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Friday, September 3, 2010

उत्तराखंड का प्राचीन इतिहास: ताकि सनद रहे........

विश्व की तत्कालीन परिस्थितियों के आलोक में उत्तराखण्ड का इतिहास 
उत्तराखण्ड में अंग्रेजों का आगमन बिहार के सिघौली में 1815 में अंग्रेजों एवं गोर्खाओं के बीच हुई संधि के बाद हुआ। इससे पूर्व चन्द राजाओं के पतन के बाद गोर्खाओं के राज (कुमाऊं में 1790 से 1815 और गढ़वाल में 1804 से 1815 तक) में यहां के लोग खासे परेशान थे। गोर्खाली राज शासकीय जुल्मों का बेहद ही काला अध्याय रहा। इस दौर में कढ़ाई दीप व पाथर दान के मूर्खतापूर्ण तरीकों से दण्ड देने के प्राविधान थे। किसी व्यक्ति पर किसी अपराध का शक भी होता, तो उसका `पाथर दान´ के तहत पत्थरों से वजन लिया जाता और एक माह तक उसे बिना भोजन, केवल पानी देकर गुफा में रखा जाता। एक माह बाद उसका पुन: वजन लिया जाता, जो निश्चित ही भोजन न मिलने से पहले से कम होता, और इस आधार पर उसे दोषी मान लिया जाता व कड़ी सजा दी जाती। इसी प्रकार `कढ़ाई दीप´ के तहत शक होने पर व्यक्ति के हाथ खौलते घी में डाले जाते और जलने पर उसे दोषी मान लिया जाता। इस कारण हर्ष देव जोशी, जो कि पूर्व में चन्द वंशीय राजाओं के अन्तिम दीवान थे, अंग्रेजों को यहां लेकर आऐ। अंग्रेजों के इस पर्वतीय भूभाग में आने के कारण यहां की प्राकृतिक सुन्दरता से अभिभूत होने के साथ ही व्यापारिक भी थे। उन दिनों भारत का तिब्बत व नेपाल से बड़ा व्यापारिक लेन-देन होता था। यहां जौलजीवी, बागेश्वर, गोपेश्वर व हल्द्वानी आदि में बड़े व्यापारिक मेले होते थे। 19वीं शताब्दी का वह समय औपनिवेशिक वैश्विकवाद व साम्राज्यवाद का दौर था। नऐ उपनिवेशों की तलाश व वहां साम्राज्य फैलाने के लिए फ्रांस, इंग्लैण्ड व पुर्तगाल जैसे यूरोपीय देश समुद्री मार्ग से भारत आ चुके थे, जबकि रूस स्वयं को इस दौड़ में पीछे रहता महसूस कर रहा था। कारण, उसकी उत्तरी समुद्री सीमा में स्थित वाल्टिक सागर व उत्तरी महासागर सर्दियों में जम जाते थे। तब स्वेज नहर भी नहीं थी। ऐसे में उसने काला सागर या भूमध्य सागर के रास्ते भारत आने के प्रयास किऐ, जिसका फ्रांस व तुर्की ने विरोध किया। इस कारण 1854 से 1856 तक दोनों खेमों के बीच क्रोमिया का विश्व प्रसिद्ध युद्ध हुआ। इस युद्ध में रूस पराजित हुआ, जिसके फलस्वरूप 1856 में हुई पेरिस की संधि में यूरोपीय देशों ने रूस पर काला सागर व भूमध्य सागर की ओर से सामरिक विस्तार न करने का प्रतिबंध लगा दिया। ऐसे में भारत आने के लिए उत्सुक रूस के भारत आने के अन्य मार्ग बन्द हो गऐ थे, और वह केवल तिब्बत की ओर के मार्गों से ही भारत आ सकता था। तिब्बत से उत्तराखण्ड के लिपुलेख, नीति, माणा व जौहार घाटी के पहाड़ी दर्रों से आने के मार्ग बहुत पहले से प्रचलित थे। यूरोपीय देशों को इन रास्तों की जानकारी कमोबेश 1624 से थी। 1624 में आण्ड्रा डे नाम के यूरोपीय ने श्रीनगर गढ़वाल के रास्ते ही शापरांग तिब्बत जाकर वहां चर्च बनाया था। इसलिए कंपनी सरकार ने रूस की उत्तराखण्ड के रास्ते भारत आने की संभावना को भांप लिया, लिहाजा उसके लिए `जियो पालिटिकल´ यानी भौगोलिक व राजनीतिक कारणों से उत्तराखण्ड बेहद महत्वपूर्ण हो गया था।
