उत्तराखंड में हुए विधान सभा चुनावों के परिणाम कई बातें साफ़ करने वाले हैं. पहली नजर में इन चुनावों में प्रदेश में न तो भ्रष्टाचार का मुद्दा चला है, और न ही अन्ना फैक्टर. लेकिन ऐसा नहीं है. असल में इस चुनाव मैं कुछ अपवादों को छोड़कर पार्टियों के जनाधार के साथ ही नेताओं की व्यक्तिगत छवि की भी परीक्षा हुयी है, और जनता ने उपलब्ध विकल्पों में से बेहतर को चुनने की कोशिश की है. इस प्रकार यह चुनाव काफी हद तक नेताओं को अपनी असल हैसियत बताने वाले साबित हुए हैं. और उम्मेंद की जा सकती है की भावी विधानसभा अपने पूर्व के स्वरुप से काफी बेहतर हो सकती है.
मेरी इस मान्यता का सिरा इस तथ्य से भी जुदा है की परिणामों में भाजपा-कांग्रेस उमींदों के विपरीत केवल एक सीट के अंतर पर हैं, और दोनों में से कोई एक पूरी कोशिश के बावजूद ३६ के जादुई आंकड़े से बहुत आगे नहीं निकल सकता है, यानी विपक्ष भी मजबूत रहने वाला है. इसका अर्थ यह भी हुआ कि सरकार को अधिक सतर्कता से कार्य करना होगा. दूसरे चुनाव परिणाम इस तरह आये हैं कि दोनों प्रमुख दलों के पास सीमित विकल्प रह गए हैं. जिसकी भी सरकार बनेगी, उसे खुद से ज्यादा समर्थक दल अथवा निर्दलीयों को मंत्रिमंडल तथा सरकार में महत्व देना होगा, तो भी सरकार की स्थिरता आशकाओं में घिरी होगी. कुछ दिन बात एक एंग्लो-इंडियन विधायक के मनोनयन के बाद स्थिति थोड़ी सहज हो सकती है. इसके साथ ही दोनों पार्टियों के लिए विधायकों में से ही किसी को मुख्यमंत्री बनाने की मजबूरी भी होगी.
चुनावों में 'जनरल' काफी हद तक अपनी पार्टी को तो जंग जिता गए पर 'खंडूड़ी' खुद के लिए 'जनरल' साबित नहीं हो पाए और अपनी बाजी हार गए. 'खंडूड़ी है जरूरी' का नारा जितना प्रदेश और खासकर मैदानी जिलों में चला, उतना उनकी सीट कोटद्वार में नहीं चल पाया, ऐसे में यहाँ तक कहा जाने लगा कि शायद खंडूड़ी के पहले कार्यकाल में बजी 'सारंगी' को पूरा प्रदेश न सुन पाया हो पर कोटद्वार ने सुन लिया हो. उनकी हार से यहाँ तक कहा जाने लगा है-'खंडूड़ी नहीं रहे जरूरी', वहीँ निशंक पर लगे कुम्भ घोटाले के 'दागों' को डोईवाला की जनता ने माँनो 'दाग अच्छे हैं' कह दिया है. यह निशंक के कुशल राजनीतिक प्रबंधन का परिणाम भी कहा जा सकता है.
कुमाऊँ में केवल सात विधानसभा क्षेत्रों, सोमेश्वर से अजय टम्टा, डीडीहाट से भाजपा के बिशन सिंह चुफाल, काशीपुर से भाजपा के हरभजन सिंह चीमा, जसपुर से कांग्रेस के शैलेंद्र मोहन सिंघल, अल्मोड़ा से मनोज तिवारी, बागेश्वर से चंदनराम दास एवं जागेश्वर से कांग्रेस के गोविंद सिंह कुंजवाल फिर जीत का शेहरा बंधा पाए। यहाँ 15 सीटों पर भाजपा कब्जा करने में सफल रही, जबकि कांग्रेस ने दस सीटों का आंकड़ा तेरह पर पहुंचाया है, लेकिन दिलचस्प बात यह रही कि वह भी अपनी पांच सीटों को बचा नहीं सकी। पहाड़ पर कांग्रेस और मैदान में भाजपा मजबूत हुई.
