You'll Also Like

Showing posts with label congress. Show all posts
Showing posts with label congress. Show all posts

Monday, March 3, 2014

मुरली मनोहर जोशी और एनडी तिवारी बदल सकते हैं नैनीताल के चुनावी समीकरण !

-मोदी के लिए बनारस छो़ड़ नैनीताल आने का है मुरली मनोहर जोशी पर दबाव
-रोहित को पुत्र स्वीकारने के बाद राजनीतिक विरासत भी सोंप सकते हैं एनडी तिवारी
नवीन जोशी, नैनीताल। जी हां, अब तक कांग्रेस के राजकुमार केसी सिंह ‘बाबा’ के कब्जे वाली नैनीताल-ऊधमसिंहनगर संसदीय सीट एक बार फिर प्रदेश की सबसे बड़ी वीवीआईपी व हॉट सीट हो सकती है। अभी भले यहां कांग्रेस से बाबा या राहुल गांधी के खास प्रकाश जोशी तथा भाजपा से पूर्व सीएम भगत सिंह कोश्यारी, बची सिंह रावत और बलराज पासी में से किसी के लोक सभा चुनाव लड़ने के भी चर्चे हों, लेकिन बेहद ताजा राजनीतिक घटनाक्रमों को देखा जाए तो इस सीट से भाजपा अपने त्रिमूर्तियों में शुमार मुरली मनोहर जोशी को चुनाव मैदान में उतार सकती है। जोशी को इस हेतु मनाया जा रहा है। वहीं पूर्व सीएम एनडी तिवारी अपने जैविक पुत्र रोहित शेखर को स्वीकारने के बाद यहां से अपनी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की कोशिश कर सकते हैं। उनके जल्द ही संसदीय क्षेत्र का तीन दिवसीय कार्यक्रम भी तय बताया जा रहा है।
देश के बदले राजनीतिक हालातों में यूपी भाजपा के मिशन-272 प्लस की मुख्य धुरी माना जा रहा है। भाजपा मान रही है कि ‘मुजफ्फरनगर’ के हालिया हालातों और कल्याण सिंह व उनकी पार्टी के औपचारिक तौर पर पार्टी में आने के बाद पश्चिमी यूपी में भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण होना तय हो गया है। मध्य यूपी में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व उपाध्यक्ष राहुल गांधी का प्रभाव क्षेत्र मानते हुए भाजपा जबरन बहुत जोर लगाने के पक्ष में नहीं है, ऐसे में पूवी यूपी को साधने के लिए भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के लिए मुरली मनोहर जोशी की बनारस सीट खाली कराने का न केवल पार्टी वरन संघ की ओर से भी भारी दबाव अब खुलकर सामने आ गया है। दूसरी ओर जोशी लोस चुनाव लड़ने पर अढ़े हुए हैं। ऐसे में उन्हें काफी समय से नैनीताल सीट के लिए मनाये जाने की चर्चाएं अब सतह पर आने लगी हैं। गौरतलब है कि जोशी मूलतः उत्तराखंड के ही अल्मोड़ा के निवासी हैं, और 1977 में भारतीय लोकदल से अल्मोड़ा के सांसद रह चुके हैं। उनके नैनीताल आने की सूरत में माना जा रहा है कि पार्टी के यहां से तीन प्रबल दावेदार भगत सिंह कोश्यारी, बची सिंह रावत व बलराज पासी के होने की वजह से उठ रही भितरघात की संभावनाएं क्षींण हो जाएंगी। वह नैनीताल से भली प्रकार वाकिफ भी हैं, और संसदीय क्षेत्र में ब्राह्मण मतों का ध्रुवीकरण भी कर सकते हैं, लिहाजा वह नैनीताल के लिए मान भी सकते हैं। भाजपा के लिए नैनीताल का संसदीय इतिहास भी बेहतर नहीं रहा है। यहां भाजपा के केवल बलराज पासी 1991 की रामलहर ओर  इला पंत 1998 में जीते भी तो जीत का अंतर करीब महज नौ और 12 हजार मतों का ही रहा, और आगे बाबा इस अंतर को कांग्रेस के पक्ष में बढ़ाते हुए 2004 में 40 हजार और 2009 में 88 हजार कर चुके हैं। ऐसे में यह सीट भाजपा के लिए कठिन है और इसे पार्टी का कोई हैवीवेट प्रत्याशी ही पाट सकता है।
दूसरी ओर एनडी तिवारी के लिए यह सीट 1980 से अपनी सी रही है। तिवारी ने यहां से 1980 में जीत हासिल की, 84 में उनके खास सत्येंद्र चंद्र गु़िड़या जीते और आगे 1996 में तिवारी ने अपनी तिवारी कांग्रेस के टिकट पर तथा 99 में पुनः कांग्रेस से जीत हासिल की। उल्लेखनीय है कि तिवारी हाल में कांग्रेस पार्टी में रहते हुए भी सपा से नजदीकी बढ़ा चुके हैं, और ताजा घटनाक्रम में उन्होंने रोहित शेखर को एक दशक लंबी चली कानूनी लड़ाई के बाद अपना पुत्र मान लिया है। उनका तीन दिवसीय नैनीताल दौरा तीन जनवरी से तय भी हो गया था। ऐसे में आने वाले कुछ दिन इस संसदीय सीट पर नए गुल भी खिला सकते हैं।

रावत, तिवारी, जोशी का भी अलग राजनीतिक त्रिकोण

नैनीताल। हालांकि यह अभी राजनीतिक भविष्य के गर्भ में है, लेकिन अटकलें सही साबित हुईं तो उत्तराखंड में हरीश रावत, एनडी तिवारी और मुरली मनोहर जोशी का अलग राजनीतिक त्रिकोण भी चर्चाओं में रहना तय है। रावत और तिवारी का संघर्ष हमेशा से प्रदेश की राजनीति में दिखता रहा है। 2002 में तिवारी के नेतृत्व वाली तिवारी सरकार के पूरे कार्यकाल में यह संघर्ष खुलकर नजर आया। रावत जिस तरह तिवारी को परेशान किए रहे, ऐसे में रावत की ताजपोशी तिवारी को कितना रास आ रही होगी, समझना आसान है। वहीं रावत एवं जोशी के बीच उनके मूल स्थान अल्मोड़ा में 1980 से जंग शुरू हुई थी, जब युवा रावत ने तब के सिटिंग सांसद जोशी को 80 और 84 के लगातार दो चुनावों में हराकर अल्मोड़ा छोड़ने पर ही मजबूर कर दिया था।
यह भी पढ़ें: तिवारी के बहाने 

Wednesday, February 26, 2014

यह क्या अजीबोगरीब हो रहा हरीश सरकार में !

हरीश रावत के आते ही तीन 'रावत' निपटे 
उत्तराखंड में जब से हरीश रावत के नेतृत्व में सरकार बनी है, बहुत कुछ अजीबोगरीब हो रहा है। विरोधियों को 'विघ्नसंतोषी' कहने और उनसे निपटने में महारत रखने वाले रावत के खिलाफ मुंह खोल रहे और खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बता रहे तीन रावत (सतपाल, अमृता और हरक) निपट चुके हैं। सतपाल व अमृता के खिलाफ विपक्ष ने अपने परिजनो को पॉलीहाउस बांटने में घोटाले का आरोप लगाया, और सीबीआई जांच की मांग उठाई है। हरक का नाम दिल्ली की लॉ इंटर्न ने छेड़खानी का मुक़दमा दर्ज कराकर ख़राब कर दिया है। बचा-खुचा नाम भाजपाई हरक को 'बलात्कारी हरक सिंह रावत' बताकर और उनका पुतला फूंक कर ख़राब करने में जुट गए हैं। रावत ने पहले ही उनके पसंदीदा कृषि महकमे की एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी गैर विधायक तिलक राज बेहड़ को मंत्री के दर्जे के साथ देकर जोर का झटका धीरे से दे दिया था। विपक्ष के 'मुंहमांगे' से अविश्वाश प्रस्ताव से हरीश सरकार पहले ही छह मांह के लिए पक्की हो ही चुकी है। अब यह समझने वाली बात है कि विरोधी खुद-ब-खुद निपट रहे और रावत की राह स्वतः आसान होती जा रही है कि यह रावत के राजनीतिक या कूटनीतिक कौशल का कमाल है। 

माँगा गाँव-मिला शहर  

हरीश रावत सरकार आसन्न त्रि-स्तरीय पंचायत व लोक सभा चुनावों की चुनावी बेला में अनेक अनूठी चीजें कर रही हैं। अचानक राज्य के सब उत्तराखंडी लखपति हो गए हैं। सरकार ने बताया है, राज्य की प्रति व्यक्ति आय 1,12,000 रुपये से अधिक हो गयी है। सांख्यिकी विभाग ने आंकड़ों की बाजीगरी कर कर सिडकुल में लगे चंद उद्योगों के औद्योगिक घरानों की आय राज्य की जीडीपी में जोड़कर यह कारनामा कर डाला है।
दूसरे संभवतया देश में ही ऐसा पहली बार हुआ है कि राज्य में पंचायत चुनावों की अधिसूचना 1 मार्च को और चुनाव आचार संहिता 2 मार्च से जारी होने वाली है और चुनावों के लिए नामांकन पत्रों की बिक्री इससे एक सप्ताह पहले 24 फरवरी से ही शुरू हो गयी है।
तीसरे राज्य के वन क्षेत्र सीधे ही शहर बन गए हैं। लालकुआ के पास पूरी तरह वन भूमि पर बसे बिन्दुखत्ता को राज्य कैबिनेट ने जनता की राजस्व गाँव घोषित करने की मांग से भी कई कदम आगे बढ़कर एक तरह के बिन मांगे ही स्वतंत्र रूप से नगर पालिका बनाने की घोषणा कर दी है, वहीँ इसी तरह के दमुवाढूंगा को सीधे हल्द्वानी नगर निगम का हिस्सा बनाने की घोषणा कर दी गयी है।

