`...पारा भीड़ा बुरूंशी फूली छौ, मैं ज कूंछू मेरी हीरू ऐरै छौ ,´ देवभूमि उत्तराखण्ड के पहाड़ी जंगलों में पशु चारण करते ग्वाल बालों की जुबान पर यह गीत इन दिनों खासा चढ़ा हुआ है। कारण उनका प्यारा लाल , सुर्ख बुरांश पूरी तरह खिल आया है। उत्तराखण्ड के राज्य वृक्ष पर लकदक खिला यह फूल इस कदर मुस्कुराया है, कि इसके खिलने से महके ऋतुराज बसन्त के साथ मुस्काते पहाड़ों की खूबसूरती में चार चाँद लग गऐ हैं। कोशिश की जाऐ तो फूलों के मौसम की यह खूबसूरती प्रदेश के पर्यटन में भी चार चाँद लगाते हुए काफी लाभकर हो सकती है।
बुरांश का फूल जितना सुन्दर है, उतना ही अधिक लाभकारी भी। वनस्पति विज्ञान की भाशा में रोडोडिण्ड्रोन कहे जाने वाले बुरांश का पहाड़ से गहरा आत्मीय लगाव है। शायद इसीलिए इसके पेड़ को देवभूमि उत्तराखंड में राज्य वृक्ष का दर्जा मिला हुआ है।
- पूरी तरह लाल सुर्ख हो गऐ पहाड़ के कई जंगल
- पर्यटन के लिहाज से हो सकता है लाभकारी
देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू भी इसके प्रशंशकों में थे। उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा कि पहाड़ पर बुरांश के रंजित लाल स्थल दूर ही से दिख रहे थे। महाकवि अज्ञेय ने भी अपनी कविताओं में इसका कई बार जिक्र किया।
हिन्दी के सुकुमार छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पन्त को तो इस पुष्प ने अपनी लोकभाषा कुमाउनीं में लिखने को मजबूर कर दिया था। उन्होंने इसे `जंगल की ज्वाला´ नाम दिया था। वहीं कवि श्रीकान्त वर्मा भी इसका जिक्र करने से स्वयं को नहीं रोक पाये. उन्होंने लिखा, `दुपहर भर उड़ती रही सड़क पर मुरम की धूल, शाम को उभरा मैं, तुमने मुझे पुकारा बुरूंश का फूल´। राज्य के कुमाउंनी गढ़वाली कवियों ने इसे कभी प्रेमिका के गालों तो कभी उसके रूप सौन्दर्य के लिए खूब इस्तेमाल किया। इधर जलवायु परिवर्तन का असर इस पेड़ पर जहां समय पूर्व खिलने के रूप में सर्वाधिक दिखाई दे रहा है। इस प्रकार जलवायु परिवर्तनों पर शोध करने के लिए भी इस वृक्ष की उपयोगिता बढ़ जाती है। दूसरी ओर पशुओं के लिए उत्तम चारा व जलौनी लकड़ी होने के कारण इसके जंगलों के आसपास के ग्रामीण भी इसे खासा नुकसान पहुंचा रहे हैं, जिसे रोकने की जरूरत है। फलस्वरूप इसके जंगल सिमटते जा रहे हैं। पहाड़ों पर 1200 से 4800 मीटर पर उगने वाले इस सदापर्णी वृक्ष के रक्तिम सुर्ख फूल में शहद का भण्डार होता है। ऊंचाई बढ़ने के साथ इसके रंग में परिवर्तन होता जाता है और यह लाल रंग खोता हुआ गुलाबी, सफेद व बैगनी रंगों में भी पाया जाता है। एक ओर जहां यह चीड़ मिश्रित वनों में भी पाया जाता है, वहीं हिमालय के बुग्यालों के करीब होने वाली सीमित वृक्ष प्रजातियों में भी यह कम लंबाई के साथ मिल जाता है। इससे जूस, स्कवैश, जैम आदि उत्पाद बनाऐ जाते हैं, जो रक्तशोधक एवं हीमोग्लोबिन की पूर्तिकारक के रूप में अचूक औषधि माने जाते हैं। बुरांश का एक अन्य तरह से भी बड़ा व्यवसायिक इस्तेमाल हो सकता है। पहाड़ पर जिस मौसम में यह खिलता है, वह प्रदेश के पर्यटन के लिहाज से `ऑफ पीक´ यानी सर्वाधिक बुरा समय कहा जाता है, क्योंकि इन दिनों बर्फवारी की आस सिमट जाती है, और मैदानों में खास गर्मी नहीं बढ़ी होती। ऐसे में बुरांश के खिलने से पहाड़ में खिले फूलों का मौसम जहाँ सैलानियों को बड़ी संख्या में आकर्षित कर प्रदेश को बड़ी राजस्व आय दे सकता है, वहीँ सैलानियों के लिए प्रकृति के स्वर्ग में बड़ा आकर्षण भी साबित हो सकता है।
यह भी पढ़ें : इस साल समय पर खिला राज्य वृक्ष बुरांश, क्या ख़त्म हुआ 'ग्लोबलवार्मिंग' का असर ?
