च्यूरा का वृक्ष |
मन कही यानी मन की कही..... यहाँ हैं सम सामयिक मुद्दों पर मेरे मन के विचार और समस्याओं पर मेरे दृष्टिकोण..., साथ ही देवभूमि उत्तराखंड की मिट्टी की सौंधी सुगंध और अपनी दुदबोलियों की मिठास भी.... अब इस ब्लॉग को http://www.navinsamachar.com/ पर देखें )
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Wednesday, December 11, 2013
पहाड़ का कल्पवृक्ष है इंडियन बटर ट्री-च्यूरा
Tuesday, September 3, 2013
दो टूक : आजादी के 66 वर्ष बाद आजादी से पूर्व जैसे हालात
1.कांग्रेस के नाम खुला पत्र: कांग्रेसी आन्दोलन क्या जानें....
2. नैनीताल हाईकोर्ट ने सीबीआई की यूं की बोलती बंद
3. अमेरिका, विश्व बैंक, प्रधानमंत्री जी और ग्रेडिंग प्रणाली
4. जनकवि 'गिर्दा' की दो एक्सक्लूसिव कवितायें
5. कौन हैं अन्ना हजारे ? क्या है जन लोकपाल विधेयक ?
6. नीरो सरकार जाये, जनता जनार्दन आती है
7. यह युग परिवर्तन की भविष्यवाणी के सच होने का समय तो नहीं ?
Monday, August 19, 2013
सत्याग्रह की जिद पर गांधी जी को भी झुका दिया था डुंगर ने
Monday, August 12, 2013
वो भी क्या दिन थे.....
ठीक से तो याद नहीं, मेरी जन्म तिथि शायद सन् 1917 की रही होगी। 1917 इसलिऐ क्योंकि सन् 1946 के आसपास जब मैं अंग्रेजों की फौज (द्वितीय विश्व युद्ध की ब्रिटिश आर्मी-द ट्वेल्थ फ्रंटियर फोर्स रेजीमेंट सियालकोट (वर्तमान पाकिस्तान) में 03.05.1945 से 16.07.1946 तक सिपाही 3429418 के रूप में) में भर्ती हुआ था, तब मेरी उम्र करीब 29 वर्ष थी। मेरी शादी हो चुकी थी, और पहली सन्तान होने को थी। बड़े भाई ने मेरे खिलाफ पिता के कान भरे थे, जिस पर पिता ने एक दिन डपट दिया। बस क्या था, मैं घर से निकल भागा। तब गरुड़ तक ही सड़क थी, और हमारा गांव ‘तोली’ (पोथिंग) पिण्डारी ग्लेशियर के यात्रा मार्ग पर पड़ता था। मैं सुबह तड़के घर से भागकर जगथाना के रास्ते से गरुड़ के लिए निकल पड़ा। शाम तक वज्यूला गांव पहुंच गया, वहां मेरे ममेरे भाई की ससुराल थी। रात्रि में वहीं रुका। सुबह बस पकड़ी और नैनीताल के लिए चल पड़ा। वहां नैनीताल में मेरे जेठू अंबा दत्त, मोटर कंपनी में ‘मोटर मैन’ थे। चलते ही ममेरे भाई ने ताकीद कर दी थी, गेठिया में बस से उतर जाना, वहां से नैनीताल पास ही होता है। सीधे नैनीताल जाओगे तो वहां ‘टैक्स’ देना पड़ेगा। तब अक्सर लोग चार आने के करीब पड़ने वाले टैक्स को बचाने के लिए ऐसे यत्न आम तौर पर करते थे। मैंने भी ऐसा ही किया। गेठिया से नैनीताल के लिए करीब दो किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई थी। पर उस जमाने में जब पैदल चलना आम होता था, यह दूरी नगण्य ही मानी जाती थी।
खैर, मैं नैनीताल पहुंच गया। जेठू जी से मिला, उनके घर रहा। दूसरे दिन मुझे घर पर बैठे रहने को कह कर जेठू काम पर चले गऐ, लेकिन मैं अकेला ही बाहर निकल गया। गांव से पहली बार घर से निकला था, पर किसी तरह की झिझक मुझमें नहीं थी। देखा, तल्लीताल में अंग्रेजों की सेना के लिए भर्ती चल रही थी। मैं भी भर्ती प्रक्रिया में शामिल हो गया। वजन आदि लिया गया। आगे मेडिकल जांच के लिए नऐ रंगरूटों (रिक्रूटों) को पैदल अल्मोड़ा जाने की बात हुई। अंग्रेजी न जानने के बावजूद मुझमें अंग्रेजों से बात करने में कोई झिझक नहीं थी। अंग्रेज भी कोई ‘हिटलर’ जैसे न थे। मैंने कह दिया, अंग्रेज साहब तुम्हें भी साथ में पैदल चलना पड़ेगा, तभी जाऐंगे। उन्हें भी कोई आपत्ति नहीं हुई। तब अल्मोड़ा के लिए सीधे सड़क नहीं थी। गरमपानी से रानीखेत व कोसी होते हुऐ अल्मोड़ा के लिए रास्ता था। हम लोग सुयालबाड़ी के गधेरे से होते हुऐ पैदल रास्ते से अल्मोड़ा पहुंचे। कमोबेश इसी पैदल रास्ते से आज की सड़क बनी है। मेडिकल प्रक्रिया में शामिल हुआ। वहां साथ गऐ सभी रिक्रूटों में से केवल मैं भर्ती हुआ। अन्य ‘टेस्ट’ में कोई आंख न दिखाई देने, तो कोई न सुनाई देने जैसी बातें बताकर बाहर हो गये थे। बाद में पता चला कि यह लोग बहाने करते थे। वह बहुत गरीबी का जमाना था। भर्ती प्रक्रिया के दौरान खाने को पूड़ियां और वापसी पर दो रुपऐ मिलते थे, जिसके लालच में लड़के भर्ती होने आते थे, और बहाने बनाकर दो रुपऐ लेकर वापस लौट आते थे। मुझे यह पता न था। मुझसे अंग्रेज अफसर ने पूछा, तुम्हें कोई परेशानी नहीं है। मैंने दृढ़ता से कहा, ‘नहीं, मैं लड़ने आया हूं। कुछ परेशानी होती तो क्यों आता ?’ अफसर मुझसे बहुत प्रभावित हुआ। कहा, ‘तुम भर्ती हो गऐ हो। सियालकोट (पाकिस्तान) पोस्टिंग हुई है। वहीं ज्वाइनिंग लेनी होगी।’ रास्ते के खर्च के लिए चार रुपऐ दिऐ। तब आठ आने यानी 50 पैंसे में अच्छा खाना मिल जाता था। काठगोदाम तक साथ में एक आदमी भेजा, और रास्ते के बारे में बताकर अकेले सियालकोट भेज दिया। मैंने उससे पूर्व ट्रेन क्या बस भी नहीं देखी थी, पर मैं निर्भीक होकर रुपऐ ले खुशी-खुशी चल पड़ा।
ट्रेन से पहले बरेली, वहां से ट्रेन बदलकर मुरादाबाद, और वहां से एक और ट्रेन बदलकर सीधे सियालकोट पहुंच गया। वहां गर्मी के दिन थे, पहुंचते ही पोस्टिंग ले ली। तुरन्त मलेशिया की बनी नई ड्रेस मिल गई। अपने इलाके के और रिक्रूट मिल गऐ। मुझे देखकर खुश हो गऐ। मैं उनसे अधिक उम्र का था, और डील डौल में भी बड़ा, लिहाजा पहुंचते ही उन्होंने मेरी अच्छी सेवा की। वहां हिन्दू और मुस्लिम हर तरह के सिपाही थे, सबमें अच्छा दोस्ताना था। बस दोनों की ‘खाने की मेस’ अलग-अलग होती थी। छह माह के भीतर गोलियां चलाने की ट्रेनिंग शुरू हो गई। इस हेतु 600 गज में चॉंदमारी (गोलियां चलाने की ट्रेनिंग का स्थान) बनाई गई थी। मैंने जिन्दगी में पहला फायर झोंका, बिल्कुल निशाने पर। अंग्रेज अफसर से शाबासी मिली। फिर दूसरा, तीसरा.....कर पूरे दस, सब के सब ठीक निशाने पर। साथियों और अफसरों में मैं हीरो हो गया। सबसे शाबासी मिली। मेरा खयाल रखा जाने लगा। लेकिन फौज में एक वर्ष ही हुआ होगा, कि आजाद हिन्द फौज के सिपाही आ गऐ। अंग्रेजों के उनके सामने पांव उखड़ गऐ। लिहाजा, हमारी ‘फौज’ टूट गई। आजादी का वक्त आ गया। हमसे कहा गया कि ‘सेकेण्ड कुमाऊं रेजीमेंट’ खुल गई है। वहां चले जाओ। सीधे घर जाने पर 120 रुपऐ मिलने थे, और ‘सेकेण्ड कुमाऊं रेजीमेंट’ में जाने पर यह 120 रुपऐ खोने का खतरा था। तब अक्ल भी नहीं हुई। 120 रुपऐ बहुत होते थे, घर की परिस्थितियां भी याद आईं। लालच में आ गया। सीधे घर चला आया। 120 रुपऐ से गांव में चाचा की जमीन खरीद ली, जबकि शान्तिपुरी भाबर में 210 रुपऐ में 120 नाली जमीन और जंगल काटने के लिए हथियार मिल रहे थे। लेकिन अपनी मिट्टी के प्यार ने वहां भी नहीं जाने दिया। तभी से अपनी मिट्टी को थामे हुऐ पहाड़ में जमा हुआ हूं।
(दादाजी स्वर्गीय श्री देवी दत्त जोशी जी से बातचीत के आधार पर, वह गत 8 अगस्त 2013 को मोक्ष को प्राप्त हो गए ) -नवीन जोशी, नैनीताल।
Wednesday, June 26, 2013
देवभूमि को आपदा से बचा सकता है "नैनीताल मॉडल"
