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Monday, May 26, 2014

अब मोदी की बारी है......

बंबई प्रांत के मेहसाणा जिले के बड़नगर कसबे में एक बेहद साधारण परिवार में जन्मे नरेंद्र भाई मोदी ने आखिर देश के 15वें और पूर्ण बहुमत के साथ पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण कर ली है।  उनके बारे में कहा जाता है कि वह किसी जमाने में अपने बड़े भाई के साथ चाय की दुकान चलाते थे, और अब अपने प्रांत गुजरात में जीत की हैट-ट्रिक जमाने और रिकार्ड चौथी बार कार्यभार संभालने के बाद उन्हें भाजपा की ओर से पार्टी के भीष्म पितामह कहे जाने वाले लाल कृष्ण आडवाणी पर तरजीह देकर प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया गया, और अब पूरे देश की जनता ने चुनाव पूर्व व बाद के अनेकों सर्वेक्षणों को झुठलाते हुए प्रचंड बहुमत के साथ अविश्वसनीय जीत दिला कर उन्हें स्वीकार करते हुए अपना काम कर दिया है, और अब उमींदों को पूरा करने की मोदी की बारी है। मोदी ने अपनी जीत के बाद पहले ट्वीट में 'INDIA HAS WON' कहकर और संसद को दंडवत प्रणाम कर अपना सफर शुरू करते हुए  इसकी उम्मींद भी जगा दी है। ऐसे में उनकी ताजपोशी  के साथ उनका भविष्य में देश को 'विश्व का अग्रणी देश बनाने का दावा' भी विश्वसनीय लगने लगा है।

पूर्व आलेख :
राजनीति में वही बेहतर राजनीतिज्ञ कहलाता है जो भविष्यदृष्टा होता है, यानी मौजूदा वक्त की नब्ज से ही भविष्य की इबारत लिख जाता है। भाजपा के सबसे  वरिष्ठ नेता आडवाणी के संदर्भ में बात करें तो ‘अटल युग’ में ‘मोदी’ नजर आने वाले आडवाणी देश के उप प्रधानमंत्री पद पर ही ठिठक जाने के बाद ‘अटल’ बनने की कोशिश में जिन्ना की मजार पर चादर चढ़ाने जा पहुंचे थे। इसका लाभ जितना हो सकता था वह यही है कि वह कथित धर्म निरपेक्ष दलों द्वारा प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी से बेहतर दावेदार कहे जाने के भुलावे में थे। उनके साथ आम यथास्थितिवादी और कांग्रेस-भाजपा को एक-दूसरे की ए या बी टीम कहने वालों में यह विश्वास भी था कि देश की व्यवस्था जैसी है, थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ यथावत चलती रहेगी।

आडवाणी के इसी नफे-नुकसान के बीच से मोदी पैदा हुए। उनके आने से इस व्यवस्था से विश्वास खो चुकी जनता में नया विश्वास पैदा हुआ कि वही हैं जो मौजूदा (कांग्रेस-भाजपा की) व्यवस्था को तोड़कर और यहां तक कि भाजपा से भी बाहर निकलकर, और कहीं, राष्ट्रपिता गांधी के देश की आजादी के बाद कांग्रेस को भंग करने के साथ ही दिए गए वक्तव्य ‘इस देश को कोई उदारवादी तानाशाह ही चला सकता है’ की परिकल्पना को भी साकार करते नजर आते हैं। इसी कारण प्रधानमंत्री पद पर देशवासियों ने अन्य उम्मींदवारों अरविन्द केजरीवाल और राहुल गांधी को कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी।

राष्ट्रीय राजनीति में अपना कमोबेश पहला कदम बढ़ाते हुए मोदी ने दिल्ली के श्रीराम कॉलेज ऑफ कामर्स में छात्रों के समक्ष विकास की राजनीति को देश के भविष्य की राजनीति करार देते हुए अपने ‘वाइब्रेंट गुजरात’ का मॉडल पेश कर अपने 'मिशन 272+' की शुरुवात की। वह संभवतया पहले नेता होंगे, जो युवकों से अपनी पार्टी की विचारधारा से जुड़ने का आह्वान करने के बजाय उनसे वोट बैंक व जाति तथा धर्मगत राजनीति छोड़ने की बात कहते हैं, और साथ ही उन्हें आर्थिक गतिशीलता का विकल्प भी दिखाते हैं। मजेदार बात यह भी है कि उनका विकास का मॉडल कमोबेस देश की मौजूदा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का वही मॉडल है, जिसकी खूब आलोचना हो रही है, लेकिन वह विकास की इस दौड़ में सबको शामिल करने का संभव तरीका सुझाते हुए विश्वास जगाते हैं कि कैसे मुट्ठी भर लोगों की जगह सबको नीचे तक लाभ दिया जा सकता है। ऐसा वह हवा-हवाई भी नहीं कह रहे, इसके लिए वह अपने गुजरात और भारत देश के विकास का तुलनात्मक विवरण भी पेश करते हैं। वह स्वयं सांप्रदायिक नेता कहलाए जाने के बावजूद अपने राज्य में हर जाति-वर्ग का वोट हासिल कर ऐसा साबित कर चुके हैं। उन्होंने अपने राज्य में चलने वाली ‘खाम’ यानी क्षत्रिय, आदिवासी और मुसलमानों के गठबंधन की परंपरागत राजनीति के चक्रव्यूह को तोड़ा है। यह सब जिक्र करते हुए वह सफल प्रशासक के रूप में अपनी विकास, प्रबंधन व राजनीति की साझा समझ से प्रभावित करते हुए छात्रों-युवाओं की खूब तालियां बटोरते हैं।

क्या फर्क है गुजरात और भारत में। गुजरात में किसी का तुष्टीकरण नहीं होता, इसलिए वहां ‘सांप्रदायिक’ सरकार है। देश में एक धर्म विशेष के लोगों की लगातार उपेक्षा होती है। वहां सत्तारूढ़ पार्टी अपना हर कदम मात्र एक धर्म विशेष के लोगों के तुष्टीकरण के लिए उठाती है, बावजूद वह ‘धर्मनिरपेक्ष’ है। गुजरात में गोधरा कांड हुआ, इसलिए वहां का नेता अछूत है, हम उसे स्वीकार नहीं कर सकते। लेकिन देश के नेता की नीतियों से कृषि प्रधान देश के सैकड़ों किसानों ने आत्महत्या कर ली, हजारों युवा बेरोजगारी के कारण मौत को गले लगा रहे हैं। बेटियों-बहनों से बलात्कार रुक नहीं पा रहे हैं। महंगाई दो जून की रोटी के लिए मोहताज कर रही है। भ्रष्टाचार जीने नहीं दे रहा। कैग भ्रष्टाचार के आंकड़े पेश करते थक गया है, इतनी बड़ी संख्याएं हैं कि गिनती की सीमा-नील, पद्म, शंख तक पहुंच गई हैं। और अब तो केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन भी चालू वित्त वर्ष में देश की आर्थिक वृद्धि दर के विनिर्माण, कृषि एवं सेवा क्षेत्र के खराब प्रदर्शन के चलते एक दशक में सर्वाधिक घटकर पांच प्रतिशत पर आने का अनुमान लगा रहा है। बावजूद यह विकास की पक्षधर सरकार है, जिसके अगुवा देश के सर्वश्रेष्ठ अर्थशास्त्री हैं। वह न होते तो पता नहीं कैसे हालात होते। शायद इसीलिए आगे हम उनके राजकुमार में ही अपना अगला प्रधानमंत्री देख रहे हैं। हमें सड़क से, गांव से निकला व्यक्ति अपना नेता नहीं लग सकता। शायद हमारी मानसिकता ही ऐसी हो गई है, या कि ऐसी बना दी गई है।

विरोध से भी मजबूत होते जाने की कला 

उल्लेखनीय है की संसदीय चुनावों से पहले देश में विरोधियों के अनेक स्तरों पर यह बहस चल रही थी कि आखिर मोदी ही क्यों बेहतर हैं। लेकिन विपक्ष को वह कत्तई मंजूर नहीं थे। हर विपक्षी पार्टी उन्हें रोकने की जुगत में लगी थी, और दावा कर रही थी की वही मोदी को रोक सकती है। उनका मानना है मोदी देश के प्रधानमंत्री नहीं हो सकते। कतई नहीं हो सकते। क्यों ? इस प्रश्न का उत्तर उनके धुर विरोधियों के पास ‘गोधरा’ के अलावा कोई दूसरा नहीं है। विपक्षी कांग्रेस सहित उनके एनडीए गठबंधन की अन्य पार्टियों के साथ ही मीडिया को भी वह खास पसंद नहीं आते। जब भी उनका नाम उनके कार्यो के साथ आगे आता है, या कि भाजपा उन्हें अपना प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताती है, तो विपक्षी दलों के साथ ही दिल्ली में बैठी मीडिया को गुजरात का ‘2002 का गोधरा’ याद आ जाता है, लेकिन कभी दिल्ली में बैठकर भी ‘1984 की दिल्ली’ याद नहीं आती, हालिया दिनों का मुजफ्फरनगर भी भुलाने की कोशिश की जाती है। दिल्ली के श्रीराम कॉलेज के गेट के बाहर भी दिल्ली के छात्र गुटों को गुजरात के दंगों के कथित आरोपी का आना गंवारा नहीं, लेकिन उन्हें दिल्ली के दंगों की याद नहीं है। फिर भी वह कहते हैं, उनका विरोध प्रायोजित नहीं है।
हालिया गुजरात विधान सभा चुनावों के दौरान विपक्षी कांग्रेस पार्टी को गुजरात में कुपोषित बच्चे व समस्याग्रस्त किसान फोटो खिंचवाने के लिए भी नहीं मिलते। लिहाजा मुंबई के कुपोषण से ग्रस्त बच्चों और राजस्थान के किसानों की फोटो मीडिया में छपवाई जाती हैं, वह विपक्षी पार्टी के प्रायोजित विज्ञापन हैं, ऐसा छापने से हमें कोई रोक नहीं सकता। पर हम जो लिखते हैं, दिखाते हैं, क्या वह भी प्रायोजित है। नहीं, तो हम एकतरफा क्यों दिखाते हैं। क्यों विपक्ष की भाषा ही बोलते हुए हमारी सुई बार-बार ‘गोधरा’ में अटक जाती है। हम गुजरात चुनाव के दौरान ही गुजरात के गांव-गांव में घूमते हैं। वहां के गांव देश के किसी बड़े शहर से भी अधिक व्यवस्थित और साफ-सुथरे हैं। हम खुद टीवी पर अपने गांवों-शहरों के भी ऐसा ही होने की कल्पना करते हैं। गुजरात में क्या हमें आज कहीं ‘गोधरा’ नजर आता है, या कि गुजरात तुष्टीकरण की राजनीति के इतर सभी गुजरातियों को एक इकाई के रूप में साथ लेकर प्रगति कर रहा है। गुजरात ने जो प्रगति की है, वह किसी दूसरे देश से आए लोगों ने आकर या किसी दूसरे देश के कानूनों, व्यवस्थाओं के जरिए नहीं की है, उन्हें एक अच्छा मार्गदर्शक नेता मिला है, जिसकी प्रेरणा से आज वह ऐसे गुजरात बने हैं, जैसा देश बन जाए तो फिर ‘विश्वगुरु’ क्या है, देश का गौरवशाली अतीत क्या है, हम निस्सदेह विकास की नई इबारत लिख सकते हैं।
तो यह डर किसका है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम मोदी के जादू से डरे हुए हैं, वह एक बार सत्तासीन हो जाते हैं तो जीत की हैट-ट्रिक जमा देते हैं, लोगों के दिलों पर छा जाते हैं। कहीं दिल्ली पर भी सत्तासीन हो गए तो फिर उन्हें उतारना मुश्किल हो जाएगा। हमारी बारी ही नहीं आएगी। यह डर उस विकास का तो नहीं है, जो मोदी ने गुजरात में कर डाला है, कि यदि यही उन्होंने देश में कर दिया तो बाकी दलों की गुजरात की तरह ही दुकानें बंद हो जाएंगी। या यह डर उस ‘सांप्रदायिकता’ का है, जिससे गुजरात एक इकाई बन गया है। या उस स्वराज और सुराज का तो नहीं है, जिससे गुजरात के गांव चमन बन गए हैं। उस कर्तव्यशीलता का तो नहीं है, जिससे गुजरात के किसान रेगिस्तान में भी फसलें लहलहा रहे हैं, गुजरात के युवा फैक्टरियों में विकास की नई इबारत लिख रहे हैं। गुजरात बिजली, पानी से नहा रहा है। 
या यह डर मोदी के उस साहस से है, जिसके बल पर मोदी चुनाव परिणाम आने के तत्काल बाद अपनी जीत के अंतर को कम करने वाले अपने धुर विरोधी हो चुके राजनीतिक गुरु केशुभाई से आशीर्वाद लेने उनके घर जाते हैं। प्रधानमंत्री पद पर नाम  घोषित किये  जाने के बाद सबसे पहले नाराजगी जताने वाले लाल कृष्ण आडवाणी के घर की ही राह पकड़ते हैं। उन्हें अपना सबसे प्रबल विरोध कर रहे आडवाणी के सार्वजनिक मंच पर पांव छूने से भी कोई हिचक नहीं है। उनके पास ‘ऐसा या वैसा होना चाहिए’ कहते हुए शब्दों की लफ्फाजी से भाषण निपटाने की मजबूरी की बजाए अपने किए कार्य बताने के लिए हैं। वह अपने किये कार्यों पर घंटों बोल सकते हैं, उनके समक्ष अपने ‘गौरवमयी इतिहास’ शब्द के पीछे अपनी वर्तमान की विफलताऐं छुपाने की मजबूरी कभी नहीं होती। वह पानी से आधा भरे और आधे खाली गिलास को आधा पानी और आधा हवा से भरे होने की दृष्टि रखते हैं, और देश की जनता और खासकर युवाओं को दिखाते हैं। ऐसी दृष्टि उन्होंने ‘सत्ता के पालने’ में झूलते हुए नहीं अपने बालों को अनुभव से पकाते हुए प्राप्त की है। बावजूद उनमें युवाओं से कहीं ओजस्वी जोश है, उन्हें देश वासियों को भविष्य के सपने दिखाने के लिए किसी दूसरी दुनिया के उदाहरणों की जरूरत नहीं पड़ती। वह पड़ोसी देश पाकिस्तान सहित पूरे विश्व को ललकारने की क्षमता रखते हैं। वह अपने घर का उदाहरण पेश करने वाले अपनी ही गुजरात की धरती के महात्मा गांधी व सरदार पटेल जैसे देश के गिने-चुने नेताओं में शुमार हैं, जो केवल सपने नहीं दिखाते, उन्हें पूरा करने का हुनर भी सिखाते हैं। इसके लिए उन्हें कहीं बाहर से कोई शक्ति या जादू का डंडा लाने की जरूरत भी नहीं होती, वरन वह देश के युवाओं व आमजन में मौजूद ऐसी शक्ति को जगाने का ‘जामवंत’ सा हुनर रखते हैं, और स्वयं अपनी शक्तियों को जगाकर ‘हनुमान’ भी हो जाते हैं। उन्हें भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता, नाकारापन के साथ भूख, महंगाई, बलात्कार, लूट, चोरी, डकैती जैसी अनेकों समस्याओं से घिरे देश के एक छोटे से प्रांत में इन्हीं कमजोरियों से ग्रस्त जनता, राजनेताओं और नौकरशाहों से ही काम निकालते हुऐ विकास का रास्ता निकालना आता है, जिसके बल पर वह गुजरात के रेगिस्तान में भी दुनिया के लिए फसलें लहलहा देते हैं। वह मौजूदा शक्तियों, कानूनों से ही आगे बढ़ने का माद्दा रखते हैं, और मौजूदा कानूनों से ही देश को आगे बढ़ाने का विश्वास जगाते हैं। वह नजरिया बदलने का हुनर रखते हैं, नजरिया बदलना सिखाते हैं, विकास से जुड़ी राजनीति के हिमायती हैं। एक कर्मयोगी की भांति अपने प्रदेश को आगे बढ़ा रहे हैं, और अनेक सर्वेक्षणों में देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में सर्वाधिक पसंदीदा राजनेता के रूप में उभर रहे हैं। 

