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Monday, May 17, 2010

तो उत्तराखण्ड ने सीख लिया नौकरशाहों पर लगाम लगाना !


  • `कमीशंड´ आईएएस अधिकारियों की जगह `प्रमोटेड´ अधिकारियों को दी `फील्ड´ की कमान
  • दोनों मण्डलों के आयुक्तों सहित आठ जिलों के डीएम व नौ के एसपी `उपकृत´ नौकरशाह
  • कभी मण्डल में आईसीएस अधिकारी होते थे तैनात, अब पीसीएस का दौर शुरू
नवीन जोशी, नैनीताल। नवोदित राज्य उत्तराखण्ड के राजनेताओं पर राज्य को नौकरशाहों के हाथों में सोंपने और उनके हाथों में खेलने के आरोप लगते रहते हैं। लेकिन लगता है राज्य के राजनेताओं ने इस समस्या का निदान ढूंढ लिया है। परेशानी सीधे आऐ `कमीशंड´ आईएएस अधिकारियों के सामने कम ज्ञान के राजनेताओं की `न चलने´ से थी, सो राज्य को देश का `भाल´ बनाने में जुटी राज्य की निशंक सरकार ने इसके तोड़ में प्रशासनिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण राज्य के `फील्ड´ के पद पहले से `उपकृत´ प्रमोटेड आईएएस अधिकारियों को सोंप दिऐ हैं। इसे  जनता से सीधे जुड़े प्रशासन व पुलिस के कार्य अनुभवी हाथों को देने की नयी पहल बताया जा रहा है। प्रदेश के 13 जिलों व दो मण्डलों के 30 सर्वोच्च पदों में से केवल नौ पद सीधे कमीशन से चुने गऐ नौकरशाहों के हाथ में हैं, जबकि शेष 20 पद अनुभवी पदोन्नत अधिकारियों के हाथ में दिऐ गऐ हैं। कुमाऊं मण्डल में तो हालात यह हैं कि यहाँ पुलिस व प्रशाशन के 14 पदों में से 12 पर पदोन्नत अधिकारी तैनात किये गए हैं. 
कुमाऊं के मण्डल मुख्यालय से ही बात शुरू करें तो आजादी से पूर्व तक यहां जिले की जिम्मेदारी भी `डिप्टी कमिश्नर´ यानी उपायुक्त को सोंपी जाती थी, जो आइसीएस (भारतीय सिविल सेवा) अधिकारी होते थे। नैनीताल जिले आईसीएस अधिकारी डब्लू ई बाब्स 1927 में पहले डिप्टी कमिश्नर थे। देश की आजादी यानी 1947 तक यहां आईसीएस अधिकारी ही कार्यरत रहे। एमए कुरैशी जिले के 15वें डिप्टी कमिश्नर के रूप में आखिरी आईसीएस अधिकारी थे। 1948 में आरिफ अली शाह से यहां आईएएस (भारतीय प्रशासनिक सेवा के)अधिकारियों के आने का सिलसिला शुरू हुआ जो वर्तमान में 58 जिलाधिकारियों तक चल रहा है। इसी तरह मण्डलायुक्त पद की बात करें तो 1952 तक आईसीएस अधिकारी ही यहां आयुक्त के पद पर कार्यरत रहे। केएल मेहता आजादी के बाद मण्डल के पहले आयुक्त थे, जो 1948 तक रहे, उनके बाद 1952 तक रहने वाले आरटी शिवदासानी दूसरे आईसीएस आयुक्त थे। तीसरे आयुक्त राम रूप सिंह से यहां आईएएस अधिकारियों के आने का सिलसिला शुरू हुआ जो मण्डल के 35वें आयुक्त एस राजू तक जारी रहा। इधर 1994 बैच के प्रोन्नत आईएएस अधिकारी कुणाल शर्मा को मण्डल के 36वें आयुक्त की जिम्मेदारी मिली है। श्री शर्मा 1976 बैच के पीसीएस अधिकारी हैं। मंडल के ही दूसरे पुलिस के सर्वोच्च पद I.G. कुमाऊं जीवन चन्द्र पाण्डेय भी प्रमोटेड I.A.S. अधिकारी ही हैं.  अब बात जिलों की। मण्डल में नैनीताल डीएम शैलेश बगौली एवं अल्मोड़ा के एसपी वीके कृष्णकुमार के अतिरिक्त सभी जिलों में डीएम एवं एसपी, एसएसपी पदोन्नत आईएएस अथवा आईपीएस अधिकारी हैं। उधर ढ़वाल मण्डल के आयुक्त की जिम्मेदारी भी कुमाऊं आयुक्त 1994 बैच के आईएएस अधिकारी अजय नबियाल को मिली है, जबकि मण्डल के देहरादून, उत्तरकाशी, चमोली व टिहरी जिलों के डीएम तथा रुद्रप्रयाग, पौड़ी एवं हरिद्वार जिलों के पुलिस अधीक्षक भी पदोन्नत पुलिस अधिकारी ही हैं। 
इस सब के पीछे यह माना जा रहा है कि एक तो पदोन्नत आईएएस अधिकारी सरकार की कृपा पर ही पदोन्नत होते हैं, इसलिए वह सीधे आऐ आईएएस अधिकारियों की तरह सरकार से अलग नहीं जा पाते। उनके तेवरों में भी काफी अन्तर होता है। सत्ता पक्ष के राजनेता उनसे वह काम करा सकते हैं, जिन्हें आईएएस अधिकारियों से कराना अक्सर `टेढ़ी खीर´ साबित होता है। परंपरा रही है कि सीधे आऐ तेजतर्रार आईएएस अधिकारियों को ही `फील्ड´ के डीएम व आयुक्त जैसे पद दिऐ जाऐं, जबकि सचिवालय में अधिक गम्भीरता से निर्णय लेने के लिए `दीर्घकालीन योजनाकारों´ के रूप में पदोन्नत आईएएस अधिकारियों को सचिवालय में रखा जाता है। लेकिन इधर सीधे आऐ आईएएस अधिकारियों को परंपरा से उलट सचिवालय के कम महत्वपूर्ण विभागों के `आइसोलेशन´ में डाल दिया गया है। इस नई कवायद को राज्य में ताकतवर मानी जाने वाली `आईएएस लॉबी´ के `पेट में लात' माना जा रहा सो जल्द उनके 'पेट में दर्द´ शुरू हो सकता है। इस बाबत सत्तारुड़ दल के नेताओं की सुनें तो उनका कहना है कि पदोन्नत अधिकारी अपने राज्य के हैं, सो वह जनता के दुःख-दर्द अधिक दूर कर सकते हैं, जबकि विपक्षी नेताओं का कहना है कि यह सत्तारुड़ों के लिए वसूली अच्छी करते हैं, साथ ही जैसे चाहो हंक जाते हैं, I.A.S. अधिकारियों की तरह 'दुलत्ती' नहीं मारते।  बहरहाल, आगे राजनेताओं व नौकरशाहों के इस `द्वन्द्व´ को खुलकर मैदान में आते देखना रोचक हो सकता है। इस बाबत राज्य के एक वरिष्ठ I.A.S. का कहना था कि राज्य सरकार की यह कवायद भाजपा सरकार के 'मिशन 2012' का हिस्सा है। सरकार को लगता है कि पदोन्नत अधिकारियों को अपने तरीके से हांक कर मां मांफिक कार्य करवा लिए जाएँ. अधिकारी भाजपाईयों की सुनें. लेकिन इसी अधिकारी का कहना था कि सरकार का यह दांव शर्तिया उलटा पड़ने वाला है। जिलों व मंडलों के  I.A.S. अधिकारी अपने प्रभाव से शासन में बैठे अपने से कमोबेश कम वरिष्ठ इन मूलतः पीसीएस  अधिकारियों से करा लिया करते थे, किन्तु अब स्थिति उल्टी होने से जिले व मंडल बेहद कमजोर हो जायेंगे, और उनके कार्य शासन में अटके रहेंगे। अपनी उपेक्षा से क्षुब्ध होने के कारण भी वे 'बिशन' (सिंह चुफाल-भाजपा अध्यक्ष) के  'मिशन 2012' को कभी सफल न होने देने की कसमें खा रहे हैं।

