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Thursday, March 27, 2014

उत्तराखंड में अनूठी है भाई-बहन के प्रेम की 'भिटौली' परंपरा

  • चैत्र माह में निभाई जाती है यह परंपरा, भाई देते हैं बहनों को सौगात
अनेक अनूठी परंपराओं के लिए पहचाने जाने वाले उत्तराखण्ड राज्य में भाई-बहन के प्रेम की एक अनूठी ‘भिटौली’ देने की प्राचीन परंपरा है। पहाड़ में सभी विवाहिता बहनों को जहां हर वर्ष चैत्र मास का इंतजार रहता है, वहीं भाई भी इस माह को याद रखते हैं और अपनी बहनों को ‘भिटौली’ देते हैं। 
घुघुती
'भिटौली' का शाब्दिक अर्थ भेंट देने से हैं। प्राचीन काल से चली आ रही यह परंपरा उस दौर में काफी महत्व रखती थी। इसके जरिए भाई-बहन का मिलन तो होता ही था, इसके जरिए उस संचार के साधन विहीन दौर में अधिकांशतया बहुत दूर होने वाले मायकों की विवाहिताओं की कुशल-क्षेम मिल जाती थी। भाई अपनी बहनों के लिए घर से हलवा-पूड़ी सहित अनेक परंपरागत व्यंजन तथा बहन के लिए वस्त्र एवं उपलब्ध होने पर आभूषण आदि भी लेकर जाता था। बाद के दौर में व्यंजनों के साथ ही गुड़, मिश्री व मिठाई जैसी वस्तुएं भी भिटौली के रूप में दी जाने लगीं। व्यंजनों को विवाहिता द्वारा अपने ससुराल के पूरे गांव में बांटा जाता था। भिटौली का विवाहिताओं को बेसब्री से इंतजार रहता था। भिटौली जल्दी आना बहुत अच्छा माना जाता था, जबकि भिटौली देर से मिली तो भी बहनों की खुशी का पारा-वार न होता था। आज के बदलते दौर में भिटौली की परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों में तो कमोबेश पुराने स्वरूप में ही जारी है, लेकिन शहरी क्षेत्रों में भाइयों द्वारा ले जाए जाने वाले व्यंजनों का स्थान बाजार की मिठाइयों ने ले लिया है। भाई कई बार साथ में बहनों के लिए कपड़े ले जाते हैं, और कई बार इनके स्थान पर कुछ धनराशि देकर भी परंपरा का निर्वहन कर लिया जाता है।

लोकगीतों-दंतकथाओं में भी है भिटौली

भिटौली प्रदेश की लोक संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। इसके साथ कई दंतकथाएं और लोक गीत भी जुड़े हुए हैं। पहाड़ में चैत्र माह में यह लोकगीत काफी प्रचलित है- 
ओहो, रितु ऐगे हेरिफेरि रितु रणमणी, हेरि ऐछ फेरि रितु पलटी ऐछ।
ऊंचा डाना-कानान में कफुवा बासलो, गैला-मैला पातलों मे नेवलि बासलि।।
ओ, तु बासै कफुवा, म्यार मैति का देसा, इजु की नराई लागिया चेली, वासा।
छाजा बैठि धना आंसु वे ढबकाली, नालि-नालि नेतर ढावि आंचल भिजाली।
इजू, दयोराणि-जेठानी का भै आला भिटोई, मैं निरोलि को इजू को आलो भिटोई।।
इस लोकगीत का कहीं-कहीं यह रूप भी प्रचलित है-
रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।
डाली में कफुवा वासो, खेत फुली दैणा।
कावा जो कणाण, आजि रते वयांण।
खुट को तल मेरी आज जो खजांण।
इजु मेरी भाई भेजली भिटौली दीणा।
रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।
वीको बाटो मैं चैंरुलो।
दिन भरी देली मे भै रुंलो।
वैली रात देखछ मै लै स्वीणा।
आगन बटी कुनै ऊँनौछीयो -
कां हुनेली हो मेरी वैणा ?
रितु रैणा, ऐ गे रितु रैणा।
रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।।
भावार्थ :-
रुन झुन करती ऋतु आ गई है, ऋतु आ गई है रुन-झुन करती।
डाल पर 'कफुवा' पक्षी कूजने लगा, खेतों मे सरसों फूलने लगी।
आज तडके ही जब कौआ घर के आगे बोलने लगा।
जब मेरे तलवे खुजलाने लगे, तो मैं समझ गई कि -
माँ अब भाई को मेरे पास भिटौली देने के लिए भेजेगी।
रुन झुन करती ऋतु आ गई है, ऋतु आ गई है रुन-झुन करती।
मैं अपने भाई की राह देखती रहूंगी।
दिन भर दरवाजे मे बैठी उसकी प्रतीक्षा करुँगी।
कल रात मैंने स्वप्न देखा था।
मेरा भाई आंगन से ही यह कहता आ रहा था -
कहाँ होगी मेरी बहिन ?
रुन झुन करती ऋतु आ गई है, ऋतु आ गई है रुन-झुन करती।।

वहीं ‘भै भुखो-मैं सिती’ नाम की दंतकथा भी काफी प्रचलित है। कहा जाता है कि एक बहन अपने भाई के भिटौली लेकर आने के इंतजार में पहले बिना सोए उसका इंतजार करती रही। लेकिन जब देर से भाई पहुंचा, तब तक उसे नींद आ गई और वह गहरी नींद में सो गई। भाई को लगा कि बहन काम के बोझ से थक कर सोई है, उसे जगाकर नींद में खलल न डाला जाए। उसने भिटौली की सामग्री बहन के पास रखी। अगले दिन शनिवार होने की वजह से वह परंपरा के अनुसार बहन के घर रुक नहीं सकता था, और आज की तरह के अन्य आवासीय प्रबंध नहीं थे, उसे रात्रि से पहले अपने गांव भी पहुंचना था, इसलिए उसने बहन को प्रणाम किया और घर लौट आया। बाद में जागने पर बहन को जब पता चला कि भाई भिटौली लेकर आया था। इतनी दूर से आने की वजह से वह भूखा भी होगा। मैं सोई रही और मैंने भाई को भूखे ही लौटा दिया। यह सोच-सोच कर वह इतनी दुखी हुई कि ‘भै भूखो-मैं सिती’ यानी भाई भूखा रहा, और मैं सोती रही, कहते हुए उसने प्राण ही त्याग दिए। कहते हैं कि वह बहन अगले जन्म में वह ‘घुघुती’ नाम की पक्षी बनी और हर वर्ष चैत्र माह में ‘भै भूखो-मैं सिती’ की टोर लगाती सुनाई पड़ती है। पहाड़ में घुघुती पक्षी को विवाहिताओं के लिए मायके की याद दिलाने वाला पक्षी भी माना जाता है। ‘घुर-घुर न घुर घुघुती चैत में, मकें याद उं आपणै मैत की’ जैसे गीत भी काफी लोकप्रिय हैं।

पिथौरागढ में भिटौली पर 'चैतोल' की परंपरा

कुमाऊं के पिथौरागढ़ जनपद क्षेत्र में चैत्र मास में भिटौली के साथ ही चैतोल पर्व मनाए जाने की एक अन्य परंपरा भी है। चैत्र मास के अन्तिम सप्ताह में मनाये जाने वाले इस त्योहार में पिथौरागढ के समीपवर्ती गांव चहर-चौसर से डोला यानी शोभायात्रा भी निकाली जाती है, जो कि निकट के 22 गांवों में घूमती है। चैतोल के डोले को भगवान शिव के देवलसमेत अवतार का प्रतीक बताया जाता है, डोला पैदल ही 22 गांवों में स्थित भगवती देवी के थानों यानी मंदिरों में भिटौली के अवसर पर पहुंचता है। मंदिरों में देवता किसी व्यक्ति के शरीर में अवतरित होकर उपस्थित लोगों व भक्तों को आशीर्वाद देते हैं।

कुमाऊं के एक अन्य लोक पर्व 'फूलदेई' पर बच्चों 'द्वारा  पूजा' के दौरान गाया जाने वाला लोकगीत- 

" फूलदेई, छम्मा देई.…
जतुकै देला, उतुकै सही ।
देंणी द्वार, भर भकार,
सास ब्वारी, एक लकार,
यो देलि सौ नमस्कार ।
फूलदेई, छम्मा देई.…
जतुकै देला, उतुकै सही । "
प्रस्तुति: नवीन जोशी।

Monday, March 3, 2014

मुरली मनोहर जोशी और एनडी तिवारी बदल सकते हैं नैनीताल के चुनावी समीकरण !

-मोदी के लिए बनारस छो़ड़ नैनीताल आने का है मुरली मनोहर जोशी पर दबाव
-रोहित को पुत्र स्वीकारने के बाद राजनीतिक विरासत भी सोंप सकते हैं एनडी तिवारी
नवीन जोशी, नैनीताल। जी हां, अब तक कांग्रेस के राजकुमार केसी सिंह ‘बाबा’ के कब्जे वाली नैनीताल-ऊधमसिंहनगर संसदीय सीट एक बार फिर प्रदेश की सबसे बड़ी वीवीआईपी व हॉट सीट हो सकती है। अभी भले यहां कांग्रेस से बाबा या राहुल गांधी के खास प्रकाश जोशी तथा भाजपा से पूर्व सीएम भगत सिंह कोश्यारी, बची सिंह रावत और बलराज पासी में से किसी के लोक सभा चुनाव लड़ने के भी चर्चे हों, लेकिन बेहद ताजा राजनीतिक घटनाक्रमों को देखा जाए तो इस सीट से भाजपा अपने त्रिमूर्तियों में शुमार मुरली मनोहर जोशी को चुनाव मैदान में उतार सकती है। जोशी को इस हेतु मनाया जा रहा है। वहीं पूर्व सीएम एनडी तिवारी अपने जैविक पुत्र रोहित शेखर को स्वीकारने के बाद यहां से अपनी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की कोशिश कर सकते हैं। उनके जल्द ही संसदीय क्षेत्र का तीन दिवसीय कार्यक्रम भी तय बताया जा रहा है।
देश के बदले राजनीतिक हालातों में यूपी भाजपा के मिशन-272 प्लस की मुख्य धुरी माना जा रहा है। भाजपा मान रही है कि ‘मुजफ्फरनगर’ के हालिया हालातों और कल्याण सिंह व उनकी पार्टी के औपचारिक तौर पर पार्टी में आने के बाद पश्चिमी यूपी में भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण होना तय हो गया है। मध्य यूपी में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व उपाध्यक्ष राहुल गांधी का प्रभाव क्षेत्र मानते हुए भाजपा जबरन बहुत जोर लगाने के पक्ष में नहीं है, ऐसे में पूवी यूपी को साधने के लिए भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के लिए मुरली मनोहर जोशी की बनारस सीट खाली कराने का न केवल पार्टी वरन संघ की ओर से भी भारी दबाव अब खुलकर सामने आ गया है। दूसरी ओर जोशी लोस चुनाव लड़ने पर अढ़े हुए हैं। ऐसे में उन्हें काफी समय से नैनीताल सीट के लिए मनाये जाने की चर्चाएं अब सतह पर आने लगी हैं। गौरतलब है कि जोशी मूलतः उत्तराखंड के ही अल्मोड़ा के निवासी हैं, और 1977 में भारतीय लोकदल से अल्मोड़ा के सांसद रह चुके हैं। उनके नैनीताल आने की सूरत में माना जा रहा है कि पार्टी के यहां से तीन प्रबल दावेदार भगत सिंह कोश्यारी, बची सिंह रावत व बलराज पासी के होने की वजह से उठ रही भितरघात की संभावनाएं क्षींण हो जाएंगी। वह नैनीताल से भली प्रकार वाकिफ भी हैं, और संसदीय क्षेत्र में ब्राह्मण मतों का ध्रुवीकरण भी कर सकते हैं, लिहाजा वह नैनीताल के लिए मान भी सकते हैं। भाजपा के लिए नैनीताल का संसदीय इतिहास भी बेहतर नहीं रहा है। यहां भाजपा के केवल बलराज पासी 1991 की रामलहर ओर  इला पंत 1998 में जीते भी तो जीत का अंतर करीब महज नौ और 12 हजार मतों का ही रहा, और आगे बाबा इस अंतर को कांग्रेस के पक्ष में बढ़ाते हुए 2004 में 40 हजार और 2009 में 88 हजार कर चुके हैं। ऐसे में यह सीट भाजपा के लिए कठिन है और इसे पार्टी का कोई हैवीवेट प्रत्याशी ही पाट सकता है।
दूसरी ओर एनडी तिवारी के लिए यह सीट 1980 से अपनी सी रही है। तिवारी ने यहां से 1980 में जीत हासिल की, 84 में उनके खास सत्येंद्र चंद्र गु़िड़या जीते और आगे 1996 में तिवारी ने अपनी तिवारी कांग्रेस के टिकट पर तथा 99 में पुनः कांग्रेस से जीत हासिल की। उल्लेखनीय है कि तिवारी हाल में कांग्रेस पार्टी में रहते हुए भी सपा से नजदीकी बढ़ा चुके हैं, और ताजा घटनाक्रम में उन्होंने रोहित शेखर को एक दशक लंबी चली कानूनी लड़ाई के बाद अपना पुत्र मान लिया है। उनका तीन दिवसीय नैनीताल दौरा तीन जनवरी से तय भी हो गया था। ऐसे में आने वाले कुछ दिन इस संसदीय सीट पर नए गुल भी खिला सकते हैं।

रावत, तिवारी, जोशी का भी अलग राजनीतिक त्रिकोण

नैनीताल। हालांकि यह अभी राजनीतिक भविष्य के गर्भ में है, लेकिन अटकलें सही साबित हुईं तो उत्तराखंड में हरीश रावत, एनडी तिवारी और मुरली मनोहर जोशी का अलग राजनीतिक त्रिकोण भी चर्चाओं में रहना तय है। रावत और तिवारी का संघर्ष हमेशा से प्रदेश की राजनीति में दिखता रहा है। 2002 में तिवारी के नेतृत्व वाली तिवारी सरकार के पूरे कार्यकाल में यह संघर्ष खुलकर नजर आया। रावत जिस तरह तिवारी को परेशान किए रहे, ऐसे में रावत की ताजपोशी तिवारी को कितना रास आ रही होगी, समझना आसान है। वहीं रावत एवं जोशी के बीच उनके मूल स्थान अल्मोड़ा में 1980 से जंग शुरू हुई थी, जब युवा रावत ने तब के सिटिंग सांसद जोशी को 80 और 84 के लगातार दो चुनावों में हराकर अल्मोड़ा छोड़ने पर ही मजबूर कर दिया था।
यह भी पढ़ें: तिवारी के बहाने 

Wednesday, February 26, 2014

यह क्या अजीबोगरीब हो रहा हरीश सरकार में !

हरीश रावत के आते ही तीन 'रावत' निपटे 
उत्तराखंड में जब से हरीश रावत के नेतृत्व में सरकार बनी है, बहुत कुछ अजीबोगरीब हो रहा है। विरोधियों को 'विघ्नसंतोषी' कहने और उनसे निपटने में महारत रखने वाले रावत के खिलाफ मुंह खोल रहे और खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बता रहे तीन रावत (सतपाल, अमृता और हरक) निपट चुके हैं। सतपाल व अमृता के खिलाफ विपक्ष ने अपने परिजनो को पॉलीहाउस बांटने में घोटाले का आरोप लगाया, और सीबीआई जांच की मांग उठाई है। हरक का नाम दिल्ली की लॉ इंटर्न ने छेड़खानी का मुक़दमा दर्ज कराकर ख़राब कर दिया है। बचा-खुचा नाम भाजपाई हरक को 'बलात्कारी हरक सिंह रावत' बताकर और उनका पुतला फूंक कर ख़राब करने में जुट गए हैं। रावत ने पहले ही उनके पसंदीदा कृषि महकमे की एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी गैर विधायक तिलक राज बेहड़ को मंत्री के दर्जे के साथ देकर जोर का झटका धीरे से दे दिया था। विपक्ष के 'मुंहमांगे' से अविश्वाश प्रस्ताव से हरीश सरकार पहले ही छह मांह के लिए पक्की हो ही चुकी है। अब यह समझने वाली बात है कि विरोधी खुद-ब-खुद निपट रहे और रावत की राह स्वतः आसान होती जा रही है कि यह रावत के राजनीतिक या कूटनीतिक कौशल का कमाल है। 

माँगा गाँव-मिला शहर  

हरीश रावत सरकार आसन्न त्रि-स्तरीय पंचायत व लोक सभा चुनावों की चुनावी बेला में अनेक अनूठी चीजें कर रही हैं। अचानक राज्य के सब उत्तराखंडी लखपति हो गए हैं। सरकार ने बताया है, राज्य की प्रति व्यक्ति आय 1,12,000 रुपये से अधिक हो गयी है। सांख्यिकी विभाग ने आंकड़ों की बाजीगरी कर कर सिडकुल में लगे चंद उद्योगों के औद्योगिक घरानों की आय राज्य की जीडीपी में जोड़कर यह कारनामा कर डाला है।
दूसरे संभवतया देश में ही ऐसा पहली बार हुआ है कि राज्य में पंचायत चुनावों की अधिसूचना 1 मार्च को और चुनाव आचार संहिता 2 मार्च से जारी होने वाली है और चुनावों के लिए नामांकन पत्रों की बिक्री इससे एक सप्ताह पहले 24 फरवरी से ही शुरू हो गयी है।
तीसरे राज्य के वन क्षेत्र सीधे ही शहर बन गए हैं। लालकुआ के पास पूरी तरह वन भूमि पर बसे बिन्दुखत्ता को राज्य कैबिनेट ने जनता की राजस्व गाँव घोषित करने की मांग से भी कई कदम आगे बढ़कर एक तरह के बिन मांगे ही स्वतंत्र रूप से नगर पालिका बनाने की घोषणा कर दी है, वहीँ इसी तरह के दमुवाढूंगा को सीधे हल्द्वानी नगर निगम का हिस्सा बनाने की घोषणा कर दी गयी है।