Thursday, February 6, 2014

कौन और क्या हैं हरीश रावत


रीश रावत उत्तराखंड में कांग्रेस के सबसे कद्दावर व मंझे हुए राजनेताओं में शामिल रहे हैं। अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत से ही जनता के दुलारे इस राजनेता का ऐसा आकर्षण था, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने सबसे कम उम्र में ब्लाक प्रमुख बनने का रिकार्ड बनाया। हालांकि बाद में निर्धारित से कम उम्र का होने के कारण उन्हें भिकियासेंण के ब्लाक प्रमुख के पद से इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेशों पर हटना पड़ा था। 1980 में अपने पहले संसदीय चुनाव में भाजपा के त्रिमूर्तियों में शुमार व तब भारतीय लोक दल से सांसद रहे मुरली मनोहर जोशी को पटखनी देकर हमेशा के लिए संसदीय क्षेत्र छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। वहीं 1989 के लोस चुनावों में उन्होंने उक्रांद के कद्दावर नेता व वर्तमान केंद्रीय अध्यक्ष काशी सिंह ऐरी और भाजपा के भगत सिंह कोश्यारी को बड़े अंतर से हराया। इस चुनाव में उन्हें 1,49,703, ऐरी को 1,38,902 और कोश्यारी को केवल 34,768 वोट मिले। अब इसे ‘देर आयद-दुरुस्त आयद’ ही कहा जाएगा कि रावत कोश्यारी से 12 वर्षों के बाद उत्तराखंड के आठवें मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे हैं।
27 अप्रैल 1947 को तत्कालीन उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा जिले के ग्राम मोहनरी पोस्ट चौनलिया में स्वर्गीय राजेंद्र सिंह रावत व देवकी देवी के घर जन्मे रावत की राजनीति यात्रा एलएलबी की पढ़ाई के लिए लखनऊ विश्व विद्यालय जाने से शुरू हुई। यहां वह रानीखेत के कांग्रेस विधायक व यूपी सरकार में कद्दावर मंत्री गोविंद सिंह मेहरा के संपर्क में आए, और उनकी पुत्री रेणुका से दूसरा विवाह किया। यहीं संजय गांधी की नजर भी उन पर पड़ी, जिन्होंने तभी उनमें भविष्य का नेता देख लिया था, और केवल 33 वर्ष के युवक हरीश को 1980 में कांग्रेस पार्टी का सक्रिय सदस्य बनाकर लोक सभा चुनावों में अल्मोड़ा संसदीय सीट से कांग्रेस-इंदिरा का टिकट दिलाने के साथ ही कांग्रेस सेवादल की जिम्मेदारी भी सोंप दी। इस चुनाव में एक छात्र हरीश ने गांव से निकले एक आम युवक की छवि के साथ तत्कालीन सांसद प्रो. मुरली मनोहर जोशी के विरुद्ध 50 हजार से अधिक मतों से बड़ी पटखनी देकर भारतीय राजनीति में एक नए नक्षत्र के उतरने के संकेत दे दिए। जोशी को मात्र 49,848 और रावत को 1,08,503 वोट मिले। आगे 1984 में भी उन्होंने जोशी को हराकर अल्मोड़ा सीट छोड़ने पर ही विवश कर दिया। 1989 के चुनावों में उक्रांद के कद्दावर नेता काशी सिंह ऐरी निर्दलीय और भगत सिंह कोश्यारी भाजपा के टिकट पर उनके सामने थे। यह चुनाव भी रावत करीब 11 हजार वोटों से जीते। रावत को 1,49,703, ऐरी को 1,38,902 और कोश्यारी को केवल 34,768 वोट मिले, और यही कोश्यारी रावत से 12 वर्ष पहले उत्तराखंड के दूसरे मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे। आगे वह युवा कांग्रेस व कांग्रेस की ट्रेड यूनियन के साथ ही 2000 से 2007 तक उत्तराखंड कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। इस बीच 2002 में वह राज्य सभा सांसद के रूप में भी संसद पहुंचे।
उत्तराखंड आंदोलन के दौर में भी हरीश रावत की प्रमुख भूमिका रही। उन्होंने उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति की स्थापना कर राज्य आंदोलन को आगे बढ़ाया, और राज्य की मजबूती के लिए उत्तराखंड को राज्य से पहले केंद्र शासित प्रदेश बनाने की मांग के साथ राज्य आंदोलन की बागडोर अपने हाथों में ले ली थी। आगे रामलहर के दौर में रावत भाजपा के नए चेहरे जीवन शर्मा से करीब 29 हजार वोटों से सीट गंवा बैठे। इसके साथ ही विरोधियों को मौका मिल गया, जो उनकी राजनीतिक छवि एक ब्राह्मण विरोधी छत्रिय नेता की बनाते चले गए, जिसका नुकसान उन्हें बाद में केंद्रीय मंत्री बने भाजपा नेता बची सिंह रावत से लगातार 1996, 1998 और 1999 में तीन हारों के रूप में झेलना पड़ा। 2004 के लोक सभा चुनावों में हरीश की पत्नी रेणुका को भी बची सिंह रावत ने करीब 10 हजार मतों के अंतर से हरा दिया। लेकिन यही असली राजनीतिज्ञ की पहचान होती है, कि वह विपरीत हालातों को भी अपने पक्ष में मोड़ने की काबीलियत रखता है। 2009 के चुनावों में रावत ने एक असाधारण फैसला करते हुए दूर-दूर तक संबंध रहित प्रदेश की हरिद्वार सीट से नामांकन करा दिया, जहां समाजवादी पार्टी से उनकी परंपरागत सीट रिकार्ड 3,32,235 वोट प्राप्त कर हासिल की गई जीत के साथ रावत का मंझे हुए राजनीतिज्ञ के रूप में राजनीतिक पुर्नजन्म हुआ। इसी जीत के बाद उन्हें केंद्र सरकार में पहले श्रम राज्यमंत्री बनाया गया, और आगे केंद्रीय मंत्रिमंडल में उनका कद बढ़ता चला गया। वर्ष 2011 में कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग में राज्य मंत्री तथा बाद में ससंदीय कार्य राज्य मंत्री बनाया गया, और 2012 में वह जल संसाधन मंत्रालय के कैबिनेट मंत्री बना दिए गए। इस दौरान वह लगातार विपक्ष के हमले झेल रही यूपीए सरकार और कांग्रेस पार्टी के ‘फेस सेवर’ की दोहरी जिम्मेदारी निभाते रहे। अनेक बेहद विषम मौकों पर जब पार्टी के कोई भी नेता मीडिया चैनलों पर आने से बचते थे, रावत एक ही दिन कई-कई मीडिया चैनलों पर अपनी कुशल वाकपटुता और तर्कों के साथ पार्टी और सरकार का मजबूती से बचाव करते थे। इस तरह वह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी के समक्ष उत्तराखंड के सबसे विश्वस्त और भरोसेमंद राजनेता बनने में सफल रहे। शायद इसी का परिणाम रहा कि 2002 और 2012 के विधानसभा चुनावों में पार्टी को प्रदेश में सत्ता तक पहुंचाने में सबसे प्रमुख भूमिका निभाने वाले हरीश रावत के राजनीतिक कौशल की हाईकमान अधिक दिनों तक अनदेखी नहीं कर पाया, और अब आगामी लोक सभा चुनावों के विपरीत नजर आ रहे हालातों में रावत के हाथों में ही संकटमोचक के रूप में उत्तराखंड राज्य की सत्ता सोंप दी गई है।
ऐसे में लगातार मुख्यमंत्री बदलने की छवि बना रहे 13 वर्षों के उत्तराखंड राज्य में आठवें मुख्यमंत्री के रूप में रावत की ताजपोशी कई मायनों में सुखद है। कमोबेश पहली बार ही राज्य के एक वास्तविक संघर्षशील, केंद्र से लेकर राज्य तक बेहतर संबंधों वाले, राज्य के जन-जन से आत्मीय और नजदीकी रिश्ता रखने वाले और मंझे हुए अनुभवी राजनेता को राज्य की कमान मिली है। वह पूरे प्रदेश और उसकी अच्छाइयों के साथ ही कमियों से भी वाकिफ हैं, तथा सत्ता पक्ष के साथ ही विपक्ष में भी उनकी बेहतर छवि है। मुख्यमंत्री बनते ही राज्य के दूरस्थ आपदाग्रस्त केदारघाटी और धारचूला क्षेत्र के लोगों के आंसू पोंछते हुए उन्होंने अपनी बेहतर कार्यशैली के संदेश भी दे दिए हैं।

स्याह पक्ष:

गांव में एक पत्नी के होते हुए रावत ने रेणुका से दूसरा विवाह किया। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान वह राज्य विरोधी रहे। इसी कारण 1989 के लोक सभा चुनावों के लिए उन्हें जनता के विरोध को देखते हुए अल्मोड़ा में नामांकन कराने के लिए भी चुपचाप अकेले आना पड़ा। लेकिन इस चुनाव में उक्रांद के काशी सिंह ऐरी को हराने के बाद राजनीतिक चालबाजी दिखाते हुए अचानक उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति का गठन कर खुद को राज्य आंदोलन से भी जोड़ लिया। हालांकि इस दौरान भी वह राज्य से पहले केंद्र शासित प्रदेश की मांग पर बल देते रहे। अल्मोड़ा के सांसद रहते वह ब्राह्मण विरोधी क्षत्रिय नेता बनते चले गए, जिसका खामियाजा उन्हें बाद में स्वयं की हार की तिकड़ी और पत्नी रेणुका की भी हार के साथ अल्मोड़ा छोड़ने के रूप में भुगतना पड़ा। आगे प्रदेश में पंडित नारायण दत्त तिवारी और विजय बहुगुणा सरकारों को लगातार स्वयं और अपने समर्थक विधायकों के भारी विरोध के निशाने पर रखा, और अपनी ब्राह्मण विरोधी क्षत्रिय नेता और सत्ता के लिए कुछ भी करने वाले नेता की छवि को आगे ही बढ़ाया। केंद्र में श्रम एवं सेवायोजन, कृषि एवं खाद्य प्रसंसकरण तथा जल संसाधन मंत्री रहे, लेकिन इन मंत्रालयों के जरिए प्रदेश के बेरोजगारों को रोजगार, कृषि व फल उत्पादों को बढ़ावा देने तथा जल संसाधनों के सदुपयोग की दिशा में उन्होंने एक भी उल्लेखनीय कार्य राज्य हित में नहीं किया।

मुख्यमंत्री हरीश रावत का राजनीतिक लेखा-जोखा 

चुनाव लोक सभा क्षेत्र         जीते                                                हारे
1980 अल्मोड़ा हरीश रावत-कांग्रेस-ई (108530) मुरली मनोहर जोशी-भाजपा(49848)
1884 अल्मोड़ा हरीश रावत-कांग्रेस (185006)         मुरली मनोहर जोशी-भाजपा(44674)
1989 अल्मोड़ा हरीश रावत-कांग्रेस (149703)         काशी सिंह ऐरी-निर्दलीय (138902)
1991 अल्मोड़ा जीवन शर्मा-भाजपा (149761)         हरीश रावत-कांग्रेस (120616)
1996 अल्मोड़ा बची सिंह रावत-भाजपा (161548) हरीश रावत-कांग्रेस (104642)
1998 अल्मोड़ा बची सिंह रावत-भाजपा (228414) हरीश रावत-कांग्रेस (146511)
1999 अल्मोड़ा बची सिंह रावत-भाजपा (192388)   हरीश रावत-कांग्रेस (180920)
2004 अल्मोड़ा बची सिंह रावत-भाजपा (225431)   रेणुका रावत-कांग्रेस (215568)
2009 हरिद्वार हरीश रावत -कांग्रेस (332235)        स्वामी यतींद्रानंद गिरि-भाजपा (204823)
(यह पोस्ट उत्तराखंड के नए मुख्यमंत्री के बारे में अधिकाधिक जानकारी देने के उद्देश्य से तैयार की गई है।)