हिन्दी के सुकुमार छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पन्त को तो इस पुष्प ने अपनी लोकभाषा कुमाउनीं में लिखने को मजबूर कर दिया था। उन्होंने इसे `जंगल की ज्वाला´ नाम दिया था। वहीं कवि श्रीकान्त वर्मा भी इसका जिक्र करने से स्वयं को नहीं रोक पाये. उन्होंने लिखा, `दुपहर भर उड़ती रही सड़क पर मुरम की धूल, शाम को उभरा मैं, तुमने मुझे पुकारा बुरूंश का फूल´। राज्य के कुमाउंनी गढ़वाली कवियों ने इसे कभी प्रेमिका के गालों तो कभी उसके रूप सौन्दर्य के लिए खूब इस्तेमाल किया। इधर जलवायु परिवर्तन का असर इस पेड़ पर जहां समय पूर्व खिलने के रूप में सर्वाधिक दिखाई दे रहा है। इस प्रकार जलवायु परिवर्तनों पर शोध करने के लिए भी इस वृक्ष की उपयोगिता बढ़ जाती है। दूसरी ओर पशुओं के लिए उत्तम चारा व जलौनी लकड़ी होने के कारण इसके जंगलों के आसपास के ग्रामीण भी इसे खासा नुकसान पहुंचा रहे हैं, जिसे रोकने की जरूरत है। फलस्वरूप इसके जंगल सिमटते जा रहे हैं। पहाड़ों पर 1200 से 4800 मीटर पर उगने वाले इस सदापर्णी वृक्ष के रक्तिम सुर्ख फूल में शहद का भण्डार होता है। ऊंचाई बढ़ने के साथ इसके रंग में परिवर्तन होता जाता है और यह लाल रंग खोता हुआ गुलाबी, सफेद व बैगनी रंगों में भी पाया जाता है। एक ओर जहां यह चीड़ मिश्रित वनों में भी पाया जाता है, वहीं हिमालय के बुग्यालों के करीब होने वाली सीमित वृक्ष प्रजातियों में भी यह कम लंबाई के साथ मिल जाता है। इससे जूस, स्कवैश, जैम आदि उत्पाद बनाऐ जाते हैं, जो रक्तशोधक एवं हीमोग्लोबिन की पूर्तिकारक के रूप में अचूक औषधि माने जाते हैं। बुरांश का एक अन्य तरह से भी बड़ा व्यवसायिक इस्तेमाल हो सकता है। पहाड़ पर जिस मौसम में यह खिलता है, वह प्रदेश के पर्यटन के लिहाज से `ऑफ पीक´ यानी सर्वाधिक बुरा समय कहा जाता है, क्योंकि इन दिनों बर्फवारी की आस सिमट जाती है, और मैदानों में खास गर्मी नहीं बढ़ी होती। ऐसे में बुरांश के खिलने से पहाड़ में खिले फूलों का मौसम जहाँ सैलानियों को बड़ी संख्या में आकर्षित कर प्रदेश को बड़ी राजस्व आय दे सकता है, वहीँ सैलानियों के लिए प्रकृति के स्वर्ग में बड़ा आकर्षण भी साबित हो सकता है।
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विचारणीय!
ReplyDeleteBehatareen----hindi blog lekhan men apka svagat hai.
ReplyDeleteAchhee jankari dee aapne...anek shubhkamnayen!
ReplyDeleteKhoobsoorat chitr aur maloomat dono!
ReplyDeleteइस नए चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
ReplyDeleteधन्यवाद सभी मित्रों का...
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