अंग्रेजों ने इन्हीं `जियो पालिटिकल´ कारणों के कारण यहां स्काटलेण्ड के अधिकारियों को कमिश्नर जैसे बड़े पदों पर रखा। स्काटलेण्ड इंग्लेण्ड का उत्तराखण्ड की तरह का ही पर्वतीय इलाका है, लिहाजा वहां के मूल निवासी अधिकारी यहां के पहाड़ों के हालातों को भी बेहतर समझ सकते थे। कुमाऊं कमिश्नर हैनरी रैमजे, जीडब्ल्यू ट्रेल, लूसिंग्टन आदि सभी स्काटलेण्ड के थे। इनमें से रैमजे कुमाउनीं में बातें करते थे, उन्होंने यहां कई सुधार कार्य किऐ, बल्कि उन्हें यदा-कदा लोग `राम जी´ भी कह दिया करते थे। ट्रेल ने एक अन्य यात्रा मार्ग ट्रेलपास की खोज की, नैनीताल की खोज का भी उन्हें श्रेय दिया जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने इस क्षेत्र से लोगों की धार्मिक भावनाओं का जुड़ाव व अप्रतिम सुन्दरता को अंग्रेजों की नज़रों से भी बचाने का प्रयास किया, और क्षेत्रीय लोगों से भी इस स्थान पर अंग्रेजों को न लाने को प्रेरित किया। लूसिंग्टन नैनीताल की बसासत के दौरान कमिश्नर थे। उन्होंने यहां सार्वजनिक हित के अलावा व्यक्तिगत कार्यों के लिए भूमि के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया था, और यहां स्वयं का घर भी नहीं बनाया। उनकी कब्र आज भी नैनीताल में मौजूद है। इसका अर्थ यह हुआ कि उस दौर की कंपनी सरकार पहाड़ों के प्रति बेहद संवेदनशील थी।
शायद यही कारण रहा कि 1857 में जब देश कंपनी सरकार के खिलाफ उबल रहा था, पहाड़ में एकमात्र काली कुमाऊं में कालू महर व उनके साथियों ने ही रूहेलों से मिलकर आन्दोलन किऐ, हल्द्वानी से रुहेलों के पहाड़ की ओर बढ़ने के दौरान हुआ युद्ध व अल्मोड़ा जेल आदि में अंग्रेजों के खिलाफ छिटपुट आन्दोलन ही हो पाऐ। और जो आन्दोलन हुऐ उन्हें जनता का समर्थन हासिल नहीं हुआ। हल्द्वानी में 100 से अधिक रुहेले मारे गऐ। कालू महर व उनके साथियों को फांसी पर लटका दिया गया। 
शायद इसीलिए 1857 में जब देश में कंपनी सरकार की जगह `महारानी का राज´ कायम हुआ, अंग्रेज पहाड़ों के प्रति और अधिक उदार हो गऐ। उन्होंने यहां कई सुधार कार्य प्रारंभ किऐ, जिन्हें पूरे देश से इतर पहाड़ों पर अंग्रेजों द्वारा किऐ गऐ निर्माणों के रूप में भी देखा जा सकता है।
लेकिन इस कवायद में उनसे कुछ बड़ी गलतियां हो गईं। मसलन, उन्होंने पीने के पानी के अतिरिक्त शेष जल, जंगल, जमीन को अपने नियन्त्रण में ले लिया। इस वजह से यहां भी अंग्रेजों के खिलाफ नाराजगी शुरू होने लगी, जिसकी अभिव्यक्ति देश के अन्य हिस्सों से कहीं देर में पहली बार 1920 में देश में चल रहे `असहयोग आन्दोलन´ के दौरान देखने को मिली। इस दौरान गांधी जी की अगुवाई में आजादी की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस पार्टी यहां के लोगों को यह समझाने में