यह भी पढ़ें: क्या अपना बोया काटने से बच पाएंगे हरीश रावत ?
कांग्रेस पार्टी और उनके नेताओं के सम्बन्ध में इस ब्लॉग पर और पढ़ें : यहां क्लिक कर के

Saturday, February 1, 2014

10 जनपथ की नाकामी अधिक है बहुगुणा की वापसी

उत्तराखंड में आयी दैवीय आपदा का आख़िरी पीड़ित
अपने दो वर्ष से भी कम समय में ही उत्तराखड की सत्ता से च्युत हुए विजय बहुगुणा की मुख्यमन्त्री पद से वापसी न केवल उनकी वरन 10 जनपथ की नाकामी अधिक है। 2010 के बाद दोबारा मार्च 2012 में विधायक दल की स्वाभाविक पसंद की अनदेखी के बावजूद उन्हें राज्य पर थोपे जाने  का ही नतीजा है कि बहुगुणा अपने कार्यकाल के पहले दिन से ही कमोबेश हर दिन सत्ता से आते-जाते रहे और एक जज के बाद एक सांसद और अब मुख्यमंत्री के रूप में भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए हैं.  तथा अपना नाम डुबाने के साथ ही अपने पिता के नाम पर भी दाग लगा चुके हैं, और कांग्रेस को भी केदारनाथ आपदा के दौरान अपने निकृष्ट कुप्रबंधन से न केवल उत्तराखंड वरन पूरे देश में नुकसान पहुंचा चुके हैं।
याद रखना होगा कि बहुगुणा की ताजपोशी 10 जनपथ को 500 करोड़ रुपए की थैली पहुंचाए जाने का प्रतिफल बताई गई थी। शायद तभी उन्हें पूरे देश को झकझोरने वाली उत्तराखंड में आई जल प्रलय की तबाही में निकृष्ट प्रबंधन की नाकामी और चारों ओर से हो रही आलोचनाओं के बावजूद के बावजूद नहीं हटाया गया। और अब हटाया भी गया है तो तब , जब तमाम ओपिनियन पोल में कांग्रेस को आगामी लोक सभा चुनावों में उत्तराखंड में पांच में से कम से कम चार सीटों पर हारता बताया जा रहा है, और आसन्न पंचायत चुनावों में भी कांग्रेस की बहुत बुरी हालत बताई जा रही है। 

क्या अपना बोया काटने से बच पाएंगे हरीश रावत ?

त्तराखंड राज्य के आठवें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण करने वाले हरीश रावत की धनै के पीडीएफ से इस्तीफे, महाराज के आशीर्वाद बिना और झन्नाटेदार थप्पड़ जैसे एक्शन-ड्रामा के साथ हुई ताजपोशी के बाद यही सबसे बड़ा सवाल उठ रहा है कि क्या रावत अपना बोया काटने से बच पाएंगे। इस बाबत आशंकाएं गैरवाजिब भी नहीं हैं। रावत के तीन से चार दशक लंबे राजनीतिक जीवन में उपलब्धियों के नाम पर वादों और विरोध के अलावा कुछ नहीं दिखता। 
चाहे राज्य की पिछली बहुगुणा सरकार हो या 2002 में प्रदेश में बनी पं. नारायण दत्त तिवारी की सरकार, रावत ने कभी अपनी सरकारों और मुख्यमंत्रियों के विरोध के लिए विपक्ष को मौका ही नहीं दिया। इधर केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहते चाहे श्रम राज्य मंत्री का कार्यकाल हो, उन्होंने बेरोजगारी व पलायन से पीड़ित अपने राज्य के लिए एक भी कार्य उपलब्धि बताने लायक नहीं किया। वह कृषि मंत्री बने तब भी उन्होंने लगातार किसानी छोड़कर पलायन करने को मजबूर अपने राज्य के किसानों के लिए कुछ नहीं किया। जल संसाधन मंत्री बने, तब भी अपने राज्य की जवानी की तरह ही बह रहे पानी को रोकने या उसके सदुपयोग के लिए एक भी उल्लेखनीय पहल नहीं की। कुल मिलाकर तीन-चार दशक लंबे राजनीतिक करियर के बावजूद रावत के पास अपनी उपलब्धियां बताते के लिए कुछ है तो उत्पाती प्रकृति के समर्थक, जिनकी झलक रावत ने अपनी ताजपोशी से पहले खुद भी अपनी ही पार्टी के एक कार्यकर्ता को झन्नाटेदार थप्पड़ जड़कर दिखा दी है।

इधर, बहुगुणा की सरकार बनने के दौरान एक हफ्ते तक दिल्ली में पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र के नाम पर चले राजनीतिक ड्रामे की यादें अभी बहुत पुरानी नहीं पड़ी हैं, जिसकी हल्की झलक शनिवार को उनकी ताजपोशी के दिन सतपाल महाराज ने दिखा दी है। शपथ ग्रहण समारोह में उनके साथ शपथ लेते मंत्रियों के बुझे चेहरे भी बहुत कुछ कहानी कह रहे थे। बहुगुणा जाते-जाते अपने अनेक समर्थकों को ‘बैक डेट’ से दायित्व देकर उनके लिए परेशानी के सबब पहले ही खड़े कर चुके हैं, जिन्हें उगलना और निगलना दोनों रावत के लिए आसान न होगा। उनके रहते रावत अपने समर्थकों को माल-मलाई देकर कैसे सहलाएंगे, यह बड़ा सवाल है। व्यक्तिगत रूप से वह, उनके समर्थकों का चाल-चरित्र कैसा रहने वाला है, इसकी झलक खुद तो दिखा ही चुके हैं, उनके आज 'कंधों पर झूलते' उनके बड़े समर्थकों के 'दिन-दहाड़े' के चर्चे भी आम हैं। इसलिए बहुत आश्चर्य नहीं उनके कार्यकाल के लिए आज चैनलों में प्रयुक्त किए जा रहे "राव'त' राज" का केवल एक अक्षर बदल कर आगे काम चलाया जाए। 

वह गूल में पानी ना आने पर प्रधानमंत्री को पत्र लिखने की अदा...

अपने शुरुआती राजनीतिक दौर में अपनी समस्याएं बताने वाले लोगों को तत्काल पत्र लिखकर समाधान कराने का वादा करना तब हरीश चंद्र सिंह रावत के नाम से पहचाने जाने वाले रावत का लोगों को अपना मुरीद बनाने का मूलमंत्र रहा। अपने खेत में पानी की गूल से पानी न आने की शिकायत करने वाले ग्रामीण को उनका तीसरे दिन ही पोस्टकार्ड से जवाब आ जाता कि उन्हें लगा है कि गूल में पानी आपके नहीं मेरी गूल में नहीं आ रहा है। उन्होंने शिकायत को सिंचाई विभाग के जेई, एई, ईई, एसई से लेकर राज्य के सिंचाई मंत्री, मुख्यमंत्री के साथ ही केंद्रीय सिंचाई मंत्री और प्रधानमंत्री को भी सूचित कर दिया है। गूल में पानी कभी ना आता, लेकिर ग्रामीण पत्र प्राप्त कर ही हरीश का मुरीद बन जाते। 

विरोध, विरोध और विरोध...

उत्तराखंड आंदोलन के दौरान हरीश की पहचान उत्तराखंड राज्य विरोधी की भी बनी, जिसके परिणामस्वरूप 1989 के चुनावों के लिए नामांकन कराने के लिए भी चुपचाप आना पड़ा था। बाद के वर्षों में हरीश की अपने अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र में ब्राह्मणद्रोही क्षत्रिय नेता की छवि बनती चली गई, जिसका परिणाम उन्हें अपनी हार की हैट-ट्रिक और पत्नी की भी हार के बाद अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र का रण छोड़ने पर विवश कर गया। राज्य के ब्राह्मण नेता तिवारी और बहुगुणा का लगातार विरोध करने से भी उनकी इस ब्राह्मण विरोधी छवि का विस्तार ही हुआ है। इसी का परिणाम है कि आज उन्होंने कुर्सी प्राप्त भी की है तो नारायण दत्त तिवारी के राज्य की राजनीति से दूर जाने के बाद....

Tuesday, September 3, 2013

दो टूक : आजादी के 66 वर्ष बाद आजादी से पूर्व जैसे हालात

आजादी के बाद गांधी-नेहरू जाति नाम व आजाद भारत के पहले युगदृष्टा कहे जाने वाले स्वनामधन्य प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के 17 वर्ष लंबे निरंकुश शासन के बाद 1965 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को देश वासियों से सप्ताह में एक दिन उपवास रखने का आह्वान करना पड़ा था। हालांकि इसके साथ ही उन्होंने देश में अन्न उत्पादन को बढ़ाने के लिए 'जय जवान' के साथ “जय किसान” का नारा भी दिया था। यह अलग बात है कि इस नारे से अधिक आज देश की तीसरी प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को “हरित क्रांति” के जरिए देश के अन्न उत्पादन को निर्यात की क्षमता तक विकसित करने का श्रेय दिया जाता है। बहरहाल आज 48 वर्ष बाद देश श्रीमती गांधी के ”गरीबी हटाओ” और जनसंख्या नियंत्रण के लिए “हम दो-हमारे दो” जैसे नारों के बावजूद कथित तौर पर 80 करोड़ गरीबों को कुपोषण से बचाने और भरपेट भोजन देने की ऐतिहासिक कही जा रही राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना लाने को मजबूर हुआ है। 

आज सरकार की ओर से कमोबेश उसी तर्ज पर “सोने का मोह त्यागने” का आह्वान किया गया है और पेट्रोल पंपों को रात्रि में बंद करने जैसे बचकाने बयान आए हैं। आजादी के दौर में एक रुपए का मिलने वाला डॉलर 70 के भाव जाने पर आमादा है। भूख और कुपोषण पर नजर रखने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था-अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आईएफपीआरआई) द्वारा ताज़ा जारी वैश्विक भूखमरी सूचकांक-2010 में भारत को 67वां स्थान दिया गया है जो सूची में चीन और पाकिस्तान से भी नीचे है। ऐसे में उत्साहित दुश्मन राष्ट्र चीन व पाकिस्तान भारत पर कमोबेश एक साथ गुर्रा रहे हैं, और हमारे देश के सबसे बड़े अर्थशास्त्री कहे जाने वाले प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह देश की सुरक्षा और रुपए की घटती कीमत, घटती विकास दर और बढ़ते मूल्य सूचकांक के साथ मुद्रा स्फीति व आपातकाल जैसे हालात स्वयं लाकर मिमियाने की मुद्रा में नजर आ रहे हैं। साथ ही परोक्ष तौर पर यह चुनौती देते भी दिखते हैं कि जब वह नहीं कर पा रहे तो औरों की क्या बिसात !

