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Monday, December 24, 2012

आखिर क्यों छोटे कपडे पहनती हैं महिलायें ?

कहीं ग्‍लोबलाइजेशन ने महिलाओं को छोटे वस्‍त्रों का गुलाम तो नहीं बना डाला है ?
दिल्ली में छात्रा से गेंग रेप की घटना के बाद दो स्तरों पर बहस चल रही है। पहला, बलात्कारियों को फांसी या और भी कोई कड़ी सजा दी जानी चाहिए और दूसरे महिलाओं के वस्त्रों को लेकर..., मेरा मानना है-'महिलायें क्या पहनें और क्या नहीं' की बहस में पड़ने से पहले जरा पीछे मुड़ें, सिर्फ लड़कियों को न समझाने लगें कि वह क्या पहनें और क्या नहीं.....।
हमारे यहाँ 'पहनने' को लेकर दो बातें कही गयी हैं, पहला 'जैसा देश-वैसा भेष', और दूसरा 'खाना अपनी और पहनना दूसरों की पसंद का होना चाहिए'। यानी हम चाहे महिला हों या पुरुष, उस क्षेत्र विशेष में प्रचलित पोशाक पहनें, और वह पहनें जो दूसरों को ठीक लगे...। 
यानी यदि हम गोवा या किसी पश्चिमी देश में, या बाथरूम में हों तो वहां 'नग्न' या केवल अंत वस्त्रों में रहेंगे तो भी कोई कुछ नहीं कहेगा, वैसे भी 'हमाम' में तो सभी नंगे होते ही हैं। लेकिन जब भारत में हों, या दुनियां में कहीं भी मंदिर-मस्जिद, गुरूद्वारे या चर्च जाएँ तो पूरे शरीर के साथ ही शिर भी ढक कर ही आने की इजाजत मिलती है...। हम मनुष्यों की दुनियां में खाने-पहनने के सामान्य नियम सभी देशों-धर्मों में कमोबेश एक जैसे होते हैं। हाँ, उस क्षेत्र के भूगोल के हिसाब से जरूर बदलाव आता है। गर्म देशों में कम और सर्द देशों में अधिक कपडे पहने जाते हैं। इसी तरह भोजन में भी फर्क आ जाता है।
और जहाँ तक महिलाओं के वस्त्रों की बात है, शालीनता उनका गहना कही जाती है। उन्हें किसी और से प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं कि वह किन वस्त्रों में शालीन लगती हैं, और किन में भड़काऊ। और उन्हें यह भी खूब पता होता है कि वह कोई वस्त्र स्वयं को क्या प्रदर्शित करने (शालीन या भड़काऊ) के लिए पहन रही हैं, और वह इतनी नादान भी नहीं होतीं और दूसरों, खासकर पुरुषों की अपनी ओर उठ रही नज़रों को पहली नजर में ही न भांप पायें, जिसकी वह ईश्वरीय शक्ति रखती हैं। बस शायद यह गड़बड़ हो जाती है कि जब वह 'किसी खास' को 'भड़काने' निकलती हैं तो उस ख़ास की जगह दूसरों के भड़कने का खतरा अधिक रहता है।
नैनीताल में घूमते सैलानी 
एक और तथा सबसे बड़ी गड़बड़ इस वैश्वीकरण (Globalization) और खास तौर पर पश्चिमीकरण ने कर डाली है, देश-दुनिया के खासकर शहरी लोगों में मन के रास्ते घुसकर वैश्वीकरण ने हमारे तन को भी गुलाम बना डाला है। इसकी पहली पहचान होती हैं-लोगों द्वारा पहने जाने वाले वस्त्र। दुनिया भर के लोगों को एक जैसे वस्त्र पहनाकर आज निश्चित ही वैश्वीकरण इतर रहा होगा। और हम, खासकर लड़कियां इसका सर्वाधिक दंस झेल रही हैं. नैनीताल जैसे पर्वतीय नगर में कड़ाके की सर्दी में युवतियों को कम वस्त्रों में ठिठुरते और इस वैश्वीकरण का दंस झेलते हुए आराम से देखा जा सकता है। ऐसे कम वस्त्रों में वह कुछ 'मानसिक और आत्मिक तौर पर कमजोर पुरुषों' को भड़का ही दें तो इसमें उनका कितना दोष ?
नैनीताल में घूमते सैलानी 
इधर कुछ समय से कहा जा रहा है की महिलाओं पर बचपन से ही स्वयं को पुरुषों के समक्ष आकर्षक बनाये रखने का तनाव बढ़ रहा है। मैं इस बारे में पूरे विश्वास से कुछ नहीं कह सकता, अलबत्ता यह भी वैश्वीकरण का एक और दुष्परिणाम हो सकता है...।
लिहाजा मेरा मानना है कि किसी समस्या की एकतरफा समीक्षा करने की जगह तस्वीर के दूसरे (हो सके तो सभी) पहलुओं को देख लेना चाहिए। दिल्ली जैसी घटनाएं रोकनी हैं, तो बसों से काली फ़िल्में हटाकर, बलात्कारियों को फांसी या उन्हें नपुंसक बना देने, पुलिस को कितना भी चुस्त-दुरुस्त बना देने से कोई हल निकने वाला नहीं है.. यदि समस्या का उपचार करना है तो इलाज सड़ रहे पेड़ के तने या पत्तियों से नहीं जड़ से करना होगा..देश की भावी पीढ़ियों-लडके-लड़कियों दोनों को बचपन से, घर से, स्कूल से संस्कारों की घुट्टी पिलानी होगी, जरूरी मानी जाये तो एक उम्र में आकर यौन शिक्षा और अपना भला-बुरा समझने की शिक्षा भी देनी होगी..।
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दिल्ली गेंग रेप केस: क्या सिर्फ बोलना काफी है......?