Thursday, February 6, 2014

कौन और क्या हैं हरीश रावत


रीश रावत उत्तराखंड में कांग्रेस के सबसे कद्दावर व मंझे हुए राजनेताओं में शामिल रहे हैं। अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत से ही जनता के दुलारे इस राजनेता का ऐसा आकर्षण था, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने सबसे कम उम्र में ब्लाक प्रमुख बनने का रिकार्ड बनाया। हालांकि बाद में निर्धारित से कम उम्र का होने के कारण उन्हें भिकियासेंण के ब्लाक प्रमुख के पद से इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेशों पर हटना पड़ा था। 1980 में अपने पहले संसदीय चुनाव में भाजपा के त्रिमूर्तियों में शुमार व तब भारतीय लोक दल से सांसद रहे मुरली मनोहर जोशी को पटखनी देकर हमेशा के लिए संसदीय क्षेत्र छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। वहीं 1989 के लोस चुनावों में उन्होंने उक्रांद के कद्दावर नेता व वर्तमान केंद्रीय अध्यक्ष काशी सिंह ऐरी और भाजपा के भगत सिंह कोश्यारी को बड़े अंतर से हराया। इस चुनाव में उन्हें 1,49,703, ऐरी को 1,38,902 और कोश्यारी को केवल 34,768 वोट मिले। अब इसे ‘देर आयद-दुरुस्त आयद’ ही कहा जाएगा कि रावत कोश्यारी से 12 वर्षों के बाद उत्तराखंड के आठवें मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे हैं।
27 अप्रैल 1947 को तत्कालीन उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा जिले के ग्राम मोहनरी पोस्ट चौनलिया में स्वर्गीय राजेंद्र सिंह रावत व देवकी देवी के घर जन्मे रावत की राजनीति यात्रा एलएलबी की पढ़ाई के लिए लखनऊ विश्व विद्यालय जाने से शुरू हुई। यहां वह रानीखेत के कांग्रेस विधायक व यूपी सरकार में कद्दावर मंत्री गोविंद सिंह मेहरा के संपर्क में आए, और उनकी पुत्री रेणुका से दूसरा विवाह किया। यहीं संजय गांधी की नजर भी उन पर पड़ी, जिन्होंने तभी उनमें भविष्य का नेता देख लिया था, और केवल 33 वर्ष के युवक हरीश को 1980 में कांग्रेस पार्टी का सक्रिय सदस्य बनाकर लोक सभा चुनावों में अल्मोड़ा संसदीय सीट से कांग्रेस-इंदिरा का टिकट दिलाने के साथ ही कांग्रेस सेवादल की जिम्मेदारी भी सोंप दी। इस चुनाव में एक छात्र हरीश ने गांव से निकले एक आम युवक की छवि के साथ तत्कालीन सांसद प्रो. मुरली मनोहर जोशी के विरुद्ध 50 हजार से अधिक मतों से बड़ी पटखनी देकर भारतीय राजनीति में एक नए नक्षत्र के उतरने के संकेत दे दिए। जोशी को मात्र 49,848 और रावत को 1,08,503 वोट मिले। आगे 1984 में भी उन्होंने जोशी को हराकर अल्मोड़ा सीट छोड़ने पर ही विवश कर दिया। 1989 के चुनावों में उक्रांद के कद्दावर नेता काशी सिंह ऐरी निर्दलीय और भगत सिंह कोश्यारी भाजपा के टिकट पर उनके सामने थे। यह चुनाव भी रावत करीब 11 हजार वोटों से जीते। रावत को 1,49,703, ऐरी को 1,38,902 और कोश्यारी को केवल 34,768 वोट मिले, और यही कोश्यारी रावत से 12 वर्ष पहले उत्तराखंड के दूसरे मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे। आगे वह युवा कांग्रेस व कांग्रेस की ट्रेड यूनियन के साथ ही 2000 से 2007 तक उत्तराखंड कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। इस बीच 2002 में वह राज्य सभा सांसद के रूप में भी संसद पहुंचे।
उत्तराखंड आंदोलन के दौर में भी हरीश रावत की प्रमुख भूमिका रही। उन्होंने उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति की स्थापना कर राज्य आंदोलन को आगे बढ़ाया, और राज्य की मजबूती के लिए उत्तराखंड को राज्य से पहले केंद्र शासित प्रदेश बनाने की मांग के साथ राज्य आंदोलन की बागडोर अपने हाथों में ले ली थी। आगे रामलहर के दौर में रावत भाजपा के नए चेहरे जीवन शर्मा से करीब 29 हजार वोटों से सीट गंवा बैठे। इसके साथ ही विरोधियों को मौका मिल गया, जो उनकी राजनीतिक छवि एक ब्राह्मण विरोधी छत्रिय नेता की बनाते चले गए, जिसका नुकसान उन्हें बाद में केंद्रीय मंत्री बने भाजपा नेता बची सिंह रावत से लगातार 1996, 1998 और 1999 में तीन हारों के रूप में झेलना पड़ा। 2004 के लोक सभा चुनावों में हरीश की पत्नी रेणुका को भी बची सिंह रावत ने करीब 10 हजार मतों के अंतर से हरा दिया। लेकिन यही असली राजनीतिज्ञ की पहचान होती है, कि वह विपरीत हालातों को भी अपने पक्ष में मोड़ने की काबीलियत रखता है। 2009 के चुनावों में रावत ने एक असाधारण फैसला करते हुए दूर-दूर तक संबंध रहित प्रदेश की हरिद्वार सीट से नामांकन करा दिया, जहां समाजवादी पार्टी से उनकी परंपरागत सीट रिकार्ड 3,32,235 वोट प्राप्त कर हासिल की गई जीत के साथ रावत का मंझे हुए राजनीतिज्ञ के रूप में राजनीतिक पुर्नजन्म हुआ। इसी जीत के बाद उन्हें केंद्र सरकार में पहले श्रम राज्यमंत्री बनाया गया, और आगे केंद्रीय मंत्रिमंडल में उनका कद बढ़ता चला गया। वर्ष 2011 में कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग में राज्य मंत्री तथा बाद में ससंदीय कार्य राज्य मंत्री बनाया गया, और 2012 में वह जल संसाधन मंत्रालय के कैबिनेट मंत्री बना दिए गए। इस दौरान वह लगातार विपक्ष के हमले झेल रही यूपीए सरकार और कांग्रेस पार्टी के ‘फेस सेवर’ की दोहरी जिम्मेदारी निभाते रहे। अनेक बेहद विषम मौकों पर जब पार्टी के कोई भी नेता मीडिया चैनलों पर आने से बचते थे, रावत एक ही दिन कई-कई मीडिया चैनलों पर अपनी कुशल वाकपटुता और तर्कों के साथ पार्टी और सरकार का मजबूती से बचाव करते थे। इस तरह वह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी के समक्ष उत्तराखंड के सबसे विश्वस्त और भरोसेमंद राजनेता बनने में सफल रहे। शायद इसी का परिणाम रहा कि 2002 और 2012 के विधानसभा चुनावों में पार्टी को प्रदेश में सत्ता तक पहुंचाने में सबसे प्रमुख भूमिका निभाने वाले हरीश रावत के राजनीतिक कौशल की हाईकमान अधिक दिनों तक अनदेखी नहीं कर पाया, और अब आगामी लोक सभा चुनावों के विपरीत नजर आ रहे हालातों में रावत के हाथों में ही संकटमोचक के रूप में उत्तराखंड राज्य की सत्ता सोंप दी गई है।
ऐसे में लगातार मुख्यमंत्री बदलने की छवि बना रहे 13 वर्षों के उत्तराखंड राज्य में आठवें मुख्यमंत्री के रूप में रावत की ताजपोशी कई मायनों में सुखद है। कमोबेश पहली बार ही राज्य के एक वास्तविक संघर्षशील, केंद्र से लेकर राज्य तक बेहतर संबंधों वाले, राज्य के जन-जन से आत्मीय और नजदीकी रिश्ता रखने वाले और मंझे हुए अनुभवी राजनेता को राज्य की कमान मिली है। वह पूरे प्रदेश और उसकी अच्छाइयों के साथ ही कमियों से भी वाकिफ हैं, तथा सत्ता पक्ष के साथ ही विपक्ष में भी उनकी बेहतर छवि है। मुख्यमंत्री बनते ही राज्य के दूरस्थ आपदाग्रस्त केदारघाटी और धारचूला क्षेत्र के लोगों के आंसू पोंछते हुए उन्होंने अपनी बेहतर कार्यशैली के संदेश भी दे दिए हैं।

स्याह पक्ष:

गांव में एक पत्नी के होते हुए रावत ने रेणुका से दूसरा विवाह किया। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान वह राज्य विरोधी रहे। इसी कारण 1989 के लोक सभा चुनावों के लिए उन्हें जनता के विरोध को देखते हुए अल्मोड़ा में नामांकन कराने के लिए भी चुपचाप अकेले आना पड़ा। लेकिन इस चुनाव में उक्रांद के काशी सिंह ऐरी को हराने के बाद राजनीतिक चालबाजी दिखाते हुए अचानक उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति का गठन कर खुद को राज्य आंदोलन से भी जोड़ लिया। हालांकि इस दौरान भी वह राज्य से पहले केंद्र शासित प्रदेश की मांग पर बल देते रहे। अल्मोड़ा के सांसद रहते वह ब्राह्मण विरोधी क्षत्रिय नेता बनते चले गए, जिसका खामियाजा उन्हें बाद में स्वयं की हार की तिकड़ी और पत्नी रेणुका की भी हार के साथ अल्मोड़ा छोड़ने के रूप में भुगतना पड़ा। आगे प्रदेश में पंडित नारायण दत्त तिवारी और विजय बहुगुणा सरकारों को लगातार स्वयं और अपने समर्थक विधायकों के भारी विरोध के निशाने पर रखा, और अपनी ब्राह्मण विरोधी क्षत्रिय नेता और सत्ता के लिए कुछ भी करने वाले नेता की छवि को आगे ही बढ़ाया। केंद्र में श्रम एवं सेवायोजन, कृषि एवं खाद्य प्रसंसकरण तथा जल संसाधन मंत्री रहे, लेकिन इन मंत्रालयों के जरिए प्रदेश के बेरोजगारों को रोजगार, कृषि व फल उत्पादों को बढ़ावा देने तथा जल संसाधनों के सदुपयोग की दिशा में उन्होंने एक भी उल्लेखनीय कार्य राज्य हित में नहीं किया।

मुख्यमंत्री हरीश रावत का राजनीतिक लेखा-जोखा 

चुनाव लोक सभा क्षेत्र         जीते                                                हारे
1980 अल्मोड़ा हरीश रावत-कांग्रेस-ई (108530) मुरली मनोहर जोशी-भाजपा(49848)
1884 अल्मोड़ा हरीश रावत-कांग्रेस (185006)         मुरली मनोहर जोशी-भाजपा(44674)
1989 अल्मोड़ा हरीश रावत-कांग्रेस (149703)         काशी सिंह ऐरी-निर्दलीय (138902)
1991 अल्मोड़ा जीवन शर्मा-भाजपा (149761)         हरीश रावत-कांग्रेस (120616)
1996 अल्मोड़ा बची सिंह रावत-भाजपा (161548) हरीश रावत-कांग्रेस (104642)
1998 अल्मोड़ा बची सिंह रावत-भाजपा (228414) हरीश रावत-कांग्रेस (146511)
1999 अल्मोड़ा बची सिंह रावत-भाजपा (192388)   हरीश रावत-कांग्रेस (180920)
2004 अल्मोड़ा बची सिंह रावत-भाजपा (225431)   रेणुका रावत-कांग्रेस (215568)
2009 हरिद्वार हरीश रावत -कांग्रेस (332235)        स्वामी यतींद्रानंद गिरि-भाजपा (204823)
(यह पोस्ट उत्तराखंड के नए मुख्यमंत्री के बारे में अधिकाधिक जानकारी देने के उद्देश्य से तैयार की गई है।)

यह भी पढ़ें: क्या अपना बोया काटने से बच पाएंगे हरीश रावत ?
कांग्रेस पार्टी और उनके नेताओं के सम्बन्ध में इस ब्लॉग पर और पढ़ें : यहां क्लिक कर के

Sunday, February 2, 2014

दर्द से कहीं बड़ी होती है देश को जिताने की खुशी

आज भी बच्चों को प्रेरित करने के लिए समर्पित है ओलंपियन राजेंद्र रावत का जीवन
ह प्रतिष्ठित अजलान शाह हॉकी टूर्नामेंट के पहले संस्करण का मलेशिया में हो रहा फाइनल मुकाबला था। जर्मनी के फुल बैक खिलाड़ी ने पेनाल्टी कार्नर से गेंद भारतीय गोल पोस्ट की ओर पूरे वेग से दागी। गोली की गति से गेंद भारतीय गोलकीपर के घुटने की हड्डी पर टकराई और मैदान से बाहर निकल गई। गोलकीपर के दर्द की कोई सीमा न थी, लेकिन वह दर्द के बजाय खुशी से उछल रहा था, कारण भारत वह फाइनल और प्रतियोगिता का स्वर्ण पदक जीत चुका था।
पहली अजलान शाह हॉकी प्रतियोगिता में भारत की जीत के वह हीरो गोलकीपर राजेंद्र सिंह रावत उत्तराखंड की धरती के हैं। देश के राष्ट्रीय खेल के प्रति जोश और जुनून का जज्बा उन्हें आगे चलकर 1988 के सियोल ओलंपिक तक ले गया। कभी नैनीताल के मल्लीताल जय लाल साह बाजार में पट्ठों के पैड और नगर के रेतीले खेल मैदान फ्लैट्स में नंगे पांव हॉकी खेलने वाला यह गुदड़ी का लाल नगर के सीआरएसटी इंटर कॉलेज में पढ़ने के दौरान जिले की टीम में क्या चुना गया, उसके बाद उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज भी उनमें खेल के प्रति वही जोश व जज्बा उसी फ्लैट्स मैदान पर 40-50 बच्चों को अपनी नैनीताल हॉकी अकादमी में हॉकी सिखाते हुए देखा जा सकता है। वह अभी हाल में यहां ऐतिहासिक 1880 में स्थापित नैनीताल जिमखाना एवं जिला क्रीड़ा संघ के प्रतिष्ठित अवैतनिक महासचिव के पद पर भी चुने गए हैं। पुराने दिनों को याद कर रावत बताते हैं कि उनके पिता स्वर्गीय देव सिंह रावत नगर के जय लाल साह बाजार में मिठाई की छोटी सी दुकान चलाते थे। यहीं से अभावों के बीच वह पहले सीआरएसटी और फिर जिले की टीम में चुने गए। इसके बाद उन्हें पहले स्पोर्ट्स हॉस्टल मेरठ और फिर लखनऊ में प्रशिक्षण का मौका मिल गया। इंग्लैंड के उस दौर के सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर एलन को बिना देखे अपना गुरु मानकर वह आगे बढ़े। दिल में था, नाम भले कैप्टन का हो लेकिन गोलकीपर की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए गोल बचाएंगे और देश को मैच जिताएंगे। 1982 में वह भारतीय जूनियर हॉकी टीम का हिस्सा बन गए और क्वालालंपुर में जूनियर वर्ल्ड कप खेले। 85 के जूनियर वर्ल्ड कप में उन्हें टीम का उप कप्तान बनाया गया। 1985 में देश की सीनियर टीम में आकर हांगकांग में 10वीं नेशन हॉकी टूर्नामेंट में खेले। इसी वर्ष दुबई में हुए चार देशों के टूर्नामेंट में वह प्रतियोगिता के सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर चुने गए। भारत ने यह प्रतियोगिता अपने नाम की। 1986 में लंदन में हुए छठे विश्व कप में वह प्रतियोगिता के साथ दुनिया के सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर चुने गए। इस प्रतियोगिता के फाइनल मुकाबले में उनके द्वारा इंग्लैंड के विरुद्ध रोके गए दो पेनल्टी स्ट्रोकों को आज भी याद किया जाता है। रावत बताते हैं कि हॉकी के जादूगर ध्यान चंद के दौर में पूरी दुनिया में घास के मैदानों में ही हॉकी खेली जाती थी, तब इस खेल में भारत का डंका बजता था। लेकिन 1976 के बाद विदेशों में आए एस्ट्रो टर्फ के मैदानों और अन्य सुविधाओं की वजह से भारत की हॉकी पिछड़ती चली गई। वह बताते हैं, उस दौर में देश में पटियाला में इकलौता केवल 25 गज का एस्ट्रो टर्फ का मैदान हुआ करता था, जबकि हालैंड जैसे छोटे से देश में ऐसे 120 बड़े मैदान थे। भारतीय खिलाड़ियों के पास हेलमेट, पैड, गार्ड आदि नहीं हुआ करते थे। भारत और पाकिस्तान में ही हॉकी स्टिक बनती थीं, इसलिए भारतीय खिलाड़ी अपनी हॉकी देकर विदेशी खिलाड़ियों से हेलमेट खरीदकर मैच खेलते थे। भारतीय खिलाड़ियों के पैड रुई के बने होते थे, जो एस्ट्रो टर्फ के पानी युक्त मैदानों में भीग जाते थे और उन्हें पंखों से सुखाना पड़ता था। फाइबर के पैडों से खेलने वाले विदेशी खिलाड़ियों के साथ यह समस्या नहीं थी।
प्रस्तुति: नवीन जोशी

Saturday, February 1, 2014

क्या अपना बोया काटने से बच पाएंगे हरीश रावत ?

त्तराखंड राज्य के आठवें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण करने वाले हरीश रावत की धनै के पीडीएफ से इस्तीफे, महाराज के आशीर्वाद बिना और झन्नाटेदार थप्पड़ जैसे एक्शन-ड्रामा के साथ हुई ताजपोशी के बाद यही सबसे बड़ा सवाल उठ रहा है कि क्या रावत अपना बोया काटने से बच पाएंगे। इस बाबत आशंकाएं गैरवाजिब भी नहीं हैं। रावत के तीन से चार दशक लंबे राजनीतिक जीवन में उपलब्धियों के नाम पर वादों और विरोध के अलावा कुछ नहीं दिखता। 
चाहे राज्य की पिछली बहुगुणा सरकार हो या 2002 में प्रदेश में बनी पं. नारायण दत्त तिवारी की सरकार, रावत ने कभी अपनी सरकारों और मुख्यमंत्रियों के विरोध के लिए विपक्ष को मौका ही नहीं दिया। इधर केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहते चाहे श्रम राज्य मंत्री का कार्यकाल हो, उन्होंने बेरोजगारी व पलायन से पीड़ित अपने राज्य के लिए एक भी कार्य उपलब्धि बताने लायक नहीं किया। वह कृषि मंत्री बने तब भी उन्होंने लगातार किसानी छोड़कर पलायन करने को मजबूर अपने राज्य के किसानों के लिए कुछ नहीं किया। जल संसाधन मंत्री बने, तब भी अपने राज्य की जवानी की तरह ही बह रहे पानी को रोकने या उसके सदुपयोग के लिए एक भी उल्लेखनीय पहल नहीं की। कुल मिलाकर तीन-चार दशक लंबे राजनीतिक करियर के बावजूद रावत के पास अपनी उपलब्धियां बताते के लिए कुछ है तो उत्पाती प्रकृति के समर्थक, जिनकी झलक रावत ने अपनी ताजपोशी से पहले खुद भी अपनी ही पार्टी के एक कार्यकर्ता को झन्नाटेदार थप्पड़ जड़कर दिखा दी है।

इधर, बहुगुणा की सरकार बनने के दौरान एक हफ्ते तक दिल्ली में पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र के नाम पर चले राजनीतिक ड्रामे की यादें अभी बहुत पुरानी नहीं पड़ी हैं, जिसकी हल्की झलक शनिवार को उनकी ताजपोशी के दिन सतपाल महाराज ने दिखा दी है। शपथ ग्रहण समारोह में उनके साथ शपथ लेते मंत्रियों के बुझे चेहरे भी बहुत कुछ कहानी कह रहे थे। बहुगुणा जाते-जाते अपने अनेक समर्थकों को ‘बैक डेट’ से दायित्व देकर उनके लिए परेशानी के सबब पहले ही खड़े कर चुके हैं, जिन्हें उगलना और निगलना दोनों रावत के लिए आसान न होगा। उनके रहते रावत अपने समर्थकों को माल-मलाई देकर कैसे सहलाएंगे, यह बड़ा सवाल है। व्यक्तिगत रूप से वह, उनके समर्थकों का चाल-चरित्र कैसा रहने वाला है, इसकी झलक खुद तो दिखा ही चुके हैं, उनके आज 'कंधों पर झूलते' उनके बड़े समर्थकों के 'दिन-दहाड़े' के चर्चे भी आम हैं। इसलिए बहुत आश्चर्य नहीं उनके कार्यकाल के लिए आज चैनलों में प्रयुक्त किए जा रहे "राव'त' राज" का केवल एक अक्षर बदल कर आगे काम चलाया जाए। 

वह गूल में पानी ना आने पर प्रधानमंत्री को पत्र लिखने की अदा...

अपने शुरुआती राजनीतिक दौर में अपनी समस्याएं बताने वाले लोगों को तत्काल पत्र लिखकर समाधान कराने का वादा करना तब हरीश चंद्र सिंह रावत के नाम से पहचाने जाने वाले रावत का लोगों को अपना मुरीद बनाने का मूलमंत्र रहा। अपने खेत में पानी की गूल से पानी न आने की शिकायत करने वाले ग्रामीण को उनका तीसरे दिन ही पोस्टकार्ड से जवाब आ जाता कि उन्हें लगा है कि गूल में पानी आपके नहीं मेरी गूल में नहीं आ रहा है। उन्होंने शिकायत को सिंचाई विभाग के जेई, एई, ईई, एसई से लेकर राज्य के सिंचाई मंत्री, मुख्यमंत्री के साथ ही केंद्रीय सिंचाई मंत्री और प्रधानमंत्री को भी सूचित कर दिया है। गूल में पानी कभी ना आता, लेकिर ग्रामीण पत्र प्राप्त कर ही हरीश का मुरीद बन जाते। 

विरोध, विरोध और विरोध...