इधर आपदा प्रबंधन एवं न्यूनीकरण केंद्र (डीएमएमसी) के अध्ययन "स्लोप इनस्टेबिलिटी एंड जियो-एन्वायरमेंटल इश्यूज ऑफ द एरिया अराउंड नैनीताल" के मुताबिक नैनीताल को 1880 से लेकर 1893, 1898, 1924, 1989, 1998 में भूस्खलन का दंश झेलना पड़ा। 18 सितम्बर 1880 में हुए भूस्खलन में 151 व 17 अगस्त 1898 में 28 लोगों की जान गई थी। इन भयावह प्राकृतिक आपदाओं से सबक लेते हुए अंग्रेजों ने शहर के आसपास की पहाड़ियों के ढलानों पर होने वाले भूधंसाव, बारिश और झील से होने वाले जल रिसाव और उसके जल स्तर के साथ ही कई धारों (प्राकृतिक जलस्रेत) के जलस्रव की दर आदि की नियमित मॉनीटरिंग करने व आंकड़े जमा करने की व्यवस्था की थी। यही नहीं प्राकृतिक रूप से संवेदनशील स्थानों को मानवीय हस्तक्षेप से मुक्त रखने के लिए कई कड़े नियम कानून बनाए थे। मगर आजादी के बाद यह सब ठंडे बस्ते में चला गया। शहर कंक्रीट का जंगल होने लगा। पिछले पांच वर्षो में ही झील व आस-पास के वन क्षेत्रों में खूब भू-उपयोग परिवर्तन हुआ है और इंसानी दखल बढ़ा है। नैनीझील के आसपास की संवेदनशील पहाड़ियों के ढालों से आपदा के मानकों की धज्जियां उड़ाते हुए गंभीर छेड़छाड़ की जा रही है। पहाड़ के मलबों को पहाड़ी ढालों से निकलने वाले पानी की निकासी करने वाले प्राकृतिक नालों को मलबे से पाटा जा रहा है। नैनी झील के जल संग्रहण क्षेत्रों तक में अवैध कब्जे हो रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद सरोवरनगरी में अवैध निर्माण कार्य अबाध गति से जारी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इन क्षेत्रों में हुए सूक्ष्म बदलाव भी नैनी झील के वजूद के लिए खतरा बन सकते हैं।
Sunday, May 26, 2013
बिनसर: प्रकृति की गोद में प्रभु का अनुभव
कत्यूरी राजाओं द्वारा निर्मित बिन्सर महादेव मंदिर |
बिन्सर में नेचर वॉक |
कुमाऊं मंडल विकास निगम का पर्यटक आवास गृह |
Thursday, April 18, 2013
बसने के चार वर्ष के भीतर ही देश की दूसरी पालिका बन गया था नैनीताल
- 1841 में पहला भवन पीटर बैरन का पिलग्रिम हाउस बनना शुरू ।
- तल्लीताल गोरखा लाइन से हुई बसासत की शुरूआत।
- 1845 में मेजर लूसिंग्टन, 1870 में जे मैकडोनाल्ड व 1845 में एलएच रॉबर्टस बने पदेन अध्यक्ष।
- 1891 तक कुमाऊं कमिश्नर होते थे छह सदस्यीय पालिका बोर्ड के पदेन अध्यक्ष व असिस्टेंट कमिश्नर उपाध्यक्ष।
- 1891 के बाद डिप्टी कमिश्नर (डीसी) ही होने लगे अध्यक्ष।
- 1900 से वैतनिक सचिव होने लगे नियुक्त, बोर्ड में होने लगे पांच निर्वाचित एवं छह मनोनीत सदस्य।
- 1921 से छह व 1927 से आठ सदस्य होने लगे निर्वाचित।
- 1934 में आरई बुशर बने पहले सरकार से मनोनीत गैर अधिकारी अध्यक्ष (तब तक अधिकारी-डीसी ही होते थे अध्यक्ष)।
- 1941 में पहली बार रायबहादुर जसौत सिंह बिष्ट जनता से चुन कर बने पालिकाध्यक्ष।
- 1953 से राय बहादुर मनोहर लाल साह रहे पालिकाध्यक्ष।
- 1964 से बाल कृष्ण सनवाल रहे पालिकाध्यक्ष।
- 1971 से किशन सिंह तड़ागी रहे पालिकाध्यक्ष।
- 1977 से 1988 तक डीएम के हाथ में रही सत्ता।
- 1977 तक बोर्ड सदस्य कहे जाते थे म्युनिसिपल कमिश्नर, जिम कार्बेट भी 1919 में रहे म्युनिसिपल कमिश्नर।
- 1988 में अधिवक्ता राम सिंह बिष्ट बने पालिकाध्यक्ष।
- 1994 से 1997 तक पुन: डीएम के हाथ में रही सत्ता।
- 1997 में संजय कुमार :संजू", 2003 में सरिता आर्या व 2008 में मुकेश जोशी बने अध्यक्ष।
Sunday, March 17, 2013
इस साल समय पर खिला राज्य वृक्ष बुरांश, क्या ख़त्म हुआ 'ग्लोबलवार्मिंग' का असर ?
यह भी पढ़ें : `जंगल की ज्वाला´ संग मुस्काया पहाड़..
कफुवा , प्योंली संग मुस्काया शरद, बसंत शंशय में
Sunday, February 17, 2013
बलात्कार, मीडिया, सरकार, समाज और समाधान..
समस्याएं थोपी तो नहीं जा रहीं ?
हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या क्या है ? बीते वर्ष पूरे देश को झकझोरने वाले दिल्ली गैंग रेप और हालिया बदायूं में दो बहनों की बलात्कार के बाद पेड़ पर लटका दिए जाने की घटनाओं के आलोक में यदि इस प्रश्न का जवाब देश के बच्चों से पूछा जाए तो उनमें अनेक बच्चों का भी जवाब होगा-बलात्कार।ऐसा क्यों है ? निस्संदेह, बलात्कार एक राष्ट्रीय कोढ़ जैसी समस्या है, और इस समस्या के कारण देश की महिलाओं, युवतियों, किशोरियों और यहां तक कि तीन-चार वर्ष की बच्चियों के साथ ही पूरे देश को पड़ोसी देशों के साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ में तक शर्मसार होना पड़ा है। पर बच्चों के भी दिल-दिमाग में भी बलात्कार जैसा विषय क्यों ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम नहीं कोई और हमारी समस्याएं तय कर रहा है, या समस्याएं तय कर हम पर थोप रहा है।
विगत वर्षों में पहले केंद्र और दिल्ली सरकार के राष्ट्रमंडल खेलों, टूजी स्पेक्ट्रम सहित अनेकानेक घोटाले ‘देश’ की चिंता का सबब बने रहे। बाबा रामदेव ने दल-बल के साथ देश का काला धन देश में वापस लाने के आह्वान के साथ दिल्ली कूच किया तो काला धन से अधिक बाबा रामदेव देश की मानो समस्या हो गए। खबरिया चैनल दिल्ली में उनके प्रवेश से लेकर मंत्रियों द्वारा समझाने, फिर उनके मंच पर उपस्थित चेहरों, इस बीच आए समझौते के पत्र, रात्रि में हुए लाठीचार्ज और महिलाओं के वस्त्रों में रामदेव के दिल्ली से वापस लौटने की कहानी में काला धन का मुद्दा कहीं गुम ही हो गया। फिर अन्ना हजारे जन लोकपाल के मुद्दे पर दिल्ली आए तो यहां भी कमोबेश जन लोकपाल की जरूरत से अधिक अन्ना की गिरफ्तारी, उनके अनशन के एक-एक दिन बीतने के साथ उनके स्वास्थ्य की चिंता जैसी बातें देश की समस्या बन गईं, और इन समस्याओं को लेकर कथित तौर पर ‘पूरा देश’ ‘जाग’ भी गया। फिर अन्ना टीम में बिखराव व मतभेद पर ‘देश’ चिंतित रहा। आखिरकार केजरीवाल के ‘आम आदमी पार्टी’ बनाने के बाद ‘देश’ की चिंता कुछ कम होती नजर आई। लेकिन बीते वर्ष के आखिर में दिल्ली में पैरामेडिकल छात्रा के साथ चलती बस में हुई गैंग रेप की घटना ने तो मानो देश को झंकायमान ही करके ही रख दिया।
इन सभी घटनाक्रमों के पीछे क्या चीज ‘कॉमन’ थी। एक-दिल्ली, दो-इन घटनाओं को जनता तक लाने वाला मीडिया, तीन-सरकार और चार-आक्रोशित आम आदमी।
क्या है इन चारों का आपसी संबंध ? दिल्ली निस्संदेह देश की राजधानी और देश का दिल है। लेकिन क्यों केवल दिल्ली की खबरें ही हमारी चिंता का सबब बनती हैं। क्या बाकी देश की कोई समस्याएं नहीं हैं। क्या बलात्कार देश भर में नहीं हो रहे। क्या देश में महंगाई, भूख, गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण और भ्रष्टाचार जैसी अनेकानेक समस्याएं नहीं हैं। यदि हैं, क्या कहीं कोई बड़ी गड़बड़ तो नहीं है। मीडिया क्यों नहीं गांवों में आ सकता। क्यों उत्तराखंड के लालकुआं में ऑफिस कर्मी युवती के साथ बलात्कार के बाद उसके प्राइवेट नाजुक अंगों में रुपए व पेन आदि ठूंसने और उत्तराखंड के पहले करीब चार दर्जन लोगों की डीएनए जांच के बाद रिस्ते के फूफा के ही 13 बर्षीय बच्ची की बलात्कार बाद हत्या करने के मामले की खबरंे राष्ट्रीय मीडिया की ‘पट्टी’ में भी नहीं आती। यह टीआरपी के नाम पर जो चाहे दिखाने, और उसी को राष्ट्रीय चिंता व समस्या बना देने का कोई खेल तो नहीं है।
ऐसे में सवाल उठता है कि कहीं हम पर समस्याएं थोपी तो नहीं जा रही हैं। कि लो, अभी कुछ दिन यह समस्या लो, इससे बाहर कुछ ना सोचो। थोड़े दिन बाद, अब इस समस्या की घुट्टी पियो, और थोड़े दिन बाद अगली समस्या का काढ़ा पियो और अपनी वास्तविक समस्याओं को भूलकर मस्त रहो। यह कोई साजिश तो नहीं चल रही कि देश भर के लोगों की भावनाओं को चाहे जिस तरह से भड़काओ, और उनसे अपने लिए माल-मत्ता समेटो। लोगों की भावनाओं का बाजार सजा दो। देश की वास्तविक समस्याओं से लोगों का ध्यान भटका दो, और अपनी ऐश काटो। कोई बलात्कार जैसी समस्याओं का भी व्यापार तो नहीं कर रहा कि अभी मोदी अपनी जीत को ‘हैट्रिक-हैट्रिक’ कहते हुये बहुत उछल रहा है। अच्छा हुआ, बलात्कार हो गया, इसी गोटी से घोड़े को पीट डालो। रामदेव को महिलाओं के वस्त्र पहनाकर, अन्ना को केजरीवाल अलग करवाकर और केजरीवाल को राजनीति में लाकर पहले ही पीट चुके है। शतरंज की बिसात पर कोई बचना नहीं चाहिए। राजनीति में इतना दम है कि प्यांदे से राजा को ‘शह-मात’ दे दें।