Wednesday, May 12, 2010

देश की 196 भाषाओं के साथ कुमाउनीं व गढ़वाली भी खतरे की जद में

नवीन जोशी, नैनीताल। भाषाओं को न केवल संवाद का माध्यम वरन संस्कृतियों का संवाहक भी माना जाता है। किसी देश की शक्ति उसकी भाषा की प्राचीनता के साथ ही उसके बोलने वाले लोगों की संख्या से भी आंकी जाती है, लेकिन `ग्लोबलाइजेशन´ के वर्तमान दौर में दुनिया भर की भाषाऐं स्वयं को खोकर अन्य में समाती जा रही हैं। इसमें भी भारत के लिए अधिक चिंताजनक बात यह है कि गंगा जैसी सदानीरा नदियों के साथ ही संस्कृतियों के उदगम स्थल कहे जाने वाले हिमालयी राज्यों में भाषाएँ सर्वाधिक तेजी से असुरक्षित होती जा रही हैं.  देश का `भाल´ उत्तराखंड भी इसमें अपवाद नहीं है. बात उत्तराखंड से ही शुरू की जाए तो यहाँ यह पक्ष भी उजागर होता हैं कि भले यह प्रदेश अपने संवाद के प्रमुख माध्यम कुमाउनीं व गढ़वाली को `बोलियों´ से ऊपर `भाषा´ मानने तक को भले तैयार न हो, किन्तु सात समुन्दर पार संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन यानी 'यूनेस्को' ने इन भाषाओं के लिए खतरे की घंटी बजा दी है। यूनेस्को ने राज्य की कुमाउनीं, गढ़वाली के साथ ही रांग्पो भाषाओं को `वलनरेबले´ यानी भेद्य श्रेणी में रखा है, जिसका अर्थ यह हुआ कि इन भाषाओं पर ख़त्म होने का सर्वाधिक खतरा है। इसके पीछे संभवतया यह कारण प्रमुख हो कि इन भाषाओं के बोलने वाले इन्हें छोड़कर अन्य भाषाओं के प्रति अधिक आसानी से आकर्षित हो सकते हैं. इनके साथ ही राज्य की दारमा व ब्योंग्सी भाषाओं को `निश्चित खतरे´ तथा वांगनी को `अति गम्भीर खतरे´ वाली भाषाओं की श्रेणी में रखा गया है।
  • हिमालयी राज्यों की भाषाओं को है अधिक खतरा
  • यूनेस्को ने उत्तराखण्ड की 'रांग्पो' को भेद्य तथा 'दारमा' व 'ब्योंग्सी' को निश्चित व 'वांगनी' को अति गम्भीर खतरे में माना
यूनेस्को द्वारा अपनी वेबसाइट पर ताजा अपडेट की गई जानकारी के अनुसार कुमाउनीं भाषा 23 लाख 60 हजार लोगों द्वारा बोली जाती है। इस भाषा को बोलने वाले लोग उत्तराखण्ड के अलाव उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आसाम, बिहार और पड़ोसी देश नेपाल में भी हैं। यानी यनेस्को के सवेक्षण के दौरान इन क्षेत्रों के लोगों ने भी स्वयं को कुमाउनीं भाषा भाषी बताया है। मालूम हो कि कुमाउनी चन्द शासनकाल में राजभाषा रही है। इसकी शब्द सामर्थ्य दुनिया की समृध्हतम भ्हषाओं से भी अधिक है. उदाहरनार्थ अंगरेजी में केवल शब्द के लिए हिंदी में बू,  खुसबू व बदबू आदि शब्द हैं तो कुमाउनी में अलग-अलग 'बू' के लिए किडैनी, हन्तरैनी, स्योंतैनी, बॉस, चुरैनी जैसे दर्जनों शब्द मौजूद है.  इसके अलावा यूनेस्को ने गढ़वाली भाषा बोलने वालों की संख्या 22 लाख 67 हजार 314 आंकी गई है। `भेद्य´ श्रेणी  में ही प्रदेश के चमोली जनपद में आठ हजार लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा रॉग्पो को भी रखा गया है, देश की कुल 82 भाषाऐं भी इस श्रेणी में हैं। इसके अतिरिक्त देश की 62 भाषाएँ  `डेफिनिटली इनडेंजर्ड´ यानी `निश्चित खतरे´ की श्रेणी में रखी गई हैं, जिनमें उत्तराखण्ड की अल्मोड़ा व पिथौरागढ़ जिलों तथा नेपाल के दार्चूला  जिले में बोली जाने वाली `दारमा´ एवं महाकाली नदी घाटी क्षेत्रा में बोली जाने वाली भाषा `ब्योंसी´ को रखा गया है, जिसके बोलने वालो की संख्या क्रमश: 1,761 व 1,734 बताई गई है। इससे आगे की श्रेणी `अति गम्भीर´ में भी देश की 41 भाषाओं के साथ गढ़वाल मण्डल की `वांगनी´ को रखा गया है, जिसे बोलने वालों की संख्या 12 हजार आंकी गई है। अन्तिम श्रेणी `विलुप्त´ हो चुकी भाषाओं की है। इसमें देश की पांच भाषाऐं पूर्वोत्तर की अहोम, अण्डरो व सेंगमाई के साथ उत्तराखण्ड की तोहचा व रंगकास भी शामिल हैं। 
श्रीलंका सबसे भाग्यशाली
भाषाओं के खतरे में न जाने के मामले में भारतीय उपमहाद्वीप में सर्वाधिक परिवर्तन भारत में ही हुऐ हैं। यहां 196 भाषाओं पर खतरे की छाया पड़ी है, जबकि श्रीलंका स्वयं की भाषाओं को बचाने में सर्वाधिक भाग्यशाली रहा है। यहां की केवल एक भाषा इस जद में है। जबकि पड़ोसी देशों पाकिस्तान की 27 व नेपाल की 71 भाषाऐं विभिन्न श्रेणियों में खतरे में है। उधर अपनी भाषा को सर्वाधिक महत्व देने के लिए पहचाने जाने वाले जापान की केवल आठ भाषाऐं ही इस श्रेणी में हैं। 
खास बात यह है कि देश की जिन कुल 196 भाषाओं को इन विभिन्न श्रेणियों में रखा गया है, उनमें दक्षिण भारत की तकरीबन केवल एक दर्जन भाषाओं के अतिरिक्त कुछ उड़ीसा तथा शेष  तकरीबन 85 फीसद पूर्वोत्तर के सात राज्यों सहित उत्तराखण्ड, हिमांचल, जम्मू व कश्मीर तथा सिक्किम आदि हिमालयी राज्यों की हैं। यानी हिमालयी राज्यों से ही अधिकांश भाषाऐं खतरे की जद में जाती जा रही हैं। विशेशज्ञों की मानें तो अभी हाल तक इन्हीं राज्यों ने अपनी मूल भाषाओं को सम्भाल कर रखा था, किन्तु बीते दशक में यही भाषाओं के संक्रमणकाल में सर्वाधिक प्रभावित हुऐ और अपनी भाषाओं को बचाऐ न रख सके, जबकि अन्य राज्यों में भाषाओं का किसी एक भाषा में सिमटना पहले ही हो चुका था। 
यह कर सकते हैं:-
देश-प्रदेश में 'भारतीय जनगणना २०११'  चल रही है. इसमें अपनी मातृ-भाषा गढ़वाली / कुमाऊंनी लिखी जा सकती है. इस तरह और कुछ नहीं तो अपनी दुदबोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूचि में स्थान दिलाया जा सकता है. 
(अधिक जानकारी यहाँ देखें: http://www.facebook.com/pages/garhavali-kumaunni-ko-matr-bhasa-ke-rupa-mem-likhembharatiya-janaganana-2011-mem-l/113347272038036?ref=mf)