लिहाजा, उनका विरोध होना स्वाभाविक ही है। सरहद के पार भी देश के अगले प्रधानमंत्री के रूप में नाम आने पर सर्वाधिक चिंता उन्हीं के नाम पर होनी तय है, और ऐसा ही देश के भीतर भी हो सकता है। लेकिन जनता दल-यूनाइटेड सरीखे दलों को समझना होगा कि अपना कद छोटा लगने की आशंका में आप दूसरों के बड़े होते जाने को अस्वीकार नहीं कर सकते। वरन राजनीतिक तौर पर भी यही लाभप्रद होगा कि आप बड़े पेड़ के नीचे शरण ले लें, इससे उस बड़े पेड़ की सेहत को तो खास फर्क नहीं पड़ेगा, अलबत्ता आप जरूर आंधी-पानी जैसी मुसीबतों से सुरक्षित हो जाएंगे। आप जोश के साथ बहती नदी पर चाहे जितने बांध बनाकर उसे रोक लें, लेकिन उसे अपना हुनर मालूम है, वह बिजली बन जाएगा, रोके जाने के बाद भी अपना रास्ता निकालते हुए सूखी धरती को भी हरीतिमा देता आगे बढ़ता जाएगा। नरेंद्र भाई मोदी भी ऐसी ही उम्मीद जगाते हैं। उनमें पहाड़ी नदी जैसा ही जोश नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। 

मोदी के मंत्र:

  • तरक्की के लिए कार्यकुशलता, तेजी व व्यापक नजरिया जरूरी।
  • उत्पाद की गुणवत्ता और पैकेजिंग जरूरी। हमें उत्पादन बड़ाना है और ‘मेड इन इंडिया’ टैग को हमें क्वालिटी का पर्याय बनाना है।
  • युवा जाति-धर्मगत व वोट बैंक की राजनीति से बाहर निकलें। तरक्की का रास्ता पकड़ें। 
  • 21वीं सदी भारत की। भारत अब सपेरों का नहीं ‘माउस’ से दुनिया जीतने वाले युवाओं का देश है। 
  • विकास से ही देश में आएगा विराट परिवर्तन, विकास ही है सभी समस्याओं का समाधान।
  • 60 साल पहले स्वराज पाया था, अब सुराज (गुड गर्वनेंस) की जरूरत।
  • आशावादी बनें, न कहें आधा गिलास भरा व आधा खाली है, कहें आधा गिलास पानी और आधा हवा से भरा है।

मोदी का गुजरात मॉडलः

  • गुजरात ने पशुओं की 120 बीमारियां खत्म की, जिससे दूध उत्पादन 80 फीसदी बढ़ा। गुजरात का दूध दिल्ली से लेकर सिंगापुर तक जाता है। 
  • गुजरात में एक माह का कृषि महोत्सव होता है। यहां की भिंडी यूरोप और टमाटर अफगानिस्तान के बाजार में भी छाये रहते हैं। 
  • गुजरात में 24 घंटे बिजली आती है। नैनो देश भर में घूमकर गुजरात पहुंच गई। गुजरात में बने कोच ही दिल्ली की मैट्रो में जुड़े हैं। 
  • गुजराती सबसे बढ़िया पर्यटक हैं। वह पांच सितारा होटलों से लेकर हर जगह मिलते है।
  • गुजरात दुनिया का पहला राज्य है जहां फोरेंसिक साइंस यूनिवर्सिटी है। फोरेंसिक साइंस आज अपराध नियंत्रण की पहली जरूरत है। 
  • गुजरात में देश की पहली सशस्त्र बलों की यूनिवर्सिटी है। गुजरात के पास तकनीक की जानकार सबसे युवा पुलिस-शक्ति है।
  • पूरा देश गुजरात में बना नमक इस्तेमाल करता है।

भारत के 15वें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का देश के नागरिकों के लिए अपनी आधिकारिक वेबसाइट http://www.pmindia.nic.in/ पर सबसे पहला संदेश...

भारत और पूरे विश्व के प्रिय नागरिको, नमस्ते

भारत के प्रधानमंत्री की आधिकारिक वेबसाइट पर आपका स्वागत है।

16 मई 2014 को भारत के लोगों ने जनादेश दिया। उन्होंने विकास, अच्छे प्रशासन और स्थिरता के लिए जनादेश दिया। अब, जबकि हम भारत की विकास यात्रा को एक नई ऊंचाई पर ले जाने में जुट जाने वाले हैं, हम आपका साथ, आशीर्वाद और सक्रिय भागीदारी चाहते हैं। हम सब मिलकर भारत के शानदार भविष्य की रूपरेखा लिखेंगे। आइए, मिलकर एक मजबूत, विकसित, सभी को सम्मिलित भारत का सपना देखें। एक ऐसे भारत का सपना, जो पूरी दुनिया के शांति और विकास के सपने में सक्रिय भागीदारी निभाएगा।
मैं इस वेबसाइट को भारत हमारे बीच संवाद एक महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में देखता हूं। पूरी दुनिया के लोगों से संवाद के लिए तकनीक और सोशल मीडिया की ताकत में में मेरा दृढ़ विश्वास है। मैं उम्मीद करता हूं कि यह माध्यम सुनने, सीखने और एक-दूसरे के विचार बांटने के मौके पैदा करेगा।

इस वेबसाइट के जरिए आपको मेरे भाषणों, कार्यक्रमों, विदेश यात्राओं और बहुत सी अन्य बातों की ताजा जानकारी मिलती रहेगी। मैं आपको यह भी बताता रहूंगा कि भारत सरकार किस तरह की पहलें कर रही है।

आपका
नरेंद्र मोदी

Wednesday, June 26, 2013

देवभूमि को आपदा से बचा सकता है "नैनीताल मॉडल"

वर्ष 1880 के भूस्खलन ने बदल दिया था सरोवरनगरी का नक्शा, तभी बने नालों की वजह से बचा है कमजोर भूगर्भीय संरचना का यह शहर 
इसी तरह से अन्यत्र भी हों प्रबंध तो बच सकते हैं दैवीय आपदाओं से 
पहाड़ का परंपरागत मॉडल भी उपयोगी 
नवीन जोशी, नैनीताल। कहते हैं कि आपदा और कष्ट मनुष्य की परीक्षा लेते हैं और समझदार मनुष्य उनसे सबक लेकर भावी और बड़े कष्टों से स्वयं को बचाने की तैयारी कर लेते हैं। ऐसी ही एक बड़ी आपदा नैनीताल में 18 सितंबर 1880 को आई थी, जिसने तब केवल ढाई हजार की जनसंख्या वाले इस शहर के 151 लोगों और नगर के प्राचीन नयना देवी मंदिर को लीलने के साथ नगर का नक्शा ही बदल दिया था, लेकिन उस समय उठाए गए कदमों का ही असर है कि यह बेहद कमजोर भौगोलिक संरचना का नगर आज तक सुरक्षित है। इसी तरह पहाड़ के ऊंचाई के अन्य गांव भी बारिश की आपदा से सुरक्षित रहते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि नैनीताल और पहाड़ के परंपरागत मॉडल केदारघाटी व चारधाम यात्रा क्षेत्र से भी भविष्य की आपदाओं की आशंका को कम कर सकते हैं। 
1841 में स्थापित नैनीताल में वर्ष 1867 में बड़ा भूस्खलन हुआ था, और भी कई भूस्खलन आते रहते थे, इसी कारण यहाँ राजभवन को कई जगह स्थानांतरित करना पढ़ा था। लेकिन 18 सितम्बर 1880 की तिथि नगर के लिए कभी न भुलाने वाली तिथि है। तब 16 से 18 सितम्बर तक 40 घंटों में 20 से 25 इंच तक बारिश हुई थी। इसके कारण आई आपदा को लिखते हुए अंग्रेज लेखक एटकिंसन भी सिहर उठे थे। लेकिन उसी आपदा के बाद लिये गये सबक से सरोवर नगरी आज तक बची है और तब से नगर में कोई बड़ा भूस्खलन भी नहीं हुआ है। उस दुर्घटना से सबक लेते हुए तत्कालीन अंग्रेज नियंताओं ने पहले चरण में नगर के सबसे खतरनाक शेर-का-डंडा, चीना (वर्तमान नैना), अयारपाटा, लेक बेसिन व बड़ा नाला (बलिया नाला) में नालों का निर्माण कराया। बाद में 1890 में नगर पालिका ने रुपये से अन्य नाले बनवाए। 23 सितम्बर 1898 को इंजीनियर वाइल्ड ब्लड्स द्वारा बनाए नक्शों के आधार पर 35 से अधिक नाले बनाए गए। वर्ष 1901 तक कैचपिट युक्त 50 नालों (लम्बाई 77,292 फीट) और 100 शाखाओं का निर्माण (लंबाई 1,06,499 फीट) कर लिया गया। बारिश में कैच पिटों में भरा मलबा हटा लिया जाता था। अंग्रेजों ने ही नगर के आधार बलिया नाले में भी सुरक्षा कार्य करवाए जो आज भी बिना एक इंच हिले नगर को थामे हुए हैं। यह अलग बात है कि इधर कुछ वर्ष पूर्व ही हमारे इंजीनियरों द्वारा बलिया नाला में कराये गए कार्य कमोबेश पूरी तरह दरक गये हैं। बहरहाल, बाद के वर्षो में और खासकर इधर 1984 में अल्मोड़ा से लेकर हल्द्वानी और 2010 में पूरा अल्मोड़ा एनएच कोसी की बाढ़ में बहने के साथ ही बेतालघाट और ओखलकांडा क्षेत्रों में जल-प्रलय जैसे ही नजारे रहे, लेकिन नैनीताल कमोबेश पूरी तरह सुरक्षित रहा। ऐसे में भूवैज्ञानिकों का मानना है ऐसी भौगोलिक संरचना में बसे प्रदेश के शहरों को "नैनीताल मॉडल" का उपयोग कर आपदा से बचाया जा सकता है। कुमाऊं विवि के विज्ञान संकायाध्यक्ष एवं भू-वैज्ञानिक प्रो. सीसी पंत एवं यूजीसी वैज्ञानिक प्रो. बीएस कोटलिया का कहना है कि नैनीताल मॉडल के सुरक्षित 'ड्रेनेज सिस्टम' के साथ ही पहाड़ के परंपरागत सिस्टम का उपयोग कर प्रदेश को आपदा से काफी हद तक बचाया जा सकता है। इसके लिए पहाड़ के परंपरागत गांवों की तरह नदियों के किनारे की भूमि पर खेतों (सेरों) और उसके ऊपर ही मकान बनाने का मॉडल कड़ाई से पालन करना जरूरी है। प्रो. कोटलिया का कहना है कि मानसून में नदियों के अधिकतम स्तर से 60 फीट की ऊंचाई तक किसी भी प्रकार के निर्माण की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

