यह कहानी तब से शुरू होती है जब फटी क्या जींस ही नहीं होती थी। हम बच्चे स्कूल की पहली कक्षा में खरीदी खद्दर की खाकी पैंट को उसी नहीं, हर कक्षा में पहन लेते थे और यह हर कक्षा में साथ चलती हुई फटी-रिप्ड, टल्लेमारी-डैमेज्ड और शॉर्ट्स का अहसास दिलाती हुई चलती रहती थी। और साहब लोगों के बच्चे इस्त्री की हुई पूरे बाजू की पैंटें पहनते थे।
फिर 90 के दशक में एक दिन दिल्ली में, अक्टूबर का महीना। महानगर के एक व्यस्ततम रेड लाइट युक्त चौराहे पर शाम को घर लौटते लोग। सभी को घर पहुंचने की शीघ्रता, हवा में ठंडक। रुके वाहनों के पास कुछ बेचते या भीख मांगते लोगों के लिए एक मौका। भीख मांगने वालों में एक अठारह-बीस साल की लड़की, सुंदर, वस्त्र स्वच्छ, परंतु जगह-जगह से जर्जर। एक ही धोती में लिपटा उसका असहज शरीर ठंड से बचने की प्रयास में है। वहीं एक एयरकंडीशन्ड गाड़ी में एक नवयौवना को अपने सामान्य वस्त्रों में भी ऊष्णता हो रही है। वह अपने शरीर से कपड़ों का बोझ कम करती जा रही है और केवल अंतः वस्त्रों में रह गई है। पर शायद उसके साथ बैठा युवक पूर्ण वस्त्रों में भी सहज है। फिर भी इधर किसी की दृष्टि नहीं है। सबकी दृष्टि भीख मांगने वाली लड़की पर है। किसी को वह सुंदरता का प्रतिमान दिखती है, तो कुछ को उसमें ‘असली भारत’ नजर आ रहा है, और कुछ की आंखों में वासना चढ-उतर रही है। उधर से एक विदेशी जोड़ा राम-नाम की दुशाला ओढ़े गुजर रहा है।
पर अब जमाना कभी खदानों में काम करने वाले मजदूरों के लिए बनी और फटी या फाड़ी गई समाजवादी जींस का है। इस फटी जींस ने उन लोगों को असहज होने से बचा लिया है जिनके पास जींस नहीं है, या फटी हुई है, या डैमेज्ड या रिप्ड है। क्योंकि जिनके पास है, उन्होंने उसे डैमेज्ड-रिप्ड बना लिया है। सही कहते थे लोग, समय और फैशन स्वयं को दोहराता है। हमारे बचपन की पैंटें अब साहब लोगो के बच्चे ‘सहजता’ से पहनने लगे हैं। सही कहते हैं लोग फटी जींस नहीं, ऐसी सोच समाज के लिए हानिकारक है। खासकर उन लोगों की सोच जो खुद ही डैमेज्ड, रिप्ड व शॉटर््स के जमाने के लोग है। बेहतर है, वह चुप ही रहें। समाजवादी जींस में संस्कार न ढूंढें। और ढंूढना ही तो ‘जारा’ के स्टोर्स पर जाएं और महंगे चीथड़ों की शॉपिंग कर आएं।
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