ऐसे में अच्छा हो कि प्रधानमंत्री थोड़ी और हिम्मत जुटा लें और सरकार और सरकारी मशीनरी के “खाने” व भ्रष्टाचार पर लगाम न कस पाने की अपनी विफलता को स्वीकार कर देश वासियों से बिना घबराए, सोने और पेट्रोल के साथ कम दाल-रोटी “खाने” करने की अपील भी कर दें, शायद देश की समस्त समस्याओं का हल अब इसी कदम में निहित है। 

यह भी पढ़ें: 

1.कांग्रेस के नाम खुला पत्र: कांग्रेसी आन्दोलन क्या जानें....
2. नैनीताल हाईकोर्ट ने सीबीआई की यूं की बोलती बंद
3. अमेरिका, विश्व बैंक, प्रधानमंत्री जी और ग्रेडिंग प्रणाली
4. जनकवि 'गिर्दा' की दो एक्सक्लूसिव कवितायें
5. कौन हैं अन्ना हजारे ? क्या है जन लोकपाल विधेयक ?
6. नीरो सरकार जाये, जनता जनार्दन आती है
7. यह युग परिवर्तन की भविष्यवाणी के सच होने का समय तो नहीं ?
  

Monday, January 28, 2013

राहुल की 'साफगोई' के मायने


Rs 3/kg: Rahul Gandhi Lands in a Potatoe Soup

यपुर में कांग्रेस पार्टी की चिंतन बैठक में चाहे जो और जितना नाटकीय तरीके से हुआ हो, लेकिन काफी कुछ हुआ वही, जिसकी उम्मीद कमोबेश हर कांग्रेसी कर रहा था, और बाकी देशवासियों को भी उसका अंदाजा था। यानी राहुल गांधी को पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी मिलना, और उन्हें उपाध्यक्ष बना भी दिया गया। चिंतन शिविर से यही सबसे बड़ी खबर आई, यानी चिंतिन शिविर आयोजित ही इस लिए किया गया था कि इसके बाद राहुल को पार्टी का नंबर दो यानी सोनिया गांधी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया जाए। 
राहुल को उपाध्यक्ष घोषित कर दिया गया, किंतु यह भी बहुत बड़ी घटना नहीं क्योंकि वह पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रहते हुए भी गांधी-नेहरू परिवार से होने और सोनिया गांधी के पुत्र होने के नाते पार्टी के नंबर दो तथा सोनिया के निर्विवाद तौर पर उत्तराधिकारी ही थे। लेकिन इससे बड़ी बात यह है कि नई जिम्मेदारी देने के साथ यह संदेश साफ कर देने की कोशिश की गई है कि वह आगामी लोक सभा चुनावों में पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे। 
गौर कीजिए, राहुल और सोनिया गांधी दोनों इस बात को मानते हैं, इसलिए ‘पार्टी’ की एक बड़ी जिम्मेदारी मिलने पर दोनों के मन में पार्टी से पहले ‘सत्ता’ का खयाल आता है। यह खयाल आते ही सोनिया बेहद डर जाती हैं। वह रात्रि में ही राहुल के कक्ष में जाती हैं, और पुत्र को गले लगाकर रोते हुए याद दिलाती है, सत्ता जहर है। इस जहर ने उनकी ‘आइरन लेडी’ कही जाने वाली दादी और मजबूत पिता को उनसे छीन लिया। पुत्र को भी डर सताता है, उनके साथ बैडमिंटन खेलने वाले दो पुलिस कर्मी कैसे गोलियों से भूनकर उनकी दादी की हत्या कर देते हैं। यहां किस पर विश्वास किया जाए, किस पर नहीं ! कहीं सत्ता उन्हें भी.....! भगवान करे ऐसा कभी ना हो।
बहरहाल, टीवी पर आने वाले एक विज्ञापन की तर्ज पर डर सभी को लगता है, गला सभी का सूखता है। मां-पुत्र भी इसके अपवाद नहीं हो सकते। दोनों बेहद डरे हुए हैं। लेकिन उनके समक्ष क्या मजबूरी है सत्ता रूपी जहर को पीने की। यह जहर उनके परिवार को इतने बड़े घाव पहले ही दे चुका है, तो उसे जानते-बूझते फिर से क्यों गटका जाए। किसी और के लिए हो सकता है, पर गांधी-नेहरू परिवार के लिए तो सत्ता कभी ‘शादी के लड्डू’ की तरह अनजानी वस्तु भी नहीं हो सकती कि उसे बिना खाए पछताने से बेहतर एक बार खा ही लिया जाए। उनके लिए यह स्वाद कोई नया नही। 
फिर क्या मजबूरी है कि राहुल अपने इस डर को पार्टी की भरी चिंतन सभा में उजागर कर देते हैं। क्या केवल ‘साफगोई’ का तमगा हासिल करने के लिए। और यह भी ‘साफ’ किए बगैर कि आखिर उनके समक्ष इतने बड़े डर के बावजूद विषपान करने की इतनी बड़ी मजबूरी क्या है। क्या वह पार्टी की चिंतन बैठक में देशवासियों के दुःखों पर चिंता कर रहे हैं, और देशवासियों के दुःख उनसे देखे नहीं जा रहे और वह उनके दुःखों को दूर करने के लिए उनके हिस्से के ‘विष’ को पीकर ‘शिव’ बनना चाहते हैं। ऐसा ही मौका सोनिया के पास भी तो आया था, और उन्होंने यह विष क्या पी न लिया होता, यदि उन पर ‘विदेशी’ होने का दाग न लग गया होता। 
राहुल जानते हैं, वह नेहरू-गांधी परिवार के चश्मो-चिराग हैं, जिसका नाम अपने नाम से जोड़ देने भर से उन्हें बिना किसी अन्य विशेषता के मां से उत्तराधिकार में कांग्रेस के नंबर दो की कुर्सी के साथ ही आगे पार्टी को सत्ता मिलने पर देश की नंबर एक की कुर्सी भी कमोबेस बिना प्रयास के मिलनी तय है। वह देश की सत्ता के इतने बड़े नाम हैं कि चाहें तो विपक्षी पार्टियों की सत्ता रहते भी लोकहित के जो मर्जी कार्य करवा सकते हैं। फिर क्या मजबूरी है कि वह सत्ता को जहर होने के बावजूद भी पीना ही चाहते हैं।
यहां राहुल के एक वक्तव्य से दो चीजें हो जाती हैं। एक, देश का भावी प्रधानमंत्री होने के बावजूद वह इस कथित ‘साफगोई’ के फेर में स्वयं के डर के साथ अपनी कमजोरी भी प्रकट कर देते हैं। दूसरे, ‘पालने’ से ही सत्ता शीर्ष पर होने के बावजूद स्वयं का जहर जैसी सत्ता से न छूट पा रहा मोह भी उनकी इस ‘साफगोई’ से उजागर हो जाता है।
राहुल की यह ‘साफगोई’ अनायास नहीं है, वरन सोची समझी रणनीति के तहत हैं। वह अभी भी अपना ‘चेहरा’ विकसित करने के दौर में ही हैं। कभी दाड़ी वाले बेफुरसत युवा, कभी यूपी की चुनावी सभा में पर्चा फाड़ते एंग्री यंग मैन तो कभी गरीब की झोपड़ी में रात बिताते गरीब-गुरबा के मसीहा, और अब साफगोई दिखाते, देश के दिलों को छूते नेता। उनकी पार्टी यूपी, गुजरात जैसे राज्य हारते जा रही है। उत्तर पूर्व के तीन राज्यों में भी उनकी पार्टी के लिए जीत की कम ही संभावनाएं हैं। 2014 भागा हुआ आ रहा है। जनता भ्रष्टाचार, महंगाई, सब्सिडी वापस लिए जाने, डीजल-पेट्रोल को तेल कंपनियों के हाथ में दे दिए जाने, जन लोकपाल, बलात्कार पर कड़े कानून बनाने का शोर मचाए हुए है। वह क्या करें, कौन सा रूप धरें। कौन सा चमत्कार करें कि इस सबके बावजूद सत्ता वापस कदमों में आ जाए। यह बड़ी चिंता है। उनकी भी, कांग्रेस के नेताओं की भी, जिन्हें पता है कि यही नेहरू-गांधी का नाम है जिसके बल पर वह जनता को तमाम अन्य मुद्दे भुलाकर सत्ता हासिल कर सकते हैं। और मां सोनिया की भी, बेटे के लिए दुल्हन भी तलाशें तो पूछते हैं, लड़का करता क्या है। सचमुच बड़ी मजबूरी है। 
लेकिन राहुल को घबराने या जल्दबाजी की जरूरत नहीं, उन्हें समझना होगा, वह अकेले दौड़ने के बाद भी पार्टी के ‘नंबर दो’ बने हैं। इस पद के लिए उनके अलावा कोई और दूसरा प्रत्याशी नहीं है। वह कभी देश के प्रधानमंत्री भी बनेंगे तो ऐसी ही स्थिति में, जहां कोई दूसरा उनका प्रतिद्वंद्वी नहीं होगा या ऐसी स्थितियां बना दी जाएंगी कि कोई दूसरा उनके बराबर मंे खड़ा ही नहीं हो सकता। उन्हें यह प्रमोशन तब मिला है, जबकि उनके नेतृत्व में लड़े राज्यों में भी कांग्रेस लगातार हारती रही है। उनका ‘नेता बनो या नेता चुनो’ का मॉडल युवा कांग्रेस में भी फेल हो चुका है। वह न पार्टी की युवा ब्रिगेड को सुधार पाए हैं, और न ही अपनी पार्टी को अपने दम पर किसी राज्य में ही जीत दिला पाए हैं। 
बावजूद वह जानते हैं, कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी के बाद एक वे ही हैं, जिनकी छांव तले कांग्रेसी एक छत के तले खड़े हो सकते हैं। राहुल भले कहें कि उन्हें नहीं पता कि कांग्रेस में आज के कारपोरेट प्रबंधन के दौर में भी (कमोबेस देश की तरह ही) कोई सिस्टम ही नहीं हैं, बावजूद (देश की तरह भगवान भरोसे नहीं) विपक्षी दलों की राजनीतिक अपरिपक्वता और राजनीतिक दांवपेंच में कहीं न ठहरने जैसे अनेक कारणों से वह चुनाव जीत ही जाते हैं। 
तो क्या, यह जल्दबाजी, यह विषपान की मजबूरी इसलिए है कि उन्हें लगने लगा है, गांधी-नेहरू जाति नाम भले कांग्रेस पार्टी में अब भी चलता हो पर देश में यह तिलिस्म लगातार टूटता जा रहा है। युवा कांग्रेस के साथ ही यूपी में ‘बदलाव’ की कोशिश कर वह थक हार चुके हैं। उनके हाथों में युवा कांग्रेस की कमान थी। उन्होंने वहां जमीनी स्तर से ‘नेता बनो या नेता चुनो’ का नारा दिया, लेकिन वह नारा भी नहीं चल पाया। कमोबेश सभी जगह वही युवा आगे आ पाए, जिनके पिता या गुट के नेता मुख्य पार्टी में बड़े ओहदे पर थे। जो भी जीता, उसने नीचे से लेकर ऊपर तक कार्यकर्ताओं को मैनेज किया। अपने सदस्य बनाए, फिर अपने लोगों को जितवाया और आखिर में अपने पक्ष में लॉबिंग की। लेकिन राहुल की सोच के मुताबिक ऐसा कुछ नहीं हुआ कि अनजान चेहरे युकां के प्रदेश अध्यक्ष बन गए।
तो क्या राहुल अपनी इस साफगोई से मात्र पार्टी जनों को भावनात्मक रूप से जोड़े रखने का ही प्रयास नहीं कर रहे हैं। इसके साथ ही कहीं वह कार्यकर्ताओं को स्वयं शीर्ष पर जगह बनाने के बाद परोक्ष तौर पर चेतावनी तो नहीं दे रहे कि यह बहुत खतरनाक जगह है। यहां आने की भी न सोचें। हम बहुत बड़ी कुरबानी देने वाले लोग हैं, इसलिए यहां हैं। 
इससे बेहतर क्या यह न होता कि वह अपना डर दिखाने के बजाए देश की बड़ी समस्याओं, भ्रष्टाचार, महंगाई, सब्सिडी को खत्म करने, जन लोकपाल, पदोन्नति में आरक्षण जैसे विषयों पर बोलने का साहस दिखाते। देश की जनता की नब्ज, उसकी समस्याओं को समझते, और अपनी युवा ऊर्जा का इस्तेमाल पर उनका स्थाई समाधान तलाशते। 
राहुल को जानना होगा उन्हें प्रधानमंत्री बनना है तो उन्हें केवल कांग्रेस पार्टी का नहीं पूरे देश का नेता बनना होगा। और ऐसा केवल भावनात्मक तरीके के बजाए कुछ करके बेहतर किया सकता है। उन्हें इस पद पर आरूढ़ होने से पूर्व कुछ और समय लेना होगा। प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने की जल्दबाजी उनके कॅरियर पर भी भारी पड़ सकती है। इस पद के लिए स्वयं को तैयार भी करना होगा। उन्हें स्वयं में गंभीरता लानी होगी। केवल कांग्रेस के गैर गांधी प्रधानमंत्रियों की तरह ‘मौनी बाबा’ बनने अथवा अपने पिता के ‘हमने देखा है, हम देखेंगे’ की तरह ही ऐसा या वैसा होना चाहिए के बजाय कुछ करके दिखाने का साहस और होंसला स्वयं में विकसित करना होगा। अभी वह युवा हैं, उनकी उम्र भागी नहीं जा रही। निस्संदेह उन्हें एक न एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनना है। 