इधर आपदा प्रबंधन एवं न्यूनीकरण केंद्र (डीएमएमसी) के अध्ययन "स्लोप इनस्टेबिलिटी एंड जियो-एन्वायरमेंटल इश्यूज ऑफ द एरिया अराउंड नैनीताल" के मुताबिक नैनीताल को 1880 से लेकर 1893, 1898, 1924, 1989, 1998 में भूस्खलन का दंश झेलना पड़ा। 18 सितम्बर 1880 में हुए भूस्खलन में 151 व 17 अगस्त 1898 में 28 लोगों की जान गई थी। इन भयावह प्राकृतिक आपदाओं से सबक लेते हुए अंग्रेजों ने शहर के आसपास की पहाड़ियों के ढलानों पर होने वाले भूधंसाव, बारिश और झील से होने वाले जल रिसाव और उसके जल स्तर के साथ ही कई धारों (प्राकृतिक जलस्रेत) के जलस्रव की दर आदि की नियमित मॉनीटरिंग करने व आंकड़े जमा करने की व्यवस्था की थी। यही नहीं प्राकृतिक रूप से संवेदनशील स्थानों को मानवीय हस्तक्षेप से मुक्त रखने के लिए कई कड़े नियम कानून बनाए थे। मगर आजादी के बाद यह सब ठंडे बस्ते में चला गया। शहर कंक्रीट का जंगल होने लगा। पिछले पांच वर्षो में ही झील व आस-पास के वन क्षेत्रों में खूब भू-उपयोग परिवर्तन हुआ है और इंसानी दखल बढ़ा है। नैनीझील के आसपास की संवेदनशील पहाड़ियों के ढालों से आपदा के मानकों की धज्जियां उड़ाते हुए गंभीर छेड़छाड़ की जा रही है। पहाड़ के मलबों को पहाड़ी ढालों से निकलने वाले पानी की निकासी करने वाले प्राकृतिक नालों को मलबे से पाटा जा रहा है। नैनी झील के जल संग्रहण क्षेत्रों तक में अवैध कब्जे हो रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद सरोवरनगरी में अवैध निर्माण कार्य अबाध गति से जारी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इन क्षेत्रों में हुए सूक्ष्म बदलाव भी नैनी झील के वजूद के लिए खतरा बन सकते हैं।

Sunday, February 17, 2013

बलात्कार, मीडिया, सरकार, समाज और समाधान..

समस्याएं थोपी तो नहीं जा रहीं ?

हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या क्या है ? बीते वर्ष पूरे देश को झकझोरने वाले दिल्ली गैंग रेप और हालिया बदायूं में दो बहनों की बलात्कार के बाद पेड़ पर लटका दिए जाने की घटनाओं के आलोक में यदि इस प्रश्न का जवाब देश के बच्चों से पूछा जाए तो उनमें अनेक बच्चों का भी जवाब होगा-बलात्कार।
ऐसा क्यों है ? निस्संदेह, बलात्कार एक राष्ट्रीय कोढ़ जैसी समस्या है, और इस समस्या के कारण देश की महिलाओं, युवतियों, किशोरियों और यहां तक कि तीन-चार वर्ष की बच्चियों के साथ ही पूरे देश को पड़ोसी देशों के साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ में तक शर्मसार होना पड़ा है। पर बच्चों के भी दिल-दिमाग में भी बलात्कार जैसा विषय क्यों ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम नहीं कोई और हमारी समस्याएं तय कर रहा है, या समस्याएं तय कर हम पर थोप रहा है। 

विगत वर्षों में पहले केंद्र और दिल्ली सरकार के राष्ट्रमंडल खेलों, टूजी स्पेक्ट्रम सहित अनेकानेक घोटाले ‘देश’ की चिंता का सबब बने रहे। बाबा रामदेव ने दल-बल के साथ देश का काला धन देश में वापस लाने के आह्वान के साथ दिल्ली कूच किया तो काला धन से अधिक बाबा रामदेव देश की मानो समस्या हो गए। खबरिया चैनल दिल्ली में उनके प्रवेश से लेकर मंत्रियों द्वारा समझाने, फिर उनके मंच पर उपस्थित चेहरों, इस बीच आए समझौते के पत्र, रात्रि में हुए लाठीचार्ज और महिलाओं के वस्त्रों में रामदेव के दिल्ली से वापस लौटने की कहानी में काला धन का मुद्दा कहीं गुम ही हो गया। फिर अन्ना हजारे जन लोकपाल के मुद्दे पर दिल्ली आए तो यहां भी कमोबेश जन लोकपाल की जरूरत से अधिक अन्ना की गिरफ्तारी, उनके अनशन के एक-एक दिन बीतने के साथ उनके स्वास्थ्य की चिंता जैसी बातें देश की समस्या बन गईं, और इन समस्याओं को लेकर कथित तौर पर ‘पूरा देश’ ‘जाग’ भी गया। फिर अन्ना टीम में बिखराव व मतभेद पर ‘देश’ चिंतित रहा। आखिरकार केजरीवाल के ‘आम आदमी पार्टी’ बनाने के बाद ‘देश’ की चिंता कुछ कम होती नजर आई। लेकिन बीते वर्ष के आखिर में दिल्ली में पैरामेडिकल छात्रा के साथ चलती बस में हुई गैंग रेप की घटना ने तो मानो देश को झंकायमान ही करके ही रख दिया। 

इन सभी घटनाक्रमों के पीछे क्या चीज ‘कॉमन’ थी। एक-दिल्ली, दो-इन घटनाओं को जनता तक लाने वाला मीडिया, तीन-सरकार और चार-आक्रोशित आम आदमी।

क्या है इन चारों का आपसी संबंध ? दिल्ली निस्संदेह देश की राजधानी और देश का दिल है। लेकिन क्यों केवल दिल्ली की खबरें ही हमारी चिंता का सबब बनती हैं। क्या बाकी देश की कोई समस्याएं नहीं हैं। क्या बलात्कार देश भर में नहीं हो रहे। क्या देश में महंगाई, भूख, गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण और भ्रष्टाचार जैसी अनेकानेक समस्याएं नहीं हैं। यदि हैं, क्या कहीं कोई बड़ी गड़बड़ तो नहीं है। मीडिया क्यों नहीं गांवों में आ सकता। क्यों उत्तराखंड के लालकुआं में ऑफिस कर्मी युवती के साथ बलात्कार के बाद उसके प्राइवेट नाजुक अंगों में रुपए व पेन आदि ठूंसने और उत्तराखंड के पहले करीब चार दर्जन लोगों की डीएनए जांच के बाद रिस्ते के फूफा के ही 13 बर्षीय बच्ची की बलात्कार बाद हत्या करने के मामले की खबरंे राष्ट्रीय मीडिया की ‘पट्टी’ में भी नहीं आती। यह टीआरपी के नाम पर जो चाहे दिखाने, और उसी को राष्ट्रीय चिंता व समस्या बना देने का कोई खेल तो नहीं है।

ऐसे में सवाल उठता है कि कहीं हम पर समस्याएं थोपी तो नहीं जा रही हैं। कि लो, अभी कुछ दिन यह समस्या लो, इससे बाहर कुछ ना सोचो। थोड़े दिन बाद, अब इस समस्या की घुट्टी पियो, और थोड़े दिन बाद अगली समस्या का काढ़ा पियो और अपनी वास्तविक समस्याओं को भूलकर मस्त रहो। यह कोई साजिश तो नहीं चल रही कि देश भर के लोगों की भावनाओं को चाहे जिस तरह से भड़काओ, और उनसे अपने लिए माल-मत्ता समेटो। लोगों की भावनाओं का बाजार सजा दो। देश की वास्तविक समस्याओं से लोगों का ध्यान भटका दो, और अपनी ऐश काटो। कोई बलात्कार जैसी समस्याओं का भी व्यापार तो नहीं कर रहा कि अभी मोदी अपनी जीत को ‘हैट्रिक-हैट्रिक’ कहते हुये बहुत उछल रहा है। अच्छा हुआ, बलात्कार हो गया, इसी गोटी से घोड़े को पीट डालो। रामदेव को महिलाओं के वस्त्र पहनाकर, अन्ना को केजरीवाल अलग करवाकर और केजरीवाल को राजनीति में लाकर पहले ही पीट चुके है। शतरंज की बिसात पर कोई बचना नहीं चाहिए। राजनीति में इतना दम है कि प्यांदे से राजा को ‘शह-मात’ दे दें।

कौन कर सकता है ऐसा ? मीडिया और सरकार ? मीडिया ने निस्संदेह एक हद तक शहरी और कस्बाई जनता को जगा दिया है। वहीं सरकार और राजनीतिक दलों को मीडिया से दूर सोई जनता को जगाने का हुनर मालूम है। वह चुनाव के दिन मीडिया से कोसों दूर, सोई जनता को जगाकर मतदान स्थल तक ले जाने और अपने पक्ष में वोट डलवाने में सफल होते हैं। अच्छा हो वह एक दिन के बजाए रोज के लिए इस पूरी जनता को जगा दें। और जो एक चौथाई लोग कथित तौर पर मीडिया और सोशियल मीडिया से जागे हैं, चुनाव के दिन अपनी आदत से ही सो ना जाऐं।

क्या वास्तव में जाग गया पूरा देशः

दिल्ली गैंग रेप कांड और इसके बाद जो कुछ भी हुआ है, वह कई मायनों में अभूतपूर्व है। इस नृशंशतम् घटना के बाद कहा जा रहा है कि देश ‘जाग’ गया है, 125 करोड़ देशवासी जाग गए हैं, लेकिन सच्चाई इसके कहीं आसपास भी नहीं है। न देश अन्ना के आंदोलन के बाद जागा था, और न ही अब जागा है। हमारी आदत है, हम आधुनिक सुख-सुविधाओं के साथ आराम तलब होते चले जा रहे है। हम पहले जागते नहीं, और कभी देर से जाग भी गए, तो वापस जल्दी ही सो भी जाते हैं। यदि जाग गए होते तो घटना के ठीक बाद बस से नग्नावस्था में फेंके गए युवक व युवती को यूं घंटों खुद को लपेटने के लिए कपड़े की गुहार लगाते हुए घंटों वहीं नहीं पड़े रहने देते।

और तब ना सही, करोड़ों रुपए की मोमबत्तियां जलाने-गलाने के बाद ही सही, जाग गये होते तो अब देश में कोई बलात्कार न हो रहे होते, जबकि दिल्ली की घटना के बाद तो देश में जैसे बलात्कार के मामलों की (या मामलों के प्रकाश में आने की) बाढ़ ही आ गई है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि कि देश की बड़ी आबादी को दिल्ली के कांड की जानकारी ही नहीं है, और देश की अन्य समस्याओं, भूख, गरीबी, बेकारी, बेरोजगारी, महंगाई व भ्रष्टाचार के बीच वह अपने लिए दो जून की रोटी जुटाने में सो ही नहीं पाता, तो जागेगा क्या। वह आज भी आजादी के पहले जैसी ही जिंदगी जीने को अभिशप्त है। उसके पास चुनाव के दौर से सैकड़ों की संख्या में ‘उगे’ खबरिया चौनल दूर, रेडियो तक मयस्सर नहीं है। फेसबुक, ट्विटर जैसी सोशियल साइटों का तो उसने नाम भी न सुना होगा। सच्चाई है, वह मीडिया से नहीं जागते। उन्हें जगाने का हुनर राजनीतिक दलों को ही आता है, जो उन्हें चुनाव के दौरान घर से बाहर निकालकर बूथों तक लाकर अपने पक्ष में वोट भी डलवा देते हैं। और कथित तौर पर ‘जागे’ लोग वोट डालते वक्त ‘सो’ जाते हैं, यह भी सच्चाई है। लिहाजा, यह गलतफहमी ही कही जाएगी, कि देश जाग चुका है।

आक्रोश के पीछे भी कोई साजिश तो नहीं ?