(देश-दुनिया की असुरक्षित भाषाओं के बारे में अधिक जानकारी यहाँ देखें: http://www.unesco.org/culture/ich/index.php?pg=00206)

Saturday, May 8, 2010

क्या निशंक सरकार की चला-चली की बेला आ गयी....

नवीन जोशी, नैनीताल। क्या 10 वर्ष के उत्तराखंड में जल्द छठा मुख्यमंत्री आने जा रहा है... क्या जल विद्युत परियोजनाओं का दूसरी बार सर उठाने वाला विवाद मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल `निशंक´ की सत्ता ले डूबेगा...? निशंक का बीती 6 मई को नैनीताल का संक्षिप्त दौरा नगर में ऐसी ही चर्चाओं का तूफान छोड़ गया है। मुख्यमंत्री यहाँ जिले के ही दो-दो मंत्रियों के होते हुए ओर नयों को छोड़ दो 'बीत राग' पूर्व अध्यक्षों पूर्व पार्टी अध्यक्ष बची सिंह रावत व भाजयुमो के पूर्व अध्यक्ष पुश्कर सिंह धामी के साथ हैलीकॉप्टर से आऐ और थोड़ी देर में ही लौट भी गऐ, लेकिन अगले दिन पूरे दिन हुई बारिश के कारण घरों से बाहर न निकल पाऐ लोग इसी मुद्दे पर चर्चा करते देखे गऐ। खासकर सत्तारूढ़ दलों के लोग भी चटखारे लेने में पीछे नहीं रहे।
डा. निशंक के सम्बंध यूं पार्टी संगठन के `नऐ´ नेताओं से भी मधुर ही बताऐ जाते हैं, वर्तमान बुरे दौर में पार्टी संगठन की चुप्पी के बीच उनके विरुद्ध मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे एक मंत्री और कुछ उपकृत दयित्व्धारी उनके पक्ष में बोल भी रहे हैं, परन्तु उनके नैनीताल के छोटे से दौरे ने बड़ी चर्चाओं को हवा दे दी है. दो `पुराने´ नेताओं के साथ उनके नैनीताल आगमन की पृष्ठभूमि में पार्टी के दो पूर्व मुख्यमन्त्रियों कोश्यारी व खण्डूड़ी के बीच पक रही खिचड़ी की चर्चाओं को आधार बताया जा रहा है। निशंक की ताजपोशी का आधार बने इन पूर्व मुख्यमन्त्रियों के बीच की जंग जगजाहिर है, लेकिन इधर चर्चाओं पर यकीन किया जाऐ तो दोनों वरिष्ठ  नेताओं की तलवारें न केवल म्यान में वापस जा चुकी हैं, वरन दोनों `एक´ हो साथ बैठकर उस `शकुनि´ का भी पता लगा चुके हैं, जिसके कारण आज वह एक तरह से राजनीति के हाशिये पर पहुंच गऐ हैं। दोनों इस बात पर भी सर धुन चुके हैं कि आखिर उनके बीच विवाद था क्या, और इस बात का गुणा भाग भी कर चुके हैं कि आपसी जंग से दोनों को क्या मिला। ऐसे में अब वह `एक´ हो चुके हैं।  कोश्यारी के 'राष्ट्रीय उपाध्यक्ष' बनाने में खंडूरी का सहयोग भी जाहिर हो चूका है. इधर जल विद्युत परियोजनाओं के मुद्दे पर विपक्ष के वार को एक बार जाया कर चुके मुख्यमंत्री डा. निशंक पर इस बार पार्टी के भीतर से हुआ यह दूसरा वार इस `एका´ से भी जोड़ा जा रहा है। इस बार पार्टी के ही समर्थित टिहरी जिला पंचायत अध्यक्ष ने मुख्यमंत्री  पर सीधा हमला बोलते हुए जल विद्युत् परियोजना के ऐवज में पार्टी फंड में एक करोड़ रुपये देने का सनसनीखेज आरोप लगाया है. इधर बताया जा रहा है हाईकमान के पास `निशंक´ के कार्यकाल में पार्टी की हालत और अधिक पतली होने की `फीड´ भी पहुंच चुकी है, खासकर इन आरोपों को हाई कमान ने बेहद गंभीरता से लिया है, और आरोप सही पाए जाने पर कार्रवाई करने का संकेत दिया है। जाहिर है पार्टी में अदनी सी हैसियत रखने वाले गुनसोला ने अपने दम आवेश में आकर तो आरोप नहीं ही लगाए होंगे. इधर भाजपा की हालत दिन-प्रतिदिन पतली होती जा रही है. भ्रष्टाचार रहित शासन देने का भाजपा का शिगूफा जनता खंडूरी के शासन काल में ही समझ चुकी है. जनता समझ चुकी है कि कोंग्रेस की इमानदारी खुद भी खाने और दूसरों को भी खिला कर राज्य को मिल-बाँट कर ख़त्म कर देने की है, जबकि भाजपा की इमानदारी केवल दूसरों के लिए है, यानी वह खुद अकेले खाने पर विश्वास करते हैं, मूल भावना दोनों की ही राज्य को चट कर जाने की है.  इधर विगत माह पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कलराज मिश्र के मुख्यालय आगमन पर उनके समक्ष पड़ा कार्यकर्ताओं का टोटा, दूसरे उपाध्यक्ष कोश्यारी के आगमन पर दिल्ली रैली के लिऐ कराऐ गऐ 10 हजार हस्ताक्षरों को झुठलाते चंद कार्यकर्ताओं के उठे हाथों ने पार्टी की स्थिति की चुगली खुद कर दी थी। पुराने पार्टी कार्यकर्ता पूरी तरह से पार्टी के कार्यक्रमों से किनारा कर रहे हैं। वह मुख्यमंत्री के कार्यक्रम में भी नहीं पहुंचे. ऐसे में मुख्यमंत्री का मुख्यालय आना और दो पूर्व नेताओं को साथ लाना चर्चाओं को हवा दे गया है। उल्लेखनीय है कि बचदा को खण्डूड़ी और धामी को कोश्यारी का नजदीकी माना जाता है। कहा जा रहा है कि निशंक  मुख्यमंत्रीखण्डूड़ी और  को वर्तमान विपरीत परिस्थितियों में भी अपने `साथ´ होने का सन्देश देने के लिए इन्हें साथ लेकर आऐ। लेकिन जो होता है, उसे न दिखाने और जो नहीं होता, उसे दिखाने को ही आज के दौर में `राजनीति´ कहा जाता है। वैसे भी स्वयं को मूलतः पत्रकार बताने वाले डा. निशंक दिखावे की कला खूब जानते है, लेकिन यहाँ लगता है कि वह, वह दिखा गए, जो छुपाना चाहते थे....