राज्य के दूसरे चुनावों में भाजपा व कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर रही हैं और त्रिशंकु विधानसभा उभर कर आई है। सत्तारूढ़ दल भाजपा को 31 और कांग्रेस को 32 सीटें मिली हैं, और दोनों दल ३६ के जादुई आंकड़े से कुछ दूर रह गए हैं। भाजपा के लिए पंजाब व गोवा में सरकार बनाने का बहुमत मिलाने के साथ ही उत्तराखंड में 'एंटी इनकम्बेंसी' के बीच उम्मींद से बेहतर प्रदर्शन करने का संतोष होगा तो कांग्रेस मणिपुर के इतर एनी सभी राज्यों में हुए 'बज्रपात' जैसी स्थितियों से इतर यहाँ यूपी (28) से अधिक 32 सीटें प्राप्त कर एक सीट के अंतर से ही सही राज्य का सबसे बड़ा दल बनकर उभरी है. 700 से अधिक में से प्रदेश में जीते तीन निर्दलीय विधायक कांग्रेस के बागी हैं, लेकिन चुनाव में टिकट न देने वाली पार्टी के लिए उन्हें सत्ता हथियाने के लिए अपनाना 'थूक कर चाटने' जैसा होगा, लेकिन राजनीति में इसे 'सब चलता है' कहा जाता है.
वर्तमान विधानसभा में तीसरी ताकत के रूप में मौजूद बहुजन समाज पार्टी व क्षेत्रीय दल उत्तराखंड क्रांति दल को मतदाताओं ने नकार दिया है। बसपा को पांच सीटें गंवानी पड़ीं, जबकि यूकेडी के हाथ से दो सीटें छिटक गई। विधानसभा चुनाव 2007 में बसपा को आठ व उक्रांद को तीन सीटें मिली थीं, जबकि इस बार उक्रार्द का एक धड़ा-डी अस्तित्व विहीन हो गया है, जबकि दूसरे-पी ने केवल एक सीट जीतकर पार्टी का नामोनिशान मिटने से बचाया है.
भाजपा सरकार के मुख्यमंती सहित पांच मंत्री मातबर सिंह कंडारी, त्रिवेंद्र सिंह रावत, प्रकाश पंत, दिवाकर भट्ट, बलवंत सिंह भौंर्याल चुनावी रन में खेत रहे हैं हो कांग्रेस के तिलकराज बेहड़, पूर्व मंत्री शूरवीर सिंह सजवाण, किशोर उपाध्याय, जोत सिंह गुनसोला, काजी निजामुद्दीन जैसे पांच दिग्गजों ने शिकस्त खाई है. वहीँ बसपा के मोहम्मद शहजाद व नारायण पाल, उक्रांद-पी के काशी सिंह ऐड़ी व पुष्पेश त्रिपाठी, रक्षा मोर्चा के टीपीएस रावत, केदार सिंह फोनिया, उत्तराखंड जनवादी पार्टी के मुन्ना सिंह चौहान और निर्दलीय यशपाल बेनाम को हार का सामना करना पड़ा है। उक्रांद के दूसरे धड़े 'डी' यानी डेमोक्रेटिक की 'पतंग' उड़ने से पहले ही कट गयी है. वहीँ 'पी' के कद्दावर नेता ऐड़ी मुख्य मुकाबले से बाहर तीसरे स्थान पर रह गए. विधान सभा अध्यक्ष हरबंश कपूर ने लगातार सातवी बार जीत का रिकार्ड कायम किया है.
कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी अपने खास प्रकाश जोशी को कालाढूंगी से नहीं जिता पाए तो विकास पुरुष कहे जाने वाले 'एनडी' अपनी 'निरंतर विकास समिति' को कांग्रेस के हाथो 'बेचकर खरीदी गयी' तीन में से दो सीटें नहीं जीत पाए. उनके भतीजे मनीषी तिवारी गदरपुर में चौथे स्थान पर 'धकिया' दिए गए तो दून से हैदराबाद तक उनके हाथों 'मनपसंदों का विकास' कराने वाले पूर्व ओएसडी आर्येन्द्र शर्मा को भी मुंह की खानी पडी है. अपने निजी हितों के आगे एनडी कितने 'बौने' हो सकते थे, यह इस चुनाव ने प्रदर्शित किया. चर्चा तो यह भी थी कि कांग्रेस कि सत्ता आने पर 'दो-ढाई वर्ष सीएम' बनाने की घोषणा कर चुके एनडी मनीषी से इस्तीफ़ा दिलाकर खुद चुनाव लड़ने की भी सोच रहे थे.
कांग्रेस के बडबोले (छोटे से प्रदेश में डिप्टी सीएम का राग अलापने वाले) व हैट्रिक का सपना देख रहे बेहड़ की हार की पटकथा तो खैर अहिंसा दिवस के दिन रुद्रपुर में फ़ैली हिंसा के दौरान ही लिख दी गयी थी. बसपा के बड़ा ख्वाब देख रहे नारायण पाल का अपने भाई मोहन पाल के साथ विधान सभा पहुँचाने का ख्वाब भी जनता ने तोड़ दिया. वहीँ टिकट वितरण में सबको पछाड़ने वाले हरीश रावत पर अपनी वह सफलता अब आफत बन गयी है. वह अपने पुराने (अल्मोड़ा-भाजपा,कांग्रेस 3-3 सीटें) और नए (हरिद्वार-भाजपा 5, कांग्रेस-बसपा 3-3) दोनों राजनीतिक घरों में अपने प्रत्यासियों को चुनाव नहीं जिता पाए हैं.वर्तमान हालातों में उनका भी सीएम बनाने का ख्वाब टूट ही गया लगता है.
स्त्रीलिंगी गृह 'शुक्र' के राज वाले नए विक्रमी संवत ( शुक्र ही नए वर्ष के राजा और मंत्री हैं, लिहाजा महिलाओं को राजनीतिक सत्ता दिला सकते हैं) में अकेले नैनीताल जनपद से कांग्रेस की 'तीन देवियाँ' इंदिरा हृदयेश, अमृता रावत व सरिता आर्य विजय रही हैं, उनके साथ ही शैलारानी रावत कांग्रेस से तथा भाजपा से पूर्व मंत्री विजय लक्ष्मी बडथ्वाल भी जीती हैं, और पहली बार राज्य में महिला विधायको की संख्या एक बढ़कर पांच पहुंची है. इंदिरा ने तो 42,627 वोट प्राप्त कर रिकार्ड 23,583 मतों के अंतर से जीत दर्ज की है. वहीँ सरिता ने आजादी के बाद नैनीताल की पहली महिला विधायक और राज्य की पहली अनुसूचित वर्ग की महिला विधायक चुनकर इतिहास रच दिया है. अलबत्ता अमृता की जीत में उनके पति 'महाराज' का भी योगदान है. आगे इनमें से कोई महिला सत्ता शीर्ष पर पहुँच जाए तो आश्चर्य न कीजियेगा.
गोविन्द सिंह बिष्ट व खजान दास को भाजपा द्वारा विधान सभा का टिकट ही न दिए जाने और अब मातबर सिंह कन्दरे के अपने साधू भाई से अनपेक्षित चुनाव हार जाने के बाद प्रदेश में किसी भी शिक्षा मंत्री के चुनाव न जीत पाने का मिथक बरकरार रहा है. अब गंगोत्री में कांग्रेस प्रत्यासी विजय पाल सिंह सजवाण की जीत के बाद उन्हीं की पार्टी की सरकार बनाने का मिथक देखना बाकी है.