आज भी बच्चों को प्रेरित करने के लिए समर्पित है ओलंपियन राजेंद्र रावत का जीवन
वह प्रतिष्ठित अजलान शाह हॉकी टूर्नामेंट के पहले संस्करण का मलेशिया में हो रहा फाइनल मुकाबला था। जर्मनी के फुल बैक खिलाड़ी ने पेनाल्टी कार्नर से गेंद भारतीय गोल पोस्ट की ओर पूरे वेग से दागी। गोली की गति से गेंद भारतीय गोलकीपर के घुटने की हड्डी पर टकराई और मैदान से बाहर निकल गई। गोलकीपर के दर्द की कोई सीमा न थी, लेकिन वह दर्द के बजाय खुशी से उछल रहा था, कारण भारत वह फाइनल और प्रतियोगिता का स्वर्ण पदक जीत चुका था।
पहली अजलान शाह हॉकी प्रतियोगिता में भारत की जीत के वह हीरो गोलकीपर राजेंद्र सिंह रावत उत्तराखंड की धरती के हैं। देश के राष्ट्रीय खेल के प्रति जोश और जुनून का जज्बा उन्हें आगे चलकर 1988 के सियोल ओलंपिक तक ले गया। कभी नैनीताल के मल्लीताल जय लाल साह बाजार में पट्ठों के पैड और नगर के रेतीले खेल मैदान फ्लैट्स में नंगे पांव हॉकी खेलने वाला यह गुदड़ी का लाल नगर के सीआरएसटी इंटर कॉलेज में पढ़ने के दौरान जिले की टीम में क्या चुना गया, उसके बाद उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज भी उनमें खेल के प्रति वही जोश व जज्बा उसी फ्लैट्स मैदान पर 40-50 बच्चों को अपनी नैनीताल हॉकी अकादमी में हॉकी सिखाते हुए देखा जा सकता है। वह अभी हाल में यहां ऐतिहासिक 1880 में स्थापित नैनीताल जिमखाना एवं जिला क्रीड़ा संघ के प्रतिष्ठित अवैतनिक महासचिव के पद पर भी चुने गए हैं। पुराने दिनों को याद कर रावत बताते हैं कि उनके पिता स्वर्गीय देव सिंह रावत नगर के जय लाल साह बाजार में मिठाई की छोटी सी दुकान चलाते थे। यहीं से अभावों के बीच वह पहले सीआरएसटी और फिर जिले की टीम में चुने गए। इसके बाद उन्हें पहले स्पोर्ट्स हॉस्टल मेरठ और फिर लखनऊ में प्रशिक्षण का मौका मिल गया। इंग्लैंड के उस दौर के सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर एलन को बिना देखे अपना गुरु मानकर वह आगे बढ़े। दिल में था, नाम भले कैप्टन का हो लेकिन गोलकीपर की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए गोल बचाएंगे और देश को मैच जिताएंगे। 1982 में वह भारतीय जूनियर हॉकी टीम का हिस्सा बन गए और क्वालालंपुर में जूनियर वर्ल्ड कप खेले। 85 के जूनियर वर्ल्ड कप में उन्हें टीम का उप कप्तान बनाया गया। 1985 में देश की सीनियर टीम में आकर हांगकांग में 10वीं नेशन हॉकी टूर्नामेंट में खेले। इसी वर्ष दुबई में हुए चार देशों के टूर्नामेंट में वह प्रतियोगिता के सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर चुने गए। भारत ने यह प्रतियोगिता अपने नाम की। 1986 में लंदन में हुए छठे विश्व कप में वह प्रतियोगिता के साथ दुनिया के सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर चुने गए। इस प्रतियोगिता के फाइनल मुकाबले में उनके द्वारा इंग्लैंड के विरुद्ध रोके गए दो पेनल्टी स्ट्रोकों को आज भी याद किया जाता है। रावत बताते हैं कि हॉकी के जादूगर ध्यान चंद के दौर में पूरी दुनिया में घास के मैदानों में ही हॉकी खेली जाती थी, तब इस खेल में भारत का डंका बजता था। लेकिन 1976 के बाद विदेशों में आए एस्ट्रो टर्फ के मैदानों और अन्य सुविधाओं की वजह से भारत की हॉकी पिछड़ती चली गई। वह बताते हैं, उस दौर में देश में पटियाला में इकलौता केवल 25 गज का एस्ट्रो टर्फ का मैदान हुआ करता था, जबकि हालैंड जैसे छोटे से देश में ऐसे 120 बड़े मैदान थे। भारतीय खिलाड़ियों के पास हेलमेट, पैड, गार्ड आदि नहीं हुआ करते थे। भारत और पाकिस्तान में ही हॉकी स्टिक बनती थीं, इसलिए भारतीय खिलाड़ी अपनी हॉकी देकर विदेशी खिलाड़ियों से हेलमेट खरीदकर मैच खेलते थे। भारतीय खिलाड़ियों के पैड रुई के बने होते थे, जो एस्ट्रो टर्फ के पानी युक्त मैदानों में भीग जाते थे और उन्हें पंखों से सुखाना पड़ता था। फाइबर के पैडों से खेलने वाले विदेशी खिलाड़ियों के साथ यह समस्या नहीं थी।
प्रस्तुति: नवीन जोशी