Saturday, May 1, 2010

पहाड़ की बेटी ने छुवा आसमान, मनस्वी बनी `मिस इण्डिया वर्ल्ड´

नवीन जोशी, नैनीताल। पहाड़ चढ़ने के लिए पहाड़ सा होंसला, विश्वास व काबिलियत होनी चाहिऐ, यह आज तक सिर्फ सुना जाता है. तन, मन, मस्तिष्क और मानस की सुन्दरता की समन्वय 'पहाड़ की बेटी' मनस्वी ममंगई नाम की लड़की ने इस कथन को सही साबित करते हुऐ देश भर की मध्यमवर्गीय समाज की लड़कियों के लिए सौन्दर्य प्रतियोगिताओं की एक नयी राह खोल दी है। उसने मुम्बई में आयोजित देश की सबसे प्रतिष्ठित और धनाढ्य व हाई-प्रोफाइल वर्ग की लड़कियों के लिए मानी जानी वाली 'पेंटालून फेमिना मिस इण्डिया वर्ल्ड २०१०' (पीएफएमआई) का खिताब जीत लिया है। जीवन में सभी प्रतियोगिताओं की `टॉपर´ बनने का अनोखा रिकार्ड रखने वाली मनस्वी की बीते चार वर्षों में खिताबों की हैट-ट्रिक है, अब उसके आगे `मिस वर्ल्ड´ प्रतियोगिता का नया आसमान है, जिसे जीतने का उसके साथ ही उसके परिजनों को भी पूरा विश्वास है।
जीवन में सभी प्रतियोगितओं की `टॉपर´ रहने का अनोखा रिकार्ड, यह थी पुरस्कारों की हैट-ट्रिक, आगे मिस वर्ल्ड बनने का पूरा भरोसा