उत्तराखंड आंदोलन के दौरान हरीश की पहचान उत्तराखंड राज्य विरोधी की भी बनी, जिसके परिणामस्वरूप 1989 के चुनावों के लिए नामांकन कराने के लिए भी चुपचाप आना पड़ा था। बाद के वर्षों में हरीश की अपने अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र में ब्राह्मणद्रोही क्षत्रिय नेता की छवि बनती चली गई, जिसका परिणाम उन्हें अपनी हार की हैट-ट्रिक और पत्नी की भी हार के बाद अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र का रण छोड़ने पर विवश कर गया। राज्य के ब्राह्मण नेता तिवारी और बहुगुणा का लगातार विरोध करने से भी उनकी इस ब्राह्मण विरोधी छवि का विस्तार ही हुआ है। इसी का परिणाम है कि आज उन्होंने कुर्सी प्राप्त भी की है तो नारायण दत्त तिवारी के राज्य की राजनीति से दूर जाने के बाद....

Tuesday, January 14, 2014

कुमाऊं का ऋतु पर्व ही नहीं ऐतिहासिक व लोक सांस्कृतिक पर्व भी है उत्तरायणी


-1921 में इसी त्योहार के दौरान बागेश्वर में हुई रक्तहीन क्रांति, कुली बेगार प्रथा से मिली थी निजात
-घुघुतिया के नाम से है पहचान, काले कौआ कह कर न्यौते जाते हैं कौए और परोसे जाते हैं पकवान

नवीन जोशी, नैनीताल। दुनिया को रोशनी के साथ ऊष्मा और ऊर्जा के रूप में जीवन देने के कारण साक्षात देवता कहे जाने वाले सूर्यदेव के धनु से मकर राशि में यानी दक्षिणी से उत्तरी गोलार्ध में आने का पर्व पूरे देश में अलग-अलग प्रकार से मनाया जाता है। पूर्वी भारत में यह बीहू, पश्चिमी भारत (पंजाब) में लोहणी और दक्षिणी भारत (कर्नाटक, तमिलनाडु आदि) में पोंगल तथा उत्तर भारत में मकर संक्रांति के रूप में मनाया जाने वाला  यह पर्व देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में उत्तरायणी के रूप में मनाया जाता है।उत्तरायणी पर्व कुमाऊं का न केवल मौसम परिवर्तन के लिहाज से एक ऋतु पर्व वरन बड़ा ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पर्व भी है। 

घुघुते 
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में मकर संक्रांति यानी उत्तरायणी को लोक सांस्कृतिक पर्व घुघुतिया के रूप में मनाए जाने की विशिष्ट परंपरा रही है। यहाँ 14 जनवरी 1921 को इसी त्योहार के दिन हुए एक बड़े घटनाक्रम को कुमाऊं की ‘रक्तहीन क्रांति’ की संज्ञा दी जाती है, इस दिन कुमाऊं परिषद के अगुवा कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे के नेतृत्व में सैकड़ों क्रांतिकारियों ने कुमाऊं की काशी कहे जाने वाले बागेश्वर के सरयू बगड़ में सरयू नदी का जल हाथों में लेकर बेहद दमनकारी गोर्खा और अंग्रेजी राज के सदियों पुराने 'कुली बेगार' नाम के काले कानून संबंधी दस्तावेजों को नदी में बहाकर हमेशा के लिए तोड़ डाला था। यह परंपरा बागेश्वर में राजनीतिक दलों के सरयू बगड़ में पंडाल लगने और राजनीतिक हुंकार भरने के रूप में अब भी कायम है। इस त्योहार से कुमाऊं के लोकप्रिय कत्यूरी शासकों की एक अन्य परंपरा भी जुड़ी हुई है, जिसके तहत आज भी कत्यूरी राजाओं के वंशज नैनीताल जिले के रानीबाग में गार्गी (गौला) नदी के तट पर उत्तरायणी के दिन रानी जिया का जागर लगाते व परंपरागत पूजा-अर्चना करते हैं। वहीं एक अन्य पौराणिक मान्यता के अनुसार कुमाऊं के अन्य लोकप्रिय चंदवंशीय राजवंश के राजा कल्याण चंद को बागेश्वर में भगवान बागनाथ की तपस्या के उपरांत राज्य का इकलौता वारिस निर्भय चंद प्राप्त हुआ, जिसे रानी प्यार से घुघुती कहती थी। राजा का मंत्री राज्य प्राप्त करने की नीयत से एक बार घुघुतिया को शड्यंत्र रच कर चुपचाप उठा ले गया। इस दौरान एक कौए ने घुघुतिया के गले में पड़ी मोतियों की माला ले ली, और उसे राजमल में छोड़ आया, इससे रानी को पुत्र की कुशल मिली। उसने कौए को तरह-तरह के पकवान खाने को दिए और अपने पुत्र का पता जाना। तभी से कुमाऊं में घुघुतिया के दिन आटे में गुड़ मिलाकर पक्षी की तरह के घुघुती कहे जाने वाले और पूड़ी नुमा ढाल, तलवार, डमरू, अनार आदि के आकार के स्वादिष्ट पकवानों से घुघुतिया माला तैयार करने और कौओं को पुकारने की प्रथा प्रचलित है। बच्चे उत्तरायणी के दिन गले में घुघुतों की माला डालकर कौओं को ‘काले कौआ काले घुघुति माला खाले, 
ले कौआ पूरी, मकै दे सुनकि छुरी, ले कौआ ढाल, मकैं दे सुनक थाल, ले कौआ बड़, मकैं दे सुनल घड़...’ पुकार कर कोओं को आकर्षित करते हैं, और प्रसाद स्वरूप स्वयं भी घुघुते ग्रहण करते हैं। कौओं को इस तरह बुलाने और पकवान खिलाने की परंपरा त्रेता युग में भगवान श्रीराम की पत्नी सीता से भी जोड़ी जाती है। कहते हैं कि देवताओं के राजा इंद्र का पुत्र जयेंद्र सीता के रूप-सौंदर्य पर मोहित होकर कौए के वेश में उनके करीब जाता है। राम कुश के एक तिनके से जयेंद्र की दांयी आंख पर प्रहार कर डालते हैं, जिससे कौओं की एक आंख हमेशा के लिए खराब हो जाती है। बाद में राम ने ही कौओं को प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के दिन पवित्र नदियों में स्नान कर पश्चाताप करने का उपाय सुझाया था।
इसके साथ ही कुमाऊं में उत्तरायणी के दिन सरयू, रामगंगा, काली, गोरी व गार्गी (गौला) आदि नदियों में कड़ाके की सर्दी के बावजूद सुबह स्नान-ध्यान कर सूर्य का अर्घ्य च़ाकर सूर्य आराधना की जाती है, जो इस त्योहार के कुमाऊं में भी देश भर की तरह सूर्य उपासना से जु़ड़े होने का प्रमाण है। तात्कालीन राज व्यवस्था के कारण कुमाऊं में इस पर्व को सरयू नदी के पार और वार अलग- अलग दिनों में मनाने की परंपरा है। सरयू पार के लोग पौष मासांत के दिन घुघुते तैयार करते हैं, और अगले दिन कौओं को चढ़ाते हैं। जबकि वार के लोग माघ मास की सक्रांति यानि एक दिन बाद पकवान तैयार करते हैं, और अगले दिन कौओं को न्यौतते हुए यह पर्व मनाते हैं।

Sunday, January 12, 2014

कटारमलः जहां है देश का प्राचीनतम सूर्य मंदिर

कटारमल सूर्य मंदिर: जिसका शीर्ष बुर्ज के बजाय जमीन पर पड़ा हुआ है
देश में सूर्य मन्दिर का नाम आते ही मस्तिष्क में सर्वप्रथम कोणार्क के सूर्य मंदिर का नाम आता है, लेकिन देवताओं की भूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड में भी दुनिया को सीधे तौर पर जीवन प्रदान करने वाले सूर्य देव का ऐसा मंदिर स्थित है, जो कई संदर्भों में कोणार्क के सूर्य मंदिर से भी पहले आता है। अल्मोड़ा जिले में जिला मुख्यालय से करीब 14 किमी सड़क एवं तीन किमी की पैदल दूरी पर स्थित कटारमल के सूर्य मंदिर में ‘क’ नाम की समानता के साथ ही बाहरी स्वरूप के लिहाज से भी बड़ी समानता दिखाई देती है। दोनों मंदिरों की स्थापत्य कला और स्थापना की अवधि के बारे में वैज्ञानिकों में भी काफी हद तक मतैक्य है।

कटारमल मंदिर समूह
भारतीय पुरातत्व सवेक्षण विभाग के अनुसार कटारमल का मंदिर समूह 13वीं सदी में निर्मित है, जबकि कोणार्क मंदिर समूह का निर्माण वर्ष भी 13वीं सदी में ही 1236 से 1264 के बीच बताया जाता है। हालांकि अनेक पुरातत्व विद्वान कटारमल के सूर्य मंदिर को कोणार्क के मुकाबले दो सदी पुराना यानी सबसे पुराना भी मानते हैं। हालांकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीक्षण पुरातत्वविद् डा. डीएन डिमरी भी मानते हैं कि मंदिर 11वीं सदी का बना हुआ यानी देश का सबसे पुराना सूर्य मंदिर है। हालांकि यहां के मंदिरों के आठवीं-नवीं सदी में होने के भी कुछ प्रमाण मिलते हैं। बहरहाल, दोनों मंदिरों में यह भी समानता है कि दोनों मूल स्वरूप से खंडित हैं। कटारमल का मंदिर तो इस लिहाज से अनूठा ही है कि इसका शीर्ष बुर्ज के बजाय जमीन पर पड़ा हुआ है।
अल्मोडा जिले में रानीखेत रोड पर कोसी नदी व स्थान के निकट समुद्र सतह से करीब 1554 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कटारमल गांव पहुंचने के लिए सड़क निर्माणाधीन है। यहां स्थित सूर्य मंदिर में भगवान सूर्य की मटमैले रंग के पत्थर की करीब एक मीटर लम्बी और पौन मीटर चौड़ी कमल के पुष्प पर आसीन पद्मासन में बैठी मुद्रा की मूर्ति स्थित है। मूर्ति के सिर पर मुकुट तथा पीछे प्रभामंडल है। स्थानीय लोग इसे बड़ादित्य (बड़ा आदित्य यानी बड़ा सूर्य) मंदिर भी कहते हैं। स्कन्दपुराण के मानस खंड के अनुसार ऋषि मुनियों ने आतंक मचाने वाले कालनेमि नाम के राक्षश के वध के लिए इस स्थान पर वट आदित्य की स्थापना कर भगवान सूर्य देव का आह्वान किया था। वास्तु लक्षणों और स्तंभों पर उत्कीर्ण अभिलेखों के आधार पर १३वी सदी में कुमाऊं के कत्यूर वंश के राजा कटारमल देव ने यहां नव ग्रहों सहित सूर्य देव की स्थापना करवाई। राजा कटारमल के नाम से इसे कटारमल सूर्य मंदिर नाम मिला। मंदिर परिसर में सूर्य के अलावा लक्ष्मीनारायण, शिव-पार्वती, कुबेर, नृसिंह, कार्तिकेय, महिषासुरमर्दिनी व गणेश की मूर्तियों सहित अनेक देवी-देवताओं के करीब 45 छोटे-बड़े मंदिर हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि वह मनौतियां पूरी होने पर समय-समय पर बनवाए गए। मुख्य मन्दिर की संरचना त्रिरथ आकार की है, जो वर्गाकार गर्भगृह के साथ नागर शैली के वक्र रेखी शिखर सहित निर्मित है। मन्दिर में पहुंचते ही इसकी विशालता और वास्तु शिल्प बरबस ही पर्यटकों का मन मोह लेता है। मुख्य मंदिर के दक्षिण में तुंगेश्वर व पश्चिम में महारूद्र के मंदिर तथा पास में सूर्य व चंद्र नाम के दो जल-धारे भी हैं।
कत्यूरियों द्वारा निर्मित देवालयों के बारे में यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि सूर्यवंशी होने की वजह से कत्यूरी राजा हर मंदिर को सूर्य की रोशनी के बिना हजारों लोगों, श्रमिकों की मदद से विशालकाय शिलाओं और बेजोड़ शिल्प कला का प्रयोग करते हुए एक ही रात्रि में बनाते थे। एक रात्रि में मंदिर जितने बन जाते, और शेष अधूरे रह जाते। कुमाऊं में बिन्सर महादेव सहित कत्यूरियों द्वारा अधूरे छोड़े कई मंदिरों से इस बात की पुष्टि होती है। उन्होंने जागेश्वर, चंपावत व द्वाराहाट मंदिर समूह सहित सैकड़ों मंदिरों का निर्माण किया था।


भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग कटारमल सूर्य मंदिर समूह को संरक्षित स्मारक घोषित कर चुका है। पूर्व में मंदिर का प्रवेश द्वार पश्चिम दिशा में था, लेकिन वर्ष 2010 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को मन्दिर की पूर्व दिशा में आठ सीढियों के अवशेष मिले।एक वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद इसके पूर्व दिशा में दरवाजे के बाहर चुनी गई दीवार को हटा दिया गया। इसके बाद वर्ष के अक्टूबर और फरवरी के अंतिम पखवाड़े में सुबह के सूरज की पहली किरणें मंदिर के भीतर स्थित सूर्यदेव की प्रतिमा का अभिषेक करने लगीं। इसके बाद कोणार्क और कटारमल के सूर्य मंदिर में प्रवेश द्वार के पूर्व दिशा में होने की समानता भी जुड़ गई है।

Wednesday, December 11, 2013

पहाड़ का कल्पवृक्ष है इंडियन बटर ट्री-च्यूरा

वसा रहित तेल-घी, शहद, गुड़, धूप, वैसलीन, मोमबत्ती, साबुन, गोंद, मच्छर व सांप रोधी व कीटनाशक दवाएं, जलौनी लकड़ी, पशुओं को चारा सहित अनेकों उत्पाद देने के साथ ही भूक्षरण रोधी भी है यह बहुउपयोगी वृक्ष
नवीन जोशी, नैनीताल। क्या आपने किसी ऐसे बहुपयोगी वृक्ष का नाम सुना है जिसके फूलों से शहद, बीजों की गिरी से वसा रहित तेल, घी, वैसलीन व मोमबत्ती, फल से गुड़, तेल निकालकर बची मीठी खली से धूप, अगरबत्ती तथा सांप व मच्छररोधी तथा कीटनाशक दवाएं व साबुन, तने के रस से गोंद, पत्तियों से पशुओं के लिए चारा और शेष हिस्से से इमारती व जलौनी लकड़ी सहित 30 के लगभग उपयोगी पदार्थ मिलते हों। और यदि ऐसा कोई एक वृक्ष हो तो उसे कल्पवृक्ष से इतर क्या कहेंगे। जी हां, उत्तराखंड में च्यूरा नाम का एक ऐसा कल्पवृक्ष पाया जाता है, जिससे प्रदेश के केवल एक जनपद पिथौरागढ़ में केवल तेल के जरिए ही डेढ़ करोड़ रुपए प्रति वर्ष की आय हो सकती है। देश में अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह के अलावा यह वृक्ष केवल उत्तराखंड में ही पाया जाता है, इस लिहाज से भी इसका उत्पादन देश में उत्तराखंड को अलग पहचान दिला सकता है।
च्यूरा का वृक्ष
पहाड़ के इस कल्पवृक्ष, हिंदी में फुलवाड़ा, चिउड़ा व फलेल एवं देश-दुनिया में इंडियन बटर ट्री कहा जाने वाले च्यूरा-वानस्पतिक नाम डिप्लोनेमा बुटीरैशिया (Diploknema butyracea) के वृक्ष उच्च हिमालयन क्षेत्र तथा बाह्य हिमालय में कुमांऊ से पूर्व की ओर सिक्किम तथा भूटान तक समुद्र सतह से 300 से 1500 मीटर की ऊंचाई पर पाये जाते हैं। देश में अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह व पड़ोसी देश नेपाल के अलावा उत्तराखण्ड में मुख्यतः पिथौरागढ़ जनपद के काली, सरयू पूर्वी रामगंगा तथा गोरी नदी की घाटियों में प्राकृतिक रूप से बहुतायत में मिलता है, जबकि नैनीताल के पास नौकुचियाताल व भीमताल, बागेश्वर की गरुड़ व चंपावत जिले में नदियों की अपेक्षाकृत गरम घाटियों में भी इसके वृक्ष मिलते हैं। नेपाल में इसके 108 लाख वृक्ष बताए जाते हैं। बच्चे इसकी मीठी दूधिया फलियों को बड़े चाव से खाते हैं, जबकि इसके बीजों की गिरी से वसा रहित तथा अल्सर, हृदयरोग व गठियाबात आदि में बहुपयोगी तेल निकलता है, जो जमने की प्रवृत्ति वाला होता है, एवं वनस्पति घी के रूप में प्रयोग होता है। तेल को मट्ठे के साथ पकाकर सफेद वैसलीन बना ली जाती है। बची हुई गिरी और छिलकों को जलाकर मच्छर व मछलियां मारने तथा सांप को भगाने में उपयोग किया जाता है। वहीं फूलों से प्राकृतिक तरीके से शहद बनता ही है, जबकि फलियों से भी मीठा गुड़ उत्पादित किया जाता है। इसके अतिरिक्त यह ईंधन, दवा, इमारती लकड़ी, जानवरों के चारे तथा शहद प्राप्ति का उत्तम स्रोत है। नेपाल में इस वृक्ष से प्राप्त वसा को ‘चिवरी घी’ कहा जाता है। उत्तराखंड में च्यूरे के 12 से 21 मीटर तक ऊंचे और 1.8 से तीन मीटर तक गोलाई के वृक्षों में अगस्त माह के उत्तरार्द्ध से पतझड़ होने लगता है, जबकि सितंबर के दूसरे सप्ताह से नई कोपलें आ जाती हैं। अक्टूबर प्रथम सप्ताह से 20 से 50 के गुच्छों में सुंदर सफेद फूल आने लग जाते हैं। अक्टूबर अंत तक इन फूलों में रस भरने लगता है, जिनसे मधुमक्खियां शहद बनाती हैं। दिसंबर तक फूल सूख जाते हैं, तथा फलियां लगने लगती हैं। फलियां जून माह के दूसरे पखवाड़े तक पक जाती हैं, और इनके भीतर प्राप्त बीजों से बीजों के भार का 42 से 47 प्रतिशत और गिरी के भार का 60 से 67 प्रतिशत तक तेल प्राप्त हो जाता है। इसमें ग्लाइसिन, एलानीन, एस्पारटिक एसिड, ग्लुटेमिक एसिड, थ्रिओनीन, मीथीओनीन, नारल्युसीन, आरजीनीन, हिसटीडीन, लायसीन, प्रोलीन, टायरोसीन, ट्रिप्टोफीन व सीसटीन नाम के एमीनो अम्ल भी पाए जाते हैं, जिनकी अपनी अलग विशेशताएं व उपयोग हैं। 
डा. तिवारी के अनुसार भूस्खलन रोकने में भी इसके वृक्ष बेहद सहायक साबित होते हैं। पिथौरागढ़ के चिमस्यानौला में च्यूरा पर आधारित मच्छरमार अगरबत्ती, धूप, सुगंधित अगरबत्ती, हवन सामग्री व मलहम आदि अनेक उत्पाद तैयार कर रहे नियो इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट ऑफ हिमालया (निधि) संस्था के निदेशक डा. सुनील पांडे बताते हैं कि पिथौरागढ़ जनपद की पंचेश्वर घाटी के डाकुड़ा, गुरुड़ा, गोगना, लिसनी, जमराड़ी, वेडा, हिमतड़, जाजर, सेल, सल्ला, गुरना, रोड़ा, निशनी व चहज गंगोलीहाट सहित करीब 100 गांवों की हजारों ग्रामीणों की आर्थिकी का यह मुख्य आधार है, और यहां प्रतिवर्ष 250 टन च्यूरा तेल उत्पादन व लगभग डेढ़ करोड़ रूपयों की प्रतिवर्ष आय की क्षमता है, जबकि वर्तमान में क्षमता का महज 30 फीसदी लाभ ही लिया जा पा रहा है। डा. तिवारी के मुताबिक प्रयास करने पर व इसके विपणन तथा गुणवत्ता सुधार आदि से आजीविका में 30 फीसदी तक की बढ़ोत्तरी की जा सकती है।