Tuesday, March 13, 2012

अब तो बस यह देखिये कि बहुगुणा के लिए 13 का अंक शुभ होता है या नहीं....

"चिंता न करें, जल्द मान जाऊँगा..." शायद यही कह रहे हैं हरीश रावत, उत्तराखंड के सीएम विजय बहुगुणा से  
दोस्तो आश्चर्य न करें, कांग्रेस पार्टी में बिना पारिवारिक पृष्ठभूमि के कोई नेता मुख्यमंत्री बनना दूर आगे भी नहीं बढ़ सकता...बहुगुणा की ताजपोशी पहले से ही तय थी, बस माहौल बनाया जा रहा था.... 

विजय बहुगुणा को उत्तराखंड का सीएम बनाना कांग्रेस हाईकमान ने चुनावों से पहले ही तय कर लिया था. इसकी शुरुवात तब के पराजित भाजपा सांसद प्रत्यासी रहे अंतर्राष्ट्रीय निशानेबाज जसपाल राणा को कांग्रेस में शामिल कराया गया था, ताकि बहुगुणा को सीएम बनाये जाने पर पौड़ी सीट खली हो तो वहां से जसपाल को चुनाव लड़ाया जा सके. तब इसलिए उनका नाम घोषित नहीं किया गया कि पार्टी के अन्य क्षत्रप पहले ही (अब की तरह) न बिदक जाएँ. 6 मार्च को चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद भी नाम घोषित नहीं किया, ताकि सीएम पद का ख्वाब पाल रहे दावेदार बहुमत के लिए जरूरी निर्दलीयों व उक्रांद का समर्थन हासिल कर लायें.  क्षत्रप 36 का आंकड़ा तो हासिल कर लाये, पर यहाँ पर एक गड़बड़ हो गयी. निर्दलीय अपने आकाओं को सीएम बनाने की मांग उठा कर एक तरह से हाईकमान को आँख दिखाने लगे, इस पर हाईकमान को एक बार फिर बहुगुणा को सीएम बनाने की घोषणा टालनी पडी. अब प्रयास हुए बसपा का समर्थन हासिल करने की, बसपा के कथित तौर पर दो विधायक कांग्रेस में आने को आतुर थे, ऐसे में तीसरा भी क्यों रीते हाथ बैठता. ऐसे में बसपाई 12 मार्च को राजभवन जा कर कमोबेश बिन मांगे कांग्रेस को समर्थन का पत्र सौंप आये. अब क्या था, तत्काल ही कांग्रेस हाईकमान ने बहुगुणा के नाम की घोषणा कर दी. इसके तुरंत बाद हरीश रावत गुट ने दिल्ली में जो किया, उससे कांग्रेस में बीते सात दिनों से 'आतंरिक लोकतंत्र' के नाम पर चल रहे विधायकों की राय पूछने के ड्रामे की पोल-पट्टी खुल गयी.  

सच्चाई है कि कांग्रेस हाईकमान के विजय बहुगुणा को सीएम घोषित करने का एकमात्र कारण था उनका पूर्व सीएम हेमवती नंदन बहुगुणा का पुत्र होना. स्वयं परिवारवाद पर चल रहे कांग्रेस हाईकमान के लिए अपनी इस मानसिकता से बाहर निकलना आसान न था, रावत समर्थक सांसद प्रदीप टम्टा कह चुके हैं की बहुगुणा को कांग्रेस के बड़े नेता किशोर उपाध्याय को निर्दलीय दिनेश धने के हाथों हराकर पार्टी की 'पीठ में छुरा भौकने' का इनाम मिला है, जबकि रावत कांग्रेस की 'छाती में वार' करने चले थे. सो आगे उनका 'कोर्टमार्शल' होना तय है, कब होगा-इतिहास बतायेगा.     हरीश रावत और उनके समर्थक नेता इस बात को जितना जल्दी समझ लें बेहतर होगा.. 

किसी भ्रम में न रहें, कुछ भी आश्चर्यजनक या अनपेक्षित नहीं होने जा रहा है, बन्दर घुड़की दिखाने के बाद दोनों रावत (हरीश-हरक) व टम्टा आदि हाईकमान की 'दहाड़' के बाद चुप होकर फैसले को स्वीकार कर लेंगे, किसी शौक से नहीं वरन इस फैसले को ही नियति मानकर, आखिर उनका इस पार्टी के इतर अपना कोई वजूद भी तो नहीं है.  

अब तो बस यह देखिये कि 13 मार्च को प्रदेश के सीएम पद की शपथ ग्रहण करने वाले बहुगुणा के लिए 13 का अंक पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी की तरह पूर्व मान्यताओं के इतर शुभ होता है या नहीं....बहरहाल खंडूडी के बाद उनके ममेरे भाई में प्रदेश की जनता एक धीर-गंभीर मुख्यमंत्री देख रही है..

Tuesday, March 6, 2012

उत्तराखंड विधान सभा चुनाव की समीक्षा

उत्तराखंड में हुए विधान सभा चुनावों के परिणाम कई बातें साफ़ करने वाले हैं. पहली नजर में इन चुनावों में प्रदेश में न तो भ्रष्टाचार का मुद्दा चला है, और न ही अन्ना फैक्टर. लेकिन ऐसा नहीं है. असल में इस चुनाव मैं कुछ अपवादों को छोड़कर पार्टियों के जनाधार के साथ ही नेताओं की व्यक्तिगत छवि की भी परीक्षा हुयी है, और जनता ने उपलब्ध विकल्पों में से बेहतर को चुनने की कोशिश की है. इस प्रकार यह चुनाव काफी हद तक नेताओं को अपनी असल हैसियत बताने वाले साबित हुए हैं. और उम्मेंद की जा सकती है की भावी विधानसभा अपने पूर्व के स्वरुप से काफी बेहतर हो सकती है. 



मेरी इस मान्यता का सिरा इस तथ्य से भी जुदा है की परिणामों में भाजपा-कांग्रेस उमींदों के विपरीत केवल एक सीट के अंतर पर हैं, और दोनों में से कोई एक पूरी कोशिश के बावजूद ३६ के जादुई आंकड़े से बहुत आगे नहीं निकल सकता है, यानी विपक्ष भी मजबूत रहने वाला है. इसका अर्थ यह भी हुआ कि सरकार को अधिक सतर्कता से कार्य करना होगा. दूसरे चुनाव परिणाम इस तरह आये हैं कि दोनों प्रमुख दलों के पास सीमित विकल्प रह गए हैं. जिसकी भी सरकार बनेगी, उसे खुद से ज्यादा समर्थक दल अथवा निर्दलीयों को मंत्रिमंडल तथा सरकार में महत्व  देना होगा, तो भी सरकार की स्थिरता आशकाओं में घिरी होगी. कुछ दिन बात एक एंग्लो-इंडियन विधायक के मनोनयन के बाद स्थिति थोड़ी सहज हो सकती है. इसके साथ ही दोनों पार्टियों के लिए विधायकों में से ही किसी को मुख्यमंत्री बनाने की मजबूरी भी होगी. 