पहली बार सफल रही कि अंग्रेजों ने उनके प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार जमा लिया है। कांग्रेस का कहना था कि वन संपदा से जुड़े जनजातीय व ऐसे क्षेत्रों के अधिकार क्षेत्रवासियों को मिलने चाहिऐ। इसकी परिणति यह हुई कि स्थानीय लोगों ने जंगलों को अंग्रेजों की संपत्ति मानते हुऐ 1920 में 84,000 हैक्टेयर भूभाग के जंगल जला दिऐ। इसमें नैनीताल के आस पास के 112 हैक्टेयर जंगल भी शामिल थे। इस दौरान गठित कुमाऊं परिशद के हर अधिवेशन में भी जंगलों की ही बात होती थी, लिहाजा जंगल जलते रहे। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान 1930-31 के दौरान और 1942 तक भी यही स्थिति चलती रही, तब भी यहां बड़े पैमाने पर जंगल जलाऐ गऐ। कुली बेगार जो कि वास्तव में गोर्खाली शासनकाल की ही देन थी, यह कुप्रथा हालांकि अंग्रेजों के दौरान कुछ शिथिल भी पड़ी थी। इतिहासकार पद्मश्री शेखर पाठक के अनुसार इसे समाप्त करने के लिए अंग्रेजों ने खच्चर सेना का गठन भी किया था। इस कुप्रथा के खिलाफ जरूर पहाड़ पर बड़ा आन्दोलन हुआ, जिससे पहाड़वासियों ने कुमाऊं परिषद के संस्थापक बद्री दत्त पाण्डे, हरिगोविन्द पन्त तथा चिरंजीवी लाल आदि के नेतृत्व में 14 जनवरी 1921 को उत्तरायणी के पर्व पर बागेश्वर में पीछा छुड़ाकर ही दम लिया। गढ़वाल में बैरिस्टर मुकुन्दी लाल के नेतृत्व में 30 जनवरी 21 को इसी तरह आगे से `कुली बेगार´ न देने की शपथ ली गई। सातवीं शताब्दी में कत्यूरी शासनकाल में भी बेगार का प्रसंग मिलता है। कहते हैं कि अत्याचारी कत्यूरी राजा वीर देव ने अपनी डोली पहाड़ी पगडण्डियों पर हिंचकोले न खाऐ, इसलिए कहारों के कंधों में हुकनुमा कीलें फंसा दी थी। कहते हैं कि इसी दौरान कुमाऊं का प्रसिद्ध गीत `तीलै धारो बोला...´ सृजित हुआ था। गोरखों के शासनकाल में खजाने का भार ढोने से लोगों के सिरों से बाल गायब हो गऐ थे। कुमाउनीं के आदि कवि गुमानी पन्त की कविता `दिन दिन खजाना का भार बोकना लै, शिब-शिब चूली में न बाल एकै कैका...´ कविता लिखी गई। 
                                                       (इतिहासविद् प्रो. अजय रावत से बातचीत के आधार पर)
उत्तराखंड में मिले हड़प्पा कालीन संस्कृति के भग्नावशेष
हड़प्पा कालीन है उत्तराखंड का इतिहास  
 महा पाषाण शवागारों से उत्तराखंड में आर्यों के आने की पुष्टि 
´ब्रिटिश कुमाऊं´ में भी गूंजे थे जंगे आजादी के `गदर में विद्रोह के स्वर
नवीन जोशी, नैनीताल। उत्तराखंड के पहाड़ों की भौगोलिक परिस्थितियां 1857 में देश के प्रथम स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान अंग्रेजों से विद्रोह के अधिक अनुकूल नहीं थीं। सच्चाई यह भी थी कि अंग्रेजों के 1815 में आगमन से पूर्व यहां के लोग गोरखों का बेहद दमनात्मक राज झेल रहे थे, वरन उन्हें ब्रिटिश राज में कष्टों से कुछ राहत ही मिली थी। इसके बावजूद यहां भी जंगे आजादी के पहले 'गदर' के दौरान विद्रोह के स्वर काफी मुखरता से गूंजे थे। 