Wednesday, June 26, 2013

देवभूमि को आपदा से बचा सकता है "नैनीताल मॉडल"

वर्ष 1880 के भूस्खलन ने बदल दिया था सरोवरनगरी का नक्शा, तभी बने नालों की वजह से बचा है कमजोर भूगर्भीय संरचना का यह शहर 
इसी तरह से अन्यत्र भी हों प्रबंध तो बच सकते हैं दैवीय आपदाओं से 
पहाड़ का परंपरागत मॉडल भी उपयोगी 
नवीन जोशी, नैनीताल। कहते हैं कि आपदा और कष्ट मनुष्य की परीक्षा लेते हैं और समझदार मनुष्य उनसे सबक लेकर भावी और बड़े कष्टों से स्वयं को बचाने की तैयारी कर लेते हैं। ऐसी ही एक बड़ी आपदा नैनीताल में 18 सितंबर 1880 को आई थी, जिसने तब केवल ढाई हजार की जनसंख्या वाले इस शहर के 151 लोगों और नगर के प्राचीन नयना देवी मंदिर को लीलने के साथ नगर का नक्शा ही बदल दिया था, लेकिन उस समय उठाए गए कदमों का ही असर है कि यह बेहद कमजोर भौगोलिक संरचना का नगर आज तक सुरक्षित है। इसी तरह पहाड़ के ऊंचाई के अन्य गांव भी बारिश की आपदा से सुरक्षित रहते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि नैनीताल और पहाड़ के परंपरागत मॉडल केदारघाटी व चारधाम यात्रा क्षेत्र से भी भविष्य की आपदाओं की आशंका को कम कर सकते हैं। 
1841 में स्थापित नैनीताल में वर्ष 1867 में बड़ा भूस्खलन हुआ था, और भी कई भूस्खलन आते रहते थे, इसी कारण यहाँ राजभवन को कई जगह स्थानांतरित करना पढ़ा था। लेकिन 18 सितम्बर 1880 की तिथि नगर के लिए कभी न भुलाने वाली तिथि है। तब 16 से 18 सितम्बर तक 40 घंटों में 20 से 25 इंच तक बारिश हुई थी। इसके कारण आई आपदा को लिखते हुए अंग्रेज लेखक एटकिंसन भी सिहर उठे थे। लेकिन उसी आपदा के बाद लिये गये सबक से सरोवर नगरी आज तक बची है और तब से नगर में कोई बड़ा भूस्खलन भी नहीं हुआ है। उस दुर्घटना से सबक लेते हुए तत्कालीन अंग्रेज नियंताओं ने पहले चरण में नगर के सबसे खतरनाक शेर-का-डंडा, चीना (वर्तमान नैना), अयारपाटा, लेक बेसिन व बड़ा नाला (बलिया नाला) में नालों का निर्माण कराया। बाद में 1890 में नगर पालिका ने रुपये से अन्य नाले बनवाए। 23 सितम्बर 1898 को इंजीनियर वाइल्ड ब्लड्स द्वारा बनाए नक्शों के आधार पर 35 से अधिक नाले बनाए गए। वर्ष 1901 तक कैचपिट युक्त 50 नालों (लम्बाई 77,292 फीट) और 100 शाखाओं का निर्माण (लंबाई 1,06,499 फीट) कर लिया गया। बारिश में कैच पिटों में भरा मलबा हटा लिया जाता था। अंग्रेजों ने ही नगर के आधार बलिया नाले में भी सुरक्षा कार्य करवाए जो आज भी बिना एक इंच हिले नगर को थामे हुए हैं। यह अलग बात है कि इधर कुछ वर्ष पूर्व ही हमारे इंजीनियरों द्वारा बलिया नाला में कराये गए कार्य कमोबेश पूरी तरह दरक गये हैं। बहरहाल, बाद के वर्षो में और खासकर इधर 1984 में अल्मोड़ा से लेकर हल्द्वानी और 2010 में पूरा अल्मोड़ा एनएच कोसी की बाढ़ में बहने के साथ ही बेतालघाट और ओखलकांडा क्षेत्रों में जल-प्रलय जैसे ही नजारे रहे, लेकिन नैनीताल कमोबेश पूरी तरह सुरक्षित रहा। ऐसे में भूवैज्ञानिकों का मानना है ऐसी भौगोलिक संरचना में बसे प्रदेश के शहरों को "नैनीताल मॉडल" का उपयोग कर आपदा से बचाया जा सकता है। कुमाऊं विवि के विज्ञान संकायाध्यक्ष एवं भू-वैज्ञानिक प्रो. सीसी पंत एवं यूजीसी वैज्ञानिक प्रो. बीएस कोटलिया का कहना है कि नैनीताल मॉडल के सुरक्षित 'ड्रेनेज सिस्टम' के साथ ही पहाड़ के परंपरागत सिस्टम का उपयोग कर प्रदेश को आपदा से काफी हद तक बचाया जा सकता है। इसके लिए पहाड़ के परंपरागत गांवों की तरह नदियों के किनारे की भूमि पर खेतों (सेरों) और उसके ऊपर ही मकान बनाने का मॉडल कड़ाई से पालन करना जरूरी है। प्रो. कोटलिया का कहना है कि मानसून में नदियों के अधिकतम स्तर से 60 फीट की ऊंचाई तक किसी भी प्रकार के निर्माण की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

इधर आपदा प्रबंधन एवं न्यूनीकरण केंद्र (डीएमएमसी) के अध्ययन "स्लोप इनस्टेबिलिटी एंड जियो-एन्वायरमेंटल इश्यूज ऑफ द एरिया अराउंड नैनीताल" के मुताबिक नैनीताल को 1880 से लेकर 1893, 1898, 1924, 1989, 1998 में भूस्खलन का दंश झेलना पड़ा। 18 सितम्बर 1880 में हुए भूस्खलन में 151 व 17 अगस्त 1898 में 28 लोगों की जान गई थी। इन भयावह प्राकृतिक आपदाओं से सबक लेते हुए अंग्रेजों ने शहर के आसपास की पहाड़ियों के ढलानों पर होने वाले भूधंसाव, बारिश और झील से होने वाले जल रिसाव और उसके जल स्तर के साथ ही कई धारों (प्राकृतिक जलस्रेत) के जलस्रव की दर आदि की नियमित मॉनीटरिंग करने व आंकड़े जमा करने की व्यवस्था की थी। यही नहीं प्राकृतिक रूप से संवेदनशील स्थानों को मानवीय हस्तक्षेप से मुक्त रखने के लिए कई कड़े नियम कानून बनाए थे। मगर आजादी के बाद यह सब ठंडे बस्ते में चला गया। शहर कंक्रीट का जंगल होने लगा। पिछले पांच वर्षो में ही झील व आस-पास के वन क्षेत्रों में खूब भू-उपयोग परिवर्तन हुआ है और इंसानी दखल बढ़ा है। नैनीझील के आसपास की संवेदनशील पहाड़ियों के ढालों से आपदा के मानकों की धज्जियां उड़ाते हुए गंभीर छेड़छाड़ की जा रही है। पहाड़ के मलबों को पहाड़ी ढालों से निकलने वाले पानी की निकासी करने वाले प्राकृतिक नालों को मलबे से पाटा जा रहा है। नैनी झील के जल संग्रहण क्षेत्रों तक में अवैध कब्जे हो रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद सरोवरनगरी में अवैध निर्माण कार्य अबाध गति से जारी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इन क्षेत्रों में हुए सूक्ष्म बदलाव भी नैनी झील के वजूद के लिए खतरा बन सकते हैं।

Sunday, May 26, 2013

बिनसर: प्रकृति की गोद में प्रभु का अनुभव

कत्यूरी राजाओं द्वारा निर्मित बिन्सर महादेव मंदिर
देवभूमि उत्तराखंड के कण-कण में देवत्व का वास कहा जाता है। यह देवत्व ऐसे स्थानों पर मिलता है जहां नीरव शांति होती है, और यदि ऐसे शांति स्थल पर प्रकृति केवल अपने प्राकृतिक स्वरूप में यानी मानवीय हस्तक्षेप रहित रूप में मिले तो क्या कहने। जी हां, ऐसा ही स्थल है-बिन्सर। जहां प्रकृति की गोद में बैठकर प्रभु को आत्मसात करने का अनुभव लिया जा सकता है। 
अल्मोड़ा जनपद मुख्यालय से करीब 35 किमी की दूरी पर बागेश्वर मोटर मार्ग पर बिन्सर समुद्र सतह से अधिकतम 2450 मीटर की ऊंचाई (जीरो पॉइंट) पर स्थित प्रकृति और प्रभु से एक साथ साक्षात्कार करने का स्थान है। प्रकृति से इतनी निकटता के मद्देनजर ही 1988 में इस 47.07 वर्ग किमी क्षेत्र को बिन्सर वन्य जीव विहार के रूप में संरक्षित किया गया, जिसके फलस्वरूप यहां प्रकृति बेहद सीमित मानवीय हस्तक्षेप के साथ अपने मूल स्वरूप में संरक्षित रह पाई है। इसी कारण इसे उत्तराखंड के ऐसे सुंदरतम पर्वतीय पर्यटक स्थलों में शुमार किया जाता है। यही कारण है कि अल्मोड़ा-बागेश्वर मोटर मार्ग से करीब 13 किमी के कठिन व कुछ हद तक खतरनाक सड़क मार्ग की दूरी और बिजली, पानी व दूरसंचार की सीमित सुविधाओं के बावजूद हर वर्ष देश ही नहीं दुनिया भर से हजारों की संख्या में सैलानी यहां पहुंचते हैं, और पकृति की नेमतों के बीच कई-कई दिन तक ऐसे खो जाते हैं, कि वापस लौटने का दिल ही नहीं करता। यहां सैकड़ों दुर्लभ वन्य जीवों, वनस्पतियों व परिंदों की प्रजातियों के साथ ही हिमालय की करीब 300 किमी लंबी पर्वत श्रृंखलाओं के एक साथ अकाट्य दर्शन होते हैं, तो 13वीं शताब्दी में कत्यूरी राजाओं द्वारा निर्मित बिन्सर महादेव मंदिर में हिमालयवासी महादेव शिव अष्टभुजा माता पार्वती के साथ दर्शन देते हैं। उत्तराखंड का राज्य बुरांश यहां चीड़, काफल, बांज, उतीस, मोरु, खरसों, तिलोंज व अयार के साथ ही देवदार की हरीतिमा से भरे जंगलों को अपने लाल सुर्ख फूलों से ‘जंगल की ज्वाला’ में तब्दील कर देता है, तो राज्य पक्षी मोनाल भी कठफोड़वा, कलीज फीजेंट, चीड़ फीजेंट, कोकलास फीजेंट, जंगली मुर्गी, गौरैया, लमपुछड़िया, सिटौला, कोकलास, गिद्ध, फोर्कटेल, तोता व काला तीतर आदि अपने संगी 200 से अधिक पक्षी प्रजातियों के साथ यदा-कदा दिख ही जाता है। करीब 40 प्राकृतिक जल श्रोतों वाले बिन्सर क्षेत्र में असंख्य वृक्ष प्रजातियों के साथ नैर जैसी सुंगधित वनस्पति भी मिलती है, जिससे हवन-यज्ञ में प्रयुक्त की जाने वाली धूप निर्मित की जाती है, और यह राज्य पशु कस्तूरा मृग का भोजन भी मानी जाती है। कस्तूरा की कुंडली में बसने वाली बहुचर्चित कस्तूरी और शिलाजीत जैसी औषधियां भी यहां पाई जाती हैं। कस्तूरा के साथ ही यहां तेंदुआ, काला भालू, गुलदार, साही, हिरन प्रजाति के घुरल, कांकड़, सांभर, सरों, चीतल, जंगली बिल्ली, सियार, लोमड़ी, जंगली सुअर, बंदर व लंगूरों के साथ गिलहरी आदि की दर्जनों प्रजातियां भी यहां मिलती हैं। बिन्सर जाते हुए गर्मियों में खुमानी, पुलम, आड़ू व काफल जैसे लजीज पहाड़ी फलों का स्वाद लिया जा सकता है। काफल के साथ हिसालू व किल्मोड़ा जैसे फल बिन्सर की ओर जाते हुए सड़क किनारे लगे पेड़ों-झाड़ियों से मुफ्त में ही प्राप्त किए जा सकते हैं। अपनी इन्हीं खूबियों के कारण शहरों की भीड़-भाड़ से दूर प्रकृति की गोद में स्वयं को सोंप देने के इच्छुक लोगों के लिए बिन्सर सबसे बेहतर स्थान है।
बिन्सर में नेचर वॉक
यूं पहाड़ों पर सैलानी गर्मियों के अवकाश में मैदानी गर्मी से बचकर पहाड़ों पर आते हैं, किंतु इस मौसम में प्रकृति में छायी धुंध कुछ हद तक दूर के सुंदर दृश्यों को देखने में बाधा डालकर आनंद को कम करने की कोशिश करती है, बावजूद बिन्सर में करीब में भी प्रकृति के इतने रूपों में दर्शन होते हैं कि इसकी कमी नहीं खलती। इस मौसम में भी यहां बुरांश के खिले फूलों को देखा जा सकता है, अलबत्ता अब तक वह कुछ हद तक सूख चुके होते हैं। गर्मियों से पूर्व बसंत के मार्च-अप्रैल और बरसात के बाद सितंबर-अक्टूबर यहां आने के लिए सर्वश्रेष्ठ समय हैं। इस मौसम में यहां से हिमालय पर्वत की केदारनाथ, कर्छकुंड, चौखम्भा, नीलकंठ, कामेत, गौरी पर्वत, हाथी पर्वत, नन्दाघुंटी, त्रिशूल, मैकतोली (त्रिशूल ईस्ट), पिण्डारी, सुन्दरढुंगा ग्लेशियर, नन्दादेवी, नन्दाकोट, राजरम्भा, लास्पाधूरा, रालाम्पा, नौल्पू व पंचाचूली तक की करीब 300 किमी लंबी पर्वत श्रृंखलाओं का एक नजर घुमाकर ‘बर्ड आई व्यू’ सरीखा अटूट नजार लिया जा सकता है। कमोबेस बादलों की ऊंचाई में होने के कारण बरसात सहित अन्य मौसम में बादल भी यहां कौतूहल के साथ सुंदर नजारा पेश करते हैं। 
 कुमाऊं मंडल विकास निगम का पर्यटक आवास गृह
आवास के लिए यहां कुमाऊं मंडल विकास निगम का 2300 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पर्यटक आवास गृह (टूरिस्ट रेस्ट हाउस) सर्वाधिक बेहतर सुविधाएं उपलब्ध कराता है। यहां करीब चार किमी दूर बिन्सर महादेव मंदिर के पास से मोटर की मदद से उठाकर पानी तथा जनरेटर की मदद से शाम को छह से नौ बजे तक बिजली की रोशनी भी उपलब्ध कराया जाता है। रेस्ट हाउस की टैरेस नुमा छत में बैठकर सुबह सूर्योदय एवं हिमालय की चोटियों तथा प्रकृति के दिलकश नजारे लिए जा सकते हैं। ‘नेचर वॉक’ करते हुए आधा किमी की दूरी पर स्थित सन सेट पॉइंट से शाम को सूर्यास्त के तथा करीब दो किमी की दूरी पर स्थित ‘जीरो पाइंट’ से हिमालय की चोटियों एवं दूर-दूर तक की पहाड़ी घाटियों और कुमाऊं की चोटियों का नजारा लिया जा सकता है। बिन्सर जाने की राह में चार किमी पहले 13वीं शताब्दी में बना बिन्सर महादेव मंदिर अपनी प्राकृतिक सुषमा एवं कत्यूरी शिल्प व मंदिर कला के कारण ध्यान आकृष्ट करता है। ध्यान-योग के लिए यह बेहद उपयुक्त स्थान है। मंदिर के पास की कोठरी में वर्ष भर प्रभु के भक्त पास ही के वन से प्राप्त वनस्पतियों से तैयार सुगंधित धूप की महक के साथ हवन-यज्ञ, ध्यान-साधना करते रहते हैं। मंदिर के बारे में कहा जाता है कि चंद राजाओं ने एक रात्रि में ही इसका निर्माण किया था। करीब 800 वर्षों के उपरांत भी बिना खास देखभाल के ठीक-ठाक स्थिति में मौजूद मंदिर इसके स्थापकों की समृद्ध भवन और मंदिर स्थापत्य कला एवं कर्तव्यनिष्ठा की प्रशंषा को मजबूर करता है। पास में एक प्राकृतिक नौला यानी स्वच्छ एवं मिनरल वाटर सरीखा प्राकृतिक रूप से शुद्ध पानी का चश्मा तथा सामने विशाल मैदान भी अपनी खूबसूरती के साथ मौजूद हैं। यहां मैरी बडन व खाली इस्टेट भी स्थित हैं।

Sunday, March 17, 2013

इस साल समय पर खिला राज्य वृक्ष बुरांश, क्या ख़त्म हुआ 'ग्लोबलवार्मिंग' का असर ?