मनस्वी की ननिहाल नैनीताल में है। उसके नाना चन्द्रशेखर नैलवाल यहां प्रभागीय वनाधिकारी रहे। वह मनस्वी की नानी पुष्पा नैलवाल, मामा तुमुल नैलवाल व मामी मीनू के साथ यहीं मेविला कंपाउण्ड में रहते हैं। ममगाईं परिवार मूलत: प्रदेश के दूरस्थ बागेश्वर जिले के गरुड़ कश्बे के निकट गड़सेर गांव का निवासी है। मनस्वी की मां प्रभा और पिता जन्मेजय नैलवाल नैनीताल के ही डीएसबी परिसर से पढ़े। मां ने यहीं से एमए किया, और पिता ने ग्रेजुऐशन के बाद एमएलएनआर कालेज से इंजीनियरिंग की। बहरहाल नौकरी पर अपने कार्य को तरजीह देते हुऐ उन्होंने दिल्ली से कांट्रेक्टिंग शुरू की। यहीं 1988 में मनस्वी का जन्म हुआ। बाद में वह चण्डीगढ़ चले गऐ। इस बीच मनस्वी अपनी ननिहाल नैनीताल आती रही।कुमाउनी व्यंजन 'भट्ट की चुड़कानी' व 'पालक का कापा' आज भी उसके पसंदीदा ब्यंजन हैं. उसे नैनी सरोवर में बोटिंग करना व यहाँ के चिड़ियाघर में घूमना भी बहुत पसंद है.  यहां 10 वर्ष की मनस्वी ने वर्ष 1998, 99 और 2000 में लगातार तीन वर्ष मल्लीताल `जूम लेण्ड´ में होने वाली साह मेमोरियल स्केटिंग प्रतियोगिता जीत कर प्रतियोगिता की रनिंग ट्राफी भी हासिल की। चण्डीगढ़ के हंसराज पब्लिक स्कूल से प्रथम श्रेणी में इंटर करने के बाद परिजन चाहते थे कि वह इंजीनियरिंग करे, परन्तु उसने अपने बचपन की ख्वाहिस 'मोडलिंग' की ओर कदम बढ़ाये, इस दौरान माता-पिता में चल रहे अलगाव को नजरअंदाज करते हुए वह एलीट माडलिंग कंपनी से जुड़ गई और वर्ष 2006 में ही उसने कैरियर का पहला खिताब `इण्डिया मॉडल हंट´ जीत लिया। वर्ष 08 में उसने मलेशिया में आयोजित हुई `मिस इंटरनेशनल टूरिज्म प्रतियोगिता´ में देश का प्रतिनिधित्व किया और इसे भी वह जीत कर ही लौटी। इधर शुक्रवार की मध्य रात्रि उसने प्रख्यात फिल्म निर्माता मधुर भण्डारकर व विपुल अम्रुतलाल शाह जैसे निर्णायकों के समक्ष पेंटालून फेमिना मिस इण्डिया वर्ल्ड 2010 के 18 फाइनलिस्टों को पछाड़ते हुऐ वह मुकाम हासिल कर लिया, जिसे पाना देश की मध्यमवर्गीय लड़कियों के लिए आज से पहले कभी सम्भव न हुआ । प्रतियोगिता की शर्तों के अनुसार उसे मधुर भण्डारकर की फिल्म मिलनी भी तय है। लेकिन उसकी मंजिल देश के लिए `मिस वर्ल्ड´ का खिताब वापस लाना है।
मिसाल हैं मनस्वी और प्रभा 
आज भी लड़कियों को वर्जनाओं से घिरा मानने वाले समाज में मनस्वी एक मिसाल है। वह अपने माता पिता की इकलौती सन्तान है। उसके परिजनों का कहना है कि उसने वह कर दिखाया जैसा उसके जैसी मध्मवर्गीय लड़कियां ख्वाब में भी नहीं सोच भी नहीं पातीं, और लड़कों के लिए भी यह संभव नहीं होता. और यह भी सच्चाई है कि मनस्वी की इस सफलता के पीछे भी एक अकेली महिला यानि उसकी मा प्रभा नैलवाल ही हैं, जो चार वर्ष पूर्व पति से अलगाव के बाद अकेले  दम उसे यह मुकाम दिला पाई हैं. 
हाईकोर्ट में अधिवक्ता उसके मामा तुमुल नैलवाल ने बताया कि अपनी जीत के तुरन्त बाद उसने उसने यह विश्वास जताया। तुमुल सहित सभी परिजनों को भी उसके विश्वास पर पूरा विश्वास है, साथ ही अब पूरे प्रदेशवासियों की निगाहें भी उसकी ओर लग गई हैं। उसकी इस उपलब्धि से यहां उसकी ननिहाल में बेहद हर्ष का माहौल है। परिजन मिठाइयां बांट रहे हैं। घर में बधाइयां देने वालों का ताँता लगा हुआ है। 
मनस्वी की उपलब्धि पर उसकी नानी को मिठाई खिलते मामा-मामी.

Friday, April 30, 2010

उत्तराखण्ड में 1400 वर्ष पुराना है श्रमिक आन्दोलनों का इतिहास

नवीन जोशी, नैनीताल। आन्दोलनों की परिणति स्वरुप ही बने उत्तराखण्ड राज्य में दिन-प्रतिदिन होने वाले कर्मचारी आन्दोलनों पर गाहे-बगाहे 'आन्दोलनकारी राज्य' होने की टिप्पणी की जाती है, लेकिन यह भी सच्चाई है कि राज्य के आन्दोलाओं का राज्यवाशियों पर विभिन्न काल खण्डों में हुए अत्याचारों के बराबर ही लम्बा व स्वर्णिम इतिहास रहा है. खासकर श्रमिक आन्दोलनों की बात की जाये तो यहाँ इनका इतिहास 1400 वर्ष से भी अधिक पुराना है। 'कुमाऊं केसरी' बद्री दत्त पाण्डे द्वारा लिखित पुस्तक `कुमाऊं का इतिहास´ के पृष्ठ संख्या २१२ के अनुसार यहां सातवीं शताब्दी में कत्यूर वंश के अत्याचारी व दुराचारी राजा वीर देव के शासनकाल में ही श्रमिक विरोध की शुरुआत हो गई थी। जिसके परिणाम स्वरुप ही कुमाऊं के लोकप्रिय गीत तथा अब लोक प्रियता के कारण कई कुमाउनीं गीतों का मुखड़ा बन चुके `तीलै धारू बोला´ के रूप में प्रदेश में श्रमिकों के विद्रोह के पहले स्वर फूटे थे। 
फोटो सौजन्य : माही सिंह मेहता 
  •  प्रसिद्ध कुमाउनीं लोकगीत `तीलै धारू बोला´ के रूप में फूटे थे विद्रोह के पहले स्वर 
  • श्रमिकों के कन्धों में हुकनुमा कीलें ठुकवा दी थीं अत्याचारी राजा वीर देव ने 
  • गोरखों के शासन  काल में जनता के शिर से बाल गायब हो गए थे
  • अंग्रेजों ने लादे थे कुली बेगार, कुली उतार व कुली बर्दाइश जैसे काले कानून