कौन कर सकता है ऐसा ? मीडिया और सरकार ? मीडिया ने निस्संदेह एक हद तक शहरी और कस्बाई जनता को जगा दिया है। वहीं सरकार और राजनीतिक दलों को मीडिया से दूर सोई जनता को जगाने का हुनर मालूम है। वह चुनाव के दिन मीडिया से कोसों दूर, सोई जनता को जगाकर मतदान स्थल तक ले जाने और अपने पक्ष में वोट डलवाने में सफल होते हैं। अच्छा हो वह एक दिन के बजाए रोज के लिए इस पूरी जनता को जगा दें। और जो एक चौथाई लोग कथित तौर पर मीडिया और सोशियल मीडिया से जागे हैं, चुनाव के दिन अपनी आदत से ही सो ना जाऐं।
क्या वास्तव में जाग गया पूरा देशः
दिल्ली गैंग रेप कांड और इसके बाद जो कुछ भी हुआ है, वह कई मायनों में अभूतपूर्व है। इस नृशंशतम् घटना के बाद कहा जा रहा है कि देश ‘जाग’ गया है, 125 करोड़ देशवासी जाग गए हैं, लेकिन सच्चाई इसके कहीं आसपास भी नहीं है। न देश अन्ना के आंदोलन के बाद जागा था, और न ही अब जागा है। हमारी आदत है, हम आधुनिक सुख-सुविधाओं के साथ आराम तलब होते चले जा रहे है। हम पहले जागते नहीं, और कभी देर से जाग भी गए, तो वापस जल्दी ही सो भी जाते हैं। यदि जाग गए होते तो घटना के ठीक बाद बस से नग्नावस्था में फेंके गए युवक व युवती को यूं घंटों खुद को लपेटने के लिए कपड़े की गुहार लगाते हुए घंटों वहीं नहीं पड़े रहने देते।और तब ना सही, करोड़ों रुपए की मोमबत्तियां जलाने-गलाने के बाद ही सही, जाग गये होते तो अब देश में कोई बलात्कार न हो रहे होते, जबकि दिल्ली की घटना के बाद तो देश में जैसे बलात्कार के मामलों की (या मामलों के प्रकाश में आने की) बाढ़ ही आ गई है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि कि देश की बड़ी आबादी को दिल्ली के कांड की जानकारी ही नहीं है, और देश की अन्य समस्याओं, भूख, गरीबी, बेकारी, बेरोजगारी, महंगाई व भ्रष्टाचार के बीच वह अपने लिए दो जून की रोटी जुटाने में सो ही नहीं पाता, तो जागेगा क्या। वह आज भी आजादी के पहले जैसी ही जिंदगी जीने को अभिशप्त है। उसके पास चुनाव के दौर से सैकड़ों की संख्या में ‘उगे’ खबरिया चौनल दूर, रेडियो तक मयस्सर नहीं है। फेसबुक, ट्विटर जैसी सोशियल साइटों का तो उसने नाम भी न सुना होगा। सच्चाई है, वह मीडिया से नहीं जागते। उन्हें जगाने का हुनर राजनीतिक दलों को ही आता है, जो उन्हें चुनाव के दौरान घर से बाहर निकालकर बूथों तक लाकर अपने पक्ष में वोट भी डलवा देते हैं। और कथित तौर पर ‘जागे’ लोग वोट डालते वक्त ‘सो’ जाते हैं, यह भी सच्चाई है। लिहाजा, यह गलतफहमी ही कही जाएगी, कि देश जाग चुका है।
आक्रोश के पीछे भी कोई साजिश तो नहीं ?
इसके बावजूद दिल्ली के साथ जिस तरह देश भर में महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी कंधे से कंधे मिलाते हुए ‘बलात्कारियों को फांसी दो’ के नारे के साथ निकल पड़े, दिल्ली में छात्र मानो 1997-97 में इंडोनेशिया के देशव्यापी छात्र आंदोलन की यादों को ताजा करने लगे और उनके समर्थन में देश भर के अनेकों छोटे-बढ़े कस्बों में खासकर युवा जुड़ गए, और दिल्ली में तो हजारों की भीड़ करीब-करीब निरंकुश होती हुई राष्ट्रपति भवन की ओर बढती हुई मिश्र में राष्ट्रपति होस्नी मुबारक को गद्दी से उतारने के बाद ही थमने वाली जनक्रांति जैसा नजारा पेश करने लगी।वह सरकार ही नहीं, देशवासियों के लिए भी कान खड़े करने वाला और मौजूदा शासन व्यवस्था के साथ ही देश के लिए भी खतरे की घंटी है। लेकिन आश्चर्य की बात रही कि ऐसे हालातों पर चर्चा केवल लाठी चार्ज और एक पुलिस कर्मी की शहादत को विवादित कर पीछे धकेल दी गई। यह सोचने की जरूरत भी महसूस नहीं की गई कि ऐसा क्यों हुआ। यह आक्रोश स्वतः स्फूर्त था कि इसके पीछे भी कोई साजिश थी। देश में चल रहे अनेक अन्य जरूरी मुद्दे, गैस सब्सिडी को सीमा में बांधने, महंगाई के आसमान छूने, आरटीआई के बावजूद नन्हे बच्चों के स्कूलों में एडमिशन न हो पाने के साथ ही भ्रष्टाचार, कालाधन, जन लोकपाल, पदोन्नति में आरक्षण, अन्ना, रामदेव, केजरीवाल सभी इस आंदोलन के आगे बौने पड़ गए, जिनके द्वारा भी कभी देश को जगा देने की बात कही जा रही थी । सारे देश को जगाने वाले अन्ना या रामदेव कहीं नहीं दिखे। रामदेव और केजरीवाल दिल्ली आए भी तो उन्हें भीड़ को भड़काने के आरोप में मुकदमे ठोंककर वापस भेज दिया गया। कहीं ऐसा तो न था कि गुजरात में मोदी की हैट्रिक के रूप में प्रचारित की जा रही जीत, केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के साथ ही बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आंदोलनों के साथ ही देश भर के सरकारी कर्मचारियों को प्रभावित करने वाले पदोन्नति में आरक्षण के बिल के लोक सभा में पास न हो पाने जैसे मुद्दों को इस नृशंशतम घटना के पीछे नेपथ्य में धकेल दिया गया।इस आंदोलन में एक खास बात यह भी रही कि कमोबेश पहली बार सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की छात्र व युवा ब्रिगेड एनएसयूआई व युवा कांग्रेस के कार्यकर्ता भी इस मामले का विरोध करने सड़कों पर उतरे। लिहाजा, यह दिल्ली सहित देश भर में ऐसा व्यापक विरोध प्रदर्शन रहा, जिसमें हर वर्ग के लोग शामिल हुए, और खास तौर पर यदि सत्तारूढ़ दल की विचारधारा के लोग भी आंदोलन में शामिल रहे या शामिल होने का मजबूर हुए, तो यह वक्त है जब सरकार को संभल जाना चाहिए। अन्ना, रामदेव के आंदोलनों को दबाने, के लिए जिस तरह के राजनीतिक प्रपंच किए गऐ, उनसे अब काम चलाने से बाज आना चाहिए। आश्चर्य न होगा, यदि ऐसे में जल्द ही किसी सामान्य विषय पर भी लोग इसी तरह गुस्से का इजहार करने लगे।
दिल्ली का बलात्कार न पहला, न आखिरीः
यह सही है कि दिल्ली का बलात्कार न तो पहला था, और ना ही आखिरी, उत्तराखंड के लालकुआं में आफिसकर्मी युवती से बलात्कार का मामला भी कम वीभत्स नहीं था, जिसमें बलात्कारियों ने युवती से बलात्कार के बाद उसके खास अंगों में पेन और रुपए ठूंस दिए थे, और उसकी हत्या भी कर डाली थी। पूर्ववर्ती भाजपा सरकार मामले की सीबीआई जांच की संस्तुति कर चुकी है, पर आज भी जांच शुरू नहीं हुई है। इसके अलावा लालकुआ की ही आठ साल की मासूम संजना के बलात्कार के बाद हत्याकांड का मामला। ऐसे ही और भी अनेकों मामले हैं। लेकिन, दिल्ली जैसा आक्रोश पहले कभी देखने को नही मिला। निस्संदेह, इस आक्रोश के पीछे केवल दिल्ली की छात्रा के अपमान का रोष ही नहीं, वरन देश की हर मां-बहन की इज्जत, मान-सम्मान का प्रश्न आ खड़ा हुआ था। यह देश भर में पूर्व में हुई ऐसी अन्य घटनाओं के साथ लोगों के दिलों में भीतर राख में दहल रहे शोलों और खासकर छात्राओं, किशोरियों द्वारा समाज में कथित बराबरी के बावजूद झेली जा रही जिल्लत का स्वतः स्फूर्त नतीजा था। मौजूदा व्यवस्था से बुरी तरह आक्रोशित जनता को मौका मिला, और उन्होंने अपने गुस्से को व्यक्त कर दिया।