चुनावों में 'जनरल' काफी हद तक अपनी पार्टी को तो जंग जिता गए पर 'खंडूड़ी' खुद के लिए 'जनरल' साबित नहीं हो पाए और अपनी बाजी हार गए.  'खंडूड़ी है जरूरी' का नारा जितना प्रदेश और खासकर मैदानी जिलों में चला, उतना उनकी सीट कोटद्वार में नहीं चल पाया, ऐसे में यहाँ तक कहा जाने लगा कि शायद खंडूड़ी के पहले कार्यकाल में बजी 'सारंगी' को पूरा प्रदेश न सुन पाया हो पर कोटद्वार ने सुन लिया हो. उनकी हार से यहाँ तक कहा जाने लगा है-'खंडूड़ी नहीं रहे जरूरी', वहीँ निशंक पर लगे कुम्भ घोटाले के 'दागों' को डोईवाला की जनता ने माँनो 'दाग अच्छे हैं' कह दिया है. यह निशंक के कुशल राजनीतिक प्रबंधन का परिणाम भी कहा जा सकता है. 

कुमाऊँ में केवल सात विधानसभा क्षेत्रों, सोमेश्वर से अजय टम्टा, डीडीहाट से भाजपा के बिशन सिंह चुफाल, काशीपुर से भाजपा के हरभजन सिंह चीमा, जसपुर से कांग्रेस के शैलेंद्र मोहन सिंघल, अल्मोड़ा से मनोज तिवारी, बागेश्वर से चंदनराम दास एवं जागेश्वर से कांग्रेस के गोविंद सिंह कुंजवाल फिर जीत का शेहरा बंधा पाए। यहाँ 15 सीटों पर भाजपा कब्जा करने में सफल रही, जबकि कांग्रेस ने दस सीटों का आंकड़ा तेरह पर पहुंचाया है, लेकिन दिलचस्प बात यह रही कि वह भी अपनी पांच सीटों को बचा नहीं सकी। पहाड़ पर कांग्रेस और मैदान में भाजपा मजबूत हुई. 

राज्य के दूसरे चुनावों में भाजपा व कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर रही हैं और त्रिशंकु विधानसभा उभर कर आई है। सत्तारूढ़ दल भाजपा को 31 और कांग्रेस को 32 सीटें मिली हैं, और दोनों दल ३६ के जादुई आंकड़े से कुछ दूर रह गए हैं। भाजपा के लिए पंजाब व गोवा में सरकार बनाने का बहुमत मिलाने के साथ ही उत्तराखंड में 'एंटी इनकम्बेंसी' के बीच उम्मींद से बेहतर प्रदर्शन करने का संतोष होगा तो कांग्रेस मणिपुर के इतर एनी सभी राज्यों में हुए 'बज्रपात' जैसी स्थितियों से इतर यहाँ यूपी (28) से अधिक 32  सीटें प्राप्त कर एक सीट के अंतर से ही सही राज्य का सबसे बड़ा दल बनकर उभरी है.  700  से अधिक में से प्रदेश में जीते तीन निर्दलीय विधायक कांग्रेस के बागी हैं, लेकिन चुनाव में टिकट न देने वाली पार्टी के लिए उन्हें सत्ता हथियाने के लिए अपनाना 'थूक कर चाटने' जैसा होगा, लेकिन राजनीति में इसे 'सब चलता है' कहा जाता है. 

वर्तमान विधानसभा में तीसरी ताकत के रूप में मौजूद बहुजन समाज पार्टी व क्षेत्रीय दल उत्तराखंड क्रांति दल को मतदाताओं ने नकार दिया है। बसपा को पांच सीटें गंवानी पड़ीं, जबकि यूकेडी के हाथ से दो सीटें छिटक गई। विधानसभा चुनाव 2007 में बसपा को आठ व उक्रांद को तीन सीटें मिली थीं, जबकि इस बार उक्रार्द का एक धड़ा-डी अस्तित्व विहीन हो गया है, जबकि दूसरे-पी ने केवल एक सीट जीतकर पार्टी का नामोनिशान मिटने से बचाया है. 

भाजपा सरकार के मुख्यमंती सहित पांच मंत्री मातबर सिंह कंडारी, त्रिवेंद्र सिंह रावत, प्रकाश पंत, दिवाकर भट्ट, बलवंत सिंह भौंर्याल  चुनावी रन में खेत रहे हैं हो  कांग्रेस  के तिलकराज बेहड़,  पूर्व मंत्री शूरवीर सिंह सजवाण, किशोर उपाध्याय, जोत सिंह गुनसोला, काजी निजामुद्दीन जैसे पांच दिग्गजों ने शिकस्त खाई है. वहीँ बसपा के मोहम्मद शहजाद व नारायण पाल, उक्रांद-पी के काशी सिंह ऐड़ी व पुष्पेश त्रिपाठी, रक्षा मोर्चा के टीपीएस रावत, केदार सिंह फोनिया, उत्तराखंड जनवादी पार्टी के मुन्ना सिंह चौहान और निर्दलीय यशपाल बेनाम को हार का सामना करना पड़ा है। उक्रांद के दूसरे धड़े 'डी' यानी डेमोक्रेटिक की 'पतंग' उड़ने से पहले ही कट गयी है. वहीँ 'पी' के कद्दावर नेता ऐड़ी मुख्य मुकाबले से बाहर तीसरे स्थान पर रह गए. विधान सभा अध्यक्ष हरबंश कपूर ने लगातार सातवी बार जीत का रिकार्ड कायम किया है.

कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी अपने खास प्रकाश जोशी को कालाढूंगी से नहीं जिता पाए तो विकास  पुरुष कहे जाने वाले 'एनडी' अपनी 'निरंतर विकास समिति' को कांग्रेस के हाथो 'बेचकर खरीदी गयी' तीन में से दो सीटें नहीं जीत पाए. उनके भतीजे मनीषी तिवारी गदरपुर में चौथे स्थान पर 'धकिया' दिए गए तो दून से हैदराबाद तक उनके हाथों 'मनपसंदों का विकास' कराने वाले पूर्व ओएसडी आर्येन्द्र शर्मा को भी मुंह की खानी पडी है.  अपने निजी हितों के आगे एनडी कितने 'बौने' हो सकते थे, यह इस चुनाव ने प्रदर्शित किया. चर्चा तो यह भी थी कि कांग्रेस कि सत्ता आने पर 'दो-ढाई वर्ष सीएम' बनाने की घोषणा कर चुके एनडी मनीषी से इस्तीफ़ा दिलाकर खुद चुनाव लड़ने की भी सोच रहे थे. 

कांग्रेस के बडबोले (छोटे से प्रदेश में डिप्टी सीएम का राग अलापने वाले) व हैट्रिक का सपना देख रहे बेहड़ की हार की पटकथा तो खैर अहिंसा दिवस के दिन रुद्रपुर में फ़ैली हिंसा के दौरान ही लिख दी गयी थी. बसपा के बड़ा ख्वाब देख रहे नारायण पाल का अपने भाई मोहन पाल के साथ विधान सभा पहुँचाने का ख्वाब भी जनता ने तोड़ दिया. वहीँ टिकट वितरण में सबको पछाड़ने वाले हरीश रावत पर अपनी वह सफलता अब आफत बन गयी है. वह अपने पुराने (अल्मोड़ा-भाजपा,कांग्रेस 3-3  सीटें) और नए (हरिद्वार-भाजपा 5, कांग्रेस-बसपा 3-3) दोनों राजनीतिक घरों में अपने प्रत्यासियों को चुनाव नहीं जिता पाए हैं.वर्तमान हालातों में उनका भी सीएम बनाने का ख्वाब टूट ही गया लगता है.

स्त्रीलिंगी गृह 'शुक्र' के राज वाले नए विक्रमी संवत ( शुक्र ही नए वर्ष के राजा और मंत्री हैं, लिहाजा महिलाओं को राजनीतिक सत्ता दिला सकते हैं) में अकेले नैनीताल जनपद से कांग्रेस की 'तीन देवियाँ' इंदिरा हृदयेश, अमृता रावत व सरिता आर्य विजय रही हैं, उनके साथ ही शैलारानी रावत कांग्रेस से तथा भाजपा से पूर्व मंत्री विजय लक्ष्मी बडथ्वाल भी जीती हैं, और पहली बार राज्य में महिला विधायको की संख्या एक बढ़कर पांच पहुंची है. इंदिरा ने तो 42,627 वोट प्राप्त कर रिकार्ड 23,583 मतों के अंतर से जीत दर्ज की है. वहीँ सरिता ने आजादी के बाद नैनीताल की पहली महिला विधायक और राज्य की पहली अनुसूचित वर्ग की महिला विधायक चुनकर इतिहास रच दिया है. अलबत्ता अमृता की जीत में उनके पति 'महाराज' का भी योगदान है. आगे इनमें से कोई महिला सत्ता शीर्ष पर पहुँच जाए तो आश्चर्य न कीजियेगा.

गोविन्द सिंह बिष्ट व खजान दास को भाजपा द्वारा विधान सभा का टिकट ही न दिए जाने और अब मातबर सिंह कन्दरे के अपने साधू भाई से अनपेक्षित चुनाव हार जाने के बाद प्रदेश में किसी भी शिक्षा मंत्री के चुनाव न जीत पाने का मिथक बरकरार रहा है. अब गंगोत्री में कांग्रेस प्रत्यासी विजय पाल सिंह सजवाण की जीत के बाद उन्हीं की पार्टी की सरकार बनाने का मिथक देखना बाकी है.

Monday, June 6, 2011

कांग्रेस के नाम खुला पत्र: कांग्रेसी आन्दोलन क्या जानें....

देश की आजादी के बाद अधिकतम समय सत्ता में  रहने वाले कांग्रेस पार्टी के लोग आन्दोलन क्या जानें, उन्होंने  तो हमेशा आन्दोलन को कुचलना सीखा है, उन्हें कभी आन्दोलन करना पड़े तो तब देखिये इनकी हालत, अभी भट्टा-परसौल के मामले में राहुल गाँधी और मुंह में कोई (?) बुरी चीज लेकर बोलने वाले उनके बडबोले चापलूस महासचिव दिग्विजय सिंह की नौटंकी को जनता अभी भूली नहीं है. 

कांग्रेसी तो गांधी जी के सत्याग्रह को भी भूल गए हैं, कोई इनसे पूछे कि क्या राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी कभी निर्धारित संख्या  की इजाजत लेकर किसी स्थान पर सत्याग्रह  करते थे....क्या उन्हें कभी अंग्रेजों ने इसी तरह एक रात भी आन्दोलन पर नहीं टिकने देने के लिए इस प्रकार का दुष्चक्र (वह भी आधी रात्रि  को) रचा....(या कि तब अंग्रेजों के राज में रात्रि ही नहीं होती थी, और अब आपके राज में दिन ही नहीं होता ?) ?????