नवीन जोशी, नैनीताल। राज्य वृक्ष बुरांश का छायावाद के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत ने अपनी मातृभाषा कुमाऊंनी में लिखी एकमात्र कविता में कुछ इस तरह वर्णन किया है 
‘सार जंगल में त्वि ज क्वे नहां रे क्वे नहां
फुलन छे के बुरूंश जंगल जस जलि जां।
सल्ल छ, दयार छ, पईं छ अयांर छ, 
पै त्वि में दिलैकि आग, 
त्वि में छ ज्वानिक फाग।
(बुरांश तुझ सा सारे जंगल में कोई नहीं है। जब तू फूलता है, सारा जंगल मानो जल उठता है। जंगल में और भी कई तरह के वृक्ष हैं पर एकमात्र तुझमें ही दिल की आग और यौवन का फाग भी मौजूद है।) 
कवि की कल्पना से बाहर निकलें, तो भी बुरांश में राज्य की आर्थिकी, स्वास्थ्य और पर्यावरण सहित अनेक आयाम समाहित हैं। अच्छी बात है कि इस वर्ष बुरांश अपने निश्चित समय यानी चैत्र माह के करीब खिला है, इससे इस वृक्ष पर ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव पड़ने की चिंताओं पर भी कुछ हद तक विराम लगा है। प्रदेश में 1,200 से 4,800 मीटर तक की ऊंचाई वाले करीब एक लाख हैक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल में सामान्यतया लाल के साथ ही गुलाबी, बैंगनी और सफेद रंगों में मिलने वाला और चैत्र (मार्च-अप्रैल) में खिलने वाला बुरांश बीते वर्षों में पौष-माघ (जनवरी-फरवरी) में भी खिलने लगा था। इस आधार पर इस पर ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का सर्वाधिक असर पड़ने को लेकर चिंता जताई जाने लगी थी। हालांकि कोई वृहद एवं विषय केंद्रित शोध न होने के कारण इस पर दावे के साथ कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती, लेकिन डीएफओ डा. पराग मधुकर धकाते कहते हैं कि हर फूल को खिलने के लिए एक विशेष ‘फोटो पीरियड’ यानी एक खास रोशनी और तापमान की जरूरत पड़ती है। यदि किसी पुष्प वृक्ष को कृत्रिम रूप से भी यह जरूरी रोशनी व तापमान दिया जाए तो वह समय से पूर्व खिल सकता है। 

बहुगुणी है बुरांश: बुरांश राज्य के मध्य एवं उच्च मिालयी क्षेत्रों में ग्रामीणों के लिए जलौनी लकड़ी व पालतू पशुओं को सर्दी से बचाने के लिए बिछौने व चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है, वहीं मानव स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से इसके फूलों का रस शरीर में हीमोग्लोबिन की कमी को दूर करने वाला, लौह तत्व की वृद्धि करने वाला तथा हृदय रोगों एवं उच्च रक्तचाप में लाभदायक होता है। इस प्रकार इसके जूस का भी अच्छा-खासा कारोबार होता है। अकेले नैनीताल के फल प्रसंस्कण केंद्र में प्रति वर्ष करीब 1,500 लीटर जबकि प्रदेश में करीब 2 हजार लीटर तक जूस निकाला जाता है। हालिया वर्षों में सड़कों के विस्तार व गैस के मूल्यों में वृद्धि के साथ ग्रामीणों की जलौनी लकड़ी पर बड़ी निर्भरता के साथ इसके बहुमूल्य वृक्षों के अवैध कटान की खबरें भी आम हैं।

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कफुवा , प्योंली संग मुस्काया शरद, बसंत शंशय में

Thursday, January 31, 2013

उत्तराखंड भाजपाः कहां है राष्ट्रीय सोच


भारतीय जनता पार्टी एक राष्ट्रीय और धार्मिक-सांस्कृतिक सोच वाली पार्टी कही जाती है। पूर्ववर्ती जनसंघ की तरह ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से नजदीकी को बिना गुरेज स्वीकारते हुए यह पार्टी धार्मिक व जातीय समरसता की बात करती है। संघ के कार्यक्रमों में इसके नेता, कार्यकर्ता जमीन पर एक पांत में बैठकर माघ के माह में खिचड़ी और बसंत पंचमी को खीर बनाने-खाने से भी गुरेज नहीं करते। यही नहीं वहां मुस्लिमों सहित अन्य धर्मों के लोगों की भी कम ही सही, लेकिन उपस्थिति रहती है, और इसी आधार पर वह विपक्ष के ‘सांप्रदायिक पार्टी’ के आक्षेपों की परवाह किए बगैर देश को राजनीतिक विकल्प देने के मार्ग पर भी नजर आती है। लेकिन यही पार्टी देश को धर्म और सांस्कृतिक सौहार्द की ‘गंगा-जमुनी’ तहजीब की प्रणेता गंगा-यमुना के मायके यानी उत्तराखंड में अपने चरित्र-पथ से बुरी तरह डिगी हुई नजर आती है। 
उत्तराखंड में पार्टी का जातीय व धार्मिक समरसता का स्वरूप शायद ही अपने सही अर्थों में कहीं दिखाई देता है। बल्कि वह यहां समरसता को ‘जातीय व क्षेत्रीय तुष्टीकरण’ में बदलती है और इस मायने में उत्तराखंड कांग्रेस की ‘बी’ टीम से अधिक नजर नहीं आती। शायद यही कारण हो कि उसे राज्य बनाने के बावजूद जनता से कभी अभीष्ट भरोसा नहीं मिल पाया। पार्टी सत्ता में आने पर मुख्यमंत्री और विपक्ष में रहने पर नेता प्रतिपक्ष प्रदेश के एक मंडल-कुमाऊं से बनाती है तो पार्टी का अध्यक्ष दूसरे मंडल गढ़वाल से बनाया जाता है। यही नहीं इसके साथ यह भी होता है कि यदि एक महत्वपूर्ण पद पंडित बिरादरी के नेता को मिलता है तो दूसरे के लिए क्षत्रिय नेता की तलाश की जाती है। ऐसा ही इस बार पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए भी हुआ है। 
उत्तराखंड में गुटीय राजनीति में बंटी भाजपा यहां विधान सभा चुनावों में ‘खंडूड़ी है जरूरी’ का नारा चलाने के बाद कमोबेश खंडूड़ी की ही एक सीट के साथ अवपनी भी लुटिया डुबो बैठी। विपक्ष में बैठने को मजबूर हुई तो समय पर राज्य को नेता प्रतिपक्ष नहीं दे पाई। इस मामले में पार्टी की खूब थुक्का-फजीहत भी हुई। ऐसे ही अब नया प्रदेश अध्यक्ष चुनने की बारी आई तो पार्टी का सर्वानुमति से अध्यक्ष बनाने के दावे के साथ ही राज्य बनने के बाद से ही रही ऐसी परंपरा भी चकनाचूर कर डाली। प्रदेश अध्यक्ष के पद के लिए नेता प्रतिपक्ष के विरोधी मंडल और जाति के ही प्रत्याशी तलाशे जाने लगे। नेता प्रतिपक्ष कुमाऊं के पंडित बिरादरी से आने वाले अजय भट्ट हैं, लिहाजा तय माना गया कि प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी गढ़वाल के ही किसी क्षत्रिय क्षत्रप को दी जाएगी।ऐसे में एक जाति और मंडल विशेष (गढ़वाली क्षत्रिय) के पार्टी नेताओं को ही तरजीह दी जाने लगी। इसमें भी रोचक रहा कि एक जाति विशेष-‘रावत’ के ही पार्टी नेताओं के नाम आगे आने लगे। तीरथ सिंह रावत, ़ित्रवेंद्र सिंह रावत, धन सिंह रावत, मोहन सिंह रावत ‘गांववासी’ के नाम अध्यक्ष पद के लिए खासे चर्चा में रहे। गौरतलब है कि पूर्व में भी बची सिंह रावत पार्टी के अध्यक्ष रहे हैं। बहरहाल, अध्यक्ष पद के चुनावों में नौबत यहां तक आ गई कि तीरथ और त्रिवेंद्र दोनों ने पार्टी अनुशासन की धज्जियां उड़ाते हुए मैदान में एक साथ ताल ठोंक दी। 
हालांकि परदे के आगे चल रहे नेताओं के खेल के पीछे पार्टी के तीन ध्रुवों-कोश्यारी, खंडूड़ी व निशंक गुटों का परदे के पीछे चलता रहा। राजनीतिक बिसात में नित नए पाले और समीकरण बदलने में माहिर पार्टी के इन गुटीय नेताओं ने ऐसी-ऐसी चालें चलीं कि नतीजा किसी के पक्ष में नहीं जा पाया और राज्य बनने के बाद पहली बार ऐसी नौबत आयी कि तय समय पर चुनाव टालना पड़ गया। इस दौरान धुर विरोधी और एक-दूसरे को फूटी आंख न सुहाने वाले खंडूड़ी और निशंक धड़े गलबहियां डाले एक-साथ नजर आने लगे। उठा-पटक की इस जंग में कोश्यारी अकेले रहने के बावजूद केवल इसलिए मजबूत माने गए कि वह नेता प्रतिपक्ष के उलट क्षत्रिय बिरादरी से आते हैं। राजनाथ सिंह के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद तो उनके होंसले अपने पुराने संबंधों और राजनाथ के भी क्षत्रिय नेता होने के नाते बुलंद हो चले। ऐसे में यहां तक चर्चाएं चल पड़ीं कि कोश्यारी ही दुबारा प्रदेश अध्यक्ष बनेंगे। वह पूर्व में भी यह दायित्व संभाल चुके हैं। यदि ऐसा हुआ तो पार्टी के लिए बमुश्किल चुने गऐ नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट को बदलना भी मजबूरी हो जाएगा। ऐसे में स्वयं भट्ट इस कटु सच्चाई को स्वीकार करते हुए पार्टी के आदेश को सिरोधार्य बताकर पार्टी के भरोसेमंद सिपाही का तमगा हासिल में ही भलाई तलाशने लगे हैं। 
गौरतलब है कि पार्टी ऐसे जातीय समीकरणों को आजमाने का दंश यूपी में हुए हालिया विधानसभा चुनावों में भुगत चुकी है। जहां पार्टी ने एनआरएचएम के दागी बसपा मंत्री बाबूराम कुशवाहा और पूर्व में पार्टी छोड़ चुकी उमा भारती की पार्टी में मजबूती से वापसी करवाई, लेकिन चुनाव परिणामों में इस कवायद का कोई लाभ नहीं को नहीं मिल पाया। अब वहां पुराने साथी कल्याण सिंह की भी इसी जातीय वोटों के गुणा-भाग के आधार पर पार्टी में वापसी की गई है, किंतु आगे भी उसे इसका लाभ मिल पाएगा, कहना मुश्किल है। 
बहरहाल, प्रदेश में पार्टी के अगले सिपहसालार पर बना सस्पेंस तो देर-सबेर समाप्त हो जाएगा। लेकिन पार्टी जनों के आपसी कच्चे-धागे जो इस प्रक्रिया में टूटे-उलझे हैं, वह आसानी से और जल्द सुलझ जाएंगे ऐसा कहना आसान नहीं है। अच्छा होता कि पार्टी उत्तराखंड या यूपी में इस तरह जातीय समीकरणों में उलझने से बेहतर अपनी राष्ट्रीय व बड़ी सोच प्रकट करते हुए क्षमताओं युक्त नेताओं को जिम्मेदारियां सोंपती, और अपनी जीत का मार्ग प्रशस्त करती। 

Wednesday, January 23, 2013

देवभूमि के कण-कण में देवत्व

स्वामी विवेकानंद का 'बोध गया' : काकड़ीघाट
Somvaaree Baba Ashram Kaakadeeghat, Nainital
काकड़ीघाट धाम, नैनीताल जिले में अल्मोड़ा रोड पर स्थित वह स्थान है, जहाँ से ही स्वामी विवेकानंद का कुमाऊं आगमन प्रारंभ हुआ। यहीं उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। स्वयं उन्होंने इस स्थान के बारे में लिखा है कि यहाँ आकर उन्हें लगा कि उनके भीतर की समस्त समस्याओं का समाधान हो गया, और उन्हें पूरे ब्रह्माण्ड के एक अणु में दर्शन हुए। महान तत्वदर्शी सोमवारी बाबा ने भी यहाँ लम्बे समय तक तपस्या की।
भारत को दुनिया में आध्यात्मिक गुरु के रूप में प्रस्तुत करने वाले व युवाओं को सृष्टि के कल्याण के लिए 'जागो, उठो और कर्म करो' का मूल मंत्र देने वाले युगदृष्टा स्वामी विवेकानंद को आध्यात्मिक ज्ञान नैनीताल जनपद के काकड़ीघाट में प्राप्त हुआ था। विवेकानंद की देवभूमि यात्रा यहीं से प्रारंभ हुई थी। यहां स्वामी जी के अवचेतन शरीर में सिहरन हुई। वह पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान लगा कर बैठ गए। बाद में उन्होंने इसका जिक्र करते हुए कहा था कि उनको काकड़ीघाट में पूरे ब्रह्माण्ड के एक अणु में दर्शन हुए। यही वह ज्ञान था जिसे उन्होंने 11 सितंबर 1893 को शिकागो में पूरी दुनिया के समक्ष रखकर देश का मान बढ़ाया। स्वामी विवेकानंद और देवभूमि का गहरा संबंध रहा है। वह तीन बार देवभूमि आए। 

कहा जाता है की स्वामी जी ने बेलूर मठ से हिमालय की कठिन यात्रा के लिए निकलते समय मठ के साथियों से कहा था की वह स्पर्श मात्र से लोगों को रुपान्तरित कर देने की क्षमता प्राप्त किए बिना वापस नहीं लौटेंगे। उन्होंने कहा था, 'इस बार जब यहां लौटूंगा तब मैं समाज के उपर एक बम की तरह फट पड़ूगा और समाज स्वान की तरह मेरे पीछे चलेगा।'  वह अपनी पहली आध्यात्मिक यात्रा  पर1890 में साधु नरेंद्र के रूप में गुरु भाई अखंडानंद के साथ नैनीताल पहुंचे। यहाँ वह तत्कालीन खेत्री के महाराज प्रसन्न भट्टाचार्य के आतिथ्य में उनके घर पर छह दिन रहे थे। यहाँ से उन्होंने पैदल ही अल्मोड़ा के लिए यात्रा प्रारंभ की. तीसरे दिन दोनो लोग रात्रि विश्राम के लिए काकड़ीघाट पहुंचे। 
काकड़ीघाट में वह एक झरने के किनारे पानी की चक्की (पन चक्की-पहाड़ी घट) के समीप ठहरे। यहाँ कोसी (कौशिकी) और सरोता नदी की संगम-स्थली पर उभरे एक त्रिभुजाकार भूखण्ड के बीच में खड़े विशाल पीपल के वृक्ष के साथ समस्त वातावरण दिव्य आनन्द से भरा हुआ था। स्वामीजी वहाँ रुककर खड़े हो गये, और स्वामी अखंडानन्द से कहा- ” भाई, देखते हो यह स्थान तो ध्यान करने के लिये अत्यन्त उपयुक्त है ! “सुबह स्नान के उपरांत वह निकट ही स्थित विशाल पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान करने बैठ गये। ध्यान में एक घन्टा बीत जाने के बाद स्वामी विवेकानन्द ने अपने साथी अखण्डानंद से कहा 'देखो गंगाधर (अखण्डानंद) इस वृक्ष के नीचे एक अत्यंत शुभ मुहुर्त बीत गया है। आज एक बड़ी समस्या का समाधान हो गया। मैने जान लिया कि समष्टि और व्यष्टि (विश्व ब्रह्माण्ड व अणु ब्रह्माण्ड) दोनो एक ही नियम से परिचालित होते हैं।’ स्वामी अखण्डानंद के पास रखी हुई एक नोट बुक में स्वामीजी ने उस दिन की अनुभूति की बात बांग्ला भाषा में लिख लीं-” आमार जीवनेर एकटा मस्त समस्या आमि महाधामे फेले दिये गेलुम ! ”   

स्वामीजी का उपरोक्त उद्गार का वर्णन हिन्दी में ‘ अल्मोड़ा का आकर्षण ‘- नामक महामण्डल पुस्तिका के पृष्ठ संख्या 5 पर इस प्रकार दिया हुआ है”-आज मेरे जीवन की एक बहुत गूढ़ समस्या का समाधान इस महा धाम में प्राप्त हो गया है ! “। उन्होंने लिखा, 'जिस प्रकार व्यष्टि जीवात्मा एक चेतन शरीर द्वारा आवृत्त है, उसी प्रकार विश्वात्मा भी चेतनामयी प्रकृति या दृश्य जगत में स्थित है। शिवा (काली) शिव का आलिंगन कर रही है। यह कोई कल्पना नही है। इसी एक (प्रकृति) के द्वारा दूसरे (आत्मा) का आलिंगन मानो शब्द और अर्थ के सम्बंध की भांति है। वे दोनों अभिन्न हैं और केवल मानसिक विश्लेषण के द्वारा ही उन्हें पृथक किया जा सकता है। शब्द के बिना विचार करना असम्भव है। अतः सृष्टि के आदि में शब्द-ब्रह्म था।’ उन्होने आगे कहा, 'विश्वात्मा का यह युगल रूप अनादि है। अतः हम लोग जो कुछ देखते हैं या अनुभव करते हैं। सभी की संरचना साकार और निराकार के सम्मिलन से हुई है’।
इसी अद्वैत दर्शन के आधार पर उन्होंने  लोगों को बताया कि सूक्ष्म ब्रह्मांड व वृहद ब्रह्मांड ठीक उसी प्रकार एक ही पटल पर स्थित हैं जैसे आत्मा शरीर के अंदर निवास करती है। 

काकड़ीघाट से वह अल्मोड़ा की ओर बढ़े। अल्मोड़ा से पूर्व वर्तमान मुस्लिम कब्रिस्तान करबला के पास चढ़ाई चढ़ने और भूख-प्यास के कारण उन्हें मूर्छा आ गई। वहां एक मुस्लिम फकीर जुल्फिकार अली ने उन्हें ककड़ी (पहाड़ी खीरा) खिलाकर ठीक किया। उन्होंने कसार देवी के समीप स्थित एक गुफा में भी कुछ समय तक साधना की। इसका जिक्र स्वामी जी ने 1898 में दूसरी बार अल्मोड़ा आने पर किया। अल्मोड़ा में वह लाला बद्री शाह के आतिथ्य में रहे। यह स्वामी विवेकानंद का नया अवतार था। इस मौके पर हिंदी के छायावादी सुकुमार कवि सुमित्रानंदन ने कविता लिखी थी- 

‘मां अल्मोड़े में आए थे जब राजर्षि  विवेकानंद, तब मग में मखमल बिछवाया था, दीपावली थी अति उमंग’
स्वामी जी अल्मोड़ा से आगे चंपावत जिले के मायावती अद्वैत आश्रम भी गए, और तपस्या कर आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित किया।  उनके अनुयायी कैप्टन जेम्स हेनरी सीवर व सार लौट एलिजाबेथ सीवर ने  1899 में वर्तमान में मायावती स्थित इस आश्रम की स्थापना की थी। वहां आज भी उनका प्रचुर साहित्य संग्रहित है। 1898 में उन्होंने कुमाऊं की तीसरी यात्रा की। वह अल्मोड़ा के थामसन हाउस में रहे। 18 जनवरी 1901 को उन्होंने कुमाऊं की अंतिम यात्रा की। वह मायावती आश्रम की देखरेख करने वाले कैप्टन सीवर्स की मौत के बाद वहां पहुंचे थे। अल्मोड़ा में भी स्वामी जी के गुरु रामकृष्ण परमहंस के नाम से मठ और कुटी आज भी मौजूद है। काकड़ीघाट में भी स्वामी जी के आगमन की यादें और उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने वाला वह "बोधि वृक्ष" पीपल का पेड़ आज भी मौजूद हैं।