इस सबसे थोड़ा आगे निकलते हैं। कल तक मीडिया, समाचार पत्रों की सुर्खियां बनी बलात्कार पीड़िता की खबरें धीरे-धीरे पीछे होती चली जा रही हैं। सोशियल मीडिया में लोगों की प्रोफाइल पर लगे काले धब्बे भी हटकर वापस अपनी या किसी अन्य खूबसूरत चेहरे की आकर्षक तस्वीरों से गुलजार होने लगे हैं। आगे अखबरों, चौनलों में कभी संदर्भ के तौर पर ही इस घटना का इतना भर जिक्र होगा कि 16 दिसंबर 2012 को पांच बहशी दरिंदों ने दिल्ली के बसंत विहार इलाके में चलती बस में युवती से बलात्कार किया था, और उसे उसके मित्र के साथ महिपालपुर इलाके में नग्नावस्था में झाड़ियों में फेंक दिया था। यह नहीं बताया जाएगा कि करीब आधे घंटे तक सैकड़ों लोग उन्हें बेशर्मी से देखते हुए निकल गऐ थे, और आखिर पुलिस ने पास के होटल से चादर मंगाकर उन्हें ढका और दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल पहुंचाया, और जहां से हृदयाघात होने के बावजूद कमोबेश मृत अवस्था में ही उसे राजनीतिक कारणों से 27 दिसंबर को सिंगापुर ले जाकर वहां के माउंट एलिजाबेथ अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां 29 दिसंबर की सुबह तड़के 2.15 बजे उसने दम तोड़ दिया, लेकिन पूरे दिन रोककर रात्रि के अंधेरे में उसके शरीर को दिल्ली लाया गया और 30 की सुबह तड़के परिवार के कथित तौर पर विरोध के बीच उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया। ऐसा इसलिए ताकि लोग आक्रोषित ना हों, कानून-व्यवस्था के भंग होने की कोई स्थिति न उत्पन्न हो। क्योंकि पूरा देश कथित तौर पर जाग गया था।
क्या कानून से रुक सकते हैं बलात्कारः
वादे कितने ही किये जायें पर बेहद लंबी कशमकश और दांव-पेंच भरी कानूनी लड़ाई के बाद शायद उसके बलात्कारियों और हत्यारों को शायद फांसी दे ही दी जाए। इससे पहले बलात्कारियों, हत्यारों को फांसी की मांग करने वाले अनेक अधिवक्ता उन्हें फांसी देने का भी विरोध करेंगे। न्यायाधीश महोदय भी पूछेंगे कि क्यों फांसी ही दी जाए, आखिर हमारे कानून की भावना जो ठहरी-”एक भी निर्दोष न फंसे“ (चाहे जितने दोषी बच जाएं, जबकि अनगिनत निर्दोष सींखचों के पीछे ट्रायल के नाम पर ही बर्षों से सजा भुगतते रहें हैं।)हमारी संसद, पश्चिमी दुनिया के लिव-इन संबंधों को अपने यहां भी कानूनी मान्यता देने व विवाह जैसी सामाजिक संस्था के लिए पंजीकरण की कानूनी बाध्यता बनाने और यौन संबंधों में आपसी सहमति के लिए आयु को कम करने की पक्षधरता के बीच शायद बलात्कार को भी ”रेयर“ और ”गैर रेयर“ के अलावा कुछ अन्य नए वर्गों में भी वर्गीकृत कर दे। उम्र (नाबालिगों से सहमति के यौन संबंध भी बलात्कार की श्रेणी में हैं) व लिंग (महिलाओं, पुरुषों व किन्नरों के आधार पर तो बलात्कार के लिए भी कमोबेश अलग-अलग कानूनी प्राविधान) के साथ ही हमारे माननीय बलात्कार को जाति-वर्ण के आधार पर भी बांट दें, यानी जाति विशेष की महिलाओं से बलात्कार पर अधिक या कम सजा के प्राविधान हो जाएं तो आश्चर्य न होगा। ऐसे-ऐसे तर्क भी आ सकते हैं कि दूसरों के केवल गुप्त यौननांगों पर बलात आक्रमण या प्रयोग ही क्यों बलात्कार कहा जाए, पूरा शरीर और अन्य अंगों पर क्यों नहीं। ऐसे तर्क भी आने लगे हैं कि महिला बलात्कार के बाद ‘जिंदा लाश’ क्यों कही जाए। बलात्कार होना मौत से बदतर क्यों माना जाए। बहरहाल, इन सब कानूनी बातों और केवल इस एक मामले में कड़ा न्याय मिल जाने के बावजूद क्या दिल पर हाथ रखकर कहा जा सकता है कि देश में ऐसी घटनाओं पर रोक लग जाएगी । क्या हमारी बहन-बेटियां सुरक्षित हो जाएंगी ?
बलात्कारः मनोवैज्ञानिक व सामाजिक पहलूः
बलात्कार की समस्या को समग्रता से समझें तो मानना होगा हमारी बहुत सी समस्याएं लगती तो शारीरिक हैं, लेकिन होती मानसिक हैं। बलात्कार भी एक तरह से तन से पहले मन की बीमारी है। और इसकी जड़ में समाज के अनेक-शिक्षा, लिंग, सामाजिक-आर्थिक स्तर के विभेद जैसे अनेक कारण भी हैं। कानून, पुलिस और न्यायिक व्यवस्था का प्रभाव तो बहुत देर में आता है।इन समस्याओं पर सतही चर्चा करने के बजाए गहन मंथन करने की भी जरूरत है। अधिकतर लोग क्यों बलात्कार करते हैं ? इससे पहले एक बात पर शायद सभी सहमत हों कि यौन आवश्यकता हर जीवधारी में भोजन की तरह ही मूलभूत होती है, और पीढ़ियों के आगे बढ़ने के लिए जरूरी भी है। मनुष्य ने इस आवश्यकता को विवाह नाम के सामाजिक बंधन से बांध दिया है। विवाह में सबसे पहले, खासकर पुरुषों की हर वर्ग में और आर्थिक रूप से समर्थ वर्ग में महिलाओं (पुत्रियों) की पसंद का ध्यान रखा जाता है। विवाह से पूर्व कम उम्र में, जबसे मनुष्य के बच्चों के कोमल मन के साथ मस्तिष्क काम करना शुरू करने लगता है, छुपा कर रखे गए व गुप्त बताए जाने वाले खुद के एवं विरोधी लिंग के अंगों के प्रति जानने की इच्छा बढ़ने लगती है। यही समय है जब माता-पिता बच्चों की उनके अंगों के बारे में बताए और अच्छे-बुरे की जानकारी दें, साथ ही स्कूलों में नैतिक, संस्कारवान शिक्षा दी जाए। जरूरी समझी जाए तो यौन शिक्षा भी दी जाए।
जरूरी हो तो भूख और सैक्स का मनोविज्ञान भी समझा जाए। भूख को पेट की और सैक्स को शरीर की आग और दोनों को बेहद खतरनाक कहा जाता है। सैक्स की आग में शरीर की भूख के साथ ही मन की भी बड़ी भूमिका होती है, जिस पर मनुष्य की शैक्षिक, आर्थिक व सामाजिक स्थिति भी अत्यधिक प्रभाव डालती है। निठारी कांड इन दोनों भूखों को नृशंशतम् मामला था जिसमें कहा जाता है कि इन दोनों भूखों के भूखे भेड़िये दर्जनों मासूम बच्चों का बलात्कार करने के बाद उनके शरीर को भी खा गए। अफसोस, हमारी याददाश्त बेहद कमजोर होती है। हम इस कांड को कमोबेश भूल चुके हैं। मीडिया भी उसी दिन याद करता है, जब न्यायालय से इस मामले में कोई अपडेट आती है। वर्षों से मामला न्यायालय में चल रहा है। और इस ”रेयरेस्ट ऑफ द रेयर“ मामले में दोषियों को कब सजा होगी, कुछ नहीं कहा जा सकता।
एक आंकलन के अनुसार हमारे देश में केवल चार प्रतिशत बलात्कार के मामले ही अनजान लोगों द्वारा किए जाते हैं, तथा 96 प्रतिशत बलात्कार जानने-पहचानने वालों द्वारा किए जाते हैं। ऐसे में यह देखना होगा कि बलात्कार के साथ ही अवैध संबंध बनाने वालो का क्या मनोविज्ञान है।
आयु के आधार परः
इसे पहले आयु के आधार पर देखते हैं। कम उम्र के बच्चों (लड़के-लड़कियों दोनों में, भारत में अभी कम, विदेशों में काफी) में टीवी, सिनेमा व इंटरनेट की देखा-देखी और सैक्स व जननांगों के बारे में जानने की इच्छा, के कारण सैक्स संबंध बनाए जाते हैं। युवावस्था में युवक-युवतियों दोनों में शारीरिक और यौन अंगों का विकास होने के साथ यौन इच्छाएं भी नैसर्गिक रूप से बढ़ती हैं। सामाजिक व्यवस्था भी उन्हें बताती जाती है कि अब आप विवाह एवं यौन संबंध बनाने योग्य हो गऐ हो। यहां आकर व्यक्ति की आर्थिक और सामाजिक स्थित उसकी यौन इच्छाओं को प्रभावित करती है। अच्छे आर्थिक व सामाजिक स्तर के लोगों में इस स्थिति में अपने लिए मनपसंद जीवन साथी प्राप्त करने की अधिक सहज स्थिति रहती है, जबकि कमजोर तबके के लोगों के लिए यह एक कठिन समय होता है। इस कठिन समय पर यदि व्यक्ति को उसका मनपसंद साथी ना मिल पाए तो उसे अच्छी और संस्कारवान, नैतिक शिक्षा ही संबल व शक्ति प्रदान कर सकती हैं। अन्यथा उनके भटकने का खतरा अधिक रहता है। इस उम्र में कुछ लोग, खासकर युवक शराब जैसे बुरे व्यसनों की गिरफ्त में फंसकर और अपनी कथित पौरुष शक्ति के प्रदर्शन की कोशिश में युवतियों से छेड़छाड़ और बलात्कार की हद तक जा सकते हैं।