आज देश के समक्ष बढ़ी किंकर्त्तव्यविमूढ़ता की स्थिति है. देश में महंगाई कहने भर को नहीं, वाकई सातवें आसमान पर है, और सरकार के मंत्री अपने सुख-संसाधनों के साथ अपने व्यापारी आकाओं के हित साधने की चिंताओं में न केवल उलझे हुए हैं, वरन "नीरो" की तरह "बंशी" बजा रहे हैं. खासकर "आम आदमी की सरकार" के कृषि मंत्री शरद पवार अपने सत्तासीन होने से ही आम आदमी की थाली खाली करने और पहले चीनी को अपने एक बयान से कढवा करने के बाद अब दूध को महंगाई की हांडी में उबालने पर तुले हुए हैं. देश के अकेले "इंसान" शशि थरूर आजादी के 62 साल बाद भी "आम आदमी" ही बने रहने को मजबूर अधिसंख्य देशवासियों को "जानवर" कह चुके हैं, और अफ़सोस कि "जानवर" घुड़क भी नहीं रहे.
एक समय था जब महंगा होने पर केवल प्याज ने सरकार गिरा दी थी, और आज कहने को देश के शीर्ष पदों पर एक-दो नहीं कई "देश के सर्वश्रेष्ठ अर्थशाश्त्री " आसीन हैं. स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन जी (मनमोहन ने तो त्रेता में भी बांसुरी बजाई थी, पर प्रेम की), पी चिदंबरम जी, मोंटेक सिंह अहलूवालिया जी, प्रणव जी तथा और भी कई लोग. लेकिन फिर भी महंगाई केवल कहने भर को नहीं, वास्तव में सुरसा के मुंह की तरह दिन दोगुनी-रात चौगुनी गति से बढ़ रही है. और सबसे बढ़ी चिंता की बात यह कि इन सभी को यह कहने में लेश मात्र की शर्म नहीं आ रही कि महंगाई को रोकने में वे असमर्थ हैं.
तो क्या देश के सामने संकट केवल महंगाई का ही नहीं वरन "देश के अर्थशाश्त्रियों के सामर्थ्य शून्य होने" का भी है ? हांलांकि मानना पड़ेगा की यह सच्चाई नहीं है, नेताओं की देश के बजाये निजी स्वार्थों को प्राथमिकता देने की राजनीतिक से अधिक व्यावसायिक मजबूरी इस समस्या की जड़ में है. शरद पवार व शशि थरूर जैसे उनके मंत्रिमंडल के अन्य व्यापारी मित्र भी इसी व्यवस्था के अंग लगते हैं.
याद रखना होगा कि केंद्र में अपने समय में "रोटी" के लिए चीखने वाले देशवासियों को "ब्रेड" खाने की सलाह देने वालीं और स्वयंभू "इंदिरा इज इंडिया" की "गरीबी हटाओ" के नारे के साथ 62 में से 50 साल से अधिक राज करने वाली ही सरकार है. यह अलग बात है कि उनका जोर गरीबी की बजाये गरीबों को हटाने पर ही अधिक रहा. हाँ, इधर उनके पौत्र राहुल जरूर आशा जगाते हैं कि उन्हें गरीबों की कुछ फ़िक्र है.
ऐसे में समय आ गया है, जब सरकार को जाना चाहिए, केवल पवार की बलि तक से लोकतंत्र के सबसे बड़े देव जनता जनार्दन को संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए. अन्यथा सरकार को अब तो बातों के इतर कुछ करके दिखाना चाहिए, सत्ता छोड़ कर जाने या दूसरों को सत्ता सौंपने का साहस न हो तो इतना तो कर के देख लें कि राहुल को कमान सौंप दें.