बैठकर दुल्हन के द्वार पहुंचे थे। इस मौके पर आजाद हिंद फौज के सेनानी रहे कैप्टन राम सिंह ने बैंड वादन किया था। आजादी के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए वे पंत सदन (वर्तमान उत्तराखंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का आवास) में रहे, जोकि मूलत: रामपुर के नवाब की संपत्ति था और इसे अंग्रेजों ने अधिग्रहीत किया था। साह बताते हैं कि वह जब भी उनके घर जाते, उनकी माताजी पर्वतीय दालों भट, गहत आदि लाने के बारे में पूछतीं और हर बार रस- भात बनाकर खिलाती थीं।
उनके लखनऊ के बदेरियाबाग स्थित आवास पर पहाड़ से जो लोग भी पहुंचते, पंत उनके भोजन व आवास की स्वयं व्यवस्था कराते थे और उनसे कुमाऊंनी में ही बात करते थे। उनका मानना था कि पहाड़ी बोली हमारी पहचान है। वह अन्य लोगों से भी अपनी बोली-भाषा में बात करने को कहते थे। साह पं. पंत की वर्तमान राजनेताओं से तुलना करते हुए कहते हैं कि पं. पंत के दिल में जनता के प्रति दर्द था, जबकि आज के नेता नितांत स्वार्थी हो गये हैं। पंत में सादगी थी, वह लोगों के दुख-दर्द सुनते और उनका निदान करते थे। वह राष्ट्रीय स्तर के नेता होने के बावजूद अपनी जड़ों से जुड़े हुए थे। उन्होंने नैनीताल जनपद में ही पंतनगर कृषि विवि की स्थापना और तराई में पाकिस्तान से आये पंजाबी विस्थापितों को बसाकर पहाड़ के आँगन को हरित क्रांति से लहलहाने सहित अनेक दूरगामी महत्व के कार्य किये। 

