वसा रहित तेल-घी, शहद, गुड़, धूप, वैसलीन, मोमबत्ती, साबुन, गोंद, मच्छर व सांप रोधी व कीटनाशक दवाएं, जलौनी लकड़ी, पशुओं को चारा सहित अनेकों उत्पाद देने के साथ ही भूक्षरण रोधी भी है यह बहुउपयोगी वृक्ष
नवीन जोशी, नैनीताल। क्या आपने किसी ऐसे बहुपयोगी वृक्ष का नाम सुना है जिसके फूलों से शहद, बीजों की गिरी से वसा रहित तेल, घी, वैसलीन व मोमबत्ती, फल से गुड़, तेल निकालकर बची मीठी खली से धूप, अगरबत्ती तथा सांप व मच्छररोधी तथा कीटनाशक दवाएं व साबुन, तने के रस से गोंद, पत्तियों से पशुओं के लिए चारा और शेष हिस्से से इमारती व जलौनी लकड़ी सहित 30 के लगभग उपयोगी पदार्थ मिलते हों। और यदि ऐसा कोई एक वृक्ष हो तो उसे कल्पवृक्ष से इतर क्या कहेंगे। जी हां, उत्तराखंड में च्यूरा नाम का एक ऐसा कल्पवृक्ष पाया जाता है, जिससे प्रदेश के केवल एक जनपद पिथौरागढ़ में केवल तेल के जरिए ही डेढ़ करोड़ रुपए प्रति वर्ष की आय हो सकती है। देश में अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह के अलावा यह वृक्ष केवल उत्तराखंड में ही पाया जाता है, इस लिहाज से भी इसका उत्पादन देश में उत्तराखंड को अलग पहचान दिला सकता है।
च्यूरा का वृक्ष |
पहाड़ के इस कल्पवृक्ष, हिंदी में फुलवाड़ा, चिउड़ा व फलेल एवं देश-दुनिया में इंडियन बटर ट्री कहा जाने वाले च्यूरा-वानस्पतिक नाम डिप्लोनेमा बुटीरैशिया (Diploknema butyracea) के वृक्ष उच्च हिमालयन क्षेत्र तथा बाह्य हिमालय में कुमांऊ से पूर्व की ओर सिक्किम तथा भूटान तक समुद्र सतह से 300 से 1500 मीटर की ऊंचाई पर पाये जाते हैं। देश में अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह व पड़ोसी देश नेपाल के अलावा उत्तराखण्ड में मुख्यतः पिथौरागढ़ जनपद के काली, सरयू पूर्वी रामगंगा तथा गोरी नदी की घाटियों में प्राकृतिक रूप से बहुतायत में मिलता है, जबकि नैनीताल के पास नौकुचियाताल व भीमताल, बागेश्वर की गरुड़ व चंपावत जिले में नदियों की अपेक्षाकृत गरम घाटियों में भी इसके वृक्ष मिलते हैं। नेपाल में इसके 108 लाख वृक्ष बताए जाते हैं। बच्चे इसकी मीठी दूधिया फलियों को बड़े चाव से खाते हैं, जबकि इसके बीजों की गिरी से वसा रहित तथा अल्सर, हृदयरोग व गठियाबात आदि में बहुपयोगी तेल निकलता है, जो जमने की प्रवृत्ति वाला होता है, एवं वनस्पति घी के रूप में प्रयोग होता है। तेल को मट्ठे के साथ पकाकर सफेद वैसलीन बना ली जाती है। बची हुई गिरी और छिलकों को जलाकर मच्छर व मछलियां मारने तथा सांप को भगाने में उपयोग किया जाता है। वहीं फूलों से प्राकृतिक तरीके से शहद बनता ही है, जबकि फलियों से भी मीठा गुड़ उत्पादित किया जाता है। इसके अतिरिक्त यह ईंधन, दवा, इमारती लकड़ी, जानवरों के चारे तथा शहद प्राप्ति का उत्तम स्रोत है। नेपाल में इस वृक्ष से प्राप्त वसा को ‘चिवरी घी’ कहा जाता है। उत्तराखंड में च्यूरे के 12 से 21 मीटर तक ऊंचे और 1.8 से तीन मीटर तक गोलाई के वृक्षों में अगस्त माह के उत्तरार्द्ध से पतझड़ होने लगता है, जबकि सितंबर के दूसरे सप्ताह से नई कोपलें आ जाती हैं। अक्टूबर प्रथम सप्ताह से 20 से 50 के गुच्छों में सुंदर सफेद फूल आने लग जाते हैं। अक्टूबर अंत तक इन फूलों में रस भरने लगता है, जिनसे मधुमक्खियां शहद बनाती हैं। दिसंबर तक फूल सूख जाते हैं, तथा फलियां लगने लगती हैं। फलियां जून माह के दूसरे पखवाड़े तक पक जाती हैं, और इनके भीतर प्राप्त बीजों से बीजों के भार का 42 से 47 प्रतिशत और गिरी के भार का 60 से 67 प्रतिशत तक तेल प्राप्त हो जाता है। इसमें ग्लाइसिन, एलानीन, एस्पारटिक एसिड, ग्लुटेमिक एसिड, थ्रिओनीन, मीथीओनीन, नारल्युसीन, आरजीनीन, हिसटीडीन, लायसीन, प्रोलीन, टायरोसीन, ट्रिप्टोफीन व सीसटीन नाम के एमीनो अम्ल भी पाए जाते हैं, जिनकी अपनी अलग विशेशताएं व उपयोग हैं।
डा. तिवारी के अनुसार भूस्खलन रोकने में भी इसके वृक्ष बेहद सहायक साबित होते हैं। पिथौरागढ़ के चिमस्यानौला में च्यूरा पर आधारित मच्छरमार अगरबत्ती, धूप, सुगंधित अगरबत्ती, हवन सामग्री व मलहम आदि अनेक उत्पाद तैयार कर रहे नियो इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट ऑफ हिमालया (निधि) संस्था के निदेशक डा. सुनील पांडे बताते हैं कि पिथौरागढ़ जनपद की पंचेश्वर घाटी के डाकुड़ा, गुरुड़ा, गोगना, लिसनी, जमराड़ी, वेडा, हिमतड़, जाजर, सेल, सल्ला, गुरना, रोड़ा, निशनी व चहज गंगोलीहाट सहित करीब 100 गांवों की हजारों ग्रामीणों की आर्थिकी का यह मुख्य आधार है, और यहां प्रतिवर्ष 250 टन च्यूरा तेल उत्पादन व लगभग डेढ़ करोड़ रूपयों की प्रतिवर्ष आय की क्षमता है, जबकि वर्तमान में क्षमता का महज 30 फीसदी लाभ ही लिया जा पा रहा है। डा. तिवारी के मुताबिक प्रयास करने पर व इसके विपणन तथा गुणवत्ता सुधार आदि से आजीविका में 30 फीसदी तक की बढ़ोत्तरी की जा सकती है।