इसके बावजूद दिल्ली के साथ जिस तरह देश भर में महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी कंधे से कंधे मिलाते हुए ‘बलात्कारियों को फांसी दो’ के नारे के साथ निकल पड़े, दिल्ली में छात्र मानो 1997-97 में इंडोनेशिया के देशव्यापी छात्र आंदोलन की यादों को ताजा करने लगे और उनके समर्थन में देश भर के अनेकों छोटे-बढ़े कस्बों में खासकर युवा जुड़ गए, और दिल्ली में तो हजारों की भीड़ करीब-करीब निरंकुश होती हुई राष्ट्रपति भवन की ओर बढती हुई मिश्र में राष्ट्रपति होस्नी मुबारक को गद्दी से उतारने के बाद ही थमने वाली जनक्रांति जैसा नजारा पेश करने लगी।वह सरकार ही नहीं, देशवासियों के लिए भी कान खड़े करने वाला और मौजूदा शासन व्यवस्था के साथ ही देश के लिए भी खतरे की घंटी है। लेकिन आश्चर्य की बात रही कि ऐसे हालातों पर चर्चा केवल लाठी चार्ज और एक पुलिस कर्मी की शहादत को विवादित कर पीछे धकेल दी गई। यह सोचने की जरूरत भी महसूस नहीं की गई कि ऐसा क्यों हुआ। यह आक्रोश स्वतः स्फूर्त था कि इसके पीछे भी कोई साजिश थी। देश में चल रहे अनेक अन्य जरूरी मुद्दे, गैस सब्सिडी को सीमा में बांधने, महंगाई के आसमान छूने, आरटीआई के बावजूद नन्हे बच्चों के स्कूलों में एडमिशन न हो पाने के साथ ही भ्रष्टाचार, कालाधन, जन लोकपाल, पदोन्नति में आरक्षण, अन्ना, रामदेव, केजरीवाल सभी इस आंदोलन के आगे बौने पड़ गए, जिनके द्वारा भी कभी देश को जगा देने की बात कही जा रही थी । सारे देश को जगाने वाले अन्ना या रामदेव कहीं नहीं दिखे। रामदेव और केजरीवाल दिल्ली आए भी तो उन्हें भीड़ को भड़काने के आरोप में मुकदमे ठोंककर वापस भेज दिया गया। कहीं ऐसा तो न था कि गुजरात में मोदी की हैट्रिक के रूप में प्रचारित की जा रही जीत, केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के साथ ही बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आंदोलनों के साथ ही देश भर के सरकारी कर्मचारियों को प्रभावित करने वाले पदोन्नति में आरक्षण के बिल के लोक सभा में पास न हो पाने जैसे मुद्दों को इस नृशंशतम घटना के पीछे नेपथ्य में धकेल दिया गया।

इस आंदोलन में एक खास बात यह भी रही कि कमोबेश पहली बार सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की छात्र व युवा ब्रिगेड एनएसयूआई व युवा कांग्रेस के कार्यकर्ता भी इस मामले का विरोध करने सड़कों पर उतरे। लिहाजा, यह दिल्ली सहित देश भर में ऐसा व्यापक विरोध प्रदर्शन रहा, जिसमें हर वर्ग के लोग शामिल हुए, और खास तौर पर यदि सत्तारूढ़ दल की विचारधारा के लोग भी आंदोलन में शामिल रहे या शामिल होने का मजबूर हुए, तो यह वक्त है जब सरकार को संभल जाना चाहिए। अन्ना, रामदेव के आंदोलनों को दबाने, के लिए जिस तरह के राजनीतिक प्रपंच किए गऐ, उनसे अब काम चलाने से बाज आना चाहिए। आश्चर्य न होगा, यदि ऐसे में जल्द ही किसी सामान्य विषय पर भी लोग इसी तरह गुस्से का इजहार करने लगे।

दिल्ली का बलात्कार न पहला, न आखिरीः

यह सही है कि दिल्ली का बलात्कार न तो पहला था, और ना ही आखिरी, उत्तराखंड के लालकुआं में आफिसकर्मी युवती से बलात्कार का मामला भी कम वीभत्स नहीं था, जिसमें बलात्कारियों ने युवती से बलात्कार के बाद उसके खास अंगों में पेन और रुपए ठूंस दिए थे, और उसकी हत्या भी कर डाली थी। पूर्ववर्ती भाजपा सरकार मामले की सीबीआई जांच की संस्तुति कर चुकी है, पर आज भी जांच शुरू नहीं हुई है। इसके अलावा लालकुआ की ही आठ साल की मासूम संजना के बलात्कार के बाद हत्याकांड का मामला। ऐसे ही और भी अनेकों मामले हैं। लेकिन, दिल्ली जैसा आक्रोश पहले कभी देखने को नही मिला। निस्संदेह, इस आक्रोश के पीछे केवल दिल्ली की छात्रा के अपमान का रोष ही नहीं, वरन देश की हर मां-बहन की इज्जत, मान-सम्मान का प्रश्न आ खड़ा हुआ था। यह देश भर में पूर्व में हुई ऐसी अन्य घटनाओं के साथ लोगों के दिलों में भीतर राख में दहल रहे शोलों और खासकर छात्राओं, किशोरियों द्वारा समाज में कथित बराबरी के बावजूद झेली जा रही जिल्लत का स्वतः स्फूर्त नतीजा था। मौजूदा व्यवस्था से बुरी तरह आक्रोशित जनता को मौका मिला, और उन्होंने अपने गुस्से को व्यक्त कर दिया।

इस सबसे थोड़ा आगे निकलते हैं। कल तक मीडिया, समाचार पत्रों की सुर्खियां बनी बलात्कार पीड़िता की खबरें धीरे-धीरे पीछे होती चली जा रही हैं। सोशियल मीडिया में लोगों की प्रोफाइल पर लगे काले धब्बे भी हटकर वापस अपनी या किसी अन्य खूबसूरत चेहरे की आकर्षक तस्वीरों से गुलजार होने लगे हैं। आगे अखबरों, चौनलों में कभी संदर्भ के तौर पर ही इस घटना का इतना भर जिक्र होगा कि 16 दिसंबर 2012 को पांच बहशी दरिंदों ने दिल्ली के बसंत विहार इलाके में चलती बस में युवती से बलात्कार किया था, और उसे उसके मित्र के साथ महिपालपुर इलाके में नग्नावस्था में झाड़ियों में फेंक दिया था। यह नहीं बताया जाएगा कि करीब आधे घंटे तक सैकड़ों लोग उन्हें बेशर्मी से देखते हुए निकल गऐ थे, और आखिर पुलिस ने पास के होटल से चादर मंगाकर उन्हें ढका और दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल पहुंचाया, और जहां से हृदयाघात होने के बावजूद कमोबेश मृत अवस्था में ही उसे राजनीतिक कारणों से 27 दिसंबर को सिंगापुर ले जाकर वहां के माउंट एलिजाबेथ अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां 29 दिसंबर की सुबह तड़के 2.15 बजे उसने दम तोड़ दिया, लेकिन पूरे दिन रोककर रात्रि के अंधेरे में उसके शरीर को दिल्ली लाया गया और 30 की सुबह तड़के परिवार के कथित तौर पर विरोध के बीच उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया। ऐसा इसलिए ताकि लोग आक्रोषित ना हों, कानून-व्यवस्था के भंग होने की कोई स्थिति न उत्पन्न हो। क्योंकि पूरा देश कथित तौर पर जाग गया था।

क्या कानून से रुक सकते हैं बलात्कारः 

वादे कितने ही किये जायें पर बेहद लंबी कशमकश और दांव-पेंच भरी कानूनी लड़ाई के बाद शायद उसके बलात्कारियों और हत्यारों को शायद फांसी दे ही दी जाए। इससे पहले बलात्कारियों, हत्यारों को फांसी की मांग करने वाले अनेक अधिवक्ता उन्हें फांसी देने का भी विरोध करेंगे। न्यायाधीश महोदय भी पूछेंगे कि क्यों फांसी ही दी जाए, आखिर हमारे कानून की भावना जो ठहरी-”एक भी निर्दोष न फंसे“ (चाहे जितने दोषी बच जाएं, जबकि अनगिनत निर्दोष सींखचों के पीछे ट्रायल के नाम पर ही बर्षों से सजा भुगतते रहें हैं।)

हमारी संसद, पश्चिमी दुनिया के लिव-इन संबंधों को अपने यहां भी कानूनी मान्यता देने व विवाह जैसी सामाजिक संस्था के लिए पंजीकरण की कानूनी बाध्यता बनाने और यौन संबंधों में आपसी सहमति के लिए आयु को कम करने की पक्षधरता के बीच शायद बलात्कार को भी ”रेयर“ और ”गैर रेयर“ के अलावा कुछ अन्य नए वर्गों में भी वर्गीकृत कर दे। उम्र (नाबालिगों से सहमति के यौन संबंध भी बलात्कार की श्रेणी में हैं) व लिंग (महिलाओं, पुरुषों व किन्नरों के आधार पर तो बलात्कार के लिए भी कमोबेश अलग-अलग कानूनी प्राविधान) के साथ ही हमारे माननीय बलात्कार को जाति-वर्ण के आधार पर भी बांट दें, यानी जाति विशेष की महिलाओं से बलात्कार पर अधिक या कम सजा के प्राविधान हो जाएं तो आश्चर्य न होगा। ऐसे-ऐसे तर्क भी आ सकते हैं कि दूसरों के केवल गुप्त यौननांगों पर बलात आक्रमण या प्रयोग ही क्यों बलात्कार कहा जाए, पूरा शरीर और अन्य अंगों पर क्यों नहीं। ऐसे तर्क भी आने लगे हैं कि महिला बलात्कार के बाद ‘जिंदा लाश’ क्यों कही जाए। बलात्कार होना मौत से बदतर क्यों माना जाए। बहरहाल, इन सब कानूनी बातों और केवल इस एक मामले में कड़ा न्याय मिल जाने के बावजूद क्या दिल पर हाथ रखकर कहा जा सकता है कि देश में ऐसी घटनाओं पर रोक लग जाएगी । क्या हमारी बहन-बेटियां सुरक्षित हो जाएंगी ?

बलात्कारः मनोवैज्ञानिक व सामाजिक पहलूः 

बलात्कार की समस्या को समग्रता से समझें तो मानना होगा हमारी बहुत सी समस्याएं लगती तो शारीरिक हैं, लेकिन होती मानसिक हैं। बलात्कार भी एक तरह से तन से पहले मन की बीमारी है। और इसकी जड़ में समाज के अनेक-शिक्षा, लिंग, सामाजिक-आर्थिक स्तर के विभेद जैसे अनेक कारण भी हैं। कानून, पुलिस और न्यायिक व्यवस्था का प्रभाव तो बहुत देर में आता है।

इन समस्याओं पर सतही चर्चा करने के बजाए गहन मंथन करने की भी जरूरत है। अधिकतर लोग क्यों बलात्कार करते हैं ? इससे पहले एक बात पर शायद सभी सहमत हों कि यौन आवश्यकता हर जीवधारी में भोजन की तरह ही मूलभूत होती है, और पीढ़ियों के आगे बढ़ने के लिए जरूरी भी है। मनुष्य ने इस आवश्यकता को विवाह नाम के सामाजिक बंधन से बांध दिया है। विवाह में सबसे पहले, खासकर पुरुषों की हर वर्ग में और आर्थिक रूप से समर्थ वर्ग में महिलाओं (पुत्रियों) की पसंद का ध्यान रखा जाता है। विवाह से पूर्व कम उम्र में, जबसे मनुष्य के बच्चों के कोमल मन के साथ मस्तिष्क काम करना शुरू करने लगता है, छुपा कर रखे गए व गुप्त बताए जाने वाले खुद के एवं विरोधी लिंग के अंगों के प्रति जानने की इच्छा बढ़ने लगती है। यही समय है जब माता-पिता बच्चों की उनके अंगों के बारे में बताए और अच्छे-बुरे की जानकारी दें, साथ ही स्कूलों में नैतिक, संस्कारवान शिक्षा दी जाए। जरूरी समझी जाए तो यौन शिक्षा भी दी जाए।

जरूरी हो तो भूख और सैक्स का मनोविज्ञान भी समझा जाए। भूख को पेट की और सैक्स को शरीर की आग और दोनों को बेहद खतरनाक कहा जाता है। सैक्स की आग में शरीर की भूख के साथ ही मन की भी बड़ी भूमिका होती है, जिस पर मनुष्य की शैक्षिक, आर्थिक व सामाजिक स्थिति भी अत्यधिक प्रभाव डालती है। निठारी कांड इन दोनों भूखों को नृशंशतम् मामला था जिसमें कहा जाता है कि इन दोनों भूखों के भूखे भेड़िये दर्जनों मासूम बच्चों का बलात्कार करने के बाद उनके शरीर को भी खा गए। अफसोस, हमारी याददाश्त बेहद कमजोर होती है। हम इस कांड को कमोबेश भूल चुके हैं। मीडिया भी उसी दिन याद करता है, जब न्यायालय से इस मामले में कोई अपडेट आती है। वर्षों से मामला न्यायालय में चल रहा है। और इस ”रेयरेस्ट ऑफ द रेयर“ मामले में दोषियों को कब सजा होगी, कुछ नहीं कहा जा सकता।

एक आंकलन के अनुसार हमारे देश में केवल चार प्रतिशत बलात्कार के मामले ही अनजान लोगों द्वारा किए जाते हैं, तथा 96 प्रतिशत बलात्कार जानने-पहचानने वालों द्वारा किए जाते हैं। ऐसे में यह देखना होगा कि बलात्कार के साथ ही अवैध संबंध बनाने वालो का क्या मनोविज्ञान है।