  • नैनीताल व अल्मोड़ा में फांसी पर लटकाए गए कई साधु वेशधारी क्रांतिकारी 
  • इनमें तात्या टोपे के होने की भी संभावना 
  • हल्द्वानी में शहीद हुए थे 114  क्रांतिकारी रुहेले 
  • काली कुमाऊं में बिश्ना कठायत व कालू महर ने थामी थी क्रान्ति की मशाल
इतिहासकारों के अनुसार ´ब्रिटिश कुमाऊं´ कहे जाने वाले बृहद कुमाऊं में वर्तमान कुमाऊं मण्डल के छ: जिलों के अलावा गढ़वाल मण्डल के चमोली व पौड़ी जिले तथा रुद्रप्रयाग जिले का मन्दाकिनी नदी से पूर्व के भाग भी शामिल थे। 1856 में जब ब्रितानी ईस्ट इण्डिया कंपनी के विरुद्ध देश भर में विद्रोह होने प्रारंभ हो रहे थे, यह भाग कुछ हद तक अपनी भौगोलिक दुर्गमताओं के कारण इससे अलग थलग भी रहा। 1815 में कंपनी सरकार यहां आई, जिससे पूर्व पूर्व तक पहाड़वासी बेहद दमनकारी गोरखों को शासन झेल रहे थे, जिनके बारे में कुमाऊं के आदि कवि ´गुमानी´ ने लिखा था ´दिन दिन खजाना का भार बोकना लै, शिब शिब चूली में का बाल न एकै कैका´ यानि गोरखे इतना शासकीय भार जनता के सिर पर थोपते थे, कि किसी के सिर में बाल ही नहीं उग पाते थे। लेकिन कंपनी सरकार को उर्वरता के लिहाज से कमजोर इस क्षेत्रा से विशेश राजस्व वसूली की उम्मीद नहीं थी, और वह इंग्लेण्ड के समान जलवायु व सुन्दरता के कारण यहां जुल्म ढाने की बजाय अपनी बस्तियां बसाकर घर जैसा माहौल बनाना चाहते थे। इतिहासकार पद्मश्री डा. शेखर पाठक बताते हैं कि इसी कड़ी में अंग्रेजों ने जनता को पहले से चल रही कुली बेगार प्रथा से निजात दिलाने की भी कुछ हद तक पहल की। इसके लिए 1822 में ग्लिन नाम के अंग्रेज अधिकारी ने लोगों के विस्तृत आर्थिक सर्वेक्षण भी कराए। उसने इसके विकल्प के रूप में खच्चर सेना गठित करने का प्रस्ताव भी दिया था। इससे लोग कहीं न कहीं अंग्रेजों को गोरखों से बेहतर मानने लगे थे, लेकिन कई बार स्वाभिमान को चोट पहुंचने पर उन्होंने खुलकर इसका विरोध भी किया। कुमाउंनी कवि गुमानी व मौला राम की कविताओं में भी यह विरोध व्यापकता के साथ रहा। इधर 1857 में रुहेलखण्ड के रूहेले सरदार अंग्रेजों की बस्ती के रूप में विकसित हो चुकी `छोटी बिलायत´ कहे जाने वाले नैनीताल को अंग्रेजों से मुक्त कराना चाहते थे, पर 17 सितम्बर 1857 को तत्कालीन कुमाऊं कमिश्नर हेनरी रैमजे ने अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें हल्द्वानी के बमौरी दर्रे व कालाढुंगी से आगे नहीं बढ़ने दिया। इस कवायद में 114 स्वतंत्रता सेनानी क्रान्तिकारी रुहेले हल्द्वानी में शहीद हुए। इसके अलावा 1857 में ही रैमजे ने नैनीताल में तीन से अधिक व अल्मोड़ा में भी कुछ साधु वेशधारी क्रान्तिकारियों को फांसी पर लटका दिया गया। नैनीताल का फांसी गधेरा (तत्कालीन हैंग मैन्स वे) आज भी इसका गवाह है। प्रो. पाठक इन साधुवेश धारियों में मशहूर क्रांतिकारी तात्या टोपे के भी शामिल होने की संभावना जताते हैं, पर दस्तावेज न होने के कारण इसकी पुष्टि नहीं हो पाती।
इसी दौरान पैदा हुआ उत्तराखंड का पहला नोबल पुरस्कार विजेता
एक ओर जहां देश की आजादी के लिए पहले स्वतन्त्रता संग्राम चल रहा था, ऐसे में रत्नगर्भा कुमाऊं की धरती एक महान अंग्रेज वैज्ञानिक को जन्म दे रही थी। 1857 में मैदानी क्षेत्रों में फैले गदर के दौरान कई अंग्रेज अफसर जान बचाने के लिए कुमाऊं के पहाड़ों की ओर भागे थे। इनमें एक गर्भवती ब्रिटिश महिला भी शामिल थी, जिसने अल्मोड़ा में एक बच्चे को जन्म दिया। रोनाल्ड रॉस नाम के इस बच्चे ने ही बड़ा होकर   मलेरिया के परजीवी प्लास्मोडियम के जीवन चक्र  की खोज की, जिसके लिए उसे चिकित्सा का नोबल भी पुरस्कार प्राप्त हुआ।