पन्त के जीवन के कुछ अनछुवे पहलू 

राष्ट्रीय नेता होने के बावजूद पं. पंत अपने क्षेत्र-कुमाऊं, नैनीताल से जुड़े रहे। केंद्रीय गृह मंत्री और संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री रहते हुई भी वह स्थानीय इकाइयों से जुड़े रहे। उनकी पहचान बचपन से लेकर ताउम्र कैसी भी विपरीत परिस्थितियों में सबको समझा-बुझाकर साथ लेकर चलने की रही। कहते हैं कि बचपन में वह मोटे बालक थे, वह कोई खेल भी नहीं खेलते थे, एक स्थान पर ही बैठे रहते थे, इसलिए बचपन में वह 'थपुवा" कहे जाते थे। लेकिन वे पढ़ाई में होशियार थे। कहते हैं कि गणित के एक शिक्षक ने कक्षा में प्रश्न पूछा था कि 30 गज कपड़े को यदि हर रोज एक मीटर काटा जाए तो यह कितने दिन में कट जाएगा, जिस पर केवल उन्होंने ही सही जवाब दिया था-29 दिन, जबकि अन्य बच्चे 30 दिन बता रहे थे। अलबत्ता, इस दौरान उनका काम खेल में लड़ने वाले बालकों का झगड़ा निपटाने का रहता था। उनकी यह पहचान बाद में गोपाल कृष्ण गोखले की तरह तमाम विवादों को निपटाने की रही। संयुक्त प्रांत का प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते वह रफी अहमद किदवई सरीखे अपने आलोचकों और अनेक जाति-धर्मों में बंटे इस बड़े प्रांत को संभाले रहे और यहां तक कि केंद्रीय गृह मंत्री रहते 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौर में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू अपने चीनी समकक्ष चाऊ तिल लाई से बात नहीं कर पा रहे थे, तब पं पंत ही थे, जिन्होंने चाऊलाई को काबू में किया था। इस पर चाऊलाई ने उनके लिए कहा था-भारत के इस सपूत को समझ पाना बड़ा मुश्किल है। अलबत्ता, वह कुछ गलत होने पर विरोध करने से भी नहीं हिचकते थे। कहते हैं कि उन्होंने न्यायाधीश से विवाद हो जाने की वजह से अल्मोड़ा में वकालत छोड़ी और पहले रानीखेत व फिर काशीपुर चले गए। इस दौरान एक मामले में निचली अदालत में जीतने के बावजूद उन्होंने सेशन कोर्ट में अपने मुवक्किल का मुकदमा लड़ने से इसलिए इंकार कर दिया था कि उसने उन्हें गलत सूचना दी थी, जबकि वह दोषी था।
राजनीति और संपन्नता उन्हें विरासत में मिली थी। उनके नाना बद्री दत्त जोशी तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर सर हेनरी रैमजे के अत्यधिक निकटस्थ सदर अमीन के पद पर कार्यरत थे, और उनके दादा घनानंद पंत टी-स्टेट नौकुचियाताल में मैनेजर थे। कुमाऊं परिषद की स्थापना 1916 में उनके नैनीताल के घर में ही हुई थी। प्रदेश के नया वाद, वनांदोलन, असहयोग व व्यक्तिगत सत्याग्रह सहित तत्कालीन समस्त आंदोलनों में वह शामिल रहे थे। अलबत्ता कुली बेगार आंदोलन में उनका शामिल न होना अनेक सवाल खड़ा करता है। इसी तरह उन्होंने गृह मंत्री रहते देश की आजादी के बाद के पहले राज्य पुर्नगठन संबंधी पानीकर आयोग की रिपोर्ट के खिलाफ जाते हुए हिमांचल प्रदेश को संस्कृति व बोली-भाषा का हवाला देते हुए अलग राज्य बनवा दिया, लेकिन वर्तमान में कुमाऊं आयुक्त अवनेंद्र सिंह नयाल के पिता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इंद्र सिंह नयाल के इसी तर्ज पर उत्तराखंड को भी अलग राज्य बनाने के प्रस्ताव पर बुरी तरह से यह कहते हुए डपट दिया था कि ऐसा वह अपने जीवन काल में नहीं होने देंगे। आलोचक कहते हैं कि बाद में पंडित नारायण दत्त तिवारी (जिन्होंने भी उत्तराखंड मेरी लाश पर बनेगा कहा था) की तरह वह भी नहीं चाहते थे कि उन्हें एक अपेक्षाकृत बहुत छोटे राज्य के मुख्यमंत्री के बारे में इतिहास में याद किया जाए।  1927 में साइमन कमीशन के विरोध में उन्होंने जवाहर लाल नेहरू को बचाकर लाठियां खाई थीं। इस पर भी आलोचकों का कहना है कि ऐसा उन्होंने नेहरू के करीब आने और ऊंचा पद प्राप्त करने के लिए किया। 1929 में वारदोली आंदोलन में शामिल होकर महात्मा गांधी के निकटस्थ बनने तथा 1925 में काकोरी कांड के भारतीय आरोपितों के मुकदमे कोर्ट में लड़ने जैसे बड़े कार्यों से भी उनका कद बढ़ा था।

वास्तव में 30 अगस्त है पं. पंत का जन्म दिवस 
नैनीताल। पं. पंत का जन्म दिन हालांकि हर वर्ष 10 सितम्बर को मनाया जाता है, लेकिन वास्तव में उनका जन्म 30 अगस्त 1887 को अल्मोड़ा जिले के खूंट गांव में हुआ था। वह अनंत चतुर्दशी का दिन था। प्रारंभ में वह अंग्रेजी माह के बजाय हर वर्ष अनंत चतुर्दशी को अपना जन्म दिन मनाते थे। 1946 में अनंत चतुर्दशी यानी जन्म दिन के मौके पर ही वह संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री बने थे, यह 10 सितम्बर का दिन था। इसके बाद उन्होंने हर वर्ष 10 सितम्बर को अपना जन्म दिन मनाना प्रारंभ किया।
भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत के बारे में और अधिक जानकारी यहाँ भी पढ़ सकते हैं।  