आयु के आधार परः

इसे पहले आयु के आधार पर देखते हैं। कम उम्र के बच्चों (लड़के-लड़कियों दोनों में, भारत में अभी कम, विदेशों में काफी) में टीवी, सिनेमा व इंटरनेट की देखा-देखी और सैक्स व जननांगों के बारे में जानने की इच्छा, के कारण सैक्स संबंध बनाए जाते हैं। युवावस्था में युवक-युवतियों दोनों में शारीरिक और यौन अंगों का विकास होने के साथ यौन इच्छाएं भी नैसर्गिक रूप से बढ़ती हैं। सामाजिक व्यवस्था भी उन्हें बताती जाती है कि अब आप विवाह एवं यौन संबंध बनाने योग्य हो गऐ हो। यहां आकर व्यक्ति की आर्थिक और सामाजिक स्थित उसकी यौन इच्छाओं को प्रभावित करती है। अच्छे आर्थिक व सामाजिक स्तर के लोगों में इस स्थिति में अपने लिए मनपसंद जीवन साथी प्राप्त करने की अधिक सहज स्थिति रहती है, जबकि कमजोर तबके के लोगों के लिए यह एक कठिन समय होता है। इस कठिन समय पर यदि व्यक्ति को उसका मनपसंद साथी ना मिल पाए तो उसे अच्छी और संस्कारवान, नैतिक शिक्षा ही संबल व शक्ति प्रदान कर सकती हैं। अन्यथा उनके भटकने का खतरा अधिक रहता है। इस उम्र में कुछ लोग, खासकर युवक शराब जैसे बुरे व्यसनों की गिरफ्त में फंसकर और अपनी कथित पौरुष शक्ति के प्रदर्शन की कोशिश में युवतियों से छेड़छाड़ और बलात्कार की हद तक जा सकते हैं। 

इससे आगे प्रौढ़ अवस्था में विवाहितों और अविवाहितों में यौन इच्छाऐं (मन के स्तर से ही) पारिवारिक स्तर पर तृप्त या अतृप्त होने पर निर्भर करती हैं। और यह भी बहुत हद तक मनुष्य की आर्थिक, शैक्षिक व सामाजिक स्तर पर निर्भर करता है। इन तीनों स्तरों के समन्वित प्रभाव से ही मनुष्य स्वयं में एक तरह की शक्ति या कमजोरी महसूस करता है। शक्ति की कमजोरी की स्थिति में आकर गिरा व्यक्ति इससे बुरा क्या होगा की दशा में बुराइयों को दलदल में और धंसता चला जाता है, जबकि शक्ति के उच्चस्तर स्तर पर आकर भी व्यक्ति में सब कुछ अपने कदमों पर आ गिरने जैसा अहम और कोई क्या बिगाड़ लेगा का दंभ भी उसे ऐसे कुकृत्य करने को मजबूर करता है, और वह अपने बल से अपनी आवश्यकताओं को जबर्दस्ती जुटा भी लेता है, फिर बल से ही लोगों का मुंह भी बंद कराने में अक्सर सफल हो जाता है। कमजोर वर्ग के लोगों के मामले जल्दी प्रकाश में आ जाते हैं। दिल्ली कांड में भी बलात्कारी कमोबेश इसी वर्ग के हैं। कोई ड्राइवर, क्लीनर, कोई सड़क पर फल विक्रेता, और एक कम उम्र युवक। यानी किसी की भी आर्थिक, सामाजिक व शैक्षिक स्थिति बहुत ठीक नहीं है। वहीं, मध्यम वर्ग के लोगों में सहयोग से या ”पटा कर (जुगाड़ से)“ काम निकालने की प्रवृत्ति अधिक देखी जाती है। यह वर्ग कोई बुरा कार्य करने से पहले सामाजिक स्तर पर डर भी अधिक महसूस करता है, इसलिए एक हद तक बुराइयों से बचा भी रहता है।

महिलाओं के प्रति समाज का गैर बराबरी का रवैयाः

दूसरी ओर, बालिकाओं के प्रति आज भी समाज में बरकरार असमानता की भावना बड़ी हद तक जिम्मेदार है। माता-पिता के मन में उसे पैदा करने से ही डर लगता है कि वह पैदा हो जाएगी तो उस ”लक्ष्मी“ के आने के बावजूद बधाइयां नहीं मिलेंगी। उसे, स्कूल-कालेज या कहीं भी अकेले भेजने में डर लगेगा। फिर उस ”पराए धन“ को कैसा घर-बर मिलेगा। और इस डर के कारण बेटियों को कोख में ही मार दिया जाता है। पैदा हो जाती है तो उसे यूं ”घर की इज्जत“ कहा जाता है, मानो वह हर दम दांव पर लगी रहती है। ससुराल में भी पह ”पराई“ ही रहती है, और उसे ”डोली पर आने“ के बाद ”अर्थी पर ही जाने“ की घुट्टी पिला दी जाती है कि वह कदम बाहर निकालने की हिमाकत न करे। बंधनों में कोई बंधा नहीं रहना चाहता। वह भी ”सारे बंधन तोड़कर उड़ने“ की कोशिश करती है। आज के दौर में पश्चिमीकरण की हवा में टीवी- सिनेमा और इंटरनेट उसकी ”उड़ानों को पंख“ देने का काम कर रहा है। इस हवा में उसका अचानक ”उड़ना“ बरसों से उसे कैद कर रखने वाला पुरुष प्रधान समाज कैसे बर्दास्त कर ले, यह भी एक चुनौती है। यह संक्रमण और तेजी से आ रहे बदलावों का दौर है। इसलिए विशेष सतर्क रहने की जरूरत है।

लिहाजा, यह कहा जा सकता है कि बलात्कार केवल एक शब्द नहीं, मानव मात्र पर एक अभिशाप है। यह केवल महिलाओं के लिए ही नहीं संपूर्ण समाज और मानवता पर कोढ़ की तरह है। इसके लिए किसी एक व्यक्ति, महिला या पुरुष, जाति, वर्ण, वर्ग को एकतरफा दोषी नहीं ठहराया जा सकता। भले ही एक व्यक्ति बलात्कार करता हो, लेकिन इसके लिए पूरा समाज, हम सब, हमारी व्यवस्था दोषी है। लिहाजा, इसके उन्मूलन के लिए हर तरह के सामूहिक प्रयास करने होंगे। और यह सब हमारे हाथ में है, जब कहा जा रहा है कि दिल्ली की घटना के बाद पूरा देश जाग गया है। ऐसे में अच्छा हो कि अदालत से इस एक मामले में चाहे जो और जब व जैसा परिणाम आऐ, उससे पूर्व ही हम सब मिलकर मानवता पर लगे इस दाग को हमेशा के लिए और जड़ से मिटा दें।

Sunday, January 6, 2013

हांके नहीं, जगाये मीडिया और सरकार


मारे देश की सबसे बड़ी समस्या क्या है ? आज की तिथि में यदि इस प्रश्न का जवाब देश के बच्चों से भी पूछा जाए तो उनका एकमत जवाब होगा-बलात्कार। निस्संदेह, बलात्कार एक राष्ट्रीय कोढ़ जैसी समस्या है, और इस समस्या के कारण देश की महिलाओं, युवतियों, किशोरियों और यहां तक कि तीन-चार वर्ष की बच्चियों के साथ ही पूरे देश को पड़ोसी देशों के साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ में तक शर्मसार होना पड़ा है। 

लेकिन, यदि इसी सवाल को बच्चों को शहरी, कस्बाई, ग्रामीण या झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों में विभक्त कर पूछा जाएगा तो इस बात में भी कोई शक नहीं कि प्रश्न के एक नहीं अनेक उत्तर मिलेंगे। 

वहीं, यही सवाल यदि पिछले वर्ष 2012 के चार चौथाई (क्वार्टर्स) में यदि अलग-अलग पूछा जाता तो भी इस सवाल के जवाब अलग-अलग मिलते। पहले चौथाई में शायद जवाब मिलता घोटाले, दूसरे में जवाब मिलता-काला धन, तीसरे में भ्रष्टाचार और देश में जनलोकपाल का ना होना और चौथे में बलात्कार....। और यह जवाब भी केवल शहरी, कश्बाई या दूसरे शब्दों में कहें तो आधुनिक टीवी, मीडिया या सोशियल मीडिया से जुड़े बच्चों या लोगों के होते। 

ऐसा क्यों है।कहीं ऐसा तो नहीं कि हम नहीं कोई और हमारी समस्याएं तय कर रहा है, या समस्याएं तय कर हम पर थोप रहा है। विगत वर्षों में पहले केंद्र और दिल्ली सरकार के राष्ट्रमंडल खेलों, टूजी स्पेक्ट्रम सहित अनेकानेक घोटाले ‘देश’ की चिंता का सबब बने रहे। बाबा रामदेव ने दल-बल के साथ देश का काला धन देश में वापस लाने के आह्वान के साथ दिल्ली कूच किया तो काला धन से अधिक बाबा रामदेव देश की मानो समस्या हो गए।खबरिया चैनल दिल्ली में उनके प्रवेश से लेकर मंत्रियों द्वारा समझाने, फिर उनके मंच पर उपस्थित लोगों, फिर समझौते का पत्र, रात्रि में लाठीचार्ज और महिलाओं के वस्त्रों में रामदेव के दिल्ली से वापस लौटने की कहानी में काला धन का मुद्दा कहीं गुम ही हो गया। फिर अन्ना हजारे जन लोकपाल के मुद्दे पर दिल्ली आए तो यहां भी कमोबेश जन लोकपाल की जरूरत से अधिक अन्ना की गिरफ्तारी, उनके अनशन के एक-एक दिन बीतने के साथ उनके स्वास्थ्य की चिंता जैसी बातें देश की समस्या बन गईं, और इन समस्याओं को लेकर कथित तौर पर ‘पूरा देश जाग’ भी गया। फिर अन्ना टीम में बिखराव व मतभेद पर ‘देश’ चिंतित रहा। आखिरकार केजरीवाल के ‘आम आदमी पार्टी’ बनाने के बाद ‘देश’ की चिंता कुछ कम होती नजर आई। लेकिन बीते वर्ष के आखिर में दिल्ली में पैरामेडिकल छात्रा के साथ चलती बस में हुई गैंग रेप की घटना ने तो मानो देश को झंकायमान करके ही रख दिया।

इन सभी घटनाक्रमों के पीछे क्या चीज ‘कॉमन’ है। एक-दिल्ली, दो-इन घटनाओं को जनता तक लाने वाला मीडिया, तीन-सरकार और चार-आक्रोशित आम आदमी। 

ऐसा है तो क्यों ? दिल्ली निस्संदेह देश की राजधानी और देश का दिल है। लेकिन क्यों केवल दिल्ली की खबरें ही हमारी चिंता का सबब बनती हैं। क्या बाकी देश की कोई समस्याएं नहीं हैं। क्या बलात्कार देश भर में नहीं हो रहे। क्या देश में महंगाई, भूख, गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण और भ्रष्टाचार जैसी अनेकानेक समस्याएं नहीं हैं। यदि हैं, क्या कहीं कोई बड़ी गड़बड़ तो नहीं है। मीडिया क्यों नहीं गांवों में आ सकता।क्यों कपकोट के स्कूल में 139 बच्चों की जिंदा दफन हो जाने की खबर राष्ट्रीय मीडिया की ‘पट्टी’ में भी नहीं आती। क्यों लालकुआ के नृशंषतम प्रीति व संजना बलात्कार कांड पूरे राज्यवासियों को आंदोलित करने के बावजूद वहां कहीं नहीं दिखाई देते।यह टीआरपी के नाम पर जो चाहे दिखाने का खेल कब तक चलेगा।

ऐसे में सवाल उठता है कि कहीं हम पर समस्याएं थोपी तो नहीं जा रही हैं, कि लो अभी कुछ दिन यह समस्या लो, इससे बाहर कुछ ना सोचो। थोड़े दिन बाद, अब इस समस्या की घुट्टी पियो, और थोड़े दिन बाद अगली समस्या का काढ़ा पियो और अपनी वास्तविक समस्याओं को भूलकर मस्त रहो। यह कोई साजिश तो नहीं चल रही कि देश भर के लोगों की भावनाओं को चाहे जिस तरह से भड़काओ,और उनसे अपने लिए माल-मत्ता समेटो। लोगों की भावनाओं का बाजार सजा दो।देश की वास्तविक समस्याओं से लोगों का ध्यान भटका दो, और अपनी ऐश काटो। कोई बलात्कार जैसी समस्याओं का भी व्यापार तो नहीं कर रहा कि अभी मोदी अपनी जीत से बड़ा ‘हैट्रिक-हैट्रिक’ कहता हुआ उछल रहा है, बलात्कार हो गया, इसी गोटी से घोड़े को पीट डालो। रामदेव को महिलाओं के वस्त्र पहनाकर, अन्ना को केजरीवाल अलग करवाकर और केजरीवाल को राजनीति में लाकर पहले ही पीट चुके है। शतरंज की बिसात पर कोई बचना नहीं चाहिए। राजनीति में इतना दम है कि प्यांदे से राजा को ‘शह-मात’ दे दें।

कौन कर सकता है ऐसा, जी हां, इलेक्ट्रानिक मीडिया और सरकार। मीडिया ने निस्संदेह एक हद तक शहरी और कश्बाई जनता को जगा दिया है। वहीं सरकार और राजनीतिक दलों को जनता को मीडिया से दूर सोई जनता को जगाने का हुनर मालूम है। वह चुनाव के दिन मीडिया से कोशों दूर, सोई जनता को जगाकर मतदान स्थल तक ले जाने और अपने पक्ष में वोट डलवाने में सफल होते हैं। अच्छा हो वह एक दिन के बजाए रोज के लिए इस पूरी जनता को जगा दें। और जो एक चौथाई लोग कथित तौर पर मीडिया और सोशियल मीडिया से जागे हैं, चुनाव के दिन अपनी आदत के तहत सो ना जाऐं। 

Tuesday, January 1, 2013

क्या वाकई जाग गया देश ?