हमें याद है, आपने ऐसा ही कुछ 2 अक्टूबर 1994 को (मुजफ्फरनगर-मुरादाबाद से अपमानित और बचकर) दिल्ली में लालकिले के पीछे वाले मैदान में पहुंचे उत्तराखंडियों के साथ भी यही किया था, जहाँ आप के ही एक व्यक्ति (उसकी व उसके आका की पहचान सबको पता है) ने पहले भीड़ की और से एक पत्थर उछाला और फिर दिल्ली पुलिस ने लाठियां भांज कर भीड़ को तितर-बितर कर दिया...
और 23 -24 सितम्बर 2006 को नैनीताल में आयोजित कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के सम्मलेन के पहले (इस सम्मलेन में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी भी शामिल हुई थीं) कई दिनों से आमरण अनशन पर बैठे राज्य आंदोलकारियों को आधी रात को इसी तरह मल्लीताल पन्त पार्क से उठवा दिया था...तत्कालीन कुमाऊँ आयुक्त ने आन्दोलनकारियों को लिखित आश्वाशन दिए थे, जिन पर आज तक अमल नहीं हुआ है.....


.....लेकिन इसके उलट बीते मई माह में ही आपकी पार्टी ने अध्यक्ष के नेतृत्व में यहाँ उत्तराखंड में "सत्याग्रह" आन्दोलन किया था, और उसके 'फ्लॉप' होने का दोष आपकी ही पार्टी के सांसद प्रदीप  टम्टा और विधायक रणजीत रावत ने 'नाच न जाने आँगन टेड़ा' की तर्ज पर जनता के शिर यह कह कर फोड़ने की कोशिश की थी की इन दिनों खेती और शादी-ब्याह जैसे काम-काज होने के कारण भीड़ नहीं जुटी. सत्याग्रह का समय तय करने में रणनीतिक चूक हुई,  इसके बाद दिल्ली में रामदेव पर बरसने वाले टम्टा को इस बात का जवाब भी देना चाहिए की उनका बरसना इस कारण तो नहीं था कि  इन्हीं दिनों रामदेव ने इतनी भीड़ कैसे जुटा ली....

आपने तो अब उसी लोकतंत्र को भीड़तंत्र कहना शुरू कर दिया है, जिसके बल पर आप यहाँ हैं........ शायद आपकी और इनकी (अन्ना व रामदेव की) भीड़ में यह फर्क हो गया है कि आप की भीड़ नोट लेकर इकठ्ठा होती और वोट देती है, और उनकी स्वतः स्फूर्त आती है.
लोकतंत्र का अर्थ गांधी परिवार की सत्ता का राजशाही की तरह अनवरत चलते जाना नहीं है, वरन लोकतंत्र में कोइ भी सत्तानशीं हो सकता है, एक साधु भी....सुदामा भी, तो अन्ना या रामदेव क्यूँ नहीं ?? चाणक्य के इस देश और "यदा-यदा ही धर्मस्यः, ग्लानिर भवति भारतः.... " का सन्देश देने वाली गीता की कसम खाने वाले भारतवासियों में यह विश्वास भी पक्का है की जब हद हो जायेगी, युग परिवर्तन होगा और लगता हैं कि युग परिवर्तन की दुन्दुभी बज चुकी है. क्या नहीं ????


शायद नहीं....शायद हमें देश का धन लूटकर विदेशों में जमा करने वाले लुटेरों-डकैतों की आदत पड़ गयी है, इसलिए साधु-संतों को हमारे यहाँ राजनीति करने का अधिकार नहीं... शायद वो जमाने बीत गये जब देश को चाणक्य जैसे राजनीतिज्ञ चलाते थे.....

सच कहें तो कांग्रेस को विरोध गंवारा ही नहीं है.....आप उनके (कांग्रेस के) खिलाफ आन्दोलन नहीं कर सकते, खुद को नुक्सान पहुंचाते हुए राष्ट्रपिता की राह पर चलकर "सत्याग्रह" नहीं कर सकते....जूता उछाल या दिखा नहीं सकते...कांग्रेस, आप खुद ही बता दें, कोई आपका विरोध करे तो  कैसे  करे ?....

या कि जो भी आपका विरोध करेगा उसे आप कुचल देंगे, चाहे वह अन्ना  हो या  रामदेव, या फिर कोई भी और...

कोई आपको छुए भी तो आप फट  पड़ेंगे, और कोई फट पड़े तो आप उसका मजाक और मखौल उड़ायेंगे...
खैर आप कुछ भी अलग नहीं कर रहे हैं, उन सत्ता के मद में चूर लोगों से, जो हिटलरशाही की राह पर होते हैं....

कितनी अजीब बात है कि बीती छह  जून 2011 को अंग्रेजों के देश (उन्हीं अंग्रेजों, जिन्हें भारतीयों ने सत्याग्रह के जरिये ही देश से भगाया था)  इंग्लैंड में बाबा रामदेव के समर्थन  में (सही मायने में आपके भ्रष्टाचार के खिलाफ) हजारों लोगों ने जुलूस निकाला और उन्हें किसी ने नहीं रोका, और यहाँ आप (काले अंग्रेजों) ने  देश में चार जून की (काले शनिवार की) रात क्या किया ....

उलटे आपने अच्छा मौका ढूढ़ लिया, जो भी आपका विरोध करे, उसे आप फासिस्ट...आरएसएस का मुखौटा कह दें... रामदेव को तो कह दें, चल जाएगा..अन्ना को भी ???

यानी समाजवादियों...बसपाइयों...राजद..तेलगू देशम, माकपा, भाकपा...... जो भी रामदेव का समर्थन कर रहा है वह आरएसएस का मुखौटा हो गया..... यानी आप कह रहे हैं कि आपका विरोध कर रहा पूरा देश आरएसएस का मुखौटा हो गया है.... ऐसे में कहीं आप यह तो नहीं कह रहे हैं कि पूरा  देश आरएसएस के रंग में रंगता जा रहा है.......


लेकिन शायद ऐसा नहीं है...सच यह है कि आज देश (यहाँ तक की आपस में धुर विरोधी दक्षिण और बाम पंथ भी एक साथ आकर) आपके भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुट हो रहा है... इस बात को जल्दी समझ जाइए...वरना बहुत देर हो जायेगी....

यह भी पढ़ें:


Thursday, March 18, 2010

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी हो गए कांग्रेसी

 जी हां! राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी कांग्रेसी हो गए  हैं. नैनीताल जनपद के कांग्रेसियों ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हाथों में चरखा युक्त तिरंगे की बजाय अपने चुनाव चिन्ह पंजा युक्त तिरंगा थमा उन्हें कांग्रेसी बना ने की कोशिश की है। विश्वास न हो तो यह चित्र देखिये, इसे देखकर तो ऐसा ही लगता है, ख़ास बात यह है कि राज्य की भाजपा सरकार का भी इसमें कांग्रेस को मूक समर्थन लग रहा है.  साफ़ कर दें कि  बीती छह मार्च को पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य की उपस्थिति में मुख्यालय में आयोजित प्रदेशव्यापी धरना प्रदर्शन के दौरान  कांग्रेसियों ने नगर को अपने झंडों से पात दिया था। इसी दौरान गाँधी जी के हाथ की लाठी से तिरंगा बाँध दिया गया.  गाँधी जी के हाथ में राष्ट्रध्वज तिरंगा बाँधा होता तो ठीक भी था, किन्तु उनके हाथ में पार्टी विशेष का झंडा पकडाना और क्या कहा जाएगा ?  खास बात यह भी है कि बीते 12 दिनों से नगर के मुख्य चौराहे गांधी चौक पर गांधी जी की लाठी पर लटका यह झण्डा खुद तो गिरने लगा है, किन्तु शा सन प्रशासन के बड़े जिला व मण्डल स्तरीय अधिकारियों की नज़रें या तो राष्ट्रपिता की ओर गई ही नहीं हैं, अथवा वह राष्ट्रपिता के इस अपमान के प्रति बिल्कुल भी सजग नहीं हैं। 

Thursday, January 21, 2010

नीरो सरकार जाये, जनता जनार्दन आती है

आज देश के समक्ष बढ़ी किंकर्त्तव्यविमूढ़ता की स्थिति है. देश में महंगाई कहने भर को नहीं, वाकई सातवें आसमान पर है, और सरकार के मंत्री अपने सुख-संसाधनों के साथ अपने व्यापारी आकाओं के हित साधने की चिंताओं में न केवल उलझे हुए हैं, वरन "नीरो" की तरह "बंशी" बजा रहे हैं. खासकर "आम आदमी की सरकार" के कृषि मंत्री शरद पवार अपने सत्तासीन होने से ही आम आदमी की थाली खाली करने और पहले चीनी को अपने एक बयान से कढवा करने के बाद अब दूध को महंगाई की हांडी में उबालने पर तुले हुए हैं. देश के अकेले "इंसान" शशि थरूर आजादी के 62 साल बाद भी "आम आदमी" ही बने रहने को मजबूर अधिसंख्य देशवासियों को "जानवर" कह चुके हैं, और अफ़सोस कि "जानवर" घुड़क भी नहीं रहे.
एक समय था जब महंगा होने पर केवल प्याज ने सरकार गिरा दी थी, और आज कहने को देश के शीर्ष पदों पर एक-दो नहीं कई "देश के सर्वश्रेष्ठ अर्थशाश्त्री " आसीन हैं. स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन जी (मनमोहन ने तो त्रेता में भी बांसुरी बजाई थी, पर प्रेम की), पी चिदंबरम जी, मोंटेक सिंह अहलूवालिया जी, प्रणव जी तथा और भी कई लोग. लेकिन फिर भी महंगाई केवल कहने भर को नहीं, वास्तव में सुरसा के मुंह की तरह दिन दोगुनी-रात चौगुनी गति से बढ़ रही है. और सबसे बढ़ी चिंता की बात यह कि इन सभी को यह कहने में लेश मात्र की शर्म नहीं आ रही कि महंगाई को रोकने में वे असमर्थ हैं. 
तो क्या देश के सामने संकट केवल महंगाई का ही नहीं वरन "देश के अर्थशाश्त्रियों के सामर्थ्य शून्य होने" का भी है ? हांलांकि मानना पड़ेगा की यह सच्चाई नहीं है, नेताओं की देश के बजाये निजी स्वार्थों को प्राथमिकता देने की राजनीतिक से अधिक व्यावसायिक मजबूरी इस समस्या की जड़ में है. शरद पवार व शशि थरूर जैसे उनके मंत्रिमंडल के अन्य व्यापारी मित्र भी इसी व्यवस्था के अंग लगते हैं.