`कुमाऊं का इतिहास´ पुस्तक के अनुसार अन्तिम कत्यूरी राजा वीर देव अपनी मामी तिलोत्तमा देवी उर्फ तिला पर कुदृष्टि रखता था। उसने तिला से जबरन विवाह भी किया। उन दिनों आवागमन का प्रमुख साधन डोली था, पहाड़ी पगडण्डियों में राजा के डोली हिंचकोले न खाऐ, केवल इसलिऐ उसने कहारों के कंधों में हुकनुमा कीलें ठुकवा दी थीं। आखिर जुल्मों से तंग आकर कहारों ने राजा को डोली सहित `धार´ यानी पहाड़ की चोटी से खाई में गिराकर मार डाला। और `तिलै धारो बोला´ गाते हुऐ रानी तिला को राजा के अत्याचारों से मुक्ति का शुभ समाचार सुनाया। इस विषय में शोध कर चुके कुमाऊं विवि के डा. भुवन शर्मा इसकी पुष्टि करते हैं। श्री शर्मा बताते हैं कि कत्यूरों के बाद वर्ष 1790 में उत्तराखंड के कुमाऊं एवं 1803-04 में गढ़वाल अंचलों पर गोरखों का आधिपत्य हो गया, इसके बाद राज्य में राजशाही की ज्यादतियां और ज्यादा बढीं। गोरखा राज के अत्याचारों  का उल्लेख कुमाउनीं के 'आदिकवि' कहे जाने वाले गुमानी पन्त की कविता `दिन दिन खजाना का भार बोकना लै, शिब शिब चूली में का बाल न एकै कैका´ में भी मिलता है। यानी सरकारी बोझ को धोने के कारण किसी के मध्य शिर में बाल ही नहीं होते थे.  अंग्रेजी शासनकाल आया तो यहाँ की जनता पर  कुली बेगार, कुली उतार व कुली बरदाइश जैसी कुप्रथाएं जबरन थोप दी गयीं, जिसका भी यहां समय-समय पर विरोध हुआ। परिपालन में जरा सी घी चूक पर राजद्रोह के अधियोग वाले इन काले कानूनों के विरोध में स्वयं श्री बद्री दत्त पाण्डे ने `कुमाऊं परिषद´ की स्थापना की। 14 जनवरी 1921 को उत्तरायणी के पर्व पर बागेश्वर में श्री पाण्डे, हरिगोविन्द पन्त तथा चिरंजीवी लाल आदि ने पवित्र सरयू नदी में ऐतिहासिक आन्दोलन के दौरान बेगार के रजिष्टर  बहा दिऐ तथा हाथों में पवित्र जल लेकर बेगार न देने की शपथ ली तथा इन कुप्रथाओं का अन्त कर दिया। गढ़वाल में 30 जनवरी 1921 को बैरिस्टर मुकुन्दी लाल के नेतृत्व में भी यही शपथ ली गई। आजादी के बाद भी प्रदेश में श्रमिक आन्दोलनों का सिलसिला नहीं थमा. 1947 48 में अस्कोट तथा टिहरी रियासतों में भी महत्वपूर्ण श्रमिक आन्दोलन हुऐ, जिनमें प्रदेश के प्रसिद्ध आन्दोलनकारी नागेन्द्र सकलानी शहीद हुऐ। अल्मोड़ा के झिरौली मैग्नेसाइट तथा रानीखेत ड्रग फैक्टरी में हुऐ श्रमिक आन्दोलनों में जनकवि गिरीश तिवारी `गिर्दा´ ने 'हम मेहनतकश इश दुनियां से जब अपना हिस्सा मांगेंगे, एक खेत नहीं, एक बाग़ नहीं, हम पूरा हिस्सा मांगेंगे' की तर्ज पर `हम कुली कभाड़ी ल्वार, ज दिन आपंण हक मागूंलो...´ तथा `जैन्ता एक दिन त आलो उ दिन य दुनी में´ जैसे लोकप्रिय गीतों की रचना की। स्वर्गीय बालम सिंह जनौटी की भी इन आन्दोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसके बाद प्रदेश में श्रमिक आन्दोलन भूमिहीनों द्वारा सरकारी भूमि पर कब्जा करने के रूप में परिवर्तित हुऐ। 1958 में टाण्डा के पास वन भूमि में 47 गांव बसे तथा प्रशासनिक कार्रवाई में आठ किसानों को जान गंवानी पड़ी। 1968 में गदरपुर तथा रुद्रपुर में सूदखोरों के खिलाफ श्रमिकों के बड़े आन्दोलन हुऐ। 13 अप्रैल 1978 को पन्तनगर में खेत मजदूरों पर पीएसी द्वारा गोलियां बरसाईं गई, जिसमें दो दर्जन जानें गईं। 1980 से 1990 तक बिन्दूखत्ता श्रेत्र में भूमिहीनों ने 10,452 एकड़ भूमि पर कब्जा कर लिया। यहाँ प्रशासन से कई बार उग्र झड़पों के बाद कई भूमिहीनों पर `मीसा´ नामक राजद्रोह कानून के उल्लंघन के आरोप लगे। 1994 के बाद हुऐ उत्तराखण्ड आन्दोलन में भी सरकारी कर्मचारियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही, जिसके परिणामस्वरूप अलग राज्य अस्तित्व में आया। वर्तमान में भी सरकारी कर्मचारी एवं सिडकुल आदि में लगे उद्योगों में श्रमिक आन्दोलनों के स्वर कभी धीमे तो कभी उग्र सुनाई ही देते हैं। 

Tuesday, April 20, 2010

विश्व भर के पक्षियों का जैसे तीर्थ है नैनीताल






नवीन जोशी, नैनीताल। सरोवरनगरी नैनीताल की विश्व प्रसिद्ध पहचान पर्वतीय पर्यटन नगरी के रूप में ही की जाती है, इसकी स्थापना ही एक विदेशी सैलानी पीटर बैरन ने १८ नवम्बर १८४१ में की थी, और तभी से यह  नगर देश-विदेश के सैलानियों का स्वर्ग है. लेकिन इससे इतर इस नगर की एक और पहचान विश्व भर में है, जिसे बहुधा कम ही लोग शायद जानते हों. इस पहचान के लिए नगर को न तो कहीं बताने की जरूरत है, और नहीं महंगे विज्ञापन करने की. दरअसल यह पहचान मानव नहीं वरन पक्षियों के बीच है. पक्षी विशेषज्ञों के अनुसार देश भर में पाई जाने वाली 1100 पक्षी प्रजातियों में से 600 यहां मिलती हैं। प्रवासी पक्षियों या पर्यटन की भाषा में पक्षी सैलानियों की बात करें तो देश में कुल आने वाली 400 पक्षी प्रजातियों में से 200 से अधिक यहां आती हैं, जबकि 200 से अधिक पक्षी प्रजातियों का यहां प्राकृतिक आवास है। यही आकर्षण है कि देश दुनियां के पक्षी प्रेमी प्रति वर्ष बड़ी संख्या में केवल पक्षियों के दीदार को यहाँ पहुंचाते हैं. इस प्रकार नैनीताल को विश्व भर के पक्षियों का तीर्थ कहा जा सकता है