Thursday, December 20, 2012

दिल्ली गेंग रेप केस: क्या सिर्फ बोलने से रुक जायेंगे बलात्कार ?



दिल्ली में पैरा मेडिकल की छात्रा के साथ चलती बस में हुए गैंग रेप जैसे अमानवीय कृत्य के बाद आज हर कोई कह रहा है, बलात्कारियों को फांसी दो। सिने कलाकार अमिताभ बच्चन ने कहा है, आरोपियों को नपुंसक बना दो। मैं भी, आप भी, यह भी, वह भी, समाज का हर व्यक्ति, पुरुष, महिला, युवा, लड़के-लड़कियां, माता, पिता, भाई, बहन, बृद्ध, अधेड़ों के साथ अबोध बच्चे भी। पुलिस, प्रशासन, शिक्षक, मीडिया, फिल्मों के लोग भी, और अब तो स्वयं आरोपी भी कह चुके हैं कि उन्हें फांसी दे दो।

और हास्यास्पद कि, संसद में बैठे सांसद भी कह रहे हैं, ऐसे बलात्कारियों को फांसी दी जानी चाहिए। हास्यास्पद है, क्या उन्हें नहीं मालूम कि देश में बलात्कारियों को फांसी की सजा का प्राविधान नहीं है। और ऐसा प्राविधान, कानून में संसोधन केवल वही कर सकते हैं। और एसा कहने वाले लोग भी केवल कहने से आगे कुछ कर सकते हैं, क्या नहीं....?

दूसरी बात, कोई नहीं कह सकता कि दिल्ली की यह वारदात अपनी तरह की पहली या आखिरी वारदात है। यह भी कोई पूरे विश्वास से नहीं कह सकेगा कि बलात्कार पर फांसी या नपुंसक बनाने की सजा का प्राविधान हो जाए तो बलात्कार की घटनाओं पर रोक लग जाएगी। जैसे हत्या पर फांसी की सजा का प्राविधान है, लेकिन इस सजा से क्या हत्याओं पर रोक लग गई है ?

ऐसे में अच्छा न हो कि हम सब केवल बातें करने से इतर ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिए अपनी ओर से भी कुछ योगदान दें। ऐसी समस्या के मूल कारण तलाशें। हम माता, पिता, भाई-बहन या शिक्षक हैं तो अपने बच्चों को अच्छी नैतिक, चारित्रिक व संस्कारवान शिक्षा दें। मीडिया, फिल्मों, टीवी वाले या युवा लड़के, लड़कियां हैं तो अश्लीलता, उत्श्रृखलता से बचें, वस्त्रों, बात-व्यवहार में शालीनता बरतें। पुलिस, प्रशासन में हैं तो ऐसे आरोपियों को कड़ी सजा (मौजूदा कानूनों के कड़ाई से पालन से भी) दिलाएं। संसद में हैं तो ऐसे कड़े कानून बनाएं। और क्या-क्या कर सकते हैं, आप क्या सोचते हैं ?