इससे आगे प्रौढ़ अवस्था में विवाहितों और अविवाहितों में यौन इच्छाऐं (मन के स्तर से ही) पारिवारिक स्तर पर तृप्त या अतृप्त होने पर निर्भर करती हैं। और यह भी बहुत हद तक मनुष्य की आर्थिक, शैक्षिक व सामाजिक स्तर पर निर्भर करता है। इन तीनों स्तरों के समन्वित प्रभाव से ही मनुष्य स्वयं में एक तरह की शक्ति या कमजोरी महसूस करता है। शक्ति की कमजोरी की स्थिति में आकर गिरा व्यक्ति इससे बुरा क्या होगा की दशा में बुराइयों को दलदल में और धंसता चला जाता है, जबकि शक्ति के उच्चस्तर स्तर पर आकर भी व्यक्ति में सब कुछ अपने कदमों पर आ गिरने जैसा अहम और कोई क्या बिगाड़ लेगा का दंभ भी उसे ऐसे कुकृत्य करने को मजबूर करता है, और वह अपने बल से अपनी आवश्यकताओं को जबर्दस्ती जुटा भी लेता है, फिर बल से ही लोगों का मुंह भी बंद कराने में अक्सर सफल हो जाता है। कमजोर वर्ग के लोगों के मामले जल्दी प्रकाश में आ जाते हैं। दिल्ली कांड में भी बलात्कारी कमोबेश इसी वर्ग के हैं। कोई ड्राइवर, क्लीनर, कोई सड़क पर फल विक्रेता, और एक कम उम्र युवक। यानी किसी की भी आर्थिक, सामाजिक व शैक्षिक स्थिति बहुत ठीक नहीं है। वहीं, मध्यम वर्ग के लोगों में सहयोग से या ”पटा कर (जुगाड़ से)“ काम निकालने की प्रवृत्ति अधिक देखी जाती है। यह वर्ग कोई बुरा कार्य करने से पहले सामाजिक स्तर पर डर भी अधिक महसूस करता है, इसलिए एक हद तक बुराइयों से बचा भी रहता है।
महिलाओं के प्रति समाज का गैर बराबरी का रवैयाः
दूसरी ओर, बालिकाओं के प्रति आज भी समाज में बरकरार असमानता की भावना बड़ी हद तक जिम्मेदार है। माता-पिता के मन में उसे पैदा करने से ही डर लगता है कि वह पैदा हो जाएगी तो उस ”लक्ष्मी“ के आने के बावजूद बधाइयां नहीं मिलेंगी। उसे, स्कूल-कालेज या कहीं भी अकेले भेजने में डर लगेगा। फिर उस ”पराए धन“ को कैसा घर-बर मिलेगा। और इस डर के कारण बेटियों को कोख में ही मार दिया जाता है। पैदा हो जाती है तो उसे यूं ”घर की इज्जत“ कहा जाता है, मानो वह हर दम दांव पर लगी रहती है। ससुराल में भी पह ”पराई“ ही रहती है, और उसे ”डोली पर आने“ के बाद ”अर्थी पर ही जाने“ की घुट्टी पिला दी जाती है कि वह कदम बाहर निकालने की हिमाकत न करे। बंधनों में कोई बंधा नहीं रहना चाहता। वह भी ”सारे बंधन तोड़कर उड़ने“ की कोशिश करती है। आज के दौर में पश्चिमीकरण की हवा में टीवी- सिनेमा और इंटरनेट उसकी ”उड़ानों को पंख“ देने का काम कर रहा है। इस हवा में उसका अचानक ”उड़ना“ बरसों से उसे कैद कर रखने वाला पुरुष प्रधान समाज कैसे बर्दास्त कर ले, यह भी एक चुनौती है। यह संक्रमण और तेजी से आ रहे बदलावों का दौर है। इसलिए विशेष सतर्क रहने की जरूरत है।लिहाजा, यह कहा जा सकता है कि बलात्कार केवल एक शब्द नहीं, मानव मात्र पर एक अभिशाप है। यह केवल महिलाओं के लिए ही नहीं संपूर्ण समाज और मानवता पर कोढ़ की तरह है। इसके लिए किसी एक व्यक्ति, महिला या पुरुष, जाति, वर्ण, वर्ग को एकतरफा दोषी नहीं ठहराया जा सकता। भले ही एक व्यक्ति बलात्कार करता हो, लेकिन इसके लिए पूरा समाज, हम सब, हमारी व्यवस्था दोषी है। लिहाजा, इसके उन्मूलन के लिए हर तरह के सामूहिक प्रयास करने होंगे। और यह सब हमारे हाथ में है, जब कहा जा रहा है कि दिल्ली की घटना के बाद पूरा देश जाग गया है। ऐसे में अच्छा हो कि अदालत से इस एक मामले में चाहे जो और जब व जैसा परिणाम आऐ, उससे पूर्व ही हम सब मिलकर मानवता पर लगे इस दाग को हमेशा के लिए और जड़ से मिटा दें।
Tuesday, February 5, 2013
प्रयागराज में आस्था का महासमागम
Thursday, January 31, 2013
उत्तराखंड भाजपाः कहां है राष्ट्रीय सोच
Monday, January 28, 2013
राहुल की 'साफगोई' के मायने
Wednesday, January 23, 2013
देवभूमि के कण-कण में देवत्व
स्वामीजी का उपरोक्त उद्गार का वर्णन हिन्दी में ‘ अल्मोड़ा का आकर्षण ‘- नामक महामण्डल पुस्तिका के पृष्ठ संख्या 5 पर इस प्रकार दिया हुआ है”-आज मेरे जीवन की एक बहुत गूढ़ समस्या का समाधान इस महा धाम में प्राप्त हो गया है ! “। उन्होंने लिखा, 'जिस प्रकार व्यष्टि जीवात्मा एक चेतन शरीर द्वारा आवृत्त है, उसी प्रकार विश्वात्मा भी चेतनामयी प्रकृति या दृश्य जगत में स्थित है। शिवा (काली) शिव का आलिंगन कर रही है। यह कोई कल्पना नही है। इसी एक (प्रकृति) के द्वारा दूसरे (आत्मा) का आलिंगन मानो शब्द और अर्थ के सम्बंध की भांति है। वे दोनों अभिन्न हैं और केवल मानसिक विश्लेषण के द्वारा ही उन्हें पृथक किया जा सकता है। शब्द के बिना विचार करना असम्भव है। अतः सृष्टि के आदि में शब्द-ब्रह्म था।’ उन्होने आगे कहा, 'विश्वात्मा का यह युगल रूप अनादि है। अतः हम लोग जो कुछ देखते हैं या अनुभव करते हैं। सभी की संरचना साकार और निराकार के सम्मिलन से हुई है’।
उत्तराखंड को देवभूमि इसीलिए कहा जाता है, कि यहां के कण-कण में देवों कावास है। बदरी, केदार सहित चार धामों और गंगा, यमुना की इसी धरती में शिवके धाम कैलाश का द्वार है, और यहीं शिवा यानी माता पार्वती का मायका हिमालय भी है। यहां के हर पुराने शहर और गांव देवी देवताऑ के प्रसंगों से जुड़े हैं और वहां आज भी श्रद्धालु साक्षात दर्शन कर दिव्य अनुभूतियां प्राप्त करते हैं। प्रदेश के कुमाऊं मंडल के मुख्यालय मां नयना की नगरी का शास्त्रों में त्रिऋषि सरोवर के रूप में वृतांत मिलता है। यहीं नगर का प्राचीनतम बताया जाने वाला मां पाषाण देवी के एक विशाल शिला खंड पर नवदुर्गा स्वरूप में दर्शन होते हैं, जबकि मां के चरण नैनी झील में बताये जाते हैं। कई बारमां का वाहन शेर यहां दिन में भी घूमता मिल जाता है, और बिना किसी को नुकसान पहुंचाये अचानक आंखों से ओझल भी हो जाता है। यहां मां का क्षृंगार महाबली हनुमान की तरह सिंदूर से होता है, और उन्हें वैष्णवी स्वरूप में दुग्ध उत्पादों व फल फूलों का भोग लगाया जाता है। माना जाता है कि पिता दक्ष प्रजापति द्वारा पति का अनादर करने पर माता पार्वती अग्रि में कूदकर सती हो गई थीं। उनके दग्ध शरीर को देवाधिदेव महादेव आकाश मार्ग से कैलाश की ओर लेकर चले। इस बीच माता के दग्ध अंग जहां जहां गिरे वहां शक्तिपीठ स्थापित हो गये। मां के नयनों के गिरने के कारण और सरोवर यानी ताल होने से यह स्थान नयना ताल तथा कालांतर में अपभ्रंस होता हुआ नैनीताल कहलाया। एक अन्य मान्यता के अनुसार मां के नयनों के नीर से नैनी सरोवर बना और दक्षिण पूर्वी अयारपाटा पहाड़ी पर हृदय सहित अन्य शरीर यानी ‘पाषाण’ गिरा, तथा मां पाषाण देवी के प्राकृतिक मंदिर की स्थापना अनादि काल में ही हो गई थी। बताते हैं कि 1841 में नगर की स्थापना से पूर्व से ही इस स्थान पर नजदीकी गांवों के लोग गायों और पशुओं के चारण के लिए आते थे, और धार्मिक मान्यता के कारण शाम होने से पहले वापस भी लौट जाते थे। पहाड़ों में खासकर गायों के नई संतति देने पर नये दूध से देवों का अभिषेक करने की परंपरा है। ऐसे देवता ‘बौधांण देवता’ कहे जाते हैं। लेकिन नैनीताल संभवतया अकेला ऐसा स्थान होगा जहां नया दूध एवं घी, दही, मक्खन व छांस जैसे दुग्ध उत्पाद बौधांण देवता के बजाय बौधांण देवी के रूप में पाषाण देवी को चढ़ाये जाते थे, और आज भी ग्रामीण पाषाण देवी की इसी रूप में पूजा करते हैं। मान्यता है कि मां का चेहरा धुले पानी से समस्त त्वचा रोगों के साथ ही अतृप्त व बुरी आत्माऑ के प्रकोप भी समाप्त हो जाते हैं। बताते हैं कि नगर की स्थापना के बाद एक अंग्रेज अफसर इस स्थान से होता हुआ घोड़े पर निकला था, किंतु उसका घोड़ा यहां से लाख प्रयासों के बावजूद आगे नहीं बढ़ पाया। इस पर नाराज हो उसने मां की मूर्ति पर कालिख पोत दी थी। हालांकि