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पाषाण देवी शक्तिपीठ: जहां घी, दूध का भोग करती हैं सिंदूर सजीं मां वैष्णवी
उत्तराखंड को देवभूमि इसीलिए कहा जाता है, कि यहां के कण-कण में देवों कावास है। बदरी, केदार सहित चार धामों और गंगा, यमुना की इसी धरती में शिवके धाम कैलाश का द्वार है, और यहीं शिवा यानी माता पार्वती का मायका हिमालय भी है। यहां के हर पुराने शहर और गांव देवी देवताऑ  के प्रसंगों से जुड़े हैं और वहां आज भी श्रद्धालु साक्षात दर्शन कर दिव्य अनुभूतियां प्राप्त करते हैं। प्रदेश के कुमाऊं मंडल के मुख्यालय मां नयना की नगरी का शास्त्रों में त्रिऋषि  सरोवर के रूप में वृतांत मिलता है। यहीं नगर का प्राचीनतम बताया जाने वाला मां पाषाण देवी के एक विशाल शिला खंड पर नवदुर्गा स्वरूप में दर्शन होते हैं, जबकि मां के चरण नैनी झील में बताये जाते हैं। कई बारमां का वाहन शेर यहां दिन में भी घूमता मिल जाता है, और बिना किसी को नुकसान पहुंचाये अचानक आंखों से ओझल भी हो जाता है। यहां मां का क्षृंगार महाबली हनुमान की तरह सिंदूर से होता है, और उन्हें वैष्णवी स्वरूप में दुग्ध उत्पादों व फल फूलों का भोग लगाया जाता है।  माना जाता है कि पिता दक्ष प्रजापति द्वारा पति का अनादर करने पर माता पार्वती अग्रि में कूदकर सती हो गई थीं। उनके दग्ध शरीर को देवाधिदेव महादेव आकाश मार्ग से कैलाश की ओर लेकर चले। इस बीच माता के दग्ध अंग जहां जहां गिरे वहां शक्तिपीठ स्थापित हो गये। मां के नयनों के गिरने के कारण और सरोवर यानी ताल होने से यह स्थान नयना ताल तथा कालांतर में अपभ्रंस होता हुआ नैनीताल कहलाया। एक अन्य मान्यता के अनुसार मां के नयनों के नीर से नैनी सरोवर बना और दक्षिण पूर्वी अयारपाटा पहाड़ी पर हृदय सहित अन्य शरीर यानी ‘पाषाण’ गिरा, तथा मां पाषाण देवी के प्राकृतिक मंदिर की स्थापना अनादि काल में ही हो गई थी। बताते हैं कि 1841 में नगर की स्थापना से पूर्व से ही इस स्थान पर नजदीकी गांवों के लोग गायों और पशुओं के चारण के लिए आते थे, और धार्मिक मान्यता के कारण शाम होने से पहले वापस भी लौट जाते थे। पहाड़ों में खासकर गायों के नई संतति देने पर नये दूध से देवों का अभिषेक करने की परंपरा है। ऐसे देवता ‘बौधांण देवता’ कहे जाते हैं। लेकिन नैनीताल संभवतया अकेला ऐसा स्थान होगा जहां नया दूध एवं घी, दही, मक्खन व छांस जैसे दुग्ध उत्पाद बौधांण देवता के बजाय बौधांण देवी के रूप में पाषाण देवी को चढ़ाये जाते थे, और आज भी ग्रामीण पाषाण देवी की इसी रूप में पूजा करते हैं। मान्यता है कि मां का चेहरा धुले पानी से समस्त त्वचा रोगों के साथ ही अतृप्त व बुरी आत्माऑ के प्रकोप भी समाप्त हो जाते हैं। बताते हैं कि नगर की स्थापना के बाद एक अंग्रेज अफसर इस स्थान से होता हुआ घोड़े पर निकला था, किंतु उसका घोड़ा यहां से लाख प्रयासों के बावजूद आगे नहीं बढ़ पाया। इस पर नाराज हो उसने मां की मूर्ति पर कालिख पोत दी थी। हालांकि बाद में उसे गलती का अहसास हुआ और स्थानीय महिलाऑ ने कालिख के स्थान पर मां का सिंदूर से क्षृंगार किया। इस प्रकार यहां देवी का सिंदूर से क्षृंगार किये जाने की अनूठी मान्यता है। इस स्थान पर पाषाण देवी नवदुर्गा के रूप में पत्थर की शिला पर प्राकृतिक रूप से विराजमान हैं, जो स्पष्ट दिखाई देती हैं। मां के नवदुर्गा स्वरूप चेहरे के नीचे गले वाला भाग हालांकि अब ढक दिया गया है, लेकिन अभी हाल तक इसके नीचे गुफा बताई जाती है, जिसमें पानी चढ़ाने पर इस तरह ‘घट घट’ की आवाज आती थी, मानो मां पानी पी रही हों। कई बार झील का पानी मंदिर तक चढ़ आता था। इसके नीचे गुफा अब भी है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका अन्य द्वार हरिद्वार में खुलता है। मंदिर की जिम्मेदारी शुरू से स्थानीय भट्ट परिवार के जिम्मे है। सर्वप्रथम चंद्रमणि भट्ट मंदिर के पुजारी थे, बाद में उनके पुत्र भैरव दत्त भट्ट और वर्तमान में उनके पौत्र जगदीश चंद्र भट्ट मंदिर के पुजारी हैं। इस मंदिर के सदस्य बारी बारी से मंदिर की सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाते हैं। नीचे की गुफा में केवल हरीश चंद्र भट्ट ही जा पाते हैं। गुफा में नागों की उपस्थिति बताई जाती है, जो कई बार श्रद्धालुऑ द्वारा अशुद्धता बरतने पर बाहर निकल आते हैं। मां को दुग्ध उत्पाद व फल फूल ही चढ़ते हैं, इस प्रकार यहां मां नवदुर्गा वैष्णवीस्वरूप में पूजी जाती हैं। नगर को सर्वप्रथम खोजने वाले कुमाऊं के पहले कमिश्नर जीडब्ल्यू ट्रेल द्वारा वर्णित और नगर को 1941 में बसाने वाले अंग्रेज व्यापारी पीटर बैरन की बहुचर्चित पुस्तक ‘वंडरिंग इन हिमालया’ में वर्णित नगर का प्राचीनतम मंदिर भी इसी प्राकृतिक मंदिर को बताया जाता है। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी सहित न जाने कितने श्रद्धालु होंगे जो अपने प्रत्येक कार्य के लिए आशीर्वाद लेने यहां निरंतर आते रहते हैं।
कुमाऊँ में है महर्षि मार्कंडेय का आश्रम


जी हाँ, युग-युग के अधिष्ठाता कहे जाने वाले भगवान महर्षि मार्कंडेय का आश्रम उत्तराखंड प्रदेश के कुमाऊँ अंचल में अवस्थित है. कुमाऊँ में काठगोदाम से नैनीताल के राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या ८७ पर स्थित करीब ६ किमी दूर भुजियाघाट नामक स्थान से एक पैदल पगडंडीनुमा मार्ग मोरा गाँव के लिए निकलता है. इस मार्ग पर आगे जाकर करीब ढाई घंटे के बेहद कठिन चढ़ाई युक्त मार्ग से बलौनधूरा नाम के चीड़ के घने जंगल में लोक आस्था के अनुसार महर्षि मार्कंडेय का यह आश्रम स्थित है. स्थानीय लोगों की मान्यता है कि महर्षि मार्कंडेय ने यहाँ लम्बे समय तक तपस्या की थी. आश्रम ऐसे निर्जन स्थान पर है कि यह कहीं से भी दृश्यमान नहीं है. आश्रम तक कोई सीधा भी नहीं है. यहाँ पर जंगल के बीच एक बड़े पत्थर के नींचे छोटा सा अनपेक्षित जल कुंड है. पास में ही कुछ झंडे लगे हुए हैं, जिनसे घने जंगल में इस महान स्थान की पहचान बमुश्किल हो पाती है. पास में गधेरे के ऊपर एक पत्थरनुमा पुल भी ध्यानाकर्षित करता है.  कहा जाता है कि पूर्व में यहाँ पर कुछ साधू-सन्यासी धूनी रमने के लिए पहुंचे थे, लेकिन अब यहाँ कोई नहीं रहता. संभवतया आज के सुविधानुरागी साधु-सन्यासियों के लिए भी यहाँ रहना आसान न हो. बलौनधूरा मोरा गाँव का ही एक तोक है. इसके पास ही पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी का नैनिहाल 'बल्यूटी' गाँव स्थित है, महर्षि मार्कंडेय के बारे में कहा जाता है कि उन्हें श्रृष्टि के सृजनकर्ता ब्रह्मा जी की तरह ही अनंत आयु प्राप्त थे. वह त्रिकालदर्शी और अन्तर्यामी भी कहे जाते हैं.
आदि गुरु शंकराचार्य का उत्तराखंड में प्रथम पड़ाव: कालीचौड़ मंदिर
देवभूमि के कण-कण में देवत्व होने की बात यूँ ही नहीं कही जाती। अब इन दो स्थानों को ही लीजिये, यह नैनीताल जिले में हल्द्वानी के निकट खेड़ा गौलापार से अन्दर सुरम्य बेहद घने वन में स्थित कालीचौड़ मंदिर है। यहाँ महिषासुर मर्दिनी मां काली की आदमकद मूर्ति सहित दर्जनों मूर्तियाँ मंदिर के स्थान से ही धरती से निकलीं। तराई-भाबर के गजेटियर के अनुसार लगभग आठवीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य अपने देवभूमि उत्तराखंड आगमन के दौरान सर्वप्रथम इस स्थान पर आये थे। उन्हें  यहाँ आध्यात्मिक ओजस्व प्राप्त हुआ, जिसके बाद उन्होंने यहाँ काफी समय तक आध्यात्मिक चिंतन किया, और यहां से जागेश्वर और गंगोलीहाट गए थे। बाद में कोलकाता के एक महंत की प्रेरणा पर गौलापार के जमींदार-मेहरा थोकदार ने यहाँ मंदिर बनवाया था। 

श्री रामदत्त जोशी पंचांगकार के पिता पंडित हरि दत्त जोशी ने यहां मूर्तियों की स्थापना की थी, और श्री राम दत्त ने यहां सर्वप्रथम श्रीमद् देवी भागवत कथा का पाठ कराया था। इसके आगे की कथा भी कम रोचक नहीं है, हल्द्वानी के एक चूड़ी कारोबारी राम कुमार को इस स्थान से ऐसा अध्यात्मिक लगाव हुआ कि उन्होंने वर्ष 2000 तक मंदिर की व्यवस्थाएं संभालीं। इधर किच्छा के एक सिख (अशोक बावा के) परिवार ने अपने मृत बच्चे को यहाँ मां के दरबार में यह कहकर समर्पित कर दिया कि मां चाहे जो करे, अब वह मां का है। इस पर वह बच्चा फिर से जी उठा, आज करीब 30 वर्षीय वही बालक और उसका परिवार मंदिर में पिछले कई वर्षों से भंडार चलाये हुए है।
उत्तराखंड में देवालयों की लम्बी श्रृंखला के क्रम में जगतजननी जगदम्बा के कालीचौड स्थित काली मंदिर की महिमा का यहां विशेष महत्व है।
’’काली-काली महाकाली कालिके परमेश्वरी,
सर्वानन्द करो देवी नारायणी नमोअस्तुते।।‘‘
काली का यह पावन मंत्र वियावन वन के मध्य कालीचौड में काली भक्तों के मुखारबिंद से अक्सर गुंजायमान रहता है। आध्यात्मिक शांति को समेटे कालीचौड का काली मंदिर माता जगदम्बा की ओर से भक्तों के लिए अनुपम भेंट है। पावन भूमि उत्तराखण्ड में कुमाऊं क्षेत्र के अन्तर्गत काठगोदाम के पास वियावान वन में स्थित काली का यह मंदिर प्राचीन काल से ऋृषि-मुनियों की आराधना और तपस्या का केन्द्र रहा है। हिमालयी भू-भाग में काली के जितने भी प्राचीन शक्तिपीठ व मंदिर है। वे सभी परम आस्थाओं के केन्द्र हैं। लौकिक व अलौकिक आस्थाओं की सिद्ध का केन्द्र कालीचौड के प्रति भी भक्तों में अपार व अटूट विश्वास है। यह एक ऐसा स्थान है जहां पंहुचते ही सांसारिक मायाजाल में भटका मानव अनायास ही कालिका के चरणों में निराली शांति का अनुभव करता है। यह देवी दरबार प्राचीन काल से ही पूजनीय रहा है। कथाओं के अनुसार सतयुग में सप्त ऋृषियों ने इस स्थान पर भगवती की आराधना, तपस्या करके मनोवांछित लौकिक व अलौकिक सिद्धयां प्राप्त की इन्हीं सिद्धियों के प्रताप से उन्होंने सप्तऋृषि लोक की प्राप्ति की। श्री मार्कण्डेय ऋृषि ने भी यहां तपस्या करके काली की कृपा को प्राप्त किया। यूं तो उत्तराखण्ड की धरती पर अनेकों स्थानों में सप्तऋृषियों ने तपस्या की जिनमें झाकर के सैम दरबार के आसपास वनों में लोहाघाट के ऋृषेश्वर क्षेत्र में इनकी तपस्या का वर्णन पुराणों के आधार पर मिलता है पर कहते हैं काली की कृपा के पश्चात ही सप्तऋृषियों ने हिमालय को अपनी तपस्या का केन्द्र बनाया। मार्कण्डेय ऋृषि ने इस दरबार में अपने आराधना के श्रद्धा पुष्प काली के चरणों में इतनी अगाध भक्ति व श्रद्धा से अर्पित किए कि काली कृपा ने उन्हें समस्त चराचर जगत की नश्वरता का ज्ञान दे डाला। अखण्ड ज्ञान को प्राप्त करके ही उन्होंने संसार को ज्ञान का अलौकिक प्रकाश दिया। शक्ति की कृपा के फलस्वरूप ही इन्होंने श्री महाकाली दरबार के निकट ही पाताल भुवनेश्वर में पुराणों की रचना की और पूज्यनीय बने भुवनेश्वर महात्म्य में आया भी है।
’’समार्चाति विद्यानेन श्रियं प्राप्तनोति मानवः
कपिलाद्या महात्मानों मार्कण्डेयादयों नृप (३४०)
मानसखण्ड भुवनेश्वर महात्म्य
अर्थात मार्कण्डेय ऋृषि भुवनेश की पूजा में यहां विराजमान होकर भक्तों द्वारा पूजित हैं।
ऐसा माना जाता है कि जब बाबा गुरु गोरखनाथ जी ने इस वसुंधरा में कदम रखा तो सर्वप्रथम इसी क्षेत्र को अपनी आराधना व तपस्या का केन्द्र बनाया क्योंकि कुमाऊं का प्रवेश द्वार क्षेत्र होने से भी यह क्षेत्र यहां पधारने वाले संतो, ऋृषि-मुनियों का प्रथम पडाव रहा है। इसी कारण से माना जाता है जब गुरु गोरखनाथ जी यहां की धरती पर आये तो सर्वप्रथम इस क्षेत्र में अपना पडाव डालकर उन्होंने यहां धूनी रमाकर कालिका की कठोर आराधना की और बाद में काली कृपा से उन्हें यहां के महान प्रतापी देवता हरू, सैम, गोल्ज्यू समेत अनेक देवताओं के गुरू होने का गौरव प्राप्त हुआ। चम्पावत में जल रही गुरू गोरखनाथ जी की अखण्ड धूनी ’’काली की गोरख‘‘ पर हुई कृपा का ही प्रताप मानी जाती है। महायोगी महेन्द्र नाथ, सोमवारी बाबा की तो यह अद्भुत साधना स्थली कही जाती है। इतना ही नहीं नानतिन बाबा, टाटम्बरी बाबा, हैडाखान बाबा सहित अनेकों संतों ने इस स्थान पर साधना करके कालिका माता से निर्मल ज्ञान की प्राप्ति की यहां की प्राचीन सिद्ध शक्ति पीठ में सिद्धबली हनुमान, काल भैरव व भगवान शिव की मूर्तियां विराजमान हैं। पौराणिक काल से अनेक कथाओं को समेटे यह स्थल ऋृषि-मुनियों की आराधना के पश्चात काफी समय तक गोपनीय रहा आधुनिक समय में यह स्थान लगभग सात दशक पूर्व प्रकाश में आया कहा जाता है कि वर्ष १९४२ से पूर्व कलकत्ता में एक बंगाली भक्त को माता कालिका ने स्वप्न में दर्शन देकर कृतार्थ किया व इस स्थान पर अपनी अलौकिक शक्ति होने का भान कराया। दिव्य प्रेरणा से अभिभूत उस काली भक्त ने इस स्थान की खोज की व बाद में हल्द्वानी निवासी रामकुमार जी ने इस स्थान को बंगाली बाबा के साथ मिलकर माँ की कृपा से मंदिर रूप में स्थापित किया। मंदिर के समीप ही एक तामपत्र निकला इसमें पाली भाषा में महाकाली मंदिर महात्म्य का उल्लेख किया गया है।
सनातन धर्म की महान ध्वजावाहक आदि जगतगुरु शंकराचार्य महामाया भगवती के अनन्य भक्त थे। देवाधिदेव महादेव की असीम कृपा तथा अपने अंतरमन की प्रेरणा के फलस्वरूप उनके मन में भगवती काली के विविध स्वरूपों तथा शक्तिपीठों के दर्शन की इच्छा जागृत हुई और इस हेतु उन्होंने सम्पूर्ण भारतभूमि के भ्रमण का निश्चय किया। जहां-जहां भी माँ जिस रूप में स्थित थी वहां-वहां उन्हें माँ के उस स्वरूप के दर्शन हुये।
भारत भ्रमण करते हुये जगदगुरु शंकराचार्य ने जब हिमालय के अंचल में अवस्थित देवभूमि उत्तराखण्ड में पदापर्ण किया तो उनके आनंद का कोई पारावार नहीं था। कूर्मांचल की तराई में आगमन पर सर्वप्रथम जगद्गुरु ने गार्गी गंगा के दर्शन तथा इस पवित्र नदी में स्नान की इच्छा अपने भक्तों के बीच व्यक्त की। कुछ स्थानीय भक्तों ने उनकी इस इच्छा को पूर्ण करने में अपना योगदान दिया।
इसी क्रम में जगद्गुरु एकाएक कह उठे कि ’’यहां तो भगवती काली की अद्भुद आभा सर्वत्र बिखरी है।‘‘ अवश्य ही कही आस-पास में वह आदिशक्ति विद्यमान है। यह सुनकर स्थानीय भक्तों ने जगद्गुरु को गार्गी नदी के उस एक प्राचीन मंदिर स्थित होने की जानकारी दी। फिर क्या था शंकराचार्य समस्त भक्त मण्डली के साथ तत्क्षीण माँ काली के उस दरबार की ओर प्रस्थान कर गये और वहां पहुंचकर वीरान वन में स्थित पवित्र दरबार के दर्शन कर धन्य हो गये।
कहा जाता है कि कूर्मांचल के पर्वतीय भू-भाग में चरण रखने से पूर्व आदिगुरु कई दिनों तक इस दिव्य स्थल में साधनारत रहे। इस बीच उनके अनुयायों की संख्या निरन्तर बढती रही पुराने बुर्जग बताते हैं कि यह मंदिर घनी झाडयों के बीच स्थित का जहां बढने योग्य स्थान का अभाव था। आदिगुरु के आदेश पर तब भक्त मण्डली द्वारा मंदिर के चारों ओर की झाडी व उबड-खाबड, भू-भाग को काट कर चौरस किया गया और यही से लोग इसे कालीचौड कहने लगे। इसके अलावा नाम को लेकर और भी अनेक किवदंतियां हैं किन्तु इतना अवश्य है कि आदिगुरु शंकराचार्य ने इस दिव्य स्थल के दर्शन के पश्चात ही पर्वतों की ओर अपनी यात्रा का शुभारम्भ किया। पवित्र धाम काली चौड में तभी से माँ काली के वैष्ण स्वरूप की पूजा की प्राचीन परम्परा लोक संस्कृति का अभिन्न अंग बन गई जो आज भी जीवंत है।
पुराणों के अनुसार इस भू-भाग में सटे तमाम पर्वतीय क्षेत्र महान् आस्थाओं के सिद्ध क्षेत्र हैं। इन्हीं क्षेत्र में लंकापति रावण के पितामह पुलस्त्य ऋृषि ने काली की कठोर तपस्या करके उनके दर्शन किए स्कंद पुराण के इकतालीसवें अध्याय के उपरोक्त श्लोक -
अत्रिः पुलस्त्यः पुलहः ऋषयो गर्ग पर्वतम्।
से यह संकेत मिलता है कि महर्षि पुलस्त्य के साथ यहां ब्रह्म पुत्र अत्रि पुलह ने भी इन वन क्षेत्रों में घोर तपस्या की है। गर्ग ऋृषि की तपस्थली भी इस क्षेत्र की परिधि के पवित्र पर्वत ही रहे हैं। इसी पर्वत माला में गर्गांचल पर्वत का जिक्र भी महर्षि व्यास जी ने मानस खण्ड में ’’शेषस्य दक्षिणे भागे पुण्यो गर्गगिरिः स्मृत।‘‘ के नाम से इन तमाम क्षेत्रों की महिमा स्कंद पुराण में गाई है। कालीचौड मंदिर के एक ओर गर्गांचल व समीपस्थ ही भद्रवट क्षेत्र भी स्थित है। भद्रवट का स्मरण ही करोडों पापों को दूर भगा देता है। व्यास जी का यह कथन मानस खण्ड के ४२वें अध्याय के तीसरे श्लोक से स्पष्ट है।
’’क्षेत्र भद्रवट नाम सर्वपापप्राणशनम’’ अर्थात् इस क्षेत्र की उपमा व्यास जी ने तीर्थराज के रूप में की है।
कालीचौड के आसपास पवित्र पहाडों में तीर्थों की भरमार है। ये किसी न किसी ऋृषि-मुनियों की तपस्याओं के महान केन्द्र रहे हैं। कालीचौड क्षेत्र के बारे में श्रीमद्भागवत में भी कथा आती है कि इस क्षेत्रों में शिव व शक्ति की आराधना करते हुए एक बार ऋृषि मार्कण्डेय ने स्वर्ग में भी हलचल पैदाकर दी उनके कठोर तप को भंग करने के लिए देवराज इन्द्र ने प्रकृति के देवता यम, वरूण, अग्नि सहित अनेक अप्सराएं भेजी जब इन्द्र सहित सभी देव असफल हो गये तब भगवान के रूप में नर और नारायण ऋृषि से वरदान मांगने को कहा। दर्शन से प्रसन्न मार्कण्डेय जी ने प्रभु से प्रभु की कृपा को मांगा इस दौरान धन्य मार्कण्डेयऋृषि को नश्वर माया का ज्ञान प्राप्त हुआ। ये चिरजीवी ऋृषि के रूप में संसार में प्रसिद्ध हुए। श्री महाकाली की कृपा के प्रताप से ही मार्कण्डेय ऋृषि की पूजा लोग चिरजीविता के लिए करते हैं। माता महाकाली के शक्ति स्थल उत्तराखण्ड में अनेकों स्थानों पर मौजूद हैं। कालीचौड की कालिका की कथा, महिमा, अनन्त है। इसे शब्दों में समेट पाना किसी भी प्राणी के लिए सहज व संभव नहीं है। इस स्थान पर काली कब से और किस कारण पूजित है। इस बारे में कोई स्पष्ट मत नहीं है। पुष्पभद्रा तीर्थ-महात्म्य के ४०वें अध्याय में ’’वाम तत्र महादेवी चण्डिका परमेश्वरी‘‘ के नाम से इस देवी की विराट महिमा की ओर इशारा किया गया है। जनपद पिथौरागढ के गंगोलीहाट क्षेत्र में स्थित श्री महाकाली का शक्ति पीठ भी सदियों से पूजनीय है। इस मंदिर की ख्याति देश-विदेशों तक है। जगतगुरु शंकराचार्य जी ने अपने तपोबल से इस स्थान पर काली माँ के दर्शन किए।