दिल्ली में चलती बस में बहशी दरिंदों की हवस से सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई पैरामेडिकल की छात्रा की मौत पर कहा जा रहा है उसकी चिता मशाल बन 125 करोड़ देशवासियों को जगा गई है। दिल्ली में इंडिया गेट से लेकर मीडिया-समाचार पत्रों और सोशियल मीडिया पर आज यही चर्चा है, जैसे कुछ दिन पहले केजरीवाल, अन्ना हजारे और बाबा रामदेव की चर्चा थीं (तब भी देश को जागा हुआ बताया जा रहा था)। 
इस सबसे थोड़ा आगे निकलते हैं। मीडिया, समाचार पत्रों में धीरे-धीरे उसकी खबरें पीछे होती चली जाएंगीं। सोशियल मीडिया में लोगों की प्रोफाइल पर लगे काले धब्बे भी जल्द हटकर वापस अपनी या किसी अन्य खूबसूरत चेहरे की आकर्षक तस्वीरों से गुलजार हो जाएंगे। अखबरों, चैनलों में कभी संदर्भ के तौर पर यह आएगा कि 16 दिसंबर 2012 को पांच बहशी दरिंदों ने दिल्ली के बसंत विहार इलाके में चलती बस में युवती से बलात्कार किया था, और उसे उसके मित्र के साथ महिपालपुर इलाके में नग्नावस्था में झाड़ियों में फेंक दिया गया था। यह नहीं बताया जाएगा कि करीब आधे घंटे तक सैकड़ों लोग उन्हें बेशर्मी से देखते हुए निकल गऐ थे, और आखिर पुलिस ने पास के होटल से चादर मंगाकर उन्हें ढका और दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल पहुंचाया, और जहां से हृदयाघात होने के बावजूद कमोबेश मृत अवस्था में ही उसे राजनीतिक कारणों से 27 दिसंबर को सिंगापुर ले जाकर वहां के माउंट एलिजाबेथ अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां 29 दिसंबर की सुबह तड़के 2.15 बजे उसने दम तोड़ दिया, लेकिन पूरे दिन रोककर रात्रि के अंधेरे में उसके शरीर को दिल्ली लाया गया और 30 की सुबह तड़के परिवार के कथित तौर पर विरोध के बीच उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया। ऐसा इसलिए ताकि लोग आक्रेाशित ना हों, कानून-व्यवस्था के भंग होने की कोई स्थिति न उत्पन्न हो। क्योंकि पूरा देश कथित तौर पर जाग गया था....! 
आगे, चाहे जितने दावे किए जाएं, बेहद लंबी कशमकश और कानूनी लड़ाई के बाद शायद उसके बलात्कारियों और हत्यारों को शायद फांसी दे ही दी जाए। इससे पहले बलात्कारियांे, हत्यारों को फांसी की मांग करने वाले अनेक अधिवक्ता उन्हें फंासी देने का भी विरोध करेंगे। न्यायाधीश महोदय भी पूछेंगे कि क्यों फंासी ही दी जाए, आखिर हमारे कानून की भावना जो ठहरी-”एक भी निर्दोष न फंसे“ (चाहे जितने दोषी बच जाएं, और अनगिनत र्निदोष सीखचों के पीछे ट्रायल के नाम पर ही बर्षों से सजा भुगतते रहें।)

यूं भी शायद ही रुक पायें बलात्कार 
और हमारी संसद, पश्चिमी दुनिया के लिव-इन संबंधों को अपने यहां भी कानूनी मान्यता देने व विवाह जैसी सामाजिक संस्था के लिए पंजीकरण की कानूनी बाध्यता बनाने और यौन संबंधों में आपसी सहमति के लिए आयु को कम करने की पक्षधरता के बीच शायद बलात्कार को भी ”रेयर“ और ”गैर रेयर“ के अलावा कुछ अन्य नए वर्गों में भी वर्गीकृत कर दे। उम्र (नाबालिगों से सहमति के यौन संबंध भी बलात्कार की श्रेणी में हैं) व लिंग (महिलाओं, पुरुषों व किन्नरों के आधार पर तो बलात्कार के लिए भी कमोबेश अलग-अलग कानूनी प्राविधान) के साथ ही हमारे माननीय बलात्कार को जाति-वर्ण के आधार पर भी बांट दें, यानी जाति विशेष की महिलाओं से बलात्कार पर अधिक या कम सजा के प्राविधान हो जाएं तो आश्चर्य न होगा। ऐसे-ऐसे तर्क भी आ सकते हैं कि दूसरों के केवल गुप्त यौननांगों पर बलात आक्रमण या प्रयोग ही क्यों बलात्कार कहा जाए, पूरा शरीर और अन्य अंगों पर क्यों नहीं। बहरहाल, इन सब कानूनी बातों और केवल इस एक मामले में कड़ा न्याय मिल जाने के बावजूद क्या दिल पर हाथ रखकर कहा जा सकता है कि देश में ऐसी घटनाओं पर रोक लग जाएगी ? क्या हमारी बहन-बेटियां सुरक्षित हो जाएंगी ?
इस सबसे इतर, मेरा मानना है कि हमारी बहुत सी समस्याएं लगती तो शारीरिक हैं, लेकिन होती मानसिक हैं। जैसे स्पांडलाइटिस सहित अनेक रोग होते तो मूलतःतनाव से हैं, लेकिन शरीर हो दुःख पहुंचाते हैं, इसलिए उनका इलाज भी शरीर को दवाई देकर करने की कोशिश की जाती है, जबकि उपचार मन का किए जाने की जरूरत होती है। बलात्कार भी एक तरह से तन से पहले मन की बीमारी है। और इसकी जड़ में समाज के अनेक-शिक्षा, लिंग, सामाजिक-आर्थिक स्तर के विभेद जैसे अनेक कारण हैं। कानून, पुलिस और न्यायिक व्यवस्था का प्रभाव तो बहुत देर में आता है। 
इससे आगे बढ़ते हुऐ अच्छा न होगा कि भूख और सैक्स का मनोविज्ञान समझा जाए, भूख को पेट की और सैक्स को शरीर की आग और दोनों को बेहद खतरनाक भी कहा जाता है।सैक्स की आग में शरीर की भूख के साथ ही मन की भी बड़ी भूमिका होती है, जिस पर मनुष्य की शैक्षिक, आर्थिक व सामाजिक स्थिति भी अत्यधिक प्रभाव डालती है। निठारी कांड इन दोनों भूखों को नृशंशतम् मामला था जिसमें कहा जाता है कि इन दोनों भूखों के भूखे भेड़िये दर्जनों मासूम बच्चों का बलात्कार करने के बाद उनके शरीर को भी खा गए। अफसोस, हमारी याददाश्त बेहद कमजोर होती है। हम इस कांड को कमोबेश भूल चुके हैं। मीडिया भी उसी दिन याद करता है, जब न्यायालय से इस मामले में कोई अपडेट आती है। वर्षों से मामला न्यायालय में चल रहा है। और इस ”रेयरेस्ट ऑफ द रेयर“ मामले में दोषियों को कब सजा होगी, कुछ नहीं कहा जा सकता। 
एक आंकलन के अनुसार हमारे देश में केवल चार प्रतिषत बलात्कार के मामले ही अनजान लोगों द्वारा किए जाते हैं, यानी 96 प्रतिशत बलात्कार जानने-पहचानने वालों द्वारा किए जाते हैं। ऐसे में यह ही देखना होगा कि बलात्कार के साथ ही अवैध संबंध बनाने वालो का क्या मनोविज्ञान है। 
इसे पहले आयु के आधार पर देखते हैं। कम उम्र के बच्चों (लड़के-लड़कियों दोनों में, भारत में अभी कम, विदेशों में काफी) में टीवी, सिनेमा व इंटरनेट की देखा-देखी और सैक्स व जननांगों के बारे में जानने की इच्छा, जिज्ञासा (क्यूरियोसिटी) के कारण सैक्स संबंध बनाए जाते हैं। युवावस्था में युवक-युवतियों दोनों में शारीरिक और यौन अंगों का विकास होने के साथ यौन इच्छाएं भी नैसर्गिक रूप से बढ़ती हैं। सामाजिक व्यवस्था भी उन्हें बताती जाती है कि अब आप विवाह एवं यौन संबंध बनाने योग्य हो गऐ हो। यहां आकर व्यक्ति की आर्थिक और सामाजिक स्थित उसकी यौन इच्छाओं को प्रभावित करती है। अच्छे आर्थिक व सामाजिक स्तर के लोगों में इस स्थिति में अपने लिए मनपसंद जीवन साथी प्राप्त करने की अधिक सहज स्थिति रहती है, जबकि इन दोनों मामलों में कमजोर तबके के लोगों के लिए यह एक कठिन समय होता है। इस कठिन समय पर यदि व्यक्ति को उसका मनपसंद साथी ना मिल पाए तो उसे अच्छी और संस्कारवान, नैतिक शिक्षा ही संबल व शक्ति प्रदान कर सकती हैं। अन्यथा उनके भटकने का खतरा अधिक रहता है। इस उम्र में कुछ लोग, खासकर युवक शराब जैसे बुरे व्यसनों की गिरफ्त में फंसकर और अपनी कथित पौरुष शक्ति के प्रदर्शन की कोशिश में युवतियों से छेड़छाड़ और बलात्कार की हद तक जा सकते हैं। बलात्कार केवल महिलाओं, आधी आबादी के लिए ही नहीं संपूर्ण समाज के लिए अभिषाप और मानवता पर कोढ़ की तरह है।
इससे आगे प्रौढ़ अवस्था में विवाहितों और अविवाहितों में यौन इच्छाऐं (मन के स्तर से ही) पारिवारिक स्तर पर तृप्त या अतृप्त होने पर निर्भर करती हैं। और यह भी बहुत हद तक मनुष्य की आर्थिक, शैक्षिक व सामाजिक स्तर पर निर्भर करता है। इन तीनों स्तरों के समन्वित प्रभाव से ही मनुश्य स्वयं में एक तरह की शक्ति या कमजोरी महसूस करता है। शक्ति की कमजोरी की स्थिति में आकर गिरा व्यक्ति इससे बुरा क्या होगा की दशा में बुराइयों की दलदल में और धंसता चला जाता है, जबकि शक्ति के उच्चस्तर स्तर पर आकर भी व्यक्ति में सब कुछ अपने कदमों पर आ गिरने जैसा अहम और कोई क्या बिगाड़ लेगा का दंभ भी उसे ऐसे कुकृत्य करने को मजबूर करता है, और वह अपने बल से अपनी आवश्यकताओं को जबर्दस्ती जुटा भी लेता है, और फिर बल से ही लोगों का मुंह भी बंद कराने में अक्सर सफल हो जाता है। कमजोर वर्ग के लोगों के मामले जल्दी प्रकाश में आ जाते हैं। दिल्ली कांड में भी बलात्कारी कमोबेश इसी वर्ग के हैं। कोई ड्राइवर, क्लीनर, कोई सड़क पर फल विक्रेता, और एक कम उम्र युवक। यानी किसी की भी आर्थिक, सामाजिक व शैक्षिक स्थिति बहुत ठीक नहीं है। वहीं, मध्यम वर्ग के लोगों में सहयोग से या ”पटा कर (जुगाड़ से)“ काम निकालने की प्रवृत्ति अधिक देखी जाती है। यह वर्ग कोई बुरा कार्य करने से पहले सामाजिक स्तर पर डर भी अधिक महसूस करता है, इसलिए एक हद तक बुराइयों से बचा भी रहता है। 
दूसरी ओर, बालिकाओं के प्रति आज भी समाज में बरकरार असमानता की भावना बड़ी हद तक जिम्मेदार है। माता-पिता के मन में उसे पैदा करने से ही डर लगता है कि वह पैदा हो जाएगी तो उस ”लक्ष्मी“ के आने के बावजूद बधाइयां नहीं मिलेंगी। उसे, स्कूल-कालेज या कहीं भी अकेले भेजने में डर लगेगा। फिर उस ”पराए धन“ को कैसा घर-बर मिलेगा। और इस डर के कारण बेटियों को कोख में ही मार दिया जाता है। पैदा हो जाती है तो उसे यूं ”घर की इज्जत“ कहा जाता है, मानो वह हर दम दांव पर लगी रहती है। ससुराल में भी पह ”पराई“ ही रहती है, और उसे ”डोली पर आने“ के बाद ”अर्थी पर ही जाने“ की घुट्टी पिला दी जाती है कि वह कदम बाहर निकालने की हिमाकत न करे। बंधनों में कोई बंधा नहीं रहना चाहता। वह भी ”सारे बंधन तोड़कर उड़ने“ की कोशिश करती है। आज के दौर में पश्चिमीकरण की हवा में टीवी- सिनेमा और इंटरनेट उसकी ”उड़ानों को पंख“ देने का काम कर रहा है। इस हवा में उसका अचानक ”उड़ना“ बरसों से उसे कैद कर रखने वाला पुरुष प्रधान समाज कैसे बर्दास्त कर ले, यह भी एक चुनौती है। यह संक्रमण और तेजी से आ रहे बदलावों का दौर है। इसलिए विशेश सतर्क रहने की जरूरत है।
लिहाजा, यह कहा जा सकता है कि बलात्कार केवल एक शब्द नहीं, मानव मात्र पर एक अभिषाप है। इसके लिए किसी एक व्यक्ति, महिला या पुरुष, जाति, वर्ण, वर्ग को एकतरफा दोषी नहीं ठहराया जा सकता। भले ही एक व्यक्ति बलात्कार करता हो, लेकिन इसके लिए पूरा समाज, हम सब, हमारी व्यवस्था दोषी है। लिहाजा, इसके उन्मूलन के लिए चतुर्दिक व सामूहिक प्रयास करने होंगे। और यह सब हमारे हाथ में है, जब कहा जा रहा है कि दिल्ली की घटना के बाद पूरा देश जाग गया है। ऐसे में अच्छा न हो कि अदालत से इस एक मामले में चाहे जो और जब परिणाम आए, उसमें शायद समय भी लगे, उससे पूर्व ही हम सब मिलकर मानवता पर लगे इस दाग को हमेशा के लिए और जड़ से मिटा दें। 

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Monday, December 24, 2012

आखिर क्यों छोटे कपडे पहनती हैं महिलायें ?