याद रखना होगा कि केंद्र में अपने समय में "रोटी" के लिए चीखने वाले देशवासियों को "ब्रेड" खाने की सलाह देने वालीं और स्वयंभू "इंदिरा इज इंडिया" की "गरीबी हटाओ" के नारे के साथ 62 में से 50 साल से अधिक राज करने वाली ही सरकार है. यह अलग बात है कि उनका जोर गरीबी की बजाये गरीबों को हटाने पर ही अधिक रहा. हाँ, इधर उनके पौत्र राहुल जरूर आशा जगाते हैं कि उन्हें गरीबों की कुछ फ़िक्र है.

ऐसे में समय आ गया है, जब सरकार को जाना चाहिए, केवल पवार की बलि तक से लोकतंत्र के सबसे बड़े देव जनता जनार्दन को संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए. अन्यथा सरकार को अब तो बातों के इतर कुछ करके दिखाना चाहिए, सत्ता छोड़ कर जाने या दूसरों को सत्ता सौंपने का साहस न हो तो इतना तो कर के देख लें कि राहुल को कमान सौंप दें.

Tuesday, January 5, 2010

तिवारी जी के बहाने : नैतिकता और अनैतिकता


आखिर अपने तिवारी जी ना नुकुर कर आंध्र के राजभवन से 'घर' लौट आये हैं. कोशिश की कि घर में छुप कर बैठने के बजाये खुलकर रहेंयह दिखाने के लिए कि वह 'नग्नतामें भी साफ़ हैं, लेकिन वह इस कोशिश में लाख प्रयासों के बावजूद सफल नहीं हो पाए. 'चौरसियाजी' ने उन्हें नग्न कर ही दिया. उन्हें ताव में ही सही स्वयं पर लगे आरोपों को स्वीकार करना पड़ा....

तिवारी कौन हैं, शायद यह बताने की जरूरत नहीं. उन्होंने राजनीति की शुरुवात समाजवादियों की लाल टोपी पहनकर प्रजा सोशलिष्ट पार्टी से की थी, इसी पार्टी से वह 1952 व 1957 में उत्तर प्रदेश विधान सभा में पहली बार गए थे, लेकिन जब 1962 में हारे तो इसे झटक कांग्रेस का दामन थाम लिया. जहाँ से वह उत्तर प्रदेश के चार बार मुख्यमंत्री और केंद्र में प्रधानमंत्री छोड़कर न जाने किस-किस विभाग के मंत्री बने. हाँ, 1991 की राम लहर में वह भाजपा के नए प्रत्याशी बलराज पासी से हार गए और पहाड़ के मुलायम सिंह यादव के विरोध के दौर में मुलायम समर्थक एक दिन के मुख्यमंत्री जगदम्बिका पाल के समर्थन में दिए उनके एक बयान ने उन्हें चुनाव हरा न दिया होता तो वह देश के प्रधानमंत्री भी शायद बन गए होते. इतने बड़े कद के बावजूद कभी तिवारी ने इतना कुछ देने वाली कांग्रेस पार्टी से एक झटके में दामन झटक कर 'तिवारी कांग्रेस' बनाने से भी गुरेज न किया तो कभी "उत्तराखंड मेरी लाश पर बनेगा" कहने वाले तिवारी जी उत्तराखंड विधानसभा का सदस्य न होते हुए भी प्रदेश की पहली निर्वाचित विधानसभा के पहले मुख्यमंत्री बनने का लोभ संवरण न कर पाए, और अपनी अनिच्छा से बने उत्तराखंड को काट-पीट कर अपने उन चाटुकारों के साथ मिल-बाँट कर खाते रहे, जिन्होंने उनसे अब पूरी दूरी बना ली है. लगता है कि तिवारी जी के उसी दौर के कर्म अब उन्हें 'पिड़ा' रहे हैं. और एक वरिष्ठ पार्टी नेता के अनुसार पार्टी हाईकमान ने 'तिवारी नाम के सांप का फन' अपने पैरों तले तब तक के लिए दबा कर रख दिया है, जब तक वह कुचल कर दम न तोड़ दें. वैसे 'राजनीति में रिश्ते बनाए तो जाते हैं, पर अधिक लम्बे निभाये नहीं जाते. हाँ, वक्त पड़ने पर उनकी सियासी फसल जरूर काट ली जाती है' यह कहावत कभी तिवारी पर सटीक बैठती थी, और अब वह स्वयं इसके भुक्तभोगी हैं....
बहरहाल, तिवारीजी के आंध्र के राजभवन में सेक्स स्कैंडल में फंसने के दिनों से ही लोगों में तरह तरह की चर्चाएँ हैं. चर्चाएँ इस बात को लेकर नहीं कि 86 की उम्र में तिवारी ने ये क्या कर दिया ? क्यों किया? गंगा नहाने की उम्र में अपनी ही 'गंगा मैली' कर दीसफ़ेद खादी के लबादों वाली राजनीति में ऐसा दाग क्यों लगाया. वरन, किसी को संदेह नहीं है कि तिवारीजी ने ऐसा नहीं किया होगा आंध्र के राजजभवन में,   ही रोहित शेखर की मां उज्जवला शर्मा के साथ

तिवारीजी को जरा भी नजदीक से जानने वाले लोग अच्छी तरह जानते हैं कि वह ऐसे ही हैंउत्तराखंड में उनके ऐसे लाख चर्चे पहले से रहे हैंउत्तर प्रदेश के लखनऊरायबरेलीइलाहाबाद में भी उनकी ऐसी ही खूब पहचान हैउत्तराखंड में मुख्यमंत्री रहते ही उन्हें यहाँ के प्रसिद्ध कविगायक नरेन्द्र सिंह नेगी जी ने 'नौछमी नारेणाकह कर बाकायदा सीडी जारी कर दी थीजिसे तब उन्होंने बैन करवा दिया था लेकिन इन दिनों यह सीडी फिर से हिट हो रही हैइसमें तिवारी जी द्वारा लाल बत्ती से नवाजी गयी 'गोर्ख्यालीतथा अन्य महिला मित्रों की ओर भी इशारा किया गया था .इस मामले में भी जिस राधिका का नाम आ रहा है, वह उनकी पुरानी महिला मित्र ही बतायी जाती है, हालांकि वह अब उन्हें नंगा करने के लिए खुद यह खेल खेलने का दावा कर रही है. 

देश और खासकर उत्तराखंड में जहाँ उनके लाखों समर्थक हैं, जो उन्हें 'बूबू' (दादाजी) की तरह मानते और पूजते भी हैं, एक-आध बार के अलावा हमेशा उन्हें वोटों के रूप में अपना प्यार भी दिया. वहां भी कमोबेश सभी इस बात पर एकमत हैं. 

बहरहाल, कथित तौर पर तिवारी जी को उनके जवानी के दिनों में उनकी जरूरत के ताजे 'पकवान' परोसने वाले कुछ चाटुकार उनके समर्थन की मुहिम चलाये हुए हैं. बाकी लोग चटखारे ले रहे हैं.....तिवारीजी ने साबित कर दिया उत्तराखंड 'हर्बल स्टेट' है, जिस 86 की उम्र में लोग अपने पैरों पर खड़े नहीं हो पाते उस उम्र में तिवारी जी 'ख़राब स्वास्थ्य' के बावजूद तने हुए हैं... राजनीति का गंदा धंदा छूट भी गया तो 'यारसा गम्बू' के ब्रांड अम्बेसडर बनने का विकल्प तो खोल ही दिया है.....,लोग पूछ रहे हैं- तिवारीजी सही है कि आपने स्वास्थ्य कारणों से इस्तीफा दिया है, पर वह बीमारी तो बता दीजिये.. वगैरह... वगैरह.... 

लेकिन कुछ लोग उनके समर्थन में भी हैं, वह रामायण, महाभारत काल से लेकर चर्चिल, गाँधी, नेहरु.. जिन्ना....क्लिंटन जैसे उदाहरण देकर उन्हें सही साबित करने की कोशिश में हैं. 'शिबौ, त्याड़ज्यू को फंसाया गया है' कहकर झूठी सहानुभूति हासिल करने की असफल कोशिश भी की जा रही है. बहरहाल सभी सहमत हैं की उन्होंने ऐसा किया है. 

याद रखना होगा कि अनैतिकता हर युग में रही है पर हमेशा परदे के पीछे और विरोध के साथ......

इस भुलावे में भी न रहें की पश्चिम में सब चलता है की तर्ज पर इसे यहाँ भी स्वीकार कर लिया जायेगा. अपने यहाँ रुचिका का मामला चर्चा में है ही, I.A.S. अफसर रूपल देओल फिर से गिल से पद्मश्री वापस लिए जाने की मांग कर रही हैं. यहाँ देवभूमि से तो पूरे देश को 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता' का सन्देश गया था, और उधर पश्चिम में भी अनैतिक कर्म अनैतिक ही हैं. नैतिक होता तो क्लिंटन की हवस का शिकार होने के बाद से मोनिका सबूत की उस 'चादर' को इतने वर्ष न ढो रही होती. इसे साधारण बात मान कर भूल जाती. यदि होता तो आज ब्रिटेन का प्रसिद्ध समाचार पत्र 'द सन' तिवारी जी को लेकर अंग्रेजी में 'ऑर्गी मिनिस्टर 86' यानी 'भोगी मंत्री 86' हेडिंग लगाकर समाचार न छापता. 


अनैतिक तो केवल पशुओं में ही नैतिक हो सकता है. हाँ इंसानों में भी होता था, लेकिन तभी तक, जब तक उसने ज्ञान का फल नहीं खाया था. अनैतिकता केवल निर्बुद्धि लोगों के लिए ही नैतिक हो सकती है. और सार्वजनिक जीवन के लोगों में इतनी नैतिकता की उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि वह समाज के लिए आदर्श प्रस्तुत करैं. आखिर वह हमारे नेता हैं...लीडर हैं. और राजनेताओं में तो खास तौर पर, क्योंकि वह जनता के मत से ही इस मुकाम पर पहुंचे हैं.  

हाँ, आखिर में एक बात और, तिवारी जी के मामले में अन्य राजनेताओं की चुप्पी समझ से परे है. खास कर आदर्शों की बात करने वाली और मुख्य विरोधी दल भाजपा के नेताओं की, कहीं यह चुप्पी दूसरों पर कीचड़ उछालने से अपने दामन पर भी छीटे आने के डर के कारण है या उन्हें 'हम्माम में सभी नंगे' कहावत के सही साबित हो जाने का डर सता रहा है ?

यह भी पढ़ें :