सूर्या देवी की विराट महिमा


marg surya mata-बृक्ष की गोद में स्थित है,सूर्या देवी
राजेन्द्रपन्त’रमाकान्त‘
क्षीर वृक्ष स्वरुपिणी दयनीये दयाधिके जय करुणारुपे सूर्या देवी
मंगला, वैश्णवी, माया, कालरात्रि, महामाया, मंतगी, काली कमलवासिनी, शिवा, सर्वमंगलरुपिणी सहित अनन्त नामों से भक्तों के हदय में वास करने वाली महेश्वरी महादेवी की पूजा अर्चना से व आराधना करने पर भगवती दुर्गा कश्टप्रद नरक रुपी दुर्ग से उद्वारकर परम पद प्रदान करती है, देवभूमि उतराखण्ड में ्रशक्तिपीठों की भरमार है,स्थान स्थान पर स्थित देवी के ्रशक्ति स्थल परम पूजनीय है, लालकआ विधानसभा अन्तर्गत गौला पार से लगभग १७ किमी आगे सेलजाम नदी के तट पर सूर्या देवी का पावन स्थान सदियों से भक्तों को असीम व अलौकिक ्रशान्ति प्रदान करता आ रहा है, इस स्थान पर पहुचनें पर सासारिक मायाजाल में भटके मानव की समस्त ब्याधियाँ ्रशान्ति को प्राप्त हो जाती है।
सूर्या देवी की महंता स्थानीय जनमानस में काफी लोकप्रिय है, दूर-दराज क्षेत्रों से भी भक्तों का आवगमन लगा रहता है, नवरात्रि, शिवरात्रि को भक्तों की खासी भीड यहां पर लगी रहती है, समय समय पर आयोजित धार्मिक समारोह में लोग काफी संख्या अपनी अपनी भागीदारी अदा करते है, सूर्या देवी मंदिर क्षेत्र पाण्डव कालीन गाथाओं को भी अपने आप में समेटे हुए है, माना जाता है, कि बनवास काल के दौरान पाण्डवों ने अपना काफी समय सूर्या देवी की ्रशरण में ब्यतीत किया, सूर्या देवी ्रशक्ति क्षेत्र की सबसे बडी विशेशता यह है, कि यह देवी ्रशेलजाम नदी के तट पर एक वट-वृक्ष के मध्य में है, भक्तजनों को देवी की पूजा अर्चना के लिए सीढयों के सहारे वृक्ष के मध्य तक जाना पडता है, सदियों से स्थित यह वृक्ष सूर्या देवी की विराट महिमा का बखान करता प्रतीत होता है, वट वृक्षों में विराजित ्रशक्ति के बारे में देवी भागवत में आता है।
’’अश्वत्थवट निम्बाम्रकपित्थ बदरीगते।
पनसार्ककरीरादिक्षीर वृक्षस्वरुपिणी।।
दुग्ध वल्लीनिवासार्हे दयनीये दयाधिके।
दाक्षिण्यकरुणारुपे जय सर्वज्ञवल्ल्भे।।
अर्थात् पीपल, वट, नीम, आम, कैथ, बेर में निवास करने वाली आप कटहल, मदार, करील, जामुन आदि क्षीर वृक्षस्वरुपिणी है, दुग्धवल्ली में निवास करने वाली दयनीय महान दयालु कृपालुता एंव करुणा की साक्षात् मूर्तिस्वरुपा एंव सर्वज्ञजनों की प्रिय स्वरुपिणी आपकी जय हों।
इस प्रकार वट-वक्षों के मध्य निवास करने वाली ्रशक्तियाँ साक्षात् शिवा का ही स्वरुप मानी जाती है, जगदम्बा माता की महाविराट शक्ति के रुप में ही लोग यहाँ माता सूर्या देवी की वंदना करते है, हिमालय भूमि में पूज्यनीय तमाम ्रशक्तिपीठों की भांति ही माता सूर्या देवी पूज्यनीयां व वदनीया है, इस स्थान पर ्रशक्ति का अवतरण कब व किस प्रकार हुआ इसका कोई स्पश्ट उल्लेख नही है, सदियों से लोग यहाँ देवी की पूजा अर्चना बडी श्रद्वा व भक्ति के साथ करते आ रहे है, जानकार लोगों बताते है सूर्या देवी की आराधना श्रावण मास में दही से भाद्रपद मास में ्रशर्करा अश्विन मास में खीर तथा कार्तिक मास में दूध, मार्गशीर्श महीने में फेनी एवं पौश माह में दूधि कूर्चिका माघ में महीने में गाय के द्यी का फाल्गुन के महीने में नारियल चैत्र में भावनाओं के निर्मल मोती, वैशाख, मास में गुडमिश्रित प्रसाद, ज्येश्ठ में ्रशहद, आशाढ में नवनीत व महुए के रस का नवैध माँ सूर्या देवी को अर्पित करना चाहिए।
महामंगल मूर्तिस्वरुपा महेश्वरी महादेवी परमेश्वरी सूर्या देवी को इनके भक्तजन सिद्वीकारिणी व कश्ट निवारिणी देवी के रुप में पूजते है, आस्थावान भक्तजन बताते है, इस दरबार में आकर जिसने सच्चे मन से सूर्या देवी का स्मरण कर लिया वह सदैव वैभवशाली रहता है, कोटि सूर्यो की आभाधारण करने वाली सभी प्रकार की सिद्वियां प्रदान करने वाली देवी सूर्या की महिमा अपरम्पार बतायी जाती है, देवी के उपासक इन्हें सर्वशक्तिस्वरुपा महेश्वर की ्रशाश्वत ्रशक्ति साधकों को सिद्वि देने वाली सिद्विरुपा, सिद्वश्वेरी, ईश्वरी आदि तमाम नामों से पुकारते है। कहा जाता है,अनेकों साधकों ने यहाँ साधन करके अलौकिक सिद्वियां प्राप्त की, इस क्षेत्र की गगनचुम्बी पर्वतमालाएं कल कल करती नदियां पूरे क्षेत्र को नवजीवन प्रदान करती है, लगभग पाँच भक्त एक साथ पेड पर ्रशक्ति स्वरुपा माता सूर्या देवी की पूजा अर्चना कर सकते है, यूं तो असंख्य धनाढय लोग माँ के भक्त है कोई भी यहां पर मंदिर का निर्माण करवा सकता है परन्तु मान्यता है, कि इस स्थान पर माता मन्दिर में नही बल्कि प्रकृति के खुले वातावरण में रहना चाहती है, कहा जाता है कि एक बार किसी भक्त ने यहा पर भव्य मंदिर के निर्माण की बात सोची तो उसी रात्रि स्वप्न में प्रकट होकर माता ने ऐसा करने से कदाचित माना किया कहा तो यहां तक जाता है कि यहां पर भव्य मंदिर के निर्माण की योजना एक बार महायोगी हैडाखान बाबा ने संकल्प पूवर्क बनायी तो माता सूर्या देवी ने बाबा हैडाखान जी को भी इस कार्य को करने से रोक दिया था, सेलजाम के पवित्र नदी के तट पर पर्वत की तटहटी पर स्थित आदि काल से पेड की गोद में विराजमान इस वट वृक्ष का नदी का तेज बहाव भी कुछ नही बिगाड पायी है, लालकुआंॅ विधानसभा क्षेत्र के अन्तर्गत गौलापार नामक गाँव से पूर्व दिशा में लगभग सत्रह किलों मीटर की यात्रा के साथ इस मंदिर तक आसानी से पहुंचा जा सकता है, इसी के समीप काल भैरव जी का मंदिर स्थित है।

देवीधूरा की बग्वाल: जहाँ लोक हित में पत्थरों से अपना लहू बहाते हैं लोग
कहा जाता है कि जब पृथ्वी पर मानव सभ्यता की शुरुआत हुई तो तत्कालीन आदि मानव के हाथ में एकमात्र वास्तु 'पाषाण' यानी पत्थर था, तभी उस युग को पाषाण युग कहा गया। पत्थर से ही आदि मानव ने घिसकर नुकीले औजार बनाये, उदर की आग को बुझाने के लिए जानवर मारे और पत्थरों को ही घिसकर आग जलाई और पका हुआ भोजन खाया, बाद में पत्थर से ही गोल पहिये बनाए और जानवरों पर सवारी गांठकर खुद को ब्रह्मा की बनाई दुनियां का सबसे बुद्धिमान शाहकार साबित किया। आज जहाँ एक ओर अपनी तरक्की से हमेशा असंतुष्ट रहने वाला मानव पृथ्वी से भी ऊँचा उठकर चाँद  व मंगल तक पहुँच गया है, वहीँ दूसरी ओर वही मानव आज भी मानो उसी पाषाण युग में पत्थरों को थामे हुए भी जी रहा है। जातीय व धार्मिक दंगो से कहीं दूर देवत्व की धरती देवभूमि उत्तराखंड के देवीधूरा नामक स्थान पर, वह अपने ही भाइयों पर पत्थर मारता है, पर खुशी उसे उनका लहू बहाने से अधिक उनके पत्थरों से अपना लहू बहने पर होती है। वर्ष में कुछ मिनटों के लिए यहाँ होने वाले पत्थर युद्ध में लोक-लाभ की भावना से लोग अपने थोड़े-थोड़े रक्त का योगदान देते हुए पूरे एक मनुष्य के बराबर रक्त बहाते हैं। लेकिन वर्षों से चली आ रही इस परंपरा ने आज तक किसी की जान नहीं ली है, वरन किसी की जान ही बचाई है। यह मौका है जब सवाल-जबाबों से परे होने वाली आस्था के बिना भी अपनी जड़ों और अतीत को समझने का प्रयास किया जा सकता है।