कहीं ग्‍लोबलाइजेशन ने महिलाओं को छोटे वस्‍त्रों का गुलाम तो नहीं बना डाला है ?
दिल्ली में छात्रा से गेंग रेप की घटना के बाद दो स्तरों पर बहस चल रही है। पहला, बलात्कारियों को फांसी या और भी कोई कड़ी सजा दी जानी चाहिए और दूसरे महिलाओं के वस्त्रों को लेकर..., मेरा मानना है-'महिलायें क्या पहनें और क्या नहीं' की बहस में पड़ने से पहले जरा पीछे मुड़ें, सिर्फ लड़कियों को न समझाने लगें कि वह क्या पहनें और क्या नहीं.....।
हमारे यहाँ 'पहनने' को लेकर दो बातें कही गयी हैं, पहला 'जैसा देश-वैसा भेष', और दूसरा 'खाना अपनी और पहनना दूसरों की पसंद का होना चाहिए'। यानी हम चाहे महिला हों या पुरुष, उस क्षेत्र विशेष में प्रचलित पोशाक पहनें, और वह पहनें जो दूसरों को ठीक लगे...। 
यानी यदि हम गोवा या किसी पश्चिमी देश में, या बाथरूम में हों तो वहां 'नग्न' या केवल अंत वस्त्रों में रहेंगे तो भी कोई कुछ नहीं कहेगा, वैसे भी 'हमाम' में तो सभी नंगे होते ही हैं। लेकिन जब भारत में हों, या दुनियां में कहीं भी मंदिर-मस्जिद, गुरूद्वारे या चर्च जाएँ तो पूरे शरीर के साथ ही शिर भी ढक कर ही आने की इजाजत मिलती है...। हम मनुष्यों की दुनियां में खाने-पहनने के सामान्य नियम सभी देशों-धर्मों में कमोबेश एक जैसे होते हैं। हाँ, उस क्षेत्र के भूगोल के हिसाब से जरूर बदलाव आता है। गर्म देशों में कम और सर्द देशों में अधिक कपडे पहने जाते हैं। इसी तरह भोजन में भी फर्क आ जाता है।
और जहाँ तक महिलाओं के वस्त्रों की बात है, शालीनता उनका गहना कही जाती है। उन्हें किसी और से प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं कि वह किन वस्त्रों में शालीन लगती हैं, और किन में भड़काऊ। और उन्हें यह भी खूब पता होता है कि वह कोई वस्त्र स्वयं को क्या प्रदर्शित करने (शालीन या भड़काऊ) के लिए पहन रही हैं, और वह इतनी नादान भी नहीं होतीं और दूसरों, खासकर पुरुषों की अपनी ओर उठ रही नज़रों को पहली नजर में ही न भांप पायें, जिसकी वह ईश्वरीय शक्ति रखती हैं। बस शायद यह गड़बड़ हो जाती है कि जब वह 'किसी खास' को 'भड़काने' निकलती हैं तो उस ख़ास की जगह दूसरों के भड़कने का खतरा अधिक रहता है।
नैनीताल में घूमते सैलानी 
एक और तथा सबसे बड़ी गड़बड़ इस वैश्वीकरण (Globalization) और खास तौर पर पश्चिमीकरण ने कर डाली है, देश-दुनिया के खासकर शहरी लोगों में मन के रास्ते घुसकर वैश्वीकरण ने हमारे तन को भी गुलाम बना डाला है। इसकी पहली पहचान होती हैं-लोगों द्वारा पहने जाने वाले वस्त्र। दुनिया भर के लोगों को एक जैसे वस्त्र पहनाकर आज निश्चित ही वैश्वीकरण इतर रहा होगा। और हम, खासकर लड़कियां इसका सर्वाधिक दंस झेल रही हैं. नैनीताल जैसे पर्वतीय नगर में कड़ाके की सर्दी में युवतियों को कम वस्त्रों में ठिठुरते और इस वैश्वीकरण का दंस झेलते हुए आराम से देखा जा सकता है। ऐसे कम वस्त्रों में वह कुछ 'मानसिक और आत्मिक तौर पर कमजोर पुरुषों' को भड़का ही दें तो इसमें उनका कितना दोष ?
नैनीताल में घूमते सैलानी 
इधर कुछ समय से कहा जा रहा है की महिलाओं पर बचपन से ही स्वयं को पुरुषों के समक्ष आकर्षक बनाये रखने का तनाव बढ़ रहा है। मैं इस बारे में पूरे विश्वास से कुछ नहीं कह सकता, अलबत्ता यह भी वैश्वीकरण का एक और दुष्परिणाम हो सकता है...।
लिहाजा मेरा मानना है कि किसी समस्या की एकतरफा समीक्षा करने की जगह तस्वीर के दूसरे (हो सके तो सभी) पहलुओं को देख लेना चाहिए। दिल्ली जैसी घटनाएं रोकनी हैं, तो बसों से काली फ़िल्में हटाकर, बलात्कारियों को फांसी या उन्हें नपुंसक बना देने, पुलिस को कितना भी चुस्त-दुरुस्त बना देने से कोई हल निकने वाला नहीं है.. यदि समस्या का उपचार करना है तो इलाज सड़ रहे पेड़ के तने या पत्तियों से नहीं जड़ से करना होगा..देश की भावी पीढ़ियों-लडके-लड़कियों दोनों को बचपन से, घर से, स्कूल से संस्कारों की घुट्टी पिलानी होगी, जरूरी मानी जाये तो एक उम्र में आकर यौन शिक्षा और अपना भला-बुरा समझने की शिक्षा भी देनी होगी..।
यह भी पढ़ें: विदेशी वेबसाइटें बोल रहीं युवा पीढ़ी पर अश्लीलता का हमला
दिल्ली गेंग रेप केस: क्या सिर्फ बोलना काफी है......?

Thursday, December 20, 2012

दिल्ली गेंग रेप केस: क्या सिर्फ बोलने से रुक जायेंगे बलात्कार ?



दिल्ली में पैरा मेडिकल की छात्रा के साथ चलती बस में हुए गैंग रेप जैसे अमानवीय कृत्य के बाद आज हर कोई कह रहा है, बलात्कारियों को फांसी दो। सिने कलाकार अमिताभ बच्चन ने कहा है, आरोपियों को नपुंसक बना दो। मैं भी, आप भी, यह भी, वह भी, समाज का हर व्यक्ति, पुरुष, महिला, युवा, लड़के-लड़कियां, माता, पिता, भाई, बहन, बृद्ध, अधेड़ों के साथ अबोध बच्चे भी। पुलिस, प्रशासन, शिक्षक, मीडिया, फिल्मों के लोग भी, और अब तो स्वयं आरोपी भी कह चुके हैं कि उन्हें फांसी दे दो।

और हास्यास्पद कि, संसद में बैठे सांसद भी कह रहे हैं, ऐसे बलात्कारियों को फांसी दी जानी चाहिए। हास्यास्पद है, क्या उन्हें नहीं मालूम कि देश में बलात्कारियों को फांसी की सजा का प्राविधान नहीं है। और ऐसा प्राविधान, कानून में संसोधन केवल वही कर सकते हैं। और एसा कहने वाले लोग भी केवल कहने से आगे कुछ कर सकते हैं, क्या नहीं....?

दूसरी बात, कोई नहीं कह सकता कि दिल्ली की यह वारदात अपनी तरह की पहली या आखिरी वारदात है। यह भी कोई पूरे विश्वास से नहीं कह सकेगा कि बलात्कार पर फांसी या नपुंसक बनाने की सजा का प्राविधान हो जाए तो बलात्कार की घटनाओं पर रोक लग जाएगी। जैसे हत्या पर फांसी की सजा का प्राविधान है, लेकिन इस सजा से क्या हत्याओं पर रोक लग गई है ?

ऐसे में अच्छा न हो कि हम सब केवल बातें करने से इतर ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिए अपनी ओर से भी कुछ योगदान दें। ऐसी समस्या के मूल कारण तलाशें। हम माता, पिता, भाई-बहन या शिक्षक हैं तो अपने बच्चों को अच्छी नैतिक, चारित्रिक व संस्कारवान शिक्षा दें। मीडिया, फिल्मों, टीवी वाले या युवा लड़के, लड़कियां हैं तो अश्लीलता, उत्श्रृखलता से बचें, वस्त्रों, बात-व्यवहार में शालीनता बरतें। पुलिस, प्रशासन में हैं तो ऐसे आरोपियों को कड़ी सजा (मौजूदा कानूनों के कड़ाई से पालन से भी) दिलाएं। संसद में हैं तो ऐसे कड़े कानून बनाएं। और क्या-क्या कर सकते हैं, आप क्या सोचते हैं ?

Monday, May 17, 2010

तो उत्तराखण्ड ने सीख लिया नौकरशाहों पर लगाम लगाना !