उधर `काली कुमाऊं´ में बिश्ना कठायत व आनन्द सिंह फर्त्याल को अंग्रेजों ने विरोध करने पर फांसी पर चढ़ा दिया, जबकि प्रसिद्ध  क्रांतिकारी कालू महर को जेल में डाल दिया गया। ब्रिटिश कुमाऊं के ही हिस्सा रहे श्रीनगर में अलकनन्दा नदी के बीच पत्थर पर खड़ा कर कई क्रान्तिकारियों को गोली मार दी गई। 1858 में देश में ईस्ट इण्डिया कंपनी की जगह ब्रिटिश महारानी की सरकार बन जाने से पूर्व अल्मोड़ा कैंट स्थित आर्टिलरी सेना में भी विद्रोह के लक्षण देखे गए, जिसे समय से जानकारी मिलने के कारण दबा दिया गया। कई सैनिकों को सजा भी दी गईं। अंग्रेजों के शासकीय दस्तावेजों में यह घटनाएं दर्ज मिलती हैं, पर खास बात यह रही कि अंग्रेजों ने दस्तावेजों में कहीं उन क्रान्तिकारियों का नाम दर्ज करना तक उचित नहीं समझा, जिससे वह अनाम ही रह गऐ।

25 comments:

  1. बहुत ही अच्छी जानकारी दी है आपने इसके लिए धन्यवाद |
    जाने कितने अनाम शहीद हैं जिनके कारण हमें तथाकथित आजादी मिली जो कि वास्तविक आजादी हो सकती थी पर ऐसा नहीं हुआ | इस बात का हमें तो बहुत अफ़सोस है | जो अंग्रेजों के भक्त थे उन्हें ही सत्ता मिली और देश का उनसे भी अधिक बुरा हाल कर दिया |

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  2. PAHARON KA ITIHAS VERY GOOD

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  4. धन्यवाद दीपा जी, उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया देने के लिए...

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  5. Dear Sir,
    Thank u so much. pls. aaise hi or b history btaye hme uttarakhand ke bare me. jisse uttarakhand nivasi or b jagruk hoge....mujhe bahut khushi hui or isko padhne ke bad meri atma me joonun badh gya hai apne uttarakhand ke bare me janne ke liye......
    pls mujhe mail kre uttarakhand ki or abhik jankari.
    i m waiting for your mail....
    My ID- karwalvishal203@gmail.com
    From:- uttarakhand Roorkee...

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  7. thanks for the information......

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  9. सलीम मलिकJuly 17, 2011 at 4:10 AM

    अपनी संसकिरती और इतिहास से अगली पीढ़ी को रूबरू करने के लिए आप को हार्दिक शुभकामनायें. कुछ चीजे आपके ब्लॉग से मेने भी उठाई है, पर व्यवसायिक वजह से साभार नहीं कर प् रहा हू. क्षमा !!

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  10. I am visiting here first time and this is superb blog, I learn some useful from each post.

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  11. आपका इस ब्लॉग पर हमेशा स्वागत है...

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  12. Dear Sir,
    Firt of all heartly thankyou for give such an incredible information. many term in your this blogs all realy prosprious. I got many knowladge from your this blog and I hope that your knowladge make us so comfortable to know about our Uttarakhand.....
    I wish to god that he increse your knowladge day by day which way you make we too to gaining knowadge about such mare term...
    Thanking You Sir.
    Gaurav Singh Kunwar
    Joshimath
    Chamoli
    gaurav.kunwar88@gmail.com

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  13. bahut khub lekin malerya ke tike m kuchh gadbad lag rahi hai ronald ras ne tike ki nahi maleriya ki khoj ki thi sayad

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    1. ध्यानाकर्षण हेतु धन्यवाद, सुधार कर दिया है।

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  14. very nice blog...plz visit my blog sir.. www.nayichetana.com

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  16. जोशी जी नमस्कार, बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी आपने दी है, उसके लिये आपका धन्यवाद। कृपया उत्तरायणी पर्व के बारे में कुछ जानकारी देने का कष्ट करें, यथा यह पर्व क्यों मनाया जाता है, इस पर्व का इतिहास कितना पुराना है आदि।
    धन्यवाद
    आर प्रकाश गहतोड़ी

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  17. जोशी जी नमस्कार आप ने जो जानकारी दी है उसके लिए आप का कोटि कोटि नमन | नेशनल अपनी पार्टी
    राष्ट्रिय अध्यक्ष श्री भगत सिंह बिष्ट |मेरा परिचय में अल्मोड़ा जिले के कराकोट गाँव से हूँ




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  18. आदरणीय नवीन जोशी जी आप हर्ष देव जोशी जी की पूरी जानकारी दे सकते हो। क्योंकि मेरे पास उपलभद्द इतिहास के अनुसार 1790 में कुमाऊं पर गोरखा आधिपत्य के लिए हर्ष देव जोशी ने विभीषणी रोल अदा किया था यह कितना सत्य है

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    1. हां यही सच है।।वहां पर शायद मिस्प्रिंटिंग होगी।।

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