यूँ उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल में यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है, "नौ नौर्त, दस दशैं, बिस बग्वाल, ये कुमू फुलि भंग्वाल, हिट कुमय्या माल..।" अर्थात शारदीय नवरात्रि व विजयादशमी के बाद भैया दूज को बीस स्थानों पर बग्वाल खेलकर कुमाऊंवासी माल प्रवास में चले जाते थे। लेकिन अब केवल देवीधूरा में ही बग्वाल खेली जाती है। देवीधुरा यानी "देवी के वन" नाम का छोटा सा कश्बा उत्तराखंड के चंपावत ज़िले में कुमाऊं मंडल के तीन जिलों अल्मोडा, नैनीताल और चंपावत की सीमा पर समद्रतल से लगभग 2,400 मीटर (लगभग 6,500 फिट) की ऊंचाई पर लोहाघाट से 45 किमी तथा चम्पावत से 61 किमी की दूरी पर स्थित है । यहाँ ऐतिहासिक, आध्यात्मिक और नैसर्गिक सौंदर्य की त्रिवेणी के रूप में मां बाराही देवी का मंदिर स्थित है, जिसे शक्तिपीठ की मान्यता प्राप्त है। कहा जाता है कि चंद राजाओं ने अपने शासन काल में इस सिद्ध पीठ में चम्पा देवी और महाकाली की स्थापना की थी। महाकाली को महर और फर्त्याल जाति के लोगों द्वारा बारी-बारी से प्रतिवर्ष नियमित रुप से नरबलि दी जाती थी। बताया जाता है कि रुहेलों के आक्रमण के दौरान कत्यूरी राजाओं द्वारा मां बाराही की मूर्ति को घने जंगल के मध्य एक भवन में स्थापित कर दिया गया था। धीरे-धीरे इसके चारों ओर गांव स्थापित हो गये और यह मंदिर लोगों की आस्था का केन्द्र बन गया। इस स्थान का महाभारतकालीन इतिहास भी बताया जाता है, कहते हैं कि यहाँ पहाड़ी के छोर पर खेल-खेल में भीम ने शिलायें फेंकी थी। ग्रेनाइट की इन विशाल शिलाओं में से दो आज भी मन्दिर के निकट मौजूद हैं। इनमें से एक को राम शिला कहा जाता है। जन श्रुति है कि यहां पर पाण्डवों ने जुआ खेला था, दूसरी शिला पर हाथों के भी निशान हैं। निकट ही स्थित भीमताल और हिडिम्बा मंदिर भी इस मान्यता की पुष्टि करते हैं। वैसे अन्य इतिहासकर इस परंपरा को आठवीं-नवीं सदी का तथा कुछ खस जाति से भी सम्बिन्धित मानते हैं । दूसरी ओर पौराणिक कथाओं के अनुसार जब राक्षक्षराज हिरणाक्ष व अधर्मराज पृथ्वी को अपहरण कर पाताल लोक ले गए, तब पृथ्वी की करुण पुकार सुनकर भगवान विष्णु ने बाराह यानी सूकर का रूप धारण कर पृथ्वी को बचाया, और उसे अपनी बांयी ओर धारण किया। तभी से पृथ्वी वैष्णवी बाराही कहलायी गईं ।कहा जाता हैं कि तभी से मां वैष्णवी बाराही आदिकाल से गुफा गह्वरों में भक्तों की मनोकामना पूर्ण करती आ रही हैं। इन्हीं मां बाराही की पवित्र भूमि पर उल्लास, वैभव एवं उमंग से भरपूर सावन के महीने में जब हरीतिमा की सादी ओढ़ प्रकृति स्वयं पर इठलाने लगती हैं, आकाश में मेघ गरजते हैं, दामिनी दमकती है और धरती पर नदियां एवं झरने नव जीवन के संगीत की स्वर लहरियां गुंजा देते हैं, बरसात की फुहारें प्राणिमात्र में नव स्पंदन भर देती हैं तथा खेत और वनों में हरियाली लहलहा उठती है। ऐसे परिवेश में देवीधूरा में प्राचीनकाल से भाई-बहन के पवित्र प्रेम के पर्व रक्षाबंधन से कृष्ण जन्माटष्मी तक आषाड़ी कौतिक (मेला) मनाया जाता है, वर्तमान में इसे बग्वाल मेले के नाम से अधिक प्रसिद्धि प्राप्त है। कौतिक के दौरान श्रावणी पूर्णिमा को ‘पाषाण युद्ध’ का उत्सव मनाया जाता है। एक-दूसरे पर पत्थर बरसाती वीरों की टोलियां,  वीरों की जयकार और वीर रस के गीतों से गूंजता वातावरण, हवा में तैरते पत्थर ही पत्थर और उनकी मार से बचने के लिये हाथों में बांस के फर्रे लिये युद्ध करते वीर। सब चाहते हैं कि उनकी टोली जीते, लेकिन साथ ही जिसका जितना खून बहता है वो उतना ही ख़ुशक़िस्मत भी समझा जाता है. इसका मतलब होता है कि देवी ने उनकी पूजा स्वीकार कर ली। आस-पास के पेड़ों, पहाड़ों औऱ घर की छतों से हजारों लोग सांस रोके पाषाण युद्ध के इस रोमांचकारी दृश्य को देखते हैं। कभी कोई पत्थर की चोट से घायल हो जाता है तो तुरंत उसे पास ही बने स्वास्थ्य शिविर में ले जाया जाता है। युद्धभूमि में खून बहने लगता है, लेकिन यह सिलसिला थमता नहीं। साल-दर-साल चलता रहता है, हर साल हजारों लोग दूर-दूर से इस उत्सव में शामिल होने आते हैं। आस-पास के गांवों में हफ़्तों पहले से इसमें भाग लेने के लिये वीरों और उनके मुखिया का चुनाव शुरू हो जाता है. अपने-अपने पत्थर और बांस की ढालें तैयार कर लोग इसकी बाट जोहने लगते हैं। 
बग्वाल यानी पाषाण युद्ध की यह परंपरा हजारों साल से देवीधूरा में चली आ रही है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यह स्थान गुह्य काली की उपासना का केन्द्र था, सघन व्न में बावन हजार वीर और चौंसठ योगनियों का आतंक था, उन्हें प्रसन्न करने के लिये नरबलि की प्रथा थी। देवीधूरा के आस-पास वालिक, लमगड़िया, चम्याल और गहड़वाल खामों (ग्रामवासियों का समूह, जिनमें महर और फर्त्याल जाति के लोग ही अधिक होते हैं) के लोग रहते थे, इन्हीं खामों में से प्रत्येक वर्ष एक व्यक्ति की बारी-बारी से बलि दी जाती थी। एक बार चम्याल खाम की एक ऐसी वृद्धा के पौत्र की बारी आई, जो अपने वंश में इकलौता था। अपने कुल के इकलौते वंशज को बचाने के लिये वृद्धा ने देवी की आराधना की तो देवी ने वृद्धा से अपने गणों को खुश करने के लिये कहा। वृद्धा को इस संकट से उबारने के लिये चारों खामों के लोगों ने इकट्ठे होकर युक्ति निकाली कि एक मनुष्य की जान देने से बेहतर है कि आपस में पाषाण युद्ध “बग्वाल” लड़ (खेल) कर एक मानव के बराबर रक्त देवी व उसके गणों को चड़ा दिया जाए। इस तरह नर बलि की कुप्रथा भी बंद हो गयी। तभी से बग्वाल का एक निश्चित विधान के साथ लड़ी नहीं वरन खेली जाती है । मेले के पूजन अर्चन के कार्यक्रम यद्यपि आषाड़ी कौतिक के रुप में लगभग एक माह तक चलते हैं लेकिन विशेष रुप से श्रावण माह की शुक्लपक्ष की एकादशी से प्रारम्भ होकर भाद्रपद कृष्ण पक्ष की द्वितीया तक परम्परागत पूजन होता है । श्रावण शुक्ल एकादशी के दिन चारों खामो के लोगों द्वारा सामूहिक पूजा-अर्चना, मंगलाचरण, स्वस्तिवान, सिंहासन-डोला पूजन और सांगी पूजन विशिष्ट प्रक्रिया के साथ किये जाते हैं। इस बीच अठ्वार का पूजन भी होता है, जिसमें सात बकरों और एक भैंसे का बलिदान दिया जाता है।  पूर्णमासी के दिन चारों खामों व सात तोकों के प्रधान आत्मीयता, प्रतिद्वन्द्विता व शौर्य के साथ बाराही देवी के मंदिर में एकत्र होते हैं, जहां पुजारी सामूहिक पूजा करवाते हैं । बग्वाल खेलने वाले बीरों (स्थानीय भाषा में द्योंकों) को घरों से महिलाएँ आरती उतार, आशीर्वचन और तिलक-चंदन लगाकर व हाथ में पत्थर देकर ढोल-नगाड़ों के साथ बग्वाल के लिए भेजती हैं। द्योंके युद्ध से पहले एक महीने तक संयम तथा सदाचार का पालन करते हैं, और सात्विक भोजन करते हैं।पूजा के बाद पाषाण युद्ध में भाग लेने वाले चारों खामों के योद्धाओं की टोलियाँ अपने घरों से परम्परागत वेश-भूषा में सुसज्जित होकर ढोल, नगाड़ो के साथ सिर पर कपड़ा बाँध, हाथों में लट्ठ तथा फूलों से सजे व रिंगाल की बनी हुई छन्तोली कही जाने वाली छतरियों (फर्रों) के साथ धोती-कुर्ता या पायजामा पहन व कपड़े से मुंह ढंक कर अपने-अपने गाँवों से भारी उल्लास के साथ देवी मंदिर के प्रांगण दुर्वाचौड़ मैदान में पहुँचती  हैं, और दो टीमों के रुप में मैदान में बंट जाती हैं। सर्वप्रथम मंदिर की परिक्रमा की जाती है। इसमें बच्चे, बूढ़े, जवान सभी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं । सबका मार्ग पहले से ही निर्धारित होता है । मैदान में पहुचने का स्थान व दिशा हर खाम की अलग होती है । उत्तर की ओर से लमगड़िया, दक्षिण की ओर से चम्याल, पश्चिम की ओर से वालिक और पूर्व की ओर से गहड़वाल खोलीखाण दूर्वाचौड़ मैदान में आते हैं । दोपहर तक चारों खाम देवी के मंदिर के उत्तरी द्वार से प्रवेश करती हुई परिक्रमा करके मंदिर के दक्षिण-पश्चिम द्वार से बाहर निकलते हैं, और देवी के मंदिर और बाजार के बीच के खुले दूर्वाचौड़ मैदान में दो दलों में विभक्त होकर अपना स्थान घेरने लगते हैं । दोपहर में जब मैदान के चारों ओर आस्था का सैलाब उमड़ पड़ता है, तब एक निश्चित समय पर मंदिर के पुजारी बग्वाल प्रारम्भ होने की घोषणा करते हैं। इसके साथ ही खामों के प्रमुखों की अगुवाई में पत्थरों की वर्षा दोनों ओर से प्रारम्भ हो जाती है। ढोल का स्वर ऊँचा होता चला जाता है, छन्तोली से रक्षा करते हुए दूसरे दल पर पत्थर फेंके जाते हैं। धीरे-धीरे बग्वाली एक दूसरे पर प्रहार करते हुए मैदान के बीचों बीच बने ओड़ (सीमा रेखा) तक पहुँचने का प्रयास करते हैं। फर्रों की मजबूत रक्षा दीवार बनायी जाती है। जिसकी आड़ से वे प्रतिद्वन्दी दल पर पत्थरों की वर्षा करते हैं। पुजारी को जब अंत:करण से विश्वास हो जाता है कि एक मानव के रक्त के बराबर खून बह गया होगा तब वह ताँबें के छत्र और चँवर के साथ मैदान में आकर बग्वाल सम्पन्न होने की घोषणा शंखनाद से करते हैं। तब एक दूसरे के प्रति आत्मीयता प्रदर्शित कर आपस में गले मिल, अपने क्षेत्र की समृद्धि की कामना करते हुए द्योंके धीरे-धीरे मैदान से बिदा होते हैं। श्रद्धालुओं में प्रसाद वितरण किया जाता है। इसके बाद भी मंदिर में पूजार्चन चलता रहता है। देवी की पूजा का दायित्व विभिन्न जातियों का होता है। फुलारा कोट के फुलारा जानी के लोग मंदिर में पुष्पों की व्यवस्था करते हैं । मनटांडे और ढोलीगाँव के ब्राह्मण श्रावण की एकादशी के अतिरिक्त सभी पर्वों पर पूजन करवा सकते हैं । भैंसिरगाँव के गहढ़वाल राजपूत बलि के भैंसों पर पहला प्रहार करते हैं। लोक विश्वास है कि क्रम से महर और फर्त्याल जातियों द्वारा चंद शासन तक यहाँ श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नर बलि दी जाती थी। कहा जाता है कि पहले जो बग्वाल आयोजित होती थी उसमें फर्रों का प्रयोग नहीं किया जाता था, परन्तु सन् 1945 के बाद से फर्रे प्रयोग किये जाने लगे। बगवाल में आज भी निशाना बनाकर पत्थर मारना निषेध है । रात्रि में मंदिर में देवी जागरण होता है।
खोलीखांड-दूर्वाचौड़ मैदान के सामने बने मंदिर की ऊपरी मंजिल में तांबे की पेटी में मां बाराही, मां सरस्वती और मां महाकाली की मूर्तियां हैं। ऐसा माना जाता है कि खुली आंखों से इन मूर्तियों को आज तक किसी ने नहीं देखा है। मां बाराही की मूर्ति कैसी और किस धातु की है यह आज भी रहस्य है। कहा जाता है कि मूर्तियों को खुली आंखों से देखने नेत्र की ज्योति चली जाती है। इसलिए मूर्तियों को स्नान कराते समय पुजारी भी आंखों पर काली पट्टी बांधे रहते हैं। इन मूर्तियों की रक्षा का भार लमगड़िया खाम के प्रमुख को सौंपा जाता है, जिनके पूर्वजों ने पूर्व में रोहिलों के हाथ से देवी विग्रह को बचाने में अपूर्व वीरता दिखाई थी। गहढ़वाल प्रमुख श्री गुरु पद से पूजन प्रारम्भ करते है। श्रावणी पूर्णिमा के दूसरे दिन बक्से में रखे देवी विग्रह की डोले के रुप में शोभा यात्रा भी सम्पन्न होती है। भक्तजनों की जय-जयकार के बीच डोला देवी मंदिर के प्रांगण में रखा जाता है। चारों खाम के मुखिया पूजन सम्पन्न करवाते हैं। कई लोग देवी को बकरे के अतिरिक्त अठ्वार-सात बकरे तथा एक भैंस की बलि भी अर्पित करते हैं।
बाबा नीब करौरी का कैंची धाम: जहाँ बाबा करते हैं भक्तों से बातें 
हिमालय की गोद में रचा-बसा देवभूमि उत्तराखण्ड वास्तव में दिव्य देव लोक की अनुभूति कराता है। यहां के कण-कण में देवताओ का वास और पग-पग पर देवालयों की भरमार है, इस कारण एक बार यहां आने वाले सैलानी लौटते हैं तो देवों से दुबारा बुलाने की कामना करते हैं। यहां की शान्त वादियों में घूमने मात्र से सांसारिक मायाजाल में घिरे मानव की सारी कठिनाइयों का निदान हो जाता है। यही कारण है कि पर्यटन प्रदेश कहे जाने वाले उत्तराखण्ड के पर्यटन में बड़ा हिस्सा यहां के तीर्थाटन की दृष्टि से मनोहारी देवालयों में आने वाले सैलानियों की दिनों-दिन बढ़ती संख्या का है। यह राज्य की आर्थिकी को भी बढ़ाने में सबल हैं, यह अलग बात है कि सरकारी उपेक्षा के चलते राज्य में अभी कई सुन्दर स्थान ऐसे है जो सरकार की आंखों से ओझल है, जिस कारण कई पर्यटक स्थलों का अपेक्षित लाभ हासिल नही हो पा रहा है।
देवभूमि के ऐसे ही रमणीय स्थानों में 20वीं सदी के महानतम संतों व दिव्य पुरुषों में शुमार बाबा नीब करौरी महाराज का कैंची धाम है, जहां अकेले हर वर्ष इसके स्थापना दिवस 15 जून को ही लाखों सैलानी जुटते हैं। बाबा की हनुमान जी के प्रति अगाध आस्था थी, और उनके भक्त उनमें भी हनुमान जी की ही छवि देखते हैं, और उन्हें हनुमान का अवतार मानते हैं। बाबा के भक्तों का मानना है कि बाबा उनकी रक्षा करते हैं, और साक्षात दर्शन देकर मनोकामनाऐं पूरी करते हैं । यहां सच्चे दिल से आने वाला भक्त कभी खाली नहीं लौटता। यहां बाबा की मूर्ति देखकर ऐसे लगता है जैसे वह भक्तों से साक्षात बातें कर रहे हों।
कैंची धाम उत्तराखण्ण्ड के विश्व प्रसिद्ध पर्वतीय पर्यटक स्थल नैनीताल से मात्र 18 किमी की दूरी पर अल्मोड़ा-रानीखेत मार्ग पर देश-दुनिया में विरले ही मिलने वाली उत्तरवाहिनी क्षिप्रा नदी के तट पर तकरीबन कैंची के आकार के दोहरे `हेयर पिन बैण्ड´ पर स्थित है। बाबा के कैंची आने की कथा भी बड़ी रोचक है । मंदिर के करीब रहने वाले  पूर्णानंद  तिवाड़ी के अनुसार 1942 में एक रात्रि  ख़ुफ़िया डांठ नाम के निर्जन स्थान पर एक कंबल ओढ़े व्यक्ति ने कथित भूत के डर से भय मुक्त कराया, और 20 वर्ष बाद लौटने की बात कही। वादे के अनुसार 1962 में वह रानीखेत से नैनीताल लौटते समय कैंची में रुके और सड़क किनारे के पैराफिट पर बैठ गए और पूर्णानंद को बुलाया । कहा जाता है कि इससे पूर्व सोमवारी बाबा इस स्थान पर भी धूनी रमाते थे, जबकि उनका मूल स्थान पास ही स्थित काकड़ीघाट में कोसी नदी किनारे था। सोमवारी बाबा के बारे में प्रशिद्ध था कि  एक बार भण्डारे में प्रशाद बनाने के लिए घी खत्म हो गया। इस पर बाबा ने भक्तों से निकटवर्ती  नदी से एक कनस्तर जल मंगवा लिया, जो कढ़ाई में डालते ही घी हो गया। तब तक निकटवर्ती भवाले से घी का कनस्तर आ गया। बाबा ने उसे वापस नदी में उड़ेल दिया। लेकिन यह क्या, वह घी पानी बन नदी में समाहित हो गया। इधर जब नीब करौरी बाबा कैंची से गुजरे तो उन्हें कुछ देवी सिंहरन सी हुई, इस पर उन्होंने 1962 में यहाँ आश्रम की स्थापना की। बाद में 15 जून 1973 को यहां विंध्यवासिनी और ठीक एक साल बाद मां वैष्णों देवी की मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा की गई। 1964 से मन्दिर का स्थापना दिवस समारोह अनवरत 15 जून को मनाया जा रहा है। 
बाबा का जन्म आगरा के निकट फिरोजाबाद जिले के अकबरपुर में जमींदार घराने में मार्गशीर्ष माह की अष्टमी तिथि को हुआ था। उनका वास्तविक नाम लक्ष्मणदास  शर्मा था। इस नाम से उत्तर प्रदेश के जिला फर्रुखाबाद में एक रेलवे स्टेशन है। कहते हैं कि एक बार छापामार दस्ते ने बाबा को टिकट न होने के कारण इस स्थान पर ट्रेन से उतार दिया। लेकिन यह क्या, बाबा के उतरने के बाद ट्रेन लाख प्रयत्नों के बावजूद यहां से चल नहीं सकी। बाद में रेलकर्मियों ने बाबा की महिमा जान उन्हें आदर सहित वापस ट्रेन में बैठाया, जिसके बाद बाबा के `चल´ कहने पर ही ट्रेन चल पड़ी। तभी से इस स्थान पर रेलवे का छोटा स्टेशन बना और इस स्टेशन का नाम लक्ष्मणदास पुरी पड़ा। कहते हैं कि फर्रुखाबाद जिले के नीब करोरी गाँव में ही वह सर्वप्रथम साधू के रूप में दिखाई दिए थे, इसलिए उन्हें नीब करोरी बाबा कहा गया, हालांकि उनके नाम का अपभ्रंश "नीम करोली" नाम भी प्रसिद्द हुआ। बाबा ने ऐसे कई चमत्कार किये, मसलन उनके कैंची धाम में आज भी मौजूद एक उत्तीस के हरे-भरे पेड़ के लिए कहा जाता है कि वह बाबा के जीवन काल में ही सूख गया था, और बाबा के भक्त उस सूखे ठूँठ को  काटना चाहते थे, बाबा ने कहा "इस पर जल चढ़ाव, आरती करा, यह हरा-भरा हो जाएगा", सचमुच ऐसा ही हुआ. एक अन्य किंवदंती के अनुसार नैनीताल के निकट अंजनी मंदिर में बहुत पहले कोई सिद्ध पुरुष आये थे, और उन्होंने कहा था कि एक दिन यहाँ अंजनी का पुत्र आएगा,  1944-45 में बाबा के चरण-पद यहाँ पड़े तो लागों ने सिद्ध पुरुष के बचनों को सत्य माना। इस स्थान को तभी से हनुमानगढ़ी कहा गया, बाद में बाबा ने ही यहाँ अपना पहला आश्रम बनाया,  इसके बाद निकटवर्ती भूमियाधार सहित वृन्दावन, लखनऊ, कानपुर, दिल्ली, बद्रीनाथ, हनुमानचट्टी आदि स्थानों में कुल 22 आश्रम स्थापित किये। कहते हैं कि बाबा जी 9 सितम्बर 1973 को कैंची से आगरा के लिए लौटे थे, जिसके दो दिन बाद ही समय बाद इसी वर्ष अनन्त चतुर्दशी के दिन 11 सितम्बर को वृन्दावन में उन्होंने महाप्रयाण किया ।
सन्त परंपरा की अनूठी मिसाल है कैंची धाम
यूं कैंची के निकटवर्ती मुक्तेश्वर क्षेत्र का पाण्डवकालीन इतिहास रहा है, बाद के दौर में यह स्थान सप्त ऋषियों तिगड़ी बाबा, नान्तिन बाबा, लाहिड़ी बाबा, पायलट बाबा, हैड़ाखान बाबा, सोमवारी गिरि बाबा व नीब करौरी बाबा आदि की तपस्थली रहा। कहते हैं कि कैंचीधाम में पहले सोमवारी बाबा साधना में लीन रहे। कहते हैं कि सोमबारी बाबा के भक्त नींब करौरी बाबा रानीखेत जाते समय यहां ठहरे थी, इसी दौरान प्रेरणा होने पर उन्होंने यहां रात्रि विश्राम की इच्छा जताई, और 1962 में यहां आश्रम की स्थापना की गई। गत दिनों यह मन्दिर अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव प्रचार के दिनों में बराक ओबामा का हनुमान प्रेम उजागर होने के बाद बाबा के भक्तों द्वारा ओबामा की विजय के लिए यहाँ किऐ गऐ अनुष्ठान के कारण भी चर्चा में आया था। 
बाबा ने फिर किया चमत्कार: जूलिया रॉबर्ट्स को हिंदू बना दिया 
Julia Roberts, with Swami Dharmdev at Hari Mandir Ashram in Pataudi on the outskirts of New Delhi, India,where she is shooting her upcoming film "Eat, Pray, Love"जी हाँ, बाबा नीब करौरी महाराज ने फिर कमोबेश एक चमत्कार कर डाला है । गत दिवस हिन्दू धर्म अपनाने के लिए चर्चा में आयी हालीवुड की हॉट अभिनेत्री, हॉलीवुड की सुपर स्‍टार, प्रोड्यूसर और फैशन मॉडल  जूलिया राबर्ट्स ने खुद एक पत्रिका को दिए दिए ताजा इंटरव्‍यू में बताया है कि वह आजकल हिंदू धर्म का पालन कर रही हैं। जूलिया ने इस इंटरव्यू में कहा, ‘नीम करोली बाबा की एक तस्‍वीर देख कर मैं उस शख्‍स के प्रति एकदम मोहित हो गई। मैं कह नहीं सकती कि उनकी कौन सी बात मुझे इतनी अच्‍छी लगी कि मैं उनके सम्‍मोहन में फंस गई।’ 42 साल की जूलिया ने कहा कि हिंदू धर्म में कुछ ऐसा तो है जो मैं इसकी मुरीद हो गई और आजकल इसका पालन भी कर रही हूं। कैथलिक मां और बैप्टिस्‍ट पिता की संतान जूलिया ने दोहराया कि वह पूरे परिवार के साथ मंदिर जाती हैं, मंत्र पढ़ती हैं और प्रार्थना करती हैं। मालूम हो कि बाबा के भक्तो में देश के बड़े राजनयिकों प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, हिमांचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल स्व. राजा भद्री, केन्द्रीय मंत्री जितिन प्रसाद, उत्तराखंड सरकार में सचिव मंजुल कुमार जोशी  से लेकर गुरु रामदास के नाम से प्रसिद्ध हुए हारवर्ड विश्व विद्यालय बोस्टन के डा. रिचार्ड एलपर्ट  (‘बी हियर नाउ’ के लेखक) सहित योगी भगवान दास, संगीतकार जय उत्‍तल, कृष्‍णा दास, लामा सूर्य दास, मानवाधिकारवादी डॉ. लैरी ब्रिलिएंट आदि भी नीब करोली बाबा के परम भक्‍तों में शुमार हैं। एप्‍पल कंपनी के सीईओ स्‍टीव जॉब्‍स भी उनके मुरीद हैं। हालांकि एक ऐसा वृत्तांत भी मिलता है जब बाबा ने एक मृत बालक को बहुत प्रार्थना के बाद भी जिलाने से इनकार कर दिया था। बाबा का तर्क था कि ब्रह्मा की बनाई सृष्टि के बनाए नियमों में बदलाव का हक़ किसी को नहीं है।
पढ़िए स्टीव जोब्स की आत्मकथा के ansh: http://www.jankipul.com/2011/11/blog-post_14.html
(रविवार 22 अगस्त 2010 को राष्ट्रीय सहारा के "सन्डे उमंग" परिशिष्ट में देश के सभी संस्करणों में प्रकाशित आलेख: )

लोक देवताओं की विधान सभा है ब्यानधूरा मंदिर
देवभूमि में स्थापित लोक देवताओं के मंदिर अपने में अद्भुत हैं और तमाम विशेषताएं समेटे हुए हैं। जनपद नैनीताल व चम्पावत की सीमा पर स्थित ब्यानधूरा का ऐड़ी देवता मंदिर भी इन्हीं मंदिरों में शामिल हैं। सड़क से 35 किमी दूर इस मंदिर में लोहे के धनुष-बाण व अन्य अस्त्र-शस्त्र चढ़ाए जाते हैं। ऐड़ी देवता के इस मंदिर को देवताओं की विधानसभा भी माना जाता है, जबकि ऐड़ी को महाभारत के अर्जुन का स्वरूप भी माना जाता है। ब्यानधूरा में मंदिर कितना पुराना है इसकी पुष्टि नहीं हो पाई। लेकिन मंदिर परिसर में धनुषबाणों के अकूत ढेर से अनुमान लगाया जा सकता है कि यह पौराणिक मंदिर है। बताया जाता है कि ऐड़ी नाम के राजा ने ब्यानधूरा में तपस्या कर देवत्व प्राप्त किया। कालान्तर में यह लोक देवताओं के राजा के रूप में पूजे जाने लगे। ऐड़ी धनुष युद्ध विद्या में निपुण थे। उन्हें महाभारत के अर्जुन के अवतार के रूप में माना जाने लगा। इसके साथ ही ब्यानधूरा को देवताओं की विधानसभा माना जाता है। यहां ऐड़ी देवता को लोहे के धनुष-बाण चढ़ाए जाते हैं और अन्य देवताओं को अस्त्र-शस्त्र चढ़ाने की परंपरा भी है। बताया जाता है कि यहां के अस्त्रों के ढेर में सौ मन भारी धनुष भी है। मंदिर के ठीक आगे शुरू गोरखनाथ की धुनी थी है जहां लगातार धुनी चलती है। मंदिर प्रांगण में एक अन्य धुनी भी है जिसमें जागर आयोजित होती है। मंदिर के पुजारी दयाकिशन जोशी के मुताबिक यहां तराई से लेकर पूरे कुमाऊं क्षेत्र के लोग पूजा करने आते हैं। कई लोग मंदिर को गाय दान करते हैं। मकर सक्रांति के अलावा चैत्र नवरात्र, माद्यी पूर्णमासी को यहां भव्य मेला लगता है। मंदिर को शिव के 108 ज्योर्तिलिंगों में से एक की मान्यता प्राप्त है। उन्होंने बताया कि मान्यता होने के बाबत यहां आज तक यातायात की कोई व्यवस्था नहीं हो पाई है।