  • देश की 1100 पक्षी प्रजातियों में से 600 हैं यहां
  • देश में आने वाली 400 प्रवासी प्रजातियों में से 200 से अधिक भी आती हैं यहां
  • स्थाई रूप से 200 प्रजातियों का प्राकृतिक आवास भी है नैनीताल
  • आखिरी बार 'माउनटेन क्वेल' को भी नैनीताल में ही देखा गया था 
नैनीताल में पक्षियों की संख्या के बारे में यह दावे केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी पार्क भरतपुर राजस्थान के मशहूर पक्षी गाइड बच्चू सिंह ने किऐ हैं।वह गत दिनों ताईवान के लगभग १०० पक्षी प्रेमियों को जयपुर की संस्था इण्डिविजुअल एण्ड ग्रुप टूर्स के मनोज वर्धन के निर्देशन में यहाँ लाये थे. इस दौरान ताईवान के पक्षी प्रेमी जैसे ही यहाँ पहुंचे, उन्हें अपने देश की ग्रे हैरौन एवं चीन, मंगोलिया की शोवलर, पिनटेल, पोचर्ड, मलार्ड व गार्गनी टेल जैसी कुछ चिड़ियाऐं तो होटल परिसर के आसपास की पहाड़ियों पर ही जैसे उनके इन्तजार में ही बैठी हुई मिल गईं। उन्हें यहां रूफस सिबिया, बारटेल ट्री क्रीपर, चेसनेट टेल मिल्ला आदि भी मिलीं। मनोज वर्धन के अनुसार वह कई दशकों से यहाँ विदेशी दलों को पक्षी दिखाने ला रहे हैं. यहां मंगोली, बजून, पंगोट, सातताल व नैनीझील एवं कूड़ा खड्ड पक्षियों के जैसे तीर्थ ही हैं। उनका मानना है कि अगर देश-विदेश में नैनीताल का इस रूप में प्रचार किया जाऐ तो यहां अनंत संभावनायें हैं। अब गाइड बच्चू सिंह की बात करते हैं। वह बताते हैं जिम कार्बेट पार्क, तुमड़िया जलाशय, नानक सागर आदि का भी ऐसा आकर्षण है कि हर प्रवासी पक्षी अपने जीवन में एक बार यहां जरूर आता है।वह प्रवासी पक्षियों का रूट बताते हैं। गर्मियों में लगभग 20 प्रकार की बतखें, तीन प्रकार की क्रेन सहित सैकड़ों प्रजातियों के पक्षी साइबेरिया के कुनावात प्रान्त स्थित ओका नदी में प्रजनन करते हैं। यहां सितम्बर माह में सर्दी बढ़ने पर और बच्चों के उड़ने लायक हो जाने पर यह कजाकिस्तान-साइबेरिया की सीमा में कुछ दिन रुकते हैं और फिर उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, अफगानिस्तान व पाकिस्तान होते हुए भारत आते हैं। इनमें से लगभग 600 पक्षी प्रजातियां लगभग एक से डेड़ माह की उड़ान के बाद भारत पहुंचती हैं, जिनमें से 200 से अधिक उत्तराखण्ड के पहाड़ों और खास तौर पर अक्टूबर से नवंबर अन्त तक नैनीताल पहुँच जाते हैं। इनके उपग्रह एवं ट्रांसमीटर की मदद से भी रूट परीक्षण किए गऐ हैं। 
इस प्रकार दुनियां की कुल साढ़े दस हजार पक्षी प्रजातियों में से देश में जो 1100 प्रजातियां भारत में हैं उनमें से 600 से अधिक प्रजातियां नैनीताल में पाई जाती हैं। यहां उन्हें अपनी आवश्यकतानुसार दलदली, रुके या चलते पानी और जंगल में अपने खाने योग्य कीड़े मकोड़े और अन्य खाद्य वनस्पतियां आसानी से मिल जाती हैं। नैनीताल की "शेर-का-डांडा" पहाडी में ही १८७६ में दुनिया में आख़िरी बार 'माउंटेन क्वेल' यानि "काला तीतर" देखने के भी दावे किये जाते हैं.

Saturday, April 17, 2010

लीजिये इतिहास हुई गदर के जमाने की अनूठी `गांधी पुलिस'