बाद में उसे गलती का अहसास हुआ और स्थानीय महिलाऑ ने कालिख के स्थान पर मां का सिंदूर से क्षृंगार किया। इस प्रकार यहां देवी का सिंदूर से क्षृंगार किये जाने की अनूठी मान्यता है। इस स्थान पर पाषाण देवी नवदुर्गा के रूप में पत्थर की शिला पर प्राकृतिक रूप से विराजमान हैं, जो स्पष्ट दिखाई देती हैं। मां के नवदुर्गा स्वरूप चेहरे के नीचे गले वाला भाग हालांकि अब ढक दिया गया है, लेकिन अभी हाल तक इसके नीचे गुफा बताई जाती है, जिसमें पानी चढ़ाने पर इस तरह ‘घट घट’ की आवाज आती थी, मानो मां पानी पी रही हों। कई बार झील का पानी मंदिर तक चढ़ आता था। इसके नीचे गुफा अब भी है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका अन्य द्वार हरिद्वार में खुलता है। मंदिर की जिम्मेदारी शुरू से स्थानीय भट्ट परिवार के जिम्मे है। सर्वप्रथम चंद्रमणि भट्ट मंदिर के पुजारी थे, बाद में उनके पुत्र भैरव दत्त भट्ट और वर्तमान में उनके पौत्र जगदीश चंद्र भट्ट मंदिर के पुजारी हैं। इस मंदिर के सदस्य बारी बारी से मंदिर की सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाते हैं। नीचे की गुफा में केवल हरीश चंद्र भट्ट ही जा पाते हैं। गुफा में नागों की उपस्थिति बताई जाती है, जो कई बार श्रद्धालुऑ द्वारा अशुद्धता बरतने पर बाहर निकल आते हैं। मां को दुग्ध उत्पाद व फल फूल ही चढ़ते हैं, इस प्रकार यहां मां नवदुर्गा वैष्णवीस्वरूप में पूजी जाती हैं। नगर को सर्वप्रथम खोजने वाले कुमाऊं के पहले कमिश्नर जीडब्ल्यू ट्रेल द्वारा वर्णित और नगर को 1941 में बसाने वाले अंग्रेज व्यापारी पीटर बैरन की बहुचर्चित पुस्तक ‘वंडरिंग इन हिमालया’ में वर्णित नगर का प्राचीनतम मंदिर भी इसी प्राकृतिक मंदिर को बताया जाता है। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी सहित न जाने कितने श्रद्धालु होंगे जो अपने प्रत्येक कार्य के लिए आशीर्वाद लेने यहां निरंतर आते रहते हैं।
जी हाँ, युग-युग के अधिष्ठाता कहे जाने वाले भगवान महर्षि मार्कंडेय का आश्रम उत्तराखंड प्रदेश के कुमाऊँ अंचल में अवस्थित है. कुमाऊँ में काठगोदाम से नैनीताल के राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या ८७ पर स्थित करीब ६ किमी दूर भुजियाघाट नामक स्थान से एक पैदल पगडंडीनुमा मार्ग मोरा गाँव के लिए निकलता है. इस मार्ग पर आगे जाकर करीब ढाई घंटे के बेहद कठिन चढ़ाई युक्त मार्ग से बलौनधूरा नाम के चीड़ के घने जंगल में लोक आस्था के अनुसार महर्षि मार्कंडेय का यह आश्रम स्थित है. स्थानीय लोगों की मान्यता है कि महर्षि मार्कंडेय ने यहाँ लम्बे समय तक तपस्या की थी. आश्रम ऐसे निर्जन स्थान पर है कि यह कहीं से भी दृश्यमान नहीं है. आश्रम तक कोई सीधा भी नहीं है. यहाँ पर जंगल के बीच एक बड़े पत्थर के नींचे छोटा सा अनपेक्षित जल कुंड है. पास में ही कुछ झंडे लगे हुए हैं, जिनसे घने जंगल में इस महान स्थान की पहचान बमुश्किल हो पाती है. पास में गधेरे के ऊपर एक पत्थरनुमा पुल भी ध्यानाकर्षित करता है. कहा जाता है कि पूर्व में यहाँ पर कुछ साधू-सन्यासी धूनी रमने के लिए पहुंचे थे, लेकिन अब यहाँ कोई नहीं रहता. संभवतया आज के सुविधानुरागी साधु-सन्यासियों के लिए भी यहाँ रहना आसान न हो. बलौनधूरा मोरा गाँव का ही एक तोक है. इसके पास ही पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी का नैनिहाल 'बल्यूटी' गाँव स्थित है, महर्षि मार्कंडेय के बारे में कहा जाता है कि उन्हें श्रृष्टि के सृजनकर्ता ब्रह्मा जी की तरह ही अनंत आयु प्राप्त थे. वह त्रिकालदर्शी और अन्तर्यामी भी कहे जाते हैं.
देवभूमि के कण-कण में देवत्व होने की बात यूँ ही नहीं कही जाती। अब इन दो स्थानों को ही लीजिये, यह नैनीताल जिले में हल्द्वानी के निकट खेड़ा गौलापार से अन्दर सुरम्य बेहद घने वन में स्थित कालीचौड़ मंदिर है। यहाँ महिषासुर मर्दिनी मां काली की आदमकद मूर्ति सहित दर्जनों मूर्तियाँ मंदिर के स्थान से ही धरती से निकलीं। तराई-भाबर के गजेटियर के अनुसार लगभग आठवीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य अपने देवभूमि उत्तराखंड आगमन के दौरान सर्वप्रथम इस स्थान पर आये थे। उन्हें यहाँ आध्यात्मिक ओजस्व प्राप्त हुआ, जिसके बाद उन्होंने यहाँ काफी समय तक आध्यात्मिक चिंतन किया, और यहां से जागेश्वर और गंगोलीहाट गए थे। बाद में कोलकाता के एक महंत की प्रेरणा पर गौलापार के जमींदार-मेहरा थोकदार ने यहाँ मंदिर बनवाया था।उत्तराखंड में देवालयों की लम्बी श्रृंखला के क्रम में जगतजननी जगदम्बा के कालीचौड स्थित काली मंदिर की महिमा का यहां विशेष महत्व है।
श्री रामदत्त जोशी पंचांगकार के पिता पंडित हरि दत्त जोशी ने यहां मूर्तियों की स्थापना की थी, और श्री राम दत्त ने यहां सर्वप्रथम श्रीमद् देवी भागवत कथा का पाठ कराया था। इसके आगे की कथा भी कम रोचक नहीं है, हल्द्वानी के एक चूड़ी कारोबारी राम कुमार को इस स्थान से ऐसा अध्यात्मिक लगाव हुआ कि उन्होंने वर्ष 2000 तक मंदिर की व्यवस्थाएं संभालीं। इधर किच्छा के एक सिख (अशोक बावा के) परिवार ने अपने मृत बच्चे को यहाँ मां के दरबार में यह कहकर समर्पित कर दिया कि मां चाहे जो करे, अब वह मां का है। इस पर वह बच्चा फिर से जी उठा, आज करीब 30 वर्षीय वही बालक और उसका परिवार मंदिर में पिछले कई वर्षों से भंडार चलाये हुए है।
’’काली-काली महाकाली कालिके परमेश्वरी,
सर्वानन्द करो देवी नारायणी नमोअस्तुते।।‘‘
काली का यह पावन मंत्र वियावन वन के मध्य कालीचौड में काली भक्तों के मुखारबिंद से अक्सर गुंजायमान रहता है। आध्यात्मिक शांति को समेटे कालीचौड का काली मंदिर माता जगदम्बा की ओर से भक्तों के लिए अनुपम भेंट है। पावन भूमि उत्तराखण्ड में कुमाऊं क्षेत्र के अन्तर्गत काठगोदाम के पास वियावान वन में स्थित काली का यह मंदिर प्राचीन काल से ऋृषि-मुनियों की आराधना और तपस्या का केन्द्र रहा है। हिमालयी भू-भाग में काली के जितने भी प्राचीन शक्तिपीठ व मंदिर है। वे सभी परम आस्थाओं के केन्द्र हैं। लौकिक व अलौकिक आस्थाओं की सिद्ध का केन्द्र कालीचौड के प्रति भी भक्तों में अपार व अटूट विश्वास है। यह एक ऐसा स्थान है जहां पंहुचते ही सांसारिक मायाजाल में भटका मानव अनायास ही कालिका के चरणों में निराली शांति का अनुभव करता है। यह देवी दरबार प्राचीन काल से ही पूजनीय रहा है। कथाओं के अनुसार सतयुग में सप्त ऋृषियों ने इस स्थान पर भगवती की आराधना, तपस्या करके मनोवांछित लौकिक व अलौकिक सिद्धयां प्राप्त की इन्हीं सिद्धियों के प्रताप से उन्होंने सप्तऋृषि लोक की प्राप्ति की। श्री मार्कण्डेय ऋृषि ने भी यहां तपस्या करके काली की कृपा को प्राप्त किया। यूं तो उत्तराखण्ड की धरती पर अनेकों स्थानों में सप्तऋृषियों ने तपस्या की जिनमें झाकर के सैम दरबार के आसपास वनों में लोहाघाट के ऋृषेश्वर क्षेत्र में इनकी तपस्या का वर्णन पुराणों के आधार पर मिलता है पर कहते हैं काली की कृपा के पश्चात ही सप्तऋृषियों ने हिमालय को अपनी तपस्या का केन्द्र बनाया। मार्कण्डेय ऋृषि ने इस दरबार में अपने आराधना के श्रद्धा पुष्प काली के चरणों में इतनी अगाध भक्ति व श्रद्धा से अर्पित किए कि काली कृपा ने उन्हें समस्त चराचर जगत की नश्वरता का ज्ञान दे डाला। अखण्ड ज्ञान को प्राप्त करके ही उन्होंने संसार को ज्ञान का अलौकिक प्रकाश दिया। शक्ति की कृपा के फलस्वरूप ही इन्होंने श्री महाकाली दरबार के निकट ही पाताल भुवनेश्वर में पुराणों की रचना की और पूज्यनीय बने भुवनेश्वर महात्म्य में आया भी है।