  • `कमीशंड´ आईएएस अधिकारियों की जगह `प्रमोटेड´ अधिकारियों को दी `फील्ड´ की कमान
  • दोनों मण्डलों के आयुक्तों सहित आठ जिलों के डीएम व नौ के एसपी `उपकृत´ नौकरशाह
  • कभी मण्डल में आईसीएस अधिकारी होते थे तैनात, अब पीसीएस का दौर शुरू
नवीन जोशी, नैनीताल। नवोदित राज्य उत्तराखण्ड के राजनेताओं पर राज्य को नौकरशाहों के हाथों में सोंपने और उनके हाथों में खेलने के आरोप लगते रहते हैं। लेकिन लगता है राज्य के राजनेताओं ने इस समस्या का निदान ढूंढ लिया है। परेशानी सीधे आऐ `कमीशंड´ आईएएस अधिकारियों के सामने कम ज्ञान के राजनेताओं की `न चलने´ से थी, सो राज्य को देश का `भाल´ बनाने में जुटी राज्य की निशंक सरकार ने इसके तोड़ में प्रशासनिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण राज्य के `फील्ड´ के पद पहले से `उपकृत´ प्रमोटेड आईएएस अधिकारियों को सोंप दिऐ हैं। इसे  जनता से सीधे जुड़े प्रशासन व पुलिस के कार्य अनुभवी हाथों को देने की नयी पहल बताया जा रहा है। प्रदेश के 13 जिलों व दो मण्डलों के 30 सर्वोच्च पदों में से केवल नौ पद सीधे कमीशन से चुने गऐ नौकरशाहों के हाथ में हैं, जबकि शेष 20 पद अनुभवी पदोन्नत अधिकारियों के हाथ में दिऐ गऐ हैं। कुमाऊं मण्डल में तो हालात यह हैं कि यहाँ पुलिस व प्रशाशन के 14 पदों में से 12 पर पदोन्नत अधिकारी तैनात किये गए हैं. 
कुमाऊं के मण्डल मुख्यालय से ही बात शुरू करें तो आजादी से पूर्व तक यहां जिले की जिम्मेदारी भी `डिप्टी कमिश्नर´ यानी उपायुक्त को सोंपी जाती थी, जो आइसीएस (भारतीय सिविल सेवा) अधिकारी होते थे। नैनीताल जिले आईसीएस अधिकारी डब्लू ई बाब्स 1927 में पहले डिप्टी कमिश्नर थे। देश की आजादी यानी 1947 तक यहां आईसीएस अधिकारी ही कार्यरत रहे। एमए कुरैशी जिले के 15वें डिप्टी कमिश्नर के रूप में आखिरी आईसीएस अधिकारी थे। 1948 में आरिफ अली शाह से यहां आईएएस (भारतीय प्रशासनिक सेवा के)अधिकारियों के आने का सिलसिला शुरू हुआ जो वर्तमान में 58 जिलाधिकारियों तक चल रहा है। इसी तरह मण्डलायुक्त पद की बात करें तो 1952 तक आईसीएस अधिकारी ही यहां आयुक्त के पद पर कार्यरत रहे। केएल मेहता आजादी के बाद मण्डल के पहले आयुक्त थे, जो 1948 तक रहे, उनके बाद 1952 तक रहने वाले आरटी शिवदासानी दूसरे आईसीएस आयुक्त थे। तीसरे आयुक्त राम रूप सिंह से यहां आईएएस अधिकारियों के आने का सिलसिला शुरू हुआ जो मण्डल के 35वें आयुक्त एस राजू तक जारी रहा। इधर 1994 बैच के प्रोन्नत आईएएस अधिकारी कुणाल शर्मा को मण्डल के 36वें आयुक्त की जिम्मेदारी मिली है। श्री शर्मा 1976 बैच के पीसीएस अधिकारी हैं। मंडल के ही दूसरे पुलिस के सर्वोच्च पद I.G. कुमाऊं जीवन चन्द्र पाण्डेय भी प्रमोटेड I.A.S. अधिकारी ही हैं.  अब बात जिलों की। मण्डल में नैनीताल डीएम शैलेश बगौली एवं अल्मोड़ा के एसपी वीके कृष्णकुमार के अतिरिक्त सभी जिलों में डीएम एवं एसपी, एसएसपी पदोन्नत आईएएस अथवा आईपीएस अधिकारी हैं। उधर ढ़वाल मण्डल के आयुक्त की जिम्मेदारी भी कुमाऊं आयुक्त 1994 बैच के आईएएस अधिकारी अजय नबियाल को मिली है, जबकि मण्डल के देहरादून, उत्तरकाशी, चमोली व टिहरी जिलों के डीएम तथा रुद्रप्रयाग, पौड़ी एवं हरिद्वार जिलों के पुलिस अधीक्षक भी पदोन्नत पुलिस अधिकारी ही हैं। 
इस सब के पीछे यह माना जा रहा है कि एक तो पदोन्नत आईएएस अधिकारी सरकार की कृपा पर ही पदोन्नत होते हैं, इसलिए वह सीधे आऐ आईएएस अधिकारियों की तरह सरकार से अलग नहीं जा पाते। उनके तेवरों में भी काफी अन्तर होता है। सत्ता पक्ष के राजनेता उनसे वह काम करा सकते हैं, जिन्हें आईएएस अधिकारियों से कराना अक्सर `टेढ़ी खीर´ साबित होता है। परंपरा रही है कि सीधे आऐ तेजतर्रार आईएएस अधिकारियों को ही `फील्ड´ के डीएम व आयुक्त जैसे पद दिऐ जाऐं, जबकि सचिवालय में अधिक गम्भीरता से निर्णय लेने के लिए `दीर्घकालीन योजनाकारों´ के रूप में पदोन्नत आईएएस अधिकारियों को सचिवालय में रखा जाता है। लेकिन इधर सीधे आऐ आईएएस अधिकारियों को परंपरा से उलट सचिवालय के कम महत्वपूर्ण विभागों के `आइसोलेशन´ में डाल दिया गया है। इस नई कवायद को राज्य में ताकतवर मानी जाने वाली `आईएएस लॉबी´ के `पेट में लात' माना जा रहा सो जल्द उनके 'पेट में दर्द´ शुरू हो सकता है। इस बाबत सत्तारुड़ दल के नेताओं की सुनें तो उनका कहना है कि पदोन्नत अधिकारी अपने राज्य के हैं, सो वह जनता के दुःख-दर्द अधिक दूर कर सकते हैं, जबकि विपक्षी नेताओं का कहना है कि यह सत्तारुड़ों के लिए वसूली अच्छी करते हैं, साथ ही जैसे चाहो हंक जाते हैं, I.A.S. अधिकारियों की तरह 'दुलत्ती' नहीं मारते।  बहरहाल, आगे राजनेताओं व नौकरशाहों के इस `द्वन्द्व´ को खुलकर मैदान में आते देखना रोचक हो सकता है। इस बाबत राज्य के एक वरिष्ठ I.A.S. का कहना था कि राज्य सरकार की यह कवायद भाजपा सरकार के 'मिशन 2012' का हिस्सा है। सरकार को लगता है कि पदोन्नत अधिकारियों को अपने तरीके से हांक कर मां मांफिक कार्य करवा लिए जाएँ. अधिकारी भाजपाईयों की सुनें. लेकिन इसी अधिकारी का कहना था कि सरकार का यह दांव शर्तिया उलटा पड़ने वाला है। जिलों व मंडलों के  I.A.S. अधिकारी अपने प्रभाव से शासन में बैठे अपने से कमोबेश कम वरिष्ठ इन मूलतः पीसीएस  अधिकारियों से करा लिया करते थे, किन्तु अब स्थिति उल्टी होने से जिले व मंडल बेहद कमजोर हो जायेंगे, और उनके कार्य शासन में अटके रहेंगे। अपनी उपेक्षा से क्षुब्ध होने के कारण भी वे 'बिशन' (सिंह चुफाल-भाजपा अध्यक्ष) के  'मिशन 2012' को कभी सफल न होने देने की कसमें खा रहे हैं।

Wednesday, May 12, 2010

देश की 196 भाषाओं के साथ कुमाउनीं व गढ़वाली भी खतरे की जद में

नवीन जोशी, नैनीताल। भाषाओं को न केवल संवाद का माध्यम वरन संस्कृतियों का संवाहक भी माना जाता है। किसी देश की शक्ति उसकी भाषा की प्राचीनता के साथ ही उसके बोलने वाले लोगों की संख्या से भी आंकी जाती है, लेकिन `ग्लोबलाइजेशन´ के वर्तमान दौर में दुनिया भर की भाषाऐं स्वयं को खोकर अन्य में समाती जा रही हैं। इसमें भी भारत के लिए अधिक चिंताजनक बात यह है कि गंगा जैसी सदानीरा नदियों के साथ ही संस्कृतियों के उदगम स्थल कहे जाने वाले हिमालयी राज्यों में भाषाएँ सर्वाधिक तेजी से असुरक्षित होती जा रही हैं.  देश का `भाल´ उत्तराखंड भी इसमें अपवाद नहीं है. बात उत्तराखंड से ही शुरू की जाए तो यहाँ यह पक्ष भी उजागर होता हैं कि भले यह प्रदेश अपने संवाद के प्रमुख माध्यम कुमाउनीं व गढ़वाली को `बोलियों´ से ऊपर `भाषा´ मानने तक को भले तैयार न हो, किन्तु सात समुन्दर पार संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन यानी 'यूनेस्को' ने इन भाषाओं के लिए खतरे की घंटी बजा दी है। यूनेस्को ने राज्य की कुमाउनीं, गढ़वाली के साथ ही रांग्पो भाषाओं को `वलनरेबले´ यानी भेद्य श्रेणी में रखा है, जिसका अर्थ यह हुआ कि इन भाषाओं पर ख़त्म होने का सर्वाधिक खतरा है। इसके पीछे संभवतया यह कारण प्रमुख हो कि इन भाषाओं के बोलने वाले इन्हें छोड़कर अन्य भाषाओं के प्रति अधिक आसानी से आकर्षित हो सकते हैं. इनके साथ ही राज्य की दारमा व ब्योंग्सी भाषाओं को `निश्चित खतरे´ तथा वांगनी को `अति गम्भीर खतरे´ वाली भाषाओं की श्रेणी में रखा गया है।
  • हिमालयी राज्यों की भाषाओं को है अधिक खतरा
  • यूनेस्को ने उत्तराखण्ड की 'रांग्पो' को भेद्य तथा 'दारमा' व 'ब्योंग्सी' को निश्चित व 'वांगनी' को अति गम्भीर खतरे में माना
यूनेस्को द्वारा अपनी वेबसाइट पर ताजा अपडेट की गई जानकारी के अनुसार कुमाउनीं भाषा 23 लाख 60 हजार लोगों द्वारा बोली जाती है। इस भाषा को बोलने वाले लोग उत्तराखण्ड के अलाव उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आसाम, बिहार और पड़ोसी देश नेपाल में भी हैं। यानी यनेस्को के सवेक्षण के दौरान इन क्षेत्रों के लोगों ने भी स्वयं को कुमाउनीं भाषा भाषी बताया है। मालूम हो कि कुमाउनी चन्द शासनकाल में राजभाषा रही है। इसकी शब्द सामर्थ्य दुनिया की समृध्हतम भ्हषाओं से भी अधिक है. उदाहरनार्थ अंगरेजी में केवल शब्द के लिए हिंदी में बू,  खुसबू व बदबू आदि शब्द हैं तो कुमाउनी में अलग-अलग 'बू' के लिए किडैनी, हन्तरैनी, स्योंतैनी, बॉस, चुरैनी जैसे दर्जनों शब्द मौजूद है.  इसके अलावा यूनेस्को ने गढ़वाली भाषा बोलने वालों की संख्या 22 लाख 67 हजार 314 आंकी गई है। `भेद्य´ श्रेणी  में ही प्रदेश के चमोली जनपद में आठ हजार लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा रॉग्पो को भी रखा गया है, देश की कुल 82 भाषाऐं भी इस श्रेणी में हैं। इसके अतिरिक्त देश की 62 भाषाएँ  `डेफिनिटली इनडेंजर्ड´ यानी `निश्चित खतरे´ की श्रेणी में रखी गई हैं, जिनमें उत्तराखण्ड की अल्मोड़ा व पिथौरागढ़ जिलों तथा नेपाल के दार्चूला  जिले में बोली जाने वाली `दारमा´ एवं महाकाली नदी घाटी क्षेत्रा में बोली जाने वाली भाषा `ब्योंसी´ को रखा गया है, जिसके बोलने वालो की संख्या क्रमश: 1,761 व 1,734 बताई गई है। इससे आगे की श्रेणी `अति गम्भीर´ में भी देश की 41 भाषाओं के साथ गढ़वाल मण्डल की `वांगनी´ को रखा गया है, जिसे बोलने वालों की संख्या 12 हजार आंकी गई है। अन्तिम श्रेणी `विलुप्त´ हो चुकी भाषाओं की है। इसमें देश की पांच भाषाऐं पूर्वोत्तर की अहोम, अण्डरो व सेंगमाई के साथ उत्तराखण्ड की तोहचा व रंगकास भी शामिल हैं। 
श्रीलंका सबसे भाग्यशाली
भाषाओं के खतरे में न जाने के मामले में भारतीय उपमहाद्वीप में सर्वाधिक परिवर्तन भारत में ही हुऐ हैं। यहां 196 भाषाओं पर खतरे की छाया पड़ी है, जबकि श्रीलंका स्वयं की भाषाओं को बचाने में सर्वाधिक भाग्यशाली रहा है। यहां की केवल एक भाषा इस जद में है। जबकि पड़ोसी देशों पाकिस्तान की 27 व नेपाल की 71 भाषाऐं विभिन्न श्रेणियों में खतरे में है। उधर अपनी भाषा को सर्वाधिक महत्व देने के लिए पहचाने जाने वाले जापान की केवल आठ भाषाऐं ही इस श्रेणी में हैं। 
खास बात यह है कि देश की जिन कुल 196 भाषाओं को इन विभिन्न श्रेणियों में रखा गया है, उनमें दक्षिण भारत की तकरीबन केवल एक दर्जन भाषाओं के अतिरिक्त कुछ उड़ीसा तथा शेष  तकरीबन 85 फीसद पूर्वोत्तर के सात राज्यों सहित उत्तराखण्ड, हिमांचल, जम्मू व कश्मीर तथा सिक्किम आदि हिमालयी राज्यों की हैं। यानी हिमालयी राज्यों से ही अधिकांश भाषाऐं खतरे की जद में जाती जा रही हैं। विशेशज्ञों की मानें तो अभी हाल तक इन्हीं राज्यों ने अपनी मूल भाषाओं को सम्भाल कर रखा था, किन्तु बीते दशक में यही भाषाओं के संक्रमणकाल में सर्वाधिक प्रभावित हुऐ और अपनी भाषाओं को बचाऐ न रख सके, जबकि अन्य राज्यों में भाषाओं का किसी एक भाषा में सिमटना पहले ही हो चुका था। 
यह कर सकते हैं:-
देश-प्रदेश में 'भारतीय जनगणना २०११'  चल रही है. इसमें अपनी मातृ-भाषा गढ़वाली / कुमाऊंनी लिखी जा सकती है. इस तरह और कुछ नहीं तो अपनी दुदबोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूचि में स्थान दिलाया जा सकता है. 
(अधिक जानकारी यहाँ देखें: http://www.facebook.com/pages/garhavali-kumaunni-ko-matr-bhasa-ke-rupa-mem-likhembharatiya-janaganana-2011-mem-l/113347272038036?ref=mf)


(देश-दुनिया की असुरक्षित भाषाओं के बारे में अधिक जानकारी यहाँ देखें: http://www.unesco.org/culture/ich/index.php?pg=00206)