नवीन जोशी, नैनीताल। अंग्रेजों के जमाने की और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सिद्धान्तों पर आधारित देश की एक अनूठी व्यवस्था 150 से अधिक वर्षों तक सफलता के साथ चलने के बाद बीती 30 मार्च से तकरीबन इतिहास बन गई है। पूरे देश से इतर उत्तराखण्ड राज्य के केवल पहाड़ी अंचलों में कानून व्यवस्था को कमोबेश सफलता से निभाते हुऐ सामान्यतया `गांधी पुलिस´ कही जाने वाली राजस्व पुलिस यानी पटवारी व्यवस्था को आगे जारी रखने की आखिरी उम्मीद भी इसके साथ तकरीबन टूट गई है। पटवारी व कानूनगो तो बीते लंबे समय से इसका बहिस्कार किऐ ही हुऐ थे, अब नायब तहसीलदारों ने भी इससे तौबा कर ली है।
  • नायब तहसीलदारों ने किया प्रदेश भर में पुलिस कार्यों का बहिस्कार 
  • 1857 के गदर के जमाने से चल रही पटवारी व्यवस्था से पटवारी व कानूनगो पहले ही हैं विरत
  • पहले आधुनिक संसाधनों के लिए थे आन्दोलित, सरकार के उदासीन रवैये के बाद अब कोई मांग नहीं, राजस्व पुलिस भत्ता भी त्यागा
हाथ में बिना लाठी डण्डे के तकरीबन गांधी जी की ही तरह गांधी पुलिस के जवान देश आजाद होने और राज्य अलग होने के बाद भी अब तक उत्तराखण्ड राज्य के पर्वतीय भू भाग में शान्ति व्यवस्था का दायित्व सम्भाले हुऐ थे। लेकिन इधर अपराधों के बढने के साथ बदले हालातों में राजस्व पुलिस के जवानों ने व्यवस्था और वर्तमान दौर से तंग आकर स्वयं इस दायित्व का परित्याग कर दिया है। 1857 में जब देश का पहला स्वतन्त्राता संग्राम यानी गदर लड़ा जा रहा था, तत्कालीन हुक्मरान अंग्रेजों को पहली बार देश में कानून व्यवस्था और शान्ति व्यवस्था बनाने की सूझी थी। अमूमन पूरे देश में उसी दौर में पुलिस व्यवस्था की शुरूआत हुई। इसके इतर उत्तराखण्ड के पहाड़ों के लोगों की शान्ति प्रियता, सादगी और अपराधों से दूरी ने अंग्रेजों को अत्यधिक प्रभावित किया था, सम्भवतया इसी कारण अंग्रेजों ने 1861 में यहां अलग से "कुमाऊँ रूल्स" के तहत पूरे देश से इतर `बिना शस्त्रों वाली´ गांधी जी की ही तरह केवल लाठी से संचालित `राजस्व पुलिस व्यवस्था शुरू की, जो बाद में देश में `गांधी पुलिस व्यवस्था´ के रूप में भी जानी गई। इस व्यवस्था के तहत पहाड़ के इस भूभाग में पुलिस के कार्य भूमि के राजस्व सम्बंधी कार्य करने वाले राजस्व लेखपालों को पटवारी का नाम देकर ही सोंप दिऐ गऐ। पटवारी, और उनके ऊपर के कानूनगो व नायब तहसीलदार जैसे अधिकारी भी बिना लाठी डण्डे के ही यहां पुलिस का कार्य सम्भाले रहे। गांवों में उनका काफी प्रभाव होता था, और उन्हें सम्मान से अहिंसावादी गांधी पुलिस भी कहा जाता था। कहा जाता था कि यदि पटवारी क्या उसका चपरासी यानी सटवारी भी यदि गांव का रुख कर ले तो कोशों दूर गांव में खबर लग जाती थी, और ग्रामीण डर से थर-थरा उठते थे। 
एक किंवदन्ती के अनुसार कानूनगो के रूप में प्रोन्नत हुऐ पुत्र ने नई नियुक्ति पर जाने से पूर्व अपनी मां के चरण छूकर आशीर्वाद मांगा तो मां ने कह दिया, `बेटा, भगवान चाहेंगे तो तू फिर पटवारी ही हो जाएगा´। यह किंवदन्ती पटवारी के प्रभाव को इंगित करती है। लेकिन बदले हालातों और हर वर्ग के सरकारी कर्मचारियों के कार्य से अधिक मांगों पर अड़ने के चलन में पटवारी भी कई दशकों तक बेहतर संसाधनों की मांगों के साथ आन्दोलित रहे। उनका कहना था कि वर्तमान ब-सजय़ते और गांवों तक हाई-टेक होते अपराधों के दौर में उन्हें भी पुलिस की तरह बेहतर संसाधन चाहिऐ, लेकिन सरकार ने कुछ पटवारी चौकियां बनाने के अतिरिक्त उनकी एक नहीं सुनी। यहाँ तक कि वह 1947 की बनी हथकड़ियों से ही दुर्दांत अपराधियों को भी गिरफ्त में लेने को मजबूर थे इधर 40-40 जिप्सियां व मोटर साईकिलें मिलीं भी तो अधिकाँश पर कमिश्नर-डीएम जैसे अधिकारियों ने तक कब्ज़ा जमा लिया। 1982 से पटवारियों को प्रभारी पुलिस थानाध्यक्ष की तरह राजस्व पुलिस चौकी प्रभारी बना दिया गया, लेकिन वेतन तब भी पुलिस के सिपाही से भी कम था। अभी हाल तक वह केवल एक हजार रुपऐ के पुलिस भत्ते के साथ अपने इस दायित्व को अंजाम दे रहे थे। उनकी संख्या भी बेहद कम थी। स्थिति यह थी कि प्रदेश के समस्त पर्वतीय अंचलों के राजस्व क्षेत्रों की जिम्मेदारी केवल 1250 पटवारी, उनके इतने ही अनुसेवक, 150 राजस्व निरीक्षक यानी कानूनगो और इतने ही चेनमैन सहित कुल 2813 राजस्व कर्मी सम्भाल रहे थे। इस पर पटवारियों ने मई 2008 से पुलिस भत्ते सहित अपने पुलिस के दायित्वों का स्वयं परित्याग कर दिया। इसके बाद थोड़ा बहुत काम चला रहे कानूनगो के बाद बीती 30 मार्च से प्रदेश के रहे सहे नायब तहसीलदारों ने भी पुलिस कार्यों का परित्याग कर दिया है। पर्वतीय नायब तहसीलदार संघ के कुमाऊं मण्डल अध्यक्ष नन्दन सिंह रौतेला के हवाले से धारी के नायब तहसीलदार दामोदर पाण्डे ने बताया कि गढवाल मण्डल में इस बाबत पहले ही निर्णय ले लिया गया था, जबकि कुमाऊं के नायब तहसीलदारों ने बीती 28 मार्च 2010 को अल्मोड़ा में हुई बैठक में यह निर्णय लिया। लिहाजा प्रदेश के समस्त नायब तहसीलदारों ने 30 मार्च से पुलिस कार्य त्याग दिऐ हैं। उल्लेखनीय है कि राजस्व पुलिस व्यवस्था में अब ऐसा कोई पद संवर्ग नहीं बचा है, जो पुलिस कार्य करने को राजी है। ऐसे में नायब तहसीलदारों के भी पुलिस कार्यों के परित्याग से पहाड़ी गांवों में होने वाले अपराधों का खुलासा और ग्रामीणों की सुरक्षा भगवान भरोसे ही रह गई है।इधर प्रदेश के शासन प्रशासन ने पटवारियों के बाद नायब तहसीलदारों के भी पुलिसिंग कार्यों का बहिस्कार करने पर कड़ा रवैया अपनाया है। प्रदेश के मुख्य सचिव, राजस्व आयुक्त, कुमाऊं आयुक्त एवं जिलों में जिलाधिकारियों ने नायब तहसीलदारों से 30 अप्रैल तक कार्य पर लौटने का अल्टीमेटम दिया है। उनका कहना है कि अधिकतर आन्दोलित नायब तहसीलदार मूलत: पटवारी ही हैं। पटवारियों के पुलिस कार्यों का परित्याग करने पर पुलिस कार्य कराने के उद्देश्य से उन्हें प्रभारी नायब तहसीलदार बनाया गया था। वास्तविक नायब तहसीलदारों को पुलिस के अधिकार ही नहीं होते हैं। ऐसे में प्रभारी नायब तहसीलदारों के द्वारा पुलिस कार्यों का परित्याग करना कर्मचारी संहिता के तहत निरुद्ध है। ऐसे में उनके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है। उन्हें मूल पद पर पदावनत भी किया जा सकता है। इधर 11 अप्रैल को नैनीताल में नायब तहसीलदारों की प्रदेश अध्यक्ष धीरज सिंह आर्य की अध्यक्षता में हुई बैठक में सरकार की धमकी के आगे न झुकने का ऐलान किया गया, साथ ही उत्पीड़न या जोर जबर्दस्ती होने पर आन्दोलन की धमकी भी दी गई।इस बाबत पूछे जाने पर उत्तराखंड के प्रमुख सचिव-राजस्व सुभाष कुमार ने एक मुलाकात में साफगोई से कहा कि पूरे प्रदेश में राजस्व पुलिस व्यवस्था पर केवल 1.5 करोड़ रुपये खर्च होते हैं, जबकि इसकी जगह यदि नागरिक पुलिस लगाई जाए तो 400 करोड़ रुपये खर्च होंगे