’’समार्चाति विद्यानेन श्रियं प्राप्तनोति मानवः
कपिलाद्या महात्मानों मार्कण्डेयादयों नृप (३४०)
मानसखण्ड भुवनेश्वर महात्म्य
अर्थात मार्कण्डेय ऋृषि भुवनेश की पूजा में यहां विराजमान होकर भक्तों द्वारा पूजित हैं।
ऐसा माना जाता है कि जब बाबा गुरु गोरखनाथ जी ने इस वसुंधरा में कदम रखा तो सर्वप्रथम इसी क्षेत्र को अपनी आराधना व तपस्या का केन्द्र बनाया क्योंकि कुमाऊं का प्रवेश द्वार क्षेत्र होने से भी यह क्षेत्र यहां पधारने वाले संतो, ऋृषि-मुनियों का प्रथम पडाव रहा है। इसी कारण से माना जाता है जब गुरु गोरखनाथ जी यहां की धरती पर आये तो सर्वप्रथम इस क्षेत्र में अपना पडाव डालकर उन्होंने यहां धूनी रमाकर कालिका की कठोर आराधना की और बाद में काली कृपा से उन्हें यहां के महान प्रतापी देवता हरू, सैम, गोल्ज्यू समेत अनेक देवताओं के गुरू होने का गौरव प्राप्त हुआ। चम्पावत में जल रही गुरू गोरखनाथ जी की अखण्ड धूनी ’’काली की गोरख‘‘ पर हुई कृपा का ही प्रताप मानी जाती है। महायोगी महेन्द्र नाथ, सोमवारी बाबा की तो यह अद्भुत साधना स्थली कही जाती है। इतना ही नहीं नानतिन बाबा, टाटम्बरी बाबा, हैडाखान बाबा सहित अनेकों संतों ने इस स्थान पर साधना करके कालिका माता से निर्मल ज्ञान की प्राप्ति की यहां की प्राचीन सिद्ध शक्ति पीठ में सिद्धबली हनुमान, काल भैरव व भगवान शिव की मूर्तियां विराजमान हैं। पौराणिक काल से अनेक कथाओं को समेटे यह स्थल ऋृषि-मुनियों की आराधना के पश्चात काफी समय तक गोपनीय रहा आधुनिक समय में यह स्थान लगभग सात दशक पूर्व प्रकाश में आया कहा जाता है कि वर्ष १९४२ से पूर्व कलकत्ता में एक बंगाली भक्त को माता कालिका ने स्वप्न में दर्शन देकर कृतार्थ किया व इस स्थान पर अपनी अलौकिक शक्ति होने का भान कराया। दिव्य प्रेरणा से अभिभूत उस काली भक्त ने इस स्थान की खोज की व बाद में हल्द्वानी निवासी रामकुमार जी ने इस स्थान को बंगाली बाबा के साथ मिलकर माँ की कृपा से मंदिर रूप में स्थापित किया। मंदिर के समीप ही एक तामपत्र निकला इसमें पाली भाषा में महाकाली मंदिर महात्म्य का उल्लेख किया गया है।
सनातन धर्म की महान ध्वजावाहक आदि जगतगुरु शंकराचार्य महामाया भगवती के अनन्य भक्त थे। देवाधिदेव महादेव की असीम कृपा तथा अपने अंतरमन की प्रेरणा के फलस्वरूप उनके मन में भगवती काली के विविध स्वरूपों तथा शक्तिपीठों के दर्शन की इच्छा जागृत हुई और इस हेतु उन्होंने सम्पूर्ण भारतभूमि के भ्रमण का निश्चय किया। जहां-जहां भी माँ जिस रूप में स्थित थी वहां-वहां उन्हें माँ के उस स्वरूप के दर्शन हुये।
भारत भ्रमण करते हुये जगदगुरु शंकराचार्य ने जब हिमालय के अंचल में अवस्थित देवभूमि उत्तराखण्ड में पदापर्ण किया तो उनके आनंद का कोई पारावार नहीं था। कूर्मांचल की तराई में आगमन पर सर्वप्रथम जगद्गुरु ने गार्गी गंगा के दर्शन तथा इस पवित्र नदी में स्नान की इच्छा अपने भक्तों के बीच व्यक्त की। कुछ स्थानीय भक्तों ने उनकी इस इच्छा को पूर्ण करने में अपना योगदान दिया।
इसी क्रम में जगद्गुरु एकाएक कह उठे कि ’’यहां तो भगवती काली की अद्भुद आभा सर्वत्र बिखरी है।‘‘ अवश्य ही कही आस-पास में वह आदिशक्ति विद्यमान है। यह सुनकर स्थानीय भक्तों ने जगद्गुरु को गार्गी नदी के उस एक प्राचीन मंदिर स्थित होने की जानकारी दी। फिर क्या था शंकराचार्य समस्त भक्त मण्डली के साथ तत्क्षीण माँ काली के उस दरबार की ओर प्रस्थान कर गये और वहां पहुंचकर वीरान वन में स्थित पवित्र दरबार के दर्शन कर धन्य हो गये।
कहा जाता है कि कूर्मांचल के पर्वतीय भू-भाग में चरण रखने से पूर्व आदिगुरु कई दिनों तक इस दिव्य स्थल में साधनारत रहे। इस बीच उनके अनुयायों की संख्या निरन्तर बढती रही पुराने बुर्जग बताते हैं कि यह मंदिर घनी झाडयों के बीच स्थित का जहां बढने योग्य स्थान का अभाव था। आदिगुरु के आदेश पर तब भक्त मण्डली द्वारा मंदिर के चारों ओर की झाडी व उबड-खाबड, भू-भाग को काट कर चौरस किया गया और यही से लोग इसे कालीचौड कहने लगे। इसके अलावा नाम को लेकर और भी अनेक किवदंतियां हैं किन्तु इतना अवश्य है कि आदिगुरु शंकराचार्य ने इस दिव्य स्थल के दर्शन के पश्चात ही पर्वतों की ओर अपनी यात्रा का शुभारम्भ किया। पवित्र धाम काली चौड में तभी से माँ काली के वैष्ण स्वरूप की पूजा की प्राचीन परम्परा लोक संस्कृति का अभिन्न अंग बन गई जो आज भी जीवंत है।
पुराणों के अनुसार इस भू-भाग में सटे तमाम पर्वतीय क्षेत्र महान् आस्थाओं के सिद्ध क्षेत्र हैं। इन्हीं क्षेत्र में लंकापति रावण के पितामह पुलस्त्य ऋृषि ने काली की कठोर तपस्या करके उनके दर्शन किए स्कंद पुराण के इकतालीसवें अध्याय के उपरोक्त श्लोक -
अत्रिः पुलस्त्यः पुलहः ऋषयो गर्ग पर्वतम्।
से यह संकेत मिलता है कि महर्षि पुलस्त्य के साथ यहां ब्रह्म पुत्र अत्रि पुलह ने भी इन वन क्षेत्रों में घोर तपस्या की है। गर्ग ऋृषि की तपस्थली भी इस क्षेत्र की परिधि के पवित्र पर्वत ही रहे हैं। इसी पर्वत माला में गर्गांचल पर्वत का जिक्र भी महर्षि व्यास जी ने मानस खण्ड में ’’शेषस्य दक्षिणे भागे पुण्यो गर्गगिरिः स्मृत।‘‘ के नाम से इन तमाम क्षेत्रों की महिमा स्कंद पुराण में गाई है। कालीचौड मंदिर के एक ओर गर्गांचल व समीपस्थ ही भद्रवट क्षेत्र भी स्थित है। भद्रवट का स्मरण ही करोडों पापों को दूर भगा देता है। व्यास जी का यह कथन मानस खण्ड के ४२वें अध्याय के तीसरे श्लोक से स्पष्ट है।
’’क्षेत्र भद्रवट नाम सर्वपापप्राणशनम’’ अर्थात् इस क्षेत्र की उपमा व्यास जी ने तीर्थराज के रूप में की है।
कालीचौड के आसपास पवित्र पहाडों में तीर्थों की भरमार है। ये किसी न किसी ऋृषि-मुनियों की तपस्याओं के महान केन्द्र रहे हैं। कालीचौड क्षेत्र के बारे में श्रीमद्भागवत में भी कथा आती है कि इस क्षेत्रों में शिव व शक्ति की आराधना करते हुए एक बार ऋृषि मार्कण्डेय ने स्वर्ग में भी हलचल पैदाकर दी उनके कठोर तप को भंग करने के लिए देवराज इन्द्र ने प्रकृति के देवता यम, वरूण, अग्नि सहित अनेक अप्सराएं भेजी जब इन्द्र सहित सभी देव असफल हो गये तब भगवान के रूप में नर और नारायण ऋृषि से वरदान मांगने को कहा। दर्शन से प्रसन्न मार्कण्डेय जी ने प्रभु से प्रभु की कृपा को मांगा इस दौरान धन्य मार्कण्डेयऋृषि को नश्वर माया का ज्ञान प्राप्त हुआ। ये चिरजीवी ऋृषि के रूप में संसार में प्रसिद्ध हुए। श्री महाकाली की कृपा के प्रताप से ही मार्कण्डेय ऋृषि की पूजा लोग चिरजीविता के लिए करते हैं। माता महाकाली के शक्ति स्थल उत्तराखण्ड में अनेकों स्थानों पर मौजूद हैं। कालीचौड की कालिका की कथा, महिमा, अनन्त है। इसे शब्दों में समेट पाना किसी भी प्राणी के लिए सहज व संभव नहीं है। इस स्थान पर काली कब से और किस कारण पूजित है। इस बारे में कोई स्पष्ट मत नहीं है। पुष्पभद्रा तीर्थ-महात्म्य के ४०वें अध्याय में ’’वाम तत्र महादेवी चण्डिका परमेश्वरी‘‘ के नाम से इस देवी की विराट महिमा की ओर इशारा किया गया है। जनपद पिथौरागढ के गंगोलीहाट क्षेत्र में स्थित श्री महाकाली का शक्ति पीठ भी सदियों से पूजनीय है। इस मंदिर की ख्याति देश-विदेशों तक है। जगतगुरु शंकराचार्य जी ने अपने तपोबल से इस स्थान पर काली माँ के दर्शन किए।
सूर्या देवी की विराट महिमा
राजेन्द्रपन्त’रमाकान्त‘
क्षीर वृक्ष स्वरुपिणी दयनीये दयाधिके जय करुणारुपे सूर्या देवी