Friday, April 27, 2012

इतिहास बन जायेंगे कुमाऊँ-गढ़वाल



पुलिस के कुमाऊं-गढ़वाल परिक्षेत्र समाप्त होने के बाद अब दोनों कमिश्नरी समाप्त किये जाने के लगाए जा रहे कयास

नवीन जोशी नैनीताल। प्रदेश के प्राचीन ऐतिहांसिक पृष्ठभूमि वाले कुमाऊं व गढ़वाल मंडल  इतिहांस में दर्ज हो सकते हैं। प्रदेश सरकार ने राजनीतिक लाभ-हानि के लिहाज से अभी तक गढ़वाल और कुमाऊं परिक्षेत्र को समाप्त करने की अधिसूचना जारी नहीं की है मगर दोनों रेंजों को दो-दो हिस्सों में बांट दिया है, और दोनों रेंजों से आईजी स्तर के अधिकारियों को वापस राजधानी बुला लिया है। इस तरह राज्य की नई पुलिस व्यवस्था के लिहाज से गढ़वाल के बाद कुमाऊं परिक्षेत्र भी समाप्त हो गया है। अब प्रशासनिक विकेंद्रीकरण के नाम पर इन मंडलों की कमिश्नरी के टूटने के कयास लगाये जा रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि  प्रदेश के कुमाऊं व गढ़वाल अंचलों की अंग्रेजों से भी पूर्व भी ऐतिहासिक पहचान रही है।  कुमाऊं में अंग्रेजों से पूर्व कत्यूर, चंद, गोर्खा व गढ़वाल में पाल शासकों के दौर से अपनी ऐतिहांसिक पचान रही  है। कुमाऊं की ही बात karen तो यहाँ मंडल मुख्यालय नैनीताल से 1816  से ‘कुमाऊं किस्मत’ कही जाने वाली कुमाऊं कमिश्नरी की प्रशासनिक व्यवस्था देखी जाती थी। ‘कुमाऊं किस्मत’ के पास वर्तमान कुमाऊं अंचल के साथ ही अल्मोड़ा जिले के अधीन रहे गढ़वाल की अलकनंदा नदी के इस ओर के हिस्से की जिम्मेदारी भी थी। ब्रिटिश शासनकाल में डिप्टी कमिश्नर नैनीताल इस पूरे क्षेत्र की प्रशासनिक व्यवस्था देखते थे। आजादी के बाद 1957 तक यहां प्रभारी उपायुक्त व्यवस्था संभालते रहे। 1964 से नैनीताल में ही पर्वतीय परिक्षेत्र का मुख्यालय था। इसके अधीन पूरा वर्तमान उत्तराखंड यानी प्रदेश के दोनों कुमाऊं व गढ़वाल मंडल आते थे। एक जुलाई 1976 से पर्वतीय परिक्षेत्र से टूटकर कुमाऊं परिक्षेत्र अस्तित्व में आया। यह व्यवस्था अब समाप्त कर दी गई है। इसके साथ ही नैनीताल शहर से पूरे कुमाऊं मंडल का मुख्यालय होने का ताज छिनने की आशंका है। इससे लोगों में खासी बेचैनी है। नगर पालिका अध्यक्ष मुकेश जोशी का कहना है कि इससे निसंदेह मुख्यालय का महत्व घट जायगा। अब मंडल वासियों को मंडल स्तर के कार्य करने के लिए देहरादून जाना पड़ेगा, क्योंकि वरिष्ठ अधिकारी वहीं बैठेंगे। वरिष्ठ पत्रकार व राज्य आंदोलनकारी राजीव लोचन साह का कहना है कि वह छोटे से प्रदेश में मंडल या पुलिस जोन की व्यवस्था के ही खिलाफ हैं। नये मंडल केवल नौकरशाहों को खपाने के लिए बनाये जा रहे हैं।  
बहरहाल, खामोशी से कुमाऊँ व गढ़वाल मंडलों को तोड़ कर सरकार ने वही दोहराया है सियासतदां समस्याओं का निदान किस तरह से करते हैं। मर्ज को दूर करने के बजाय नये मर्ज दे दिये जाते हैं, ताकि पुराने मर्जों के दर्द लोग खुद-ब-खुद भूल जाऐं।