मंगला, वैश्णवी, माया, कालरात्रि, महामाया, मंतगी, काली कमलवासिनी, शिवा, सर्वमंगलरुपिणी सहित अनन्त नामों से भक्तों के हदय में वास करने वाली महेश्वरी महादेवी की पूजा अर्चना से व आराधना करने पर भगवती दुर्गा कश्टप्रद नरक रुपी दुर्ग से उद्वारकर परम पद प्रदान करती है, देवभूमि उतराखण्ड में ्रशक्तिपीठों की भरमार है,स्थान स्थान पर स्थित देवी के ्रशक्ति स्थल परम पूजनीय है, लालकआ विधानसभा अन्तर्गत गौला पार से लगभग १७ किमी आगे सेलजाम नदी के तट पर सूर्या देवी का पावन स्थान सदियों से भक्तों को असीम व अलौकिक ्रशान्ति प्रदान करता आ रहा है, इस स्थान पर पहुचनें पर सासारिक मायाजाल में भटके मानव की समस्त ब्याधियाँ ्रशान्ति को प्राप्त हो जाती है।
सूर्या देवी की महंता स्थानीय जनमानस में काफी लोकप्रिय है, दूर-दराज क्षेत्रों से भी भक्तों का आवगमन लगा रहता है, नवरात्रि, शिवरात्रि को भक्तों की खासी भीड यहां पर लगी रहती है, समय समय पर आयोजित धार्मिक समारोह में लोग काफी संख्या अपनी अपनी भागीदारी अदा करते है, सूर्या देवी मंदिर क्षेत्र पाण्डव कालीन गाथाओं को भी अपने आप में समेटे हुए है, माना जाता है, कि बनवास काल के दौरान पाण्डवों ने अपना काफी समय सूर्या देवी की ्रशरण में ब्यतीत किया, सूर्या देवी ्रशक्ति क्षेत्र की सबसे बडी विशेशता यह है, कि यह देवी ्रशेलजाम नदी के तट पर एक वट-वृक्ष के मध्य में है, भक्तजनों को देवी की पूजा अर्चना के लिए सीढयों के सहारे वृक्ष के मध्य तक जाना पडता है, सदियों से स्थित यह वृक्ष सूर्या देवी की विराट महिमा का बखान करता प्रतीत होता है, वट वृक्षों में विराजित ्रशक्ति के बारे में देवी भागवत में आता है।
’’अश्वत्थवट निम्बाम्रकपित्थ बदरीगते।
पनसार्ककरीरादिक्षीर वृक्षस्वरुपिणी।।
दुग्ध वल्लीनिवासार्हे दयनीये दयाधिके।
दाक्षिण्यकरुणारुपे जय सर्वज्ञवल्ल्भे।।
अर्थात् पीपल, वट, नीम, आम, कैथ, बेर में निवास करने वाली आप कटहल, मदार, करील, जामुन आदि क्षीर वृक्षस्वरुपिणी है, दुग्धवल्ली में निवास करने वाली दयनीय महान दयालु कृपालुता एंव करुणा की साक्षात् मूर्तिस्वरुपा एंव सर्वज्ञजनों की प्रिय स्वरुपिणी आपकी जय हों।
इस प्रकार वट-वक्षों के मध्य निवास करने वाली ्रशक्तियाँ साक्षात् शिवा का ही स्वरुप मानी जाती है, जगदम्बा माता की महाविराट शक्ति के रुप में ही लोग यहाँ माता सूर्या देवी की वंदना करते है, हिमालय भूमि में पूज्यनीय तमाम ्रशक्तिपीठों की भांति ही माता सूर्या देवी पूज्यनीयां व वदनीया है, इस स्थान पर ्रशक्ति का अवतरण कब व किस प्रकार हुआ इसका कोई स्पश्ट उल्लेख नही है, सदियों से लोग यहाँ देवी की पूजा अर्चना बडी श्रद्वा व भक्ति के साथ करते आ रहे है, जानकार लोगों बताते है सूर्या देवी की आराधना श्रावण मास में दही से भाद्रपद मास में ्रशर्करा अश्विन मास में खीर तथा कार्तिक मास में दूध, मार्गशीर्श महीने में फेनी एवं पौश माह में दूधि कूर्चिका माघ में महीने में गाय के द्यी का फाल्गुन के महीने में नारियल चैत्र में भावनाओं के निर्मल मोती, वैशाख, मास में गुडमिश्रित प्रसाद, ज्येश्ठ में ्रशहद, आशाढ में नवनीत व महुए के रस का नवैध माँ सूर्या देवी को अर्पित करना चाहिए।
महामंगल मूर्तिस्वरुपा महेश्वरी महादेवी परमेश्वरी सूर्या देवी को इनके भक्तजन सिद्वीकारिणी व कश्ट निवारिणी देवी के रुप में पूजते है, आस्थावान भक्तजन बताते है, इस दरबार में आकर जिसने सच्चे मन से सूर्या देवी का स्मरण कर लिया वह सदैव वैभवशाली रहता है, कोटि सूर्यो की आभाधारण करने वाली सभी प्रकार की सिद्वियां प्रदान करने वाली देवी सूर्या की महिमा अपरम्पार बतायी जाती है, देवी के उपासक इन्हें सर्वशक्तिस्वरुपा महेश्वर की ्रशाश्वत ्रशक्ति साधकों को सिद्वि देने वाली सिद्विरुपा, सिद्वश्वेरी, ईश्वरी आदि तमाम नामों से पुकारते है। कहा जाता है,अनेकों साधकों ने यहाँ साधन करके अलौकिक सिद्वियां प्राप्त की, इस क्षेत्र की गगनचुम्बी पर्वतमालाएं कल कल करती नदियां पूरे क्षेत्र को नवजीवन प्रदान करती है, लगभग पाँच भक्त एक साथ पेड पर ्रशक्ति स्वरुपा माता सूर्या देवी की पूजा अर्चना कर सकते है, यूं तो असंख्य धनाढय लोग माँ के भक्त है कोई भी यहां पर मंदिर का निर्माण करवा सकता है परन्तु मान्यता है, कि इस स्थान पर माता मन्दिर में नही बल्कि प्रकृति के खुले वातावरण में रहना चाहती है, कहा जाता है कि एक बार किसी भक्त ने यहा पर भव्य मंदिर के निर्माण की बात सोची तो उसी रात्रि स्वप्न में प्रकट होकर माता ने ऐसा करने से कदाचित माना किया कहा तो यहां तक जाता है कि यहां पर भव्य मंदिर के निर्माण की योजना एक बार महायोगी हैडाखान बाबा ने संकल्प पूवर्क बनायी तो माता सूर्या देवी ने बाबा हैडाखान जी को भी इस कार्य को करने से रोक दिया था, सेलजाम के पवित्र नदी के तट पर पर्वत की तटहटी पर स्थित आदि काल से पेड की गोद में विराजमान इस वट वृक्ष का नदी का तेज बहाव भी कुछ नही बिगाड पायी है, लालकुआंॅ विधानसभा क्षेत्र के अन्तर्गत गौलापार नामक गाँव से पूर्व दिशा में लगभग सत्रह किलों मीटर की यात्रा के साथ इस मंदिर तक आसानी से पहुंचा जा सकता है, इसी के समीप काल भैरव जी का मंदिर स्थित है।
पढ़िए स्टीव जोब्स की आत्मकथा के ansh: http://www.jankipul.com/2011/11/blog-post_14.html
(रविवार 22 अगस्त 2010 को राष्ट्रीय सहारा के "सन्डे उमंग" परिशिष्ट में देश के सभी संस्करणों में प्रकाशित आलेख: ) लोक देवताओं की विधान सभा है ब्यानधूरा मंदिर
देवभूमि में स्थापित लोक देवताओं के मंदिर अपने में अद्भुत हैं और तमाम विशेषताएं समेटे हुए हैं। जनपद नैनीताल व चम्पावत की सीमा पर स्थित ब्यानधूरा का ऐड़ी देवता मंदिर भी इन्हीं मंदिरों में शामिल हैं। सड़क से 35 किमी दूर इस मंदिर में लोहे के धनुष-बाण व अन्य अस्त्र-शस्त्र चढ़ाए जाते हैं। ऐड़ी देवता के इस मंदिर को देवताओं की विधानसभा भी माना जाता है, जबकि ऐड़ी को महाभारत के अर्जुन का स्वरूप भी माना जाता है। ब्यानधूरा में मंदिर कितना पुराना है इसकी पुष्टि नहीं हो पाई। लेकिन मंदिर परिसर में धनुषबाणों के अकूत ढेर से अनुमान लगाया जा सकता है कि यह पौराणिक मंदिर है। बताया जाता है कि ऐड़ी नाम के राजा ने ब्यानधूरा में तपस्या कर देवत्व प्राप्त किया। कालान्तर में यह लोक देवताओं के राजा के रूप में पूजे जाने लगे। ऐड़ी धनुष युद्ध विद्या में निपुण थे। उन्हें महाभारत के अर्जुन के अवतार के रूप में माना जाने लगा। इसके साथ ही ब्यानधूरा को देवताओं की विधानसभा माना जाता है। यहां ऐड़ी देवता को लोहे के धनुष-बाण चढ़ाए जाते हैं और अन्य देवताओं को अस्त्र-शस्त्र चढ़ाने की परंपरा भी है। बताया जाता है कि यहां के अस्त्रों के ढेर में सौ मन भारी धनुष भी है। मंदिर के ठीक आगे शुरू गोरखनाथ की धुनी थी है जहां लगातार धुनी चलती है। मंदिर प्रांगण में एक अन्य धुनी भी है जिसमें जागर आयोजित होती है। मंदिर के पुजारी दयाकिशन जोशी के मुताबिक यहां तराई से लेकर पूरे कुमाऊं क्षेत्र के लोग पूजा करने आते हैं। कई लोग मंदिर को गाय दान करते हैं। मकर सक्रांति के अलावा चैत्र नवरात्र, माद्यी पूर्णमासी को यहां भव्य मेला लगता है। मंदिर को शिव के 108 ज्योर्तिलिंगों में से एक की मान्यता प्राप्त है। उन्होंने बताया कि मान्यता होने के बाबत यहां आज तक यातायात की कोई व्यवस्था नहीं हो पाई है।
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